ज्ञानवर्धक कथाएं - भाग – 11
लक्ष्मीजी कहाँ रहती हैं?
एक बूढे सेठ थे। वे खानदानी रईस थे, धन-ऐश्वर्य
प्रचुर मात्रा में था परंतु लक्ष्मीजी का तो है चंचल स्वभाव। आज यहाँ तो कल वहाँ!
सेठ ने एक रात को स्वप्न में देखा कि एक स्त्री उनके घर के दरवाजे से निकलकर बाहर
जा रही है।
उन्होंने पूछा : ‘‘हे देवी आप कौन
हैं?
मेरे घर में आप कब आयीं और मेरा घर छोड़ कर आप क्यों और कहाँ जा रही
हैं?
वह स्त्री बोली : ‘‘मैं तुम्हारे घर
की वैभव लक्ष्मी हूँ। कई पीढयों से मैं यहाँ निवास कर रही हूँ किन्तु अब मेरा समय
यहाँ पर समाप्त हो गया है इसलिए मैं यह घर छोड़ कर जा रही हूँ। मैं तुम पर अत्यंत
प्रसन्न हूँ क्योंकि जितना समय मैं तुम्हारे पास रही, तुमने
मेरा सदुपयोग किया। संतों को घर पर आमंत्रित करके उनकी सेवा की, गरीबों को भोजन कराया, धर्मार्थ कुएँ-तालाब बनवाये,
गौशाला व प्याऊ बनवायी । तुमने लोक-कल्याण के कई कार्य किये। अब
जाते समय मैं तुम्हें वरदान देना चाहती हूँ। जो चाहे मुझसे माँग लो।
सेठ ने कहा : ‘‘मेरी चार बहुएँ है, मैं
उनसे सलाह-मशवरा करके आपको बताऊँगा। आप कृपया कल रात को पधारें। सेठ ने चारों
बहुओं की सलाह ली। उनमें से एक ने अन्न के गोदाम तो दूसरी ने सोने-चाँदी से
तिजोरियाँ भरवाने के लिए कहा।
किन्तु सबसे छोटी बहू धार्मिक
कुटुंब से आयी थी। बचपन से ही सत्संग में जाया करती थी।
उसने कहा : ‘‘पिताजी ! लक्ष्मीजी को
जाना है तो जायेंगी ही और जो भी वस्तुएँ हम उनसे माँगेंगे वे भी सदा नहीं टिकेंगी।
यदि सोने-चाँदी, रुपये-पैसों के ढेर माँगेगें तो हमारी आनेवाली पीढी के
बच्चे अहंकार और आलस में अपना जीवन बिगाड देंगे। इसलिए आप लक्ष्मीजी से कहना कि वे
जाना चाहती हैं तो अवश्य जायें किन्तु हमें यह वरदान दें कि हमारे घर में सज्जनों
की सेवा-पूजा, हरि-कथा सदा होती रहे तथा हमारे परिवार के
सदस्यों में आपसी प्रेम बना रहे क्योंकि परिवार में प्रेम होगा तो विपत्ति के दिन
भी आसानी से कट जायेंगे।
दूसरे दिन रात को लक्ष्मीजी ने
स्वप्न में आकर सेठ से पूछा : ‘‘तुमने अपनी बहुओं से सलाह-मशवरा कर लिया? क्या
चाहिए तुम्हें?
सेठ ने कहा : ‘‘हे माँ लक्ष्मी!
आपको जाना है तो प्रसन्नता से जाइये परंतु मुझे यह वरदान दीजिये कि मेरे घर में
हरि-कथा तथा संतो की सेवा होती रहे तथा परिवार के सदस्यों में परस्पर प्रेम बना
रहे।
यह सुनकर लक्ष्मीजी चौंक गयीं और
बोलीं : ‘‘यह तुमने क्या माँग लिया। जिस घर में हरि-कथा और संतो की सेवा होती हो
तथा परिवार के सदस्यों में परस्पर प्रीति रहे वहाँ तो साक्षात् नारायण का निवास
होता है और जहाँ नारायण रहते हैं वहाँ मैं तो उनके चरण पलोटती (दबाती) हूँ और मैं
चाहकर भी उस घर को छोडकर नहीं जा सकती। यह वरदान माँगकर तुमने मुझे यहाँ रहने के
लिए विवश कर दिया है।
👉 सीख के उपहार।।।।।।
प्राचीन मिथिला देश में नरहन (सरसा)
राज्य का भी बड़ा महत्व था। वहां का राजा बड़ा उदार और विद्वान् था। अपनी प्रजा के
प्रति सदैव वात्सल्य भाव रखता था। प्रजा को वह सन्तान की तरह चाहता था, प्रजा
भी उसे पिता की तरह मानती थी। किन्तु उसकी राजधानी में एक गरीब आदमी था, जो हर घड़ी राजा की आलोचना किया करता। राजा को इस बात की जानकरी थी किन्तु
वे इस आलोचना के प्रति उपेक्षा भाव ही रखते।
एक दिन राजा ने इस बारे में
गम्भीरता से सोचा। फिर अपने सेवक को ‘गेहूं के आटे के बडे मटके’, ‘वस्त्र
धोने का क्षार’, ‘गुड़ की ढेलियां’ बैलगाड़ी पर लाद कर उसके
यहां भेजा।
राजा से उपहार में इन वस्तुओं को
पाकर वह आदमी गर्व से फूल उठा। हो न हो, राजा ने ये वस्तुएँ उससे
डर कर भेजी हैं। सामान को घर में रखकर वह अभिमान के साथ राजगुरु के पास पहुँचा।
सारी बात बताकर बोला, “गुरुदेव! आप मुझसे हमेशा चुप रहने को
कहा करते थे। यह देखिये, राजा मुझसे डरता है।”
राजगुरु बोले, “बलिहारी
है तुम्हारी समझ की! अरे! राजा को अपने अपयश का डर नहीं है उसे मात्र यह चिंता है
कि तुम्हारी आलोचनाओं पर विश्वास करके कोई अभिलाषी याचना से ही वंचित न रह जाये।
राजा ने इन उपहारों द्वारा तुम्हें सार्थक सीख देने का प्रयास किया है। वह यह कि
हर समय मात्र निंदा में ही रत न रहो, संतुष्ट रहो, शुभ-चिंतन करो और मधुर संभाषण भी कर लिया करो। आटे के यह मटके तुम्हारे
पेट पुष्टि के साथ तुम्हारे संतुष्ट भाव के लिए हैं, क्षार
तुम्हारे वस्त्रों के मैल दूर करने के साथ ही मन का मैल दूर करने के लिए है और
गुड़ की ये ढेलियां तुम्हारी कड़ुवी जबान को मीठा बनाने के लिए हैं।”
👉 बोल तू मीठे बोल:-
दास प्रथा के दिनों में एक मालिक के
पास अनेकों गुलाम हुआ करते थे। उन्हीं में से एक था लुक़मान। लुक़मान था तो सिर्फ एक
गुलाम लेकिन वह बड़ा ही चतुर और बुद्धिमान था। उसकी ख्याति दूर दराज़ के इलाकों में
फैलने लगी थी।
एक दिन इस बात की खबर उसके मालिक को
लगी। मालिक ने लुक़मान को बुलाया और कहा- “सुनते हैं, कि तुम बहुत
बुद्धिमान हो। मैं तुम्हारी बुद्धिमानी की परीक्षा लेना चाहता हूँ। अगर तुम
इम्तिहान में पास हो गए तो तुम्हें गुलामी से छुट्टी दे दी जाएगी।
अच्छा जाओ, एक
मरे हुए बकरे को काटो और उसका जो हिस्सा बढ़िया हो, उसे ले
आओ।“ लुक़मान ने आदेश का पालन किया और मरे हुए बकरे की जीभ लाकर मालिक के सामने रख
दी। कारण पूछने पर कि जीभ ही क्यों लाया ! लुक़मान ने कहा- “अगर शरीर में जीभ अच्छी
हो तो सब कुछ अच्छा-ही-अच्छा होता है।“
मालिक ने आदेश देते हुए कहा-
“अच्छा! इसे उठा ले जाओ और अब बकरे का जो हिस्सा बुरा हो उसे ले आओ।”
लुक़मान बाहर गया, थोड़ी
ही देर में उसने उसी जीभ को लाकर मालिक के सामने फिर रख दिया। फिर से कारण पूछने
पर लुक़मान ने कहा- “अगर शरीर में जीभ अच्छी नहीं तो सब बुरा-ही-बुरा है।"
उसने आगे कहते हुए कहा- “मालिक!
वाणी तो सभी के पास जन्मजात होती है, परन्तु बोलना किसी-किसी को
ही आता है…क्या बोलें? कैसे शब्द बोलें, कब बोलें।। इस एक कला को बहुत ही कम लोग जानते हैं। एक बात से प्रेम झरता
है और दूसरी बात से झगड़ा होता है।
कड़वी बातों ने संसार में न जाने
कितने झगड़े पैदा किए हैं। इस जीभ ने ही दुनिया में बड़े-बड़े कहर ढाए हैं। जीभ तीन
इंच का वो हथियार है जिससे कोई छः फिट के आदमी को भी मार सकता है तो कोई मरते हुए
इंसान में भी प्राण फूंक सकता है। संसार के सभी प्राणियों में वाणी का वरदान मात्र
मानव को ही मिला है। उसके सदुपयोग से स्वर्ग पृथ्वी पर उतर सकता है और दुरूपयोग से
स्वर्ग भी नरक में परिणत हो सकता है। भारत के विनाशकारी महाभारत का युद्ध वाणी के
गलत प्रयोग का ही परिणाम था। “
मालिक, लुक़मान
की बुद्धिमानी और चतुराई भरी बातों को सुनकर बहुत खुश हुए; आज
उनके गुलाम ने उन्हें एक बहुत बड़ी सीख दी थी और उन्होंने उसे आजाद कर दिया।
मित्रों, मधुर
वाणी एक वरदान है जो हमें लोकप्रिय बनाती है वहीँ कर्कश या तीखी बोली हमें अपयश
दिलाती है और हमारी प्रतिष्ठा को कम करती है। आपकी वाणी कैसी है? यदि वो तीखी है या सामान्य भी है तो उसे मीठा बनाने का प्रयास करिये। आपकी
वाणी आपके व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब है, उसे अच्छा होना ही
चाहिए।
👉 समोसे वाला
एक बडी कंपनी के गेट के सामने एक
प्रसिद्ध समोसे की दुकान थी, लंच टाइम मे अक्सर कंपनी के कर्मचारी
वहाँ आकर समोसे खाया करते थे।
एक दिन कंपनी के एक मैनेजर समोसे
खाते खाते समोसे वाले से मजाक के मूड मे आ गये।
मैनेजर साहब ने समोसे वाले से कहा, "यार गोपाल, तुम्हारी दुकान तुमने बहुत अच्छे से maintain
की है, लेकीन क्या तुम्हें नहीं लगता के तुम
अपना समय और टैलेंट समोसे बेचकर बर्बाद कर रहे हो।? सोचो अगर
तुम मेरी तरह इस कंपनी मे काम कर रहे होते तो आज कहा होते।। हो सकता है शायद तुम
भी आज मैंनेजर होते मेरी तरह।।"
इस बात पर समोसेवाले गोपाल ने बडा
सोचा,
और बोला, " सर ये मेरा काम आपके काम से
कही बेहतर है, 10 साल पहले जब मैं टोकरी में समोसे बेचता था
तभी आपकी जाब लगी थी, तब मैं महीना हजार रुपये कमाता था और
आपकी पगार थी 10 हजार।
इन 10 सालो में हम दोनों ने खूब
मेहनत की।।
आप सुपरवाइजर से मॅनेजर बन गये।
और मैं टोकरी से इस प्रसिद्ध दुकान
तक पहुँच गया।
आज आप महीना 50,000 कमाते है
और मैं महीना 2,00,000
लेकिन इस बात के लिए मैं मेरे काम
को आपके काम से बेहतर नहीं कह रहा हूँ।
ये तो मैं बच्चों के कारण कह रहा
हूँ।
जरा सोचिए सर मैंने तो बहुत कम कमाई
पर धंधा शुरू किया था, मगर मेरे बेटे को यह सब नहीं झेलना पडेगा।
मेरी दुकान मेरे बेटे को मिलेगी, मैंने
जिंदगी में जो मेहनत की है, वो उसका लाभ मेरे बच्चे उठाएंगे।
जबकि आपकी जिंदगी भर की मेहनत का लाभ आपके मालिक के बच्चे उठाएंगे।
अब आपके बेटे को आप डाइरेक्टली अपनी
पोस्ट पर तो नहीं बिठा सकते ना।। उसे भी आपकी ही तरह जीरो से शुरूआत करनी पडेगी।।
और अपने कार्यकाल के अंत में वही पहुंच जाएगा जहाँ अभी आप हो।
जबकि मेरा बेटा बिजनेस को यहां से
और आगे ले जाएगा।।
और अपने कार्यकाल मे हम सबसे बहुत
आगे निकल जाएगा।।
अब आप ही बताइये किसका समय और
टैलेंट बर्बाद हो रहा है ?"
मैनेजर साहब ने समोसे वाले को 2
समोसे के 20 रुपये दिये और बिना कुछ बोले वहाँ से खिसक लिये।।।।।।।!!!
👉 शिकंजी का स्वाद
एक कालेज का छात्र था जिसका नाम था
रवि। वह बहुत चुपचाप सा रहता था। किसी से ज्यादा बात नहीं करता था इसलिए उसका कोई
दोस्त भी नहीं था। वह हमेशा कुछ परेशान सा रहता था। पर लोग उस पर ज्यादा ध्यान
नहीं देते थे।
एक दिन वह क्लास में पढ़ रहा था। उसे
गुमसुम बैठे देख कर अध्यापक महोदय उसके पास आये और क्लास के बाद मिलने को कहा।
क्लास खत्म होते ही रवि अध्यापक महोदय के कमरे में पहुंचा। रवि मैं देखता हूँ कि
तुम अकसर बड़े गुमसुम और शांत बैठे रहते हो, ना किसी से बात करते हो और
ना ही किसी चीज में रुचि दिखाते हो! इसका क्या कारण है ?” अध्यापक
महोदय ने पुछा।
रवि बोला, मेरा
भूतकाल का जीवन बहुत ही खराब रहा है, मेरी जिन्दगी में कुछ
बड़ी ही दुखदायी घटनाएं हुई हैं, मैं उन्हीं के बारे में सोच
कर परेशान रहता हूँ…।। अध्यापक महोदय ने ध्यान से रवि की बातें सुनी और उसे रविवार
को घर पे बुलाया। रवि नियत समय पर अध्यापक महोदय के घर पहुँच गया। रवि क्या तुम शिकंजी
पीना पसंद करोगे? अध्यापक ने पुछा। जी। रवि ने कहा।
अध्यापक महोदय ने शिकंजी बनाते वक्त
जान बूझ कर नमक अधिक डाल दिया और चीनी की मात्रा
कम ही रखी। शिकंजी का एक घूँट पीते ही रवि ने अजीब सा मुंह बना लिया।
अध्यापक महोदय ने पुछा, क्या
हुआ, तुम्हें ये पसंद नहीं आया क्या? जी,
वो इसमें नमक थोड़ा अधिक पड़ गया है…। रवि अपनी बात कह ही रहा था की
अध्यापक महोदय ने उसे बीच में ही रोकते हुए कहा, ओफ़-ओ,
कोई बात नहीं मैं इसे फेंक देता हूँ, अब ये
किसी काम की नहीं…
ऐसा कह कर अध्यापक महोदय गिलास उठा
ही रहे थे कि रवि ने उन्हें रोकते हुए कहा, नमक थोड़ा सा अधिक हो गया
है तो क्या, हम इसमें थोड़ी और चीनी मिला दें तो ये बिलकुल
ठीक हो जाएगा। बिलकुल ठीक रवि यही तो मैं तुमसे सुनना चाहता था…।अब इस स्थिति की
तुम अपनी जिन्दगी से तुलना करो, शिकंजी में नमक का ज्यादा
होना जिन्दगी में हमारे साथ हुए बुरे अनुभव की तरह है…। और अब इस बात को समझो,
शिकंजी का स्वाद ठीक करने के लिए हम उसमें में से नमक नहीं निकाल
सकते, इसी तरह हम अपने साथ हो चुकी दुखद घटनाओं को अपने जीवन
से अलग नहीं कर सकते, पर जिस तरह हम चीनी डाल कर शिकंजी का
स्वाद ठीक कर सकते हैं उसी तरह पुरानी कड़वाहट मिटाने के लिए जिन्दगी में भी अच्छे
अनुभवों की मिठास घोलनी पड़ती है।
यदि तुम अपने भूत का ही रोना रोते
रहोगे तो ना तुम्हारा वर्तमान सही होगा और ना ही भविष्य उज्ज्वल हो पायेगा।
अध्यापक महोदय ने अपनी बात पूरी की। रवि को अब अपनी गलती का एहसास हो चुका था, उसने
मन ही मन एक बार फिर अपने जीवन को सही दिशा देने का प्रण लिया।
👉 मूर्ख कौन?
किसी गांव में एक सेठ रहता था। उसका
एक ही बेटा था, जो व्यापार के काम से परदेस गया हुआ था। सेठ की बहू एक
दिन कुएँ पर पानी भरने गई। घड़ा जब भर गया तो उसे उठाकर कुएँ के मुंडेर पर रख दिया
और अपना हाथ-मुँह धोने लगी। तभी कहीं से चार राहगीर वहाँ आ पहुँचे। एक राहगीर बोला,
"बहन, मैं बहुत प्यासा हूँ। क्या मुझे
पानी पिला दोगी?"
सेठ की बहू को पानी पिलाने में
थोड़ी झिझक महसूस हुई, क्योंकि वह उस समय कम कपड़े पहने हुए थी।
उसके पास लोटा या गिलास भी नहीं था जिससे वह पानी पिला देती। इसी कारण वहाँ उन
राहगीरों को पानी पिलाना उसे ठीक नहीं लगा।
बहू ने उससे पूछा, "आप कौन हैं?"
राहगीर ने कहा, "मैं एक यात्री हूँ"
बहू बोली, "यात्री तो संसार में केवल दो ही होते हैं, आप उन
दोनों में से कौन हैं? अगर आपने मेरे इस सवाल का सही जवाब दे
दिया तो मैं आपको पानी पिला दूंगी। नहीं तो मैं पानी नहीं पिलाऊंगी।"
बेचारा राहगीर उसकी बात का कोई जवाब
नहीं दे पाया।
तभी दूसरे राहगीर ने पानी पिलाने की
विनती की।
बहू ने दूसरे राहगीर से पूछा, "अच्छा तो आप बताइए कि आप कौन हैं?"
दूसरा राहगीर तुरंत बोल उठा, "मैं तो एक गरीब आदमी हूँ।"
सेठ की बहू बोली, "भइया, गरीब तो केवल दो ही होते हैं। आप उनमें से कौन
हैं?"
प्रश्न सुनकर दूसरा राहगीर चकरा गया।
उसको कोई जवाब नहीं सूझा तो वह चुपचाप हट गया।
तीसरा राहगीर बोला, "बहन, मुझे बहुत प्यास लगी है। ईश्वर के लिए तुम मुझे
पानी पिला दो"
बहू ने पूछा, "अब आप कौन हैं?"
तीसरा राहगीर बोला, "बहन, मैं तो एक अनपढ़ गंवार हूँ।"
यह सुनकर बहू बोली, "अरे भाई, अनपढ़ गंवार तो इस संसार में बस दो ही होते
हैं, आप उनमें से कौन हैं?'
बेचारा तीसरा राहगीर भी कुछ बोल
नहीं पाया।
अंत में चौथा राहगीह आगे आया और
बोला,
"बहन, मेहरबानी करके मुझे पानी पिला दें।
प्यासे को पानी पिलाना तो बड़े पुण्य का काम होता है।"
सेठ की बहू बड़ी ही चतुर और होशियार
थी, उसने चौथे राहगीर से पूछा, "आप कौन हैं?"
वह राहगीर अपनी खीज छिपाते हुए बोला, "मैं तो।। बहन बड़ा ही मूर्ख हूँ।"
बहू ने कहा, "मूर्ख तो संसार में केवल दो ही होते हैं। आप उनमें से कौन हैं?"
वह बेचारा भी उसके प्रश्न का उत्तर
नहीं दे सका। चारों पानी पिए बगैर ही वहाँ से जाने लगे तो बहू बोली, "यहाँ से थोड़ी ही दूर पर मेरा घर है। आप लोग कृपया वहीं चलिए। मैं आप
लोगों को पानी पिला दूंगी"
चारों राहगीर उसके घर की तरफ चल
पड़े। बहू ने इसी बीच पानी का घड़ा उठाया और छोटे रास्ते से अपने घर पहुँच गई।
उसने घड़ा रख दिया और अपने कपड़े ठीक तरह से पहन लिए।
इतने में वे चारों राहगीर उसके घर
पहुँच गए। बहू ने उन सभी को गुड़ दिया और पानी पिलाया। पानी पीने के बाद वे राहगीर
अपनी राह पर चल पड़े।
सेठ उस समय घर में एक तरफ बैठा यह
सब देख रहा था। उसे बड़ा दुःख हुआ। वह सोचने लगा, इसका पति तो
व्यापार करने के लिए परदेस गया है, और यह उसकी गैर हाजिरी
में पराए मर्दों को घर बुलाती है। उनके साथ हँसती बोलती है। इसे तो मेरा भी लिहाज
नहीं है। यह सब देख अगर मैं चुप रह गया तो आगे से इसकी हिम्मत और बढ़ जाएगी। मेरे
सामने इसे किसी से बोलते बतियाते शर्म नहीं आती तो मेरे पीछे न जाने क्या-क्या
करती होगी। फिर एक बात यह भी है कि बीमारी कोई अपने आप ठीक नहीं होती। उसके लिए
वैद्य के पास जाना पड़ता है। क्यों न इसका फैसला राजा पर ही छोड़ दूं। यही सोचता
वह सीधा राजा के पास जा पहुँचा और अपनी परेशानी बताई। सेठ की सारी बातें सुनकर
राजा ने उसी वक्त बहू को बुलाने के लिए सिपाही बुलवा भेजे और उनसे कहा,
"तुरंत सेठ की बहू को राज सभा में उपस्थित किया जाए।"
राजा के सिपाहियों को अपने घर पर
आया देख उस सेठ की पत्नी ने अपनी बहू से पूछा, "क्या बात है बहू
रानी? क्या तुम्हारी किसी से कहा-सुनी हो गई थी जो उसकी
शिकायत पर राजा ने तुम्हें बुलाने के लिए सिपाही भेज दिए?"
बहू ने सास की चिंता को दूर करते
हुए कहा,
"नहीं सासू मां, मेरी किसी से कोई
कहा-सुनी नहीं हुई है। आप जरा भी फिक्र न करें।"
सास को आश्वस्त कर वह सिपाहियों से
बोली,
"तुम पहले अपने राजा से यह पूछकर आओ कि उन्होंने मुझे किस रूप
में बुलाया है। बहन, बेटी या फिर बहू के रुप में? किस रूप में उनकी राजसभा में मैं आऊँ?"
बहू की बात सुन सिपाही वापस चले गए।
उन्होंने राजा को सारी बातें बताई। राजा ने तुरंत आदेश दिया कि पालकी लेकर जाओ और
कहना कि उसे बहू के रूप में बुलाया गया है।
सिपाहियों ने राजा की आज्ञा के
अनुसार जाकर सेठ की बहू से कहा, "राजा ने आपको बहू के रूप में आने
के ले पालकी भेजी है।"
बहू उसी समय पालकी में बैठकर राज
सभा में जा पहुँची।
राजा ने बहू से पूछा, "तुम दूसरे पुरूषों को घर क्यों बुला लाईं, जबकि
तुम्हारा पति घर पर नहीं है?"
बहू बोली, "महाराज, मैंने तो केवल कर्तव्य का पालन किया। प्यासे
पथिकों को पानी पिलाना कोई अपराध नहीं है। यह हर गृहिणी का कर्तव्य है। जब मैं
कुएँ पर पानी भरने गई थी, तब तन पर मेरे कपड़े अजनबियों के
सम्मुख उपस्थित होने के अनुरूप नहीं थे। इसी कारण उन राहगीरों को कुएँ पर पानी
नहीं पिलाया। उन्हें बड़ी प्यास लगी थी और मैं उन्हें पानी पिलाना चाहती थी।
इसीलिए उनसे मैंने मुश्किल प्रश्न पूछे और जब वे उनका उत्तर नहीं दे पाए तो उन्हें
घर बुला लाई। घर पहुँचकर ही उन्हें पानी पिलाना उचित था।"
राजा को बहू की बात ठीक लगी। राजा
को उन प्रश्नों के बारे में जानने की बड़ी उत्सुकता हुई जो बहू ने चारों राहगीरों
से पूछे थे।
राजा ने सेठ की बहू से कहा, "भला मैं भी तो सुनूं कि वे कौन से प्रश्न थे जिनका उत्तर वे लोग नहीं दे
पाए?"
बहू ने तब वे सभी प्रश्न दुहरा दिए।
बहू के प्रश्न सुन राजा और सभासद चकित रह गए। फिर राजा ने उससे कहा, "तुम खुद ही इन प्रश्नों के उत्तर दो। हम अब तुमसे यह जानना चाहते हैं।"
बहू बोली, "महाराज, मेरी दृष्टि में पहले प्रश्न का उत्तर है कि
संसार में सिर्फ दो ही यात्री हैं– सूर्य और चंद्रमा। मेरे दूसरे प्रश्न का उत्तर
है कि बहू और गाय इस पृथ्वी पर ऐसे दो प्राणी हैं जो गरीब हैं। अब मैं तीसरे
प्रश्न का उत्तर सुनाती हूं। महाराज, हर इंसान के साथ हमेशा
अनपढ़ गंवारों की तरह जो हमेशा चलते रहते हैं वे हैं– भोजन और पानी। चौथे आदमी ने
कहा था कि वह मूर्ख है, और जब मैंने उससे पूछा कि मूर्ख तो
दो ही होते हैं, तुम उनमें से कौन से मूर्ख हो तो वह उत्तर
नहीं दे पाया।" इतना कहकर वह चुप हो गई।
राजा ने बड़े आश्चर्य से पूछा, "क्या तुम्हारी नजर में इस संसार में सिर्फ दो ही मूर्ख हैं?"
"हाँ, महाराज,
इस घड़ी, इस समय मेरी नजर में सिर्फ दो ही
मूर्ख हैं।"
राजा ने कहा, "तुरंत बतलाओ कि वे दो मूर्ख कौन हैं।"
इस पर बहू बोली, "महाराज, मेरी जान बख्श दी जाए तो मैं इसका उत्तर दूं।"
राजा को बड़ी उत्सुकता थी यह जानने
की कि वे दो मूर्ख कौन हैं। सो, उसने तुरंत बहू से कह दिया,
"तुम निःसंकोच होकर कहो। हम वचन देते हैं तुम्हें कोई सज़ा
नहीं दी जाएगी।"
बहू बोली, "महाराज, मेरे सामने इस वक्त बस दो ही मूर्ख हैं।"
फिर अपने ससुर की ओर हाथ जोड़कर कहने लगी, "पहले मूर्ख
तो मेरे ससुर जी हैं जो पूरी बात जाने बिना ही अपनी बहू की शिकायत राजदरबार में की।
अगर इन्हें शक हुआ ही था तो यह पहले मुझसे पूछ तो लेते, मैं
खुद ही इन्हें सारी बातें बता देती। इस तरह घर-परिवार की बेइज्जती तो नहीं होती।"
ससुर को अपनी गलती का अहसास हुआ।
उसने बहू से माफ़ी मांगी। बहू चुप रही।
राजा ने तब पूछा, "और दूसरा मूर्ख कौन है?"
बहू ने कहा, "दूसरा मूर्ख खुद इस राज्य का राजा है जिसने अपनी बहू की मान-मर्यादा का
जरा भी खयाल नहीं किया और सोचे-समझे बिना ही बहू को भरी राजसभा में बुलवा लिया।"
बहू की बात सुनकर राजा पहले तो
क्रोध से आग बबूला हो गया, परंतु तभी सारी बातें उसकी समझ में आ गईं।
समझ में आने पर राजा ने बहू को उसकी समझदारी और चतुराई की सराहना करते हुए उसे ढेर
सारे पुरस्कार देकर सम्मान सहित विदा किया।
👉 परेशानियों का हल
एक व्यक्ति काफी दिनों से चिंतित चल
रहा था जिसके कारण वह काफी चिड़चिड़ा तथा तनाव में रहने लगा था। वह इस बात से
परेशान था कि घर के सारे खर्चे उसे ही उठाने पड़ते हैं, पूरे
परिवार की जिम्मेदारी उसी के ऊपर है, किसी ना किसी रिश्तेदार
का उसके यहाँ आना जाना लगा ही रहता है, उसे बहुत ज्यादा INCOME
TAX देना पड़ता है आदि - आदि।
इन्ही बातों को सोच सोच कर वह काफी
परेशान रहता था तथा बच्चों को अक्सर डांट देता था तथा अपनी पत्नी से भी ज्यादातर
उसका किसी न किसी बात पर झगड़ा चलता रहता था।
एक दिन उसका बेटा उसके पास आया और
बोला पिताजी मेरा स्कूल का होमवर्क करा दीजिये, वह व्यक्ति पहले से ही
तनाव में था तो उसने बेटे को डांट कर भगा दिया लेकिन जब थोड़ी देर बाद उसका गुस्सा
शांत हुआ तो वह बेटे के पास गया तो देखा कि बेटा सोया हुआ है और उसके हाथ में उसके
होमवर्क की कॉपी है। उसने कॉपी लेकर देखी और जैसे ही उसने कॉपी नीचे रखनी चाही,
उसकी नजर होमवर्क के टाइटल पर पड़ी।
होमवर्क का टाइटल था ••• वे चीजें
जो हमें शुरू में अच्छी नहीं लगतीं लेकिन बाद में वे अच्छी ही होती हैं। इस टाइटल
पर बच्चे को एक पैराग्राफ लिखना था जो उसने लिख लिया था। उत्सुकतावश उसने बच्चे का
लिखा पढना शुरू किया बच्चे ने लिखा था
मैं अपने फाइनल एग्जाम को बहुंत
धन्यवाद् देता हूँ क्योंकि शुरू में तो ये बिलकुल अच्छे नहीं लगते लेकिन इनके बाद
स्कूल की छुट्टियाँ पड़ जाती हैं। मैं ख़राब स्वाद वाली कड़वी दवाइयों को बहुत
धन्यवाद् देता हूँ क्योंकि शुरू में तो ये कड़वी लगती हैं लेकिन ये मुझे बीमारी से
ठीक करती हैं।
मैं सुबह - सुबह जगाने वाली उस
अलार्म घड़ी को बहुत धन्यवाद् देता हूँ जो मुझे हर सुबह बताती है कि मैं जीवित
हूँ। मैं ईश्वर को भी बहुत धन्यवाद देता हूँ जिसने मुझे इतने अच्छे पिता दिए
क्योंकि उनकी डांट मुझे शुरू में तो बहुत बुरी लगती है लेकिन वो मेरे लिए खिलौने
लाते हैं,
मुझे घुमाने ले जाते हैं और मुझे अच्छी अच्छी चीजें खिलाते हैं और
मुझे इस बात की ख़ुशी है कि मेरे पास पिता हैं क्योंकि मेरे दोस्त सोहन के तो पिता
ही नहीं हैं।
बच्चे का होमवर्क पढने के बाद वह
व्यक्ति जैसे अचानक नींद से जाग गया हो। उसकी सोच बदल सी गयी। बच्चे की लिखी बातें
उसके दिमाग में बार बार घूम रही थी। खासकर वह last वाली लाइन। उसकी नींद
उड़ गयी थी। फिर वह व्यक्ति थोडा शांत होकर बैठा और उसने अपनी परेशानियों के बारे
में सोचना शुरू किया।
मुझे घर के सारे खर्चे उठाने पड़ते हैं, इसका
मतलब है कि मेरे पास घर है और ईश्वर की कृपा से मैं उन लोगों से बेहतर स्थिति में
हूँ जिनके पास घर नहीं है। मुझे पूरे परिवार की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है,
इसका मतलब है कि मेरा परिवार है, बीवी बच्चे
हैं और ईश्वर की कृपा से मैं उन लोगों से ज्यादा खुशनसीब हूँ जिनके पास परिवार
नहीं हैं और वो दुनियाँ में बिल्कुल अकेले हैं।
मेरे यहाँ कोई ना कोई मित्र या
रिश्तेदार आता जाता रहता है, इसका मतलब है कि मेरी एक सामाजिक
हैसियत है और मेरे पास मेरे सुख दुःख में साथ देने वाले लोग हैं। मैं बहुत ज्यादा INCOME
TAX भरता हूँ, इसका मतलब है कि मेरे पास अच्छी
नौकरी/व्यापार है और मैं उन लोगों से बेहतर हूँ जो बेरोजगार हैं या पैसों की वजह
से बहुत सी चीजों और सुविधाओं से वंचित हैं।
हे! मेरे भगवान् ! तेरा बहुंत बहुंत
शुक्रिया••• मुझे माफ़ करना, मैं तेरी कृपा को पहचान नहीं पाया।
इसके बाद उसकी सोच एकदम से बदल गयी, उसकी
सारी परेशानी, सारी चिंता एक दम से जैसे ख़त्म हो गयी। वह
एकदम से बदल सा गया। वह भागकर अपने बेटे के पास गया और सोते हुए बेटे को गोद में
उठाकर उसके माथे को चूमने लगा और अपने बेटे को तथा ईश्वर को धन्यवाद देने लगा।
हमारे सामने जो भी परेशानियाँ हैं, हम
जब तक उनको नकारात्मक नज़रिये से देखते रहेंगे तब तक हम परेशानियों से घिरे रहेंगे
लेकिन जैसे ही हम उन्हीं चीजों को, उन्ही परिस्तिथियों को
सकारात्मक नज़रिये से देखेंगे, हमारी सोच एकदम से बदल जाएगी,
हमारी सारी चिंताएं, सारी परेशानियाँ, सारे तनाव एक दम से ख़त्म हो जायेंगे और हमें मुश्किलों से निकलने के नए -
नए रास्ते दिखाई देने लगेंगे।
👉 परमात्मा के साथ
एक 6 साल का छोटा सा बच्चा अक्सर
परमात्मा से मिलने की जिद किया करता था। उसे परमात्मा के बारे में कुछ भी पता नही
था पर मिलने की तमन्ना, भरपूर थी। उसकी चाहत थी की एक समय की रोटी
वो परमात्मा के सांथ खाये।
एक दिन उसने 1 थैले में 5,6 रोटियां
रखीं और परमात्मा को को ढूंढने निकल पड़ा। चलते चलते वो बहुत दूर निकल आया संध्या
का समय हो गया। उसने देखा नदी के तट पर एक बुजुर्ग बूढ़ा बैठा हैं,जिनकी
आँखों में बहुत गजब की चमक थी, प्यार था,और ऐसा लग रहा था जैसे उसी के इन्तजार में वहां बैठा उसका रास्ता देख रहा
हों।
वो 6 साल का मासूम बालक बुजुर्ग
बूढ़े के पास जा कर बैठ गया, अपने थैले में से रोटी निकाली और खाने लग
गया।और उसने अपना रोटी वाला हाँथ बूढे की ओर बढ़ाया और मुस्कुरा के देखने लगा,
बूढे ने रोटी ले ली, बूढ़े के झुर्रियों वाले
चेहरे पे अजीब सी ख़ुशी आ गई आँखों में ख़ुशी के आंसू भी थे,,
बच्चा बुढ़े को देखे जा रहा था , जब
बुढ़े ने रोटी खा ली बच्चे ने 1 और रोटी बूढ़े
को दी। बूढ़ा अब बहुत खुश था। बच्चा भी बहुत खुश था। दोनों ने आपस में बहुत
प्यार और स्नेह केे पल बिताये।,,,,
जब रात घिरने लगी तो बच्चा इजाजत ले
घर की ओर चलने लगा वो बार बार पीछे मुड कर
देखता ! तो पाता बुजुर्ग बूढ़ा उसी की ओर देख रहा था। बच्चा घर पहुंचा तो माँ ने
अपने बेटे को आया देख जोर से गले से लगा लिया और चूमने लगी, बच्चा
बहूत खुश था। माँ ने अपने बच्चे को इतना खुश पहली बार देखा तो ख़ुशी का कारण पूछा,
तो बच्चे ने बताया!
माँ,।।।।आज मैंने
परमात्मा के साथ बैठ क्ऱ रोटी खाई, आपको पता है उन्होंने भी
मेरी रोटी खाई,,, माँ परमात्मा् बहुत बूढ़े हो गये हैं,,,
मैं आज बहुत खुश हूँ माँ उस तरफ बुजुर्ग बूढ़ा भी जब अपने गाँव
पहूँचा तो गाव वालों ने देखा बूढ़ा बहुत खुश हैं,तो किसी ने
उनके इतने खुश होने का कारण पूछा??
बूढ़ा बोलां,,,, मैं 2 दिन से नदी के तट पर अकेला भूखा बैठा था,, मुझे
पता था परमात्मा आएंगे और मुझे खाना खिलाएंगे। आज भगवान् आए थे, उन्होंने मेरे सांथ बैठ के रोटी खाई मुझे भी बहुत प्यार से खिलाई, बहुत प्यार से मेरी और देखते थे, जाते समय मुझे गले
भी लगाया, परमात्मा बहुत ही मासूम हैं बच्चे की तरह दिखते
हैं।
👉 हमारी सोच :-
बहुत समय पहले की बात है, किसी
गाँव में एक किसान रहता था। उस किसान की एक बहुत ही सुन्दर बेटी थी। दुर्भाग्यवश,
गाँव के जमींदार से उसने बहुत सारा धन उधार लिया हुआ था। जमीनदार
बूढा और कुरूप था।
किसान की सुंदर बेटी को देखकर उसने
सोचा क्यूँ न कर्जे के बदले किसान के सामने उसकी बेटी से विवाह का प्रस्ताव रखा
जाये। जमींदार किसान के पास गया और उसने कहा – तुम अपनी बेटी का विवाह मेरे साथ कर
दो, बदले में मैं तुम्हारा सारा कर्ज माफ़ कर दूंगा।
जमींदार की बात सुन कर किसान और
किसान की बेटी के होश उड़ गए। वो कुछ उत्तर न दे पाये। तब जमींदार ने कहा – चलो
गाँव की पंचायत के पास चलते हैं और जो निर्णय वे लेंगे उसे हम दोनों को ही मानना
होगा।
वो सब मिल कर पंचायत के पास गए और
उन्हें सब कह सुनाया। उनकी बात सुन कर पंचायत ने थोडा सोच विचार किया और कहा- ये
मामला बड़ा उलझा हुआ है अतः हम इसका फैसला किस्मत पर छोड़ते हैं।
जमींदार सामने पड़े सफ़ेद और काले
रोड़ों के ढेर से एक काला और एक सफ़ेद रोड़ा उठाकर एक थैले में रख देगा। फिर लड़की बिना देखे उस थैले से एक रोड़ा
उठाएगी,
और उस आधार पर उसके पास तीन विकल्प होंगे:
1। अगर वो काला रोड़ा उठाती है तो
उसे जमींदार से शादी करनी पड़ेगी और उसके पिता का कर्ज माफ़ कर दिया जायेगा।
2। अगर वो सफ़ेद पत्थर उठती है तो उसे
जमींदार से शादी नहीं करनी पड़ेगी और उसके पिता का कर्फ़ भी माफ़ कर दिया जायेगा।
3। अगर लड़की पत्थर उठाने से मना
करती है तो उसके पिता को जेल भेज दिया जायेगा। पंचायत के आदेशानुसार जमींदार झुका
और उसने दो रोड़े उठा लिए। जब वो रोड़ा उठा रहा था तो तब किसान की बेटी ने देखा कि
उस जमींदार ने दोनों काले रोड़े ही उठाये हैं और उन्हें थैले में डाल दिया है।
लड़की इस स्थिति से घबराये बिना
सोचने लगी कि वो क्या कर सकती है, उसे तीन रास्ते नज़र आये:-
1। वह रोड़ा उठाने से मना कर दे और
अपने पिता को जेल जाने दे।
2। सबको बता दे कि जमींदार दोनों
काले पत्थर उठा कर सबको धोखा दे रहा हैं।
3। वह चुप रह कर काला पत्थर उठा ले
और अपने पिता को कर्ज से बचाने के लिए जमींदार से शादी करके अपना जीवन बलिदान कर
दे।
उसे लगा कि दूसरा तरीका सही है, पर
तभी उसे एक और भी अच्छा उपाय सूझा।
उसने थैले में अपना हाथ डाला और एक
रोड़ा अपने हाथ में ले लिया और बिना रोड़े की तरफ देखे उसके हाथ से फिसलने का नाटक
किया,
उसका रोड़ा अब हज़ारों रोड़ों के ढेर में गिर चुका था और उनमे ही
कहीं खो चुका था।
लड़की ने कहा – हे भगवान! मैं कितनी
बेवकूफ हूँ। लेकिन कोई बात नहीं आप लोग थैले के अन्दर देख लीजिये कि कौन से रंग का
रोड़ा बचा है, तब आपको पता चल जायेगा कि मैंने कौन सा उठाया था जो मेरे
हाथ से गिर गया।
थैले में बचा हुआ रोड़ा काला था, सब
लोगों ने मान लिया कि लड़की ने सफ़ेद पत्थर ही उठाया था। जमींदार के अन्दर इतना
साहस नहीं था कि वो अपनी चोरी मान ले।
लड़की ने अपनी सोच से असम्भव को
संभव कर दिया ।
मित्रों, हमारे
जीवन में भी कई बार ऐसी परिस्थितियां आ जाती हैं जहाँ सब कुछ धुंधला दीखता है,
हर रास्ता नाकामयाबी की ओर जाता महसूस होता है पर ऐसे समय में यदि
हम सोचने का प्रयास करें तो उस लड़की की तरह अपनी मुश्किलें दूर कर सकते हैं।
👉 सोया भाग्य
एक व्यक्ति जीवन से हर प्रकार से
निराश था। लोग उसे मनहूस के नाम से बुलाते थे। एक ज्ञानी पंडित ने उसे बताया कि
तेरा भाग्य फलां पर्वत पर सोया हुआ है, तू उसे जाकर जगा ले तो
भाग्य तेरे साथ हो जाएगा। बस! फिर क्या था वो चल पड़ा अपना सोया भाग्य जगाने।
रास्ते में जंगल पड़ा तो एक शेर उसे खाने को लपका, वो बोला
भाई! मुझे मत खाओ, मैं अपना सोया भाग्य जगाने जा रहा हूँ।
शेर ने कहा कि तुम्हारा भाग्य जाग
जाये तो मेरी एक समस्या है, उसका समाधान पूछते लाना। मेरी समस्या ये है
कि मैं कितना भी खाऊं … मेरा पेट भरता ही नहीं है, हर समय
पेट भूख की ज्वाला से जलता रहता है। मनहूस ने कहा– ठीक है। आगे जाने पर एक किसान
के घर उसने रात बिताई। बातों बातों में पता चलने पर कि वो अपना सोया भाग्य जगाने
जा रहा है, किसान ने कहा कि मेरा भी एक सवाल है।। अपने भाग्य
से पूछकर उसका समाधान लेते आना … मेरे खेत में, मैं कितनी भी
मेहनत कर लूँ पैदावार अच्छी होती ही नहीं। मेरी शादी योग्य एक कन्या है, उसका विवाह इन परिस्थितियों में मैं कैसे कर पाऊंगा?
मनहूस बोला — ठीक है। और आगे जाने
पर वो एक राजा के घर मेहमान बना। रात्री भोज के उपरान्त राजा ने ये जानने पर कि वो
अपने भाग्य को जगाने जा रहा है, उससे कहा कि मेरी परेशानी का हल भी
अपने भाग्य से पूछते आना। मेरी परेशानी ये है कि कितनी भी समझदारी से राज्य चलाऊं…
मेरे राज्य में अराजकता का बोलबाला ही बना रहता है।
मनहूस ने उससे भी कहा — ठीक है। अब
वो पर्वत के पास पहुँच चुका था। वहां पर उसने अपने सोये भाग्य को झिंझोड़ कर जगाया—
उठो! उठो! मैं तुम्हें जगाने आया हूँ। उसके भाग्य ने एक अंगडाई ली और उसके साथ चल
दिया। उसका भाग्य बोला — अब मैं तुम्हारे साथ हरदम रहूँगा।
अब वो मनहूस न रह गया था बल्कि
भाग्यशाली व्यक्ति बन गया था और अपने भाग्य की बदौलत वो सारे सवालों के जवाब जानता
था। वापसी यात्रा में वो उसी राजा का मेहमान बना और राजा की परेशानी का हल बताते
हुए वो बोला — चूँकि तुम एक स्त्री हो और पुरुष वेश में रहकर राज – काज संभालती हो, इसीलिए
राज्य में अराजकता का बोलबाला है। तुम किसी योग्य पुरुष के साथ विवाह कर लो,
दोनों मिलकर राज्य भार संभालो तो तुम्हारे राज्य में शांति स्थापित
हो जाएगी।
रानी बोली — तुम्हीं मुझ से ब्याह
कर लो और यहीं रह जाओ। भाग्यशाली बन चुका वो मनहूस इन्कार करते हुए बोला — नहीं
नहीं! मेरा तो भाग्य जाग चुका है। तुम किसी और से विवाह कर लो। तब रानी ने अपने
मंत्री से विवाह किया और सुखपूर्वक राज्य चलाने लगी। कुछ दिन राजकीय मेहमान बनने
के बाद उसने वहां से विदा ली।
चलते चलते वो किसान के घर पहुंचा और
उसके सवाल के जवाब में बताया कि तुम्हारे खेत में सात कलश हीरे जवाहरात के गड़े हैं, उस
खजाने को निकाल लेने पर तुम्हारी जमीन उपजाऊ हो जाएगी और उस धन से तुम अपनी बेटी
का ब्याह भी धूमधाम से कर सकोगे।
किसान ने अनुग्रहित होते हुए उससे
कहा कि मैं तुम्हारा शुक्रगुजार हूँ, तुम ही मेरी बेटी के साथ
ब्याह कर लो। पर भाग्यशाली बन चुका वह व्यक्ति बोला कि नहीं! नहीं! मेरा तो
भाग्योदय हो चुका है, तुम कहीं और अपनी सुन्दर कन्या का
विवाह करो। किसान ने उचित वर देखकर अपनी कन्या का विवाह किया और सुखपूर्वक रहने
लगा। कुछ दिन किसान की मेहमाननवाजी भोगने के बाद वो जंगल में पहुंचा और शेर से
उसकी समस्या के समाधानस्वरुप कहा कि यदि तुम किसी बड़े मूर्ख को खा लोगे तो
तुम्हारी ये क्षुधा शांत हो जाएगी।
शेर ने उसकी बड़ी आवभगत की और यात्रा
का पूरा हाल जाना। सारी बात पता चलने के बाद शेर ने कहा कि भाग्योदय होने के बाद
इतने अच्छे और बड़े दो मौके गंवाने वाले ऐ इंसान! तुझसे बड़ा मूर्ख और कौन होगा? तुझे
खाकर ही मेरी भूख शांत होगी और इस तरह वो इंसान शेर का शिकार बनकर मृत्यु को
प्राप्त हुआ।
सच है — यदि आपके पास सही मौका
परखने का विवेक और अवसर को पकड़ लेने का ज्ञान नहीं है तो भाग्य भी आपके साथ आकर
आपका कुछ भला नहीं कर सकता।
👉 संन्यासी बड़ा या गृहस्थ
किसी नगर में एक राजा रहता था, उस
नगर में जब कोई संन्यासी आता तो राजा उसे बुलाकर पूछता कि- ”भगवान! गृहस्थ बड़ा है
या संन्यास?” अनेक साधु अनेक प्रकार से इसको उत्तर देते थे।
कई संन्यासी को बड़ा तो बताते पर यदि वे अपना कथन सिद्ध न कर पाते तो राजा उन्हें
गृहस्थ बनने की आज्ञा देता। जो गृहस्थ को उत्तम बताते उन्हें भी यही आज्ञा मिलती।
इस प्रकार होते-होते एक दिन एक
संन्यासी उस नगर में आ निकला और राजा ने बुलाकर वही अपना पुराना प्रश्न पूछा।
संन्यासी ने उत्तर दिया- “राजन। सच पूछें तो कोई आश्रम बड़ा नहीं है, किन्तु
जो अपने नियत आश्रम को कठोर कर्तव्य धर्म की तरह पालता है वही बड़ा है।”
राजा ने कहा- “तो आप अपने कथन की
सत्यता प्रमाणित कीजिये।“
संन्यासी ने राजा की यह बात स्वीकार
कर ली और उसे साथ लेकर दूर देश की यात्रा को चल दिया।
घूमते-घूमते वे दोनों एक दूसरे बड़े
राजा के नगर में पहुँचे, उस दिन वहाँ की राज कन्या का स्वयंवर था,
उत्सव की बड़ी भारी धूम थी। कौतुक देखने के लिये वेष बदले हुए राजा
और संन्यासी भी वहीं खड़े हो गये। जिस राजकन्या का स्वयंवर था, वह अत्यन्त रूपवती थी और उसके पिता के कोई अन्य सन्तान न होने के कारण उस
राजा के बाद सम्पूर्ण राज्य भी उसके दामाद को ही मिलने वाला था।
राजकन्या सौंदर्य को चाहने वाली थी, इसलिये
उसकी इच्छा थी कि मेरा पति, अतुल सौंदर्यवान हो, हजारों प्रतिष्ठित व्यक्ति और देश-देश के राजकुमार इस स्वयंवर में जमा हुए
थे। राज-कन्या उस सभा मण्डली में अपनी सखी के साथ घूमने लगी। अनेक राजा-पुत्रों
तथा अन्य लोगों को उसने देखा पर उसे कोई पसन्द न आया। वे राजकुमार जो बड़ी आशा से
एकत्रित हुए थे, बिल्कुल हताश हो गये। अन्त में ऐसा जान
पड़ने लगा कि मानो अब यह स्वयंवर बिना किसी निर्णय के अधूरा ही समाप्त हो जायगा।
इसी समय एक संन्यासी वहाँ आया, सूर्य
के समान उज्ज्वल काँति उसके मुख पर दमक रही थी। उसे देखते ही राजकन्या ने उसके गले
में माला डाल दी। परन्तु संन्यासी ने तत्क्षण ही वह माला गले से निकाल कर फेंक दी
और कहा- ”राजकन्ये। क्या तू नहीं देखती कि मैं संन्यासी हूँ? मुझे विवाह करके क्या करना है?”
यह सुन कर राजकन्या के पिता ने समझा
कि यह संन्यासी कदाचित भिखारी होने के कारण, विवाह करने से डरता होगा,
इसलिये उसने संन्यासी से कहा- ”मेरी कन्या के साथ ही आधे राज्य के
स्वामी तो आप अभी हो जायेंगे और पश्चात् सम्पूर्ण राज्य आपको ही मिलेगा।“
राजा के इस प्रकार कहते ही राजकन्या
ने फिर वह माला उस साधु के गले में डाल दी, किन्तु संन्यासी ने फिर
उसे निकाल पर फेंक दिया और बोला- ”राजन्! विवाह करना मेरा धर्म नहीं है।“
ऐसा कह कर वह तत्काल वहाँ से चला
गया,
परन्तु उसे देखकर राजकन्या अत्यन्त मोहित हो गई थी, अतएव वह बोली- ”विवाह करूंगी तो उसी से करूंगी, नहीं
तो मर जाऊँगी।” ऐसा कह कर वह उसके पीछे चलने लगी।
हमारे राजा साहब और संन्यासी यह सब
हाल वहाँ खड़े हुए देख रहे थे। संन्यासी ने राजा से कहा- ”राजन्! आओ, हम
दोनों भी इनके पीछे चल कर देखें कि क्या परिणाम होता है।”
राजा तैयार हो गया और वे उन दोनों
के पीछे थोड़े अन्तर पर चलने लगे। चलते-चलते वह संन्यासी बहुत दूर एक घोर जंगल में
पहुँचा,
उसके पीछे राजकन्या भी उसी जंगल में पहुँची, आगे
चलकर वह संन्यासी बिल्कुल अदृश्य हो गया। बेचारी राजकन्या बड़ी दुखी हुई और घोर
अरण्य में भयभीत होकर रोने लगी।
इतने में राजा और संन्यासी दोनों
उसके पास पहुँच गये और उससे बोले- ”राजकन्ये! डरो मत, इस
जंगल में तेरी रक्षा करके हम तेरे पिता के पास तुझे कुशल पूर्वक पहुँचा देंगे।
परन्तु अब अँधेरा होने लगा है, इसलिये पीछे लौटना भी ठीक
नहीं, यह पास ही एक बड़ा वृक्ष है, इसके
नीचे रात काट कर प्रातःकाल ही हम लोग चलेंगे।”
राजकन्या को उनका कथन उचित जान पड़ा
और तीनों वृक्ष के नीचे रात बिताने लगे।
उस वृक्ष के कोटर में पक्षियों का
एक छोटा सा घोंसला था, उसमें वह पक्षी, उसकी
मादी और तीन बच्चे थे, एक छोटा सा कुटुम्ब था। नर ने
स्वाभाविक ही घोंसले से जरा बाहर सिर निकाल कर देखा तो उसे यह तीन अतिथि दिखाई
दिये।
इसलिये वह गृहस्थाश्रमी पक्षी अपनी
पत्नी से बोला- “प्रिये! देखो हमारे यहाँ तीन अतिथि आये हुए हैं, जाड़ा
बहुत है और घर में आग भी नहीं है।” इतना कह कर वह पक्षी उड़ गया और एक जलती हुई
लकड़ी का टुकड़ा कहीं से अपनी चोंच में उठा लाया और उन तीनों के आगे डाल दिया। उसे
लेकर उन तीनों ने आग जलाई।
परन्तु उस पक्षी को इतने से ही
सन्तोष न हुआ, वह फिर बोला-”ये तो बेचारे दिनभर के भूखे जान पड़ते हैं,
इनको खाने के लिये देने को हमारे घर में कुछ भी नहीं है। प्रिय,
हम गृहस्थाश्रमी हैं और भूखे अतिथि को विमुख करना हमारा धर्म नहीं
है, हमारे पास जो कुछ भी हो इन्हें देना चाहिये, मेरे पास तो सिर्फ मेरा देह है, यही मैं इन्हें
अर्पण करता हूँ।”
इतना कह कर वह पक्षी जलती हुई आग में
कूद पड़ा। यह देखकर उसकी स्त्री विचार करने लगी कि ‘इस छोटे से पक्षी को खाकर इन
तीनों की तृप्ति कैसे होगी? अपने पति का अनुकरण करके इनकी तृप्ति करना
मेरा कर्तव्य है।’ यह सोच कर वह भी आग में कूद पड़ी।
यह सब कार्य उस पक्षी के तीनों
बच्चे देख रहे थे, वे भी अपने मन में विचार करने लगे कि-
”कदाचित अब भी हमारे इन अतिथियों की तृप्ति न हुई होगी, इसलिये
अपने माँ बाप के पीछे इनका सत्कार हमको ही करना चाहिये।” यह कह कर वे तीनों भी आग
में कूद पड़े।
यह सब हाल देख कर वे तीनों बड़े
चकित हुए। सुबह होने पर वे सब जंगल से चल दिये। राजा और संन्यासी ने राजकन्या को
उसके पिता के पास पहुँचाया।
इसके बाद संन्यासी राजा से बोला-
”राजन्!! अपने कर्तव्य का पालन करने वाला चाहे जिस परिस्थिति में हो श्रेष्ठ ही
समझना चाहिये। यदि गृहस्थाश्रम स्वीकार करने की तेरी इच्छा हो, तो
उस पक्षी की तरह परोपकार के लिये तुझे तैयार रहना चाहिये और यदि संन्यासी होना
चाहता हो, तो उस उस यति की तरह राज लक्ष्मी और रति को भी
लज्जित करने वाली सुन्दरी तक की उपेक्षा करने के लिये तुझे तैयार होना चाहिये।
कठोर कर्तव्य धर्म को पालन करते हुए दोनों ही बड़े हैं।“
📖 अखण्ड ज्योति,जून-1941
👉मोटा बटेर और दुबला कौआ
जातक कथाओं में एक बड़ी रोचक तथा
ज्ञानवर्धक कथा आती है। पुरातन काल में एक बार भगवान का जन्म बटेर की योनि में
हुआ। उनकी काया बहुत परिपुष्ट थी। आकार में छोटे होते हुए और तिनके खाते हुए भी
बड़े प्रसन्न लगते थे और उस उपवन के पेड़ों पर क्रीड़ा कल्लोल करते रहते थे।
उनके पड़ौस में कौआ रहता था। श्मशान
भूमि में जो काक बलि दी जाती थी उसके खीर समेत माल पुए उसे खाने को मिलते थे। फिर
इधर-उधर चक्कर काटकर मरे हाथियों, ऊंटों और बैलों का माँस तलाश करता रहता
था, सो उसे आसानी से मिल जाता। पेट उसका कभी खाली रहता ही न
था। इस पर भी उसका मन चिन्तातुर रहता था। जब देखो तभी भयभीत दिखाई पड़ता था। रक्त
की कमी से उसका स्वाभाविक काला रंग, हलका सिलहटी जैसा हो गया
था। क्षण भर चैन न ले पाता, इधर उधर ताकता रहता और जब भी
खटका दिखता तभी वह क्षण भर रुके बिना सिर पर पैर रखकर भागता।
एक दिन बरसाती बूंदें पड़ने लगी।
पक्षियों के लिए घोंसले से बाहर जाने के लिए अवसर न रहा। बटेर से बात करने के लिए
कौए का मन इच्छुक तो बहुत दिनों से था, पर आज अनायास ही अवसर मिल
गया। सो वह बहुत प्रसन्न हुआ। घोंसले से चोंच बाहर निकालकर कौए ने बटेर का अभिवादन
किया और अपनी एक जिज्ञासा का समाधान करने के लिए अनुरोध किया।
बटेर ने सिर झुकाकर कहा- आप बड़े
हैं,
हर दृष्टि से सौभाग्यशाली भी। आप जैसे अच्छे पड़ोसी के साथ रहते हुए
मुझे बहुत प्रसन्नता रहती है। कोई बात पूछनी हो तो निःशंक होकर पूछें।
कौए ने कहा- ‘‘आपकी काया छोटी है।
घास-फूँस भर खाते हैं। इतने पर भी कितने प्रसन्न परिपुष्ट और प्रसन्न रहते हैं। एक
मैं हूँ जो दुबला हुआ जा रहा हूँ। चिन्ता के बिना एक क्षण भी नहीं बीतता। इसका
कारण समझाकर कहिए।”
बटेर ने कहा- ‘‘जो मिल जाता है उससे
सन्तुष्ट रहता हूँ। तिनकों को रसायन मानकर सेवन करता भगवान की कृपा को सराहता रहता
है। मेरी पुष्टाई का कारण बस इतना ही है। आप अब अपनी दुर्बलता का कारण बतायें।”
कौए ने कहा- ‘‘श्मशान घाट पर जो
श्राद्ध बलि मिलती है, उसका बड़ा भाग पाने की चेष्टा करता हूँ तो,
साथियों में से सभी प्रतिद्वन्द्विता करते हैं। न ले जाने के लिए
आक्रमण करते हैं और मेरे पंख उखाड़ लेते हैं। मरे हाथी-ऊँट आदि का माँस देखता हूँ
तो श्रृंगाल, कुत्ते और गिद्ध पहले से ही पहुंचे मिलते हैं।
मुझे भाग नहीं लेने देते और झपट्टा मारकर भगा देते हैं। सो मल भक्षण ही हाथ लगता
है। जिनसे प्रतिद्वन्द्विता चलती है सो शत्रुता पालते हैं।
किसी का आक्रमण न हो जाय सो चिन्तित
रहकर समय काटना पड़ता है। आत्म रक्षा के लिए चारों और झाँकता हूँ। चिड़ियों के
अण्डे चुरा लेता हूँ सो भय रहता है कि समूह बनाकर वे बदला लेने के लिए टूट न
पड़ें। यही कारण है कि खाया अंग नहीं लगता। चेन से सो नहीं पाता और दिन-दिन कृश
हुआ जाता हूं।’’
बटेर वेशधारी बोधिसत्व बोले- हे
बड़भागी! अपने बड़प्पन की ओर देखो। इस उपवन में हम सब की रखवाली किया करो और अपना
प्रेम तथा विश्वास दिया करो।
फिर जो कुछ भी आहार मिले उसे पहले
दूसरों को खिलाकर पीछे आप भी खा लिया करो। इस प्रकार रसायन आहार से आप का मन
प्रसन्न रहा करेगा और असमय वृद्धता वार्धक्य ने जो आक्रमण किया है, सो
छूट जायेगा।
कौए ने कहा- ‘‘आपके अमृत वचन ज्ञान
और प्रेम से भरे हैं। पर क्या करूं। जन्म भर संग्रह हुए कुसंस्कार बदलने में
कठिनाई दिखती है।”
बटेर ने कहा- हिम्मत न हारिए, प्रयत्न
कीजिए। स्वभाव जितना भी बदल सकेंगे, उतने ही आप प्रसन्न
रहेंगे, परिपुष्ट होंगे और सम्मान के भाजन बनेंगे।
अपनी कोंतरों में बैठे अन्य
पक्षियों ने भी सुना और उस पर आचरण करने का व्रत लिया।
👉 मदद और दया सबसे बड़ा धर्म
कहा जाता है दूसरों की मदद करना ही
सबसे बड़ा धर्म है। मदद एक ऐसी चीज़ है जिसकी जरुरत हर इंसान को पड़ती है, चाहे
आप बूढ़े हों, बच्चे हों या जवान; सभी
के जीवन में एक समय ऐसा जरूर आता है जब हमें दूसरों की मदद की जरुरत पड़ती है। आज
हर इंसान ये बोलता है कि कोई किसी की मदद नहीं करता, पर आप
खुद से पूछिये- क्या आपने कभी किसी की मदद की है? अगर नहीं
तो आप दूसरों से मदद की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?
किशोर नाम का एक लड़का था जो बहुत
गरीब था। दिन भर कड़ी मेहनत के बाद जंगल से लकड़ियाँ काट के लाता और उन्हें जंगल में
बेचा करता। एक दिन किशोर सर पे लकड़ियों का गट्ठर लिए जंगल से गुजर रहा था। अचानक उसने
रास्ते में एक बूढ़े इंसान को देखा जो बहुत दुर्बल था उसको देखकर लगा कि जैसे उसने
काफी दिनों खाना नहीं खाया है। किशोर का दिल पिघल गया, लेकिन
वो क्या करता उसके पास खुद खाने को नहीं था वो उस बूढ़े व्यक्ति का पेट कैसे भरता?
यही सोचकर दुःखी मन से किशोर आगे बढ़ गया।
आगे कुछ दूर चलने के बाद किशोर को
एक औरत दिखाई दी जिसका बच्चा प्यास से रो रहा था क्यूंकि जंगल में कहीं पानी नहीं
था। बच्चे की हालत देखकर किशोर से रहा नहीं गया लेकिन क्या करता बेचारा उसके खुद
के पास जंगल में पानी नहीं था। दुःखी मन से वो फिर आगे चल दिया। कुछ दूर जाकर
किशोर को एक व्यक्ति दिखाई दिया जो तम्बू लगाने के लिए लकड़ियों की तलाश में था।
किशोर ने उसे लकड़ियाँ बेच दीं और बदले में उसने किशोर को कुछ खाना और पानी दिया।
किशोर के मन में कुछ ख्याल आया और वो खाना, पानी लेकर वापस जंगल की ओर
दौड़ा। और जाकर बूढ़े व्यक्ति को खाना खिलाया और उस औरत के बच्चे को भी पानी पीने को
दिया। ऐसा करके किशोर बहुत अच्छा महसूस कर रहा था।
इसके कुछ दिन बाद किशोर एक दिन एक
पहाड़ी पर चढ़कर लकड़ियाँ काट रहा था अचानक उसका पैर फिसला और वो नीचे आ गिरा। उसके
पैर में बुरी तरह चोट लग गयी और वो दर्द से चिल्लाने लगा। तभी वही बूढ़ा व्यक्ति
भागा हुआ आया और उसने किशोर को उठाया। जब उस औरत को पता चला तो वो भी आई और उसने
अपनी साड़ी का चीर फाड़ कर उसके पैर पे पट्टी कर दी। किशोर अब बहुत अच्छा महसूस कर
रहा था।
मित्रों दूसरों की मदद करके भी हम
असल में खुद की ही मदद कर रहे होते हैं। जब हम दूसरों की मदद करेंगे तभी जरुरत
पढ़ने पर कोई दूसरा हमारी भी मदद करेगा।
तो आज इस कहानी को पढ़ते हुए एक वादा
करिये की रोज किसी की मदद जरूर करेंगे, रोज नहीं तो कम से कम
सप्ताह एक बार, नहीं तो महीने में एक बार। जरुरी नहीं कि मदद
पैसे से ही की जाये, आप किसी वृद्ध व्यक्ति को सड़क पार करा
सकते हैं या किसी प्यासे को पानी पिला सकते हैं या किसी हताश इंसान को सलाह दे
सकते हैं या किसी को खाना खिला सकते हैं। यकीन मानिये ऐसा करते हुए आपको बहुत ख़ुशी
मिलेगी और लोग भी आपकी मदद जरूर करेंगे।
👉 माँ का तोहफा
एक दंपत्ती दिवाली की खरीदारी करने
को हड़बड़ी में था! पति ने पत्नी से कहा- जल्दी करो मेरे पास" टाईम" नहीं
है।।। कह कर रूम से बाहर निकल गया सूरज तभी बाहर लॉन मे बैठी "माँ" पर
नजर पड़ी,
कुछ सोचते हुए वापिस रूम में आया।।।।।शालू तुमने माँ से भी पूछा कि
उनको दिवाली पर क्या चाहिए।।।।
शालिनी बोली नहीं पूछी। अब उनको इस
उम्र मे क्या चाहिए होगी यार, दो वक्त की रोटी और दो जोड़ी कपड़े
इसमे पूछने वाली क्या बात है।।।।। वो बात नहीं है शालू।।। "माँ पहली बार
दिवाली पर हमारे घर में रुकी हुई है" वरना तो हर बार गाँव में ही रहती है तो।।।
औपचारिकता के लिए ही पूछ लेती।।।।।।।।।
अरे इतना ही माँ पर प्यार उमड़ रहा
है तो खुद क्यूँ नही पूछ लेते झल्लाकर चीखी थी शालू, और कंधे पर हेंड
बैग लटकाते हुए तेजी से बाहर निकल गयी।।।।।। सूरज माँ के पास जाकर बोला माँ हम लोग
दिवाली के खरीदारी के लिए बाजार जा रहे हैं आपको कुछ चाहिए तो।।
माँ बीच में ही बोल पड़ी मुझे कुछ
नही चाहिए बेटा।।।। सोच लो माँ अगर कुछ चाहिये तो बता दीजिए।।।।।
सूरज के बहुत जोर देने पर माँ बोली
ठीक है तुम रुको मै लिख कर देती हूँ, तुम्हें और बहू को बहुत खरीदारी करनी है कहीं भूल ना जाओ कहकर, सूरज की माँ अपने कमरे में चली गई, कुछ देर बाद बाहर
आई और लिस्ट सूरज को थमा दी।।।
सूरज ड्राइविंग सीट पर बैठते हुए
बोला,
देखा शालू माँ को भी कुछ चाहिए था पर बोल नही रही थी मेरे जिद्द
करने पर लिस्ट बना कर दी है,, "इंसान जब तक जिंदा रहता
है, रोटी और कपड़े के अलावा भी बहुत कुछ चाहिये होता
है"
अच्छा बाबा ठीक है पर पहले मैं अपनी
जरूरत की सारी सामान लूँगी बाद में आप अपनी माँ का लिस्ट देखते रहना कह कर कार से
बाहर निकल गयी।।।।
पूरी खरीदारी करने के बाद शालिनी
बोली अब मैं बहुत थक गयी हूँ, मैं कार में AC चालू
करके बैठती हूँ आप माँ जी का सामान देख लो। अरे शालू तुम भी रुको फिर साथ चलते हैं
मुझे भी जल्दी है,।।।।।
देखता हूँ माँ इस दिवाली क्या
मंगायी है।।। कहकर माँ की लिखी पर्ची जेब से निकलता है। बाप रे इतनी लंबी
लिस्ट पता नही क्या क्या मंगायी होगी जरूर
अपने गाँव वाले छोटे बेटे के परिवार के लिए बहुत सारे सामान मंगायी होगी,।।।।।।।
और बनो "श्रवण कुमार" कहते हुए गुस्से से सुरज की ओर देखने लगी।
पर ये क्या सूरज की आंखों में आंसू।।।।।।।। और लिस्ट पकड़े
हुए हाथ सूखे पत्ते की तरह हिल रहा था।।। पूरा शरीर काँप रहा था, शालिनी
बहुत घबरा गयी क्या हुआ ऐसा क्या मांग ली है तुम्हारी माँ ने कह कर सूरज की हाथ से
पर्ची झपट ली।।।।
हैरान थी शालिनी भी इतनी बड़ी पर्ची
में बस चंद शब्द ही लिखे थे।।।।। पर्ची में लिखा था।।।।
"बेटा सूरज मुझे दिवाली पर तो
क्या किसी भी अवसर पर कुछ नहीं चाहिए फिर भी तुम जिद्द कर रहे हो तो, और
तुम्हारे "शहर की किसी दुकान में अगर मिल जाए तो फुर्सत के कुछ " पल
" मेरे लिए लेते आना।।।। ढलती साँझ हुई अब मैं, सूरज मुझे गहराते अँधियारे से डर लगने लगा है,
बहुत डर लगता है पल पल मेरी तरफ बढ़ रही मौत को देखकर।। जानती हूँ
टाला नही जा सकता शाश्वत सत्य है,।।।।।। पर अकेले पन से
बहुत घबराहट होती है सूरज ।।।।।। तो जब तक तुम्हारे घर पर हूँ कुछ पल बैठा कर मेरे
पास कुछ देर के लिए ही सही बाँट लिया कर मेरा बुढ़ापा का अकेलापन।।। बिन दीप जलाए
ही रौशन हो जाएगी मेरी जीवन की साँझ।। कितने साल हो गए बेटा तूझे स्पर्श नही की एक
फिर से आ मेरी गोद में सर रख और मै ममता भरी हथेली से सहलाऊँ तेरे सर को एक बार
फिर से इतराए मेरा हृदय मेरे अपनों को करीब बहुत करीब पा कर।।।और मुस्कुरा कर
मिलूं मौत के गले क्या पता अगले दिवाली तक रहूँ ना रहूँ।।।।
पर्ची की आख़री लाइन पढ़ते पढ़ते
शालिनी फफक, फफक कर रो पड़ी।।।
ऐसी ही होती है माँ।।।
अपने घर के उन विशाल हृदय वाले
लोगों, जिनको आप बूढ़े और बुढ़िया की
श्रेणी में रखते है वो आपके जीवन के कल्पतरु है! उनका यथोचित सम्मान और आदर और
सेवा-सुश्रुषा और देखभाल करें।
यकीन मानिए आपके भी बूढ़े होने के
दिन नजदीक ही है।।।उसकी तैयारी आज से कर
ले! इसमें कोई शक नही आपके अच्छे-बुरे कृत्य देर-सवेर आप ही के पास लौट कर आने
हैं!!
👉 आस्था
यात्रियों से खचाखच भरी एक बस अपने
गंतव्य की ओर जा रही थी। अचानक मौसम बहुत खराब हो गया।तेज आंधी और बारिश से चारों
ओर अँधेरा सा छा गया। ड्राइवर को रास्ता दिखना भी बहुत मुश्किल हो रहा था। ड्राइवर
ईश्वर पर बहुत आस्था रखने वाला व्यक्ति था। उसने किसी तरह सड़क किनारे एक पेड़ के
पास गाड़ी रोक दी और यात्रियों से बोला कि मुझे इस बात पर पूरा यकीन है कि इस बस
में एक पापी व्यक्ति बैठा हुआ है जिस कारण हम सब पर यह आफत आयी है। इसकी पहचान का
एक सरल तरीका है।
हर आदमी बारी बारी से बस से उतरकर
इस पेड़ को छूकर वापस बस में आकर बैठे। जो आदमी पापी होगा उसके छूते ही पेड़ पर
बिजली गिर जाएगी और बस के बाकी यात्री सुरक्षित बच जाएँगे। सबसे पहले उसने खुद ऐसा
ही किया और यात्रियों से भी ऐसा करने का दबाब बनाने लगा।
उसके ऐसा करने पर हर यात्री एक
दूसरे को ऐसा करने को बोलने लगा। बाकी यात्रियों के दबाब पर एक यात्री बस से उतरा
और पेड़ को छूकर जल्दी से बस में अपनी सीट पर आकर बैठ गया। इस तरह एक एक कर सभी
यात्रियों ने ऐसा ही किया। अंत में केवल एक यात्री ऐसा करने से बचा रह गया। जब वह
पेड़ को छूने के लिए जाने लगा तो सभी उसे ही वह पापी समझकर घृणा से उसे देखने लगे।
उस व्यक्ति ने जैसे ही पेड़ को छुआ आकाश में तेज गड़गड़ाहट हुई और बस पर बिजली गिर
गयी। बस धू धू कर जलने लगी और कोई भी जीवित नहीं बचा।उधर वह यात्री जिसे सभी पापी
समझ रहे थे वह बिल्कुल सुरक्षित था।
*Moral of the story*
जीवन में कोई भी मुसीबत आने पर हम
सभी सबसे पहले ईश्वर को कोसना शुरू कर देते हैं, उसे ही त्याग देते
हैं। ये नहीं समझने की कोशिश करते कि उसी ईश्वर के कारण आज हम जिंदा हैं ठीक उसी तरह
जैसे कोई भी यात्री यह समझने को तैयार नहीं था कि एक उस यात्री के कारण सबकी जान
बची हुई थी। उस यात्री को जैसे ही सबने अपने से अलग किया सभी की जान चली गयी।
ईश्वर उसी को मुसीबत देता है जिसे
वह इस काबिल समझता है कि वह इससे पार पा लेगा। अतः हम पर जब भी कोई मुसीबत आये,चाहे
वह मुसीबत कितनी भी बड़ी क्यों न हो, हमें ईश्वर का शुक्रिया
अदा करना चाहिए कि उसने हमें कम से कम जिंदा तो रखा। अगर जान चली जाती तो न तो हम
ईश्वर को कोस पाते और न ही धन्यवाद दे पाते। उसने हमें जिंदा बचाये रखा केवल इसलिए
कि हम उसके इस एहसान को स्वीकार करें और अपनी भूल सुधार कर उस मुसीबत से पार पाने
का उपाय ढ़ूँढ़ सकें। मुसीबत के समय ईश्वर को कोसने से हमारी मुसीबत कम नहीं हो
सकती उलटा।
अतः मुसीबत के समय ईश्वर को कोसने
की बजाय अपनी जान बख्शने के लिए उनका शुक्रिया अदा करना चाहिए और उनसे प्रार्थना करनी
चाहिए कि वे हमें इस मुसीबत को सहने की शक्ति देने के साथ ही इससे बाहर निकालने का
रास्ता दिखायें।
शकडाल भाग्यवादी
शकडाल भाग्यवादी था। वह पुरुषार्थ
की उपेक्षा करता और हर बात में भाग्य की दुहाई देता। जाति का वह कुम्भकार था। उस
दिन वह अपने विश्वास की पुष्टि कराने भगवान महावीर के पास पहुँचा और अपनी मान्यता
के समर्थन में उनका अभिमत प्राप्त करने की हठ करने लगा।
भगवान ने उससे उलटकर कुछ प्रश्न
किये,
कोई तुम्हारे बनाये बर्तन को तोड़-फोड़ करने लगे तो? कोई तुम्हारी पत्नी का शील भंग करने लगे तो? कोई
तुम्हारे धन का अपहरण करने लगे तो? क्या करोगे। चुप बैठे
रहोगे न?
शकडाल ने कहा-देव, ऐसा
अनाचार सहन नहीं हो सकेगा, मैं उसके साथ लड़ पड़ूंगा और
अच्छी तरह खबर लूँगा।
भगवान ने कहा- तो फिर तुम्हारा
भाग्यवाद कहाँ रहा? मान्यता तो तब सही होती जब तक सब कुछ होते
देखकर भी चुप बैठे रहते यहाँ तक कि बर्तन बनाने और रोग की चिकित्सा तक न करते।
शकडाल समझ गया कि भाग्यवाद का सिद्धान्त निरर्थक है। पुरुषार्थ ही सब कुछ है। कर्म
ही भाग्य बनता है।
दान बड़ा या ज्ञान
विवाद यह चल रहा था कि दान बड़ा या
ज्ञान। दान के पक्षधर थे वाजिश्रवा और ज्ञान के समर्थक थे याज्ञवल्क्य।
निर्णय हो नहीं पा रहा था। दोनों
प्रजापति के पास पहुँचे। वे बहुत व्यस्त थे सो निर्णय कराने के लिए शेष जी के पास
भेज दिया।
दोनों ने अपने-अपने पक्ष प्रस्तुत
किये। शेष जी ने कहा मैं बहुत थक गया हूं। सिर पर रखा पृथ्वी का बोझ बहुत समय से
लदा है। थोड़ी राहत पाऊँ तो विचारपूर्वक निर्णय करूं। आप में से कोई एक मेरे बोझ
को एक घड़ी अपने सिर पर रख लें। इसी बीच निर्णय हो जायेगा।
वाजिश्रवा आगे आये। अपनी दानशीलता
को दाँव पर लगाकर उनके धरती के बोझ को अपने सिर पर रखने का प्रयत्न किया। पर वे
उसमें तनिक भी सफल न हुए।
याज्ञवल्क्य को आगे आना पड़ा। उनने
अपने ज्ञान बल का प्रयोग किया और देखते-देखते भू-भार कन्धों पर उठा लिया।
निर्णय हो गया। शेष भगवान बोले-
ज्ञान बड़ा है। उस अकेले के बलबूते भी अपना और असंख्यों का उद्धार हो सकता है जबकि
दान अविवेक पूर्वक दिया जाने पर कुपात्रों के हाथ पहुँच सकता है और पुण्य के स्थान
पर पाप बन सकता है।
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