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यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:51 से 60

 

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:51 से 60

 

 

इडा॑मग्ने पुरुदꣳस॑ꣳस॒निं गोः श॑श्वत्त॒मꣳ हव॑मानाय साध। स्यान्नः॑ सू॒नुस्तन॑यो वि॒जावाऽग्ने॒ सा ते॑ सुम॒तिर्भू॑त्व॒स्मे ॥५१ ॥

 

मनुष्य गर्भाधानादि संस्कारो से बालकों का संस्कार करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) विद्वन् ! (ते) आपकी (सा) वह (सुमतिः) सुन्दर बुद्धि (अस्मे) हम लोगों के लिये (भूतु) होवे, जिससे आपका (नः) और हमारा जो (विजावा) विविध प्रकार के ऐश्वर्यों का उत्पादक (सूनुः) उत्पन्न होनेवाला (तनयः) पुत्र (स्यात्) होवे, उस बुद्धि से उस (हवमानाय) विद्या ग्रहण करते हुए के लिये (इडाम्) स्तुति के योग्य वाणी को (गौः) वाणी के सम्बन्ध (शश्वत्तमम्) अनादि रूप अत्यन्त वेदज्ञान को और (पुरुदंसम्) बहुत कर्म जिससे सिद्ध हों, ऐसे (सनिम्) ऋग्वेदादि वेदविभाग को (साध) सिद्ध कीजिये और (अग्ने) हे अध्यापक ! हम लोग भी सिद्ध करें ॥५१ ॥


भावार्थभाषाः -माता-पिता और आचार्य्य को चाहिये कि सावधानी से गर्भाधान आदि संस्कारों की रीति के अनुकूल अच्छे सन्तान उत्पन्न करके उन में वेद, ईश्वर और विद्यायुक्त बुद्धि उत्पन्न करें, क्योंकि ऐसा अन्यधर्म अपत्यसुख का हितकारी कोई नहीं है, ऐसा निश्चय रखना चाहिये ॥५१ ॥

 

अ॒यं ते॒ योनि॑र्ऋ॒त्वियो॒ यतो॑ जा॒तोऽअरो॑चथाः। तं जा॒नन्न॑ग्न॒ऽआ रो॒हाथा॑ नो वर्धया र॒यिम् ॥५२ ॥

 

अब माता-पिता और पुत्रादिकों को पस्पर क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) अग्नि के समान शुद्ध अन्तःकरणवाले विद्वन् पुरुष ! जो (ते) आपका (ऋत्वियः) ऋतुकाल में प्राप्त हुआ (अयम्) यह प्रत्यक्ष (योनिः) दुःखों का नाशक और सुखदायक व्यवहार है, (यतः) जिससे (जातः) उत्पन्न हुए आप (अरोचथाः) प्रकाशित होवें, (तम्) उसको (जानन्) जानते हुए आप (आरोह) शुभगुणों पर आरूढ़ हूजिये, (अथ) इस के पश्चात् (नः) हम लोगों के लिये (रयिम्) प्रशंसित लक्ष्मी को (वर्धय) बढ़ाइये ॥५२ ॥


भावार्थभाषाः -हे माता-पिता और आचार्य्य ! तुम लोग पुत्र और कन्याओं को धर्मानुकूल सेवन किये ब्रह्मचर्य से श्रेष्ठविद्या को प्रसिद्ध कर उपदेश करो। हे सन्तानो ! तुम लोग सत्यविद्या और सदाचार के साथ हम को अच्छी सेवा और धन से निरन्तर सुखयुक्त करो ॥५२ ॥

 

चिद॑सि॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वा सी॑द। परि॒चिद॑सि॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वा सी॑द ॥५३ ॥

 

कन्याओं को क्या करके क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे कन्ये ! जो तू (चित्) चिताई (असि) हुई (तया) उस (देवतया) दिव्यगुण प्राप्त कराने हारी विद्वान् स्त्री के साथ (अङ्गिरस्वत्) प्राणों के तुल्य (ध्रुवा) निश्चल (सीद) स्थिर हो, हे ब्रह्मचारिणि ! जो तू (परिचित्) विविध विद्या को प्राप्त हुई (असि) है, सो तू (तया) उस (देवतया) धर्मानुष्ठान से युक्त दिव्यसुखदायक क्रिया के साथ (अङ्गिरस्वत्) ईश्वर के समान (ध्रुवा) अचल (सीद) अवस्थित हो ॥५३ ॥


भावार्थभाषाः -सब माता-पिता और पढ़ानेहारी विदुषी स्त्रियों को चाहिये कि कन्याओं को सम्यक् बुद्धिमती करें। हे कन्या लोगो ! तुम जो पूर्ण अखण्डित ब्रह्मचर्य से सम्पूर्ण विद्या और अच्छी शिक्षा को प्राप्त युवती होकर, अपने तुल्य वरों के साथ स्वयंवर विवाह करके, गृहाश्रम का सेवन करो, तो सब सुखों को प्राप्त हो और सन्तान भी अच्छे होवें ॥५३ ॥

 

लो॒कं पृ॑ण छि॒द्रं पृ॒णाथो॑ सीद ध्रु॒वा त्वम्। इ॒न्द्रा॒ग्नी त्वा॒ बृह॒स्पति॑र॒स्मिन् योना॑वसीषदन् ॥५४ ॥

 

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे कन्ये ! जिस (त्वा) तुझ को (योनौ) बन्ध के छेदक मोक्षप्राप्ति के हेतु (अस्मिन्) इस विद्या के बोध में (इन्द्राग्नी) माता-पिता तथा (बृहस्पतिः) बड़ी-बड़ी वेदवाणियों की रक्षा करनेवाली अध्यापिका स्त्री (असीषदन्) प्राप्त करावें, उसमें (त्वम्) तू (ध्रुवा) दृढ़ निश्चय के साथ (सीद) स्थित हो, (अथो) इसके अनन्तर (छिद्रम्) छिद्र को (पृण) पूर्ण कर और (लोकम्) देखने योग्य प्राणियों को (पृण) तृप्त कर ॥५४ ॥


भावार्थभाषाः -माता-पिता और आचार्यों को चाहिये कि इस प्रकार की धर्म्मयुक्त विद्या और शिक्षा करें कि जिसको ग्रहण कर कन्या लोग चिन्तारहित हों। सब बुरे व्यसनों को त्याग और समावर्तन संस्कार के पश्चात् स्वयंवर विवाह करके पुरुषार्थ के साथ आनन्द में रहें ॥५४ ॥

 

ताऽअ॑स्य॒ सूद॑दोहसः॒ सोम॑ꣳ श्रीणन्ति॒ पृश्न॑यः। जन्म॑न् दे॒वानां॒ विश॑स्त्रि॒ष्वा रो॑च॒ने दि॒वः ॥५५ ॥

 

फिर भी उसी विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -जो (देवानाम्) दिव्य विद्वान् पतियों की (सूददोहसः) सुन्दर रसोइया और गौ आदि के दुहनेवाले सेवकोंवाली (पृश्नयः) कोमल शरीर सूक्ष्म अङ्गयुक्त स्त्री, दूसरे (जन्मन्) विद्यारूप जन्म में विदुषी होके (दिवः) दिव्य (अस्य) इस गृहाश्रम के (सोमम्) उत्तम ओषधियों के रस से युक्त भोजन (श्रीणन्ति) पकाती हैं, (ताः) वे ब्रह्मचारिणी (आरोचने) अच्छे रुचिकारक व्यवहार में (त्रिषु) तीनों अर्थात् गत, आगामी और वर्त्तमान कालविभागों में सुख देनेवाली होती तथा (विशः) उत्तम सन्तानों को भी प्राप्त होती हैं ॥५५ ॥


भावार्थभाषाः -जब अच्छी शिक्षा को प्राप्त हुए युवा विद्वानों की अपने सदृश रूप और गुण से युक्त स्त्री होवें, तो गृहाश्रम में सर्वदा सुख और अच्छे सन्तान उत्पन्न होवें। इस प्रकार किये विना संसार का सुख और शरीर छूटने के पश्चात् मोक्ष कभी प्राप्त नहीं हो सकता ॥५५ ॥

 

इन्द्रं॒ विश्वा॑ऽअवीवृधन्त्समु॒द्रव्य॑चसं॒ गिरः॑। र॒थीत॑मꣳ र॒थीनां॒ वाजा॑ना॒ᳬ सत्प॑तिं॒ पति॑म् ॥५६ ॥

 

कुमार और कुमारियों को इस प्रकार करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे स्त्रीपुरुषो ! जैसे (विश्वाः) सब (गिरः) वेदविद्या से संस्कार की हुई वाणी (समुद्रव्यचसम्) समुद्र की व्याप्ति जिसमें हो उन (वाजानाम्) संग्रामों और (रथीनाम्) प्रशंसित रथोंवाले वीर पुरुषों में (रथीतमम्) अत्यन्त प्रशंसित रथवाले (सत्पतिम्) सत्य, ईश्वर, वेद, धर्म वा श्रेष्ठ पुरुषों के रक्षक (पतिम्) सब ऐश्वर्य के स्वामी को (अवीवृधन्) बढ़ावें और (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य्य को बढ़ावें, वैसे सब प्राणियों को बढ़ाओ ॥५६ ॥


भावार्थभाषाः -जो कुमार और कुमारी दीर्घ ब्रह्मचर्य सेवन से साङ्गोपाङ्ग वेदों को पढ़ और अपनी-अपनी प्रसन्नता से स्वयंवर विवाह करके ऐश्वर्य के लिये प्रयत्न करें, धर्मयुक्त व्यवहार से व्यभिचार को छोड़ के सुन्दर सन्तानों को उत्पन्न करके परोपकार करने में प्रयत्न करें, वे इस संसार और परलोक में सुख भोगें, और इनसे विरुद्ध जनों को सुख नहीं हो सकता ॥५६ ॥

 

समि॑त॒ꣳ संक॑ल्पेथा॒ᳬ संप्रि॑यौ रोचि॒ष्णू सु॑मन॒स्यमा॑नौ। इष॒मूर्ज॑म॒भि सं॒वसा॑नौ ॥५७ ॥

 

पश्चात् विवाह करके कैसे वर्त्तें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे विवाहित स्त्रीपुरुषो ! तुम (संप्रियौ) आपस में सम्यक् प्रीतिवाले (रोचिष्णू) विषयासक्ति से पृथक् प्रकाशमान (सुमनस्यमानौ) मित्र विद्वान् पुरुषों के समान वर्त्तमान (संवसानौ) सुन्दर वस्त्र और आभूषणों से युक्त हुए (इषम्) इच्छा से (समितम्) इकट्ठे प्राप्त होओ और (ऊर्जम्) पराक्रम को (अभि) सन्मुख (संकल्पेथाम्) एक अभिप्राय में समर्पित करो ॥५७ ॥


भावार्थभाषाः -जो स्त्रीपुरुष सर्वथा विरोध को छोड़ के एक-दूसरे की प्रीति में तत्पर, विद्या के विचार से युक्त तथा अच्छे-अच्छे वस्त्र और आभूषण धारण करनेवाला होके प्रयत्न करें, तो घर में कल्याण और आरोग्य बढ़े, और जो परस्पर विरोधी हों, तो दुःखसागर में अवश्य डूबें ॥५७ ॥

 

सं वां॒ मना॑ᳬसि॒ सं व्र॒ता समु॑ चि॒त्तान्याक॑रम्। अग्ने॑ पुरीष्याधि॒पा भ॑व॒ त्वं न॒ इष॒मूर्जं॒ यज॑मानाय धेहि ॥५८ ॥

 

अध्यापक और उपदेशक लोगों को चाहिये कि जितना सामर्थ्य हो उतना ही वेदों को पढ़ावें और उपदेश करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे स्त्रीपुरुषो ! जैसे मैं आचार्य (वाम्) तुम दोनों के (संमनांसि) एक धर्म्म में तथा संकल्प-विकल्प आदि अन्तःकरण की वृत्तियों को (संव्रता) सत्यभाषणादि (उ) औैर (सम्, चित्तानि) सम्यक् जाने हुए कर्मों में (आ) अच्छे प्रकार (अकरम्) करूँ, वैसे तुम दोनों मेरी प्रीति के अनुकूल विचारो। हे (पुरीष्य) रक्षा के योग्य व्यवहारों में हुए (अग्ने) उपदेशक आचार्य वा राजन् ! (त्वम्) आप (नः) हमारे (अधिपाः) अधिक रक्षा करनेहारे (भव) हूजिये (यजमानाय) धर्मानुकूल सत्सङ्ग के स्वभाववाले पुरुष वा ऐसी स्त्री के लिये (इषम्) अन्न आदि उत्तम पदार्थ और (ऊर्जम्) शरीर तथा आत्मा के बल को (धेहि) धारण कीजिये ॥५८ ॥


भावार्थभाषाः -उपदेशक मनुष्यों को चाहिये कि जितना सामर्थ्य हो उतना सब मनुष्यों का एक धर्म्म, एक कर्म्म, एक प्रकार की चितवृत्ति और बराबर सुख दुःख, जैसे हो, वैसे ही शिक्षा करें। सब स्त्री-पुरुषों को योग्य है कि आप्त विद्वान् ही को उपदेशक और अध्यापक मान के सेवन करें और उपदेशक वा अध्यापक इनके ऐश्वर्य्य और पराक्रम को बढ़ावें। सब मनुष्यों के एक धर्म आदि के विना आत्माओं में मित्रता नहीं होती और मित्रता के विना निरन्तर सुख भी नहीं हो सकता ॥५८ ॥

 

अग्ने॒ त्वं पु॑री॒ष्यो᳖ रयि॒मान् पु॑ष्टि॒माँ२ऽअ॑सि। शि॒वाः कृ॒त्वा दिशः॒ सर्वाः॒ स्वं योनि॑मि॒हास॑दः ॥५९ ॥

 

किनको पढ़ाने और उपदेश के लिये नियुक्त करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) उपदेशक विद्वन् ! जिससे (त्वम्) आप (इह) इस संसार में (पुरीष्यः) एक मत के पालने में तत्पर (रयिमान्) विद्या विज्ञान और धन से युक्त और (पुष्टिमान्) प्रशंसित शरीर और आत्मा के बल से सहित (असि) हैं, इसलिये (सर्वाः) सब (दिशः) उपदेश के योग्य प्रजा (शिवाः) कल्याणरूपी उपदेश से युक्त (कृत्वा) करके (स्वम्) अपने (योनिम्) सुखदायक दुःखनाशक उपदेश के घर को (आसदः) प्राप्त हूजिये ॥५९ ॥


भावार्थभाषाः -राजा और प्रजाजनों को चाहिये कि जो जितेन्द्रिय धर्मात्मा परोपकार में प्रीति रखनेवाले विद्वान् होवें, उनको प्रजा में धर्मोपदेश के लिये नियुक्त करें और उपदेशकों को चाहिये कि प्रयत्न के साथ सबको अच्छी शिक्षा से एकधर्म में निरन्तर विरोध को छुड़ा के सुखी करें ॥५९ ॥

 

भव॑तन्नः॒ सम॑नसौ॒ सचे॑तसावरे॒पसौ॑। मा य॒ज्ञꣳ हि॑ꣳसिष्टं॒ मा य॒ज्ञप॑तिं जातवेदसौ शि॒वौ भ॑वतम॒द्य नः॑ ॥६० ॥

 

फिर सब को चाहिये कि विद्या देने लिये आप्त विद्वानों की प्रार्थना करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे विवाह किये हुए स्त्रीपुरुषो ! तुम दोनों (नः) हम लोगों के लिये (समनसौ) एक से विचार और (सचेतसौ) एक से बोधवाले (अरेपसौ) अपराधरहित (भवतम्) हूजिये। (यज्ञम्) प्राप्त होने योग्य धर्म को (मा) मत (हिंसिष्टम्) बिगाड़ो और (यज्ञपतिम्) उपदेश से धर्म के रक्षक पुरुष को (मा) मत मारो। (अद्य) आज (नः) हमारे लिये (जातवेदसौ) सम्पूर्ण विज्ञान को प्राप्त हुए (शिवौ) मङ्गलकारी (भवतम्) हूजिये ॥६० ॥


भावार्थभाषाः -स्त्रीपुरुषजनों को चाहिये कि सत्य उपदेश और पढ़ाने के लिये सब विद्याओं से युक्त, प्रगल्भ, निष्कपट, धर्मात्मा, सत्यप्रिय पुरुषों की नित्य प्रार्थना और उन की सेवा करें और विद्वान् लोग सब के लिये ऐसा उपदेश करें कि जिससे सब धर्माचरण करनेवाले हो जावें ॥६० ॥


यजुर्वेद अध्याय 12 मंत्र (41-50)      यजुर्वेद अध्याय 12 मंत्र (61-70)

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