ज्ञानवर्धक कथाएं - भाग - 13
👉 हाथी और छह अंधे व्यक्ति
बहुत समय पहले की बात है, किसी
गावं में 6 अंधे आदमी रहते थे। एक दिन गाँव वालों ने उन्हें बताया, अरे, आज गावँ में हाथी आया है। उन्होंने आज तक बस
हाथियों के बारे में सुना था पर कभी छू कर महसूस नहीं किया था। उन्होंने ने निश्चय
किया, भले ही हम हाथी को देख नहीं सकते, पर आज हम सब चल कर उसे महसूस तो कर सकते हैं ना? और
फिर वो सब उस जगह की तरफ बढ़ चले जहाँ हाथी आया हुआ था।
सभी ने हाथी को छूना शुरू किया।
मैं समझ गया, हाथी
एक खम्भे की तरह होता है, पहले व्यक्ति ने हाथी का पैर छूते
हुए कहा। अरे नहीं, हाथी तो रस्सी की तरह होता है। दूसरे
व्यक्ति ने पूँछ पकड़ते हुए कहा। मैं बताता हूँ, ये तो पेड़
के तने की तरह है।, तीसरे व्यक्ति ने सूंढ़ पकड़ते हुए कहा।
तुम लोग क्या बात कर रहे हो, हाथी
एक बड़े हाथ के पंखे की तरह होता है।”, चौथे व्यक्ति ने कान
छूते हुए सभी को समझाया। नहीं-नहीं, ये तो एक दीवार की तरह
है।”, पांचवे व्यक्ति ने पेट पर हाथ रखते हुए कहा।
ऐसा नहीं है, हाथी
तो एक कठोर नली की तरह होता है।”, छठे व्यक्ति ने अपनी बात
रखी। और फिर सभी आपस में बहस करने लगे और खुद को सही साबित करने में लग गए।। उनकी
बहस तेज होती गयी और ऐसा लगने लगा मानो वो आपस में लड़ ही पड़ेंगे।
तभी वहां से एक बुद्धिमान व्यक्ति
गुजर रहा था। वह रुका और उनसे पूछा, क्या बात है तुम सब आपस
में झगड़ क्यों रहे हो?” हम यह नहीं तय कर पा रहे हैं कि
आखिर हाथी दीखता कैसा है, उन्होंने ने उत्तर दिया।
और फिर बारी बारी से उन्होंने अपनी
बात उस व्यक्ति को समझाई। बुद्धिमान व्यक्ति ने सभी की बात शांति से सुनी और बोला, तुम
सब अपनी-अपनी जगह सही हो। तुम्हारे वर्णन में अंतर इसलिए है क्योंकि तुम सबने हाथी
के अलग-अलग भाग छुए हैं, पर देखा जाए तो तुम लोगो ने जो कुछ
भी बताया वो सभी बाते हाथी के वर्णन के लिए सही बैठती हैं।
अच्छा!! ऐसा है। सभी ने एक साथ
उत्तर दिया। उसके बाद कोई विवाद नहीं हुआ,और सभी खुश हो गए कि वो सभी
सच कह रहे थे।
दोस्तों, कई
बार ऐसा होता है कि हम अपनी बात को लेकर अड़ जाते हैं कि हम ही सही हैं और बाकी सब
गलत है। लेकिन यह संभव है कि हमें सिक्के का एक ही पहलु दिख रहा हो और उसके आलावा
भी कुछ ऐसे तथ्य हों जो सही हों। इसलिए हमें अपनी बात तो रखनी चाहिए पर दूसरों की
बात भी सब्र से सुननी चाहिए, और कभी भी बेकार की बहस में
नहीं पड़ना चाहिए। वेदों में भी कहा गया है कि एक सत्य को कई तरीके से बताया जा
सकता है। तो, जब अगली बार आप ऐसी किसी बहस में पड़ें तो याद
कर लीजियेगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि आपके हाथ में सिर्फ पूँछ है और बाकी हिस्से
किसी और के पास हैं।
👉 दया और सौम्यता
एक नगर में एक जुलाहा रहता था। वह
स्वाभाव से अत्यंत शांत, नम्र तथा वफादार था।उसे क्रोध तो कभी आता ही
नहीं था। एक बार कुछ लड़कों को शरारत सूझी। वे सब उस जुलाहे के पास यह सोचकर पहुँचे
कि देखें इसे गुस्सा कैसे नहीं आता ?
उन में एक लड़का धनवान माता-पिता का
पुत्र था। वहाँ पहुँचकर वह बोला यह साड़ी कितने की दोगे? जुलाहे
ने कहा - दस रुपये की।
तब लडके ने उसे चिढ़ाने के उद्देश्य
से साड़ी के दो टुकड़े कर दिये और एक टुकड़ा हाथ में लेकर बोला - मुझे पूरी साड़ी नहीं
चाहिए,
आधी चाहिए। इसका क्या दाम लोगे?
जुलाहे ने बड़ी शान्ति से कहा पाँच
रुपये। लडके ने उस टुकड़े के भी दो भाग किये और दाम पूछा? जुलाहे
अब भी शांत था। उसने बताया - ढाई रुपये। लड़का इसी प्रकार साड़ी के टुकड़े करता गया।
अंत में बोला - अब मुझे यह साड़ी नहीं चाहिए। यह टुकड़े मेरे किस काम के?
जुलाहे ने शांत भाव से कहा - बेटे!
अब यह टुकड़े तुम्हारे ही क्या, किसी के भी काम के नहीं रहे। अब लडके
को शर्म आई और कहने लगा - मैंने आपका नुकसान किया है। अंतः मैं आपकी साड़ी का दाम
दे देता हूँ।
संत जुलाहे ने कहा कि जब आपने साड़ी
ली ही नहीं तब मैं आपसे पैसे कैसे ले सकता हूँ? लडके का अभिमान जागा और वह
कहने लगा कि, मैं बहुत अमीर आदमी हूँ। तुम गरीब हो। मैं
रुपये दे दूँगा तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा,पर तुम यह घाटा
कैसे सहोगे? और नुकसान मैंने किया है तो घाटा भी मुझे ही
पूरा करना चाहिए।
संत जुलाहे मुस्कुराते हुए कहने लगे
- तुम यह घाटा पूरा नहीं कर सकते। सोचो, किसान का कितना श्रम लगा
तब कपास पैदा हुई। फिर मेरी स्त्री ने अपनी मेहनत से उस कपास को बीना और सूत काता।
फिर मैंने उसे रंगा और बुना। इतनी मेहनत तभी सफल हो जब इसे कोई पहनता, इससे लाभ उठाता, इसका उपयोग करता। पर तुमने उसके
टुकड़े-टुकड़े कर डाले। रुपये से यह घाटा कैसे पूरा होगा? जुलाहे
की आवाज़ में आक्रोश के स्थान पर अत्यंत दया और सौम्यता थी।
लड़का शर्म से पानी-पानी हो गया।
उसकी आँखे भर आई और वह संत के पैरो में गिर गया।
जुलाहे ने बड़े प्यार से उसे उठाकर
उसकी पीठ पर हाथ फिराते हुए कहा - बेटा, यदि मैं तुम्हारे रुपये ले
लेता तो है उस में मेरा काम चल जाता। पर तुम्हारी ज़िन्दगी का वही हाल होता जो उस
साड़ी का हुआ। कोई भी उससे लाभ नहीं होता।साड़ी एक गई, मैं
दूसरी बना दूँगा। पर तुम्हारी ज़िन्दगी एक बार अहंकार में नष्ट हो गई तो दूसरी कहाँ
से लाओगे तुम? तुम्हारा पश्चाताप ही मेरे लिए बहुत कीमती है।
सीख - संत की उँची सोच-समझ ने लडके
का जीवन बदल दिया।
ये कोई और नहीं ये सन्त थे कबीर दास
जी
👉 ममता और महानता:-
एक बालक नित्य विद्यालय पढ़ने जाता
था। घर में उसकी माता थी। माँ अपने बेटे पर प्राण न्योछावर किए रहती थी, उसकी
हर माँग पूरी करने में आनंद का अनुभव करती। बालक भी पढ़ने-लिखने में बड़ा तेज़ और
परिश्रमी था। खेल के समय खेलता, लेकिन पढ़ने के समय पढने का
ध्यान रखता।
एक दिन दरवाज़े पर किसी ने- “माई! ओ
माई!” पुकारते हुए आवाज़ लगाई तो बालक हाथ में पुस्तक पकड़े हुए द्वार पर गया, देखा
कि एक फटेहाल बुढ़िया काँपते हाथ फैलाए खड़ी थी।
उसने कहा- “बेटा! कुछ भीख दे दे।“
बुढ़िया के मुँह से बेटा सुनकर वह
भावुक हो गया और माँ से आकर कहने लगा- “माँ! एक बेचारी गरीब माँ मुझे ‘बेटा’ कहकर कुछ माँग रही है।“
उस समय घर में कुछ खाने की चीज़ थी
नहीं,
इसलिए माँ ने कहा- “बेटा! रोटी-भात तो कुछ बचा नहीं है, चाहे तो चावल दे दो।“
इसपर बालक ने हठ करते हुए कहा-
“माँ! चावल से क्या होगा? तुम जो अपने हाथ में सोने का कंगन पहने हो,
वही दे दो न उस बेचारी को। मैं जब बड़ा होकर कमाऊँगा तो तुम्हें दो
कंगन बनवा दूँगा।“
माँ ने बालक का मन रखने के लिए सच
में ही सोने का अपना वह कंगन कलाई से उतारा और कहा- “लो, दे
दो।“
बालक खुशी-खुशी वह कंगन उस भिखारिन
को दे आया। भिखारिन को तो मानो ख़ज़ाना ही मिल गया। उसका पति अंधा था। कंगन बेचकर
उसने परिवार के बच्चों के लिए अनाज, कपड़े आदि जुटा लिए। उधर
वह बालक पढ़-लिखकर बड़ा विद्वान हुआ, काफ़ी नाम कमाया।
उसे बचपन का अपना वचन याद था। एक
दिन वह माँ से बोला- “माँ! तुम अपने हाथ का नाप दे दो, मैं
कंगन बनवा दूँ।“
पर माता ने कहा- “उसकी चिंता छोड़।
मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूँ कि अब मुझे कंगन शोभा नहीं देंगे। हाँ, कलकत्ते
के तमाम ग़रीब बालक विद्यालय और चिकित्सा के लिए मारे-मारे फिरते हैं, उनके लिए तू एक विद्यालय और एक चिकित्सालय खुलवा दे जहाँ निशुल्क पढ़ाई और
चिकित्सा की व्यवस्था हो।“
पुत्र ने ऐसा ही किया। माँ के उस
पुत्र का नाम ईश्वरचंद्र विद्यासागर है।
👉 मेरे पिता
शहर के एक प्रसिद्ध विद्यालय के
बग़ीचे में तेज़ धूप और गर्मी की परवाह किये बिना, बड़ी लग्न से पेड़ -
पौधों की काट छाँट में लगा था कि तभी विद्यालय के चपरासी की आवाज़ सुनाई दी,
"गंगादास! तुझे प्रधानाचार्या जी तुरंत बुला रही हैं।"
गंगादास को आख़िरी के पांच शब्दों
में काफ़ी तेज़ी महसूस हुई और उसे लगा कि कोई महत्त्वपूर्ण बात हुई है जिसकी वज़ह
से प्रधानाचार्या जी ने उसे तुरंत ही बुलाया है। शीघ्रता से उठा, अपने
हाथों को धोकर साफ़ किया और चल दिया,
द्रुत गति से प्रधानाचार्या के कार्यालय की ओर।
उसे प्रधानाचार्या महोदया के
कार्यालय की दूरी मीलों की लग रही थी जो ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही थी। उसकी
हृदयगति बढ़ गई थी। सोच रहा था कि उससे
क्या ग़लत हो गया जो आज उसको प्रधानाचार्या महोदया ने तुरंत ही अपने कार्यालय में आने को कहा।
वह एक ईमानदार कर्मचारी था और अपने
कार्य को पूरी निष्ठा से पूर्ण करता था। पता नहीं क्या ग़लती हो गयी। वह इसी चिंता
के साथ प्रधानाचार्या के कार्यालय पहुँचा…. "मैडम, क्या मैं अंदर आ जाऊँ? आपने मुझे बुलाया था।"
"हाँ। आओ और यह देखो"
प्रधानाचार्या महोदया की आवाज़ में कड़की थी और उनकी उंगली एक पेपर पर इशारा कर रही
थी। "पढ़ो इसे" प्रधानाचार्या ने आदेश दिया। "मैं, मैं,
मैडम! मैं तो इंग्लिश पढ़ना नहीं जानता मैडम!" गंगादास ने घबरा
कर उत्तर दिया।
"मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ
मैडम यदि कोई गलती हो गयी हो तो। मैं आपका और विद्यालय का पहले से ही बहुत ऋणी
हूँ। क्योंकि आपने मेरी बिटिया को इस विद्यालय में निःशुल्क पढ़ने की इज़ाज़त दी।
मुझे कृपया एक और मौक़ा दें मेरी कोई ग़लती हुई है तो सुधारने का। मैं आप का सदैव
ऋणी रहूंगा।" गंगादास बिना रुके घबरा कर बोलता चला जा रहा था।
उसे प्रधानाचार्या ने टोका
"तुम बिना वज़ह अनुमान लगा रहे हो। थोड़ा इंतज़ार करो, मैं
तुम्हारी बिटिया की कक्षा-अध्यापिका को बुलाती हूँ।" वे पल जब तक उसकी बिटिया
की कक्षा-अध्यापिका प्रधानाचार्या के कार्यालय में पहुँची बहुत ही लंबे हो गए थे
गंगादास के लिए। सोच रहा था कि क्या उसकी बिटिया से कोई ग़लती हो गयी, कहीं मैडम उसे विद्यालय से निकाल तो नहीं रहीं। उसकी चिंता और बढ़ गयी थी।
कक्षा-अध्यापिका के पहुँचते ही
प्रधानाचार्या महोदया ने कहा, "हमने तुम्हारी बिटिया की प्रतिभा
को देखकर और परख कर ही उसे अपने विद्यालय में पढ़ने की अनुमति दी थी। अब ये मैडम इस
पेपर में जो लिखा है उसे पढ़कर और हिंदी में तुम्हें सुनाएँगी, ग़ौर से सुनो।"
कक्षा-अध्यापिका ने पेपर को पढ़ना
शुरू करने से पहले बताया, "आज मातृ दिवस था और आज मैंने कक्षा
में सभी बच्चों को अपनी अपनी माँ के बारे में एक लेख लिखने को कहा। तुम्हारी
बिटिया ने जो लिखा उसे सुनो।" उसके बाद कक्षा- अध्यापिका ने पेपर पढ़ना शुरू
किया।
"मैं एक गाँव में रहती थी, एक
ऐसा गाँव जहाँ शिक्षा और चिकित्सा की सुविधाओं का आज भी अभाव है। चिकित्सक के अभाव
में कितनी ही माँयें दम तोड़ देती हैं बच्चों के जन्म के समय। मेरी माँ भी उनमें से
एक थीं। उन्होंने मुझे छुआ भी नहीं कि चल बसीं। मेरे पिता ही वे पहले व्यक्ति थे
मेरे परिवार के जिन्होंने मुझे गोद में लिया। पर सच कहूँ तो मेरे परिवार के वे
अकेले व्यक्ति थे जिन्होंने मुझे गोद में उठाया था। बाक़ी की नज़र में तो मैं अपनी
माँ को खा गई थी। मेरे पिताजी ने मुझे माँ का प्यार दिया। मेरे दादा - दादी चाहते
थे कि मेरे पिताजी दुबारा विवाह करके एक पोते को इस दुनिया में लायें ताकि उनका
वंश आगे चल सके। परंतु मेरे पिताजी ने उनकी एक न सुनी और दुबारा विवाह करने से मना
कर दिया। इस वज़ह से मेरे दादा - दादीजी ने उनको अपने से अलग कर दिया और पिताजी सब
कुछ, ज़मीन, खेती बाड़ी, घर सुविधा आदि छोड़ कर मुझे साथ लेकर शहर चले आये और इसी विद्यालय में माली
का कार्य करने लगे। मुझे बहुत ही लाड़ प्यार से बड़ा करने लगे। मेरी ज़रूरतों पर माँ
की तरह हर पल उनका ध्यान रहता है।"
"आज मुझे समझ आता है कि वे
क्यों हर उस चीज़ को जो मुझे पसंद थी ये कह कर खाने से मना कर देते थे कि वह
उन्हें पसंद नहीं है, क्योंकि वह आख़िरी टुकड़ा होती थी। आज मुझे
बड़ा होने पर उनके इस त्याग के महत्त्व पता चला।"
"मेरे पिता ने अपनी क्षमताओं
में मेरी हर प्रकार की सुख - सुविधाओं का ध्यान रखा और मेरे विद्यालय ने उनको यह
सबसे बड़ा पुरस्कार दिया जो मुझे यहाँ निःशुल्क पढ़ने की अनुमति मिली। उस दिन मेरे
पिता की ख़ुशी का कोई ठिकाना न था।"
"यदि माँ, प्यार
और देखभाल करने का नाम है तो मेरी माँ मेरे पिताजी हैं।" "यदि दयाभाव,
माँ को परिभाषित करता है तो मेरे पिताजी उस परिभाषा के हिसाब से
पूरी तरह मेरी माँ हैं।"
"यदि त्याग, माँ
को परिभाषित करता है तो मेरे पिताजी इस वर्ग में भी सर्वोच्च स्थान पर हैं।"
"यदि संक्षेप में कहूँ कि प्यार, देखभाल, दयाभाव और त्याग माँ की पहचान है तो मेरे पिताजी उस पहचान पर खरे उतरते
हैं और मेरे पिताजी विश्व की सबसे अच्छी माँ हैं।"
आज मातृ दिवस पर मैं अपने पिताजी को
शुभकामनाएँ दूँगी और कहूँगी कि आप संसार के सबसे अच्छे पालक हैं। बहुत गर्व से
कहूँगी कि ये जो हमारे विद्यालय के परिश्रमी माली हैं, मेरे
पिता हैं।"
"मैं जानती हूँ कि मैं आज की
लेखन परीक्षा में असफल हो जाऊँगी। क्योंकि मुझे माँ पर लेख लिखना था और मैंने पिता
पर लिखा,पर यह बहुत ही छोटी सी क़ीमत होगी उस सब की जो मेरे पिता ने मेरे लिए
किया। धन्यवाद"। आख़िरी शब्द पढ़ते - पढ़ते अध्यापिका का गला भर आया था और
प्रधानाचार्या के कार्यालय में शांति छा गयी थी।
इस शांति में केवल गंगादास के
सिसकने की आवाज़ सुनाई दे रही थी। बग़ीचे में धूप की गर्मी उसकी कमीज़ को गीला न
कर सकी पर उस पेपर पर बिटिया के लिखे शब्दों ने उस कमीज़ को पिता के आँसुओं से
गीला कर दिया था। वह केवल हाथ जोड़ कर वहाँ खड़ा था। उसने उस पेपर को अध्यापिका से लिया और अपने
हृदय से लगाया और रो पड़ा।
प्रधानाचार्या ने खड़े होकर उसे एक
कुर्सी पर बैठाया और एक गिलास पानी दिया तथा कहा, "गंगादास
तुम्हारी बिटिया को इस लेख के लिए पूरे 10/10 नम्बर दिए गए है। यह लेख मेरे अब तक
के पूरे विद्यालय जीवन का सबसे अच्छा मातृ दिवस का लेख है। हम कल मातृ दिवस अपने
विद्यालय में बड़े ज़ोर - शोर से मना रहे हैं। इस दिवस पर विद्यालय एक बहुत बड़ा
कार्यक्रम आयोजित करने जा रहा है। विद्यालय की प्रबंधक कमेटी ने आपको इस कार्यक्रम
का मुख्य अतिथि बनाने का निर्णय लिया है। यह सम्मान होगा उस प्यार, देखभाल, दयाभाव और त्याग का जो एक आदमी अपने बच्चे
के पालन के लिए कर सकता है।
हमें गर्व है कि संसार का एक अच्छा
पिता हमारे विद्यालय में पढ़ने वाली बच्ची का पिता है जैसा कि आपकी बिटिया ने अपने
लेख में लिखा। गंगादास हमें गर्व है कि आप एक माली हैं और सच्चे अर्थों में माली
की तरह न केवल विद्यालय के बग़ीचे के फूलों की देखभाल की बल्कि अपने इस घर के फूल
को भी सदा ख़ुशबूदार बनाकर रखा जिसकी ख़ुशबू से हमारा विद्यालय महक उठा। तो क्या
आप हमारे विद्यालय के इस मातृ दिवस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि बनेंगे?"
रो पड़ा गंगादास और दौड़ कर बिटिया की
कक्षा के बाहर से आँसू भरी आँखों से निहारता रहा , अपनी प्यारी बिटिया
को।
👉 संघर्ष करना सिखाइए
बाज पक्षी जिसे हम ईगल या शाहीन भी
कहते है। जिस उम्र में बाकी परिंदों के बच्चे चिचियाना सीखते है उस उम्र में एक
मादा बाज अपने चूजे को पंजे में दबोच कर सबसे ऊंचा उड़ जाती है। पक्षियों की
दुनिया में ऐसी Tough and tight training किसी भी ओर की नही
होती।
मादा बाज अपने चूजे को लेकर लगभग 12 Km ऊपर ले जाती है। जितने ऊपर अमूमन जहाज उड़ा करते हैं और वह दूरी तय करने
में मादा बाज 7 से 9 मिनट का समय लेती है।
यहां से शुरू होती है उस नन्हें
चूजे की कठिन परीक्षा।
उसे अब यहां बताया जाएगा कि तू किस
लिए पैदा हुआ है?
तेरी दुनिया क्या है?
तेरी ऊंचाई क्या है?
तेरा धर्म बहुत ऊंचा है
और फिर मादा बाज उसे अपने पंजों से
छोड़ देती है।
धरती की ओर ऊपर से नीचे आते वक्त
लगभग 1
Km उस चूजे को आभास ही नहीं होता कि उसके साथ क्या हो रहा है।
6 Km के अंतराल के आने
के बाद उस चूजे के पंख जो कंजाइन से जकड़े होते है, वह खुलने
लगते है।
लगभग 8 Km आने के बाद उनके पंख पूरे खुल जाते है। यह जीवन का पहला दौर होता है जब
बाज का बच्चा पंख फड़फड़ाता है।
अब धरती से वह लगभग 1000 मीटर दूर
है ,लेकिन अभी वह उड़ना नहीं सीख पाया है। अब धरती के बिल्कुल करीब आता है
जहां से वह देख सकता है उसके स्वामित्व को।
अब उसकी दूरी धरती से महज 700/800
मीटर होती है लेकिन उसका पंख अभी इतना मजबूत नहीं हुआ है की वो उड़ सके।
धरती से लगभग 400/500 मीटर दूरी पर
उसे अब लगता है कि उसके जीवन की शायद अंतिम यात्रा है। फिर अचानक से एक पंजा उसे
आकर अपनी गिरफ्त मे लेता है और अपने पंखों के दरमियान समा लेता है।
यह पंजा उसकी मां का होता है जो ठीक
उसके उपर चिपक कर उड़ रही होती है और उसकी यह ट्रेनिंग निरंतर चलती रहती है जब तक
कि वह उड़ना नहीं सीख जाता।
यह ट्रेनिंग एक कमांडो की तरह होती
है। तब जाकर दुनिया को एक बाज़ मिलता है अपने से दस गुना अधिक वजनी प्राणी का भी
शिकार करता है।
हिंदी में एक कहावत है।।।
"बाज़ के बच्चे मुँडेर पर नही उड़ते।"
बेशक अपने बच्चों को अपने से चिपका
कर रखिए पर।।। उसे दुनियां की मुश्किलों से रूबरू कराइए, उन्हें
लड़ना सिखाइए। बिना आवश्यकता के भी संघर्ष करना सिखाइए।
अपने बच्चे को राष्ट्र व धर्म की
रक्षा के लिए सदैव तैयार रहना।। सिखाईये ।। आसान रास्तों के लिए गद्दार मुंडेरो पर
नहीं ।। देशभक्ति का संकल्प लेकर एक अनन्त
ऊंचाई तक ले जायें ।।।
ये TV के रियलिटी शो और
अंग्रेजी स्कूल की बसों ने मिलकर आपके बच्चों को "ब्रायलर मुर्गे" जैसा
बना दिया है जिसके पास मजबूत टंगड़ी तो है पर चल नही सकता। वजनदार पंख तो है पर
उड़ नही सकता क्योंकि।।।
"गमले के पौधे और जंगल के पौधे
में बहुत फ़र्क होता है।"
👉 तैरिये यही जीवन है:-
एक दिन एक लड़का समुद्र के किनारे
बैठा हुआ था। उसे दूर कहीं एक जहाज लंगर डाले खड़ा दिखाई दिया। वह जहाज तक तैर कर
जाने के लिए मचल उठा। तैरना तो जानता ही था, कूद पड़ा समुद्र में और
जहाज तक जा पहुंचा।
उसने जहाज के कई चक्कर लगाए। विजय
की खुशी और सफलता से उसका आत्मविश्वास और बढ़ गया लेकिन जैसे ही उसने वापस लौटने
के लिए किनारे की तरफ देखा तो उसे निराशा होने लगी। उसे लगा कि किनारा बहुत दूर
है।
वह सोचने लगा, वहां
तक कैसे पहुंचेगा? हाल में मिली सफलता के बाद अब निराशा ऐसी
बढ़ रही थी कि स्वयं पर अविश्वास-सा हो रहा था। जैसे-जैसे उसके मन में ऐसे विचार
आते रहे, उसका शरीर शिथिल होने लगा। फुर्तीला होने के बावजूद
बिना डूबे ही वह डूबता-सा महसूस करने लगा ।
लेकिन जैसे ही उसने संयत होकर अपने
विचारों को निराशा से आशा की तरफ मोड़ा, क्षण भर में ही जैसे कोई
चमत्कार होने लगा। उसे अपने भीतर त्वरित परिवर्तन अनुभव होने लगा। शरीर में एक नई
ऊर्जा का संचार हो गया। वह तैरते हुए सोच रहा था कि किनारे तक न पहुंच पाने का
मतलब है, मर जाना और किनारे तक पहुंचने का प्रयास है,
डूब कर मरने से पहले का संघर्ष।
इस सोच से जैसे उसे कोई संजीवनी ही
मिल गई। उसने सोचा कि जब डूबना ही है तो फिर सफलता के लिए संघर्ष क्यों न किया
जाए।
उसके भीतर के भय का स्थान विश्वास
ने ले लिया। इसी संकल्प के साथ वह तैरते हुए किनारे तक पहुंचने में सफल हो गया। इस
घटना ने उसे जीवन की राह में आगे चल कर भी बहुत प्रेरित किया। यही लड़का आगे चल कर
विख्यात ब्रिटिश लेखक मार्क रदरफोर्ड के नाम से जाना गया।
👉 'यार' की
तौहीन
एक बार एक संत अपने चेले के साथ
किसी कीचड़ भरे रास्ते पर जा रहा था, उसी रास्ते पर एक अमीरजादा
अपनी प्रेमिका के साथ जा रहा था, जब संत उस के पास से गुजरा
तो कुछ छींटे अमीरजादे की प्रेमिका पर पड़ गए।
अमीरजादे ने गुस्से में दो तीन
चांटे उस संत को जड़ दिए, संत चुपचाप आगे चला गया, संत के चेले ने पूछा आप ने उसे कुछ कहा क्यों नहीं, इस
पर भी संत चुप रहे, पीछे चलता अमीरजादा अचानक फिसल कर कीचड़
में गिर गया और बुरी तरह से लिबड़ गया, साथ ही उसकी एक बाजु
भी टूट गई, तब संत ने अपने चेले से कहा देख:- जैसे वो 'अमीरजादा' अपनी 'यार' की तौहीन नहीं देख सका, ठीक उसी तरह ऊपर बैठा
"वो ऊपर वाला" भी अपने 'यार' की तौहीन नहीं देख सकता।
👉 स्वार्थी इक्कड़ की दुर्गति
एक हाथी बड़ा स्वार्थी और अहंकारी
था। दल के साथ रहने की अपेक्षा वह अकेला रहने लगा। अकेले में दुष्टता उपजती है, वे
सब उसमें भी आ गयीं। एक बटेर ने छोटी झाड़ी में अंडे दिए। हाथियों का झुंड आते
देखकर बटेर ने उसे नमन किया और दलपति से उसके अंडे बचा देने की प्रार्थना की। हाथी
भला था। उसने चारों पैरों के बीच झाड़ी छुपा ली और झुंड को आगे बढ़ा दिया। अंडे तो
बच गए परं उसने बटेर को चेतावनी दी कि एक इक्कड़ हाथी पीछे आता होगा, जो अकेला रहता है और दुष्ट हैं उसने अंडे बचाना तुम्हारा काम है। थोड़ी देर
में वह आ ही पहुँचा। उसने बटेर की प्रार्थना अनसुनी करके जान- बूझ कर अंडे कुचल
डाले।
बटेर ने सोचा कि दुष्ट को मजा न
चखाया तो वह अन्य अनेक का अनर्थ करेगा। उसने अपने पड़ोसी कौवे तथा मेढक से
प्रार्थना की। आप लोग सहायता करें तो हाथी को नीचा दिखाया जा सकता है। योजना बन
गई। कौवे ने उड़-उड़ कर हाथी की आँखें फोड़ दी। वह प्यासा भी था।
मेढक पहाड़ी की चोटी पर टर्राया।
हाथी ने वहाँ पानी होने का अनुमान लगाया और चढ़ गया । अब मेढक नीचे आ गया और वहाँ
टर्राया। हाथी ने नीचे पानी होने का अनुमान लगाया और नीचे को उतर चला। पैर फिसल
जाने से वह खड्ड में गिरा और मर गया।
एकाकी स्वार्थ-परायणों को इसी
प्रकार नीचा देखना पड़ता है ।
📖 प्रज्ञा पुराण भाग 2 पृष्ठ 8
👉 अभिमान
एक घर के मुखिया को यह अभिमान हो
गया कि उसके बिना उसके परिवार का काम नहीं चल सकता। उसकी छोटी सी दुकान थी। उससे
जो आय होती थी, उसी से उसके परिवार का गुजारा चलता था। चूंकि कमाने वाला
वह अकेला ही था इसलिए उसे लगता था कि उसके बगैर कुछ नहीं हो सकता। वह लोगों के
सामने डींग हांका करता था।
एक दिन वह एक संत के सत्संग में
पहुंचा। संत कह रहे थे, “दुनिया में किसी के बिना किसी का काम नहीं
रुकता। यह अभिमान व्यर्थ है कि मेरे बिना परिवार या समाज ठहर जाएगा। सभी को अपने
भाग्य के अनुसार प्राप्त होता है।” सत्संग समाप्त होने के बाद मुखिया ने संत से
कहा, “मैं दिन भर कमाकर जो पैसे लाता हूं उसी से मेरे घर का
खर्च चलता है। मेरे बिना तो मेरे परिवार के लोग भूखे मर जाएंगे।” संत बोले,
“यह तुम्हारा भ्रम है। हर कोई अपने भाग्य का खाता है।” इस पर मुखिया
ने कहा, “आप इसे प्रमाणित करके दिखाइए।” संत ने कहा,
“ठीक है। तुम बिना किसी को बताए घर से एक महीने के लिए गायब हो
जाओ।” उसने ऐसा ही किया। संत ने यह बात फैला दी कि उसे बाघ ने अपना भोजन बना लिया
है।
मुखिया के परिवार वाले कई दिनों तक
शोक संतप्त रहे। गांव वाले आखिरकार उनकी मदद के लिए सामने आए। एक सेठ ने उसके बड़े
लड़के को अपने यहां नौकरी दे दी। गांव वालों ने मिलकर लड़की की शादी कर दी। एक
व्यक्ति छोटे बेटे की पढ़ाई का खर्च देने को तैयार हो गया।
एक महीने बाद मुखिया छिपता-छिपाता
रात के वक्त अपने घर आया। घर वालों ने भूत समझकर दरवाजा नहीं खोला। जब वह बहुत
गिड़गिड़ाया और उसने सारी बातें बताईं तो उसकी पत्नी ने दरवाजे के भीतर से ही
उत्तर दिया, ‘हमें तुम्हारी जरूरत नहीं है। अब हम पहले से ज्यादा
सुखी हैं।’ उस व्यक्ति का सारा अभिमान चूर-चूर हो गया।
संसार किसी के लिए भी नही रुकता!!
यहाँ सभी के बिना काम चल सकता है संसार सदा से चला आ रहा है और चलता रहेगा। जगत को चलाने की हाम भरने वाले बडे बडे सम्राट, मिट्टी
हो गए, जगत उनके बिना भी चला है। इसलिए अपने बल का, अपने धन का, अपने कार्यों का, अपने
ज्ञान का गर्व व्यर्थ है।
👉 घर
"रेनू की शादी हुये, पाँच
साल हो गयें थें, उसके पति थोड़ा कम बोलते थे पर बड़े सुशील
और संस्कारी थें, माता_पिता जैसे सास,
ससुर और एक छोटी सी नंनद, और एक नन्ही सी परी,
भरा पूरा परिवार था, दिन खुशी से बित रहा था।
आज रेनू बीते दिनों को लेकर बैठी थी, कैसे
उसके पिताजी ने बिना माँगे 30 लाख रूपयें अपने दामाद के नाम कर दियें, जिससे उसकी बेटी खुश रहे, कैसे उसके माता_पिता ने बड़ी धूमधाम से उसकी शादी की, बहुत ही
आनंदमय तरीके से रेनू का विवाह हुआ था।
खैर बात ये नही थी, बात
तो ये थी, रेनू के
बड़े भाई ने, अपने माता-पिता को घर से निकाल दिया था,
क्यूकि पैसे तो उनके पास बचे नही थें, जितने
थे उन्होने रेनू की शादी में लगा दियें थे, फिर भला बच्चे
माँ_बाप को क्यू रखने लगे, रेनू के
माता पिता एक मंदिर मे रूके थे, रेनू आज उनसे मिल के आयी थी,
और बड़ी उदास रहने लगी थी, आखिर लड़की थी,
अपने माता_पिता के लिए कैसे दुख नही होता,
कितने नाजों से पाला था, उसके पिताजी ने
बिल्कुल अपनी गुडिया बनाकर रखा था, आज वही माता_पिता मंदिर के किसी कोने में भूखे प्यासे पड़ें थे।
रेनू अपने पति से बात करना चाहती थी, वो
अपने माता_पिता को घर ले आए, पर वहाँ
हिम्मत नही कर पा रही थी, क्यूकि उनके पति कम बोलते थे,
अधिकतर चुप रहते थे, जैसे तैसे रात हुई रेनू
के पति और पूरा परिवार खाने के टेबल पर बैठा था, रेनू की ऑखे
सहमी थी, उसने डरते हुये अपने पति से कहा, सुनिये जी, भाईया भाभी ने मम्मी-पापा को घर से निकाल
दिया हैं, वो मंदिर में पड़े है, आप
कहें तो उनको घर ले आऊ, रेनू के पति ने कुछ नही कहा, और खाना खत्म कर के अपने कमरे में चला गया, सब लोग
अभी तक खाना खा रहे थे, पर रेनू के मुख से एक निवाला भी नही
उतरा था, उसे बस यही चिंता सता रही थी अब क्या होगा, इन्होने भी कुछ नही कहा, रेनू रूहासी सी ऑख लिए सबको
खाना परोस रही थी।
थोड़ी देर बाद रेनू के पति कमरे से
बाहर आए,
और रेनू के हाथ में नोटो का बंडल देते हुये कहा, इससे मम्मी, डैडी के लिए एक घर खरीद दो, और उनसे कहना, वो किसी बात की फ्रिक ना करें मैं हूं,
रेनू ने बात काटते हुये कहा, आपके पास इतने
पैसे कहा से आए जी?
रेनू के पति ने कहा, ये
तुम्हारे पापा के दिये गये ही पैसे है, मेरे नही थे, इसलिए मैंने हाथ तक नही लगाए, वैसे भी उन्होने ये
पैसे मुझे जबरदस्ती दिये थे, शायद उनको पता था एक दिन ऐसा
आयेगा, रेनू के सास_ससुर अपने बेटे को
गर्व भरी नजरो से देखने लगें, और उनके बेटे ने भी उनसे कहा,
अम्मा जी बाबूजी सब ठीक है ना?
उसके अम्मा बाबूजी ने कहा बड़ा नेक
ख्याल है बेटा, हम तुम्हें बचपन से जानते हैं, तुझे
पता है, अगर बहू अपने माता_पिता को घर
ले आयी, तो उनके माता पिता शर्म से सर नही उठा पायेंगे,
की बेटी के घर में रह रहे, और जी नही पाएगें,
इसलिए तुमने अलग घर दिलाने का फैसला किया हैं, और रही बात इस दहेज के पैसे की, तो हमें कभी इसकी
जरूरत नही पड़ी, क्यूकि तुमने कभी हमें किसी चीज की कमी होने
नही दी, खुश रहो बेटा कहकर रेनू और उसके पति को छोड़ सब सोने
चले गयें।
रेनू के पति ने फिर कहा, अगर
और तुम्हें पैसों की जरूरत हो तो मुझे बताना, और अपने माता_पिता को बिल्कुल मत बताना घर खरीदने को पैसे कहा से आए, कुछ भी बहाना कर देना, वरना वो अपने को दिल ही दिल
में कोसते रहेंगें, चलो अच्छा अब मैं सोने जा रहा, मुझे सुबह दफ्तर जाना हैं, रेनू का पति कमरे में चला
गया, और रेनू खुद को कोसने लगी, मन ही
मन ना जाने उसने क्या क्या सोच लिया था, मेरे पति ने दहेज के
पैसे लिए है, क्या वो मदद नही करेंगे करना ही पड़ेगा,
वरना मैं भी उनके माँ-बाप की सेवा नही करूगी, रेनू
सब समझ चुकी थी, की उसके पति कम बोलते हैं, पर उससे ज्यादा कही समझतें हैं।
रेनू उठी और अपने पति के पास गयी, माफी
मांगने, उसने अपने पति से सब बता दिया, उसके पति ने कहा कोई बात नही होता हैं, तुम्हारे जगह
मैं भी होता तो यही सोचता, रेनू की खुशी का कोई ठिकाना नही
था, एक तरफ उसके माँ_बाप की परेशानी
दूर दूसरी तरफ, उसके पति ने माफ कर दिया।
रेनू ने खुश और शरमाते हुये अपने
पति से कहा, मैं आपको गले लगा लूं, उसके पति ने
हट्टहास करते हुये कहा, मुझे अपने कपड़े गंदे नही करने,
दोनो हंसने लगें।
और शायद रेनू को अपने कम बोलने
वालें पति का ज्यादा प्यार समझ आ गया,,,,,,,,,
👉 स्वर्ग का देवता
लक्ष्मी नारायण बहुत भोला लड़का था।
वह प्रतिदिन रात में सोने से पहले अपनी दादी से कहानी सुनाने को कहता था। दादी उसे
नागलोक,
पाताल, गन्धर्व लोक, चन्द्रलोक,
सूर्यलोक आदि की कहानियाँ सुनाया करती थी।
एक दिन दादी ने उसे स्वर्ग का वर्णन
सुनाया। स्वर्ग का वर्णन इतना सुन्दर था कि उसे सुनकर लक्ष्मी नारायण स्वर्ग देखने
के लिये हठ करने लगा। दादी ने उसे बहुत समझाया कि मनुष्य स्वर्ग नहीं देख सकता, किन्तु
लक्ष्मीनारायण रोने लगा। रोते- रोते ही वह सो गया।
उसे स्वप्न में दिखायी पड़ा कि एक
चम- चम चमकते देवता उसके पास खड़े होकर कह रहे हैं- बच्चे ! स्वर्ग देखने के लिये
मूल्य देना पड़ता है। तुम सरकस देखने जाते हो तो टिकट देते हो न? स्वर्ग
देखने के लिये भी तुम्हें उसी प्रकार रुपये देने पड़ेंगे।
स्वप्न में लक्ष्मीनारायण सोचने लगा
कि मैं दादी से रुपये माँगूँगा। लेकिन देवता ने कहा- स्वर्ग में तुम्हारे रुपये
नहीं चलते। यहाँ तो भलाई और पुण्य कर्मों का रुपया चलता है।
अच्छा, काम
करोगे तो एक रुपया इसमें आ जायगा और जब कोई बुरा काम करोगे तो एक रुपया इसमें से
उड़ जायगा। जब यह डिबिया भर जायगी, तब तुम स्वर्ग देख सकोगे।
जब लक्ष्मीनारायण की नींद टूटी तो
उसने अपने सिरहाने सचमुच एक डिबिया देखी। डिबिया लेकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ। उस दिन
उसकी दादी ने उसे एक पैसा दिया। पैसा लेकर वह घर से निकला।
एक रोगी भिखारी उससे पैसा माँगने
लगा। लक्ष्मीनारायण भिखारी को बिना पैसा दिये भाग जाना चाहता था, इतने
में उसने अपने अध्यापक को सामने से आते देखा। उसके अध्यापक उदार लड़कों की बहुत
प्रशंसा किया करते थे। उन्हें देखकर लक्ष्मीनारायण ने भिखारी को पैसा दे दिया।
अध्यापक ने उसकी पीठ ठोंकी और प्रशंसा की।
घर लौटकर लक्ष्मीनारायण ने वह
डिबिया खोली, किन्तु वह खाली पड़ी थी। इस बात से लक्ष्मी नारायण को
बहुत दुःख हुआ। वह रोते- रोते सो गया। सपने में उसे वही देवता फिर दिखायी पड़े और
बोले- तुमने अध्यापक से प्रशंसा पाने के लिये पैसा दिया था, सो
प्रशंसा मिल गयी।
अब रोते क्यों हो ? किसी
लाभ की आशा से जो अच्छा काम किया जाता है, वह तो व्यापार है,
वह पुण्य थोड़े ही है। दूसरे दिन लक्ष्मीनारायण को उसकी दादी ने दो
आने पैसे दिये। पैसे लेकर उसने बाजार जाकर दो संतरे खरीदे।
उसका साथी मोतीलाल बीमार था। बाजार
से लौटते समय वह अपने मित्र को देखने उसके घर चला गया। मोतीलाल को देखने उसके घर
वैद्य आये थे। वैद्य जी ने दवा देकर मोती लाल की माता से कहा- इसे आज संतरे का रस
देना।
मोतीलाल की माता बहुत गरीब थी। वह
रोने लगी और बोली- ‘मैं मजदूरी करके पेट भरती हूँ। इस समय बेटे की बीमारी में कई
दिन से काम करने नहीं जा सकी। मेरे पास संतरे खरीदने के लिये एक भी पैसा नहीं है।’
लक्ष्मीनारायण ने अपने दोनों संतरे
मोतीलाल की माँ को दिये। वह लक्ष्मीनारायण को आशीर्वाद देने लगी। घर आकर जब
लक्ष्मीनारायण ने अपनी डिबिया खोली तो उसमें दो रुपये चमक रहे थे।
एक दिन लक्ष्मीनारायण खेल में लगा
था। उसकी छोटी बहिन वहाँ आयी और उसके खिलौनों को उठाने लगी। लक्ष्मीनारायण ने उसे
रोका। जब वह न मानी तो उसने उसे पीट दिया।
बेचारी लड़की रोने लगी। इस बार जब
उसने डिबिया खोली तो देखा कि उसके पहले के इकट्ठे कई रुपये उड़ गये हैं। अब उसे बड़ा
पश्चाताप हुआ। उसने आगे कोई बुरा काम न करने का पक्का निश्चय कर लिया।
मनुष्य जैसे काम करता है, वैसा
उसका स्वभाव हो जाता है। जो बुरे काम करता है, उसका स्वभाव
बुरा हो जाता है। उसे फिर बुरा काम करने में ही आनन्द आता है। जो अच्छा काम करता
है, उसका स्वभाव अच्छा हो जाता है। उसे बुरा काम करने की बात
भी बुरी लगती है।
लक्ष्मीनारायण पहले रुपये के लोभ से
अच्छा काम करता था। धीरे- धीरे उसका स्वभाव ही अच्छा काम करने का हो गया। अच्छा
काम करते- करते उसकी डिबिया रुपयों से भर गयी। स्वर्ग देखने की आशा से प्रसन्न
होता,
उस डिबिया को लेकर वह अपने बगीचे में पहुँचा।
लक्ष्मीनारायण ने देखा कि बगीचे में
पेड़ के नीचे बैठा हुआ एक बूढ़ा साधु रो रहा है। वह दौड़ता हुआ साधु के पास गया और
बोला- बाबा ! आप क्यों रो रहे है? साधु बोला- बेटा जैसी डिबिया तुम्हारे
हाथ में है, वैसी ही एक डिबिया मेरे पास थी। बहुत दिन
परिश्रम करके मैंने उसे रुपयों से भरा था।
बड़ी आशा थी कि उसके रुपयों से
स्वर्ग देखूँगा, किन्तु आज गंगा जी में स्नान करते समय वह डिबिया पानी
में गिर गयी। लक्ष्मी नारायण ने कहा- बाबा ! आप रोओ मत। मेरी डिबिया भी भरी हुई
है। आप इसे ले लो।
साधु बोला- तुमने इसे बड़े परिश्रम
से भरा है, इसे देने से तुम्हें दुःख होगा। लक्ष्मी नारायण ने कहा-
मुझे दुःख नहीं होगा बाबा ! मैं तो लड़का हूँ। मुझे तो अभी बहुत दिन जीना है। मैं
तो ऐसी कई डिबिया रुपये इकट्ठे कर सकता हुँ। आप बूढ़े हो गये हैं। आप मेरी डिबिया
ले लीजिये।
साधु ने डिबिया लेकर लक्ष्मीनारायण
के नेत्रों पर हाथ फेर दिया। लक्ष्मीनारायण के नेत्र बंद हो गये। उसे स्वर्ग
दिखायी पड़ने लगा। ऐसा सुन्दर स्वर्ग कि दादी ने जो स्वर्ग का वर्णन किया था, वह
वर्णन तो स्वर्ग के एक कोने का भी ठीक वर्णन नहीं था।
जब लक्ष्मीनारायण ने नेत्र खोले तो
साधु के बदले स्वप्न में दिखायी पड़ने वाला वही देवता उसके सामने प्रत्यक्ष खड़ा था।
देवता ने कहा- बेटा ! जो लोग अच्छे काम करते हैं, उनका घर स्वर्ग बन
जाता है। तुम इसी प्रकार जीवन में भलाई करते रहोगे तो अन्त में स्वर्ग में पहुँच
जाओगे।’ देवता इतना कहकर वहीं अदृश्य हो गये।
👉 परोपकार:-
एक अमीर आदमी विभिन्न मंदिरों में
जन कल्याणकारी कार्यो के लिए धन देता था। विभिन्न उत्सवों व त्योहारों पर भी वह
दिल खोलकर खर्च करता। शहर के लगभग सभी मंदिर उसके दिए दान से उपकृत थे। इसीलिए लोग
उसे काफी इज्जत देते थे।
उस संपन्न व्यक्ति ने एक नियम बना
रखा था कि वह प्रतिदिन मंदिर में शुद्ध घी का दीपक जलाता था। दूसरी ओर एक निर्धन
व्यक्ति था नित्य तेल का दीपक जलाकर एक अंधेरी गली में रख देता था। जिससे लोगों को
आने-जाने में असुविधा न हो। संयोग से दोनों की मृत्यु एक ही दिन हुई। दोनों यमराज
के पास साथ-साथ पहुंचे। यमराज ने दोनों से उनके द्वारा किए गए कार्यो का लेखा-जोखा
पूछा। सारी बात सुनकर यमराज ने धनिक को निम्न श्रेणी और निर्धन को उच्च श्रेणी की
सुख-सुविधाएं दीं।
धनिक ने क्रोधित होकर पूछा- “यह
भेदभाव क्यों? जबकि मैंने आजीवन भगवान के मंदिर में शुद्ध घी का दीपक
जलाया और इसने तेल का दीपक रखा। वह भी अंधेरी गली में, न कि
भगवान के समक्ष?”
तब यमराज ने समझाया- “पुण्य की
महत्ता मूल्य के आधार पर नहीं, कर्म की उपयोगिता के आधार पर होती है।
मंदिर तो पहले से ही प्रकाशयुक्त था। जबकि इस निर्धन ने ऐसे स्थान पर दीपक जलाकर
रखा, जिसका लाभ अंधेरे में जाने वाले लोगों को मिला।
उपयोगिता इसके दीपक की अधिक रही। तुमने तो अपना परलोक सुधारने के स्वार्थ से दीपक
जलाया था।“
सार यह है कि ईश्वर के प्रति
स्वहितार्थ प्रदर्शित भक्ति की अपेक्षा परहितार्थ कार्य करना अधिक पुण्यदायी होता
है और ऐसा करने वाला ही सही मायनों में पुण्यात्मा होता है क्योंकि ‘स्व’ से ‘पर’
सदा वंदनीय होता है।
इसके अतिरिक्त कुछ लोग सिर्फ मंदिर
को ही भगवान का घर और विषेश आवरण धारीयों को ही ईश्वर के निकटवर्ती मान लेते हैं। जबकि
इतनी बडी दुनिया बनाने वाले का सिर्फ मंदिर में समेट देना उचित नहीं।
मंदिर पूजा गृह हैं जहाँ हम अपने
अंतःवासी भगवान से मिलते हैं, अतः मंदिर में दिया स्वयं को दिया हो
जाता है।।। पर भगवान कण-कण वासी हैं उनकी सेवा के लिये मंदिर के बाहर आना होगा,
और जीव मात्र, चर-अचर जगत की सेवा और सत्कार
का भाव तन-मन में जगाना होगा।
👉 अंतर ज्योति:-
किसी नगर में एक सेठ रहता था। उसके
पास अपार धन-संपत्ति थी, विशाल हवेली थी, नौकर-चाकर
थे, सब तरह का आराम था, फिर भी उसका मन
अशांत रहता था। हर घड़ी उसे कोई-न-कोई चिंता घेरे रहती थी। सेठ उदास रहता।
जब उसकी हालत बहुत खराब होने लगी तो
एक दिन उसके एक मित्र ने उसे शहर से कुछ दूर आश्रम में रहने वाले साधु के पास जाने
की सलाह दी। कहा- "वह पहुंचा हुआ साधु है। कैसा भी दुख लेकर जाओ, दूर
कर देता है।"
सेठ साधु के पास गया। अपनी सारी
मुसीबत सुनाकर बोला- "स्वामीजी, मैं जिंदगी से बेजार हो
गया हूँ। मुझे बचाइए।"
साधु ने कहा - "घबराओ नहीं।
तुम्हारी सारी अशांति दूर हो जाएगी। प्रभु के चरणों में लौ लगाओ।"
उसने तब ध्यान करने की सलाह दी और उसकी
विधि भी समझा दी, लेकिन सेठ का मन उसमें नहीं रमा। वह ज्योंही
जप का ध्यान करने बैठता, उसका मन कुरंग-चौकड़ी भरने लगता। इस
तरह कई दिन बीत गए। उसने साधु को अपनी परेशानी बताई, पर साधु
ने कुछ नहीं कहा। चुप रह गए।
एक दिन सेठ साधु के साथ आश्रम में
घूम रहा था कि उसके पैर में एक कांटा चुभ गया। सेठ वहीं बैठ गया और पैर पकड़कर
चिल्लाने लगा - "स्वामीजी, मैं क्या करूं? बड़ा
दर्द हो रहा है।"
साधु ने कहा - "चिल्लाते क्यों
हो? कांटे को निकाल दो।"
सेठ ने जी कड़ा करके कांटे को निकाल
दिया। उसे चैन पड़ गया।
साधु ने तब गंभीर होकर कहा -
"सेठ तुम्हारे पैर में जरा-सा कांटा चुभा कि तुम बेहाल हो गए, लेकिन
यह तो सोचो कि तुम्हारे भीतर कितने बड़े-बड़े कांटे चुभे हुए हैं। लोभ के, मोह के, क्रोध के, ईर्ष्या के,
देश के और न जाने किस-किस के। जब तक तुम उन्हें नहीं उखाड़ोगे,
तुम्हें शांति कैसे मिलेगी?"
साधु के इन शब्दों ने सेठ के अंतर
में ज्योति जला दी। उसके अज्ञान का अंधकार दूर हो गया। ज्ञान का प्रकाश फैल गया।
उसे शांति का रास्ता मिल गया।
👉 मेरी बहन
बाजार से घर लौटते वक्त एक लड़की का
कुछ खाने का मन किया तो, वह रास्ते में खड़े ठेले वाले के पास
भेलपूरी लेने के लिए रूक गयी। उसे अकेली खड़ी देख, पास ही
बनी एक पान की दुकान पर खड़े कुछ मनचले भी वहाँ आ गये।
उन लड़कों की घूरती आँखे लड़की को
असहज कर रही थी, पर वह ठेले वाले को पहले पैसे दे चुकी थी, इसलिए मन कड़ा करके खड़ी रही। द्विअर्थी (Double meaning) गानों के बोल के साथ साथ आँखों में लगी अदृश्य (Invisible) दूरबीन से सब लड़के उसकी शारीरीक सरंचना का निरिक्षण कर रहे थे।
उकताकर वह कभी दुपट्टे को सही करती
तो कभी ठेले वाले से और जल्दी करने को कहती। उन मनचलों की जुगलबंदी अभी चल ही रही
थी कि कबाब में हड्डी की तरह एक बाईक सवार युवक वहाँ आकर रूका। बाईक सवार युवक ने
लड़की से कहा :- "अरे पूनम।।। तू यहाँ क्या कर रही है ?
हम्म।।! अपने भाई से छुपकर पेट पूजा
हो रही है। संभावित खतरे को भाँपकर वो सभी मनचले तुरंत इधर उधर खिसक लिये।
समस्या से मिले अनपेक्षित समाधान से
लड़की ने राहत की साँस ली फिर असमंजस भरे भाव के साथ उस बाईक सवार युवक से कहा
":- माफ किजिए, मेरा नाम एकता है।
आपको शायद गलतफहमी हुई है, मैं
आपकी बहन नही हूँ।" "मैं जानता हूँ।।।! मगर किसी की तो बहन हो।।"
इतना कहकर युवक ने मुस्कुराते हुए हेलमेट पहना और अपने रास्ते चल दिया।
हम में से बहुत से लोग रोज आते जाते
रास्तों पर ऐसे नजारे देखते हैं, जहाँ कुछ सड़क छाप रोमियों आते जाते
लड़कियों पर कमेंट करते हैं, लेकिन हम लोग अपनी आँखें ये सोच
कर बंद कर लेते हैं, वो कौन सी मेरी बहन लगती हैं???
और अगर वो सच में आप की बहन हो तब?? अगर
उस लड़की की जगह आप की बहन होती और बचाने वाला लड़का भी यही सब सोचता तो?
लोग लड़कियों को परेशान करने की
हिम्मत तब ही कर पाते हैं, जब हम जैसे लोग अन्धे व बहरे बन जाते हैं।
मित्रों हमारा आप सभी से एक निवेदन
है कि अगर आप रास्ते में किसी भी लड़की को परेशान होते हुए देखें तो उसकी मदद वैसे
ही करें जैसे आप अपनी बहन की करते हैं।।।।।
प्याले में समुद्र:-
यूनानी दार्शनिक सुकरात समंदर के
किनारे टहल रहे थे। उनकी नजर रेत पर बैठे एक अबोध बालक पर पड़ी, जो
रो रहा था। सुकरात ने रोते हुए बालक का सिर सहलाते हुए उससे रोने का कारण पूछा।
बालक ने कहा, ‘यह जो मेरे हाथ में प्याला है, इसमें मैं समुद्र के सारे पानी को भरना चाहता हूं, किंतु
यह मेरे प्याले में समाता ही नहीं।’ बालक की बात सुनकर सुकरात की आंखों में आंसू आ
गए।
सुकरात को रोता देख, रोता
हुआ बालक शांत हो गया और चकित होकर पूछने लगा, ‘आप भी मेरी
तरह रोने लगे, पर आपका प्याला कहां है?’ सुकरात ने जवाब दिया, ‘बच्चे, तू
छोटे से प्याले में समुद्र भरना चाहता है, और मैं अपनी छोटी
सी बुद्धि में संसार की तमाम जानकारियां भरना चाहता हूं।’ बालक को सुकरात की बातें
कितनी समझ में आईं यह तो पता नहीं, लेकिन दो पल असमंजस में
रहने के बाद उसने अपना प्याला समंदर में फेंक दिया और बोला, ‘सागर यदि तू मेरे प्याले में नहीं समा सकता, तो मेरा
प्याला तो तेरे में समा सकता है।’
बच्चे की इस हरकत ने सुकरात की
आंखें खोल दीं। उन्हें एक कीमती सूत्र हाथ लग गया था। सुकरात ने दोनों हाथ आकाश की
ओर उठाकर कहा, ‘हे परमेश्वर, आपका असीम ज्ञान व
आपका विराट अस्तित्व तो मेरी बुद्धि में नहीं समा सकता, किंतु
मैं अपने संपूर्ण अस्तित्व के साथ आपमें जरूर लीन हो सकता हूं।’
दरअसल, सुकरात
को परमात्मा ने बालक के माध्यम से ज्ञान दे दिया। जिस सुकरात से मिलने के लिए
बड़े-बड़े विद्वानों को समय लेना पड़ता था, उसे एक अबोध बालक
ने परमात्मा का मार्ग बता दिया था। असलियत में परमात्मा जब आपको अपनी शरण में लेता
है, यानि जब आप ईश्वर की कृपादृष्टि के पात्र बनते हैं तो
उसकी एक खास पहचान यह है कि आपके अंदर का ‘मैं’ मिट जाता है। आपका अहंकार ईश्वर के
अस्तित्व में विलीन हो जाता है।
‘मैं-पन’ का भाव छूटते ही हमारे
समस्त प्रकार के पूर्वाग्रह, अपराधबोध, तनाव,
व्यग्रता और विकृतियों का ईश्वरीय चेतना में रूपांतरण हो जाता है।
दरअसल, हरेक व्यक्ति को कई बार अपने जीवन में परमात्मा की
अनुभूति होती है। जितना हमारा जीवन सहज-सरल, व पावन-पवित्र
होता जाता है, उतना ही परमात्मा प्रसाद-स्वरूप हमारे जीवन
में समाहित होता जाता है।
👉 "त्याग का फल"
"भैया, परसों
नये मकान पे हवन है। छुट्टी (इतवार) का दिन है। आप सभी को आना है, मैं गाड़ी भेज दूँगा।" छोटे भाई लक्ष्मण ने बड़े भाई भरत से मोबाईल पर
बात करते हुए कहा।
"क्या छोटे, किराये
के किसी दूसरे मकान में शिफ्ट हो रहे हो?" " नहीं
भैया, ये अपना मकान है, किराये का नहीं
। " अपना मकान", भरपूर आश्चर्य के साथ भरत के मुँह
से निकला। "छोटे तूने बताया भी नहीं कि तूने अपना मकान ले लिया है।"
" बस भैया", कहते हुए लक्ष्मण ने फोन काट दिया।
"अपना मकान", " बस भैया " ये शब्द भरत के दिमाग़ में हथौड़े की तरह बज रहे थे।
भरत और लक्ष्मण दो सगे भाई और उन
दोनों में उम्र का अंतर था करीब पन्द्रह साल। लक्ष्मण जब करीब सात साल का था तभी
उनके माँ-बाप की एक दुर्घटना में मौत हो गयी। अब लक्ष्मण के पालन-पोषण की सारी
जिम्मेदारी भरत पर थी। इस चक्कर में उसने जल्द ही शादी कर ली कि जिससे लक्ष्मण की
देख-रेख ठीक से हो जाये।
प्राईवेट कम्पनी में क्लर्क का काम
करते भरत की तनख़्वाह का बड़ा हिस्सा दो कमरे के किराये के मकान और लक्ष्मण की पढ़ाई
व रहन-सहन में खर्च हो जाता। इस चक्कर में शादी के कई साल बाद तक भी भरत ने बच्चे
पैदा नहीं किये। जितना बड़ा परिवार उतना ज्यादा खर्चा।
पढ़ाई पूरी होते ही लक्ष्मण की नौकरी
एक अच्छी कम्पनी में लग गयी और फिर जल्द शादी भी हो गयी। बड़े भाई के साथ रहने की
जगह कम पड़ने के कारण उसने एक दूसरा किराये का मकान ले लिया। वैसे भी अब भरत के पास
भी दो बच्चे थे, लड़की बड़ी और लड़का छोटा।
मकान लेने की बात जब भरत ने अपनी
बीबी को बताई तो उसकी आँखों में आँसू आ गये। वो बोली, " देवर जी के लिये हमने क्या नहीं किया। कभी अपने बच्चों को बढ़िया नहीं
पहनाया। कभी घर में महँगी सब्जी या महँगे फल नहीं आये। दुःख इस बात का नहीं कि
उन्होंने अपना मकान ले लिया, दुःख इस बात का है कि ये बात
उन्होंने हम से छिपा के रखी।"
इतवार की सुबह लक्ष्मण द्वारा भेजी
गाड़ी,
भरत के परिवार को लेकर एक सुन्दर से मकान के आगे खड़ी हो गयी। मकान
को देखकर भरत के मन में एक हूक सी उठी। मकान बाहर से जितना सुन्दर था अन्दर उससे
भी ज्यादा सुन्दर। हर तरह की सुख-सुविधा का पूरा इन्तजाम। उस मकान के दो एक जैसे
हिस्से देखकर भरत ने मन ही मन कहा, " देखो छोटे को अपने
दोनों लड़कों की कितनी चिन्ता है। दोनों के लिये अभी से एक जैसे दो हिस्से (portion)
तैयार कराये हैं। पूरा मकान सवा-डेढ़ करोड़ रूपयों से कम नहीं होगा।
और एक मैं हूँ, जिसके पास जवान बेटी की शादी के लिये लाख-दो
लाख रूपयों का इन्तजाम भी नहीं है।"
मकान देखते समय भरत की आँखों में
आँसू थे जिन्हें उन्होंने बड़ी मुश्किल से बाहर आने से रोका। तभी पण्डित जी ने आवाज
लगाई,
" हवन का समय हो रहा है, मकान के स्वामी
हवन के लिये अग्नि-कुण्ड के सामने बैठें।"
लक्ष्मण के दोस्तों ने कहा, " पण्डित जी तुम्हें बुला रहे हैं।" यह सुन लक्ष्मण बोले,
" इस मकान का स्वामी मैं अकेला नहीं, मेरे
बड़े भाई भरत भी हैं। आज मैं जो भी हूँ सिर्फ और सिर्फ इनकी बदौलत। इस मकान के दो
हिस्से हैं, एक उनका और एक मेरा।"
हवन कुण्ड के सामने बैठते समय
लक्ष्मण ने भरत के कान में फुसफुसाते हुए कहा, " भैया, बिटिया की शादी की चिन्ता बिल्कुल न करना। उसकी शादी हम दोनों मिलकर
करेंगे।"
पूरे हवन के दौरान भरत अपनी आँखों
से बहते पानी को पोंछ रहे थे, जबकि हवन की अग्नि में धुँए का
नामोनिशान न था।
👉 भगवान को भेंट
पुरानी बात है एक सेठ के पास एक
व्यक्ति काम करता था। सेठ उस व्यक्ति पर बहुत विश्वास करता था। जो भी जरुरी काम हो
सेठ हमेशा उसी व्यक्ति से कहता था। वो व्यक्ति भगवान का बहुत बड़ा भक्त था l वह
सदा भगवान के चिंतन भजन कीर्तन स्मरण सत्संग आदि का लाभ लेता रहता था।
एक दिन उस ने सेठ से श्री जगन्नाथ
धाम यात्रा करने के लिए कुछ दिन की छुट्टी मांगी सेठ ने उसे छुट्टी देते हुए कहा-
भाई ! "मैं तो हूं संसारी आदमी हमेशा व्यापार के काम में व्यस्त रहता हूं
जिसके कारण कभी तीर्थ गमन का लाभ नहीं ले पाता। तुम जा ही रहे हो तो यह लो 100
रुपए मेरी ओर से श्री जगन्नाथ प्रभु के चरणों में समर्पित कर देना।" भक्त सेठ
से सौ रुपए लेकर श्री जगन्नाथ धाम यात्रा पर निकल गया।
कई दिन की पैदल यात्रा करने के बाद
वह श्री जगन्नाथ पुरी पहुंचा। मंदिर की ओर प्रस्थान करते समय उसने रास्ते में देखा
कि बहुत सारे संत, भक्त जन, वैष्णव जन,
हरि नाम संकीर्तन बड़ी मस्ती में कर रहे हैं। सभी की आंखों से अश्रु
धारा बह रही है। जोर-जोर से हरि बोल, हरि बोल गूंज रहा है।
संकीर्तन में बहुत आनंद आ रहा था। भक्त भी वहीं रुक कर हरिनाम संकीर्तन का आनंद
लेने लगा।
फिर उसने देखा कि संकीर्तन करने
वाले भक्तजन इतनी देर से संकीर्तन करने के कारण उनके होंठ सूखे हुए हैं वह दिखने
में कुछ भूखे भी प्रतीत हो रहे हैं। उसने सोचा क्यों ना सेठ के सौ रुपए से इन
भक्तों को भोजन करा दूँ।
उसने उन सभी को उन सौ रुपए में से
भोजन की व्यवस्था कर दी। सबको भोजन कराने में उसे कुल 98 रुपए खर्च करने पड़े।
उसके पास दो रुपए बच गए उसने सोचा चलो अच्छा हुआ दो रुपए जगन्नाथ जी के चरणों में
सेठ के नाम से चढ़ा दूंगा l
जब सेठ पूछेगा तो मैं कहूंगा पैसे
चढ़ा दिए। सेठ यह तो नहीं कहेगा 100 रुपए चढ़ाए। सेठ पूछेगा पैसे चढ़ा दिए मैं बोल
दूंगा कि,
पैसे चढ़ा दिए। झूठ भी नहीं होगा और काम भी हो जाएगा।
भक्त ने श्री जगन्नाथ जी के दर्शनों
के लिए मंदिर में प्रवेश किया श्री जगन्नाथ जी की छवि को निहारते हुए अपने हृदय
में उनको विराजमान कराया। अंत में उसने सेठ के दो रुपए श्री जगन्नाथ जी के चरणो
में चढ़ा दिए। और बोला यह दो रुपए सेठ ने भेजे हैं।
उसी रात सेठ के पास स्वप्न में श्री
जगन्नाथ जी आए आशीर्वाद दिया और बोले सेठ तुम्हारे 98 रुपए मुझे मिल गए हैं यह
कहकर श्री जगन्नाथ जी अंतर्ध्यान हो गए। सेठ जाग गया सोचने लगा मेरा नौकर तौ बड़ा
ईमानदार है, पर अचानक उसे क्या जरुरत पड़ गई थी उसने दो रुपए भगवान
को कम चढ़ाए ? उसने दो रुपए का क्या खा लिया ? उसे ऐसी क्या जरूरत पड़ी ? ऐसा विचार सेठ करता रहा।
काफी दिन बीतने के बाद भक्त वापस
आया और सेठ के पास पहुंचा। सेठ ने कहा कि मेरे पैसे जगन्नाथ जी को चढ़ा दिए थे ? भक्त बोला हां मैंने पैसे
चढ़ा दिए। सेठ ने कहा पर तुमने 98 रुपए क्यों चढ़ाए दो रुपए किस काम में प्रयोग
किए।
तब भक्त ने सारी बात बताई की उसने
98 रुपए से संतो को भोजन करा दिया था। और ठाकुरजी को सिर्फ दो रुपए चढ़ाये थे। सेठ
सारी बात समझ गया व बड़ा खुश हुआ तथा भक्त के चरणों में गिर पड़ा और बोला-
"आप धन्य हो आपकी वजह से मुझे श्री जगन्नाथ जी के दर्शन यहीं बैठे-बैठे हो गए
l
सन्तमत विचार- भगवान को आपके धन की
कोई आवश्यकता नहीं है। भगवान को वह 98 रुपए स्वीकार है जो जीव मात्र की सेवा में
खर्च किए गए और उस दो रुपए का कोई महत्व नहीं जो उनके चरणों में नगद चढ़ाए गए।।।
इस कहानी का सार ये है कि।।।।।।।।।
भगवान को चढ़ावे की जरूरत नही होती
जी🙏
सच्चे मन से किसी जरूरतमंद की जरूरत
को पूरा कर देना भी ।।।।।
भगवान को भेंट चढ़ाने से भी कहीं
ज्यादा अच्छा होता है जी।।!!!
हम उस परमात्मा को क्या दे सकते हैं।।।।।
जिसके दर पर हम ही भिखारी हैं।
👉 यह भी नहीं रहने वाला 🙏🌹
एक साधु देश में यात्रा के लिए पैदल
निकला हुआ था। एक बार रात हो जाने पर वह एक गाँव में आनंद नाम के व्यक्ति के
दरवाजे पर रुका। आनंद ने साधू की खूब सेवा
की। दूसरे दिन आनंद ने बहुत सारे उपहार देकर साधू को विदा किया।
साधू ने आनंद के लिए प्रार्थना
की - "भगवान करे तू दिनों दिन बढ़ता
ही रहे।" साधू की बात सुनकर आनंद हँस पड़ा और बोला - "अरे, महात्मा
जी! जो है यह भी नहीं रहने वाला ।" साधू आनंद की ओर देखता रह गया और वहाँ से चला गया।
दो वर्ष बाद साधू फिर आनंद के घर
गया और देखा कि सारा वैभव समाप्त हो गया है। पता चला कि आनंद अब बगल के गाँव में
एक जमींदार के यहाँ नौकरी करता है। साधू आनंद से मिलने गया।
आनंद ने अभाव में भी साधू का स्वागत
किया। झोंपड़ी में फटी चटाई पर बिठाया। खाने के लिए सूखी रोटी दी। दूसरे दिन जाते
समय साधू की आँखों में आँसू थे। साधू कहने लगा - "हे भगवान् ! ये तूने क्या
किया?"
आनंद पुन: हँस पड़ा और बोला -
"महाराज आप क्यों दु:खी हो रहे है? महापुरुषों
ने कहा है कि भगवान् इन्सान को जिस हाल
में रखे, इन्सान को उसका धन्यवाद करके खुश रहना चाहिए। समय
सदा बदलता रहता है और सुनो! यह भी नहीं रहने वाला।"
साधू मन ही मन सोचने लगा -
"मैं तो केवल भेष से साधू हूँ। सच्चा साधू तो तू ही है, आनंद।"
कुछ वर्ष बाद साधू फिर यात्रा पर निकला और आनंद से मिला तो देखकर हैरान रह गया कि
आनंद तो अब जमींदारों का जमींदार बन गया
है। मालूम हुआ कि जिस जमींदार के यहाँ
आनंद नौकरी करता था वह सन्तान विहीन था,
मरते समय अपनी सारी जायदाद आनंद को दे गया।
साधू ने आनंद से कहा - "अच्छा हुआ, वो
जमाना गुजर गया। भगवान् करे अब तू ऐसा ही
बना रहे।" यह सुनकर आनंद फिर हँस
पड़ा और कहने लगा - "महाराज! अभी भी आपकी नादानी बनी हुई है।"
साधू ने पूछा - "क्या यह भी
नहीं रहने वाला?"
आनंद उत्तर दिया - "हाँ! या तो
यह चला जाएगा या फिर इसको अपना मानने वाला ही चला जाएगा। कुछ भी रहने वाला
नहीं है और अगर शाश्वत कुछ है तो वह है
परमात्मा और उस परमात्मा की अंश आत्मा।"
आनंद की बात को साधू ने गौर से सुना और चला गया।
साधू कई साल बाद फिर लौटता है तो
देखता है कि आनंद का महल तो है किन्तू
कबूतर उसमें गुटरगूं कर रहे हैं, और आनंद का देहांत हो गया है। बेटियाँ अपने-अपने घर चली
गयीं, बूढ़ी पत्नी कोने में पड़ी है।
साधू कहता है - "अरे इन्सान!
तू किस बात का अभिमान करता है? क्यों इतराता है? यहाँ कुछ भी टिकने वाला नहीं है, दु:ख या सुख कुछ भी
सदा नहीं रहता। तू सोचता है पड़ोसी मुसीबत में है और मैं मौज में हूँ। लेकिन सुन,
न मौज रहेगी और न ही मुसीबत। सदा तो उसको जानने वाला ही रहेगा।
सच्चे इन्सान वे हैं, जो हर हाल में खुश रहते हैं। मिल गया
माल तो उस माल में खुश रहते हैं, और हो गये बेहाल तो उस हाल
में खुश रहते हैं।"
साधू कहने लगा - "धन्य है
आनंद! तेरा सत्संग, और धन्य हैं तुम्हारे सतगुरु! मैं तो झूठा
साधू हूँ, असली फकीरी तो तेरी जिन्दगी है। अब मैं तेरी
तस्वीर देखना चाहता हूँ, कुछ फूल चढ़ाकर दुआ तो मांग
लूं।"
साधू दूसरे कमरे में जाता है तो
देखता है कि आनंद ने अपनी तस्वीर पर लिखवा रखा है - "आखिर में यह भी नहीं रहेगा।
👉 कृपया समय पर दें
एक भिखारी एक दिन सुबह अपने घर के
बाहर निकला। त्यौहार का दिन है। आज गांव में बहुत भिक्षा मिलने की संभावना है। वह
अपनी झोली में थोड़े से दाने डालकर चावल के, बाहर आया। चावल के दाने
उसने डाल दिये हैं अपनी झोली में। क्योंकि झोली अगर भरी दिखाई पड़े तो देने वाले को
आसानी होती है। उसे लगता है किसी और ने भी दिया है। सब भिखारी अपने हाथ में पैसे
लेकर अपने घर से निकलते हैं, ताकि देने वाले को संकोच मालूम
पड़े कि नहीं दिया तो अपमानित हो जाऊंगा और लोग दे चुके हैं।
आपकी दया आपकी दया काम नहीं करती
भिखारी को देने में। आपका अहंकार काम करता है।और लोग दे चुके हैं, और
मैं कैसे न दूं। वह डालकर निकला है थोडे से दाने। थोड़े से दाने उसने डाल रखे हैं
चावल के। बाहर निकला है।
सुरज निकलने के करीब है। रास्ता
सोया है। अभी लोग जाग रहे हैं। देखा है उसने,राजा का रथ आ रहा है।
स्वर्ण रथ—सूरज की रोशनी में चमकता हुआ। उसने कहा, धन्य
भाग्य मेरे! भगवान को धन्यवाद। आज तक कभी राजा से भिक्षा नहीं मांग पाया, क्योंकि द्वारपाल बाहर से ही लौटा देते। आज तो रास्ता रोककर खड़ा हो
जाऊंगा! आज तो झोली फैला दूंगा। और कहूंगा, महाराज!
पहली दफा भिक्षा मांगता हूं। फिर
सम्राट तो भिक्षा देंगे। तो कोई ऐसी भिक्षा तो न होगी। जन्म—जन्म के लिए मेरे दुख
दूर हो जायेंगे। वह कल्पनाओं में खोकर खड़ा हो गया।
रथ आ गया। वह भिखारी अपनी झोली खोले, इससे
पहले ही राजा नीचे उतर आया। राजा को देखकर भिखारी तो घबड़ा गयाऔर राजा ने अपनी झोली
अपना वस्त्र भिखारी के सामने कर दिया।तब तो वह बहुत घबड़ा गया।
उसने कहा आप! और झोली फैलाते हैं? राजा
ने कहा, ज्योतिषियों ने कहा है कि देश पर हमले का डर है। और
अगर मैं जाकर आज राह पर भीख मांग लूं तो देश बच सकता है। वह पहला आदमी जो मुझे
मिले, उसी से भीख मांगनी है। तुम्हीं पहले आदमी हो। कृपा
करो। कुछ दान दो। राष्ट्र बच जाये।
उस भिखारी के तो प्राण निकल गए। उसने
हमेशा मांगा था। दिया तो कभी भी नहीं था। देने की उसे कहीं कल्पना ही नहीं थी।
कैसे दिया जाता है, इसका कोई अनुभव नहीं था। मांगता था। बस
मांगता था। और देने की बात आ गई, तो उसके प्राण तो रुक ही
गये! मिलने का तो सपना गिर ही गया। और देने की उलटी बात! उसने झोली में हाथ डाला।
मुट्ठी भर दाने हैं वहां। भरता है मुट्ठी, छोड़ देता है।
हिम्मत नहीं होती कि दे दें।
राजा ने कहा, कुछ
तो दे दो। देश का खयाल करो। ऐसा मत करना कि मना कर दो। बहुत मुश्किल से बहुत
कठिनाई से एक दाना भर उसने निकाला और राजा के वस्त्र में डाल दिया! राजा रथ पर
बैठा। रथ चला गया। धूल उड़ती रह गई। और साथ में दुख रह गया कि एक दाना अपने हाथ से
आज देना पडा। भिखारी का मन देने का नहीं होता।
दिन भर भीख मांगी। बहुत भीख मिली।
लेकिन चित्त में दुख बना रहा एक दाने का, जो दिया था।
कितना ही मिल जाये आदमी को, जो
मिल जाता है, उसका धन्यवाद नहीं होता;
जो नहीं मिल पाया, जो
छूट गया, जो नहीं है पास, उसकी पीड़ा
होती है।
लौटा सांझ दुखी, इतना
कभी नहीं मिला था! झोला लाकर पटका। पत्नी नाचने लगी। कहा, इतनी
मिल गयी भीख! नाच मत पागल! तुझे पता नहीं, एक दाना कम है,
जो अपने पास हो सकता था। फिर झोली खोली। सारे दाने गिर पड़े। फिर वह
भिखारी छाती पीटकर रोने लगा, अब तक तो सिर्फ उदास था। रोने
लगा। देखता कि दानों की उस कतार में, उस भीड़ में एक दाना
सोने का हो गया!
तो वह चिल्ला—चिल्लाकर रोने लगा कि
मैं अवसर चूक गया। बड़ी भूल हो गयी। मैं सब दाने दे देता, सब
सोने के हो जाते। लेकिन कहां खोजूं उस राजा को? कहां जाऊं?
कहा वह रथ मिलेगा? कहां राजा द्वार पर हाथ
फैलायेगा? बडी मुश्किल हो गयी। क्या होगा? अब क्या होगा? वह तड़पने लगा।उसकी पत्नी ने कहा,
तुझे पता नहीं, शायद जो हम देते हैं, वह स्वर्ण का हो जाता है। जो हम कब्जा कर लेते हैं, वह
सदा मिट्टी का हो जाता है।
जो जानते हैं, वे
गवाही देंगे इस बात की; जो दिया है, वही
स्वर्ण का हो गया।
मृत्यु के क्षण में आदमी को पता
चलता है,
जो रोक लिया था, वह पत्थर की तरह छाती पर बैठ
गया है।
जो दिया था, जो
बांट दिया था, वह हलका कर गया। वह पंख बन गया। वह स्वर्ण हो
गया।
वह दूर की यात्रा पर मार्ग बन गया।
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