यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:81 से 90
अ॒श्वा॒व॒तीᳬ
सो॑माव॒तीमू॒र्जय॑न्ती॒मुदो॑जसम्। आवि॑त्सि॒ सर्वा॒ऽओष॑धीर॒स्माऽअ॑रि॒ष्टता॑तये
॥८१ ॥
मनुष्यों को नित्य
पुरुषार्थ बढ़ाना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
मनुष्यो ! जैसे मैं (अरिष्टतातये) दुःखदायक रोगों के छुड़ाने के लिये (अश्वावतीम्)
प्रशंसित शुभगुणों से युक्त (सोमावतीम्) बहुत रस से सहित (उदोजसम्) अति पराक्रम
बढ़ाने हारी (ऊर्जयन्तीम्) बल देती हुई श्रेष्ठ ओषधीयों को (आ) सब प्रकार
(अवित्सि) जानूँ कि जिससे (सर्वाः) सब (ओषधीः) ओषधी (अस्मै) इस मेरे लिये सुख
देवें,
इसलिये तुम लोग भी प्रयत्न करो ॥८१ ॥
भावार्थभाषाः -इस
मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि रोगों का निदान, चिकित्सा, ओषधि और पथ्य के सेवन से निवारण करें तथा
ओषधियों के गुणों का यथावत् उपयोग लेवें कि जिससे रोगों की निवृत्ति होकर
पुरुषार्थ की वृद्धि होवे ॥८१ ॥
उच्छुष्मा॒ ओष॑धीनां॒ गावो॑ गो॒ष्ठादि॑वेरते। धन॑ꣳ
सनि॒ष्यन्ती॑नामा॒त्मानं॒ तव॑ पूरुष ॥८२ ॥
ओषधियों का क्या
निमित्त है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(पूरुष) पुरुष-शरीर में सोनेवाले वा देहधारी ! (धनम्) ऐश्वर्य्य बढ़ानेवाले को
(सनिष्यन्तीनाम्) सेवन करती हुई (ओषधीनाम्) सोमलता वा जौ आदि ओषधियों के सम्बन्ध
से जैसे (शुष्माः) प्रशंसित बल करने हारी (गावः) गौ वा किरण (गोष्ठादिव) अपने
स्थान से बछड़ों वा पृथिवी को प्राप्त होती हैं, वैसे
ओषधियों का तत्त्व (तव) तेरे (आत्मानम्) आत्मा को (उदीरते) प्राप्त होता है,
उन सब की तू सेवा कर ॥८२ ॥
भावार्थभाषाः -इस
मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे रक्षा की हुई गौ अपने दूध आदि से
अपने बच्चों और मनुष्य आदि को पुष्ट करके बलवान् करती है, वैसे ही ओषधियाँ तुम्हारे आत्मा और शरीर को पुष्ट कर पराक्रमी करती हैं।
जो कोई न खावे तो क्रम से बल और बुद्धि की हानि हो जावे। इसलिये ओषधी ही बल बुद्धि
का निमित्त है ॥८२ ॥
इष्कृ॑ति॒र्नाम॑
वो मा॒ताथो॑ यू॒यꣳ स्थ॒ निष्कृ॑तीः। सी॒राः प॑त॒त्रिणी॑ स्थन॒ यदा॒मय॑ति॒ निष्कृ॑थ
॥८३ ॥
अच्छे प्रकार सेवन की
हुई ओषधी क्या करती हैं। यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
मनुष्यो ! (यूयम्) तुम लोग जो (वः) तुम्हारी (इष्कृतिः) कार्य्यसिद्धि करने हारी
(माता) माता के समान ओषधी (नाम) प्रसिद्ध है, उसकी सेवा
के तुल्य सेवन की हुई ओषधियों को जाननेवाले (स्थ) होओ (पतत्रिणीः) चलनेवाली
(सीराः) नदियों के समान (निष्कृतीः) प्रत्युपकारों को सिद्ध करनेवाले (स्थन) होओ।
(अथो) इसके अनन्तर (यत्) जो क्रिया वा ओषधी अथवा वैद्य (आमयति) रोग बढ़ावे,
उसको (निष्कृथ) छोड़ो ॥८३ ॥
भावार्थभाषाः -इस
मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे माता-पिता तुम्हारी सेवा
करते हैं,
वैसे तुम भी उनकी सेवा करो। जो-जो काम रोगकारी हो, उस-उस को छोड़ो। इस प्रकार सेवन की हुई ओषधी माता के समान प्राणियों को
पुष्ट करती है ॥८३ ॥
अति॒
विश्वाः॑ परि॒ष्ठा स्ते॒नऽइ॑व व्र॒जम॑क्रमुः। ओष॑धीः॒ प्राचु॑च्यवु॒र्यत्किं च॑
त॒न्वो᳕ रपः॑ ॥८४ ॥
कैसे रोग निवृत्त
होते हैं,
यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
मनुष्यो ! तुम लोग जो (परिष्ठाः) सब ओर से स्थित (विश्वा) सब (ओषधीः) सोमलता और जौ
आदि ओषधी (व्रजम्) जैसे गोशाला को (स्तेन इव) भित्ति फोड़ के चोर जावे, वैसे पृथिवी फोड़ के (अत्यक्रमुः) निकलती हैं, (यत्)
जो (किञ्च) कुछ (तन्वः) शरीर का (रपः) पापों के फल के समान रोगरूप दुःख है,
उस सब को (प्राचुच्यवुः) नष्ट करती हैं, उन
ओषधियों को युक्ति से सेवन करो ॥८४ ॥
भावार्थभाषाः -इस
मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे गौओं के स्वामी से धमकाया हुआ चोर भित्ति को फाँद
के भागता है, वैसे ही श्रेष्ठ ओषधियों से ताड़ना किये
रोग नष्ट हो के भाग जाते हैं ॥८४ ॥
यदि॒मा
वा॒जय॑न्न॒हमोष॑धी॒र्हस्त॑ऽआद॒धे। आ॒त्मा यक्ष्म॑स्य नश्यति पु॒रा जी॑व॒गृभो॑ यथा
॥८५ ॥
फिर भी उसी विषय को
अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
मनुष्यो ! (यथा) जिस प्रकार (पुरा) पूर्व (वाजयन्) प्राप्त करता हुआ (अहम्) मैं
(यत्) जो (इमाः) इन (ओषधीः) ओषधियों को (हस्ते) हाथ में (आदधे) धारण करता हूँ, जिनसे (जीवगृभः) जीव के ग्राहक व्याधि और (यक्ष्मस्य) क्षय=राजरोग का
(आत्मा) मूलतत्त्व (नश्यति) नष्ट हो जाता है, उन ओषधियों को
श्रेष्ठ युक्तियों से उपयोग में लाओ ॥८५ ॥
भावार्थभाषाः -इस
मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि सुन्दर हस्तक्रिया से
ओषधियों को सिद्ध कर ठीक-ठीक क्रम से उपयोग में ला और क्षय आदि बड़े रोगों को
निवृत्त करके आनन्द के लिये प्रयत्न करें ॥८५ ॥
यस्यौ॑षधीः
प्र॒सर्प॒थाङ्ग॑मङ्गं॒ परु॑ष्परुः। ततो॒ यक्ष्मं॒ विबा॑धध्वऽउ॒ग्रो म॑ध्यम॒शीरि॑व
॥८६ ॥
ठीक-ठीक सेवन की हुई
ओषधी रोगों को कैसे न नष्ट करे, यह विषय अगले मन्त्र में
कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
मनुष्यो ! तुम लोग (यस्य) जिसके (अङ्गमङ्गम्) सब अवयवों और (परुष्परुः) मर्म-मर्म
के प्रति वर्त्तमान है, उसके उस (उग्रः) तीव्र
(यक्ष्मम्) क्षय रोग को (मध्यमशीरिव) बीच के मर्मस्थानों को काटते हुए के समान
(विबाधध्वे) विशेष कर निवृत्त कर (ततः) उसके पश्चात् (ओषधीः) ओषधियों को
(प्रसर्पथ) प्राप्त होओ ॥८६ ॥
भावार्थभाषाः -जो
मनुष्य लोग शास्त्र के अनुसार ओषधियों का सेवन करें, तो
सब अवयवों से रोगों को निकाल के सुखी रहते हैं ॥८६ ॥
सा॒कं
य॑क्ष्म॒ प्रप॑त॒ चाषे॑ण किकिदी॒विना॑। सा॒कं वात॑स्य॒ ध्राज्या॑ सा॒कं न॑श्य
नि॒हाक॑या ॥८७ ॥
कैसे-कैसे रोगों को
नष्ट करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है
॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
वैद्य विद्वन् पुरुष ! (किकिदीविना) ज्ञान बढ़ाने हारे (चाषेण) आहार से (साकम्)
ओषधियुक्त पदार्थों के साथ (यक्ष्म) राजरोग (प्रपत) हट जाता है, जैसे उस (वातस्य) वायु की (ध्राज्या) गति के (साकम्) साथ (नश्य) नष्ट हो
और (निहाकया) निरन्तर छोड़ने योग्य पीड़ा के (साकम्) साथ दूर हो, वैसा प्रयत्न कर ॥८७ ॥
भावार्थभाषाः
-मनुष्यों को चाहिये कि ओषधियों का सेवन योगाभ्यास और व्यायाम के सेवन से रोगों को
नष्ट कर सुख से वर्त्तें ॥८७
अ॒न्या
वो॑ऽअ॒न्याम॑वत्व॒न्यान्यस्या॒ऽउपा॑वत। ताः सर्वाः॑ संविदा॒नाऽइ॒दं मे॒ प्राव॑ता॒
वचः॑ ॥८८ ॥
युक्ति से मिलाई हुई
ओषधियाँ रोगों को नष्ट करती हैं, यह विषय अगले मन्त्र में
कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
स्त्रियो ! (संविदानाः) आपस में संवाद करती हुई तुम लोग (मे) मेरे (इदम्) इस (वचः)
वचन को (प्रावत) पालन करो, (ताः) उन (सर्वाः) सब ओषधियों
की (अन्या) दूसरी (अन्यस्याः) दूसरी की रक्षा के समान (उपावत) समीप से रक्षा करो।
जैसे (अन्या) एक (अन्याम्) दूसरी की रक्षा करती है, वैसे
(वः) तुम लोगों को पढ़ाने हारी स्त्री (अवतु) तुम्हारी रक्षा करे ॥८८ ॥
भावार्थभाषाः -इस
मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे श्रेष्ठ नियमवाली स्त्री एक-दूसरे की
रक्षा करती हैं, वैसे ही अनुकूलता से मिलाई हुई ओषधी सब
रोगों से रक्षा करती हैं। हे स्त्रियो ! तुम लोग ओषधिविद्या के लिये परस्पर संवाद
करो ॥८८ ॥
याः
फ॒लिनी॒र्याऽअ॑फ॒लाऽअ॑पु॒ष्पा याश्च॑ पु॒ष्पिणीः॑। बृह॒स्पति॑प्रसूता॒स्ता नो॑
मुञ्च॒न्त्वꣳह॑सः ॥८९ ॥
रोगों के निवृत्त
होने के लिये ही ओषधी ईश्वर ने रची है, यह विषय
अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
मनुष्यो ! (याः) जो (फलिनीः) बहुत फलों से युक्त (याः) जो (अफलाः) फलों से रहित
(याः) जो (अपुष्पाः) फूलों से रहित (च) और जो (पुष्पिणीः) बहुत फूलोंवाली
(बृहस्पतिप्रसूताः) वेदवाणी के स्वामी ईश्वर के द्वारा उत्पन्न की हुई औषधियाँ
(नः) हमको (अंहसः) दुःखदायी रोग से जैसे (मुञ्चन्तु) छुड़ावें (ताः) वे तुम लोगों
के भी वैसे रोगों से छुड़ावें ॥८९ ॥
भावार्थभाषाः -इस
मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो ईश्वर ने सब
प्राणियों की अधिक अवस्था और रोगों की निवृत्ति के लिये ओषधी रची हैं, उनसे वैद्यकशास्त्र में कही हुई रीतियों से सब रोगों को निवृत्त कर और
पापों से अलग रह कर धर्म में नित्य प्रवृत्त रहें ॥८९ ॥
मु॒ञ्चन्तु॑
मा शप॒थ्या᳕दथो॑ वरु॒ण्या᳖दु॒त। अथो॑ य॒मस्य॒ पड्वी॑शात् सर्व॑स्माद्
देवकिल्वि॒षात् ॥९० ॥
कौन-कौन ओषधि किस-किस
से छुड़ाती है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
विद्वान् लोगो ! आप जैसे वे महौषधि रोगों से पृथक् करती हैं, (शपथ्यात्) शपथसम्बन्धी कर्म (अथो) और (वरुण्यात्) श्रेष्ठों में हुए अपराध
से, (अथो) इसके पश्चात् (यमस्य) न्यायाधीश के (पड्वीशात्)
न्याय के विरुद्ध आचरण से, (उत) और (सर्वस्मात्) सब
(देवकिल्विषात्) विद्वानों के विषय में अपराध से (मा) मुझको (मुञ्चन्तु) पृथक्
रक्खें, वैसे तुम लोगों को भी पृथक् रक्खें ॥९० ॥
भावार्थभाषाः -इस
मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि प्रमादकारक पदार्थों को
छोड़ के अन्य पदार्थों का भोजन करें और कभी सौगन्द, श्रेष्ठों
का अपराध, न्याय से विरोध और मूर्खों के समान ईर्ष्या न करें
॥९० ॥
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