यजुर्वेद
» अध्याय:12» मन्त्र:41 से 50
स॒ह
र॒य्या निव॑र्त्त॒स्वाग्ने॒ पिन्व॑स्व॒ धा॑रया। वि॒श्वप्स्न्या॑ वि॒श्वत॒स्परि॑
॥४१ ॥
विद्वानों को कैसे
वर्त्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(अग्ने) विद्वन् पुरुष ! आप (विश्वप्स्न्या) सब पदार्थों के भोगने का साधन (रय्या)
लक्ष्मी को प्राप्त करानेवाली (धारया) अच्छी संस्कृत वाणी के (सह) साथ
(विश्वतस्परि) सब संसार के बीच (नि) निरन्तर (वर्त्तस्व) वर्त्तमान हूजिये और हम
लोगों का (पिन्वस्व) सेवन कीजिये ॥४१ ॥
भावार्थभाषाः
-विद्वान् मनुष्यों को चाहिये कि इस जगत् में अच्छी बुद्धि और पुरुषार्थ के साथ
श्रीमान् होकर अन्य मनुष्यों को भी धनवान् करें ॥४१ ॥
बोधा॑
मेऽअ॒स्य वच॑सो यविष्ठ॒ मꣳहि॑ष्ठस्य॒ प्रभृ॑तस्य स्वधावः। पीय॑ति त्वो॒ऽअनु॑ त्वो
गृणाति व॒न्दारु॑ष्टे त॒न्वं᳖ वन्देऽअग्ने ॥४२ ॥
मनुष्य लोग आपस में
कैसे पढ़ें और पढ़ावें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र
में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(यविष्ठ) अत्यन्त जवान (स्वधावः) प्रशंसित बहुत अन्नोंवाले (अग्ने) उपदेश के योग्य
श्रोता जन ! तू (मे) मेरे (प्रभृतस्य) अच्छे प्रकार से धारण वा पोषण करनेवाले
(मंहिष्ठस्य) अत्यन्त कहने योग्य (अस्य) इस (वचसः) वचन के अभिप्राय को (बोध) जान, जो (त्वः) यह निन्दक पुरुष (पीयति) निन्दा करे, (त्वः)
कोई (अनु) परोक्ष में (गृणाति) स्तुति करे, उस (ते) आप के
(तन्वम्) शरीर को (वन्दारुः) अभिवादनशील मैं (वन्दे) स्तुति करता हूँ ॥४२ ॥
भावार्थभाषाः -जब कोई
किसी को पढ़ावे वा उपदेश करे, तब पढ़नेवाला ध्यान देकर
पढ़े वा सुने। जब सत्य वा मिथ्या का निश्चय हो जावे, तब सत्य
का ग्रहण और असत्य का त्याग कर देवे। ऐसे करने में कोई निन्दा और स्तुति करे तो भी
सत्य को कभी न छोड़े और मिथ्या का ग्रहण कभी न करे। यही मनुष्यों के लिये विशेष
गुण है ॥४२ ॥
स
बो॑धि सू॒रिर्म॒घवा॒ वसु॑पते॒ वसु॑दावन्। यु॒यो॒ध्य᳕स्मद् द्वेषा॑ꣳसि
वि॒श्वक॑र्मणे॒ स्वाहा॑ ॥४३ ॥
मनुष्य लोग क्या करके
किस को प्राप्त हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(वसुपते) धनों के पालक (वसुदावन्) सुपुत्रों के लिये धन देनेवाले जो (मघवा)
प्रशंसित विद्या से युक्त (सूरिः) बुद्धिमान् आप सत्य को (बोधि) जानें, (सः) सो आप (विश्वकर्म्मणे) सम्पूर्ण शुभ कर्मों के अनुष्ठान के लिये
(स्वाहा) सत्य वाणी का उपदेश करते हुए आप (अस्मत्) हमसे (द्वेषांसि) द्वेषयुक्त
कर्मों से (युयोधि) पृथक् कीजिये ॥४३ ॥
भावार्थभाषाः -जो
मनुष्य ब्रह्मचर्य्य के साथ जितेन्द्रिय हो, द्वेष को
छोड़, धर्मानुसार उपदेश कर और सुन के प्रयत्न करते हैं,
वे ही धर्मात्मा विद्वान् लोग सम्पूर्ण सत्य-असत्य के जानने और
उपदेश करने के योग्य होते हैं, और अन्य हठ अभिमान युक्त
क्षुद्र पुरुष नहीं ॥४३ ॥
पुन॑स्त्वादि॒त्या
रु॒द्रा वस॑वः॒ समि॑न्धतां॒ पुन॑र्ब्र॒ह्माणो॑ वसुनीथ य॒ज्ञैः। घृ॒तेन॒ त्वं
त॒न्वं᳖ वर्धयस्व स॒त्याः स॑न्तु॒ यज॑मानस्य॒ कामाः॑ ॥४४ ॥
कैसे मनुष्यों के
संकल्प सिद्ध होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र
में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(वसुनीथ) वेदादि शास्त्रों के बोधरूप और सुवर्णादि धन प्राप्त करानेवाले (त्वम्)
आप (यज्ञैः) पढ़ने-पढ़ाने आदि क्रियारूप यज्ञों और (घृतेन) अच्छे संस्कार किये हुए
घी आदि वा जल से (तन्वम्) शरीर को नित्य (वर्धयस्व) बढ़ाइये। (पुनः) पढ़ने-पढ़ाने
के पीछे (त्वा) आप को (आदित्याः) पूर्ण विद्या के बल से युक्त (रुद्राः) मध्यस्थ
विद्वान् और (वसवः) प्रथम विद्वान् लोग (ब्रह्माणः) चार वेदों को पढ़ के ब्रह्मा
की पदवी को प्राप्त हुए विद्वान् (समिन्धताम्) सम्यक् प्रकाशित करें। इस प्रकार के
अनुष्ठान से (यजमानस्य) यज्ञ, सत्सङ्ग और विद्वानों का
सत्कार करनेवाले पुरुष की (कामाः) कामना (सत्याः) सत्य (सन्तु) होवें ॥४४ ॥
भावार्थभाषाः -जो
मनुष्य प्रयत्न के साथ सब विद्याओं को पढ़ के और पढ़ा के बारंबार सत्सङ्ग करते हैं, कुपथ्य और विषय के त्याग से शरीर तथा आत्मा के आरोग्य बढ़ा के नित्य
पुरुषार्थ का अनुष्ठान करते हैं, उन्ही के संकल्प सत्य होते
हैं, दूसरों के नहीं ॥४४ ॥
अपे॑त॒
वी᳖त॒ वि च॑ सर्प॒तातो॒ येऽत्र॒स्थ पु॑रा॒णा ये च॒ नूत॑नाः। अदा॑द्य॒मो᳖ऽव॒सानं॑
पृथि॒व्याऽअक्र॑न्नि॒मं पि॒तरो॑ लो॒कम॑स्मै ॥४५ ॥
सन्तान और पिता-माता
परस्पर किन-किन कर्मों का आचरण करें, यह विषय
अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
विद्वान् लोगो ! जो (ये) जो (अत्र) इस समय (पृथिव्याः) भूमि के बीच वर्त्तमान
(पुराणाः) प्रथम विद्या पढ़ चुके (च) और (ये) जो (नूतनाः) वर्त्तमान समय में
विद्याभ्यास करने हारे (पितरः) पिता=पढ़ाने, उपदेश करने
और परीक्षा करनेवाले (स्थ) होवें, वे (अस्मै) इस सत्यसंकल्पी
मनुष्य के लिये (इमम्) इस (लोकम्) वैदिक ज्ञान सिद्ध लोक को (अक्रन्) सिद्ध करें।
जिन तुम लोगों को (यमः) प्राप्त हुआ परीक्षक पुरुष (अवसानम्) अवकाश वा अधिकार को
(अदात्) देवे, वे तुम लोग (अतः) इस अधर्म से (अपेत) पृथक्
रहो और धर्म्म को (वीत) विशेष कर प्राप्त होओ (अत्र) और इसी में (विसर्पत) विशेषता
से गमन करो ॥४५ ॥
भावार्थभाषाः
-माता-पिता और आचार्य्य का यही परम धर्म है−जो सन्तानों के लिये विद्या और अच्छी
शिक्षा को प्राप्त कराना। जो अधर्म से पृथक् और धर्म्म से युक्त परोपकार में
प्रीति रखनेवाले वृद्ध और जवान विद्वान् लोग हैं, वे
निरन्तर सत्य उपदेश से अविद्या का निवारण और विद्या की प्रवृत्ति करके कृतकृत्य
होवें ॥४५ ॥
सं॒ज्ञान॑मसि
काम॒ध॑रणं॒ मयि॑ ते काम॒धर॑णं भूयात्। अ॒ग्नेर्भस्मा॑स्य॒ग्नेः पुरी॑षमसि॒ चित॑
स्थ परि॒चित॑ऽऊर्ध्व॒चितः॑ श्रयध्वम् ॥४६ ॥
पढ़ने-पढ़ानेवाले
क्या करके सुखी हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र
में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
विद्वन् ! आप जिस (संज्ञानम्) पूरे विज्ञान को प्राप्त (असि) हुए हो, जो आप (अग्नेः) अग्नि से हुई (भस्म) राख के समान दोषों के भस्मकर्त्ता
(असि) हो, (अग्नेः) बिजुली के जिस (पुरीषम्) पूर्ण बल को
प्राप्त हुए (असि) हो, उस विज्ञान, भस्म
और बल को मेरे लिये भी दीजिये। जिस (ते) आप का जो (कामधरणम्) सङ्कल्पों का आधार
अन्तःकरण है, वह (कामधरणम्) कामना का आधार (मयि) मुझ में
(भूयात्) होवे। जैसे तुम लोग विद्या आदि शुभगुणों से (चितः) इकट्ठे हुए (परिचितः)
सब पदार्थों को सब ओर से इकट्ठे करने हारे (ऊर्ध्वचितः) उत्कृष्ट गुणों के
संचयकर्त्ता पुरुषार्थ को आप (श्रयध्वम्) सेवन करो, वैसे हम
लोग भी करें ॥४६ ॥
भावार्थभाषाः
-जिज्ञासु मनुष्यों को चाहिये कि सदैव विद्वानों से विद्या की इच्छा कर प्रश्न
किया करें कि जितना तुम लोगों में पदार्थों का विज्ञान है, उतना सब तुम लोग हम लोगों में धारण करो और जितना हस्तक्रिया आप जानते हैं,
उतनी सब हम लोगों को सिखाइये, जैसे हम लोग
आपके आश्रित हैं, वैसे ही आप भी हमारे आश्रय हूजिये ॥४६ ॥
अ॒यꣳसोऽअ॒ग्निर्यस्मि॒न्त्सोम॒मिन्द्रः॑
सु॒तं द॒धे ज॒ठरे॑ वावशा॒नः। स॒ह॒स्रियं॒ वाज॒मत्यं॒ न सप्ति॑ꣳ
सस॒वान्त्सन्त्स्तू॑यसे जातवेदः ॥४७ ॥
मनुष्यों को उत्तम
आचरणों के अनुसार वर्त्तना चाहिये, यह विषय
अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(जातवेदः) विज्ञान को प्राप्त हुए विद्वन् ! जैसे (ससवान्) दान देते (सन्) हुए आप (स्तूयसे)
प्रशंसा के योग्य हो, (अयम्) यह (अग्निः) अग्नि और
(इन्द्रः) सूर्य्य (यस्मिन्) जिसमें (सोमम्) सब ओषधियों के रस को धारण करता है,
जिस (सुतम्) सिद्ध हुए पदार्थ को (जठरे) पेट में मैं (दधे) धारण
करता हूँ, (सः) वह मैं (वावशानः) शीघ्र कामना करता हुआ (सहस्रियम्)
साथ वर्त्तमान अपनी स्त्री को धारण करता हूँ, आप के साथ
(वाजम्) अन्न आदि पदार्थों को (अत्यम्) व्याप्त होने योग्य के (न) समान (सप्तिम्)
घोड़े को (दधे) धारण करता हूँ, वैसा ही तू भी हो ॥४७ ॥
भावार्थभाषाः -इस
मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार और उपमालङ्कार हैं। जैसे बिजुली और सूर्य, सब रसों का ग्रहण कर जगत् को रसयुक्त करते हैं वा जैसे पति के साथ स्त्री
और स्त्री के साथ पति आनन्द भोगते हैं, वैसे मैं इस सब को
धारण करता हूँ। जैसे श्रेष्ठ गुणों से युक्त आप प्रशंसा के योग्य हो, वैसें मैं भी प्रशंसा के योग्य होऊँ ॥४७ ॥
अग्ने॒
यत्ते॑ दि॒वि वर्चः॑ पृथि॒व्यां यदोष॑धीष्व॒प्स्वा य॑जत्र।
येना॒न्तरि॑क्षमु॒र्वा᳖त॒तन्थ॑ त्वे॒षः स भा॒नुर॑र्ण॒वो नृ॒चक्षाः॑ ॥४८ ॥
अध्यापक लोगों को
निष्कपटता से सब विद्यार्थीजन पढ़ाने चाहियें, यह विषय
अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(यजत्र) सङ्गम करने योग्य (अग्ने) विद्वन् (यत्) जिस (ते) आप का अग्नि के समान
(दिवि) द्योतनशील आत्मा में (वर्चः) विज्ञान का प्रकाश (यत्) जो (पृथिव्याम्)
पृथिवी (ओषधीषु) यवादि ओषधियों और (अप्सु) प्राणों वा जलों में (वर्चः) तेज है, (येन) जिससे (नृचक्षाः) मनुष्यों को दिखानेवाला (भानुः) सूर्य (अर्णवः)
बहुत जलों को वर्षाने हारा (त्वेषः) प्रकाश है, (येन) जिससे
(अन्तरिक्षम्) आकाश को (उरु) बहुत (आ ततन्थ) विस्तारयुक्त करते हो, (सः) सो आप वह सब हम लोगों में धारण कीजिये ॥४८ ॥
भावार्थभाषाः -यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार
है। इस जगत् में जिस को सृष्टि के पदार्थों का विज्ञान जैसा होवे, वैसा ही शीघ्र दूसरों को बतावें। जो कदाचित् दूसरों को न बतावे, तो वह नष्ट हुआ किसी को प्राप्त नहीं हो सके ॥४८ ॥
अग्ने॑
दि॒वोऽअर्ण॒मच्छा॑ जिगा॒स्यच्छा॑ दे॒वाँ२ऽऊ॑चिषे॒ धिष्ण्या॒ ये। या रो॑च॒ने
प॒रस्ता॒त् सूर्य॑स्य॒ याश्चा॒वस्ता॑दुप॒तिष्ठ॑न्त॒ऽआपः॑ ॥४९ ॥
फिर भी वही विषय अगले
मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(अग्ने) विद्वान् ! जो आप (दिवः) प्रकाश से (अर्णम्) विज्ञान को (याः) जो (आपः)
प्राण वा जल (सूर्यस्य) सूर्य्य के (रोचने) प्रकाश में (परस्तात्) पर है (च) और
(याः) जो (अवस्तात्) नीचे (उपतिष्ठन्ते समीप में स्थित हैं, उनको (अच्छ) सम्यक् (जिगासि) स्तुति करते हो, (ये)
जो (धिष्ण्याः) बोलनेवाले हैं, उन (देवान्) दिव्यगुण
विद्यार्थियों वा विद्वानों के प्रति विज्ञान को (अच्छ) अच्छे प्रकार (ऊचिषे) कहते
हो, सो आप हमारे लिये उपदेश कीजिये ॥४९ ॥
भावार्थभाषाः -जो
अच्छे विचार से बिजुली और सूर्य के किरणों में ऊपर-नीचे रहनेवाले जलों और वायुओं
के बोध को प्राप्त होते हैं, वे दूसरों को भी निरन्तर
उपदेश करें ॥४९ ॥
पु॒री॒ष्या᳖सोऽअ॒ग्नयः॑
प्राव॒णेभिः॑ स॒जोष॑सः। जु॒षन्तां॑ य॒ज्ञम॒द्रुहो॑ऽनमी॒वाऽइषो॑ म॒हीः ॥५० ॥
मनुष्यों को
द्वेषादिक छोड़ के आनन्द में रहना चाहिये, इस विषय का
उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -सब
मनुष्यों को चाहिये कि (प्रावणेभिः) विज्ञानों के साथ वर्त्तमान हुए (अनमीवाः)
रोगरहित (अद्रुहः) द्रोह से पृथक् (सजोषसः) एक प्रकार की सेवा और प्रीतिवाले
(पुरीष्यासः) पूर्ण गुणक्रियाओं में निपुण (अग्नयः) अग्नि के समान वर्तमान तेजस्वी
विद्वान् लोग (यज्ञम्) विद्याविज्ञान दान और ग्रहणरूप यज्ञ और (महीः) बड़ी-बड़ी
(इषः) इच्छाओं को (जुषन्ताम्) सेवन करें ॥५० ॥
भावार्थभाषाः -इस
मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे बिजुली अनुकूल हुई समान भाव से सब
पदार्थों का सेवन करती है, वैसे ही रोगद्रोहादि दोषों से
रहित आपस में प्रीतिवाले होके विद्वान् लोग विज्ञान बढ़ानेवाले यज्ञ को विस्तृत
करके बड़े-बड़े सुखों को निरन्तर भोगें ॥५० ॥
यजुर्वेद अध्याय 12 मंत्र (31-40) यजुर्वेद अध्याय 12 मंत्र (51-60)
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