यजुर्वेद » अध्याय:12
मंत्र 11 से 20
आ
त्वा॑हार्षम॒न्तर॑भूर्ध्रु॒वस्ति॒ष्ठावि॑चाचलिः। विश॑स्त्वा॒ सर्वा॑ वाञ्छन्तु॒ मा
त्वद्रा॒ष्ट्रमधि॑भ्रशत् ॥११ ॥
फिर राजा और प्रजा के
कर्मों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
शुभ गुण और लक्षणों से युक्त सभापति राजन् ! (त्वा) आपको राज्य की रक्षा के लिये
मैं (अन्तः) सभा के बीच (आहार्षम्) अच्छे प्रकार ग्रहण करूँ। आप सभा में (अभूः)
विराजमान हूजिये (अविचाचलिः) सर्वथा निश्चल (ध्रुवः) न्याय से राज्यपालन में
निश्चित बुद्धि होकर (तिष्ठ) स्थिर हूजिये (सर्वाः) सम्पूर्ण (विशः) प्रजा (त्वा)
आपकी (वाञ्छन्तु) चाहना करें, (त्वत्) आपके पालने से
(राष्ट्रम्) राज्य (माधिभ्रशत्) नष्ट-भ्रष्ट न होवे ॥११ ॥
भावार्थभाषाः -उत्तम
प्रजाजनों को चाहिये कि सब से उत्तम पुरुष को सभाध्यक्ष राजा मान के उसको उपदेश
करें कि आप जितेन्द्रिय हुए सब काल में धार्मिक पुरुषार्थी हूजिये। आपके बुरे
आचरणों से राज्य कभी नष्ट न होवे, जिससे सब प्रजापुरुष आप
के अनुकूल वर्त्तें ॥११ ॥
उदु॑त्त॒मं
व॑रुण॒ पाश॑म॒स्मदवा॑ध॒मं वि म॑ध्य॒मꣳ श्र॑थाय। अथा॑ व॒यमा॑दित्य व्र॒ते
तवाना॑गसो॒ऽअदि॑तये स्याम ॥१२ ॥
फिर भी वही विषय अगले
मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(वरुण) शत्रुओं को बाँधने (आदित्य) स्वरूप से अविनाशी सूर्य्य के समान सत्य न्याय
के प्रकाशक सभापति विद्वान् ! आप (अस्मत्) हमसे (अधमम्) निकृष्ट (मध्यमम्) मध्यस्थ
और (उत्तमम्) उत्तम (पाशम्) बन्धन को (उदवविश्रथाय) विविध प्रकार से छुड़ाइये।
(अथ) इसके पश्चात् (वयम्) हम प्रजा के पुरुष (अदितये) पृथिवी के अखण्डित राज्य के
लिये (तव) आपके (व्रते) सत्य-न्याय के पालनरूप नियम में (अनागसः) अपराधरहित
(स्याम) होवें ॥१२ ॥
भावार्थभाषाः -जैसे
ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव के अनुकूल सत्य आचरणों में
वर्त्तमान हुए धर्मात्मा मनुष्य पाप के बन्धनों से छूट के सुखी होते हैं, वैसे ही उत्तम राजा को प्राप्त होके प्रजा के पुरुष आनन्दित होते हैं ॥१२
॥
अग्रे॑
बृ॒हन्नु॒षसा॑मू॒र्ध्वोऽअ॑स्थान्निर्जग॒न्वान् तम॑सो॒ ज्योति॒षागा॑त्।
अ॒ग्निर्भा॒नुना॒ रुश॑ता॒ स्वङ्ग॒ऽआ जा॒तो विश्वा॒ सद्मा॑न्यप्राः ॥१३ ॥
फिर भी वही विषय अगले
मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
राजन् ! जो आप (अग्रे) पहिले से जैसे सूर्य्य (स्वङ्गः) सुन्दर अवयवों से युक्त
(आजातः) प्रकट हुआ (बृहन्) बड़ा (उषसाम्) प्रभातों के (ऊर्ध्वः) ऊपर आकाश में
(अस्थात्) स्थिर होता और (रुशता) सुन्दर (भानुना) दीप्ति तथा (ज्योतिषा) प्रकाश से
(तमसः) अन्धकार को (निर्जगन्वान्) निरन्तर पृथक् करता हुआ (आगात्) सब
लोक-लोकान्तरों को प्राप्त होता है, (विश्वा) सब
(सद्मानि) स्थूल स्थानों को (अप्राः) प्राप्त होता है, उसके
समान प्रजा के बीच आप हूजिये ॥१३ ॥
भावार्थभाषाः -जो
सूर्य्य के समान श्रेष्ठ गुणों से प्रकाशित, सत्पुरुषों
की शिक्षा से उत्कृष्ट, बुरे व्यसनों से अलग, सत्य-न्याय से प्रकाशित, सुन्दर अवयववाला, सर्वत्र प्रसिद्ध, सबके सत्कार और जानने योग्य
व्यवहारों का ज्ञाता, और दूतों के द्वारा सब मनुष्यों के आशय
को जाननेवाला, शुद्ध, न्याय से प्रजाओं
में प्रवेश करता है, वही पुरुष राजा होने के योग्य होता है
॥१३ ॥
ह॒ꣳसः
शु॑चि॒षद् वसु॑रन्तरिक्ष॒सद्धोता॑ वेदि॒षदति॑थिर्दुरोण॒सत्। नृ॒ष॑द् व॑र॒सदृ॑त॒सद्
व्यो॑म॒सद॒ब्जा गो॒जाऽऋ॑त॒जाऽअ॑द्रि॒जाऽऋ॒तं बृ॒हत् ॥१४ ॥
अब अगले मन्त्र में
परमात्मा और जीव के लक्षण कहे हैं ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
प्रजा के पुरुषो ! तुम लोग जो (हंसः) दुष्ट कर्मों का नाशक (शुचिषत्) पवित्र
व्यवहारों में वर्त्तमान (वसुः) सज्जनों में बसने वा उनको बसानेवाला (अन्तरिक्षसत्)
धर्म के अवकाश में स्थित (होता) सत्य का ग्रहण करने और करानेवाला (वेदिषत्) सब
पृथिवी वा यज्ञ के स्थान में स्थित (अतिथिः) पूजनीय वा राज्य की रक्षा के लिये
यथोचित समय में भ्रमण करनेवाला (दुरोणसत्) ऋतुओं में सुखदायक आकाश में व्याप्त वा
घर में रहनेवाला (नृषत्) सेना आदि के नायकों का अधिष्ठाता (वरसत्) उत्तम विद्वानों
की आज्ञा में स्थित (ऋतसत्) सत्याचरणों में आरुढ़ (व्योमसत्) आकाश के समान
सर्वव्यापक ईश्वर में स्थित (अब्जाः) प्राणों को प्रकट करनेहारा (गोजाः) इन्द्रिय
वा पशुओं को प्रसिद्ध करनेहारा (ऋतजाः) सत्य विज्ञान को उत्पन्न करने हारा
(अद्रिजाः) मेघों को वर्षानेवाला विद्वान् (ऋतम्) सत्यस्वरूप (बृहत्) अनन्त ब्रह्म
और जीव को जाने, उस पुरुष को सभा का स्वामी राजा बना के
निरन्तर आनन्द में रहो ॥१४ ॥
भावार्थभाषाः -जो
पुरुष ईश्वर के समान प्रजाओं को पालने और सुख देने में समर्थ हो, वही राजा होने के योग्य होता है, और ऐसे राजा के
बिना प्रजाओं को सुख भी नहीं हो सकता ॥१४ ॥
सीद॒
त्वं मा॒तुर॒स्याऽउ॒पस्थे॒ विश्वा॑न्यग्ने व॒युना॑नि वि॒द्वान्। मैनां॒ तप॑सा॒
मार्चिषा॒ऽभिशो॑चीर॒न्तर॑स्याᳬ शु॒क्रज्यो॑ति॒र्विभा॑हि ॥१५ ॥
माता का कर्म्म अगले
मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(अग्ने) विद्या को चाहनेवाले पुरुष ! (त्वम्) आप (अस्याम्) इस माता के विद्यमान
होने पर (विभाहि) प्रकाशित हो (शुक्रज्योतिः) शुद्ध आचरणों के प्रकाश से युक्त
(विद्वान्) विद्यावान् आप (अस्याः) इस प्रत्यक्ष पृथिवी के समान आधाररूप (मातुः)
इस माता की (उपस्थे) गोद में (सीद) स्थित हूजिये। इस माता से (विश्वानि) सब प्रकार
की (वयुनानि) बुद्धियों को प्राप्त हूजिये। (एनाम्) इस माता को (अन्तः) अन्तःकरण
में (मा) मत (तपसा) सन्ताप से तथा (अर्चिषा) तेज से (मा) मत (अभिशोचीः) शोकयुक्त
कीजिये,
किन्तु इस माता से शिक्षा को प्राप्त होके प्रकाशित हूजिये ॥१५ ॥
भावार्थभाषाः -जो
विद्वान् माता के द्वारा विद्या और अच्छी शिक्षा से युक्त किया हुआ, माता का सेवक, जैसे माता पुत्रों को पालती है,
वैसे प्रजाओं का पालन करे, वह पुरुष राज्य के
ऐश्वर्य्य से प्रकाशित होवे ॥१५ ॥
अ॒न्तर॑ग्ने
रु॒चा त्वमु॒खायाः॒ सद॑ने॒ स्वे। तस्या॒स्त्वꣳ हर॑सा॒ तप॒ञ्जात॑वेदः शि॒वो भ॑व ॥१६
॥
फिर राजा क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(जातवेदः) वेदों के ज्ञाता (अग्ने) तेजस्वी विद्वन् ! (त्वम्) आप जिस (उखायाः)
प्राप्त हुई प्रजा के नीचे से अग्नि के समान (स्वे) अपने (सदने) पढ़ने के स्थान
में (तपन्) शत्रुओं को संताप कराते हुए (अन्तः) मध्य में (रुचा) प्रीति से वर्त्तो, (तस्याः) उस प्रजा के (हरसा) प्रज्वलित तेज से (त्वम्) आप शत्रुओं का
निवारण करते हुए (शिवः) मङ्गलकारी (भव) हूजिये ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः -इस
मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सभाध्यक्ष राजा को चाहिये कि न्याय करने
की गद्दी पर बैठ के अत्यन्त प्रीति के साथ राज्य के पालनरूप कार्यों को करे, वैसे प्रजाओं को चाहिये कि राजा को सुख देती हुई दुष्टों को ताड़ना करें
॥१६ ॥
शि॒वो
भू॒त्वा मह्य॑मग्ने॒ऽअथो॑ सीद शि॒वस्त्वम्। शि॒वाः कृ॒त्वा दिशः॒ सर्वाः॒ स्वं
योनि॑मि॒हास॑दः ॥१७ ॥
फिर भी वही विषय अगले
मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(अग्ने) अग्नि के समान शत्रुओं को जलानेवाले विद्वन् पुरुष ! (त्वम्) आप (मह्यम्)
हम प्रजाजनों के लिये (शिवः) मङ्गलाचरण करनेहारे (भूत्वा) होकर (इह) इस संसार में
(शिवः) मङ्गलकारी हुए (सर्वाः) सब (दिशः) दिशाओं में रहने हारी प्रजाओं को (शिवाः)
मङ्गलाचरण से युक्त (कृत्वा) करके (स्वम्) अपने (योनिम्) राजधर्म के आसन पर (आसदः)
बैठिये और (अथो) इसके पश्चात् राजधर्म में (सीद) स्थिर हूजिये ॥१७ ॥
भावार्थभाषाः -राजा
को चाहिये कि आप धर्मात्मा होके प्रजा के मनुष्यों को धार्मिक कर और न्याय की
गद्दी पर बैठ के निरन्तर न्याय किया करे ॥१७ ॥
दि॒वस्परि॑
प्रथ॒मं ज॑ज्ञेऽअ॒ग्निर॒स्मद् द्वि॒तीयं॒ परि॑ जा॒तवे॑दाः। तृ॒तीय॑म॒प्सु
नृ॒मणा॒ऽअज॑स्र॒मिन्धा॑नऽएनं जर॒ते स्वा॒धीः ॥१८ ॥
फिर राजधर्म का उपदेश
अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
सभापति राजन् ! जो (अग्निः) अग्नि के समान आप (अस्मत्) हम लोगों से (दिवः) बिजुली के
(परि) ऊपर (जज्ञे) प्रकट होते हैं, उन (एनम्)
आपको (प्रथमम्) पहिले जो (जातवेदाः) बुद्धिमानों में प्रसिद्ध उत्पन्न हुए उस आपको
(द्वितीयम्) दूसरे जो (नृमणाः) मनुष्यों में विचारशील आप (तृतीयम्) तीसरे (अप्सु)
प्राण वा जल क्रियाओं में विदित हुए उस आपको (अजस्रम्) निरन्तर (इन्धानः) प्रकाशित
करता हुआ विद्वान् (परिजरते) सब प्रकार स्तुति करता है, सो
आप (स्वाधीः) सुन्दर ध्यान से युक्त प्रजाओं को प्रकाशित कीजिये ॥१८ ॥
भावार्थभाषाः
-मनुष्यों को चाहिये कि प्रथम ब्रह्मचर्य्याश्रम के सहित विद्या तथा शिक्षा का
ग्रहण,
दूसरे गृहाश्रम से धन का सञ्चय, तीसरे
वानप्रस्थ आश्रम से तप का आचरण और चौथे संन्यास लेकर वेदविद्या और धर्म का नित्य
प्रकाश करें ॥१८ ॥
वि॒द्मा
ते॑ऽअग्ने त्रे॒धा त्र॒याणि॑ वि॒द्मा ते॒ धाम॒ विभृ॑ता पुरु॒त्रा। वि॒द्मा ते॒
नाम॑ पर॒मं गुहा॒ यद्वि॒द्मा तमुत्सं॒ यत॑ऽआज॒गन्थ॑ ॥१९ ॥
फिर भी वही विषय अगले
मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(अग्ने) विद्वन् पुरुष ! (ते) आपके जो (त्रेधा) तीन प्रकार से (त्रयाणि) तीन कर्म
हैं,
उनको हम लोग (विद्म) जानें। हे स्थानों के स्वामी ! (ते) आपके जो
(विभृता) विशेष करके धारण करने के योग्य (पुरुत्रा) बहुत (धाम) नाम, जन्म और स्थान रूप हैं, उनको हम लोग (विद्म) जानें।
हे विद्वन् पुरुष ! (ते) आपका (यत्) जो (गुहा) बुद्धि में स्थित गुप्त (परमम्)
श्रेष्ठ (नाम) नाम है, उसको हम लोग (विद्म) जानें (यतः) जिस
कारण आप (आजगन्थ) अच्छे प्रकार प्राप्त होवें (तम्) उस (उत्सम्) कूप के तुल्य तर
करनेहारे आपको (विद्म) हम लोग जानें ॥१९ ॥
भावार्थभाषाः -प्रजा
के पुरुष और राजा को योग्य है कि राजनीति के कामों, सब
स्थानों और सब पदार्थों के नामों को जानें। जैसे कृषक कुएँ से जल निकाल खेत आदि को
तृप्त करते हैं, वैसे ही धनादि पदार्थों से प्रजा राजा को और
राजा प्रजाओं को तृप्त करे ॥१९ ॥
स॒मु॒द्रे
त्वा॑ नृ॒मणा॑ऽअ॒प्स्व᳕न्तर्नृ॒चक्षा॑ऽईधे दि॒वो अ॑ग्न॒ऽऊध॑न्। तृ॒तीये॑ त्वा॒
रज॑सि तस्थि॒वाꣳस॑म॒पामु॒पस्थे॑ महि॒षाऽअ॑वर्धन् ॥२० ॥
फिर भी राजा और प्रजा
के सम्बन्ध का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
भावार्थभाषाः -प्रजा
के बीच वर्त्तमान सब श्रेष्ठ पुरुष राजपुरुषों को और राजपुरुष प्रजापुरुषों को
नित्य बढ़ाते रहें ॥२० ॥
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