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यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:61 से 70

 

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:61 से 70

 

 

मा॒तेव॑ पुत्रं पृ॑थि॒वी पु॑री॒ष्य᳖म॒ग्निᳬ स्वे योना॑वभारु॒खा। तां विश्वै॑र्दे॒वैर्ऋ॒तुभिः॑ संविदा॒नः प्र॒जाप॑तिर्वि॒श्वक॑र्म्मा॒ वि मु॑ञ्चतु ॥६१॥

 

माता किस के तुल्य सन्तानों को पालती है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -जो (उखा) जानने योग्य (पृथिवी) भूमि के समान वर्त्तमान विदुषी स्त्री (स्वे) अपने (यौनौ) गर्भाशय में (पुरीष्यम्) पुष्टिकारक गुणों में हुए (अग्निम्) बिजुली के तुल्य अच्छे प्रकाश से युक्त गर्भरूप (पुत्रम्) पुत्र को (मातेव) माता के समान (अभाः) पुष्ट वा धारण करती है, (ताम्) उसको (संविदानः) सम्यक् बोध करता हुआ (विश्वकर्मा) सब उत्तम कर्म करनेवाला (प्रजापतिः) परमेश्वर (विश्वैः) सब (देवैः) दिव्य गुणों और (ऋतुभिः) वसन्त आदि ऋतुओं के साथ निरन्तर दुःख से (वि, मुञ्चतु) छुड़ावे ॥६१ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे माता सन्तानों को उत्पन्न कर पालती है, वैसे ही पृथिवी कारणरूप बिजुली को प्रसिद्ध करके रक्षा करती है। जैसे परमेश्वर ठीक-ठीक पृथिवी आदि के गुणों को जानता और नियत समय पर ऋतु आदि और पृथिवी आदि को धारण कर अपनी-अपनी नियत परिधि में चला के प्रलय समय में सब को भिन्न करता है, वैसे ही विद्वानों को चाहिये कि अपनी बुद्धि के अनुसार इन सब पदार्थों को जना के कार्य्यसिद्धि के लिय प्रयत्न करें ॥६१ ॥

 

असु॑न्वन्त॒मय॑जमानमिच्छ स्ते॒नस्ये॒त्यामन्वि॑हि॒ तस्क॑रस्य। अ॒न्यम॒स्मदि॑च्छ॒ सा त॑ऽइ॒त्या नमो॑ देवि निर्ऋते॒ तुभ्य॑मस्तु ॥६२ ॥

 

स्त्री लोग कैसे पतियों की इच्छा न करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (निर्ऋते) पृथिवी के तुल्य वर्त्तमान (देवि) विदुषी स्त्री ! तू (अस्मत्) हम से भिन्न (स्तेनस्य) अप्रसिद्ध चोर और (तस्करस्य) प्रसिद्ध चोर के सम्बन्धी को छोड़ के (अन्यम्) भिन्न को (इच्छ) इच्छा कर और (असुन्वन्तम्) अभिषव आदि क्रियाओं के अनुष्ठान से रहित (अयजमानम्) दानधर्म से रहित पुरुष की (इच्छ) इच्छा मत कर और तू जिस (इत्याम्) प्राप्त होने योग्य क्रिया को (अन्विहि) ढूँढे (सा) वह (इत्या) क्रिया (ते) तेरी हो तथा उस (तुभ्यम्) तेरे लिये (नमः) अन्न वा सत्कार (अस्तु) होवे ॥६२ ॥


भावार्थभाषाः -हे स्त्रियो ! तुम लोगों को चाहिये कि पुरुषार्थरहित चोरों के सम्बन्धी पुरुषों को अपने पति करने की इच्छा न करो, आप्त पुरुषों की नीति के तुल्य नीतिवाले पुरुषों को ग्रहण करो। जैसे पृथिवी अनेक उत्तम फलों के दान से मनुष्यों को संयुक्त करती है, वैसी होओ। ऐसे गुणोंवाली तुम को हम लोग नमस्कार करते हैं। जैसे हम लोग आलसी और चोरों के साथ न वर्त्तें, वैसे तुम लोग भी मत वर्त्तो ॥६२ ॥

 

नमः॒ सु ते॑ निर्ऋते तिग्मतेजोऽय॒स्मयं॒ विचृ॑ता ब॒न्धमे॒तम्। य॒मेन॒ त्वं य॒म्या सं॑विदा॒नोत्त॒मे नाके॒ऽअधि॑ रोहयैनम् ॥६३ ॥

 

फिर ये स्त्री कैसी हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (निर्ऋते) निरन्तर सत्य आचरणों से युक्त स्त्री ! जिस (ते) तेरे (तिग्मतेजः) तीव्र तेजोंवाले (अयस्मयम्) सुवर्णादि और (नमः) अन्नादि पदार्थ हैं सो (त्वम्) तू (एतम्) इस (बन्धम्) बाँधने के हेतु अज्ञान का (सुविचृत) अच्छे प्रकार छेदन कर (यमेन) न्यायाधीश तथा (यम्या) न्याय करने हारी स्त्री के साथ (संविदाना) सम्यक् बुद्धियुक्त होकर (एनम्) इस अपने पति को (उत्तमे) उत्तम (नाके) आनन्द भोगने में (अधिरोहय) आरूढ़ कर ॥६३ ॥


भावार्थभाषाः -हे स्त्रियो ! तुम को चाहिये कि जैसे यह पृथिवी अग्नि तथा सुवर्ण अन्नादि पदार्थों से सम्बन्ध रखती है, वैसे तुम भी होओ। जैसे तुम्हारे पति न्यायाधीश होकर अपराधी और अपराधरहित मनुष्यों का सत्य-न्याय से विचार करके अपराधियों को दण्ड देते और अपराधरहितों का सत्कार करते हैं, तुम लोगों के लिये अत्यन्त आनन्द देते हैं, वैसे तुम लोग भी होओ ॥६३ ॥

 

यस्या॑स्ते घोरऽआ॒सञ्जु॒होम्ये॒षां ब॒न्धाना॑मव॒सर्ज॑नाय। यां त्वा॒ जनो॒ भूमि॒रिति॑ प्र॒मन्द॑ते॒ निर्ऋ॑तिं त्वा॒हं परि॑ वेद वि॒श्वतः॑ ॥६४ ॥

 

किस प्रयोजन के लिये स्त्री पुरुष संयुक्त होवें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (घोरे) दुष्टों को भय करने हारी स्त्री ! (यस्याः) जिस सुन्दर नियम युक्त (ते) तेरे (आसन्) मुख में (एषाम्) इन (बन्धानाम्) दुःख देते हुए रोकनेवालों के (अवसर्जनाय) त्याग के लिये अमृतरूप अन्नादि पदार्थों को (जुहोमि) देता हूँ, जो (जनः) मनुष्य (भूमिरिति) पृथिवी के समान (याम्) जिस (त्वा) तुझ को (प्रमन्दते) आनन्दित करता है, उस तुझ को (अहम्) मैं (विश्वतः) सब ओर से (निर्ऋतिम्) पृथिवी के समान (त्वा) (परि) सब प्रकार से (वेद) जानूँ, सो तू भी इस प्रकार मुझ को जान ॥६४ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे पति अपने आनन्द के लिये स्त्रियों का ग्रहण करते हैं, वैसे ही स्त्री भी पतियों का ग्रहण करें। इस गृहाश्रम में पतिव्रता स्त्री और स्त्रीव्रत पति सुख का कोश होता है। खेतरूप स्त्री और बीजरूप पुरुष है, जो इन शुद्ध बलवान् दोनों के समागम से उत्तम विविध प्रकार के सन्तान हों, तो सर्वदा कल्याण ही बढ़ता रहता है, ऐसा जानना चाहिये ॥६४ ॥

 

यं ते॑ दे॒वी निर्ऋ॑तिराब॒बन्ध॒ पाशं॑ ग्री॒वास्व॑विचृ॒त्यम्। तं ते॒ विष्या॒म्यायु॑षो॒ न मध्या॒दथै॒तं पि॒तुम॑द्धि॒ प्रसू॑तः। नमो॒ भूत्यै॒ येदं च॒कार॑ ॥६५ ॥

 

विवाह समय में कैसी कैसी प्रतिज्ञा करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -स्त्री कहे कि हे पते ! (निर्ऋतिः) पृथिवी के समान मैं (ते) तेरे (ग्रीवासु) कण्ठों में (अविचृत्यम्) न छोड़ने योग्य (यम्) जिस (पाशम्) धर्मयुक्त बन्धन को (आबबन्ध) अच्छे प्रकार बाँधती हूँ, (तम्) उसको (ते) तेरे लिये भी प्रवेश करती हूँ (आयुषः) अवस्था के साधन अन्न के (न) समान (वि, स्यामि) प्रविष्ट होती हूँ। (अथ) इसके पश्चात् (मध्यात्) मैं तू दोनों में से कोई भी नियम से विरूद्ध न चले। जैसे मैं (एतम्) इस (पितुम्) अन्नादि पदार्थ को भोगती हूँ, वैसे (प्रसूतः) उत्पन्न हुआ तू इस अन्नादि को (अद्धि) भोग। हे स्त्री ! (या) जो (देवी) दिव्य गुणवाली तू (इदम्) इस पतिव्रतरूप धर्म से संस्कार किये हुए प्रत्यक्ष नियम को (चकार) करे, उस (भूत्यै) ऐश्वर्य्य करने हारी तेरे लिये (नमः) अन्नादि पदार्थ को देता हूँ ॥६५ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। विवाह समय में जिन व्यभिचार के त्याग आदि नियमों को [स्वीकार] करें, उनसे विरुद्ध कभी न चलें, क्योंकि पुरुष जब विवाहसमय में स्त्री का हाथ ग्रहण करता है, तभी पुरुष का जितना पदार्थ है, वह सब स्त्री का और जितना स्त्री का है, वह सब पुरुष का समझा जाता है। जो पुरुष अपनी विवाहित स्त्री को छोड़ अन्य स्त्री के निकट जावे वा स्त्री दूसरे पुरुष की इच्छा करे, तो वे दोनों चोर के समान पापी होते हैं, इसलिये स्त्री की सम्मति के विना पुरुष और पुरुष की आज्ञा के विना स्त्री कुछ भी काम न करे, यही स्त्री-पुरुषों में परस्पर प्रीति बढ़ानेवाला काम है कि जो व्यभिचार को सब समय में त्याग दें ॥६५ ॥

 

नि॒वेश॑नः स॒ङ्गम॑नो॒ वसू॑नां॒ विश्वा॑ रू॒पाभिच॑ष्टे॒ शची॑भिः। दे॒वऽइ॑व सवि॒ता स॒त्यध॒र्मेन्द्रो॒ न त॑स्थौ सम॒रे प॑थी॒नाम् ॥६६ ॥

 

कैसे स्त्री पुरुष गृहाश्रम करने के योग्य होते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -जो (सत्यधर्मा) सत्यधर्म से युक्त (सविता) सब जगत् के रचनेवाले (देव इव) ईश्वर के समान (निवेशनः) स्त्री का साथी (सङ्गमनः) शीघ्रगति से युक्त (शचीभिः) बुद्धि वा कर्मों से (वसूनाम्) पृथिवी आदि पदार्थों के (विश्वा) सब (रूपा) रूपों को (अभिचष्टे) देखता है, (इन्द्रः) सूर्य्य के (न) समान (समरे) युद्ध में (पथीनाम्) चलते हुए मनुष्यों के सम्मुख (तस्थौ) स्थित होवे, वही गृहाश्रम के योग्य होता है ॥६६ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को योग्य है कि जैसे ईश्वर ने सब के उपकार के लिये कारण से कार्यरूप अनेक पदार्थ रच के उपयुक्त करे हैं; जैसे सूर्य मेघ के साथ युद्ध करके जगत् का उपकार करता है, वैसे रचनाक्रम के विज्ञान और सुन्दर क्रिया से पृथिवी आदि पदार्थों से अनेक व्यवहार सिद्ध कर प्रजा को सुख देवें ॥६६ ॥

 

सीरा॑ युञ्जन्ति क॒वयो॑ यु॒गा वित॑न्वते॒ पृथ॑क्। धीरा॑ दे॒वेषु॑ सुम्न॒या ॥६७ ॥

 

अब खेती और योग करने की विद्या अगले मन्त्र में कही है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जैसे (धीराः) ध्यानशील (कवयः) बुद्धिमान् लोग (सीरा) हलों और (युगा) जुआ आदि को (युञ्जन्ति) युक्त करते और (सुम्नया) सुख के साथ (देवेषु) विद्वानों में (पृथक्) अलग (वितन्वते) विस्तारयुक्त करते, वैसे सब लोग इस खेती कर्म का सेवन करें ॥६७ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों की शिक्षा से कृषिकर्म की उन्नति करें। जैसे योगी नाडि़यो में परमेश्वर को समाधियोग से प्राप्त होते हैं, वैसे ही कृषिकर्म द्वारा सुखों को प्राप्त होवें ॥६७ ॥

 

यु॒नक्त॒ सीरा॒ वि यु॒गा त॑नुध्वं कृ॒ते योनौ॑ वपते॒ह बीज॑म्। गि॒रा च॑ श्रु॒ष्टिः सभ॑रा॒ अस॑न्नो॒ नेदी॑य॒ऽइत्सृ॒ण्यः᳖ प॒क्वमेया॑त् ॥६८ ॥

 

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! तुम लोग (इह) इस पृथिवी वा बुद्धि में साधनों को (वितनुध्वम्) विविध प्रकार से विस्तारयुक्त करो (सीरा) खेती के साधन हल आदि वा नाड़ियाँ और (युगा) जुआओं को (युनक्त) युक्त करो (कृते) हल आदि से जोते वा योग के अङ्गों से शुद्ध किये अन्तःकरण (योनौ) खेत में (बीजम्) यव आदि वा सिद्धि के मूल को (वपत) बोया करो। (गिरा) खेती विषयक कर्मों की उपयोगी सुशिक्षित वाणी (च) और अच्छे विचार से (सभराः) एक प्रकार के धारण और पोषण में युक्त (श्रुष्टिः) शीघ्र हूजिये, जो (सृण्यः) खेतों में उत्पन्न हुए यव आदि अन्न जाति के पदार्थ हैं, उनमें जो (नेदीयः) अत्यन्त समीप (पक्वम्) पका हुआ (असत्) होवे, वह (इत्) ही (नः) हम लोगों को (आ) (इयात्) प्राप्त होवे ॥६८ ॥


भावार्थभाषाः -हे मनुष्यो ! तुम लोगों को उचित है कि विद्वानों से योगाभ्यास और खेती करने हारों से कृषिकर्म की शिक्षा को प्राप्त हो और अनेक साधनों को बना के खेती और योगाभ्यास करो। इससे जो अन्नादि पका हो, उस-उस का ग्रहण कर भोजन करो और दूसरों को कराओ ॥६८ ॥

 

शु॒नꣳ सु फाला॒ वि कृ॑षन्तु॒ भूमि॑ꣳ शु॒नं की॒नाशा॑ऽअ॒भि य॑न्तु वा॒हैः। शुना॑सीरा ह॒विषा॒ तोश॑माना सुपिप्प॒लाऽओष॑धीः कर्त्तना॒स्मे ॥६९ ॥

 

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -जो (कीनाशाः) परिश्रम से क्लेशभोक्ता खेती करने हारे हैं, वे (फालाः) जिनसे पृथिवी को जोतें, उन फालों से (वाहैः) बैल आदि के साथ वर्त्तमान हल आदि से (भूमिम्) पृथिवी को (विकृषन्तु) जोतें और (शुनम्) सुख को (अभियन्तु) प्राप्त होवें। (हविषा) शुद्ध किये घी आदि से शुद्ध (तोशमाना) सन्तोषकारक (शुनासीरा) वायु और सूर्य्य के समान खेती के साधन (अस्मे) हमारे लिये (सुपिप्पलाः) सुन्दर फलों से युक्त (ओषधीः) जौ आदि (कर्त्तन) करें और उन ओषधियों से (सु) सुन्दर (शुनम्) सुख भोगें ॥६९ ॥


भावार्थभाषाः -जो चतुर खेती करने हारे गौ और बैल आदि की रक्षा करके विचार के साथ खेती करते हैं, वे अत्यन्त सुख को प्राप्त होते हैं। इन खेतों में विष्ठा आदि मलीन पदार्थ नहीं डालने चाहिये, किन्तु बीज भी सुगन्धि आदि से युक्त करके ही बोवें कि जिससे अन्न भी रोगरहित उत्पन्न होकर मनुष्यादि के बल और बुद्धि को बढ़ावें ॥६९ ॥

 

घृ॒तेन॒ सीता॒ मधु॑ना॒ सम॑ज्यतां॒ विश्वै॑र्दे॒वैरनु॑मता म॒रुद्भिः॑। ऊर्ज॑स्वती॒ पय॑सा॒ पिन्व॑माना॒स्मान्त्सी॑ते॒ पय॑सा॒भ्या व॑वृत्स्व ॥७० ॥

 

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -(विश्वैः) सब (देवैः) अन्नादि पदार्थों की इच्छा करनेवाले विद्वान् (मरुद्भिः) मनुष्यों की (अनुमता) आज्ञा से प्राप्त हुआ (पयसा) जल वा दुग्ध से (ऊर्जस्वती) पराक्रम सम्बन्धी (पिन्वमाना) सींचा वा सेवन किया हुआ (सीता) पटेला (घृतेन) घी तथा (मधुना) सहत वा शक्कर आदि से (समज्यताम्) संयुक्त करो। (सीते) पटेला (अस्मान्) हम लोगों को घी आदि पदार्थों से संयुक्त करेगा, इस हेतु से (पयसा) जल से (अभ्याववृत्स्व) बार-बार वर्त्ताओ ॥७० ॥


भावार्थभाषाः -सब विद्वानों को चाहिये कि किसान लोग विद्या के अनुकूल घी, मीठा और जल आदि से संस्कार कर स्वीकार की हुई खेत की पृथिवी को अन्न को सिद्ध करनेवाली करें। जैसे बीज सुगन्धि आदि युक्त करके बोते हैं, वैसे पृथिवी को भी संस्कारयुक्त करें ॥७० ॥


यजुर्वेद अध्याय 12 मंत्र (51-60)      यजुर्वेद अध्याय 12 मंत्र (71-80)

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