यजुर्वेद » अध्याय:13»
मन्त्र: 41 से 50
आ॒दि॒त्यं गर्भं॒ पय॑सा॒
सम॑ङ्धि स॒हस्र॑स्य प्रति॒मां वि॒श्वरू॑पम्। परि॑वृङ्धि॒ हर॑सा॒ माभि म॑ꣳस्थाः
श॒तायु॑षं कृणुहि ची॒यमा॑नः ॥४१ ॥
फिर वे विद्वान् स्त्री-पुरुष क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
विद्वान् पुरुष ! आप जैसे बिजुली (पयसा) जल से (सहस्रस्य) असंख्य पदार्थों की
(प्रतिमाम्) परिमाण करनेहारे सूर्य के समान निश्चय करनेहारी बुद्धि और
(विश्वरूपम्) सब रूपविषय को दिखानेहारे (गर्भम्) स्तुति के योग्य (आदित्यम्)
सूर्य्य को धारण करती है, वैसे अन्तःकरण को (समङ्धि)
अच्छे प्रकार शोधिये। (हरसा) प्रज्वलित तेज से रोगों को (परि) सब ओर से (वृङ्धि)
हटाइये और (चीयमानः) वृद्धि को प्राप्त हो के (शतायुषम्) सौ वर्ष की अवस्थावाले
सन्तान को (कृणुहि) कीजिये और कभी (मा) मत (अभिमंस्थाः) अभिमान कीजिये ॥४१ ॥
भावार्थभाषाः -हे
स्त्री-पुरुषो ! तुम लोग सुगन्धित पदार्थों के होम से सूर्य्य के प्रकाश, जल और वायु को शुद्ध कर और रोगरहित होकर सौ वर्ष जीनेवाले संतानों को
उत्पन्न करो। जैसे विद्युत् अग्नि से बनाये हुए सूर्य्य से रूपवाले पदार्थों का
दर्शन और परिमाण होता है, वैसे विद्यावाले सन्तान सुख
दिखानेहारे होते हैं, इससे कभी अभिमानी होके विषयासक्ति से
विद्या और आयु का विनाश मत किया करो ॥४१ ॥
वात॑स्य
जू॒तिं वरु॑णस्य॒ नाभि॒मश्वं॑ जज्ञा॒नᳬ स॑रि॒रस्य॒ मध्ये॑। शिशुं॑ न॒दीना॒ᳬ
हरि॒मद्रि॑बुध्न॒मग्ने॒ मा हि॑ꣳसीः पर॒मे व्यो॑मन् ॥४२ ॥
फिर विद्वान् पुरुष
को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(अग्ने) तेजस्विन् विद्वन् ! आप (परमे व्योमन्) सर्वव्याप्त उत्तम आकाश में
(वातस्य) वायु के (मध्ये) मध्य में (जूतिम्) वेगरूप (अश्वम्) अश्व को (सरिरस्य)
जलमय (वरुणस्य) उत्तम समुद्र के (नाभिम्) बन्धन को और (नदीनाम्) नदियों के प्रभाव
से (जज्ञानम्) प्रकट हुए (शिशुम्) बालक के तुल्य वर्त्तमान (हरिम्) नील वर्णयुक्त
(अद्रिबुध्नम्) सूक्ष्म मेघ को (मा) मत (हिंसीः) नष्ट कीजिये ॥४२ ॥
भावार्थभाषाः -इस
मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि प्रमाद को छोड़ के आकाश
में वर्त्तमान वायु के वेग और वर्षा के प्रबन्धरूप मेघ का विनाश न करके अपनी-अपनी
अवस्था को बढ़ावें ॥४२ ॥
अज॑स्र॒मिन्दु॑मरु॒षं
भु॑र॒ण्युम॒ग्निमी॑डे पू॒र्वचि॑त्तिं॒ नमो॑भिः। स पर्व॑भिर्ऋतु॒शः कल्प॑मानो॒ गां
मा हि॑ꣳसी॒रदि॑तिं वि॒राज॑म् ॥४३ ॥
फिर वह विद्वान् क्या
करे,
यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
विद्वान् पुरुष ! जैसे मैं (पर्वभिः) पूर्ण साधनयुक्त (नमोभिः) अन्नों के साथ
वर्त्तमान (इन्दुम्) जलरूप (अरुषम्) घोड़े के सदृश (भुरण्युम्) पोषण करनेवाली
(पूर्वचित्तिम्) प्रथम निर्मित (अग्निम्) बिजुली को (अजस्रम्) निरन्तर (ईडे)
अधिकता से खोजता हूँ, उसको (ऋतुशः) प्रति ऋतु में
(कल्पमानः) समर्थ होके करता हुआ (अदितिम्) अखण्डित (विराजम्) विविध प्रकार के
पदार्थों से शोभायमान (गाम्) पृथिवी को नष्ट नहीं करता हूँ, वैसे
ही (सः) सो आप इस अग्नि और इस पृथिवी को (मा) मत (हिंसीः) नष्ट कीजिये ॥४३ ॥
भावार्थभाषाः
-मनुष्यों को योग्य है कि ऋतुओं के अनुकूल क्रिया से अग्नि, जल और अन्न का सेवन करके राज्य और पृथिवी की सदैव रक्षा करें, जिससे सब सुख प्राप्त होवें ॥४३ ॥
वरू॑त्रीं॒
त्वष्टु॒र्वरु॑णस्य॒ नाभि॒मविं॑ जज्ञा॒नाᳬ रज॑सः॒ पर॑स्मात्। म॒हीᳬ
सा॑ह॒स्रीमसु॑रस्य मा॒यामग्ने॒ मा हि॑ᳬसीः पर॒मे व्यो॑मन् ॥४४ ॥
फिर उस विद्वान् को
क्या नहीं करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(अग्ने) विद्वान् पुरुष ! आप (त्वष्टुः) छेदनकर्त्ता सूर्य्य के (वरूत्रीम्) ग्रहण
करने योग्य (वरुणस्य) जल की (नाभिम्) रोकनेहारी (परस्मात्) श्रेष्ठ (रजसः) लोक से
(जज्ञानाम्) उत्पन्न हुई (असुरस्य) मेघ की (मायाम्) जतानेवाली बिजुली को और
(साहस्रीम्) असंख्य भूगोलयुक्त बहुत फल देनेहारी (अविम्) रक्षा आदि का निमित्त
(परमे) सब से उत्तम (व्योमन्) आकाश के समान व्याप्त जगदीश्वर में वर्त्तमान
(महीम्) विस्तारयुक्त पृथिवी को (मा) मत (हिंसीः) नष्ट कीजिये ॥४४ ॥
भावार्थभाषाः -सब
मनुष्यों को चाहिये कि जो यह पृथिवी उत्तम कारण से उत्पन्न हुई, सूर्य्य जिसका आकर्षणकर्त्ता, जल का आधार, मेघ का निमित्त, असंख्य सुख देनेहारी परमेश्वर ने
रची है; उसको गुण, कर्म और स्वभाव से
जान के सुख के लिये उपयुक्त करें ॥४४ ॥
योऽ
अ॒ग्निर॒ग्नेरध्यजा॑यत॒ शोका॑त् पृथि॒व्याऽ उ॒त वा॑ दि॒वस्परि॑। येन॑ प्र॒जा
वि॒श्वक॑र्मा ज॒जान॒ तम॑ग्ने॒ हेडः॒ परि॑ ते वृणक्तु ॥४५ ॥
फिर इस विद्वान् को
क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(अग्ने) विद्वान् जन ! (यः) जो (पृथिव्याः) पृथिवी के (शोकात्) सुखानेहारे अग्नि
(उत) (वा) अथवा (दिवः) सूर्य्य से (अग्नेः) बिजुलीरूप अग्नि से (अग्निः) प्रत्यक्ष
अग्नि (अध्यजायत) उत्पन्न होता है, (येन) जिस
से (विश्वकर्म्मा) सब कर्मों का आधार ईश्वर (प्रजाः) प्रजाओं को (परि) सब ओर से
(जजान) रचता है, (तम्) उस अग्नि को (ते) तेरा (हेडः) क्रोध
(परिवृणक्तु) सब प्रकार से छेदन करे ॥४५ ॥
भावार्थभाषाः -हे
विद्वानो ! तुम लोग जो अग्नि पृथिवी को फोड़ के और जो सूर्य्य के प्रकाश से बिजुली
निकलती है, उस विघ्नकारी अग्नि से सब प्राणियों को
रक्षित रक्खो और जिस अग्नि से ईश्वर सब की रक्षा करता है, उस
अग्नि की विद्या जानो ॥४५ ॥
चि॒त्रं
दे॒वाना॒मुद॑गा॒दनी॑कं॒ चक्षु॑र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्या॒ग्नेः। आ प्रा॒
द्यावा॑पृथि॒वीऽ अ॒न्तरि॑क्ष॒ꣳ सूर्य्य॑ऽ आ॒त्मा जग॑तस्त॒स्थुष॑श्च ॥४६ ॥
अब ईश्वर कैसा है, यह यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
मनुष्यो ! आप लोग जो जगदीश्वर (देवानाम्) पृथिवी आदि दिव्य पदार्थों के बीच
(चित्रम्) आश्चर्य्यरूप (अनीकम्) सेना के समान किरणों से युक्त (मित्रस्य) प्राण
(वरुणस्य) उदान और (अग्नेः) प्रसिद्ध अग्नि के (चक्षुः) दिखानेवाले (सूर्य्यः)
सूर्य्य के समान (उदगात्) उदय को प्राप्त हो रहा है, उस
के समान (जगतः) चेतन (च) और (तस्थुषः) जड़ जगत् का (आत्मा) अन्तर्य्यामी हो के
(द्यावापृथिवी) प्रकाश-अप्रकाशरूप जगत् और (अन्तरिक्षम्) आकाश को (आ) अच्छे प्रकार
(अप्राः) व्याप्त हो रहा है, उसी जगत् के रचने, पालन करने और संहार-प्रलय करनेहारे व्यापक ब्रह्म की निरन्तर उपासना किया
करो ॥४६ ॥
भावार्थभाषाः -इस
मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। यह जगत् ऐसा नहीं कि जिसका कर्त्ता, अधिष्ठाता वा ईश्वर कोई न होवे। जो ईश्वर सब का अन्तर्य्यामी, सब जीवों के पाप-पुण्यों के फलों की व्यवस्था करने हारा और अनन्त ज्ञान का
प्रकाश करने हारा है, उसी की उपासना से धर्म्म, अर्थ, काम और मोक्ष के फलों को सब मनुष्य प्राप्त
होवें ॥४६ ॥
इ॒मं
मा हि॑ꣳसीर्द्वि॒पादं॑ प॒शुꣳ स॑हस्रा॒क्षो मेधा॑य ची॒यमा॑नः। म॒युं प॒शुं
मेध॑मग्ने जुषस्व॒ तेन॑ चिन्वा॒नस्त॒न्वो᳕ निषी॑द। म॒युं ते॒ शुगृ॑च्छतु॒ यं
द्वि॒ष्मस्तं ते॒ शुगृ॑च्छतु ॥४७ ॥
फिर मनुष्यों को क्या
करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(अग्ने) अग्नि के समान मनुष्य के जन्म को प्राप्त हुए (मेधाय) सुख की प्राप्ति के
लिये (चीयमानः) बढ़े हुए (सहस्राक्षः) हजारह प्रकार की दृष्टिवाले राजन् ! तू
(इमम्) इस (द्विपादम्) दो पगवाले मनुष्यादि और (मेधम्) पवित्रकारक फलप्रद (मयुम्)
जंगली (पशुम्) गवादि पशु जीव को (मा) मत (हिंसीः) मारा कर, उस (पशुम्) पशु की (जुषस्व) सेवा कर, (तेन) उस पशु
से (चिन्वानः) बढ़ता हुआ तू (तन्वः) शरीर में (निषीद) निरन्तर स्थिर हो, यह (ते) तेरे से (शुक्) शोक (मयुम्) शस्यादिनाशक जंगली पशु को (ऋच्छतु)
प्राप्त होवे (ते) तेरे (यम्) जिस शत्रु से हम लोग (द्विष्मः) द्वेष करें,
(तम्) उसको (शुक्) शोक (ऋच्छतु) प्राप्त होवे ॥४७ ॥
भावार्थभाषाः -कोई भी
मनुष्य सब के उपकार करनेहारे पशुओं को कभी न मारे, किन्तु
इनकी अच्छे प्रकार रक्षा कर और इन से उपकार ले के सब मनुष्यों को आनन्द देवे। जिन
जंगली पशुओं से ग्राम के पशु, खेती और मनुष्यों की हानि हो,
उनको राजपुरुष मारें और बन्धन करें ॥४७ ॥
इ॒मं
मा हि॑ꣳसी॒रेक॑शफं प॒शुं क॑निक्र॒दं वा॒जिनं॒ वाजि॑नेषु। गौ॒रमा॑र॒ण्यमनु॑ ते
दिशामि॒ तेन॑ चिन्वा॒नस्त॒न्वो᳕ निषी॑द। गौ॒रं ते॒ शुगृ॑च्छतु॒ यं द्वि॒ष्मस्तं
ते॒ शुगृ॑च्छतु ॥४८ ॥
फिर यह मनुष्य क्या
करे,
यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
राजन् ! तू (वाजिनेषु) संग्राम के कामों में (इमम्) इस (एकशफम्) एक खुरयुक्त
(कनिक्रदम्) शीघ्र विकल व्यथा को प्राप्त हुए (वाजिनम्) वेगवाले (पशुम्) देखने
योग्य घोड़े आदि पशु को (मा) (हिंसीः) मत मार। मैं ईश्वर (ते) तेरे लिये (यम्) जिस
(आरण्यम्) जङ्गली (गौरम्) गौरपशु की (दिशामि) शिक्षा करता हूँ, (तेन) उसके रक्षण से (चिन्वानः) वृद्धि को प्राप्त हुआ (तन्वः) शरीर में
(निषीद) निरन्तर स्थिर हो, (ते) तेरे से (गौरम्) श्वेत
वर्णवाले पशु के प्रति (शुक्) शोक (ऋच्छतु) प्राप्त होवे और (यम्) जिस शत्रु को हम
लोग (द्विष्मः) द्वेष करें, (तम्) उसको (ते) तुझ से (शुक्)
शोक (ऋच्छतु) प्राप्त होवे ॥४८ ॥
भावार्थभाषाः
-मनुष्यों को उचित है कि एक खुरवाले घोड़े आदि पशुओं और उपकारक वन के पशुओं को भी
कभी न मारें। जिनके मारने से जगत् की हानि और न मारने से सब का उपकार होता है, उनका सदैव पालन- पोषण करें और जो हानिकारक पशु हों, उन
को मारें ॥४८ ॥
इ॒मꣳ
सा॑ह॒स्रꣳ श॒तधा॑र॒मुत्सं॑ व्य॒च्यमा॑नꣳ सरि॒रस्य॒ मध्ये॑। घृ॒तं दुहा॑ना॒मदि॑तिं॒
जना॒याग्ने॒ मा हि॑ꣳसीः पर॒मे व्यो॑मन्। ग॒व॒यमा॑र॒ण्यमनु॑ ते दिशामि॒ तेन॑
चिन्वा॒नस्त॒न्वो᳕ निषी॑द। ग॒व॒यं ते॒ शुगृ॑च्छतु॒ यं द्वि॒ष्मस्तं ते॒ शुगृ॑च्छतु
॥४९ ॥
फिर मनुष्यों को कौन
पशु न मारने और कौन मारने चाहियें, यह विषय
अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(अग्ने) दया को प्राप्त हुए परोपकारक राजन् ! तू (जनाय) मनुष्यादि प्राणी के लिये
(इमम्) इस (साहस्रम्) असंख्य सुखों का साधन (शतधारम्) असंख्य दूध की धाराओं के
निमित्त (व्यच्यमानम्) अनेक प्रकार से पालन के योग्य (उत्सम्) कुए के समान रक्षा
करनेहारे वीर्य्यसेचक बैल और (घृतम्) घी को (दुहानाम्) पूर्ण करती हुई (अदितिम्) नहीं
मारने योग्य गौ को (मा हिंसीः) मत मार और (ते) तेरे राज्य में जिस (आरण्यम्) वन
में रहनेवाले (गवयम्) गौ के समान नीलगाय से खेती की हानि होती हो तो उस को
(अनुदिशामि) उपदेश करता हूँ, (तेन) उसके मारने से
सुरक्षित अन्न से (परमे) उत्कृष्ट (व्योमन्) सर्वत्र व्यापक परमात्मा और (सरिरस्य)
विस्तृत व्यापक आकाश के (मध्ये) मध्य में (चिन्वानः) वृद्धि को प्राप्त हुआ तू
(तन्वः) शरीर मध्य में (निषीद) निवास कर (ते) तेरा (शुक्) शोक (तम्) उस (गवयम्)
रोझ को (ऋच्छतु) प्राप्त होवे और (यम्) जिस (ते) तेरे शत्रु का (द्विष्मः) हम लोग
द्वेष करें, उस को भी (शुक्) शोक (ऋच्छतु) प्राप्त होवे ॥४९
॥
भावार्थभाषाः -इस
मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजपुरुषो ! तुम लोगों को चाहिये कि जिन
बैल आदि पशुओं के प्रभाव से खेती आदि काम; जिन गौ आदि
से दूध, घी आदि उत्तम पदार्थ होते हैं कि जिन के दूध आदि से
सब प्रजा की रक्षा होती है, उनको कभी मत मारो और जो जन इन
उपकारक पशुओं को मारें, उनको राजादि न्यायाधीश अत्यन्त दण्ड
देवें और जो जङ्गल में रहनेवाले नीलगाय आदि प्रजा की हानि करें, वे मारने योग्य हैं ॥४९ ॥
इ॒ममू॑र्णा॒युं
वरु॑णस्य॒ नाभिं॒ त्वचं॑ पशू॒नां द्वि॒पदां॒ चतु॑ष्पदाम्। त्वष्टुः॑ प्र॒जानां॑
प्रथ॒मं ज॒नित्र॒मग्ने॒ मा हि॑ꣳसीः पर॒मे व्यो॑मन्। उष्ट्र॑मार॒ण्यमनु॑ ते दिशामि॒
तेन॑ चिन्वा॒नस्त॒न्वो᳕ निषी॑द। उष्ट्रं॑ ते॒ शुगृ॑च्छतु॒ यं द्वि॒ष्मस्तं ते॒
शुगृ॑च्छतु ॥५० ॥
फिर किन पशुओं को न
मारना और किन को मारना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में
कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(अग्ने) विद्या को प्राप्त हुए राजन् ! तू (वरुणस्य) प्राप्त होने योग्य श्रेष्ठ
सुख के (नाभिम्) संयोग करनेहारे (इमम्) इस (द्विपदाम्) दो पगवाले मनुष्य, पक्षी आदि (चतुष्पदाम्) चार पगवाले (पशूनाम्) गाय आदि पशुओं की (त्वचम्)
चमड़े से ढाँकनेवाले और (त्वष्टुः) सुखप्रकाशक ईश्वर की (प्रजानाम्) प्रजाओं के
(प्रथमम्) आदि (जनित्रम्) उत्पत्ति के निमित्त (परमे) उत्तम (व्योमन्) आकाश में
वर्त्तमान (ऊर्णायुम्) भेड़ आदि को (मा हिंसीः) मत मार (ते) तेरे लिये मैं ईश्वर
(यम्) जिस (आरण्यम्) बनैले (उष्ट्रम्) हिंसक ऊँट को (अनुदिशामि) बतलाता हूँ,
(तेन) उससे सुरक्षित अन्नादि से (चिन्वानः) बढ़ता हुआ (तन्वः) शरीर
में (निषीद) निवास कर (ते) तेरा (शुक्) शोक उस जंगली ऊँट को (ऋच्छतु) प्राप्त हो
और जिस द्वेषीजन से हम लोग (द्विष्मः) अप्रीति करें (तम्) उसको (ते) तेरा (शुक्) शोक
(ऋच्छतु) प्राप्त होवे ॥५० ॥
भावार्थभाषाः -हे
राजन् ! जिन भेड़ आदि के रोम और त्वचा मनुष्यों के सुख के लिये होती हैं और जो ऊँट
भार उठाते हुए मनुष्यों को सुख देते हैं, उनको जो
दुष्टजन मारा चाहें, उनको संसार के दुःखदायी समझो और उनको
अच्छे प्रकार दण्ड देना चाहिये और जो जंगली ऊँट हानिकारक हों, उन्हें भी दण्ड देना चाहिये ॥५० ॥
यजुर्वेद अध्याय 13 मंत्र (31-40) यजुर्वेद अध्याय 13 मंत्र (51-58)
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know