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यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:71 से 80

 

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:71 से 80

 

लाङ्ग॑लं॒ पवी॑रवत् सु॒शेव॑ꣳ सोम॒पित्स॑रु। तदुद्व॑पति॒ गामविं॑ प्रफ॒र्व्यं᳖ च॒ पीव॑रीं प्र॒स्थाव॑द् रथ॒वाह॑णम् ॥७१ ॥

 

फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे किसानो ! तुम लोग जो (सोमपित्सरु) जौ आदि ओषधियों के रक्षकों को टेढ़ा चलावे (पवीरवत्) प्रशंसित फाल से युक्त (सुशेवम्) सुन्दर सुखदायक (लाङ्गलम्) फाले के पीछे जो दृढ़ता के लिये काष्ठ लगाया जाता है, वह (च) और (प्रफर्व्यम्) चलाने योग्य (प्रस्थावत्) प्रशंसित प्रस्थानवाला (रथवाहनम्) रथ के चलने का साधन है, जिससे (अविम्) रक्षा आदि के हेतु (पीवरीम्) सब पदार्थों को भुगाने का हेतु स्थूल (गाम्) पृथिवी को (उद्वपति) उखाड़ते हैं (तत्) उसको तुम भी सिद्ध करो ॥७१ ॥


भावार्थभाषाः -किसान लोगों को उचित है कि मोटी मट्टी अन्न आदि की उत्पत्ति से रक्षा करने हारी पृथिवी की अच्छे प्रकार परीक्षा करके हल आदि साधनों से जोत, एकसार कर, सुन्दर संस्कार किये बीज [बो] के उत्तम धान्य उत्पन्न करके भोगें ॥७१ ॥

 

कामं॑ कामदुघे धुक्ष्व मि॒त्राय॒ वरु॑णाय च। इन्द्रा॑या॒श्विभ्यां॑ पू॒ष्णे प्र॒जाभ्य॒ऽओष॑धीभ्यः ॥७२ ॥

 

पकानेहारी स्त्री अच्छे यत्न से सुन्दर अन्न और व्यञ्जनों को बनावे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (कामदुघे) इच्छा को पूर्ण करने हारी रसोइया स्त्री ! तू पृथिवी के समान सुन्दर संस्कार किये अन्नों से (मित्राय) मित्र (वरुणाय) उत्तम विद्वान् (च) अतिथि अभ्यागत (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य्य से युक्त (अश्विभ्याम्) प्राण-अपान (पूष्णे) पुष्टिकारक जन (प्रजाभ्यः) सन्तानों और (ओषधीभ्यः) सोमलता आदि ओषधियों से (कामम्) इच्छा को (धुक्ष्व) पूर्ण कर ॥७२ ॥


भावार्थभाषाः -जो स्त्री वा पुरुष भोजन बनावे, उसको चाहिये कि पकाने की विद्या सीख, प्रिय पदार्थ पका और उनका भोजन करा के सब को रोगरहित रक्खें ॥७२ ॥

 

विमु॑च्यध्वमघ्न्या देवयाना॒ऽअग॑न्म॒ तम॑सस्पा॒रम॒स्य। ज्योति॑रापाम ॥७३ ॥

 

मनुष्यों को गौ आदि पशुओं को बढ़ा, उन से दूध घी आदि की वृद्धि कर आनन्द में रहना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जैसे तुम लोग (अघ्न्याः) रक्षा के योग्य (देवयानाः) दिव्य भोगों की प्राप्ति की हेतु गौओं को प्राप्त हो, सुन्दर संस्कार किये अन्नों का भोजन करके रोगों से (विमुच्यध्वम्) पृथक् रहते हो, वैसे हम लोग भी बचें। जैसे तुम लोग (तमसः) रात्रि के (पारम्) पार को प्राप्त होते हो, वैसे हम भी (अगन्म) प्राप्त होवें। जैसे तुम लोग (अस्य) इस सूर्य्य के (ज्योतिः) प्रकाश को व्याप्त होते हो, वैसे हम भी (वि) (आपाम) व्याप्त होवें ॥७३ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि गौ आदि पशुओं को भी न मारें और न मरवावें तथा न किसी को मारने दें। जैसे सूर्य्य के उदय से रात्रि निवृत्त होती है, वैसे वैद्यकशास्त्र की रीति से पथ्य अन्नादि पदार्थों का सेवन कर रोगों से बचें ॥७३ ॥

 

स॒जूरब्दो॒ऽअय॑वोभिः स॒जूरु॒षाऽअरु॑णीभिः। स॒जोष॑साव॒श्विना॒ दꣳसो॑भिः स॒जूः सूर॒ऽएत॑शेन स॒जूर्वै॑श्वान॒रऽइड॑या घृ॒तेन॒ स्वाहा॑ ॥७४ ॥

 

मनुष्यों को किस प्रकार परस्पर सुखी होना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! हम सब लोग स्त्री-पुरुष जैसे (अयवोभिः) एकरस क्षणादि काल के अवयवों से (सजूः) संयुक्त (अब्दः) वर्ष (अरुणीभिः) लाल कान्तियों के (सजूः) साथ वर्त्तमान (उषाः) प्रभात समय (दंसोभिः) कर्मों से (सजोषसौ) एकसा वर्त्ताववाले (अश्विना) प्राण और अपान के समान स्त्री-पुरुष वा (एतशेन) चलते घोड़े के समान व्याप्तिशील वेगवाले किरणनिमित्त पवन के (सजूः) साथ वर्त्तमान (सूरः) सूर्य (इडया) अन्न आदि का निमित्तरूप पृथिवी वा (घृतेन) जल से (स्वाहा) सत्य वाणी के (सजूः) साथ (वैश्वानरः) बिजुलीरूप अग्नि वर्त्तमान है, वैसे ही प्रीति से वर्त्तें ॥७४ ॥


भावार्थभाषाः -मनुष्यों में जितनी परस्पर मित्रता हो उतना ही सुख और जितना विरोध उतना ही दुःख होता है। उस से सब लोग स्त्रीपुरुष परस्पर उपकार करने के साथ ही सदा वर्त्तें ॥७४ ॥

 

या ओष॑धीः॒ पूर्वा॑ जा॒ता दे॒वेभ्य॑स्त्रियु॒गं पु॒रा। मनै॒ नु ब॒भ्रूणा॑म॒हꣳ श॒तं धामा॑नि स॒प्त च॑ ॥७५ ॥

 

मनुष्यों को अवश्य ओषधिसेवन कर रोगों से बचना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -(अहम्) मैं (याः) जो (ओषधीः) सोमलता आदि ओषधी (देवेभ्यः) पृथिवी आदि से (त्रियुगम्) तीन वर्ष (पुरा) पहिले (पूर्वाः) पूर्ण सुख दान में उत्तम (जाताः) प्रसिद्ध हुई, जो (बभ्रूणाम्) धारण करने हारे रोगियों के (शतम्) सौ (च) और (सप्त) सात (धामानि) जन्म वा नाडि़यों के मर्मों में व्याप्त होती हैं, उन को (नु) शीघ्र (मनै) जानूँ ॥७५ ॥


भावार्थभाषाः -मनुष्यों को योग्य है कि जो पृथिवी और जल में ओषधी उत्पन्न होती हैं, उन तीन वर्ष के पीछे ठीक-ठीक पकी हुई को ग्रहण कर वैद्यकशास्त्र के अनुकूल विधान से सेवन करें। सेवन की हुई वे ओषधी शरीर के सब अंशों में व्याप्त हो के शरीर के रोगों को छुड़ा सुखों को शीघ्र करती हैं ॥७५ ॥

 

श॒तं वो॑ऽअम्ब॒ धामा॑नि स॒हस्र॑मु॒त वो॒ रुहः॑। अधा॑ शतक्रत्वो यू॒यमि॒मं मे॑ऽअग॒दं कृ॑त ॥७६ ॥

 

मनुष्य क्या करके किस को सिद्ध करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (शतक्रत्वः) सैकड़ों प्रकार की बुद्धि वा क्रियाओं से युक्त मनुष्यो ! (यूयम्) तुम लोग जिन के (शतम्) सैकड़ों (उत) वा (सहस्रम्) हजारहों (रुहः) नाड़ियों के अंकुर हैं, उन ओषधियों से (मे) मेरे (इमम्) इस शरीर को (अगदम्) नीरोग (कृत) करो। (अधा) इसके पश्चात् (वः) आप अपने शरीरों को भी रोगरहित करो, जो (वः) तुम्हारे असंख्य (धामानि) मर्म्म स्थान हैं, उनको प्राप्त होओ। हे (अम्ब) माता ! तू भी ऐसा ही आचरण कर ॥७६ ॥


भावार्थभाषाः -मनुष्यों को चाहिये कि सबसे पहिले ओषधियों का सेवन, पथ्य का आचरण और नियमपूर्वक व्यवहार करके शरीर को रोगरहित करें, क्योंकि इसके विना धर्म्म, अर्थ, काम और मोक्षों का अनुष्ठान करने को कोई भी समर्थ नहीं हो सकता ॥७६ ॥

 

ओष॑धीः॒ प्रति॑मोदध्वं॒ पुष्प॑वतीः प्र॒सूव॑रीः। अश्वा॑ऽइव स॒जित्व॑रीर्वी॒रुधः॑ पारयि॒ष्ण्वः᳖ ॥७७ ॥

 

कैसी ओषधियों का सेवन करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! तुम लोग (अश्वा इव) घोड़ों के समान (सजित्वरीः) शरीरों के साथ संयुक्त रोगों को जीतनेवाली (वीरुधः) सोमलता आदि (पारयिष्ण्वः) दुःखों से पार करने के योग्य (पुष्पवतीः) प्रशंसित पुष्पों से युक्त (प्रसूवरीः) सुख देने हारी (ओषधीः) ओषधियों को प्राप्त होकर (प्रतिमोदध्वम्) नित्य आनन्द भोगो ॥७७ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे घोड़ों पर चढ़े वीर पुरुष शत्रुओं को जीत, विजय को प्राप्त हो के आनन्द करते हैं, वैसे श्रेष्ठ ओषधियों के सेवन और पथ्याहार करने हारे जितेन्द्रिय मनुष्य रोगों से छूट आरोग्य को प्राप्त हो के नित्य आनन्द भोगते हैं ॥७७ ॥

 

ओष॑धी॒रिति॑ मातर॒स्तद्वो॑ देवी॒रुप॑ ब्रुवे। स॒नेय॒मश्वं॒ गां वास॑ऽआ॒त्मानं॒ तव॑ पूरुष ॥७८ ॥

 

फिर पिता और पुत्र आपस में कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (ओषधीः) ओषधियों के (इति) समान सुखदायक (देवीः) सुन्दर विदुषी स्त्री (मातरः) माता ! मैं पुत्र (वः) तुम को (तत्) श्रेष्ठ पथ्यरूप कर्म्म (उपब्रुवे) समीपस्थित होकर उपदेश करूँ। हे (पूरुष) पुरुषार्थी श्रेष्ठ सन्तान ! मैं माता (तव) तेरे (अश्वम्) घोड़े आदि (गाम्) गौ आदि वा पृथिवी आदि (वासः) वस्त्र आदि वा घर और (आत्मानम्) जीव को निरन्तर (सनेयम्) सेवन करूँ ॥७८ ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे जौ आदि ओषधी सेवन की हुई शरीरों को पुष्ट करती हैं, वैसे ही माता विद्या, अच्छी शिक्षा और उपदेश से सन्तानों को पुष्ट करें। जो माता का धन है, वह भाग सन्तान का और जो सन्तान का है, वह माता का, ऐसे सब परस्पर प्रीति से वर्त्त कर निरन्तर सुख को बढ़ावें ॥७८ ॥

 

अ॒श्व॒त्थे वो॑ नि॒षद॑नं प॒र्णे वो॑ वस॒तिष्कृ॒ता। गो॒भाज॒ऽइत् किला॑सथ॒ यत् स॒नव॑थ॒ पूरु॑षम् ॥७९ ॥

 

मनुष्य लोग नित्य कैसा विचार करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! ओषधियों के समान (यत्) जिस कारण (वः) तुम्हारा (अश्वत्थे) कल रहे वा न रहे, ऐसे शरीर में (निषदनम्) निवास है; और (वः) तुम्हारा (पर्णे) कमल के पत्ते पर जल के समान चलायमान संसार में ईश्वर ने (वसतिः) निवास (कृता) किया है, इससे (गोभाजः) पृथिवी को सेवन करते हुए (किल) ही (पूरुषम्) अन्न आदि से पूर्ण देहवाले पुरुष को (सनवथ) ओषधि देकर सेवन करो और सुख को प्राप्त होते हुए (इत्) इस संसार में (असथ) रहो ॥७९ ॥


भावार्थभाषाः -मनुष्यों को ऐसा विचारना चाहिये कि हमारे शरीर अनित्य और स्थिति चलायमान है, इससे शरीर को रोगों से बचा कर धर्म्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष का अनुष्ठान शीघ्र करके अनित्य साधनों से नित्य मोक्ष के सुख को प्राप्त होवें। जैसे ओषधि और तृण आदि फल, फूल, पत्ते, स्कन्ध और शाखा आदि से शोभित होते हैं, वैसे ही रोगरहित शरीरों से शोभायमान हों ॥७९ ॥

 

यत्रौष॑धीः स॒मग्म॑त॒ राजा॑नः॒ समि॑ताविव। विप्रः॒ सऽउ॑च्यते भि॒षग् र॑क्षो॒हामी॑व॒चात॑नः ॥८० ॥

 

बार-बार श्रेष्ठ वैद्यों का सेवन करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! तुम लोग (यत्र) जिन स्थलों में (ओषधीः) सोमलता आदि ओषधी होती हों, उन को जैसे (राजानः) राजधर्म से युक्त वीरपुरुष (समिताविव) युद्ध में शत्रुओं को प्राप्त होते हैं, वैसे (समग्मत) प्राप्त हों, जो (रक्षोहा) दुष्ट रोगों का नाशक (अमीवचातनः) रोगों को निवृत्त करनेवाला (विप्रः) बुद्धिमान् (भिषक्) वैद्य हो, (सः) वह तुम्हारे प्रति (उच्यते) ओषधियों के गुणों का उपदेश करे और ओषधियों का तथा उस वैद्य का सेवन करो ॥८० ॥


भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सेनापति से शिक्षा को प्राप्त हुए राजा के वीर पुरुष अत्यन्त पुरुषार्थ से देशान्तर में जा शत्रुओं को जीत के राज्य को प्राप्त होते हैं, वैसे श्रेष्ठ वैद्य से शिक्षा को प्राप्त हुए तुम लोग ओषधियों की विद्या को प्राप्त होओ। जिस शुद्ध देश में ओषधि हों, वहाँ उन को जान के उपयोग में लाओ और दूसरों के लिये भी बताओ ॥८० ॥


यजुर्वेद अध्याय 12 मंत्र (61-70)        यजुर्वेद अध्याय 12 मंत्र (81-90)

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