यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:91 से 100
अ॒व॒पत॑न्तीरवदन्
दि॒वऽओष॑धय॒स्परि॑। यं जी॒वम॒श्नवा॑महै॒ न स रि॑ष्याति॒ पूरु॑षः ॥९१ ॥
अध्यापक लोग सब को
उत्तम ओषधि जनावें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हम
लोग जो (दिवः) प्रकाश से (अवपतन्तीः) नीचे को आती हुई (ओषधयः) सोमलता आदि ओषधि हैं, जिनका विद्वान् लोग (पर्य्यवदन्) सब ओर से उपदेश करते हैं, जिनसे (यम्) जिस (जीवम्) प्राणधारण को (अश्नवामहै) प्राप्त होवें,
(सः) वह (पूरुषः) पुरुष (न) कभी न (रिष्याति) रोगों से नष्ट होवे
॥९१ ॥
भावार्थभाषाः
-विद्वान् लोग सब मनुष्यों के लिये दिव्य ओषधिविद्या को देवें, जिससे सब लोग पूरी अवस्था को प्राप्त होवें। इन ओषधियों को कोई भी कभी
नष्ट न करे ॥९१ ॥
याऽओष॑धीः॒
सोम॑राज्ञीर्ब॒ह्वीः श॒तवि॑चक्षणाः। तासा॑मसि॒ त्वमु॑त्त॒मारं॒ कामा॑य॒ शꣳ हृ॒दे
॥९२ ॥
स्त्री लोग अवश्य
ओषधिविद्या ग्रहण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
स्त्रि ! जिससे (त्वम्) तू (याः) जो (शतविचक्षणाः) असंख्यात शुभगुणों से युक्त
(बह्वीः) बहुत (सोमराज्ञीः) सोम जिनमें राजा अर्थात् सर्वोत्तम (ओषधीः) ओषधि हैं, (तासाम्) उन के विषय में (उत्तमा) उत्तम विदुषी (असि) है, इससे (शम्) कल्याणकारिणी (हृदे) हृदय के लिये (अरम्) समर्थ (कामाय)
इच्छासिद्धि के लिये योग्य होती है, हमारे लिये उन का उपदेश
कर ॥९२ ॥
भावार्थभाषाः
-स्त्रियों को चाहिये कि ओषधिविद्या का ग्रहण अवश्य करें, क्योंकि इसके विना पूर्ण कामना सुख प्राप्ति और रोगों की निवृत्ति कभी
नहीं हो सकती ॥९२ ॥
याऽओष॑धीः॒
सोम॑राज्ञी॒र्विष्ठि॑ताः पृथि॒वीमनु॑। बृह॒स्पति॑प्रसूताऽअ॒स्यै संद॑त्त
वी॒र्य्य᳖म् ॥९३ ॥
कैसे सन्तानों को
उत्पन्न करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
विवाहित पुरुष ! (याः) जो (सोमराज्ञीः) सोम जिनमें उत्तम है, वे (बृहस्पतिप्रसूताः) बड़े कारण के रक्षक ईश्वर की रचना से उत्पन्न हुई (ओषधीः)
ओषधियाँ (पृथिवीम्) (अनु) भूमि के ऊपर (विष्ठिताः) विशेषकर स्थित हैं, उनसे (अस्यै) इस स्त्री के लिये (वीर्य्यम्) बीज का दान दे। हे विद्वानो !
आप इन ओषधियों का विज्ञान सब मनुष्यों के लिये (संदत्त) अच्छे प्रकार दिया कीजिये
॥९३ ॥
भावार्थभाषाः
-स्त्रीपुरुषों को उचित है कि बड़ी-बड़ी ओषधियों का सेवन करके सुन्दर नियमों के
साथ गर्भ धारण करें और ओषधियों का विज्ञान विद्वानों से सीखें ॥९३ ॥
याश्चे॒दमु॑पशृ॒ण्वन्ति॒
याश्च॑ दू॒रं परा॑गताः। सर्वाः॑ सं॒गत्य॑ वीरुधो॒ऽस्यै संद॑त्त वी॒र्य्य᳖म् ॥९४ ॥
शुद्ध देशों से
ओषधियों का ग्रहण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
विद्वानो ! आप लोग (याः) जो (च) विदित हुई और जिनको (उपशृण्वन्ति) सुनते हैं, (याः) जो (च) समीप हों, और जो (दूरम्) दूर देश में (परागताः)
प्राप्त हो सकती हैं, उन (सर्वाः) सब (वीरुधः) वृक्ष आदि
ओषधियों को (सङ्गत्य) निकट प्राप्त कर (इदम्) इस (वीर्य्यम्) शरीर के पराक्रम को
वैद्य मनुष्य लोग जैसे सिद्ध करते हैं, वैसे उन ओषधियों का
विज्ञान (अस्यै) इस कन्या को (संदत्त) सम्यक् प्रकार से दीजिये ॥९४ ॥
भावार्थभाषाः -हे
मनुष्यो ! तुम लोग, जो ओषधियाँ दूर वा समीप में
रोगों को हरने और बल करने हारी सुनी जाती हैं, उनको उपकार
में ला के रोगरहित होओ ॥९४ ॥
मा वो॑
रिषत् खनि॒ता यस्मै॑ चा॒हं खना॑मि वः। द्वि॒पाच्चतु॑ष्पाद॒स्मा॒कꣳ
सर्व॑मस्त्वनातु॒रम् ॥९५ ॥
कोई भी मनुष्य
ओषधियों की हानि न करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
मनुष्यो ! (अहम्) मैं (यस्मै) जिस प्रयोजन के लिये ओषधी को (खनामि) उपाड़ता वा
खोदता हूँ, वह (खनिता) खोदी हुई (वः) तुम को (मा) न
(रिषत्) दुःख देवे, जिससे (वः) तुम्हारे (च) और (अस्माकम्)
हमारे (द्विपात्) दो पगवाले मनुष्य आदि तथा (चतुष्पात्) गौ आदि (सर्वम्) सब प्रजा
उस ओषधि से (अनातुरम्) रोगों के दुःखों से रहित (अस्तु) होवें ॥९५ ॥
भावार्थभाषाः -जो
पुरुष जिन ओषधियों को खोदे, वह उनकी जड़ न मेटे। जितना
प्रयोजन हो उतनी लेकर नित्य रोगों को हटाता रहे, ओषधियों की
परम्परा को बढ़ाता रहे कि जिससे सब प्राणी रोगों के दुःखों से बच के सुखी होवें
॥९५ ॥
ओष॑धयः॒
सम॑वदन्त॒ सोमे॑न स॒ह राज्ञा॑। यस्मै॑ कृ॒णोति॑ ब्राह्म॒णस्तꣳ रा॑जन् पारयामसि ॥९६
॥
क्या करने से ओषधियों
का विज्ञान बढ़े, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
मनुष्य लोगो ! जो (सोमेन) (राज्ञा) सर्वोत्तम सोमलता के (सह) साथ वर्त्तमान
(ओषधयः) ओषधि हैं, उनके विज्ञान के लिये आप लोग
(समवदन्त) आपस में संवाद करो। हे वैद्य (राजन्) राजपुरुष ! हम लोग (ब्राह्मणः)
वेदों और उपवेदों का वेत्ता पुरुष (यस्मै) जिस रोगी के लिये इन ओषधियों का ग्रहण
(कृणोति) करता है, (तम्) उस रोगी को रोगसागर से उन ओषधियों
से (पारयामसि) पार पहुँचाते हैं ॥९६ ॥
भावार्थभाषाः -वैद्य
लोगों को योग्य है कि आपस में प्रश्नोत्तरपूर्वक निरन्तर ओषधियों के ठीक-ठीक ज्ञान
से रोगों से रोगी पुरुषों को पार कर निरन्तर सुखी करें। और जो इन में उत्तम
विद्वान् हो, वह सब मनुष्यों को वैद्यकशास्त्र पढ़ावे
॥९६ ॥
ना॒श॒यि॒त्री
ब॒लास॒स्यार्श॑सऽउप॒चिता॑मसि। अथो॑ श॒तस्य॒ यक्ष्मा॑णां पाका॒रोर॑सि॒ नाश॑नी ॥९७ ॥
जितने रोग हैं उतनी
ओषधि हैं,
उन का सेवन करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
वैद्य लोगो ! जो (बलासस्य) प्रवृद्ध हुए कफ की (अर्शसः) गुदेन्द्रिय की व्याधि वा
(उपचिताम्) अन्य बढ़े हुए रोगों की (नाशयित्री) नाश करने हारी (असि) ओषधि है, (अथो) और जो (शतस्य) असंख्यात (यक्ष्माणाम्) राजरोगों अर्थात् भगन्दरादि और
(पाकारोः) मुखरोगों और मर्मों का छेदन करनेहारे शूल की (नाशनी) निवारण करने हारी
(असि) है, उस ओषधि को तुम लोग जानो ॥९७ ॥
भावार्थभाषाः
-मनुष्यों को ऐसा जानना चाहिये कि जितने रोग हैं, उतनी
ही उनकी नाश करनेहारी ओषधि भी हैं। इन ओषधियों को नहीं जाननेहारे पुरुष रोगों से
पीडि़त होते हैं। जो रोगों की ओषधि जानें, तो उन रोगों की
निवृत्ति करके निरन्तर सुखी होवें ॥९७ ॥
त्वां
ग॑न्ध॒र्वाऽअ॑खनँ॒स्त्वामिन्द्र॒स्त्वां बृह॒स्पतिः॑। त्वामो॑षधे॒ सोमो॒ राजा॑
वि॒द्वान् यक्ष्मा॑दमुच्यत ॥९८ ॥
कौन-कौन ओषधि का खनन
करता है,
यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
मनुष्यो ! तुम लोग जिस ओषधी से रोगी (यक्ष्मात्) क्षयरोग से (अमुच्यत) छूट जाय और
जिस (ओषधे) ओषधि को उपयुक्त करो (त्वाम्) उसको (गन्धर्वाः) गानविद्या में कुशल
पुरुष (अखनन्) ग्रहण करें, (त्वाम्) उसको (इन्द्रः) परम
ऐश्वर्य से युक्त मनुष्य, (त्वाम्) उसको (बृहस्पतिः) वेदज्ञ
जन और (त्वाम्) उसको (सोमः) सुन्दर गुणों से युक्त (विद्वान्) सब शास्त्रों का
वेत्ता (राजा) प्रकाशमान राजा (त्वाम्) उस ओषधि को खोदे ॥९८ ॥
भावार्थभाषाः -जो कोई
ओषधि जड़ों से, कोई शाखा आदि से, कोई
पुष्पों, कोई पत्तों, कोई फलों और कोई
सब अवयवों करके रोगों को बचाती हैं, उन ओषधियों का सेवन
मनुष्यों को यथावत् करना चाहिये ॥९८ ॥
सह॑स्व
मे॒ऽअरा॑तीः॒ सह॑स्व पृतनाय॒तः। सह॑स्व॒ सर्वं॑ पा॒प्मान॒ꣳ सह॑मानास्योषधे ॥९९ ॥
मनुष्यों को क्या
करके क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-(ओषधे) ओषधी के सदृश ओषधिविद्या की जानने हारी स्त्री ! जैसे ओषधी (सहमाना) बल का
निमित्त (असि) है, (मे) मेरे रोगों का निवारण
करके बल बढ़ाती है, वैसे (अरातीः) शत्रुओं को (सहस्व) सहन
कर। अपने (पृतनायतः) सेनायुद्ध की इच्छा करते हुओं को (सहस्व) सहन कर और (सर्वम्)
सब (पाप्मानम्) रोगादि को (सहस्व) सहन कर ॥९९ ॥
भावार्थभाषाः
-मनुष्यों को चाहिये कि ओषधियों के सेवन से बल बढ़ा और प्रजा के तथा अपने शत्रुओं
और पापी जनों को वश में करके सब प्राणियों को सुखी करें ॥९९ ॥
दी॒र्घायु॑स्तऽओषधे
खनि॒ता यस्मै॑ च त्वा॒ खना॑म्य॒हम्। अथो॒ त्वं दी॒र्घायु॑र्भू॒त्वा श॒तव॑ल्शा॒
विरो॑हतात् ॥१०० ॥
मनुष्य कैसे हो के
दूसरों को कैसे करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(ओषधे) ओषधि के तुल्य ओषधियों के गुण-दोष जाननेहारे पुरुष ! जिससे (ते) तेरी जिस
ओषधि का (खनिता) सेवन करने हारा (अहम्) मैं (यस्मै) जिस प्रयोजन के लिये (च) और
जिस पुरुष के लिये (खनामि) खोदूँ, उससे तू (दीर्घायुः)
अधिक अवस्थावाला हो, (अथो) और (दीर्घायुः) बड़ी अवस्थावाला
(भूत्वा) होकर (त्वम्) तू जो (शतवल्शा) बहुत अङ्कुरों से युक्त ओषधि है, (त्वा) उसको सेवन करके सुखी हो और (वि, रोहतात्)
प्रसिद्ध हो ॥१०० ॥
भावार्थभाषाः -हे
मनुष्यो ! तुम लोग ओषधियों के सेवन से अधिक अवस्थावाले होओ और धर्म का आचरण करने
हारे सब मनुष्यों को ओषधियों के सेवन से दीर्घ अवस्थावाले करो ॥१०० ॥
यजुर्वेद अध्याय 12 मंत्र (81-90) यजुर्वेद अध्याय 12 मंत्र (100-110)
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