ज्ञानवर्धक कथाएं -भाग -9
भगवान की कृपा या अकृपा
एक व्यक्ति नित्य हनुमान जी की
मूर्ति के आगे दिया जलाने जाया करता था। एक दिन मैंने उससे इसका कारण पूछा तो उसने
कहा-”मैंने हनुमान जी की मनौती मानी थी कि यदि मुकदमा जीत जाऊँ तो रोज उनके आगे
दिया जलाया करूंगा। मैं जीत गया और तभी से यह दिया जलाने का कम चल रहा है।
मेरे पूछने पर मुकदमे का विवरण
बताते हुए उसने कहा- एक गरीब आदमी की जमीन मैंने दबा रखी थी, उसने
अपनी जमीन वापिस छुड़ाने के लिए अदालत में अर्जी दी, पर वह
कानून जानता न था और मुकदमें का खर्च भी न जुटा पाया। मैंने अच्छे वकील किए खर्च
किया और हनुमान जी मनौती मनाई। जीत मेरी हुई। हनुमान जी की इस कृपा के लिए मुझे
दीपक जलाना ही चाहिए था, सो जलाता भी हूँ।
मैंने उससे कहा-भोले आदमी, यह
तो हनुमान जी की कृपा नहीं अकृपा हुई। अनुचित कार्यों में सफलता मिलने से तो
मनुष्य पाप और पतन के मार्ग पर अधिक तेजी से बढ़ता है, क्या
तुझे इतना भी मालूम नहीं। मैंने उस व्यक्ति को एक घटना सुनाई-’एक व्यक्ति
वेश्यागमन के लिए गया। सीढ़ी पर चढ़ते समय उसका पैर फिसला और हाथ की हड्डी टूट गई।
अस्पताल में से उसने सन्देश भेजा कि मेरी हड्डी टूटी यह भगवान की बड़ी कृपा है।
वेश्यागमन के पाप से बच गया।
मनुष्य सोचता है कि जो कुछ वह चाहे
उसकी पूर्ति हो जाना ही भगवान ही कृपा है। यह भूल है। यदि उचित और न्याययुक्त
सफलता मिले तो ही उसे भगवान की कृपा कहना चाहिए। पाप की सफलता तो प्रत्यक्ष अकृपा
है। जिससे अपना पतन और नाश समीप आता है उसे अकृपा नहीं तो और क्या कहें?
👉 यही माया है
एक दिन नारद ने भगवान से पूछा-
“माया कैसी है?” भगवान मुस्करा दिये और बोले- “किसी दिन प्रत्यक्ष दिखा
देंगे।"
अवसर मिलने पर भगवान नारद को साथ
लेकर मृत्युलोक को चल दिये। रास्ते में एक लम्बा रेगिस्तान पड़ा। भगवान ने कहा-
“नारद! बहुत जोर की प्यास लगी है। कहीं से थोड़ा पानी लाओ।”
नारद कमंडल लेकर चल दिये। थोड़ा आगे
चलने पर नींद आ गई और एक खजूर के झुरमुट में सो गये। पानी लाने की याद ही न रही।
सोते ही एक मीठा सपना देखा किसी
वनवासी के दरवाजे पर पहुँचे हैं। द्वार खटखटाया तो एक सुन्दर युवती निकली। नारद को
सुहावनी लगी सो घर में चले गये और इधर उधर की वार्ता में निमग्न हो गये। नारद ने
अपना परिचय दिया और भील कन्या से विवाह का प्रस्ताव किया। उसका परिवार सहमत हो गया
और तुरन्त साज सामान इकट्ठा करके विवाह कर दिया। नारद सुन्दर पत्नी के साथ बड़े
आनन्दपूर्वक दिन बिताने लगे। कुछ ही दिनों में क्रमशः उनके तीन पुत्र भी हो गये।
एक दिन भयंकर वर्षा हुई झोंपड़ी के
पास रहने वाली नदी में बाढ़ आ गई। नारद अपने परिवार को लेकर बचने के लिए भागे। पीठ
और कंधे पर लदे हुए तीनों बच्चे उस भयंकर बाढ़ में बह गये। यहाँ तक कि पत्नी का
हाथ पकड़ने पर भी वह रुक न सकी और उसी बाढ़ में बह गई जिसमें उसके बच्चे बह गये
थे।
नारद किनारे पर निकले तो आए पर सारा
परिवार गँवा बैठने पर फूट-फूट कर रोने लगे। सोने और सपने में एक घण्टा बीत चुका
था। उनके मुख से रुदन की आवाज अब भी निकल रही थी। पर झुरमुट में औंधे मुँह ही
उनींदे पड़े हुए थे।
भगवान सब समझ रहे थे। वे नारद को
ढूँढ़ते हुए खजूर के झुरमुट में पहुँचे उन्हें सोते से जगाया। आँसू पोंछे और रुदन
रुकवाया। नारद हड़बड़ा कर बैठ गये।
भगवान ने पूछा- ‘‘हमारे लिए पानी
लाने गये थे सो क्या हुआ?” नारद ने सपने में परिवार बसने और बाढ़ में
बहने के दृश्य में समय चला जाने के कारण क्षमा माँगी।
भगवान ने कहा- ‘‘देखा नारद! यही
माया है।”
जीवन की सबसे बड़ी सिख
एक समय की बात है, एक
जंगल में सेब का एक बड़ा पेड़ था। एक बच्चा रोज उस पेड़ पर खेलने आया करता था। वह
कभी पेड़ की डाली से लटकता, कभी फल तोड़ता, कभी उछल कूद करता था, सेब का पेड़ भी उस बच्चे से
काफ़ी खुश रहता था।कई साल इस तरह बीत गये। अचानक एक दिन बच्चा कहीं चला गया और फिर
लौट के नहीं आया, पेड़ ने उसका काफ़ी इंतज़ार किया पर वह
नहीं आया। अब तो पेड़ उदास हो गया था।
काफ़ी साल बाद वह बच्चा फिर से
पेड़के पास आया पर वह अब कुछ बड़ा हो गया था। पेड़ उसे देखकर काफ़ी खुश हुआ और उसे
अपने साथ खेलने के लिए कहा।
पर बच्चा उदास होते हुए बोला कि अब
वह बड़ा हो गया है अब वह उसके साथ नहीं खेल सकता। बच्चा बोला की, “अब
मुझे खिलोने से खेलना अच्छा लगता है, पर मेरे पास खिलोने
खरीदने के लिए पैसे नहीं है”
पेड़ बोला, “उदास
ना हो तुम मेरे फल (सेब) तोड़ लो और उन्हें बेच कर खिलोने खरीद लो। बच्चा खुशी
खुशी फल (सेब) तोड़के ले गया लेकिन वह फिर बहुत दिनों तक वापस नहीं आया। पेड़ बहुत
दुखी हुआ।
अचानक बहुत दिनों बाद बच्चा जो अब
जवान हो गया था वापस आया, पेड़ बहुत खुश हुआ और उसे अपने साथ खेलने के
लिए कहा।
पर लड़के ने कहा कि, “वह
पेड़ के साथ नहीं खेल सकता अब मुझे कुछ पैसे चाहिए क्यूंकी मुझे अपने बच्चों के
लिए घर बनाना है।”
पेड़ बोला, “मेरी
शाखाएँ बहुत मजबूत हैं तुम इन्हें काट कर ले जाओ और अपना घर बना लो। अब लड़के ने
खुशी-खुशी सारी शाखाएँ काट डालीं और लेकर चला गया।
उस समय पेड़ उसे देखकर बहूत खुश हुआ
लेकिन वह फिर कभी वापस नहीं आया। और फिर से वह पेड़ अकेला और उदास हो गया था।
अंत में वह काफी दिनों बाद थका हुआ
वहा आया।
तभी पेड़ उदास होते हुए बोला की, “अब
मेरे पास ना फल हैं और ना ही लकड़ी अब में तुम्हारी मदद भी नहीं कर सकता।
बूढ़ा बोला की, “अब
उसे कोई सहायता नहीं चाहिए बस एक जगह चाहिए जहाँ वह बाकी जिंदगी आराम से गुजार सके।”
पेड़ ने उसे अपनी जड़ो मे पनाह दी और बूढ़ा हमेशा वहीं रहने लगा।
यही कहानी आज हम सब की भी है।
मित्रों इसी पेड़ की तरह हमारे माता-पिता भी होते हैं, जब
हम छोटे होते हैं तो उनके साथ खेलकर बड़े होते हैं और बड़े होकर उन्हें छोड़ कर
चले जाते हैं और तभी वापस आते हैं जब हमें कोई ज़रूरत होती है। धीरे-धीरे ऐसे ही
जीवन बीत जाता है। हमें पेड़ रूपी माता-पिता की सेवा करनी चाहिए ना की सिर्फ़ उनसे
फ़ायदा लेना चाहिए।
इस कहानी में हमें दिखाई देता है की
उस पेड़ के लिए वह बच्चा बहुत महत्वपूर्ण था, और वह बच्चा बार-बार जरुरत
के अनुसार उस सेब के पेड़ का उपयोग करता था, ये सब जानते हुए
भी की वह उसका केवल उपयोग ही कर रहा है। इसी तरह आज-कल हम भी हमारे माता-पिता का
जरुरत के अनुसार उपयोग करते है।
और बड़े होने पर उन्हें भूल जाते है।
हमें हमेशा हमारे माता-पिता की सेवा करनी चाहिये, उनका सम्मान करना
चाहिये। और हमेशा, भले ही हम कितने भी व्यस्त क्यू ना हो
उनके लिए थोडा समय तो भी निकलते रहना चाहिये।
श्रद्धा के फूल
एक बार किसी गांव में महात्मा बुध्द
का आगमन हुआ। सब इस होड़ में लग गये कि क्या भेंट करें। इधर गाँव में एक गरीब मोची
था। उसने देखा कि मेरे घर के बाहर के तालाब में बेमौसम का एक कमल खिला है।
उसकी इच्छा हुई कि, आज
नगर में महात्मा आए हैं, सब लोग तो उधर ही गए हैं, आज हमारा काम चलेगा नहीं, आज यह फूल बेचकर ही गुजारा
कर लें। वह तालाब के अंदर कीचड़ में घुस गया। कमल के फूल को लेकर आया। केले के
पत्ते का दोना बनाया।।और उसके अंदर कमल का फूल रख दिया।
पानी की कुछ बूंदें कमल पर पड़ी हुई
हैं ।।और वह बहुत सुंदर दिखाई दे रहा है।
इतनी देर में एक सेठ पास आया और आते
ही कहा-''क्यों फूल बेचने की इच्छा है ?'' आज हम आपको इसके दो
चांदी के रूपए दे सकते हैं।
अब उसने सोचा ।।।कि एक-दो आने का
फूल! इस के दो रुपए दिए जा रहे हैं। वह आश्चर्य में पड़ गया।
इतनी देर में नगर-सेठ आया । उसने
कहा ''भई, फूल बहुत अच्छा है, यह फूल
हमें दे दो'' हम इसके दस चांदी के सिक्के दे सकते हैं।
मोची ने सोचा, इतना
कीमती है यह फूल। नगर सेठ ने मोची को सोच मे पड़े देख कर कहा कि अगर पैसे कम हों,
तो ज्यादा दिए जा सकते हैं।
मोची ने सोचा-क्या बहुत कीमती है ये
फूल?
नगर सेठ ने कहा-मेरी इच्छा है कि
मैं महात्मा के चरणों में यह फूल रखूं। इसलिए इसकी कीमत लगाने लगा हूं।
इतनी देर में उस राज्य का मंत्री
अपने वाहन पर बैठा हुआ पास आ गया और कहता है- क्या बात है? कैसी
भीड़ लगी हुई है?
अब लोग कुछ बताते इससे पहले ही उसका
ध्यान उस फूल की तरफ गया। उसने पूछा- यह फूल बेचोगे?
हम इस के सौ सिक्के दे सकते हैं। क्योंकि
महात्मा आए हुए हैं। ये सिक्के तो कोई कीमत नहीं रखते।
जब हम यह फूल लेकर जाएंगे तो सारे
गांव में चर्चा तो होगी कि महात्मा ने केवल मंत्री का भेंट किया हुआ ही फूल
स्वीकार किया। हमारी बहुत ज्यादा चर्चा होगी।
इसलिए हमारी इच्छा है कि यह फूल हम
भेंट करें और कहते हैं कि थोड़ी देर के बाद राजा ने भीड़ को देखा, देखने
के बाद वजीर ने पूछा कि बात क्या है? वजीर ने बताया कि फूल
का सौदा चल रहा है।
राजा ने देखते ही कहा-इसको हमारी
तरफ से एक हजार चांदी के सिक्के भेंट करना। यह फूल हम लेना चाहते हैं।
गरीब मोची ने कहा-लोगे तो तभी जब हम
बेचेंगे। हम बेचना ही नहीं चाहते। अब राजा कहता है कि।।।बेचोगे क्यों नहीं?
उसने कहा कि जब महात्मा के चरणों
में सब कुछ-न-कुछ भेंट करने के लिए पहुंच रहे हैं।।तो ये फूल इस गरीब की तरफ से आज
उनके चरणों में भेंट होगा।
राजा बोला-देख लो, एक
हजार चांदी के सिक्कों से तुम्हारी पीढ़ियां तर सकती हैं।
गरीब मोची कहा-मैंने तो आज तक
राजाओं की सम्पत्ति से किसी को तरते नहीं देखा लेकिन महान पुरुषों के आशीर्वाद से
तो लोगों को जरूर तरते देखा है।
राजा मुस्कुराया और कह उठा-तेरी बात
में दम है। तेरी मर्जी, तू ही भेंट कर ले।
अब राजा तो उस उद्यान में चला गया
जहां महात्मा ठहरे हुए थे।।।और बहुत जल्दी चर्चा महात्मा के कानों तक भी पहुंच गई, कि
आज कोई आदमी फूल लेकर आ रहा है।।
जिसकी कीमत बहुत लगी है। वह गरीब
आदमी है इसलिए फूल बेचने निकला था कि उसका गुजारा होता। जैसे ही वह गरीब मोची फूल
लेकर पहुंचा, तो शिष्यों ने महात्मा से कहा कि वह व्यक्ति आ गया है।
लोग एकदम सामने से हट गए। महात्मा
ने उसकी तरफ देखा। मोची फूल लेकर जैसे पहुंचा तो उसकी आंखों में से आंसू बरसने
लगे। कुछ बूंदे तो पानी की कमल पर पहले से ही थी।।।कुछ उसके आंसुओं के रूप में
ठिठक गई पर कमल पर।
रोते हुए इसने कहा-सब ने बहुत-बहुत
कीमती चीजेें आपके चरणों में भेंट की होंगी, लेकिन इस गरीब के पास यह
कमल का फूल और जन्म-जन्मान्तरों के पाप जो पाप मैंने किए हैं उनके आंसू आंखों में
भरे पड़े हैं। उनको आज आपके चरणों में चढ़ाने आया हूं। मेरा ये फूल और मेरे आंसू
भी स्वीकार करो।
महात्मा के चरणों में फूल रख दिया।
गरीब मोची घुटनों के बल बैठ गया।
महात्मा बुध्द ने अपने शिष्य आनन्द
को बुलाया और कहा, देख रहे हो आनन्द! हजारों साल में भी कोई राजा इतना नहीं कमा पाया जितना इस गरीब
इन्सान ने आज एक पल में ही कमा लिया।
इसका समर्पण श्रेष्ठ हो गया। इसने
अपने मन का भाव दे दिया।
एकमात्र ये मन का भाव ही है जिससे
हम गुरु की कृपा प्राप्त कर सकते हैं।
त्रिलोकी का सामान भी कोई अहमियत
नहीं रखता।
👉 संयम की साधना
बाल ब्रह्मचारी दयानंद ने दो सांडों
को आपस में लड़ते देखा। वे हटाये हट नहीं रहे थे। स्वामी जी ने दोनोँ के सींग दो
हाथों से पकड़े और मरोड़कर दो दिशाओं में फेंक दिया। डर कर वे दोनों भाग खड़े हुए।
ऐसी ही एक घटना और है।
स्वामी दयानंद शाहपुरा में निवास कर
रहे थे। जहाँ वे ठहरे थे, उस मकान के निकट ही एक नयी कोठी बन रही थी।
एक दिन अकस्मात् निर्माणाधीन भवन की छत टूट पड़ी। कई पुरुष उस खंडहर में बुरी तरह
फँस गए। निकलने कोई रास्ता नजर आता नहीं था। केवल चिल्लाकर अपने जीवित होने की
सूचना भर बाहर वालों को दे रहे थे। मलबे की स्थिति ऐसी बेतरतीब और खतरनाक थी कि
दर्शकों में से किसी की हिम्मत निकट जाने की हो जाय तो बचाने वालों का साथ ही भीतर
घिरे लोग भी भारी-भरकम दीवारों में पिस जा सकते हैं। तभी स्वामी जी भीड़ देखकर
कुतूहलवश उस स्थान पर आ पहुँचे, वस्तुस्थिति की जानकारी होते
ही वे आगे बढ़े और अपने एकाकी भुजा बल से उस विशाल शिला को हटा दिया, जिसके नीचे लोग दब गये थे।
आसपास एकत्रित लोग शारीरिक शक्ति का
परिचय पाकर उनकी जयकार करने लगे। उनने सबको शाँत करके समझाया कि यह शक्ति किसी
अलौकिकता या चमत्कारिता के प्रदर्शन के लिए आप लोगों को नहीं दिखायी है। संयम की साधना
करने वाला हर मनुष्य अपने में इससे भी विलक्षण शक्तियों का विकास कर सकता है।
📖 अखण्ड ज्योति मई 1994
👉 पिता की सिख।।।।
पिता और पुत्र साथ-साथ टहलने निकले,वे
दूर खेतों की तरफ निकल आये, तभी पुत्र ने देखा कि रास्ते में,
पुराने हो चुके एक जोड़ी जूते उतरे पड़े हैं, जो
।।।संभवतः पास के खेत में काम कर रहे गरीब मजदूर के थे।
पुत्र को मजाक सूझा। उसने पिता से
कहा क्यों न आज की शाम को थोड़ी शरारत से यादगार बनायें, आखिर
।।। मस्ती ही तो आनन्द का सही स्रोत है। पिता ने असमंजस से बेटे की ओर देखा।
पुत्र बोला हम ये जूते कहीं छुपा कर
झाड़ियों के पीछे छुप जाएं। जब वो मजदूर इन्हें यहाँ नहीं पाकर घबराएगा तो बड़ा
मजा आएगा। उसकी तलब देखने लायक होगी, और इसका आनन्द मैं जीवन भर
याद रखूंगा।
पिता, पुत्र की बात को
सुन गम्भीर हुये और बोले बेटा ! किसी गरीब
और कमजोर के साथ उसकी जरूरत की वस्तु के साथ इस तरह का भद्दा मजाक कभी न करना। जिन
चीजों की तुम्हारी नजरों में कोई कीमत नहीं,
वो उस गरीब के लिये बेशकीमती हैं।
तुम्हें ये शाम यादगार ही बनानी है, तो आओ ।। आज हम इन जूतों
में कुछ सिक्के डाल दें और छुप कर देखें कि ।।। इसका मजदूर पर क्या प्रभाव पड़ता
है।पिता ने ऐसा ही किया और दोनों पास की ऊँची झाड़ियों में छुप गए।
मजदूर जल्द ही अपना काम ख़त्म कर
जूतों की जगह पर आ गया। उसने जैसे ही एक पैर जूते में डाले उसे किसी कठोर चीज का
आभास हुआ,
उसने जल्दी से जूते हाथ में लिए और देखा कि ।।।अन्दर कुछ सिक्के
पड़े थे।
उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और वो सिक्के
हाथ में लेकर बड़े गौर से उन्हें देखने लगा। फिर वह इधर-उधर देखने लगा कि उसका
मददगार शख्स कौन है? दूर-दूर तक कोई नज़र नहीं आया, तो उसने सिक्के अपनी जेब में डाल लिए। अब उसने दूसरा जूता उठाया, उसमें भी सिक्के पड़े थे।
मजदूर भाव विभोर हो गया।
वो घुटनो के बल जमीन पर बैठ ।।।आसमान
की तरफ देख फूट-फूट कर रोने लगा। वह हाथ जोड़ बोला
हे भगवान् ! आज आप ही किसी रूप में
यहाँ आये थे, समय पर प्राप्त इस सहायता के लिए आपका और आपके माध्यम से जिसने भी ये मदद दी,उसका लाख-लाख धन्यवाद।
आपकी सहायता और दयालुता के कारण आज
मेरी बीमार पत्नी को दवा और भूखे बच्चों को रोटी मिल सकेगी।तुम बहुत दयालु हो
प्रभु ! आपका कोटि-कोटि धन्यवाद।
मजदूर की बातें सुन ।।। बेटे की
आँखें भर आयीं।
पिता ने पुत्र को सीने से लगाते
हुये कहा ~क्या तुम्हारी मजाक मजे वाली बात से जो आनन्द तुम्हें
जीवन भर याद रहता उसकी तुलना में इस गरीब के आँसू और दिए हुये आशीर्वाद तुम्हें
जीवन पर्यंत जो आनन्द देंगे वो उससे कम है, क्या ?
पिताजी ।। आज आपसे मुझे जो सीखने को
मिला है,
उसके आनंद को मैं अपने अंदर तक अनुभव कर रहा हूँ। अंदर में एक अजीब
सा सुकून है।
आज के प्राप्त सुख और आनन्द को मैं
जीवन भर नहीं भूलूँगा। आज मैं उन शब्दों का मतलब समझ गया जिन्हें मैं पहले कभी
नहीं समझ पाया था। आज तक मैं मजा और मस्ती-मजाक को ही वास्तविक आनन्द समझता था, पर
आज मैं समझ गया हूँ कि लेने की अपेक्षा देना कहीं अधिक आनंददायी है।
👉 सुन्दर और असुन्दर
बुद्ध एक वृक्ष के नीचे विश्राम कर
रहे हैं। रात है पूर्णिमा की। गांव से कुछ मनचले युवक एक वेश्या को लेकर पूर्णिमा
की रात मनाने आ गए हैं।
उन्होंने वेश्या को नग्न कर लिया है, उसके
वस्त्र छीन लिए हैं। वे सब शराब में मदहोश हो गए हैं, वे सब
नाच-कूद रहे हैं। उनको बेहोश हुआ देखकर वेश्या भाग निकली।
थोड़ा होश आया, तो
देखा, जिसके लिए नाचते थे, वह बीच में
नहीं है। खोजने निकले। जंगल है, किससे पूछें? आधी रात है। फिर उस वृक्ष के पास आए, जहां बुद्ध
बैठे हैं। तो उन्होंने कहा, यह भिक्षु यहां बैठा है, यही तो रास्ता है एक जाने का। अभी तक कोई दोराहा भी नहीं आया।
वह स्त्री जरूर यहीं से गुजरी होगी।
तो उन्होंने बुद्ध को कहा कि सुनो भिक्षु, यहां से कोई एक नग्न सुंदर
युवती भागती हुई निकली है? देखी है?
बुद्ध ने कहा, कोई
निकला जरूर, लेकिन युवती थी या युवक, कहना
मुश्किल है। क्योंकि व्याख्या करने की मेरी कोई इच्छा नहीं। कोई निकला है जरूर,
सुंदर था या असुंदर, कहना मुश्किल है। क्योंकि
जब अपनी चाह न रही, तो किसे सुंदर कहें, किसे असुंदर कहें!
👉 “क्षण भंगुर जीवन का दुरुपयोग न हो”
कई जन्मों पूर्व बोधिसत्व का जन्म
काशी नरेश ब्रह्मभद्र के यहाँ छोटे पुत्र के रूप में हुआ। वे राष्ट्राध्यक्ष बनना
चाहते थे। कनिष्ठ पुत्र होने के नाते वैसा अवसर उन्हें मिलने वाला नहीं था।
उन्होंने ताँत्रिक महासिद्ध प्रत्यंग से अपनी मनोकामना की पूर्ति का उपाय पूछा।
महासिद्ध ने बताया कि आगामी मास में तक्षशिला का सिंहासन रिक्त होने वाला है यदि
वे तुरन्त चल पड़ें तो अभीष्ट प्राप्ति में सफल हो सकते हैं। पूर्णिमा के दिन
प्रभातकाल में राजद्वार पर खड़े व्यक्ति को ही सिंहासन मिलेगा, यह
नियति की व्यवस्था है।
आकाँक्षा तीव्र होने के कारण वे चल
पड़े। उनके पाँच घनिष्ठ मित्र भी साथ चलने पर तुल गए। चलते समय वे महासिद्ध
प्रत्यंग का आशीष लेने पहुँचे सो उन्होंने सफलता का आशीर्वाद तो दिया, साथ
ही यह भी बता दिया कि “मार्ग में यक्ष वन पड़ता है। उसमें रूपसी यक्षिणियों का ही
अधिकार है। वे रूप, शब्द, गन्ध,
रस, स्पर्श जैसे साधनों से ही राहगीरों को
लुभाती, भोगती और अन्त में मारकर खा जाती है। इस विपत्ति से
बचकर चलने में ही तुम्हारी भलाई है।”
बोधिसत्व साथियों सहित चल पड़े।
जल्दी की आतुरतावश विराम पर कम और यात्रा पर अधिक ध्यान था। समय पर यक्ष वन आया।
राजकुमार तो सतर्क थे, पर साथी उन कसौटियों पर खरे नहीं उतरे। एक
ने पैर की मोच का बहाना लिया व एक रूपसी के यहाँ विराम हेतु रुक गया। दूसरे दिन
दूसरा शब्द जाल में बँधा, तीसरे-चौथे-पाँचवें मित्र भी एक-एक
करके इन क्षणिक आकर्षणों में मोहित हो बँधते चले गए। एक दिन छूंछ होकर प्राण गँवा
बैठे।
धुन के धनी बोधिसत्व किसी प्रलोभन
में रुके नहीं, आगे बढ़ते ही चले गए। यक्ष समुदाय के लिये यह प्रतिष्ठा
का प्रश्न था कि कोई उनके जाल में फँसे बिना निकल जाये। एक चतुर यक्षिणी उनके पीछे
लगा दी गयी। उपेक्षा करते हुए बोधिसत्व बढ़ते रहे, वह पीछे
चलती रही। राहगीरों के पूछने पर वह बताती- “ये मेरे जीवन प्राण हैं। उपेक्षिता
होने पर भी छाया की तरह साथ चलूँगी।” राहगीरों के समझाने पर राजकुमार वस्तुस्थिति
बताते तो भी कोई उनका विश्वास न करता। यक्षिणी जब स्वयं को गर्भिणी, असहाय कहती विलाप करती तो उसका पक्ष और भी प्रबल हो जाता।
ज्यों-त्यों करके बोधिसत्व तक्षशिला
समय पर पहुँच गए एवं मुहूर्त की प्रतीक्षा में एक कुँज में निवास करने लगे। किन्तु
उस सुन्दरी की चर्चा सर्वत्र दावानल की तरह फैल गयी। ऐसा सौंदर्य किसी ने देखा न
था। खबर राजमहल तक पहुँची। राजा ने देखा तो होशो-हवास गँवा बैठे। यक्षिणी को
पटरानी बनाने का प्रस्ताव रखा एवं उसकी यह शर्त भी मान ली कि महल के भीतर रहने
वाली सभी अन्तःवासियों पर उसका अधिकार होगा।
अब यक्षिणी ने बोधिसत्व को भुला
दिया और नए अधिकार क्षेत्र में अभीष्ट लाभ उठाने में जुट गयी। उसने यक्ष वन में
अपने सभी सहेलियों को बुलावा भेज दिया। सभी एक-एक करके महल के घरों में रहने वालों
के साथ लग गईं व एक-एक करके सभी को छूंछ बनाती चलती गयी एवं अन्ततः उदरस्थ कर गईं।
नियत मुहूर्त से एक दिन पहले ही राजमहल का घेरा अस्थि पिंजरों से भर गया।
राजा-प्रजा में से कोई न बचा। बाहर स्थित नगरवासियों द्वारा जब किले का फाटक
तोड़ने और भीतर की स्थिति देखने की तैयारी हुई तो वहाँ बोधिसत्व खड़े हुए थे।
उन्होंने स्तम्भित प्रजा जनों को आदि से अन्त तक सारी कथा कह सुनाई।
नगर को यक्षिणी के त्रास से मुक्ति
दिला सकने योग्य बोधिसत्व ही लगे सो उन्हें राज सिंहासन पर आरुढ़ कर दिया गया।
प्रचण्ड पुरुषार्थ- मनोबल सम्पन्न राजा के कारण यक्षिणियों की मण्डली को भी पलायन
करना पड़ा।
सिंहासनारूढ़ बोधिसत्व ने कुछ समय
उपरान्त प्रबुद्ध प्रजाजनों की एक संसद बुलाई और कहा- “शब्द, रूप,
रस, गन्ध, स्पर्श की
पाँच यक्षिणियों इन्द्रिय लिप्साओं के रूप में जहाँ भी आधिपत्य करेंगी, वहाँ के नागरिकों का सर्वनाश होकर रहेगा। जो भी इतना मनोबल जुटा ले कि इन
दुष्प्रवृत्तियों से जूझ सके, वह जीवन संग्राम में निश्चित
ही विजय पाता है।”
अखण्ड ज्योति 1984 अक्टूबर
👉 आत्म ख़ज़ाना
सत्संग का आदर करो प्यारे और खुद को
पहचानों आप क्या हो और क्या कर रहे हो?
एक भिखारी था । उसने सम्राट होने के
लिए कमर कसी। चौराहे पर अपनी फटी-पुरानी चादर बिछा दी, अपनी
हाँडी रख दी और सुबह-दोपहर-शाम भीख माँगना शुरू कर दिया क्योंकि उसे सम्राट होना
था। भीख माँगकर भी भला कोई सम्राट हो सकता है ? किंतु उसे इस
बात का पता नहीं था।
भीख माँगते-माँगते वह बूढ़ा हो गया
और मौत ने दस्तक दी। मौत तो किसी को नहीं छोड़ती। वह बूढ़ा भी मर गया। लोगों ने
उसकी हाँडी फेंक दी, सड़े-गले बिस्तर नदी में बहा दिये, जमीन गंदी हो गयी थी तो सफाई करने के लिए थोड़ी खुदाई की । खुदाई करने पर
लोगों को वहाँ बहुत बड़ा खजाना गड़ा हुआ मिला।
तब लोगों ने कहा: 'कितना
अभागा था! जीवनभर भीख माँगता रहा। जहाँ बैठा था अगर वहीं जरा-सी खुदाई करता तो
सम्राट हो जाता!'
ऐसे ही हम जीवनभर बाहर की चीजों की
भीख माँगते रहते हैं किन्तु जरा-सा भीतर गोता मारें, ईश्वर को पाने के
लिए ध्यान का जरा-सा अभ्यास करें तो उस आत्मखजाने को भी पा सकते हैं, जो हमारे अंदर ही छुपा हुआ है।
कर्म का फल सबको लेना पड़ता है ~ डॉ
चिन्मय पंड्या
👉 नियम कैसे टूट जाते है?
एक टेलर था। दर्जी था। यह बीमार
पडा। करीब-करीब मरने के करीब पहुंच गया
था। आखिरी घड़िया गिनता था। अब मर की तब मरा। रात उसने एक सपना देखा कि वह मर गया।
और कब्र में दफनाया जा रहा है। बड़ा हैरान हुआ, क्रब में रंग-बिरंगी बहुत
सी झंडियां लगी हुई है। उसने पास खड़े एक
फ़रिश्ते से पूछा कि ये झंडियां यहाँ क्यों लगी है? दर्जी
था, कपड़े में उत्सुकता भी स्वभाविक थी।
उसे फ़रिश्ते ने कहा, जिन-जिन
के तुमने कपड़े चुराए है। जितने-जितने कपड़े चुराए है। उनके प्रतीक के रूप में ये
झंडियां लगी है। परमात्मा इस से तुम्हारा
हिसाब करेगा। कि ये तुम्हारी चोरी का रहस्य खोल देंगी, ये
झंडियां तुम्हारे जीवन का बही खाता है।
वह घबरा गया। उसने कहा, हे
अल्लाह, रहम कर, झंडियों को कोई अंत
ही न था। दूर तक झंडियां ही झंडियां लगी
थी। जहां तक आंखें देख पा रही थी। और अल्लाह की आवाज से घबराहट में उसकी नींद खुल
गई। बहुत घबरा गया। पर न जाने किस अंजान कारण के वह एक दम से ठीक हो गया। फिर वह
दुकान पर आया तो उसके दो शागिर्द थे जो उसके साथ काम करते थे। वह उन्हें काम
सिखाता भी था। उसने उन दोनों को बुलाया और कहा सुनो, अब एक
बात का ध्यान रखना।
मुझे अपने पर भरोसा नहीं है। अगर
कपड़ा कीमती आ जाये तो मैं चुराऊंगा जरूर। पुरानी आदत है समझो। और अब इस बुढ़ापे
में बदलना बड़ी कठिन है। तुम एक काम करना, तुम जब भी देखो कि मैं कोई
कपड़ा चुरा रहा हूं। तुम इतना ही कह देना, उस्ताद जी
झंन-झंडी, जोर से कहा देना, दोबारा भी
गुरु जी झंन-झंडी। ताकि में सम्हल जाऊँ।
शिष्यों ने बहुत पूछा कि इसका क्या
मतलब है गुरु जी। उसने कहा, वह तुम ना समझ सकोगे। और इस बात में ना ही
उलझों तो अच्छा हे। तुम बस इतना भर मुझे याद दिला देना, गुरु
जी झंन-झंडी। बस मेरा काम हो जाएगा।
ऐसे तीन दिन बीते। दिन में कई बार
शिष्यों को चिल्लाना पड़ता, उस्ताद जी झंडी। वह रूक जाता। चौथे
दिन लेकिन मुश्किल हो गई। एक जज महोदय की अचकन बनने आई। बड़ा कीमती कपड़ा था।
विलायती था। उस्ताद घबड़ाया कि अब ये चिल्लाते ही हैं। झंन-झंडी। तो उसने जरा
पीठ कर ली शिष्यों की तरफ से। और कपड़ा मारने ही जा रहा था। कि शिष्य चिल्लाया,
उस्ताद जी, झंन-झंडी।
दर्जी ने इसे अनसुना कर दिया पर
शिष्य फिर चिल्लाया, उस्ताद जी, झंन-झंडी।
उसने कहा बंद करो नालायको, इस रंग के कपड़े की झंडी वहां पर
थी ही नहीं। क्या झंन-झंडी लगा रखी है। और फिर हो भी तो क्या फर्क पड़ता है जहां
पर इतनी झंडी लगी है वहां एक और सही।
ऊपर-ऊपर के नियम बहुत गहरे नहीं
जाते। सपनों में सीखी बातें जीवन का सत्य नहीं बन सकती। भय के कारण कितनी देर सम्हलकर
चलोगे। और लोभ कैसे पुण्य बन सकता है?
👉 कामयाबी की बाधा
एक बार स्वामी विवेकानन्द के आश्रम
में एक व्यक्ति आया जो देखने में बहुत दुखी लग रहा था।
वह व्यक्ति आते ही स्वामी जी के
चरणों में गिर पड़ा और बोला।।।
“महाराज! मैं अपने जीवन से बहुत
दुखी हूँ मैं अपने दैनिक जीवन में बहुत मेहनत करता हूँ, काफी
लगन से भी काम करता हूँ लेकिन कभी भी सफल नहीं हो पाया। भगवान ने मुझे ऐसा नसीब
क्यों दिया है कि मैं पढ़ा लिखा और मेहनती होते हुए भी कभी कामयाब नहीं हो पाया
हूँ।“
स्वामी जी उस व्यक्ति की परेशानी को
पल भर में ही समझ गए। उन दिनों स्वामी जी के पास एक छोटा सा पालतू कुत्ता था, उन्होंने
उस व्यक्ति से कहा।।।
“तुम कुछ दूर जरा मेरे कुत्ते को
सैर करा लाओ फिर मैं तुम्हारे सवाल का जवाब दूँगा।“
उस व्यक्ति ने बड़े आश्चर्य से
स्वामी जी की ओर देखा और फिर कुत्ते को लेकर कुछ दूर निकल पड़ा। काफी देर तक अच्छी
खासी सैर करा कर जब वो व्यक्ति वापस स्वामी जी के पास पहुँचा तो स्वामी जी ने देखा
कि उस व्यक्ति का चेहरा अभी भी चमक रहा था, जबकि कुत्ता हाँफ रहा था
और बहुत थका हुआ लग रहा था।
स्वामी जी ने उससे पूछा।।।।
“कि ये कुत्ता इतना ज्यादा कैसे थक
गया?
जबकि तुम तो अभी भी साफ सुथरे और बिना थके दिख रहे हो।“
व्यक्ति ने कहा।।।।
“मैं तो सीधा अपने रास्ते पे चल रहा
था, लेकिन ये कुत्ता गली के सारे कुत्तों के पीछे भाग रहा था और लड़कर फिर वापस
मेरे पास आ जाता था। हम दोनों ने एक समान रास्ता तय किया है लेकिन फिर भी इस
कुत्ते ने मेरे से कहीं ज्यादा दौड़ लगाई है इसीलिए ये थक गया है।“
स्वामी जी ने मुस्कुरा कर कहा।।।।
“यही तुम्हारे सभी प्रश्नों का जवाब
है, तुम्हारी मंजिल तुम्हारे आस पास ही है वो ज्यादा दूर नहीं है लेकिन तुम
मंजिल पे जाने की बजाय दूसरे लोगों के पीछे भागते रहते हो और अपनी मंजिल से दूर
होते चले जाते हो।“
"मित्रों! यही बात हमारे दैनिक
जीवन पर भी लागू होती है हम लोग हमेशा दूसरों का पीछा करते रहते है कि वो डॉक्टर
है तो मुझे भी डॉक्टर बनना है, वो इंजीनियर है तो मुझे भी इंजीनियर
बनना है, वो ज्यादा पैसे कमा रहा है तो मुझे भी कमाना है। बस
इसी सोच की वजह से हम अपने टेलेंट को कहीं खो बैठते हैं और जीवन एक संघर्ष मात्र
बनकर रह जाता है, तो दूसरों की होड़ मत कीजिए और अपनी मंजिल
खुद तय कीजिए।
अगर आप होड़ या प्रतिद्वंदिता करना
ही चाहिते हैं तो स्वयं के सम्मुख स्वयं को ही रखिए, अपना मापदंड स्वयं
बनिये, आप इस तरह देखिये कि।।।।
'आप स्वयं पिछले महीने/वर्ष
जो थे उससे कुछ बेहतर हुए या नहीं' यही आपका उचित मापदंड
होना चाहिये।
अर्थात स्वयं से ही स्वयं को नापिए।
इसके अतिरिक्त जितना ध्यान आप
दूसरों को देखने और उनकी कमियों पर कुढ़ने या खुश होने पर लगाते हैं, उतना
ध्यान अगर स्वयं की कमियों को ढ़ूढकर उन्हें दूर करने एवं स्वयं की खूबियों को
ढ़ूढकर उन्हें निखारने में लगाएं तो आपको कामयाब होने से कोई नहीं रोक सकता।
इस प्रकार देखा जाए तो आपकी कामयाबी
या नाकामयाबी का मूल कारण कहीं न कहीं आप स्वयं ही हैं।
दोस्तों! आत्मनिरिक्षण एवं
आत्मोन्नति आपका स्वयं का दायित्व है न की किसी और का।।"
🙏आपका दिन शुभ हो🙏
👉 खुशी की वजह
एक औरत बहुत महँगे कपड़े में अपने मनोचिकित्सक
के पास गई और बोली। "डॉ साहब ! मुझे लगता है कि मेरा पूरा जीवन बेकार है, उसका
कोई अर्थ नहीं है। क्या आप मेरी खुशियाँ ढूँढने में मदद करेंगें?"
मनोचिकित्सक ने एक बूढ़ी औरत को
बुलाया जो वहाँ साफ़-सफाई का काम करती थी और उस अमीर औरत से बोला - "मैं इस बूढी
औरत से तुम्हें यह बताने के लिए कहूँगा कि कैसे उसने अपने जीवन में खुशियाँ ढूँढी।
मैं चाहता हूँ कि आप उसे ध्यान से सुनें।"
तब उस बूढ़ी औरत ने अपना झाड़ू नीचे
रखा,
कुर्सी पर बैठ गई और बताने लगी - "मेरे पति की मलेरिया से
मृत्यु हो गई और उसके 3 महीने बाद ही मेरे बेटे की भी सड़क हादसे में मौत हो गई।
मेरे पास कोई नहीं था। मेरे जीवन में कुछ नहीं बचा था। मैं सो नहीं पाती थी,
खा नहीं पाती थी, मैंने मुस्कुराना बंद कर
दिया था।"
मैं स्वयं के जीवन को समाप्त करने
की तरकीबें सोचने लगी थी। तब एक दिन,एक छोटा बिल्ली का बच्चा
मेरे पीछे लग गया जब मैं काम से घर आ रही थी। बाहर बहुत ठंड थी इसलिए मैंने उस
बच्चे को अंदर आने दिया। उस बिल्ली के बच्चे के लिए थोड़े से दूध का इंतजाम किया और
वह सारी प्लेट सफाचट कर गया। फिर वह मेरे पैरों से लिपट गया और चाटने लगा।"
"उस दिन बहुत महीनों बाद मैं
मुस्कुराई। तब मैंने सोचा यदि इस बिल्ली के बच्चे की सहायता करने से मुझे ख़ुशी मिल
सकती है,
तो हो सकता है कि दूसरों के लिए कुछ करके मुझे और भी ख़ुशी मिले।
इसलिए अगले दिन मैं अपने पड़ोसी, जो कि बीमार था, के लिए कुछ बिस्किट्स बना कर ले गई।"
"हर दिन मैं कुछ नया और कुछ
ऐसा करती थी जिससे दूसरों को ख़ुशी मिले और उन्हें खुश देख कर मुझे ख़ुशी मिलती
थी।" "आज, मैंने खुशियाँ ढूँढी हैं, दूसरों को ख़ुशी देकर।" यह
सुन कर वह अमीर औरत रोने लगी। उसके पास वह सब था जो वह पैसे से खरीद सकती थी।
लेकिन उसने वह चीज खो दी थी जो पैसे से नहीं खरीदी जा सकती।
मित्रों! हमारा जीवन इस बात पर
निर्भर नहीं करता कि हम कितने खुश हैं अपितु इस बात पर निर्भर करता है कि हमारी
वजह से कितने लोग खुश हैं।
तो आईये आज शुभारम्भ करें इस संकल्प
के साथ कि आज हम भी किसी न किसी की खुशी का कारण बनें।
👉 समर्पण
एक गाय घास चरने के लिए एक जंगल में
चली गई। शाम ढलने के करीब थी। उसने देखा कि एक बाघ उसकी तरफ दबे पांव बढ़ रहा है।
वह डर के मारे इधर-उधर भागने लगी। वह बाघ भी उसके पीछे दौड़ने लगा। दौड़ते हुए गाय
को सामने एक तालाब दिखाई दिया। घबराई हुई गाय उस तालाब के अंदर घुस गई।
वह बाघ भी उसका पीछा करते हुए तालाब
के अंदर घुस गया। तब उन्होंने देखा कि वह तालाब बहुत गहरा नहीं था। उसमें पानी कम
था और वह कीचड़ से भरा हुआ था।
उन दोनों के बीच की दूरी काफी कम
हुई थी। लेकिन अब वह कुछ नहीं कर पा रहे थे। वह गाय उस किचड़ के अंदर धीरे-धीरे
धंसने लगी। वह बाघ भी उसके पास होते हुए भी उसे पकड़ नहीं सका। वह भी धीरे-धीरे
कीचड़ के अंदर धंसने लगा। दोनों भी करीब करीब गले तक उस कीचड़ के अंदर फस गए।
दोनों हिल भी नहीं पा रहे थे। गाय
के करीब होने के बावजूद वह बाघ उसे पकड़ नहीं पा रहा था। थोड़ी देर बाद गाय ने उस
बाघ से पूछा, क्या तुम्हारा कोई गुरु या मालिक है?
बाघ ने गुर्राते हुए कहा, मैं
तो जंगल का राजा हूं। मेरा कोई मालिक नहीं। मैं खुद ही जंगल का मालिक हूं। गाय ने
कहा, लेकिन तुम्हारे उस शक्ति का यहां पर क्या उपयोग है?
उस बाघ ने कहा, तुम
भी तो फस गई हो और मरने के करीब हो। तुम्हारी भी तो हालत मेरे जैसी है। गाय ने
मुस्कुराते हुए कहा, बिलकुल नहीं। मेरा मालिक जब शाम को घर
आएगा और मुझे वहां पर नहीं पाएगा तो वह ढूंढते हुए यहां जरूर आएगा और मुझे इस
कीचड़ से निकाल कर अपने घर ले जाएगा।
तुम्हें कौन ले जाएगा? थोड़ी
ही देर में सच में ही एक आदमी वहां पर आया और गाय को कीचड़ से निकालकर अपने घर ले
गया। जाते समय गाय और उसका मालिक दोनों एक दूसरे की तरफ कृतज्ञता पूर्वक देख रहे
थे। वे चाहते हुए भी उस बाघ को कीचड़ से नहीं निकाल सकते थे, क्योंकि उनकी जान के लिए वह खतरा था।
गाय समर्पित ह्रदय का प्रतीक है।
बाघ अहंकारी मन है और मालिक सद्गुरु का प्रतीक है। कीचड़ यह संसार है। और यह
संघर्ष अस्तित्व की लड़ाई है।
👉 किसी पर निर्भर नहीं होना अच्छी बात है लेकिन
उसकी अति नहीं होनी चाहिए। आपको किसी हितैषी की हमेशा ही जरूरत होती है।
और सद्गुरु से बड़ा इस दुनिया में
सच्चा हितैषी कोई नहीं है।
कोई न सतगुरु सों परोपकारी जग
माहिं।
मैलो मन-बुद्धि संवार, यम
ते लेत छुड़ाहिं।।
अपने अंग अवयवों से
पं श्रीराम शर्मा आचार्य परम पूज्य
गुरुदेव द्वारा सूक्ष्मीकरण से पहले मार्च 1984 में लोकसेवी
कार्यकर्ता-समयदानी-समर्पित शिष्यों को दिया गया महत्त्वपूर्ण निर्देश। यह पत्रक
स्वयं परमपूज्य गुरुदेव ने सभी को वितरित करते हुए इसे प्रतिदिन पढ़ने और जीवन में
उतारने का आग्रह किया था।
👉 भगवान में विश्वास
स्वामी विवेकानंद का सम्पूर्ण जीवन
एक दीपक के समान है जो हमेशा अपने प्रकाश से इस संसार को जगमगाता रहेगा और उनका
जीवन सदा हम लोगों के लिए एक प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा।
एक बार स्वामी विवेकानंद ट्रेन से
यात्रा कर रहे थे और हमेशा की तरह भगवा कपडे और पगड़ी पहनी हुई थी। ट्रेन में
यात्रा कर रहे एक अन्य यात्री को उनका ये रूप बहुत अजीब लगा और वो स्वामी जी को
कुछ अपशब्द कहने लगा बोला – तुम सन्यासी बनकर घूमते रहते हो कुछ कमाते धमाते क्यों
नहीं हो,
तुम लोग बहुत आलसी हो, लेकिन स्वामी जी दयावान
थे उन्होंने उसकी तरफ बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया और हमेशा की तरह चेहरे पे तेज लिए
मुस्कुराते रहे।
उस समय स्वामी जी को बहुत भूख लगी
हुई थी क्यूंकि उन्होंने सुबह से कुछ खाया पिया नहीं था। स्वामी जी हमेशा दूसरों
के कल्याण के बारे में सोचते थे अपने खाने का उन्हें ध्यान ही कहाँ रहता था । एक
तरफ स्वामी जी भूख से व्याकुल थे वहीँ वो दूसरा यात्री उनको अप्शब्द और बुरा भला
कहने में कोई कमी नहीं छोड़ रहा था । इसी बीच स्टेशन आ गया और स्वामी जी और वो
यात्री दोनों उतर गए। उस यात्री ने अपने बैग से अपना खाना निकाला और खाने लगा और
स्वामी जी से बोला – अगर कुछ कमाते तो तुम भी खा रहे होते।
स्वामी जी बिना कुछ बोले चुपचाप
थकेहारे एक पेड़ के नीचे बैठ गए और बोले मैं अपने ईश्वर पे विश्वास करता हूँ जो वो
चाहेंगे वही होगा । अचानक ही कहीं से एक आदमी खाना लिए हुए स्वामी जी के पास आया
और बोला क्या आप ही स्वामी विवेकानंद हैं और इतना कहकर को स्वामी जी के कदमों में
गिर पड़ा और बोला कि मैंने एक सपना देखा था जिसमें खुद भगवान ने मुझसे कहा कि मेरा
परम भक्त विवेकानंद भूखा है तुम जल्दी जाओ और उसे भोजन देकर आओ।
बस इतना सुनना था कि वो यात्री जो
स्वामी जी की आलोचना कर रहा था भाग कर आया और स्वामी जी के कदमों में गिर पड़ा, बोला
– महाराज मुझे क्षमा कर दीजिये मुझसे बहुत बड़ी भूल हुई है मैंने भगवान को देखा
नहीं है लेकिन आज जो चमत्कार मैंने देखा उसने मेरे भगवान में विश्वास को बहुत
ज्यादा बड़ा दिया है। स्वामी जी ने दया भाव से व्यक्ति को उठाया और गले से लगा
लिया।
स्वामी जी के जीवन से जुडी ये सत्य
घटना बहुत अधिक प्रभावित करती है और बताती है कि किस तरह भगवान अपने भक्तों की
रक्षा करते हैं और पालन पोषण करते हैं।
👉 देने का आनंद पाने के आनंद से बड़ा होता है
भ्रमण एवं भाषणों से थके हुए स्वामी
विवेकानंद अपने निवास स्थान पर लौटे। उन दिनों वे अमेरिका में एक महिला के यहां
ठहरे हुए थे। वे अपने हाथों से भोजन बनाते थे। एक दिन वे भोजन की तैयारी कर रहे थे
कि कुछ बच्चे पास आकर खड़े हो गए।
उनके पास सामान्यतया बच्चों का
आना-जाना लगा ही रहता था। बच्चे भूखे थे। स्वामीजी ने अपनी सारी रोटियां एक-एक कर
बच्चों में बांट दी। महिला वहीं बैठी सब देख रही थी। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। आखिर
उससे रहा नहीं गया और उसने स्वामीजी से पूछ ही लिया- 'आपने
सारी रोटियां उन बच्चों को दे डाली, अब आप क्या खाएंगे?'
स्वामीजी के अधरों पर मुस्कान दौड़
गई। उन्होंने प्रसन्न होकर कहा- 'मां, रोटी तो पेट
की ज्वाला शांत करने वाली वस्तु है। इस पेट में न सही, उस
पेट में ही सही।' देने का आनंद पाने के आनंद से बड़ा होता
है।
👉 स्वामी विवेकानन्द जैसा पुत्र
एक बार जब स्वामी विवेकानंद अमेरिका
गए थे,
एक महिला ने उनसे शादी करने की इच्छा जताई। जब स्वामी विवेकानंद ने
उस महिला से ये पुछा कि आप ने ऐसा प्रश्न क्यूँ किया?
उस महिला का उत्तर था कि वो उनकी
बुद्धि से बहुत मोहित है।और उसे एक ऐसे ही बुद्धिमान बच्चे कि कामना है। इसीलिए
उसने स्वामी से ये प्रश्न किया कि क्या वो उससे शादी कर सकते है और उसे अपने जैसा
एक बच्चा दे सकते हैं?
उन्होंने महिला से कहा कि चूँकि वो
सिर्फ उनकी बुद्धि पर मोहित हैं इसलिए कोई समस्या नहीं है। उन्होंने कहा “मैं आपकी
इच्छा को समझता हूँ। शादी करना और इस दुनिया में एक बच्चा लाना और फिर जानना कि वो
बुद्धिमान है कि नहीं, इसमें बहुत समय लगेगा। इसके अलावा ऐसा हो
इसकी गारंटी भी नहीं है। इसके बजाय, आपकी इच्छा को तुरंत
पूरा करने हेतु मैं आपको एक सुझाव दे सकता हूँ। मुझे अपने बच्चे के रूप में
स्वीकार कर लें ।इस प्रकार आप मेरी माँ बन जाएँगी। और इस प्रकार मेरे जैसे
बुद्धिमान बच्चा पाने की आपकी इच्छा भी पूर्ण हो जाएगी।“
👉 माँ की महिमा
स्वामी विवेकानंद जी से एक जिज्ञासु
ने प्रश्न किया," माँ की महिमा संसार में किस कारण से गायी जाती है?
स्वामी जी मुस्कराए, उस व्यक्ति से बोले,
पांच सेर वजन का एक पत्थर ले आओ। जब व्यक्ति पत्थर ले आया तो स्वामी
जी ने उससे कहा, " अब इस पत्थर को किसी कपडे में लपेटकर
अपने पेट पर बाँध लो और चौबीस घंटे बाद मेरे पास आओ तो मई तुम्हारे प्रश्न का
उत्तर दूंगा।"
स्वामी जी के आदेशानुसार उस व्यक्ति
ने पत्थर को अपने पेट पर बाँध लिया और चला गया। पत्थर बंधे हुए दिनभर वो अपना कम करता
रहा,
किन्तु हर छण उसे परेशानी और थकान महसूस हुई। शाम होते-होते पत्थर
का बोझ संभाले हुए चलना फिरना उसके लिए असह्य हो उठा। थका मांदा वह स्वामी जी के
पास पंहुचा और बोला , " मै इस पत्थर को अब और अधिक देर
तक बांधे नहीं रख सकूँगा। एक प्रश्न का उत्तर पाने क लिए मैं इतनी कड़ी सजा नहीं
भुगत सकता।"
स्वामी जी मुस्कुराते हुए बोले, " पेट पर इस पत्थर का बोझ तुमसे कुछ घंटे भी नहीं उठाया गया और माँ अपने
गर्भ में पलने वाले शिशु को पूरे नौ माह तक ढ़ोती है और ग्रहस्थी का सारा काम करती
है। संसार में माँ के सिवा कोई इतना धैर्यवान और सहनशील नहीं है इसलिए माँ से बढ़
कर इस संसार में कोई और नहीं।
👉 प्रशंसा से बहका मनुष्य।।।।।।।
एक दिन एक आदमी एक ज्योतिषी से मिला
ज्योतिषी ने उसे बताया की तुम्हारी जिन्दगी थोड़ी सी हैं केवल महीने भर की आयु
बाकी हैं,
वह आदमी बहुत चिंतित हुआ वह चिंता में डूब गया उसने एक संत ये यहाँ
दस्तक दी, संत के चरणों में खूब रोया और मृत्यु से बचा लेने
की प्रार्थना की।
संत ने पूछा तुम क्या करते हो? उसने
जबाब दिया मूर्तिकार हूँ, मुर्तिया बनाता हूँ। संत ने उसे
उपाय सुझाया तुम अपनी जैसी शक्ल की आठ मुर्तिया बनाओ।
मुर्तिया हू- ब- हू तुम्हारे जैसी
ही होनी चाहिए, सो जिस दिन मृत्यु का बात आये, उस
दिन सब को एक से वस्त्र पहना कर लाइन में खड़ा कर देना और इनके बीचो बीच में तुम
स्वयं खड़े हो जाना तथा जैसे ही यमदूत तुमको लेने आये तो तुम एक मिनट के लिए अपनी
साँस रोक लेना।
यमदूत तुमको पहचान नहीं पायेंगे, और
इस तरह वे तुम्हे छोड़ कर चले जायेगे तथा तुम्हरी मृत्यु की घडी टल जायेगी।
मूर्तिकार ने ऐसा ही किया मृत्यु के दिन यमदूत उसे लेने आए यमदूतो ने देखा कि एक
जैसे नौ आदमी खड़े हैं। मुश्किल में पड़ गए इसमें असली कौन हैं और नकली कौन हैं,
मालूम ही नहीं पड़ रहा और बेचारे यमदूत खाली हाथ ही लौट गए।
यमलोक जाकर यमराज से शिकायत की वहां
नौ लोग खड़े हैं समझ में नहीं आता किसको लाना हैं। यमराज ने भी सुना तो उसे भी
आश्चर्य हुआ क्यों कि पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ यमराज ने सोचा, मृत्युलोक
में कोई नया ब्रह्मा पैदा हो गया हैं, जो एक जैसे अनेक
व्यक्ति बनाने लगा हैं। यमराज जी ने ब्रह्मा जी को बुलवाया और पूछा ये क्या मामला
हैं ? एक जैसी शक्ल के नौ- नौ आदमी ?
यमदूत पेशोपेश में हैं कि कौन असली
हैं और कौन नकली, लेकर किसको जाना हैं यह कैसा तमाशा हैं ?
ब्रह्मा जी ने देखा तो उनका भी सर चकराया, ब्रह्मा
जी बोले मैंने तो पूरी पृथ्वी पर एक जैसे दो आदमी नहीं बनाये, लगता हैं सचमुच में कोई नया ब्रह्मा पैदा हो गया हैं, जिसने एक जैसे दो नहीं बल्कि नौ- नौ आदमीं बना दिए हैं। ब्रह्मा जी बोले
मामला जटिल हैं इसका निपटारा विष्णु जी कर सकते हैं।
विष्णु जी को बुलवाया गया विष्णु जी
ने सभी मूर्तियों की परिक्रमा की, उन्हें ध्यान से देखा तो असली बात समझ
में आ गई। विष्णु जी ने ब्रह्मा जी से कहा - प्रभु क्या कमाल की कला हैं क्या
सुन्दर और सजीव मुर्तिया बनायीं हैं जिसने यह मुर्तिया बनायीं हैं अगर मुझे मिल
जाए तो में स्वयं उसका अभिनन्दन करूँगा, मैं स्वयं उसकी कला
को पुरस्कृत करूँगा।
विष्णु द्वारा इतनी प्रशंसा सुननी
थी कि बीच की मूर्ति (जिसमे स्वयं मूर्तिकार था) बोल पड़ी - प्रभु मैंने ही बनायीं
हैं,
मैं ही मूर्तिकार हूँ । विष्णु जी ने उसका कान पकड़ा और कहा - चल
निकल बाहर हम तुझे ही खोज रहे थे और यमदूत पकड़कर उसे अपने साथ ले गए।
इसलिए कहते हे न यहाँ इस धरती पर हर
आदमी अपनी जरा सी प्रशंसा भर से बहक जाता हैं। प्रशंसा में फूल जाना और अपनी औकात
को भूल जाना ही मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी हैं, कोई आपकी कितनी भी
तारीफ करे तो आपको जरा सावधान रहना चाहिए क्योंकि हो सकता है वह ही आपके लिए कोई
जाल तैयार कर रहा हो। जीवन में हमेशा संयम बरते और ध्यान रखे ।
👉 पुण्य की जड़ें
एक बड़ा व्यापारी नदी में स्नान करने
गया। उस दिन वहां काफी भीड़ थी। व्यापारी की नजर नदी में डूबते हुए एक व्यक्ति पर
पड़ी। वह तुरंत नदी में कूद गया। व्यक्ति को बाहर निकालने पर देखा कि वह उनका
अकाउंटेंट था। कुछ देर बाद अकाउंटेंट को होश आया। व्यापारी ने उससे इस हालत में
पहुंचने का कारण पूछा। अकाउंटेंट ने बात बनाते हुए कहा, ‘मैंने
अपना सारा पैसा सट्टा बाजार में खो दिया है। लोगों का काफी उधार है मुझ पर। उन्हीं
लोगों के डर से मैंने यह कदम उठाया है।’
व्यापारी ने अकाउंटेंट को सांत्वना
दी व कहा,
‘अब चिंता छोड़ो, भविष्य में कभी ऐसा काम मत
करना। ईमानदारी से नौकरी करते रहो।’
अकाउंटेंट को नौकरी करते हुए एक साल बीत गया। इस बीच व्यापारी को काफी लाभ
हुआ। अकाउंटेंट की नीयत फिर खराब हो गयी।
एक दिन उसके बेटे का जन्मदिन था।
उसने सबको खीर खिलाई। व्यापारी के लिए भी एक कटोरा खीर लेकर वह उनके घर पहुंचा।
व्यापारी व्यस्त था तो उसे कटोरा मेज पर रखने को कह दिया। काम करते हुए देर हो
गयी। थोड़ी देर बाद देखा तो खीर का कटोरा बिल्ली खा रही थी, जिसे
खाते ही उसकी तबीयत बिगड़ गयी। व्यापारी को समझ आ गया, पर
उसने किसी के सामने जिक्र नहीं किया। सोचा कि जब तक मेरा पुण्य है, मेरा कुछ नहीं हो सकता। अगले दिन अकाउंटेंट ने जब व्यापारी को देखा तो
सकपका गया। व्यापारी ने फिर भी कुछ जाहिर नहीं किया। अकाउंटेंट को लगा कि व्यापारी
को कुछ पता नहीं चला।
वह फिर व्यापारी का धन हड़पने के
बारे में सोचने लगा। एक दिन व्यापारी को कहीं जाना था। उसने अकाउंटेंट को भी मोटी
रकम साथ लेकर चलने को कहा। अकाउंटेंट ने व्यापारी को नुकसान पहुंचाने के लिए कुछ
गुंडों को साथ रख लिया। एक मंदिर आया। व्यापारी उस ओर जाने लगा। वह जैसे ही झुका, गुंडों
ने हमला कर दिया। व्यापारी वहीं बेहोश होकर गिर गया। अकाउंटेंट जैसे ही धन लेकर
भागने लगा तो गुंडों की नीयत बिगड़ गयी। उन्होंने धन छीनकर उसे नदी में धकेल दिया।
व्यापारी को होश आया तो सामने
अकाउंटेंट को डूबते हुए देखा। अपने दयालु स्वभाव के अनुसार सेठ ने फिर अकाउंटेंट
को बचा लिया। होश में आने के बाद अकाउंटेंट ने व्यापारी के पैर पकड़े और माफी
मांगने लगा। व्यापारी ने उसे मन ही मन माफी दी और इतना ही कहा- जब तक किसी के
पुण्य की जड़ें हरी हैं, तब तक कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
👉 हमारी फितरत
एक घर में गृह प्रवेश की पूजा हो
रही थी। पंडित जी पूजा करा रहे थे। पंडित जी ने सबको हवन में शामिल होने के लिए
बुलाया। सबके सामने हवन सामग्री रख दी गई। पंडित जी मंत्र पढ़ते और कहते, “स्वाहा।”
लोग चुटकियों से हवन सामग्री लेकर अग्नि में डाल देते। गृह मालिक को स्वाहा कहते
ही अग्नि में घी डालने की ज़िम्मेदीरी सौंपी गई।
हर व्यक्ति थोड़ी सामग्री डालता, इस
आशंका में कि कहीं हवन खत्म होने से पहले ही सामग्री खत्म न हो जाए। गृह मालिक भी
बूंद-बूंद घी डाल रहे थे। उनके मन में भी डर था कि घी खत्म न हो जाए। मंत्रोच्चार
चलता रहा, स्वाहा होता रहा और पूजा पूरी हो गई। सबके पास
बहुत सी हवन सामग्री बची रह गई। घी तो आधा से भी कम इस्तेमाल हुआ था।
हवन पूरा होने के बाद पंडित जी ने
कहा कि आप लोगों के पास जितनी सामग्री बची है, उसे अग्नि में डाल दें। गृह स्वामी से भी उन्होंने
कहा कि आप इस घी को भी कुंड में डाल दें। एक साथ बहुत सी हवन सामग्री अग्नि में
डाल दी गई। सारा घी भी अग्नि के हवाले कर दिया गया। पूरा घर धुंए से भर गया। वहां
बैठना मुश्किल हो गया। एक-एक कर सभी कमरे से बाहर निकल गए।
अब जब तक सब कुछ जल नहीं जाता, कमरे
में जाना संभव नहीं था। काफी देर तक इंतज़ार करना पडा, सब
कुछ स्वाहा होने के इंतज़ार में।
👉 ये कहानी तो यहीं रुक जाती है। परन्तु।।।।।।।
उस पूजा में मौजूद हर व्यक्ति जानता
था कि जितनी हवन सामग्री उसके पास है, उसे हवन कुंड में ही डालना
है। पर सबने उसे बचाए रखा। सबने बचाए रखा कि आख़िर में सामग्री काम आएगी। ऐसा ही
हम करते हैं। यही हमारी फितरत है। हम अंत के लिए बहुत कुछ बचाए रखते हैं।
ज़िंदगी की पूजा खत्म हो जाती है और
हवन सामग्री बची रह जाती है। हम बचाने में इतने खो जाते हैं कि जब सब कुछ होना हवन
कुंड के हवाले है, उसे बचा कर क्या करना। बाद में तो वो सिर्फ
धुंआ ही देगा।
संसार हवन कुंड है और जीवन पूजा। एक
दिन सब कुछ हवन कुंड में समाहित होना है। अच्छी पूजा वही है, जिसमें
हवन सामग्री का सही अनुपात में इस्तेमाल हो l
👉 तीव्र वैराग्य
"तीव्र वैराग्य किसे कहते हैं, इसकी
एक कहानी सुनो। किसी देश में एक बार वर्षा कम हुई। किसान नालियाँ काट-काटकर दूर से
पानी लाते थे। एक किसान बडा़ हठी था। उसने एक दिन शपथ ली कि जब पानी न आने लगे,
नहर से नाली का योग न हो जाए, तब तक बराबर
नाली खोदूँगा। इधर नहाने का समय हुआ। उसकी स्त्री ने लड़की को उसे बुलाने भेजा।
लड़की बोली, 'पिताजी,
दोपहर हो गयी, चलो तुमको माँ बुलाती है। 'उसने कहा, तू चल, हमें अभी काम
है।' दोपहर ढल गयी, पर वह काम पर हटा
रहा। नहाने का नाम न लिया। तब उसकी स्त्री खेत में जाकर बोली, 'नहाओगे कि नहीं? रोटियाँ ठण्डी हो रही हैं। तुम तो
हर काम में हठ करते हो। काम कल करना या भोजन के बाद करना।' गालियाँ
देता हुआ कुदाल उठाकर किसना स्त्री को मारने दौडा़ बोला, 'तेरी
बुद्धि मारी गयी है क्या? देखती नहीं कि पानी नहीं बरसता;
खेती का काम सब पडा़ है; अब की बार
लड़के-बच्चे क्या खाएँगे? सब को भूखों मरना होगा। हमने यही
ठान लिया है कि खेत में पहले पानी लायेंगे, नहाने-खाने की
बात पीछे होगी।'
मामला टेढा़ देखकर उसकी स्त्री वहाँ
से लौट पडी़। किसान ने दिनभर जी तोड़ मेहनत करके शाम के समय नहर के साथ नाली का
योग कर दिया। फिर एक किनारे बैठकर देखने लगा, किस तरह नहर पानी खेत में 'कलकल' स्वर से बहता हुआ आ रहा है, तब उसका मन शान्ति और आनन्द से भर गया। घर पहुँचकर उसने स्त्री को बुलाकर
कहा, 'ले आ अब डोल और रस्सी।' स्नान
भोजन करके निश्चिन्त करके निश्चिन्त होकर फिर वह सुख से खुर्राटे लेने लगा। जिद यह
है और यही तीव्र वैराग्य की उपमा है।
"खेत में पानी लाने के लिए एक
और किसान गया था। उसकी स्त्री जब गयी और बोली, 'धूप बहुत हो गयी, चलो अब, इतना काम नहीं करते', तब
वह चुपचाप कुदाल एक ओर रखकर बोला, 'अच्छा, तू कहती है तो चलो।' (सब हँसते हैं।) वह किसान खेत
में पानी न ला सका। यह मन्द वैराग्य की उपमा है।
" हठ बिना जैसे किसान खेत में
पानी नहीं ला सकता, वैसे ही मनुष्य ईश्वरदर्शन नहीं कर
सकता।"
~ रामकृष्ण वचनामृत से
👉 ईश्वर से साक्षात्कार
एक चोर अकसर एक साधु के पास आता और
उससे ईश्वर से साक्षात्कार का उपाय पूछा करता था। लेकिन साधु टाल देता था। वह
बार-बार यही कहता कि वह इसके बारे में फिर कभी बताएगा। लेकिन चोर पर इसका असर नहीं
पड़ता था। वह रोज पहुंच जाता। एक दिन चोर का आग्रह बहुत बढ़ गया। वह जमकर बैठ गया।
उसने कहा कि वह बगैर उपाय जाने वहां से जाएगा ही नहीं। साधु ने चोर को दूसरे दिन
सुबह आने को कहा। चोर ठीक समय पर आ गया।
साधु ने कहा, ‘तुम्हें
सिर पर कुछ पत्थर रखकर पहाड़ पर चढ़ना होगा। वहां पहुंचने पर ही ईश्वर के दर्शन की
व्यवस्था की जाएगी।’ चोर के सिर पर पांच पत्थर लाद दिए गए और साधु ने उसे अपने
पीछे-पीछे चले आने को कहा। इतना भार लेकर वह कुछ दूर ही चला तो उस बोझ से उसकी
गर्दन दुखने लगी। उसने अपना कष्ट कहा तो साधु ने एक पत्थर फिंकवा दिया।
थोड़ी देर चलने पर शेष भार भी कठिन
प्रतीत हुआ तो चोर की प्रार्थना पर साधु ने दूसरा पत्थर भी फिंकवा दिया। यही क्रम
आगे भी चला। ज्यों-ज्यों चढ़ाई बढ़ी, थोडे़ पत्थरों को ले चलना
भी मुश्किल हो रहा था। चोर बार-बार अपनी थकान व्यक्त कर रहा था। अंत में सब पत्थर
फेंक दिए गए और चोर सुगमतापूर्वक पर्वत पर चढ़ता हुआ ऊंचे शिखर पर जा पहुंचा।
साधु ने कहा, ‘जब
तक तुम्हारे सिर पर पत्थरों का बोझ रहा, तब तक पर्वत के ऊंचे
शिखर पर तुम्हारा चढ़ सकना संभव नहीं हो सका। पर जैसे ही तुमने पत्थर फेंके वैसे
ही चढ़ाई सरल हो गई। इसी तरह पापों का बोझ सिर पर लादकर कोई मनुष्य ईश्वर को
प्राप्त नहीं कर सकता।’ चोर ने साधु का आशय समझ लिया। उसने कहा, ‘आप ठीक कह रहे हैं।
मैं ईश्वर को पाना तो चाहता था पर
अपने बुरे कर्मों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं था।’ उस दिन से चोर पूरी तरह बदल
गया।
👉 पहले स्वयं को जीतो!
आपकी विजय सराहनीय है महाराज! आप सचमुच
वीर है,
ऐसा न होता तो आप गालव नरेश को तीन दिन में ही कैसे जीत लेते?
राजपुरोहित पूर्णिक ने महाराज सिंधुराज की ओर किंचित मुस्कराते हुए
कहा-बात का क्रम आगे बढ़ाते हुये वे बोले- किन्तु महाराज! सेना की विजय से भी
बढ़कर विजय मन की है, जो काम, क्रोध,
लोभ और मोह जैसी साँसारिक ऐषणाओं को जीत लेता है वही सच्चा शूरवीर
है। उस विजय के आगे यह रक्तपात वाली, हिंसा वाली, शक्ति वाली विजय तुच्छ और नगण्य सी लगती है।
महाराज सिंधुराज ने कवच परिचायक को
देते हुये कहा-आचार्य प्रदर! हम वैसी विजय भी करके दिखला सकते है। आपने लगता है
हमारे पराक्रम का मूल्याँकन नहीं किया- सम्राट के स्वर में अहं मिश्रित रूखापन था।
राज पुरोहित पर्णिक की सूक्ष्म
दृष्टि महाराज के उस मनोविकार को ही ताड रही थी, इसलिये वे निःशंक
बोले-आपके पराक्रम को कौन नहीं जानता आर्य श्रेष्ठ! आपको सिंहासन पर आसीन हुये अभी
दशक ही तो बीता है। इस बीच आपने कलिंग, अरस्ट्रास, मालव, विन्ध्य, पंचनद सभी
प्रान्त जीत डाले, क्या यह सब पराक्रमी होने का प्रमाण नहीं?
किन्तु यदि आप एक बार महर्षि बेन के दर्शन करके आते तो पता चलता कि
वे आपसे भी कीं अधिक पराक्रमी हैं, विजयी है। उन्होंने
राग-द्वेष सम्पूर्ण ऐषणाओं पर विजय पाली है।
सिंधुराज को अपने सामने वह भी राज
पुरोहित के मुख से किसी और की प्रशंसा अच्छी न लगी। उन दिनों राज पुरोहित राज्य की
आचार संहिता के नियंत्रक हुआ करते थे। सिंधुराज उनका कुछ कर नहीं सकते थे, तो
भी उन्होंने महर्षि बेने के दर्शन का निश्चय कर लिया।
सूर्योदय होने में अभी थोड़ा विलम्ब
था। महाराज सिंधुराज अस्तबल पहुँचें। वहाँ उनका अश्व सजा हुआ तैयार था वे उस पर
आरुढ होकर महर्षि बेन के आश्रम की ओर चल पड़े। मार्ग में उन्हें एक वृद्ध जन दिखाई
दिये,
वह मार्ग में पड़े काँटे साफ कर रहे थे, कंटीली
झाड़ियां काट कर उन्हें दूर फेंक रहे थे। उन्हें देखकर महाराज ने घोड़े को रोका और
पूछा-महान् तपस्वी बेन का आश्रम किधर है? ओ वृद्ध!
वृद्ध ने एक बार महाराज की ओर देखा
फिर अपने काम में जुट गये-महाराज को यह अवहेलना अखरी, उनका
अहंकार जाग पड़ा-बोले- शठ! देखता नहीं मैं यहाँ का सम्राट हूँ। बता-बेन का आश्रम
किधर है? वृद्ध ने पुनः आंखें उठाई-ओठों पर एक हल्की
मुस्कराहट तो आई फिर वे उसी तरह अपने काम में जुट गये। महाराज का क्रोध सीमा पार
कर गया। घोड़े को वृद्ध की ओर दौड़ा दिया, उन्हें रौंदता हुआ
घोड़ा आगे बढ़ गया। इस बीच महाराज ने उसकी चाबुक से वृद्ध पर प्रहार भी किया और
अपशब्द कहते हुये आगे बढ़ गये। वे अभी थोड़ा ही आगे गये थे कि महर्षि की प्रतीक्षा
करते खड़े उनके शिष्य दिखाई दिये, महाराज ने पूछा-आपके गुरु
बेन कहाँ हैं? शिष्यों ने बताया वे प्रतिदिन हम लोगों से
पूर्व ही उठकर मार्ग साफ करने निकल जाते है।
आप जिधर से आये उधर ही तो होंगे वह।
और तब महाराज का क्रोध पश्चाताप में बदल गया। वे उन्हीं पैरों लौटे, महर्षि
उठकर खड़े हो गये थे, कटी हुई झाड़ियां ठिकाने लगा रहे थे।
घोड़े से उतर कर महाराज उनके चरणों पर गिर कर क्षमा माँगने लगे-बोले भगवान्। पहले
ही बता देते कि आप ही महर्षि हैं तो यह अपराध क्यों होता?
बेन मुस्कराये-बोले बेटा- तूने मेरी
प्रशंसा की उससे मन में अहंकार उठा, उसे-मारने के लिये यह
आवश्यक ही था। तेरा उपकार जीवन भर नहीं भूलूँगा। महाराज सिंधुराज पानी-पानी हो गये
उन्होंने अनुभव किया-सच्ची वीरता दूसरों को नहीं, अपने को
जीतने में है।
खुश रहना है तो जितना है उतने में
ही संतोष करो
एक बार की बात है। एक गाँव में एक
महान संत रहते थे। वे अपना स्वयं का आश्रम बनाना चाहते थे जिसके लिए वे कई लोगो से
मुलाकात करते थे। और उन्हें एक जगह से दूसरी जगह यात्रा के लिए जाना पड़ता था। इसी
यात्रा के दौरान एक दिन उनकी मुलाकात एक साधारण सी कन्या विदुषी से हुई। विदुषी ने
उनका बड़े हर्ष से स्वागत किया और संत से कुछ समय कुटिया में रुक कर विश्राम करने
की याचना की। संत उसके व्यवहार से प्रसन्न हुए और उन्होंने उसका आग्रह स्वीकार
किया।
विदुषी ने संत को अपने हाथो से
स्वादिष्ट भोज कराया। और उनके विश्राम के लिए खटिया पर एक दरी बिछा दी। और खुद
धरती पर टाट बिछा कर सो गई। विदुषी को सोते ही नींद आ गई। उसके चेहरे के भाव से
पता चल रहा था कि विदुषी चैन की सुखद नींद ले रही हैं। उधर संत को खटिया पर नींद
नहीं आ रही थी। उन्हें मोटे नरम गद्दे की आदत थी जो उन्हें दान में मिला था। वो
रात भर चैन की नींद नहीं सो सके और विदुषी के बारे में ही सोचते रहे सोच रहे थे कि
वो कैसे इस कठोर जमीन पर इतने चैन से सो सकती हैं।
दूसरे दिन सवेरा होते ही संत ने
विदुषी से पूछा कि – तुम कैसे इस कठोर जमीन पर इतने चैन से सो रही थी। तब विदुषी
ने बड़ी ही सरलता से उत्तर दिया – हे गुरु देव! मेरे लिए मेरी ये छोटी सी कुटिया एक
महल के समान ही भव्य हैं| इसमें मेरे श्रम की महक हैं। अगर मुझे एक
समय भी भोजन मिलता हैं तो मैं खुद को भाग्यशाली मानती हूँ। जब दिन भर के कार्यों
के बाद मैं इस धरा पर सोती हूँ तो मुझे माँ की गोद का आत्मीय अहसास होता हैं। मैं
दिन भर के अपने सत्कर्मो का विचार करते हुए चैन की नींद सो जाती हूँ। मुझे अहसास भी
नहीं होता कि मैं इस कठोर धरा पर हूँ।
यह सब सुनकर संत जाने लगे। तब
विदुषी ने पूछा – हे गुरुवर! क्या मैं भी आपके साथ आश्रम के लिए धन एकत्र करने चल
सकती हूँ ? तब संत ने विनम्रता से उत्तर दिया – बालिका! तुमने जो
मुझे आज ज्ञान दिया हैं उससे मुझे पता चला कि मन का सच्चा का सुख कहाँ हैं। अब
मुझे किसी आश्रम की इच्छा नहीं रह गई।
यह कहकर संत वापस अपने गाँव लौट गये
और एकत्र किया धन उन्होंने गरीबो में बाँट दिया और स्वयं एक कुटिया बनाकर रहने
लगे।
जिसके मन में संतोष नहीं है सब्र
नहीं हैं वह लाखों करोड़ों की दौलत होते हुए भी खुश नहीं रह सकता। बड़े बड़े महलों, बंगलों
में मखमल के गद्दों पर भी उसे चैन की नींद नहीं आ सकती। उसे हमेशा और ज्यादा पाने
का मोह लगा रहता है। इसके विपरीत जो अपने पास जितना है उसी में संतुष्ट है,
जिसे और ज्यादा पाने का मोह नहीं है वह कम संसाधनों में भी ख़ुशी से
रह सकता है।
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