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यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र: 31 से 40

 

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र: 31 से 40

 

त्रीन्त्स॑मु॒द्रान्त्सम॑सृपत् स्व॒र्गान॒पां पति॑र्वृष॒भऽ इष्ट॑कानाम्। पुरी॑षं॒ वसा॑नः सुकृ॒तस्य॑ लो॒के तत्र॑ गच्छ॒ यत्र॒ पूर्वे॒ परे॑ताः ॥३१ ॥

 

अब मनुष्यों को उस वसन्त में सुखप्राप्ति के लिये क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वान् पुरुष ! जैसे (अपाम्) प्राणों का (पतिः) रक्षक (वृषभः) वर्षा का हेतु (पुरीषम्) पूर्ण सुखकारक जल को (वसानः) धारणा करता हुआ सूर्य्य (इष्टकानाम्) कामनाओं की प्राप्ति के हेतु पदार्थों के आधाररूप (त्रीन्) ऊपर, नीचे और मध्य में रहनेवाले तीन प्रकार के (समुद्रान्) सब पदार्थों के स्थान भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान (स्वर्गान्) सुख प्राप्त करानेहारे लोकों को (समसृपत्) प्राप्त होता है, वैसे आप भी प्राप्त हूजिये। (यत्र) जिस धर्मयुक्त वसन्त के मार्ग में (सुकृतस्य) सुन्दर धर्म करनेहारे पुरुष के (लोके) देखने योग्य स्थान वा मार्ग में (पूर्वे) प्राचीन लोग (परेताः) सुख को प्राप्त हुए (तत्र) उसी वसन्त के सेवनरूप मार्ग में आप भी (गच्छ) चलिये ॥३१ ॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि धर्मात्माओं के मार्ग से चलते हुए शारीरिक, वाचिक और मानसिक तीनों प्रकार के सुखों को प्राप्त होवें और जिसमें कामना पूरी हो, वैसा प्रयत्न करें। जैसे वसन्त आदि ऋतु अपने क्रम से वर्त्तते हुए अपने-अपने चिह्न प्राप्त करते हैं, वैसे ऋतुओं के अनुकूल व्यवहार कर के आनन्द को प्राप्त होवें ॥३१ ॥

 

म॒ही द्यौः पृ॑थि॒वी च॑ नऽ इ॒मं य॒ज्ञं मि॑मिक्षताम्। पि॒पृ॒तां नो॒ भरी॑मभिः ॥३२ ॥

 

माता पिता अपने सन्तानों को कैसी शिक्षा करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे माता-पिता ! जैसे (मही) बड़ा (द्यौः) सूर्य्यलोक (च) और (पृथिवी) भूमि सब संसार को सींचते और पालन करते हैं, वैसे तुम दोनों (नः) हमारे (इमम्) इस (यज्ञम्) सेवने योग्य विद्याग्रहणरूप व्यवहार को (मिमिक्षताम्) सेचन अर्थात् पूर्ण होने की इच्छा करो और (भरीमभिः) धारण-पोषण आदि कर्मों से (नः) हमारा (पिपृताम्) पालन करो ॥३२ ॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वसन्त ऋतु में पृथिवी और सूर्य्य सब संसार का धारण, प्रकाश और पालन करते हैं, वैसे माता-पिता को चाहिये कि अपने सन्तानों के लिये वसन्तादि ऋतुओं में अन्न, विद्यादान और अच्छी शिक्षा करके पूर्ण विद्वान् पुरुषार्थी करें ॥३२ ॥

 

विष्णोः॒ कर्मा॑णि पश्यत॒ यतो॑ व्र॒तानि॑ पस्प॒शे। इन्द्र॑स्य॒ युज्यः॒ सखा॑ ॥३३ ॥

 

विद्वानों के तुल्य अन्य मनुष्यों को आचरण करना चाहिये, इसी विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जो (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्य की इच्छा करनेहारे जीव का (युज्यः) उपासना करने योग्य (सखा) मित्र के समान वर्त्तमान है, (यतः) जिसके प्रताप से यह जीव (विष्णोः) व्यापक ईश्वर के (कर्माणि) जगत् की रचना, पालन, प्रलय करने और न्याय आदि कर्मों और (व्रतानि) सत्यभाषणादि नियमों को (पस्पशे) स्पर्श करता है, इसलिये इस परमात्मा के इन कर्मों और व्रतों को तुम लोग भी (पश्यत) देखो, धारण करो ॥३३ ॥

भावार्थभाषाः -जैसे परमेश्वर का मित्र, उपासक, धर्मात्मा, विद्वान् पुरुष परमात्मा के गुण, कर्म और स्वभावों के अनुसार सृष्टि के क्रमों के अनुकूल आचरण करे और जाने, वैसे ही अन्य मनुष्य करें और जानें ॥३३ ॥

 

ध्रु॒वासि॑ ध॒रुणे॒तो ज॑ज्ञे प्र॒थ॒ममे॒भ्यो योनि॑भ्यो॒ऽअधि॑ जा॒तवे॑दाः। स गा॑य॒त्र्या त्रि॒ष्टुभा॑ऽनु॒ष्टुभा॑ च दे॒वेभ्यो॑ ह॒व्यं व॑हतु प्रजा॒नन् ॥३४ ॥

 

विद्वान् पुरुषों के समान विदुषी स्त्रियाँ भी उपदेश करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे स्त्रि ! जैसे तू (धरुणा) शुभगुणों का धारण करनेहारी (ध्रुवा) स्थिर (असि) है, जैसे (एभ्यः) इन (योनिभ्यः) कारणों से (सः) वह (जातवेदाः) प्रसिद्ध पदार्थों में विद्यमान वायु (प्रथमम्) पहिले (अधिजज्ञे) अधिकता से प्रकट होता है, वैसे (इतः) इस कर्म के अनुष्ठान से सर्वोपरि प्रसिद्ध हूजिये। जैसे तेरा पति (गायत्र्या) गायत्री (त्रिष्टुभा) त्रिष्टुप् (च) और (अनुष्टुभा) अनुष्टुप् मन्त्र से सिद्ध हुई विद्या से (प्रजानन्) बुद्धिमान् होकर (देवेभ्यः) अच्छे गुणों वा विद्वानों से (हव्यम्) देने-लेने योग्य विज्ञान (वहतु) प्राप्त होवे, वैसे इस विद्या से बुद्धिमती हो के आप स्त्री लोगों से ब्रह्मचारिणी कन्या विज्ञान को प्राप्त होवें ॥३४ ॥

भावार्थभाषाः -मनुष्य जगत् में ईश्वर की सृष्टि के कामों के निमित्तों को जान विद्वान् होकर जैसे पुरुषों को शास्त्रों का उपदेश करते हैं, वैसे ही स्त्रियों को भी चाहिये कि इन सृष्टिक्रम के निमित्तों को जान के स्त्रियों को वेदार्थसारोपदेशों को करें ॥३४ ॥

 

इ॒षे रा॒ये र॑मस्व॒ सह॑से द्यु॒म्नऽ ऊ॒र्जेऽ अप॑त्याय। स॒म्राड॑सि स्व॒राड॑सि सारस्व॒तौ त्वोत्सौ॒ प्राव॑ताम् ॥३५ ॥

 

अब स्त्री-पुरुष विवाह करके कैसे वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे पुरुष ! जो तू (सम्राट्) विद्यादि शुभगुणों से स्वयं प्रकाशमान (असि) है, हे स्त्रि ! जो तू (स्वराट्) अपने आप विज्ञान सत्याचार से शोभायमान (असि) है, सो तुम दोनों (इषे) विज्ञान (राये) धन (सहसे) बल (द्युम्ने) यश और अन्न (ऊर्जे) पराक्रम और (अपत्याय) सन्तानों की प्राप्ति के लिये (रमस्व) यत्न करो तथा (उत्सौ) कूपोदक के समान कोमलता को प्राप्त होकर (सारस्वतौ) वेदवाणी के उपदेश में कुशल होके तुम दोनों स्त्री-पुरुष इन स्वशरीर और अन्नादि पदार्थों की (प्रावताम्) रक्षा आदि करो, यह (त्वा) तुम को उपदेश देता हूँ ॥३५ ॥

भावार्थभाषाः -विवाह करके स्त्री-पुरुष दोनों आपस में प्रीति के साथ विद्वान् होकर पुरुषार्थ से धनवान् श्रेष्ठ गुणों से युक्त होके एक-दूसरे की रक्षा करते हुए धर्म्मानुकूलता से वर्त्त के सन्तानों को उत्पन्न कर इस संसार में नित्य क्रीड़ा करें ॥३५ ॥

 

अग्ने॑ यु॒क्ष्वा हि ये तवाश्वा॑सो देव सा॒धवः॑। अरं॒ वह॑न्ति म॒न्यवे॑ ॥३६ ॥

 

अब शत्रुओं को कैसे जीतना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (देव) श्रेष्ठविद्यावाले (अग्ने) तेजस्वी विद्वान् ! (ये) जो (तव) आपके (साधवः) अभीष्ट साधनेवाले (अश्वासः) शिक्षित घोड़े (मन्यवे) शत्रुओं के ऊपर क्रोध के लिये (अरम्) सामर्थ्य के साथ (वहन्ति) रथ आदि यानों को पहुँचाते हैं, उनको (हि) निश्चय कर के (युक्ष्व) संयुक्त कीजिये ॥३६ ॥

भावार्थभाषाः -राजादि मनुष्यों को चाहिये कि वसन्त ऋतु में पहिले घोड़ों को शिक्षा दें और रथियों को रथों पर नियुक्त कर के शत्रुओं के जीतने के लिये यात्रा करें ॥३६ ॥

 

यु॒क्ष्वा हि दे॑व॒हूत॑माँ॒२ऽ अश्वाँ॑२ऽ अग्ने र॒थीरि॑व। नि होता॑ पू॒र्व्यः स॑दः ॥३७ ॥

 

अब राजपुरुषों को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) विद्वान् पुरुष ! (पूर्व्यः) पूर्व विद्वानों से शिक्षा को प्राप्त (होता) दानशील आप (देवहूतमान्) विद्वानों से स्पर्द्धा वा शिक्षा किये (अश्वान्) घोड़ों को (रथीरिव) शत्रुओं के साथ बहुत रथादि सेना अङ्गयुक्त योद्धा के समान (युक्ष्व) युक्त कीजिये (हि) निश्चय कर के न्यायासन पर (निषदः) निरन्तर स्थित हूजिये ॥३७ ॥

भावार्थभाषाः -सेनापति आदि राजपुरुषों को चाहिये कि बड़े सेना के अङ्गयुक्त रथवाले के समान घोड़े आदि सेना के अवयवों को कार्यों में संयुक्त करें और सभापति आदि को चाहिये कि न्यायासन पर बैठ कर धर्मयुक्त न्याय किया करें ॥३७ ॥

 

स॒म्यक् स्र॑वन्ति स॒रितो॒ न धेना॑ऽ अ॒न्तर्हृ॒दा मन॑सा पू॒यमा॑नाः। घृ॒तस्य॒ धारा॑ऽ अ॒भिचा॑कशीमि हिर॒ण्ययो॑ वेत॒सो मध्ये॑ऽ अ॒ग्नेः ॥३८ ॥

 

मनुष्यों को कैसे होके वाणी धारण करनी चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जैसे (अग्नेः) बिजुली के (मध्ये) बीच में वर्त्तमान (हिरण्ययः) तेजो भाग के समान तेजस्वी कीर्ति चाहने और विद्या की इच्छा रखनेवाला मैं जो (घृतस्य) जल की (वेतसः) वेगवाली (धाराः) प्रवाहरूप (सरितः) नदियों के (न) समान (अन्तः) भीतर (हृदा) अन्तःकरण के (मनसा) विज्ञानरूपवाले चित्त से (पूयमानाः) पवित्र हुई (धेना) वाणी (सम्यक्) अच्छे प्रकार (स्रवन्ति) चलती हैं, उन को (अभिचाकशीमि) सन्मुख होकर सब के लिये शीघ्र प्रकाशित करता हूँ, वैसे तुम लोग भी इन वाणियों को प्राप्त होओ ॥३८ ॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जैसे अधिक वा कम चलती शुद्ध हुई नदियाँ समुद्र को प्राप्त होकर स्थिर होती हैं, वैसे ही विद्या, शिक्षा और धर्म से पवित्र हुई निश्चल वाणी को प्राप्त होकर अन्यों को प्राप्त करावें ॥३८ ॥

 

ऋ॒चे त्वा॑ रु॒चे त्वा॑ भा॒से त्वा॒ ज्योति॑षे त्वा। अभू॑दि॒दं विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य॒ वाजि॑नम॒ग्नेर्वै॑श्वान॒रस्य॑ च ॥३९ ॥

 

विद्वानों से अन्य मनुष्यों को भी ज्ञान लेना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वान् पुरुष ! जिस तुझ को (विश्वस्य) समस्त (भुवनस्य) संसार के सब पदार्थों (च) और (वैश्वानरस्य) सम्पूर्ण मनुष्यों में शोभायमान (अग्नेः) बिजुलीरूप (वाजिनम्) ज्ञानी लोगों का अवयवरूप (इदम्) यह विज्ञान (अभूत्) प्रसिद्ध हुआ है, उस (ऋचे) स्तुति के लिये (त्वा) तुझ को (रुचे) प्रीति के वास्ते (त्वा) तुझ को (भासे) विज्ञान की प्राप्ति के अर्थ (त्वा) तुझको और (ज्योतिषे) न्याय के प्रकाश के लिये भी (त्वा) तुझ को हम लोग आश्रय करते हैं ॥३९ ॥

भावार्थभाषाः -जिस मनुष्य को जगत् के पदार्थों का यथार्थ बोध होवे, उसी के सेवन से सब मनुष्य पदार्थविद्या को प्राप्त होवें ॥३९ ॥

 

अ॒ग्निर्ज्योति॑षा॒ ज्योति॑ष्मान् रु॒क्मो वर्च॑सा॒ वर्च॑स्वान्। स॒ह॒स्र॒दाऽ अ॑सि स॒हस्रा॑य त्वा ॥४० ॥

 

फिर भी उक्त विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वान् पुरुष ! जो आप (ज्योतिषा) विद्या के प्रकाश से (अग्निः) अग्नि के तुल्य (ज्योतिष्मान्) प्रशंसित प्रकाशयुक्त (वर्चसा) अपने तेज से (वर्चस्वान्) ज्ञान देनेवाले और (रुक्मः) जैसे सुवर्ण सुख देवे, वैसे (सहस्रदाः) असंख्य सुख के देनेवाले (असि) हैं, उन (त्वा) आपका (सहस्राय) अतुल विज्ञान की प्राप्ति के लिये हम लोग सत्कार करें ॥४० ॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जो अग्नि और सूर्य्य के समान विद्या से प्रकाशमान विद्वान् पुरुष हों, उनसे विद्या पढ़ के पूर्ण विद्या के ग्राहक होवें ॥४० ॥

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