ज्ञानवर्धक कथाएं -भाग 12
👉 लोटे की चमक
‘श्री रामकृष्ण परमहंस’ रोज अपना
लोटा बहुत लगन से राख या मिट्टी से मांजकर खूब चमकाते थे। रोज के इस परिश्रम से
श्री परमहंस का लोटा खूब चमकता था। उनके एक शिष्य को श्री रामकृष्ण द्वारा
प्रतिदिन बहुत मेहनत से लोटा चमकाना बड़ा विचित्र लगता था।
आख़िर उससे रहा नहीं गया। एक दिन वह
श्री रामकृष्ण जी से पूछ ही बैठा।।।। “महाराज! आपका लोटा तो वैसे ही खूब चमकता है।
इतना चमकता है कि इसमें हम अपनी तस्वीर भी देख ले। फिर भी रोज-रोज आप इसे मिट्टी, राख
और जून से मांजने में इतनी मेहनत क्यों करते है?”
गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस मुस्कुरा
उठे हँसकर बोले।।।। “बेटा! इस लोटे की चमक एक दिन की, एक
बार की मेहनत से नहीं आई है; इसमें आई मैल को हटाने के लिए
नित्य-प्रति मेहनत करनी ही पड़ती है। ठीक वैसे ही जैसे जीवन में आई बुराईयों,
बुरे संस्कारो को दूर करने के लिए हमें रोजाना ही संकल्पपूर्ण
परिश्रम करना पड़ता है।
वास्तव में स्वयं को अच्छे व्यक्ति
में बदलने के लिए हमें रोज के अभ्यास से दुर्गुणों का मैल दूर करना पड़ता है। लोटा
हो या व्यक्ति का जीवन, उसे बुराइयों के मैल से बचाने के लिए हमें
रोजाना ही कड़ा परिश्रम करना पड़ेगा। तभी इस लोटे की चमक या इंसान की चमक बची रह
सकती है।"
इस प्रसंग से दो शिक्षाएँ मिलती
हैं। एक तो यह कि।। प्रत्येक व्यक्ति को इसी प्रकार नित्य अपनी बुराइयों को दूर
करने का प्रयास करते रहना चाहिए।
दूसरा यह कि।... प्रत्येक कार्य
चाहे वह देखने में लोटा माँजने जैसा तुच्छ ही क्यों न हो अगर मनोयोग से किया जाए
तो उसमें विशिष्ट चमक उत्पन्न होकर आकर्षण पैदा करती है।
अर्थात, साधारण
कर्म भी असाधारण एकाग्र मनोयोग से असाधारण हो जाता है।
यही सिद्धांत जीवन के प्रत्येक क्षण
के संबंध में भी काम करता है।।। आपने अकसर सुना होगा कि।।। ‘जीवन के प्रत्येक क्षण
को पूर्णता से जीयो’।।।
अर्थात, ‘साधारण
क्षण को भी विशिष्ट भाव से जीना ही जीवन को संपूर्णता से जीना कहलाता हैं।‘
👉 कर्मन की गति न्यारी
एक कारोबारी सेठ सुबह - सुबह
जल्दबाजी में घर से बाहर निकल कर ऑफिस जाने के लिए कार का दरवाजा खोल कर जैसे ही
बैठने जाता है, उसका पाँव गाड़ी के नीचे बैठे कुत्ते की पूँछ पर पड़ जाता
है। दर्द से बिलबिलाकर अचानक हुए इस वार को घात समझ वह कुत्ता उसे जोर से काट खाता
है। गुस्से में आकर सेठ आसपास पड़े 10-12 पत्थर कुत्ते की ओर फेंक मारता है पर
भाग्य से एक भी पत्थर उसे नहीं लगता है और वह कुत्ता भाग जाता है।
सेठजी अपना इलाज करवाकर ऑफिस
पहुँचते हैं जहां उन्होंने अपने मातहत मैनेजर्स की बैठक बुलाई होती है। यहाँ
अनचाहे ही कुत्ते पर आया उनका सारा गुस्सा उन बिचारे प्रबन्धकों पर उतर जाता है।
वे प्रबन्धक भी मीटिंग से बाहर आते ही एक दूसरे पर भड़क जाते हैं - बॉस ने बगैर
किसी वाजिब कारण के डांट जो दिया था। अब दिन भर वे लोग ऑफिस में अपने नीचे काम
करने वालों पर अपनी खीज निकलते हैं – ऐसे करते करते आखिरकार सभी का गुस्सा अंत में
ऑफिस के चपरासी पर निकलता है जो मन ही मन बड़बड़ाते हुए भुनभुनाते हुए घर चला जाता
है।
घंटी की आवाज़ सुन कर उसकी पत्नी
दरवाजा खोलती है और हमेशा की तरह पूछती है “आज फिर देर हो गई आने में।।।। वो लगभग
चीखते हुए कहता है “मै क्या ऑफिस कंचे खेलने जाता हूँ? काम
करता हूँ, दिमाग मत खराब करो मेरा, पहले
से ही पका हुआ हूँ, चलो खाना परोसो” अब गुस्सा होने की बारी
पत्नी की थी, रसोई मे काम करते वक़्त बीच बीच में आने पर वह
पति का गुस्सा अपने बच्चे पर उतारते हुए उसे जमा के तीन चार थप्पड़ रसीद कर देती
है। अब बिचारा बच्चा जाए तो जाये कहाँ, घर का ऐसा बिगड़ा
माहौल देख, बिना कारण अपनी माँ की मार खाकर वह रोते रोते
बाहर का रुख करता है, एक पत्थर उठाता है और सामने जा रहे
कुत्ते को पूरी ताकत से दे मारता है। कुत्ता फिर बिलबिलाता है।
सन्तमत विचार-दोस्तों ये वही सुबह
वाला कुत्ता था!! अरे भई उसको उसके काटे के बदले ये पत्थर तो पड़ना ही था केवल समय
का फेर था और सेठ जी की जगह इस बच्चे से पड़ना था!! उसका कार्मिक चक्र तो पूरा होना
ही था ना!! इसलिए मित्र यदि कोई आपको काट खाये, चोट पहुंचाए और आप उसका
कुछ ना कर पाएँ, तो निश्चिंत रहें, उसे
चोट तो लग के ही रहेगी, बिलकुल लगेगी, जो
आपको चोट पहुंचाएगा, उस का तो चोटिल होना निश्चित ही है,
कब होगा किसके हाथों होगा ये केवल ऊपरवाला जानता है पर होगा ज़रूर,
अरे भाई ये तो सृष्टि का नियम है !!!
समय नहीं मिलता कहना छोड़े
👉 जीवन का सफर
जीत किसके लिए, हार
किसके लिए
ज़िंदगी भर ये तकरार किसके लिए।।
जो भी आया है वो जायेगा एक दिन
फिर ये इतना अहंकार किसके लिए
एक बार एक नदी में हाथी की लाश बही
जा रही थी। एक कौए ने लाश देखी, तो प्रसन्न हो उठा, तुरंत उस पर आ बैठा।
यथेष्ट मांस खाया। नदी का जल पिया।
उस लाश पर इधर-उधर फुदकते हुए कौए ने परम तृप्ति की डकार ली। वह सोचने लगा, अहा
! यह तो अत्यंत सुंदर यान है, यहां भोजन और जल की भी कमी
नहीं। फिर इसे छोड़कर अन्यत्र क्यों भटकता फिरूं?
कौआ नदी के साथ बहने वाली उस लाश के
ऊपर कई दिनों तक रमता रहा।। भूख लगने पर वह लाश को नोचकर खा लेता, प्यास
लगने पर नदी का पानी पी लेता। अगाध जलराशि, उसका तेज प्रवाह,
किनारे पर दूर-दूर तक फैले प्रकृति के मनोहरी दृश्य-इन्हें
देख-देखकर वह विभोर होता रहा।
नदी एक दिन आखिर महासागर में मिली।
वह मुदित थी कि उसे अपना गंतव्य प्राप्त हुआ। सागर से मिलना ही उसका चरम लक्ष्य था, किंतु
उस दिन लक्ष्यहीन कौए की तो बड़ी दुर्गति हो गई।
चार दिन की मौज-मस्ती ने उसे ऐसी
जगह ला पटका था, जहां उसके लिए न भोजन था, न पेयजल
और न ही कोई आश्रय। सब ओर सीमाहीन अनंत खारी जल-राशि तरंगायित हो रही थी।
कौआ थका-हारा और भूखा-प्यासा कुछ
दिन तक तो चारों दिशाओं में पंख फटकारता रहा, अपनी छिछली और टेढ़ी-मेढ़ी
उड़ानों से झूठा रौब फैलाता रहा, किंतु महासागर का ओर-छोर
उसे कहीं नजर नहीं आया।
आखिरकार थककर, दुख
से कातर होकर वह सागर की उन्हीं गगनचुंबी लहरों में गिर गया। एक विशाल मगरमच्छ उसे
निगल गया।
शारीरिक सुख में लिप्त मनुष्यों की
भी गति उसी कौए की तरह होती है, जो आहार और आश्रय को ही परम गति मानते
हैं और अंत में अनन्त संसार रूपी सागर में समा जाते है।
Shinkanji Ka Swad ll शिकंजी
का स्वाद
👉 जीवन एक बीज फला, दूसरा
गला
दो बीज धरती की गोद में जा पड़े।
मिट्टी ने उन्हें ढक दिया। दोनों रात सुख की नींद सोये। प्रात:काल दोनों जगे तो एक
के अंकुर फूट गये और वह ऊपर उठने लगा। यह देख छोटा बीज बोला- भैया ऊपर मत जाना।
वहाँ बहुत भय है। लोग तुझे रौद्र डालेंगे, मार डालेंगे। बीज सब सुनता
रहा और चुपचाप ऊपर उठता रहा। धीरे- धीरे धरती की परत पारकर ऊपर निकल आया और बाहर
का सौन्दर्य देखकर मुस्कराने लगा। सूर्य देवता ने धूप स्नान कराया और पवन देव ने
पंखा डुलाया, वर्षा आई और शीतल जल पिला गई, किसान आया और चक्कर लगाकर चला गया। बीज बढ़ता ही गया। झूमता, लहलहाता, और फलता हुआ बीज एक दिन परिपक्व अवस्था तक
जा पहुँचा। जब वह इस संसार से विदा हुआ तो अपने जैसे बीज छोड़कर हँसता और आत्म-
सन्तोष अनुभव करता विदा हो गया।
मिट्टी के अन्दर दबा बीज यह देखकर
पछता रहा था- भय और संकीर्णता के कारण मैं जहाँ था वहीं पडा रहा और मेरा भाई
असंख्य गुना समृद्धि पा गया।
📖 प्रज्ञा पुराण भाग १
👉 आदतों के जंजाल
आदतों के जंजाल से निकलेंगे तभी
समझेंगे मुक्ति के मायने
एक बार मिस्र में कुछ कैदियों को
उम्रकैद की सजा देकर किले में रखा गया था। सारे कैदी अपनी जवानी में पकड़े गए थे
और जेल में ही बूढ़े हो गए थे। बाद में जब राज्य की सरकार का तख्ता पलटा, तो
इन उम्रकैदियों को आजाद कर दिया गया। पर वे तो आजादी भूल चुके थे। उनके लिए जेल
ही घर और बेड़ियां जेवर बन चुकी थीं। उन्होंने किले के बाहर जाने से इनकार कर दिया।
उनके इनकार के बावजूद उन सबको जबरदस्ती जेल से निकाल दिया गया। उस वक्तए तो वह
चले गए, लेकिन शाम को आधे से ज्यादा कैदी जेल के दरवाजे आकर
कहने लगे कि हमें अंदर आने दो, हमारा यही घर है।
दरअसल ये कैदी रोज वहां जीवन व्यतीत
करते-करते वहीं के हो गए थे। जेल ही उनका घर बन गया था। वह बाहर की दुनिया भूल
चुके थे। जेल में समय से खाना मिल जाता था। समय से सो जाते थे। आपस में बातचीत कर
लेते थे। जिंदगी व्यतीत हो ही रही थी। बाहर उन कैदियों ने यह कहा कि हमें नींद
नहीं आएगी। बेड़ियां न होने से हमारे हाथ-पैर हलके हो गए हैं। हमसे चला नहीं जाता।
बेड़ियों के बिना हमें अपने पैर हलके लगते हैं। उन्हें इसकी आदत बन गई थी।
ऐसे ही गुलामी की भी आदत हो जाती
है। ठीक ऐसे ही अवगुणों में रहने की भी आदत हो जाती है। और इस आदत में रमा इंसान
समय और तकदीर की भी परवाह नहीं करता। समय यदि उनकी तकदीर बदल भी देता है, तो
भी वह उन अवगुणों को नहीं छोड़ पाता। आदतों के जंजाल में फंसा इंसान न तो तकदीर की
उंगली पकड़कर चल पाता है और न ही समय देख भविष्य का फैसला ले पाता है। यह तो प्रत्यक्ष
है कि वह कैदी याचना कर रहे थे कि उन्हें अंदर आने दिया जाए। हकीकत यह है कि जिन
अवगुणों में मनुष्य जी रहा होता है, वह अवगुण उसको अवगुणों
की तरह नहीं दिखाई देते। इसलिए उस अवगुण को तोड़ने की जरूरत ही नहीं महसूस होती,
क्योंकि अवगुण दिखाई ही नहीं देते। जेल ही जब घर लगता है, तो आजादी उनके लिए क्या मायने रख सकती है? किसको
आजाद करना है, जब जेल ही उसका घर है अवगुण ही रस हैं,
अवगुण ही जीवन हैं? इन अवगुणों से बचना बड़ी
मुश्किल बात है। व्यक्ति अवगुणों के साथ जीवनपर्यंत रहते हैं।
महात्मा गांधी ने कहा है कि, 'आपके
विचार आपके शब्द बन जाते हैं, आपके शब्द आपके कर्म बन जाते
हैं, आपके कर्म आपकी आदतें बन जाती हैं, आपकी आदतें आपके मूल्य बन जाते है और आपके मूल्य आपकी तकदीर बन जाते है।'
बेहतर जीवन शैली आदतों की विवेचना कर मूल्यांकन करने की सलाह देगी।
तय हमें करना होगा कि हम आदतों के कभी दास न बनें और कभी भी गलत आदतों को
फलने-फूलने न दें।
👉 चेतना की स्वतंत्रता
एक संध्या एक पहाड़ी सराय में एक नया
अतिथि आकर ठहरा। सूरज ढलने को था, पहाड़ उदास और अंधेरे में छिपने को
तैयार हो गए थे। पक्षी अपने निबिड़ में वापस लौट आए थे। तभी उस पहाड़ी सराय में वह
नया अतिथि पहुंचा। सराय में पहुंचते ही उसे एक बड़ी मार्मिक और दुख भरी आवाज सुनाई
पड़ी। पता नहीं कौन चिल्ला रहा था?
पहाड़ की सारी घाटियां उस आवाज से लग
गई थीं। कोई बहुत जोर से चिल्ला रहा था--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता,
स्वतंत्रता।
वह अतिथि सोचता हुआ आया, किन
प्राणों से यह आवाज उठ रही है? कौन प्यासा है स्वतंत्रता को?
कौन गुलामी के बंधनों को तोड़ देना चाहता है? कौन
सी आत्मा यह पुकार कर रही? प्रार्थना कर रही?
और जब वह सराय के पास पहुंचा, तो
उसे पता चला, यह किसी मनुष्य की आवाज नहीं थी, सराय के द्वार पर लटका हुआ एक तोता स्वतंत्रता की आवाज लगा रहा था।
वह अतिथि भी स्वतंत्रता की खोज में
जीवन भर भटका था। उसके मन को भी उस तोते की आवाज ने छू लिया।
रात जब वह सोया, तो
उसने सोचा, क्यों न मैं इस तोते के पिंजड़े को खोल दूं,
ताकि यह मुक्त हो जाए। ताकि इसकी प्रार्थना पूरी हो जाए। अतिथि उठा,
सराय का मालिक सो चुका था, पूरी सराय सो गई
थी। तोता भी निद्रा में था, उसने तोते के पिंजड़े का द्वार
खोला, पिंजड़े के द्वार खोलते ही तोते की नींद खुल गई,
उसने जोर से सींकचों को पकड़ लिया और फिर चिल्लाने लगा--स्वतंत्रता,
स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।
वह अतिथि हैरान हुआ। द्वार खुला है, तोता
उड़ सकता था, लेकिन उसने तो सींकचे को पकड़ रखा था। उड़ने की
बात दूर, वह शायद द्वार खुला देख कर घबड़ा आया, कहीं मालिक न जाग जाए। उस अतिथि ने अपने हाथ को भीतर डाल कर तोते को
जबरदस्ती बाहर निकाला। तोते ने उसके हाथ पर चोटें भी कर दीं। लेकिन अतिथि ने उस
तोते को बाहर निकाल कर उड़ा दिया।
निश्चिंत होकर वह मेहमान सो गया उस
रात। और अत्यंत आनंद से भरा हुआ। एक आत्मा को उसने मुक्ति दी थी। एक प्राण
स्वतंत्र हुआ था। किसी की प्रार्थना पूरी करने में वह सहयोगी बना। वह रात सोया और
सुबह जब उसकी नींद खुली, उसे फिर आवाज सुनाई पड़ी, तोता चिल्ला रहा था--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।
वह बाहर आया, देखा,
तोता वापस अपने पिंजड़े में बैठा हुआ है। द्वार खुला है और तोता
चिल्ला रहा है--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। वह अतिथि बहुत हैरान
हुआ। उसने सराय के मालिक को जाकर पूछा, यह तोता पागल है क्या?
रात मैंने इसे मुक्त कर दिया था, यह अपने आप
पिंजड़े में वापस आ गया है और फिर भी चिल्ला रहा, स्वतंत्रता?
सराय का मालिक पूछने लगा, उसने
कहा, तुम भी भूल में पड़ गए। इस सराय में जितने मेहमान ठहरते
हैं, सभी इसी भूल में पड़ जाते हैं। तोता जो चिल्ला रहा है,
वह उसकी अपनी आकांक्षा नहीं, सिखाए हुए शब्द हैं।
तोता जो चिल्ला रहा है, वह उसकी अपनी प्रार्थना नहीं,
सिखाए हुए शब्द हैं, यांत्रिक शब्द हैं। तोता
स्वतंत्रता नहीं चाहता, केवल मैंने सिखाया है वही चिल्ला रहा
है। तोता इसीलिए वापस लौट आता है। हर रात यही होता है, कोई
अतिथि दया खाकर तोते को मुक्त कर देता है। लेकिन सुबह तोता वापस लौट आता है।
मैंने यह घटना सुनी थी। और मैं
हैरान होकर सोचने लगा, क्या हम सारे मनुष्यों की भी स्थिति यही
नहीं है? क्या हम सब भी जीवन भर नहीं चिल्लाते हैं-- मोक्ष
चाहिए,
स्वतंत्रता चाहिए, सत्य
चाहिए, आत्मा चाहिए, परमात्मा चाहिए?
लेकिन मैं देखता हूं कि हम चिल्लाते तो जरूर हैं, लेकिन हम उन्हें सींकचों को पकड़े हुए बैठे रहते हैं जो हमारे बंधन हैं।
हम चिल्लाते हैं, मुक्ति
चाहिए, और हम उन्हीं बंधनों की पूजा करते रहते हैं जो हमारा
पिंजड़ा बन गया, हमारा कारागृह बन गया। कहीं ऐसा तो नहीं है
कि यह मुक्ति की प्रार्थना भी सिखाई गई प्रार्थना हो, यह
हमारे प्राणों की आवाज न हो? अन्यथा कितने लोग स्वतंत्र होने
की बातें करते हैं, मुक्त होने की, मोक्ष
पाने की, प्रभु को पाने की। लेकिन कोई पाता हुआ दिखाई नहीं
पड़ता। और रोज सुबह मैं देखता हूं, लोग अपने पिंजड़ों में वापस
बैठे हैं, रोज अपने सींकचों में, अपने कारा
गृह में बंद हैं। और फिर निरंतर उनकी वही आकांक्षा बनी रहती है।
सारी मनुष्य-जाति का इतिहास यही है।
आदमी शायद व्यर्थ ही मांग करता है स्वतंत्रता की। शायद सीखे हुए शब्द हैं।
शास्त्रों से, परंपराओं से, हजारों वर्ष के
प्रभाव से सीखे हुए शब्द हैं। हम सच में स्वतंत्रता चाहते हैं? और स्मरण रहे कि जो व्यक्ति अपनी चेतना को स्वतंत्र करने में समर्थ नहीं
हो पाता, उसके जीवन में आनंद की कोई झलक कभी उपलब्ध नहीं हो
सकेगी। स्वतंत्र हुए बिना आनंद का कोई मार्ग नहीं है।
👉 झुठा
"मम्मी , मम्मी
! मैं उस बुढिया के साथ स्कुल नही जाऊँगा ना ही उसके साथ वापस आऊँगा "मेरे दस
वर्ष के बेटे ने गुस्से से अपना स्कुल बैग फेंकते हुए कहा तो मैं बुरी तरह से चौंक
गई !
यह क्या कह रहा है? अपनी
दादी को बुढिया क्यों कह रहा है? कहाँ से सीख रहा है इतनी
बदतमीजी?
मैं सोच ही रही थी कि बगल के कमरे
से उसके चाचा बाहर निकले और पुछा-"क्या हुआ बेटा?"
उसने फिर कहा -"चाहे कुछ भी हो
जाए मैं उस बुढिया के साथ स्कुल नहीं जाउँगा हमेशा डाँटती रहती है और मेरे दोस्त
भी मुझे चिढाते हैं !"
घर के सारे लोग उसकी बात पर चकित थे
घर मे बहुत सारे लोग थे मैं और मेरे
पति,
दो देवर और देवरानी , एक ननद , ससुर और नौकर भी !
फिर भी मेरे बेटे को स्कुल छोडने और
लाने की जिम्मेदारी उसकी दादी की ही थी पैरों मे दर्द रहता था पर पोते के प्रेम में
कभी शिकायत नहीं करती थी बहुत प्यार करती थी उसको क्योंकि घर का पहला पोता था।
पर अचानक बेटे के मुँह से उनके लिए
ऐसे शब्द सुन कर सबको बहुत आश्चर्य हो रहा था शाम को खाने पर उसे बहुत समझाया गया
पर वह अपनी जिद पर अडा रहा
पति ने तो गुस्से में उसे थप्पड़ भी
मार दिया तब सबने तय किया कि कल से उसे स्कुल छोडने और लेने माँजी नही जाएँगी !!!
अगले दिन से कोई और उसे लाने ले
जाने लगा पर मेरा मन विचलित रहने लगा कि आखिर उसने ऐसा क्यों किया?
मैं उससे कुछ नाराज भी थी !
शाम का समय था मैंने दूध गर्म किया
और बेटे को देने के लिए उसने ढुँढने लगी मैं छत पर पहुँची तो बेटे के मुँह से मेरे
बारे में बात करते सुन कर मेरे पैर ठिठक गये।।।
मैं छुपकर उसकी बात सुनने लगी वह
अपनी दादी के गोद मे सर रख कर कह रहा था-
"मैं जानता हूँ दादी कि मम्मी
मुझसे नाराज है पर मैं क्या करता?
इतनी ज्यादा गरमी में भी वो आपको
मुझे लेने भेज देते थे ! आपके पैरों में दर्द भी तो रहता है मैंने मम्मी से कहा तो
उन्होंने कहा कि दादी अपनी मरजी से जाती हैं !
दादी मैंने झूठ बोला... बहुत गलत
किया पर आपको परेशानी से बचाने के लिये मुझे यही सुझा।।।
आप मम्मी को बोल दो मुझे माफ कर दे
"
वह कहता जा रहा था और मेरे पैर तथा
मन सुन्न पड़ गये थे मुझे अपने बेटे के झूठ बोलने के पीछे के बड़प्पन को महसूस कर
गर्व हो रहा था।।।।
मैंने दौड़ कर उसे गले लगा लिया और
बोली-"नहीं , बेटे तुमने कुछ गलत नहीं किया
हम सभी पढे लिखे नासमझो को समझाने
का यही तरीका था.. शाबाश।।। बेटा !!!
बुलंद हौसले
एक कक्षा में शिक्षक छात्रों को बता
रहे थे कि अपने जीवन का एक लक्ष्य निर्धारित करो। वे सभी से पूछ रहे थे कि उनके
जीवन का क्या लक्ष्य है? सभी विद्यार्थी उन्हें बता रहे थे कि वह
क्या बनना चाहते हैं। तभी एक छात्रा ने कहा, 'मैं बड़ी होकर
धाविका बनकर, ओलिंपिक में स्वर्ण पदक जीतना चाहती हूं,
नए रेकॉर्ड बनाना चाहती हूं।' उसकी बात सुनते
ही कक्षा के सभी बच्चे खिलखिला उठे। शिक्षक भी उस लड़की पर व्यंग्य करते हुए बोले,
'पहले अपने पैरों की ओर तो देखो। तुम ठीक से चल भी नहीं सकती हो।'
वह बच्ची शिक्षक के समक्ष कुछ नहीं
बोल सकी और सारी कक्षा की हंसी उसके कानों में गूंजती रही। अगले दिन कक्षा में
मास्टर जी आए तो दृढ़ संयमित स्वरों में उस लड़की ने कहा, 'ठीक
है, आज मैं अपाहिज हूं। चल-फिर नहीं सकती, लेकिन मास्टर जी, याद रखिए कि मन में पक्का इरादा हो
तो क्या नहीं हो सकता। आज मेरे अपंग होने पर सब हंस रहे हैं, लेकिन यही अपंग लड़की एक दिन हवा में उड़कर दिखाएगी।'
उसकी बात सुनकर उसके साथियों ने फिर
उसकी खिल्ली उड़ाई। लेकिन उस अपाहिज लड़की ने उस दिन के बाद पीछे मुड़कर नहीं
देखा। वह प्रतिदिन चलने का अभ्यास करने लगी। कुछ ही दिनों में वह अच्छी तरह चलने
लगी और धीरे-धीरे दौड़ने भी लगी। उसकी इस कामयाबी ने उसके हौसले और भी बुलंद कर
दिए। देखते ही देखते कुछ दिनों में वह एक अच्छी धावक बन गई। ओलिंपिक में उसने पूरे
उत्साह के साथ भाग लिया और एक साथ तीन स्वर्ण पदक जीतकर सबको चकित कर दिया। हवा से
बात करने वाली वह अपंग लड़की थी अमेरिका के टेनेसी राज्य की ओलिंपिक धाविक विल्मा
गोल्डीन रुडाल्फ, जिसने अपने पक्के इरादे के बलबूते पर न केवल
सफलता हासिल की अपितु दुनियाभर में अपना नाम किया।
👉 अनीति को जीवित रहते सहन नहीं करना चाहिये
सोम नाथ का मन्दिर लूट कर महमूद
गजनबी वापिस गजनी जा रहा था। उसके साथ एक लाख सेना थी।
एक पड़ाव पर जैसे ही सेना पहुँची कि
डेढ़ सौ घुड़सवारों का एक जत्था लोहा लेने के लिये तीर की तरह बढ़ता आ रहा उसने
देखा। टुकड़ों का नेतृत्व एक सत्तर वर्ष का बूढ़ा राजपूत कर रहा था।
महमूद गजनबी समझ नहीं सका कि इतनी
छोटी टुकड़ी आखिर क्यों एक लाख सेना से लड़ कर अपने को समाप्त करने आ रही है। उसने
दूत भेजा और इन लड़ाकुओं का मंतव्य पुछवाया।
बूढ़े नायक ने कहा— बादशाह से कहना
— संख्या और साधन− बल में इतना अन्तर होने पर भी लड़ने का क्या परिणाम हो सकता है
सो हम जानते हैं। पर भूलें यह भी नहीं कि अनीति को जीवित रहते सहन नहीं करना
चाहिये।
घुड़सवारों की टुकड़ी जान हथेली पर, रख
कर इस तरह लड़ी कि डेढ़ सौ न देखते−देखते डेढ़ हजार को धराशायी बना दिया। भारी
प्रतिरोध में वह दस मर खप कर समाप्त हो गया। पर मरते दम तक वे कहते यही रहे यदि हम
प्रतिरोधी एक हजार भी होते तो इन एक लाख से निपटने के लिये पर्याप्त थे।
इस बिजली झपट लड़ाई का महमूद पर
भारी प्रभाव पड़ा। वह राजपूतों की अद्भुत वीरता पर अवाक् रह गया। भविष्य की नीति
निर्धारित करते हुए उसने नया आधार ढूँढ़ा। भारतीयों को बल से नहीं जीता जा सकता, उन
पर विजय पाने के लिए छल का प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि इस देश के निवासी छल से
परिचित ही नहीं है।
📖 अखण्ड ज्योति 1974
👉 सकारात्मक सोच:--
पुराने समय की बात है, एक
गाँव में दो किसान रहते थे। दोनों ही बहुत गरीब थे, दोनों के
पास थोड़ी थोड़ी ज़मीन थी, दोनों उसमें ही मेहनत करके अपना और
अपने परिवार का गुजारा चलाते थे।
अकस्मात कुछ समय पश्चात दोनों की एक
ही दिन एक ही समय पे मृत्यु हो गयी। यमराज दोनों को एक साथ भगवान के पास ले गए। उन
दोनों को भगवान के पास लाया गया। भगवान ने उन्हें देख के उनसे पूछा, ” अब तुम्हें क्या चाहिये, तुम्हारे इस जीवन में क्या
कमी थी, अब तुम्हें क्या बना के मैं पुनः संसार में भेजूं।”
भगवान की बात सुनकर उनमें से एक
किसान बड़े गुस्से से बोला, ” हे भगवान! आपने इस जन्म में मुझे बहुत
घटिया ज़िन्दगी दी थी। आपने कुछ भी नहीं दिया था मुझे। पूरी ज़िन्दगी मैंने बैल की
तरह खेतो में काम किया है, जो कुछ भी कमाया वह बस पेट भरने
में लगा दिया, ना ही मैं कभी अच्छे कपड़े पहन पाया और ना ही
कभी अपने परिवार को अच्छा खाना खिला पाया। जो भी पैसे कमाता था, कोई आकर के मुझसे लेकर चला जाता था और मेरे हाथ में कुछ भी नहीं आया। देखो
कैसी जानवरों जैसी ज़िन्दगी जी है मैंने।”
उसकी बात सुनकर भगवान कुछ समय मौन
रहे और पुनः उस किसान से पूछा, ” तो अब क्या चाहते हो तुम, इस जन्म में मैं तुम्हे क्या बनाऊँ।”
भगवान का प्रश्न सुनकर वह किसान
पुनः बोला, ” भगवन आप कुछ ऐसा कर दीजिये, कि
मुझे कभी किसी को कुछ भी देना ना पड़े। मुझे तो केवल चारो तरफ से पैसा ही पैसा
मिले।”
अपनी बात कहकर वह किसान चुप हो गया।
भगवान से उसकी बात सुनी और कहा, ” तथास्तु, तुम
अब जा सकते हो मैं तुम्हे ऐसा ही जीवन दूँगा जैसा तुमने मुझसे माँगा है।”
उसके जाने पर भगवान ने पुनः दूसरे
किसान से पूछा, ” तुम बताओ तुम्हे क्या बनना है, तुम्हारे
जीवन में क्या कमी थी, तुम क्या चाहते हो?”
उस किसान ने भगवान के सामने हाथ
जोड़ते हुए कहा, ” हे भगवन। आपने मुझे सबकुछ दिया, मैं
आपसे क्या मांगू। आपने मुझे एक अच्छा परिवार दिया, मुझे कुछ
जमीन दी जिसपे मेहनत से काम करके मैंने अपना परिवार को एक अच्छा जीवन दिया। खाने
के लिए आपने मुझे और मेरे परिवार को भरपेट खाना दिया। मैं और मेरा परिवार कभी भूखे
पेट नहीं सोया। बस एक ही कमी थी मेरे जीवन में, जिसका मुझे
अपनी पूरी ज़िन्दगी अफ़सोस रहा और आज भी हैं। मेरे दरवाजे पे कभी कुछ भूखे और प्यासे
लोग आते थे। भोजन माँगने के लिए, परन्तु कभी कभी मैं भोजन न
होने के कारण उन्हें खाना नहीं दे पाता था, और वो मेरे द्वार
से भूखे ही लौट जाते थे। ऐसा कहकर वह चुप हो गया।”
भगवान ने उसकी बात सुनकर उससे पूछा, ” तो अब क्या चाहते हो तुम, इस जन्म में मैं तुम्हें
क्या बनाऊँ।” किसान भगवान से हाथ जोड़ते हुए विनती की, ” हे
प्रभु! आप कुछ ऐसा कर दो कि मेरे द्वार से कभी कोई भूखा प्यासा ना जाये।” भगवान ने
कहा, “तथास्तु, तुम जाओ तुम्हारे द्वार
से कभी कोई भूखा प्यासा नहीं जायेगा।”
अब दोनों का पुनः उसी गाँव में एक
साथ जन्म हुआ। दोनों बड़े हुए।
पहला व्यक्ति जिसने भगवान से कहा था, कि
उसे चारो तरफ से केवल धन मिले और मुझे कभी किसी को कुछ देना ना पड़े, वह व्यक्ति उस गाँव का सबसे बड़ा भिखारी बना। अब उसे किसी को कुछ देना नहीं
पड़ता था, और जो कोई भी आता उसकी झोली में पैसे डालके ही जाता
था।
और दूसरा व्यक्ति जिसने भगवान से कहा
था कि उसे कुछ नहीं चाहिए, केवल इतना हो जाये की उसके द्वार से कभी कोई
भूखा प्यासा ना जाये, वह उस गाँव का सबसे अमीर आदमी बना।
दोस्तों ईश्वर ने जो दिया है उसी
में संतुष्ट होना बहुत जरूरी है। अकसर देखा जाता है कि सभी लोगों को हमेशा दूसरे
की चीज़ें ज्यादा पसंद आती हैं और इसके चक्कर में वो अपना जीवन भी अच्छे से नहीं जी
पाते। मित्रों हर बात के दो पहलू होते हैं –
सकारात्मक और नकारात्मक, अब
ये आपकी सोच पर निर्भर करता है कि आप चीज़ों को नकारात्मक रूप से देखते हैं या
सकारात्मक रूप से। अच्छा जीवन जीना है तो अपनी सोच को अच्छा बनाइये, चीज़ों में कमियाँ मत निकालिये बल्कि जो भगवान ने दिया है उसका आनंद लीजिये
और हमेशा दूसरों के प्रति सेवा भाव रखिये!!!
👉 जहाँ प्रेम है, वहाँ
लक्ष्मी का वास है।
एक व्यापारी से लक्ष्मी जी रूठ गई।
जाते वक्त बोली मैं जा रही हूँ और मेरी जगह टोटा (नुकसान) आ रहा है। तैयार हो जाओ।
लेकिन मै तुम्हे अंतिम भेट जरूर देना चाहती हूँ। मांगो जो भी इच्छा हो।
बनिया बहुत समझदार था। उसने 🙏 विनती की टोटा आए तो आने दो। लेकिन उससे कहना की मेरे
परिवार में आपसी प्रेम बना रहे। बस मेरी यही
इच्छा है। लक्ष्मी जी ने तथास्तु कहा।
कुछ दिन के बाद :-
बनिए की सबसे छोटी बहू खिचड़ी बना
रही थी। उसने नमक आदि डाला और अन्य काम
करने लगी। तब दूसरे लड़के की बहू आई और उसने भी बिना चखे नमक डाला और चली गई। इसी
प्रकार तीसरी, चौथी बहुएं आई और नमक डालकर चली गई। उनकी सास ने भी ऐसा
किया।
शाम को सबसे पहले बनिया आया। पहला निवाला मुह में लिया। देखा बहुत
ज्यादा नमक है। लेकिन वह समझ गया टोटा (हानि) आ चुका है। चुपचाप खिचड़ी खाई और चला
गया। इसके बाद बङे बेटे का नम्बर आया। पहला निवाला मुह में लिया। पूछा पिता जी ने
खाना खा लिया। क्या कहा उन्होंने?
सभी ने उत्तर दिया-" हाँ खा
लिया,
कुछ नही बोले।"
अब लड़के ने सोचा जब पिता जी ही कुछ
नही बोले तो मै भी चुपचाप खा लेता हूँ।
इस प्रकार घर के अन्य सदस्य एक-एक
आए। पहले वालो के बारे में पूछते और चुपचाप खाना खा कर चले गए।
रात को टोटा (हानि) हाथ जोड़कर बनिए
से कहने लगा-,"मै जा रहा हूँ।"
बनिए ने पूछा- क्यों?
तब टोटा (हानि) कहता है, "आप लोग एक किलो तो नमक खा गए। लेकिन बिलकुल भी झगड़ा नही हुआ। मेरा यहाँ
कोई काम नहीं।"
निचौङ
⭐ झगड़ा कमजोरी, टोटा, नुकसान की पहचान है।
👏 जहाँ प्रेम है, वहाँ
लक्ष्मी का वास है।
🔃 सदा प्यार -प्रेम बांटते रहे। छोटे-बङे की कदर करे।
जो बड़े हैं, वो
बड़े ही रहेंगे। चाहे आपकी कमाई उसकी कमाई से बड़ी हो।
👉 दया और सौम्यता
पति ने पत्नी को किसी बात पर तीन
थप्पड़ जड़ दिए, पत्नी ने इसके जवाब में अपना सैंडिल पति की तरफ़ फेंका,
सैंडिल का एक सिरा पति के सिर को छूता हुआ निकल गया।
मामला रफा-दफा हो भी जाता, लेकिन
पति ने इसे अपनी तौहिनी समझी, रिश्तेदारों ने मामला और
पेचीदा बना दिया, न सिर्फ़ पेचीदा बल्कि संगीन, सब रिश्तेदारों ने इसे खानदान की नाक कटना कहा, यह
भी कहा कि पति को सैडिल मारने वाली औरत न वफादार होती है न पतिव्रता।
इसे घर में रखना, अपने
शरीर में मियादी बुखार पालते रहने जैसा है। कुछ रिश्तेदारों ने यह भी पश्चाताप
जाहिर किया कि ऐसी औरतों का भ्रूण ही समाप्त कर देना चाहिए।
बुरी बातें चक्रवृत्ति ब्याज की तरह
बढ़ती है,
सो दोनों तरफ खूब आरोप उछाले गए। ऐसा लगता था जैसे दोनों पक्षों के
लोग आरोपों का वॉलीबॉल खेल रहे हैं। लड़के ने लड़की के बारे में और लड़की ने लड़के
के बारे में कई असुविधाजनक बातें कही।
मुकदमा दर्ज कराया गया। पति ने
पत्नी की चरित्रहीनता का तो पत्नी ने दहेज उत्पीड़न का मामला दर्ज कराया। छह साल
तक शादीशुदा जीवन बीताने और एक बच्ची के माता-पिता होने के बाद आज दोनों में तलाक
हो गया।
पति-पत्नी के हाथ में तलाक के
काग़ज़ों की प्रति थी।
दोनों चुप थे, दोनों
शांत, दोनों निर्विकार।
मुकदमा दो साल तक चला था। दो साल से
पत्नी अलग रह रही थी और पति अलग, मुकदमे की सुनवाई पर दोनों को आना
होता। दोनों एक दूसरे को देखते जैसे चकमक पत्थर आपस में रगड़ खा गए हों।
दोनों गुस्से में होते। दोनों में
बदले की भावना का आवेश होता। दोनों के साथ रिश्तेदार होते जिनकी हमदर्दियों में
ज़रा-ज़रा विस्फोटक पदार्थ भी छुपा होता।
लेकिन कुछ महीने पहले जब पति-पत्नी
कोर्ट में दाखिल होते तो एक-दूसरे को देख कर मुँह फेर लेते। जैसे जानबूझ कर
एक-दूसरे की उपेक्षा कर रहे हों, वकील औऱ रिश्तेदार दोनों के साथ होते।
दोनों को अच्छा-खासा सबक सिखाया
जाता कि उन्हें क्या कहना है। दोनों वही कहते। कई बार दोनों के वक्तव्य बदलने
लगते। वो फिर सँभल जाते।
अंत में वही हुआ जो सब चाहते थे
यानी तलाक .....
पहले रिश्तेदारों की फौज साथ होती
थी, आज थोड़े से रिश्तेदार साथ थे। दोनों तरफ के रिश्तेदार खुश थे, वकील खुश थे, माता-पिता भी खुश थे।
तलाकशुदा पत्नी चुप थी और पति खामोश
था।
यह महज़ इत्तेफाक ही था कि दोनों
पक्षों के रिश्तेदार एक ही टी-स्टॉल पर बैठे , कोल्ड ड्रिंक्स लिया।
यह भी महज़ इत्तेफाक ही था कि
तलाकशुदा पति-पत्नी एक ही मेज़ के आमने-सामने जा बैठे।
लकड़ी की बेंच और वो दोनों ।।।।।।।
''कांग्रेच्यूलेशन ।।।। आप
जो चाहते थे वही हुआ ।।।।'' स्त्री ने कहा।
''तुम्हें भी बधाई ।।।।।
तुमने भी तो तलाक दे कर जीत हासिल की ।।।।'' पुरुष बोला।
''तलाक क्या जीत का प्रतीक
होता है????'' स्त्री ने पूछा।
''तुम बताओ?''
पुरुष के पूछने पर स्त्री ने जवाब
नहीं दिया, वो चुपचाप बैठी रही, फिर बोली,
''तुमने मुझे चरित्रहीन कहा था।।।।
अच्छा हुआ।।।। अब तुम्हारा
चरित्रहीन स्त्री से पीछा छूटा।''
''वो मेरी गलती थी, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था'' पुरुष बोला।
''मैंने बहुत मानसिक तनाव
झेली है'', स्त्री की आवाज़ सपाट थी न दुःख, न गुस्सा।
''जानता हूँ पुरुष इसी
हथियार से स्त्री पर वार करता है, जो स्त्री के मन और आत्मा
को लहू-लुहान कर देता है।।। तुम बहुत उज्ज्वल हो। मुझे तुम्हारे बारे में ऐसी गंदी
बात नहीं करनी चाहिए थी। मुझे बेहद अफ़सोस है, '' पुरुष ने
कहा।
स्त्री चुप रही, उसने
एक बार पुरुष को देखा।
कुछ पल चुप रहने के बाद पुरुष ने
गहरी साँस ली और कहा, ''तुमने भी तो मुझे दहेज का लोभी कहा था।''
''गलत कहा था''।।।। पुरुष की ओऱ देखती हुई स्त्री बोली।
कुछ देर चुप रही फिर बोली, ''मैं कोई और आरोप लगाती लेकिन मैं नहीं।।।''
प्लास्टिक के कप में चाय आ गई।
स्त्री ने चाय उठाई, चाय
ज़रा-सी छलकी। गर्म चाय स्त्री के हाथ पर गिरी।
स्सी।।। की आवाज़ निकली।
पुरुष के गले में उसी क्षण 'ओह'
की आवाज़ निकली। स्त्री ने पुरुष को देखा। पुरुष स्त्री को देखे जा
रहा था।
''तुम्हारा कमर दर्द कैसा है?''
''ऐसा ही है कभी वोवरॉन तो
कभी काम्बीफ्लेम,'' स्त्री ने बात खत्म करनी चाही।
''तुम एक्सरसाइज भी तो नहीं
करती।'' पुरुष ने कहा तो स्त्री फीकी हँसी हँस दी।
''तुम्हारे अस्थमा की क्या
कंडीशन है।।। फिर अटैक तो नहीं पड़े????'' स्त्री ने पूछा।
''अस्थमा। डॉक्टर सूरी ने
स्ट्रेन।।। मेंटल स्ट्रेस कम करने को कहा है, '' पुरुष ने
जानकारी दी।
स्त्री ने पुरुष को देखा, देखती
रही एकटक। जैसे पुरुष के चेहरे पर छपे तनाव को पढ़ रही हो।
''इनहेलर तो लेते रहते हो न?''
स्त्री ने पुरुष के चेहरे से नज़रें हटाईं और पूछा।
''हाँ, लेता रहता हूँ। आज लाना याद नहीं रहा, '' पुरुष ने
कहा।
''तभी आज तुम्हारी साँस
उखड़ी-उखड़ी-सी है, '' स्त्री ने हमदर्द लहजे में कहा।
''हाँ, कुछ इस वजह से और कुछ।।।'' पुरुष कहते-कहते रुक गया।
''कुछ।।। कुछ तनाव के कारण,''
स्त्री ने बात पूरी की।
पुरुष कुछ सोचता रहा, फिर
बोला, ''तुम्हें चार लाख रुपए देने हैं और छह हज़ार रुपए
महीना भी।''
''हाँ।।। फिर?'' स्त्री ने पूछा।
''वसुंधरा में फ्लैट है।।।
तुम्हें तो पता है। मैं उसे तुम्हारे नाम कर देता हूँ। चार लाख रुपए फिलहाल मेरे
पास नहीं है।'' पुरुष ने अपने मन की बात कही।
''वसुंधरा वाले फ्लैट की
कीमत तो बीस लाख रुपए होगी??? मुझे सिर्फ चार लाख रुपए चाहिए।।।।''
स्त्री ने स्पष्ट किया।
''बिटिया बड़ी होगी।।। सौ
खर्च होते हैं।।।।'' पुरुष ने कहा।
''वो तो तुम छह हज़ार रुपए
महीना मुझे देते रहोगे,'' स्त्री बोली।
''हाँ, ज़रूर दूँगा।''
''चार लाख अगर तुम्हारे पास
नहीं है तो मुझे मत देना,'' स्त्री ने कहा।
उसके स्वर में पुराने संबंधों की
गर्द थी।
पुरुष उसका चेहरा देखता रहा।।।।
कितनी सहृदय और कितनी सुंदर लग रही
थी सामने बैठी स्त्री जो कभी उसकी पत्नी हुआ करती थी।
स्त्री पुरुष को देख रही थी और सोच
रही थी,
''कितना सरल स्वभाव का है यह पुरुष, जो कभी
उसका पति हुआ करता था। कितना प्यार करता था उससे।।।
एक बार हरिद्वार में जब वह गंगा में
स्नान कर रही थी तो उसके हाथ से जंजीर छूट गई। फिर पागलों की तरह वह बचाने चला आया
था उसे। खुद तैरना नहीं आता था लाट साहब को और मुझे बचाने की कोशिशें करता रहा था।।।
कितना अच्छा है।।। मैं ही खोट निकालती रही।।।''
पुरुष एकटक स्त्री को देख रहा था और
सोच रहा था, ''कितना ध्यान रखती थी, स्टीम के
लिए पानी उबाल कर जग में डाल देती। उसके लिए हमेशा इनहेलर खरीद कर लाती, सेरेटाइड आक्यूहेलर बहुत महँगा था। हर महीने कंजूसी करती, पैसे बचाती, और आक्यूहेलर खरीद लाती। दूसरों की
बीमारी की कौन परवाह करता है? ये करती थी परवाह! कभी जाहिर
भी नहीं होने देती थी। कितनी संवेदना थी इसमें। मैं अपनी मर्दानगी के नशे में रहा।
काश, जो मैं इसके जज़्बे को समझ पाता।''
दोनों चुप थे, बेहद
चुप।
दुनिया भर की आवाज़ों से मुक्त हो
कर, खामोश।
दोनों भीगी आँखों से एक दूसरे को
देखते रहे।।।।
''मुझे एक बात कहनी है,
'' उसकी आवाज़ में झिझक थी।
''कहो, '' स्त्री ने सजल आँखों से उसे देखा।
''डरता हूँ,'' पुरुष ने कहा।
''डरो मत। हो सकता है
तुम्हारी बात मेरे मन की बात हो,'' स्त्री ने कहा।
''तुम बहुत याद आती रही,''
पुरुष बोला।
''तुम भी,'' स्त्री ने कहा।
''मैं तुम्हें अब भी प्रेम
करता हूँ।''
''मैं भी।'' स्त्री ने कहा।
दोनों की आँखें कुछ ज़्यादा ही सजल
हो गई थीं।
दोनों की आवाज़ जज़्बाती और चेहरे
मासूम।
''क्या हम दोनों जीवन को नया
मोड़ नहीं दे सकते?'' पुरुष ने पूछा।
''कौन-सा मोड़?''
''हम फिर से साथ-साथ रहने
लगें।।। एक साथ।।। पति-पत्नी बन कर।।। बहुत अच्छे दोस्त बन कर।''
''ये पेपर?'' स्त्री ने पूछा।
''फाड़ देते हैं।'' पुरुष ने कहा औऱ अपने हाथ से तलाक के काग़ज़ात फाड़ दिए। फिर स्त्री ने भी
वही किया। दोनों उठ खड़े हुए। एक दूसरे के हाथ में हाथ डाल कर मुस्कराए। दोनों
पक्षों के रिश्तेदार हैरान-परेशान थे। दोनों पति-पत्नी हाथ में हाथ डाले घर की तरफ
चले गए। घर जो सिर्फ और सिर्फ पति-पत्नी का था।।
पति पत्नी में प्यार और तकरार एक ही
सिक्के के दो पहलू हैं जरा सी बात पर कोई ऐसा फैसला न लें कि आपको जिंदगी भर अफसोस
हो।।
👉 ज्ञान और आस्था
एक पंडित जी थे। उन्होंने एक नदी के
किनारे अपना आश्रम बनाया हुआ था। पंडित जी बहुत विद्वान थे। उनके आश्रम में
दूर-दूर से लोग ज्ञान प्राप्त करने आते थे।
नदी के दूसरे किनारे पर लक्ष्मी नाम
की एक ग्वालिन अपने बूढ़े पिता के साथ रहती थी। लक्ष्मी सारा दिन अपनी गायों को
देखभाल करती थी। सुबह जल्दी उठकर अपनी गायों को नहला कर दूध दुहती, फिर
अपने पिताजी के लिए खाना बनाती, तत्पश्चात् तैयार होकर दूध
बेचने के लिए निकल जाया करती थी।
पंडित जी के आश्रम में भी दूध
लक्ष्मी के यहाँ से ही आता था। एक बार पंडित जी को किसी काम से शहर जाना था।
उन्होंने लक्ष्मी से कहा कि उन्हें शहर जाना है, इसलिए अगले दिन दूध
उन्हें जल्दी चाहिए। लक्ष्मी अगले दिन जल्दी आने का वादा करके चली गयी।
अगले दिन लक्ष्मी ने सुबह जल्दी
उठकर अपना सारा काम समाप्त किया और जल्दी से दूध उठाकर आश्रम की तरफ निकल पड़ी।
नदी किनारे उसने आकर देखा कि कोई मल्लाह अभी तक आया नहीं था। लक्ष्मी बगैर नाव के
नदी कैसे पार करती ? फिर क्या था, लक्ष्मी
को आश्रम तक पहुँचने में देर हो गयी। आश्रम में पंडित जी जाने को तैयार खड़े थे।
उन्हें सिर्फ लक्ष्मी का इन्तजार था। लक्ष्मी को देखते ही उन्होंने लक्ष्मी को
डाँटा और देरी से आने का कारण पूछा।
लक्ष्मी ने भी बड़ी मासूमियत से
पंडित जी से कह दिया कि- “नदी पर कोई मल्लाह नहीं था, मै
नदी कैसे पार करती ? इसलिए देर हो गयी।“
पंडित जी गुस्से में तो थे ही, उन्हें
लगा कि लक्ष्मी बहाने बना रही है। उन्होंने भी गुस्से में लक्ष्मी से कहा,
‘‘क्यों बहाने बनाती है। लोग तो जीवन सागर को भगवान का नाम लेकर पार
कर जाते हैं, तुम एक छोटी सी नदी पार नहीं कर सकती?”
पंडित जी की बातों का लक्ष्मी पर
बहुत गहरा असर हुआ। दूसरे दिन भी जब लक्ष्मी दूध लेकर आश्रम जाने निकली तो नदी के
किनारे मल्लाह नहीं था। लक्ष्मी ने मल्लाह का इंतजार नहीं किया। उसने भगवान को याद
किया और पानी की सतह पर चलकर आसानी से नदी पार कर ली। इतनी जल्दी लक्ष्मी को आश्रम
में देख कर पंडित जी हैरान रह गये, उन्हें पता था कि कोई
मल्लाह इतनी जल्दी नहीं आता है।
उन्होंने लक्ष्मी से पूछा- “ तुमने
आज नदी कैसे पार की ? इतनी सुबह तो कोई मल्लाह नही मिलता।”
लक्ष्मी ने बड़ी सरलता से कहा-
‘‘पंडित जी आपके बताये हुए तरीके से नदी पार कर ली। मैंने भगवान् का नाम लिया और
पानी पर चलकर नदी पार कर ली।’’
पंडित जी को लक्ष्मी की बातों पर
विश्वास नहीं हुआ। उसने लक्ष्मी से फिर पानी पर चलने के लिए कहा। लक्ष्मी नदी के
किनारे गयी और उसने भगवान का नाम जपते-जपते बड़ी आसानी से नदी पार कर ली।
पंडित जी हैरान रह गये। उन्होंने भी
लक्ष्मी की तरह नदी पार करनी चाही। पर नदी में उतरते वक्त उनका ध्यान अपनी धोती को
गीली होने से बचाने में लगा था। वह पानी पर नहीं चल पाये और धड़ाम से पानी में गिर
गये।
पंडित जी को गिरते देख लक्ष्मी ने हँसते हुए
कहा- ‘‘आपने तो भगवान का नाम लिया ही नहीं, आपका सारा ध्यान अपनी नयी
धोती को बचाने में ही लगा हुआ था।’’
पंडित जी को अपनी गलती का अहसास हो
गया। उन्हें अपने ज्ञान पर बड़ा अभिमान था। पर अब उन्होंने जान लिया था कि भगवान
को पाने के लिए किसी भी ज्ञान की जरूरत नहीं होती। उसे तो पाने के लिए सिर्फ सच्चे
मन से याद करने की जरूरत है।
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