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यजुर्वेद » अध्याय:12 मंत्र 31 से 40

 

यजुर्वेद » अध्याय:12 मंत्र 31 से 40

 

उदु॑ त्वा॒ विश्वे॑ दे॒वाऽअग्ने॒ भर॑न्तु॒ चित्ति॑भिः। स नो॑ भव शि॒वस्त्वꣳ सु॒प्रती॑को वि॒भाव॑सुः ॥३१ ॥

 

विद्वान् पुरुष को चाहिये कि अपने तुल्य अन्य मनुष्यों को विद्वान् करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) विद्वन् ! जिस (त्वा) आपको (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (चित्तिभिः) अच्छे विज्ञानों के साथ अग्नि के समान (उदुभरन्तु) पुष्ट करें (सः) जो (विभावसुः) जिससे विविध प्रकार की शोभा वा विद्या प्रकाशित हों, (सुप्रतीकः) सुन्दर लक्षणों से युक्त (त्वम्) आप (नः) हम लोगों के लिये (शिवः) मङ्गलमय वचनों के उपदेशक (भव) हूजिये ॥३१ ॥


भावार्थभाषाः -जो मनुष्य जैसे विद्वानों से विद्या का सञ्चय करता है, वह वैसे दूसरों के लिये विद्या का प्रचार करे ॥३१ ॥

 

प्रेद॑ग्ने॒ ज्योति॑ष्मान् याहि शि॒वेभि॑र॒र्चिभि॒ष्ट्वम्। बृ॒हद्भि॑र्भा॒नुभि॒र्भास॒न् मा हि॑ꣳसीस्त॒न्वा᳖ प्र॒जाः ॥३२ ॥

 

फिर राजा क्या करके किस को प्राप्त होवे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) विद्या प्रकाश करनेहारे विद्वन् ! (त्वम्) तू जैसे (ज्योतिष्मान्) सूर्य्यज्योतियों से युक्त (शिवेभिः) मङ्गलकारी (अर्चिभिः) सत्कार के साधन (बृहद्भिः) बड़े-बड़े (भानुभिः) प्रकाशगुणों से (इत्) ही (भासन्) प्रकाशमान है, वैसे (प्रयाहि) सुखों को प्राप्त हूजिये और (तन्वा) शरीर से (प्रजाः) पालने योग्य प्राणियों को (मा) मत (हिंसीः) मारिये ॥३२ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे सेनापति आदि राजपुरुषों के सहित राजन् ! आप अपने शरीर से किसी अनपराधी प्राणी को न मार के, विद्या और न्याय के प्रकाश से प्रजाओं का पालन करके, जीवते हुए संसार के सुख को और शरीर छूटने के पश्चात् मुक्ति के सुख को प्राप्त हूजिये ॥३२ ॥

 

अक्र॑न्दद॒ग्नि स्त॒नय॑न्निव॒ द्यौः क्षामा॒ रेरि॑हद् वी॒रुधः॑ सम॒ञ्जन्। सद्यो॒ ज॑ज्ञा॒नो वि हीमि॒द्धोऽअख्य॒दा रोद॑सी भा॒नुना॑ भात्य॒न्तः ॥३३ ॥

 

राज्य का प्रबन्ध कैसे करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे प्रजा के लोगो ! तुम लोगों को चाहिये कि जैसे (द्यौः) सूर्य प्रकाशकर्त्ता है, वैसे विद्या और न्याय का प्रकाश करने और (अग्निः) पावक के तुल्य शत्रुओं का नष्ट करनेहारा विद्वान् (स्तनयन्निव) बिजुली के समान (अक्रन्दत्) गर्जता और (वीरुधः) वन के वृक्षों की (समञ्जन्) अच्छे प्रकार रक्षा करता हुआ (क्षामा) पृथिवी पर (रेरिहत्) युद्ध करे (जज्ञानः) राजनीति से प्रसिद्ध हुआ, (इद्धः) शुभ लक्षणों से प्रकाशित (सद्यः) शीघ्र (व्यख्यत्) धर्मयुक्त उपदेश करे तथा (भानुना) पुरुषार्थ के प्रकाश से (हि) ही (रोदसी) अग्नि और भूमि को (अन्तः) राजधर्म में स्थिर करता हुआ (आभाति) अच्छे प्रकार प्रकाश करता है, वह पुरुष राजा होने के योग्य है, ऐसा निश्चित जानो ॥३३ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वन के वृक्षों की रक्षा के विना बहुत वर्षा और रोगों की न्यूनता नहीं होती, और बिजुली के तुल्य दूर के समाचारों शत्रुओं को मारने और विद्या तथा न्याय के प्रकाश के विना अच्छा स्थिर राज्य ही नहीं हो सकता ॥३३ ॥

 

प्रप्रा॒यम॒ग्निर्भ॑र॒तस्य॑ शृण्वे॒ वि यत्सूर्यो॒ न रोच॑ते बृहद्भाः। अ॒भि यः पू॒रुं पृत॑नासु त॒स्थौ दी॒दाय॒ दै॒व्यो॒ऽअति॑थिः शि॒वो नः॑ ॥३४ ॥

 

फिर कैसे पुरुष को राजव्यवहार में नियुक्त करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजा और प्रजा के पुरुषो ! तुम लोगों को चाहिये कि (यत्) जो (अयम्) यह (अग्निः) सेनापति (सूर्य्यः) सूर्य्य के (न) समान (बृहद्भाः) अत्यन्त प्रकाश से युक्त (प्रप्र) अतिप्रकर्ष के साथ (रोचते) प्रकाशित होता है, (यः) जो (नः) हमारी (पृतनासु) सेनाओं में (पूरुम्) पूर्ण बलयुक्त सेनाध्यक्ष के निकट (अभितस्थौ) सब प्रकार स्थित होवे (दैव्यः) विद्वानों का प्रिय (अतिथिः) नित्य भ्रमण करनेहारा अतिथि (शिवः) मङ्गलदाता विद्वान् पुरुष (दीदाय) विद्या और धर्म को प्रकाशित करे, जिसको मैं (भरतस्य) सेवने योग्य राज्य का रक्षक (शृण्वे) सुनता हूँ, उसको सेना का अधिपति करो ॥३४


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जिस पुण्य कीर्त्ति पुरुष का शत्रुओं में विजय और विद्याप्रचार सुना जावे, उस कुलीन पुरुष को सेना को युद्ध कराने हारा अधिकारी करें ॥३४ ॥

 

आपो॑ देवीः॒ प्रति॑गृभ्णीत॒ भस्मै॒तत् स्यो॒ने कृ॑णुध्वꣳ सुर॒भाऽउ॑ लो॒के। तस्मै॑ नमन्तां॒ जन॑यः सु॒पत्नी॑र्मा॒तेव॑ पु॒त्रं बि॑भृता॒प्स्वे᳖नत् ॥३५ ॥

 

अब सब मनुष्यों को स्वयंवर विवाह करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वान् मनुष्यो ! जो (आपः) पवित्र जलों के तुल्य सम्पूर्ण शुभगुण और विद्याओं में व्याप्त बुद्धि (देवीः) सुन्दर रूप और स्वभाववाली कन्या (सुरभौ) ऐश्वर्य्य के प्रकाश से युक्त (लोके) देखने योग्य लोकों में अपने पतियों को प्रसन्न करें, उन को (प्रति गृभ्णीत) स्वीकार करो तथा उन को सुखयुक्त (कृणुध्वम्) करो, जो (एतत्) यह (भस्म) प्रकाशक तेज है (तस्मै) उस के लिये जो (सुपत्नीः) सुन्दर (जनयः) विद्या और अच्छी शिक्षा से प्रसिद्ध हुई स्त्री नमती हैं, उनके प्रति आप लोग भी (नमन्ताम्) नम्र हूजिये (उ) और तुम स्त्री-पुरुष दोनों मिल के (पुत्रम्) पुत्र को (मातेव) माता के तुल्य (अप्सु) प्राणों में (एनत्) इस पुत्र को (बिभृत) धारण करो ॥३५ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि परस्पर प्रसन्नता के साथ स्वयंवर विवाह, धर्म के अनुसार पुत्रों को उत्पन्न और उन को विद्वान् करके गृहाश्रम के ऐश्वर्य्य की उन्नति करें ॥३५ ॥

 

अ॒प्स्व᳖ग्ने॒ सधि॒ष्टव॒ सौष॑धी॒रनु॑ रुध्यसे। गर्भे॒ सञ्जा॑यसे॒ पुनः॑ ॥३६ ॥

 

अब जीव किस-किस प्रकार पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य विद्वान् जीव ! जो तू (सधिः) सहनशील (अप्सु) जलों में (ओषधीः) सोमलता आदि ओषधियों को (अनुरुध्यसे) प्राप्त होता है, (सः) सो (गर्भे) गर्भ में (सन्) स्थित होकर (पुनः) फिर-फिर (जायसे) जन्म लेता है, ये ही दोनों प्रकार आने-जाने अर्थात् जन्म-मरण (तव) तेरे हैं, ऐसा जान ॥३६ ॥


भावार्थभाषाः -जो जीव शरीर को छोड़ते हैं, वे वायु और ओषधि आदि पदार्थों से भ्रमण करते-करते गर्भाशय को प्राप्त होके नियत समय पर शरीर धारण करके प्रकट होते हैं ॥३६ ॥

 

गर्भो॑ऽअ॒स्योष॑धीनां॒ गर्भो॒ वन॒स्पती॑नाम्। गर्भो॒ विश्व॑स्य भू॒तस्याग्ने॒ गर्भो॑ऽअ॒पाम॑सि ॥३७ ॥

 

फिर जीव कहाँ-कहाँ जाता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) दूसरे शरीर को प्राप्त होनेवाले जीव ! जिससे तू अग्नि के समान जो (ओषधीनाम्) सोमलता आदि वा यवादि ओषधियों के (गर्भः) दोषों के मध्य (गर्भः) गर्भ (वनस्पतीनाम्) पीपल आदि वनस्पतियों के बीच (गर्भः) शोधक (विश्वस्य) सब (भूतस्य) उत्पन्न हुए संसार के मध्य (गर्भः) ग्रहण करनेहारा और जो (अपाम्) प्राण वा जलों का (गर्भः) गर्भरूप भीतर रहनेहारा (असि) है, इसलिये तू अज अर्थात् स्वयं जन्मरहित (असि) है ॥३७ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! तुम लोगों को चाहिये कि जो बिजुली के समान सब के अन्तर्गत जीव जन्म लेनेवाले हैं, उनको जानो ॥३७ ॥

 

प्र॒सद्य॒ भस्म॑ना॒ योनि॑म॒पश्च॑ पृथि॒वीम॑ग्ने। स॒ꣳसृज्य॑ मा॒तृभि॒ष्ट्वं ज्योति॑ष्मा॒न् पुन॒रास॑दः ॥३८ ॥

 

मरण समय में शरीर का क्या होना चाहिये, यह विषये अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) प्रकाशमान पुरुष सूर्य्य के समान (ज्योतिष्मान्) प्रशंसित प्रकाश से युक्त जीव ! (त्वम्) तू (भस्मना) शरीर दाह के पीछे (पृथिवीम्) पृथिवी (च) अग्नि आदि और (अपः) जलों के बीच (योनिम्) देह धारण के कारण को (प्रसद्य) प्राप्त हो और (मातृभिः) माताओं के उदर में वास करके (पुनः) फिर (आसदः) शरीर को प्राप्त होता है ॥३८ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे जीवो ! तुम लोग जब शरीर को छोड़ो, तब यह शरीर राख रूप होकर पृथिवी आदि पाँच भूतों के साथ मिल जाता है। तुम अर्थात् आत्मा माता के शरीर में गर्भाशय में पहुँच, फिर शरीर धारण किये हुए विद्यमान होते हो ॥३८ ॥

 

पुन॑रा॒सद्य॒ सद॑नम॒पश्च॑ पृथि॒वीम॑ग्ने। शेषे॑ मा॒तुर्यथो॒पस्थे॒ऽन्तर॑स्याꣳ शि॒वत॑मः ॥३९ ॥

 

अब माता-पिता और पुत्र आपस में कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) ! इच्छा आदि गुणों से प्रकाशित जन ! जिस कारण तू (अपः) जलों (च) और (पृथिवीम्) भूमितल के (सदनम्) स्थान को (पुनः) फिर-फिर (आसद्य) प्राप्त होके (अस्याम्) इस माता के (अन्तः) गर्भाशय में (शिवतमः) मङ्गलकारी होके (यथा) जैसे (मातुः) माता की (उपस्थे) गोद में (शेषे) सोता है, वैसे ही माता की सेवा में मङ्गलकारी हो ॥३९ ॥


भावार्थभाषाः -पुत्रों को चाहिये कि जैसे माता अपने पुत्रों को सुख देती है, वैसे ही अनुकूल सेवा से अपनी माताओं को निरन्तर आनन्दित करें और माता-पिता के साथ विरोध कभी न करें और माता-पिता को भी चाहिये कि अपने पुत्रों को अधर्म और कुशिक्षा से युक्त कभी न करें ॥३९ ॥

 

पुन॑रू॒र्जा निव॑र्त्तस्व॒ पुन॑रग्नऽइ॒षायु॑षा। पुन॑र्नः पा॒ह्यꣳह॑सः ॥४० ॥

 

फिर पुत्रों को माता-पिता के विषय में परस्पर योग्य वर्त्ताव करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) तेजस्विन् माता-पिता ! आप (इषायुषा) अन्न और जीवन के साथ (नः) हम लोगों को बढ़ाइये (पुनः) बार-बार (अंहसः) दुष्ट आचरणों से (पाहि) रक्षा कीजिये। हे पुत्र ! तू (ऊर्जा) पराक्रम के साथ पापों से (निवर्त्तस्व) अलग हूजिये और (पुनः) फिर हम लोगों को भी पापों से पृथक् रखिये ॥४० ॥


भावार्थभाषाः -जैसे विद्वान् माता-पिता अपने सन्तानों को विद्या और अच्छी शिक्षा से दुष्टाचारों से पृथक् रक्खें, वैसे ही सन्तानों को भी चाहिये कि इन माता-पिताओं को बुरे व्यवहार से निरन्तर बचावें, क्योंकि इस प्रकार किये विना सब मनुष्य धर्मात्मा नहीं हो सकते ॥४० ॥


यजुर्वेद अध्याय 12 मंत्र (21-30)     यजुर्वेद अध्याय 12 मंत्र (41-50)

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