यजुर्वेद » अध्याय:12 मंत्र 21 से 30
अक्र॑न्दद॒ग्नि
स्त॒नय॑न्निव॒ द्यौः क्षामा॒ रेरि॑हद् वी॒रुधः॑ सम॒ञ्जन्। स॒द्यो ज॑ज्ञा॒नो वि
हीमि॒द्धोऽअख्य॒दा रोद॑सी भा॒नुना॑ भात्य॒न्तः ॥२१ ॥
अब मनुष्यों को कैसा
होना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
मनुष्यो ! जैसे (द्यौः) सूर्यलोक (अग्निः) विद्युत् अग्नि (स्तनयन्निव) शब्द करते
हुए के समान (वीरुधः) ओषधियों को (समञ्जन्) प्रकट करता हुआ (सद्यः) शीघ्र (हि) ही
(अक्रन्दत्) पदार्थों को इधर-उधर चलाता (क्षामा) पृथिवी को (रेरिहत्) कंपाता और यह
(जज्ञानः) प्रसिद्ध हुआ (इद्धः) प्रकाशमान होकर (भानुना) किरणों के साथ (रोदसी)
प्रकाश और पृथिवी को (ईम्) सब ओर से (व्यख्यत्) विख्यात करता है और ब्रह्माण्ड के
(अन्तः) बीच (आभाति) अच्छे प्रकार शोभायमान होता है, वैसे
तुम लोग भी होओ ॥२१ ॥
भावार्थभाषाः -ईश्वर
ने जिसलिये सूर्यलोक को उत्पन्न किया है, इसलिये वह
बिजुली के समान सब लोकों का आकर्षण कर और सम्यक् प्रकाश देकर ओषधि आदि पदार्थों को
बढ़ाने का हेतु और सब भूगोलों के बीच जैसे शोभायमान होता है, वैसे राजा आदि पुरुषों को भी होना चाहिये ॥२१ ॥
श्री॒णामु॑दा॒रो
ध॒रुणो॑ रयी॒णां म॑नी॒षाणां॒ प्रार्प॑णः॒ सोम॑गोपाः। वसुः॑ सू॒नुः सह॑सोऽअ॒प्सु
राजा॒ विभा॒त्यग्र॑ऽउ॒षसा॑मिधा॒नः ॥२२ ॥
इन राजकार्यों में
कैसे पुरुष को राजा बनावें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
मनुष्यो ! तुम लोगों को चाहिये कि जो पुरुष (उषसाम्) प्रभात समय के (अग्रे) आरम्भ
में (इधानः) प्रदीप्यमान सूर्य के समान (श्रीणाम्) सब उत्तम लक्ष्मियों के मध्य
(उदारः) परीक्षित पदार्थों का देने (रयीणाम्) धनों का (धरुणः) धारण करने
(मनीषाणाम्) बुद्धियों का (प्रार्पणः) प्राप्त कराने और (सोमगोपाः) ओषधियों वा
ऐश्वर्यों की रक्षा करने (सहसः) ब्रह्मचर्य किये जितेन्द्रिय बलवान् पिता का
(सूनुः) पुत्र (वसुः) ब्रह्मचर्याश्रम करता हुआ, (अप्सु)
प्राणों में (राजा) प्रकाशयुक्त होकर (विभाति) शुभ गुणों का प्रकाश करता हो,
उसको सब का अध्यक्ष करो ॥२२ ॥
भावार्थभाषाः -सब
मनुष्यों को उचित है कि जो सुपात्रों को दान देने, धन
का व्यर्थ खर्च न करने, सब को विद्या-बुद्धि देने, जिसने ब्रह्मचर्याश्रम सेवन किया हो, अपने इन्द्रिय
जिसके वश में हों, उसका पुत्र योग के यम आदि आठ अङ्गों के
सेवन से प्रकाशमान, सूर्य के समान अच्छे गुण-कर्म्म और
स्वभावों से सुशोभित, और पिता के समान अच्छे प्रकार प्रजाओं
का पालन करनेहारा पुरुष हो, उसको राज्य करने के लिये स्थापित
करें ॥२२ ॥
विश्व॑स्य
के॒तुर्भुव॑नस्य॒ गर्भ॒ऽआ रोद॑सीऽअपृणा॒ज्जाय॑मानः। वी॒डुं चि॒दद्रि॑मभिनत्
परा॒यञ्जना॒ यद॒ग्निमय॑जन्त॒ पञ्च॑ ॥२३ ॥
फिर भी वही विषय अगले
मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
मनुष्यो ! तुम लोग (यत्) जो विद्वान् (विश्वस्य) सब (भुवनस्य) लोकों का (केतुः)
पिता के समान रक्षक प्रकाशनेहारा (गर्भः) उन के मध्य में रहने (जायमानः) उत्पन्न
होनेवाला (परायन्) शत्रुओं को प्राप्त होता हुआ (रोदसी) प्रकाश और पृथिवी को
(आपृणात्) पूरण कर्त्ता हो, (वीडुम्) अत्यन्त बलवान्
(अद्रिम्) मेघ को (अभिनत्) छिन्न-भिन्न करे, (पञ्च) पाँच
(जनाः) प्राण (अग्निम्) बिजुली को (अयजन्त) संयुक्त करते हैं, (चित्) इसी प्रकार जो विद्या आदि शुभ गुणों का प्रकाश करे, उसको न्यायाधीश राजा मानो ॥२३ ॥
भावार्थभाषाः -इस
मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे ब्रह्माण्ड के बीच सूर्यलोक अपनी आकर्षण शक्ति से
सब को धारण करता और मेघ को काटनेवाला तथा प्राणों से प्रसिद्ध हुए के समान सब
विद्याओं को जताने और जैसे माता गर्भ की रक्षा करे, वैसे
प्रजा का पालनेहारा विद्वान् पुरुष हो, उसको राज्याधिकार
देना चाहिये ॥२३ ॥
उ॒शिक्
पा॑व॒को अ॑र॒तिः सु॑मे॒धा मर्त्ये॑ष्व॒ग्निर॒मृतो॒ नि धा॑यि। इय॑र्त्ति
धू॒मम॑रु॒षं भरि॑भ्र॒दुच्छु॒क्रेण॑ शो॒चिषा॒ द्यामिन॑क्षन् ॥२४ ॥
फिर मनुष्यों को क्या
करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
मनुष्यो ! तुम लोग ईश्वर ने (मर्त्येषु) मनुष्यों में जो (उशिक्) मानने योग्य
(पावकः) पवित्र करनेहारा (अरतिः) ज्ञानवाला (सुमेधाः) अच्छी बुद्धि से युक्त
(अमृतः) मरणधर्मरहित (अग्निः) आकाररूप ज्ञान का प्रकाश (निधायि) स्थापित किया है, जो (शुक्रेण) शीघ्रकारी (शोचिषा) प्रकाश से (द्याम्) सूर्यलोक को
(इनक्षन्) व्याप्त होता हुआ (धूमम्) धुएँ (अरुषम्) रूप को (भरिभ्रत्) अत्यन्त धारण
वा पुष्ट करता हुआ (उदियर्ति) प्राप्त होता है, उसी ईश्वर की
उपासना करो वा उस अग्नि से उपकार लेओ ॥२४ ॥
भावार्थभाषाः
-मनुष्यों को चाहिये कि कार्य्य-कारण के अनुसार ईश्वर के रचे हुए सब पदार्थों को
ठीक-ठीक जान के अपनी बुद्धि बढ़ावें ॥२४ ॥
दृ॒शा॒नो
रु॒क्मऽउ॒र्व्या व्य॑द्यौद् दु॒र्मर्ष॒मायुः॑ श्रि॒ये रु॑चा॒नः।
अ॒ग्निर॒मृतो॑ऽअभव॒द् वयो॑भि॒र्यदे॑नं॒ द्यौरज॑नयत् सु॒रेताः॑ ॥२५ ॥
फिर मनुष्यों को
क्या-क्या जानना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
मनुष्यो ! तुम लोग (यत्) जिस कारण (दृशानः) दिखाने हारा (रुक्मः) रुचि का हेतु
(श्रिये) शोभा का (रुचानः) प्रकाशक (दुर्मर्षम्) सब दुःखों से रहित (आयुः) जीवन
करता हुआ (अमृतः) नाशरहित (अग्निः) तेजस्वरूप (उर्व्या) पृथिवी के साथ (व्यद्यौत्)
प्रकाशित होता है, (वयोभिः) व्यापक गुणों के साथ
(अभवत्) उत्पन्न होता और जो (द्यौः) प्रकाशक (सुरेताः) सुन्दर पराक्रमवाला
जगदीश्वर (यत्) जिस के लिये (एनम्) इस अग्नि को (अजनयत्) उत्पन्न करता है, उस ईश्वर, आयु और विद्युत् रूप अग्नि को जानो ॥२५ ॥
भावार्थभाषाः -जो
मनुष्य गुण-कर्म और स्वभावों के सहित जगत् रचनेवाले अनादि ईश्वर और जगत् के कारण
को ठीक-ठीक जान के उपासना करते और उपयोग लेते हैं, वे
चिरंजीव होकर लक्ष्मी को प्राप्त होते हैं ॥२५ ॥
यस्ते॑ऽअ॒द्य
कृ॒णव॑द् भद्रशोचेऽपू॒पं दे॑व घृ॒तव॑न्तमग्ने। प्र तं न॑य प्रत॒रं वस्यो॒ऽअच्छा॒भि
सु॒म्नं दे॒वभ॑क्तं यविष्ठ ॥२६ ॥
फिर विद्वान् लोग
कैसे रसोइया को स्वीकार करें, यह विषय अगले मन्त्र में
कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(भद्रशोचे) सेवने योग्य दीप्ति से युक्त (यविष्ठ) तरुण अवस्थावाले (देव) दिव्य
भोगों के दाता (अग्ने) विद्वन् पुरुष ! (यः) जो (ते) आपका (घृतवन्तम्) बहुत घृत
आदि पदार्थों से संयुक्त (अभि) सब प्रकार से (सुम्नम्) सुखरूप (देवभक्तम्)
विद्वानों के सेवने योग्य (अपूपम्) भोजन के योग्य पदार्थोंवाला (वस्यः) अत्यन्त
भोग्य (अच्छ) अच्छे-अच्छे पदार्थों को (कृणवत्) बनावे, (तम्) उस (प्रतरम्) पाक बनाने हारे पुरुष को आप (अद्य) आज (प्रणय) प्राप्त
हूजिये ॥२६ ॥
भावार्थभाषाः
-मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों से अच्छी शिक्षा को प्राप्त हुए अति उत्तम
व्यञ्जन और शष्कुली आदि तथा शाक आदि स्वाद से युक्त रुचिकारक पदार्थों को
बनानेवाले पाचक पुरुष का ग्रहण करें ॥२६ ॥
आ तं
भ॑ज सौश्रव॒सेष्व॑ग्नऽउ॒क्थऽउ॑क्थ॒ऽआभ॑ज श॒स्यमा॑ने। प्रि॒यः सूर्ये॑
प्रि॒योऽअ॒ग्ना भ॑वा॒त्युज्जा॒तेन॑ भि॒नद॒दुज्जनि॑त्वैः ॥२७ ॥
फिर भी वही विषय अगले
मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(अग्ने) विद्वन् पुरुष ! आप जो (सौश्रवसेषु) सुन्दर धनवालों में वर्त्तमान हो, (तम्) उसको (आभज) सेवन कीजिये, जो (शस्यमाने) स्तुति
के योग्य (उक्थऽउक्थे) अत्यन्त कहने योग्य व्यवहार में (प्रियः) प्रीति रक्खे
(सूर्य्ये) स्तुतिकारक पुरुषों में हुए व्यवहार (अग्ना) और अग्निविद्या में
(प्रियः) सेवने योग्य (जातेन) उत्पन्न हुए और (जनित्वैः) उत्पन्न होनेवालों के साथ
(उद्भवाति) उत्पन्न होवे और शत्रुओं को (उद्भिनदत्) उच्छिन्न-भिन्न करे, (तम्) उसको आप (आभज) सेवन कीजिये ॥२७ ॥
भावार्थभाषाः
-मनुष्यों को चाहिये कि जो पाक करने में साधु, सब का
हितकारी, अन्न और व्यञ्जनों को अच्छे प्रकार बनावे, उसको अवश्य ग्रहण करें ॥२७ ॥
त्वाम॑ग्ने॒
यज॑माना॒ऽअनु॒ द्यून् विश्वा॒ वसु॑ दधिरे॒ वार्या॑णि। त्वया॑ स॒ह
द्रवि॑णमि॒च्छमा॑ना व्र॒जं गोम॑न्तमु॒शिजो॒ विव॑व्रुः ॥२८ ॥
फिर मनुष्य लोग
विद्या को किस प्रकार बढ़ावें, इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(अग्ने) विद्वन् पुरुष ! जिस (त्वाम्) आपका आश्रय लेकर (उशिजः) बुद्धिमान्
(यजमानाः) सङ्गतिकारक लोग (त्वया) आप के (सह) साथ (विश्वा) सब (वार्याणि) ग्रहण
करने योग्य (अनुद्यून्) दिनों में (वसु) द्रव्यों को (दधिरे) धारण करें, (द्रविणम्) धन की (इच्छमानाः) इच्छा करते हुए (गोमन्तम्) सुन्दर किरणों के
रूप से युक्त (व्रजम्) मेघ वा गोस्थान को (विवव्रुः) विविध प्रकार से ग्रहण करें,
वैसे हम लोग भी होवें ॥२८ ॥
भावार्थभाषाः
-मनुष्यों को चाहिये कि प्रयत्नशील विद्वानों के सङ्ग से पुरुषार्थ के साथ विद्या
और सुख को नित्यप्रति बढ़ाते जावें ॥२८ ॥
अस्ता॑व्य॒ग्निर्न॒राꣳ
सु॒शेवो॑ वैश्वान॒रऽऋषि॑भिः॒ सोम॑गोपाः। अ॒द्वे॒षे द्यावा॑पृथि॒वी हु॑वेम॒ देवा॑
ध॒त्त र॒यिम॒स्मे सु॒वीर॑म् ॥२९ ॥
फिर उन विद्वानों के
सङ्ग से क्या होता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(देवाः) शत्रुओं को जीतने की इच्छावाले विद्वानो ! जिन तुम (ऋषिभिः) ऋषि लोगों ने
(नराम्) नायक विद्वानों में (सुशेवः) सुन्दर सुखयुक्त (वैश्वानरः) सब मनुष्यों के
आधार (अग्निः) परमेश्वर की (अस्तावि) स्तुति की है, जो
तुम लोग (अस्मे) हमारे लिये (सुवीरम्) जिससे सुन्दर वीर पुरुष हों, उस (रयिम्) राज्यलक्ष्मी को (धत्त) धारण करो, उसके
आश्रित (सोमगोपाः) ऐश्वर्य के रक्षक हम लोग (अद्वेषे) द्वेष करने के अयोग्य प्रीति
के विषय में (द्यावापृथिवी) प्रकाशरूप राजनीति और पृथिवी के राज्य का (हुवेम)
ग्रहण करें ॥२९ ॥
भावार्थभाषाः -जो
सच्चिदानन्दस्वरूप ईश्वर के सेवक, धर्मात्मा, विद्वान् लोग हैं, वे परोपकारी होने से आप्त
यथार्थवक्ता होते हैं, ऐसे पुरुषों के सत्सङ्ग के विना स्थिर
विद्या और राज्य को कोई भी नहीं कर सकता ॥२९ ॥
स॒मिधा॒ग्निं
दु॑वस्यत घृ॒तैर्बो॑धय॒ताति॑थिम्। आस्मि॑न् ह॒व्या जु॑होतन ॥३० ॥
फिर मनुष्य किन का
सेवन करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
गृहस्थो ! तुम लोग जैसे (समिधा) अच्छे प्रकार इन्धनों से (अग्निम्) अग्नि को
प्रकाशित करते हैं, वैसे उपदेश करनेवाले विद्वान्
पुरुष की (दुवस्यत) सेवा करो और जैसे सुसंस्कृत अन्न तथा (घृतैः) घी आदि पदार्थों
से अग्नि में होम करके जगदुपकार करते हैं, वैसे (अतिथिम्)
जिसके आने-जाने के समय का नियम न हो, उस उपदेशक पुरुष को
(बोधयत) स्वागत उत्साहादि से चैतन्य करो और (अस्मिन्) इस जगत् में (हव्या) देने
योग्य पदार्थों को (आजुहोतन) अच्छे प्रकार दिया करो ॥३० ॥
भावार्थभाषाः
-मनुष्यों को चाहिये कि सत्पुरुषों ही की सेवा और सुपात्रों ही को दान दिया करें, जैसे अग्नि में घी आदि पदार्थों का हवन करके संसार का उपकार करते हैं,
वैसे ही विद्वानों में उत्तम पदार्थों का दान करके जगत् में विद्या
और अच्छी शिक्षा को बढ़ा के विश्व को सुखी करें ॥३० ॥
यजुर्वेद अध्याय 12 मंत्र (11-20) यजुर्वेद अध्याय 12 मंत्र (31-40)
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