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यजुर्वेद » अध्याय:12 मंत्र 1 से 10

 

यजुर्वेद » अध्याय:12 मंत्र 1 से 10

दृ॒शा॒नो रु॒क्मऽउ॒र्व्या व्य॑द्यौद् दु॒र्मर्ष॒मायुः॑ श्रि॒ये रु॑चा॒नः। अ॒ग्निर॒मृतो॑ऽअभव॒द् वयो॑भि॒र्यदे॑नं॒ द्यौरज॑नयत् सु॒रेताः॑ ॥१ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब बारहवें अध्याय का आरम्भ किया जाता है, उस के प्रथम मन्त्र में विद्वानों के गुणों का उपदेश किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जैसे (दृशानः) दिखलाने हारा (द्यौः) स्वयं प्रकाशस्वरूप (अग्निः) सूर्यरूप अग्नि (उर्व्या) अति स्थूल भूमि के साथ सब मूर्त्तिमान् पदार्थों को (व्यद्यौत्) विविध प्रकार से प्रकाशित करता है, वैसे जो (श्रिये) सौभाग्यलक्ष्मी के अर्थ (रुचानः) रुचिकर्त्ता (रुक्मः) सुशोभित जन (अभवत्) होता और (यत्) जो (सुरेताः) उत्तम वीर्ययुक्त (अमृतः) नाशरहित (दुर्मर्षम्) शत्रुओं के दुःख से निवारण के योग्य (आयुः) जीवन को (अजनयत्) प्रकट करता है, (वयोभिः) अवस्थाओं के साथ (एनम्) इस विद्वान् पुरुष को प्रकट करता हो, उसको तुम सदा निरन्तर सेवन करो ॥१ ॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे इस जगत् में सूर्य आदि सब पदार्थ अपने-अपने दृष्टान्त से परमेश्वर को निश्चय कराते हैं, वैसे ही मनुष्यों को होना चाहिये ॥१ ॥

 

नक्तो॒षासा॒ सम॑नसा॒ विरू॑पे धा॒पये॑ते॒ शिशु॒मेकं॑ꣳ समी॒ची। द्यावा॒क्षामा॑ रु॒क्मोऽअ॒न्तर्विभा॑ति दे॒वाऽअ॒ग्निं धा॑रयन् द्रविणो॒दाः ॥२ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जिस (अग्निम्) बिजुली को (द्रविणोदाः) बलदाता (देवाः) दिव्य प्राण (धारयन्) धारण करें, जो (रुक्मः) रुचिकारक होके (अन्तः) अन्तःकरण में (विभाति) प्रकाशित होता है, जो (समनसा) एक विचार से विदित (विरूपे) अन्धकार और प्रकाश से विरुद्ध रूपयुक्त (समीची) सब प्रकार सब को प्राप्त होनेवाली (द्यावाक्षामा) प्रकाश और भूमि तथा (नक्तोषासा) रात्रि और दिन जैसे (एकम्) एक (शिशुम्) बालक को दो माताएँ (धापयेते) दूध पिलाती हैं, वैसे उसको तुम लोग जानो ॥२ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे जननी माता और धायी बालक को दूध पिलाती हैं, वैसे ही दिन और रात्रि सब की रक्षा करते हैं, और जो बिजुली के रूप से सर्वत्र व्यापक है, वह अग्नि सूर्य आदि का कारण है, इस बात का तुम सब निश्चय करो ॥२ ॥

 

विश्वा॑ रू॒पाणि॒ प्रति॑मुञ्चते क॒विः प्रासा॑वीद् भ॒द्रं द्वि॒पदे॒ चतु॑ष्पदे। वि नाक॑मख्यत् सवि॒ता वरे॒ण्योऽनु॑ प्र॒याण॑मु॒षसो॒ विरा॑जति ॥३ ॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में परमेश्वर के कृत्य का उपदेश किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जो (वरेण्यः) ग्रहण करने योग्य (कविः) जिसकी दृष्टि और बुद्धि सर्वत्र है वा सर्वज्ञ (सविता) सब संसार का उत्पादक जगदीश्वर वा सूर्य्य (उषसः) प्रातःकाल का समय (प्रयाणम्) प्राप्त करने को (अनुविराजति) प्रकाशित होता है (विश्वा) सब (रूपाणि) पदार्थों के स्वरूप (प्रतिमुञ्चते) प्रसिद्ध करता है और (द्विपदे) मनुष्यादि दो पगवाले (चतुष्पदे) तथा गौ आदि चार पगवाले प्राणियों के लिये (नाकम्) सब दुःखों से पृथक् (भद्रम्) सेवने योग्य सुख को (व्यख्यत्) प्रकाशित करता और (प्रासावीत्) उत्पन्न करता है, ऐसे उस सूर्य्यलोक को उत्पन्न करनेवाले ईश्वर को तुम लोग जानो ॥३ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जिस परमेश्वर ने सम्पूर्ण रूपवान् द्रव्यों का प्रकाशक, प्राणियों के सुख का हेतु, प्रकाशमान सूर्यलोक रचा है, उसी की भक्ति सब मनुष्य करें ॥३ ॥

 

सु॒प॒र्णो᳖ऽसि ग॒रुत्माँ॑स्त्रि॒वृत्ते॒ शिरो॑ गाय॒त्रं चक्षु॑र्बृहद्रथन्त॒रे प॒क्षौ। स्तोम॑ऽआ॒त्मा छन्दा॒ᳬस्यङ्गा॑नि॒ यजू॑ᳬषि॒ नाम॑। साम॑ ते त॒नूर्वा॑मदे॒व्यं य॑ज्ञाय॒ज्ञियं॒ पुच्छं॒ धिष्ण्याः॑ श॒फाः। सु॒प॒र्णो᳖ऽसि ग॒रुत्मा॒न् दिवं॑ गच्छ॒ स्वः᳖ पत ॥४ ॥

 

फिर विद्वानों के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वन् ! जिससे (ते) आपका (त्रिवृत्) तीन कर्म्म, उपासना और ज्ञानों से युक्त (शिरः) दुःखों का जिससे नाश हो (गायत्रम्) गायत्री छन्द से कहे विज्ञानरूप अर्थ (चक्षुः) नेत्र (बृहद्रथन्तरे) बड़े-बड़े रथों के सहाय से दुःखों को छुड़ानेवाले (पक्षौ) इधर-उधर के अवयव (स्तोमः) स्तुति के योग्य ऋग्वेद (आत्मा) अपना स्वरूप (छन्दांसि) उष्णिक् आदि छन्द (अङ्गानि) कान आदि (यजूंषि) यजुर्वेद के मन्त्र (नाम) नाम (यज्ञायज्ञियम्) ग्रहण करने और छोड़ने योग्य व्यवहारों के योग्य (वामदेव्यम्) वामदेव ऋषि ने जाने वा पढ़ाये (साम) तीसरे सामवेद (ते) आपका (तनूः) शरीर है, इससे आप (गरुत्मान्) महात्मा (सुपर्णः) सुन्दर सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त (असि) हैं, जिससे (धिष्ण्याः) शब्द करने के हेतुओं में साधु (शफाः) खुर तथा (पुच्छम्) बड़ी पूँछ के समान अन्त्य का अवयव है, उसके समान जो (गरुत्मान्) प्रशंसित शब्दोच्चारण से युक्त (सुपर्णः) सुन्दर उड़नेवाले (असि) हैं, उस पक्षी के समान आप (दिवम्) सुन्दर विज्ञान को (गच्छ) प्राप्त हूजिये और (स्वः) सुख को (पत) ग्रहण कीजिये ॥४ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सुन्दर, शाखा, पत्र, पुष्प, फल और मूलों से युक्त वृक्ष शोभित होते हैं, वैसे ही वेदादि शास्त्रों के पढ़ने और पढ़ाने हारे सुशोभित होते हैं। जैसे पशु पूँछ आदि अवयवों से अपने काम करते और जैसे पक्षी पंखों से आकाश मार्ग से जाते-आते आनन्दित होते हैं, वैसे मनुष्य विद्या और अच्छी शिक्षा को प्राप्त हो पुरुषार्थ के साथ सुखों को प्राप्त हों ॥४ ॥

 

विष्णोः॒ क्रमो॑ऽसि सपत्न॒हा गा॑य॒त्रं छन्द॒ऽआरो॑ह पृथि॒वीमनु॒ विक्र॑मस्व॒ विष्णोः॒ क्रमो॑ऽस्यभिमाति॒हा त्रैष्टु॑भं॒ छन्द॒ऽआरो॑हा॒न्तरि॑क्ष॒मनु॒ विक्र॑मस्व॒ विष्णोः॒ क्रमो॑ऽस्यरातीय॒तो ह॒न्ता जाग॑तं॒ छन्द॒ऽआरो॑ह॒ दिव॒मनु॒ विक्र॑मस्व॒ विष्णोः॒ क्रमो॑ऽसि शत्रूय॒तो ह॒न्तानु॑ष्टुभं॒ छन्द॒ऽआरो॑ह॒ दिशोऽनु॒ विक्र॑मस्व ॥५ ॥

 

फिर भी अगले मन्त्र में राजधर्म का उपदेश किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वन् पुरुष ! जिससे आप (विष्णोः) व्यापक जगदीश्वर के (क्रमः) व्यवहार से शोधक और (सपत्नहा) शत्रुओं के मारनेहारे (असि) हो, इससे (गायत्रम्) गायत्री मन्त्र से निकले (छन्दः) शुद्ध अर्थ पर (आरोह) आरूढ़ हूजिये (पृथिवीम्) पृथिव्यादि पदार्थों से (अनुविक्रमस्व) अपने अनुकूल व्यवहार साधिये तथा जिस कारण आप (विष्णोः) व्यापक कारण के (क्रमः) कार्य्यरूप (अभिमातिहा) अभिमानियों को मारनेहारे (असि) हैं, इससे आप (त्रैष्टुभम्) तीन प्रकार के सुखों से संयुक्त (छन्दः) बलदायक वेदार्थ को (आरोह) ग्रहण और (अन्तरिक्षम्) आकाश को (अनुविक्रमस्व) अनुकूल व्यवहार में युक्त कीजिये जिससे आप (विष्णोः) व्यापनशील बिजुली रूप अग्नि के (क्रमः) जाननेहारे (अरातीयतः) विद्या आदि दान के विरोधी पुरुष के (हन्ता) नाश करनेहारे (असि) हैं, इससे आप (जागतम्) जगत् को जानने का हेतु (छन्दः) सृष्टिविद्या को बलयुक्त करनेहारे विज्ञान को (आरोह) प्राप्त हूजिये और (दिवम्) सूर्य आदि अग्नि को (अनुविक्रमस्व) अनुक्रम से उपयुक्त कीजिये, जो आप (विष्णोः) हिरण्यगर्भ वायु के (क्रमः) ज्ञापक तथा (शत्रूयतः) अपने को शत्रु का आचरण करनेवाले पुरुषों के (हन्ता) मारनेवाले (असि) हैं, सो आप (आनुष्टुभम्) अनुकूलता के साथ सुख सम्बन्ध के हेतु (छन्दः) आनन्दकारक वेदभाग को (आरोह) उपयुक्त कीजिये और (दिशः) पूर्व आदि दिशाओं के (अनुविक्रमस्व) अनुकूल प्रयत्न कीजिये ॥५ ॥


भावार्थभाषाः -मनुष्यों को चाहिये कि वेदविद्या से भूगर्भ विद्याओं का निश्चय तथा पराक्रम से उनकी उन्नति करके रोग और शत्रुओं का नाश करें ॥५ ॥

 

अक्र॑न्दद॒ग्नि स्त॒नय॑न्निव॒ द्यौः क्षामा॒ रेरि॑हद् वी॒रुधः॑ सम॒ञ्जन्। स॒द्यो ज॑ज्ञा॒नो वि हीमि॒द्धोऽअख्य॒दा रोद॑सी भा॒नुना॑ भात्य॒न्तः ॥६ ॥

 

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जो सभापति (सद्यः) एक दिन में (जज्ञानः) प्रसिद्ध हुआ (द्यौः) सूर्यप्रकाश रूप (अग्निः) विद्युत् अग्नि के समान (स्तनयन्निव) शब्द करता हुआ शत्रुओं को (अक्रन्दत्) प्राप्त होता है, जैसे (क्षामा) पृथिवी (वीरुधः) वृक्षों को फल-फूलों से युक्त करती है, वैसे प्रजाओं के लिये सुखों को (रेरिहत्) अच्छे-बुरे कर्मों का शीघ्र फल देता है, जैसे सूर्य (इद्धः) प्रदीप्त और (समञ्जन्) सम्यक् पदार्थों को प्रकाशित करता हुआ (रोदसी) आकाश और पृथिवी को (व्यख्यत्) प्रसिद्ध करता और (भानुना) अपनी दीप्ति के साथ (अन्तः) सब लोकों के बीच (आभाति) प्रकाशित होता है, वैसे जो सभापति शुभ गुण-कर्मों से प्रकाशित हो, उसको तुम लोग राजकार्य्यों में संयुक्त करो ॥६ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य सब लोकों के बीच में स्थित हुआ सबको प्रकाशित और आकर्षण करता है, और जैसे पृथिवी बहुत फलों को देती है, वैसे ही मनुष्य को राज्य के कार्यों में अच्छे प्रकार से उपयुक्त करो ॥६ ॥

 

अग्ने॑ऽभ्यावर्त्तिन्न॒भि मा॒ निव॑र्त्त॒स्वायु॑षा॒ वर्च॑सा प्र॒जया॒ धने॑न। स॒न्या मे॒धया॑ र॒य्या पोषे॑ण ॥७ ॥

 

फिर विद्वानों के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अभ्यावर्त्तिन्) सन्मुख होके वर्तनेवाले (अग्ने) तेजस्वी पुरुषार्थी विद्वान् पुरुष ! आप (आयुषा) बड़े जीवन (वर्चसा) अन्न तथा पढ़ने आदि (प्रजया) सन्तानों (धनेन) धन (सन्या) सब विद्याओं का विभाग करनेहारी (मेधया) बुद्धि (रय्या) विद्या की शोभा और (पोषेण) पुष्टि के साथ (अभिनिवर्त्तस्व) निरन्तर वर्त्तमान हूजिये और (मा) मुझको भी इन उक्त पदार्थों से संयुक्त कीजिये ॥७ ॥


भावार्थभाषाः -मनुष्य लोग भूगर्भादि विद्या के विना ऐश्वर्य्य को प्राप्त नहीं कर सकते और बुद्धि के विना विद्या भी नहीं हो सकती ॥७ ॥

 

अग्ने॑ऽअङ्गिरः श॒तं ते॑ सन्त्वा॒वृतः॑ सह॒स्रं॑ तऽउपा॒वृतः॑। अधा॒ पोष॑स्य॒ पोषे॑ण॒ पुन॑र्नो न॒ष्टमाकृ॑धि॒ पुन॑र्नो र॒यिमाकृ॑धि ॥८ ॥

 

फिर विद्याभ्यास करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) पदार्थविद्या के जाननेहारे (अङ्गिरः) विद्या के रसिक विद्वन् पुरुष ! जिस पुरुषार्थी (ते) आपकी अग्नि के समान (शतम्) सैकड़ों (आवृतः) आवृत्तिरूप क्रिया और (सहस्रम्) हजारह (ते) आपके (उपावृतः) आवृत्तिरूप सुखों के भोग (सन्तु) होवें, (अध) इसके पश्चात् आप इनसे (पोषस्य) पोषक मनुष्य की (पोषेण) रक्षा से (नष्टम्) परोक्ष भी विज्ञान को (नः) हमारे लिये (पुनः) फिर भी (आकृधि) अच्छे प्रकार कीजिये तथा बिगड़ी हुई (रयिम्) प्रशंसित शोभा को (पुनः) फिर भी (नः) हमारे अर्थ (आकृधि) अच्छे प्रकार कीजिये ॥८ ॥


भावार्थभाषाः -मनुष्यों को योग्य है कि विद्याओं में सैकड़ों आवृत्ति और शिल्प विद्याओं में हजारह प्रकार की प्रवृत्ति और प्रसिद्ध अप्रसिद्ध विद्याओं का प्रकाश करके सब प्राणियों के लिये लक्ष्मी और सुख उत्पन्न करें ॥८ ॥

 

पुन॑रू॒र्जा निव॑र्त्तस्व॒ पुन॑रग्नऽइ॒षायु॑षा। पुन॑र्नः पा॒ह्यꣳह॑सः ॥९ ॥

 

फिर पढ़ानेहारे का कर्त्तव्य अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) अग्नि के समान तेजस्वी अध्यापक विद्वान् जन ! आप (नः) हम लोगों को (अंहसः) पापों से (पुनः) बार-बार (निवर्त्तस्व) बचाइये, (पुनः) फिर हम लोगों की (पाहि) रक्षा कीजिये, और (पुनः) फिर (इषा) इच्छा तथा (आयुषा) अन्न से (ऊर्जा) पराक्रमयुक्त कर्मों को प्राप्त कीजिये ॥९ ॥


भावार्थभाषाः -विद्वान् लोगों को चाहिये कि सब उपदेश के योग्य मनुष्यों को पापों से निरन्तर हटा के शरीर और आत्मा के बल से युक्त करें और आप भी पापों से बच के परम पुरुषार्थी होवें ॥९ ॥

 

स॒ह रय्या निव॑र्त्त॒स्वाग्ने॒ पिन्व॑स्व॒ धार॑या। वि॒श्वप्स्न्या॑ वि॒श्वत॒स्परि॑ ॥१० ॥

 

फिर भी उक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) तेजस्वी विद्वन् पुरुष ! आप दुष्ट व्यवहारों से (निवर्त्तस्व) पृथक् हूजिये (विश्वप्स्न्या) सब भोगने योग्य पदार्थों की भुगवाने हारी (धारया) सम्पूर्ण विद्याओं के धारण करने का हेतु वाणी तथा (रय्या) धन के (सह) साथ (विश्वतः) सब ओर से (परि) सब प्रकार (पिन्वस्व) सुखों का सेवन कीजिये ॥१० ॥


भावार्थभाषाः -विद्वान् पुरुषों को चाहिये कि कभी अधर्म्म का आचरण न करें और दूसरों को वैसा उपदेश भी न करें। इस प्रकार सब शास्त्र और विद्याओं से विराजमान हुए प्रशंसा के योग्य होवें ॥१० ॥


यजुर्वेद अध्याय 11                  यजुर्वेद » अध्याय:12 मंत्र 11 से 20

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