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यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र: 51 से 58

 

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र: 51 से 58

 

अ॒जो ह्य॒ग्नेरज॑निष्ट॒ शोका॒त् सोऽ अ॑पश्यज्जनि॒तार॒मग्रे॑। तेन॑ दे॒वा दे॒वता॒मग्र॑मायँ॒स्तेन॒ रोह॑माय॒न्नुप॒ मेध्या॑सः। श॒र॒भमा॑र॒ण्यमनु॑ ते दिशामि॒ तेन॑ चिन्वा॒नस्त॒न्वो᳕ निषी॑द। श॒र॒भं ते॒ शुगृ॑च्छतु॒ यं द्वि॒ष्मस्तं ते॒ शुगृ॑च्छतु ॥५१ ॥

 

फिर मनुष्यों को कौन से पशु न मारने और कौन से मारने चाहियें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! तू जो (हि) निश्चित (अजः) बकरा (अजनिष्ट) उत्पन्न होता है, (सः) वह (अग्रे) प्रथम (जनितारम्) उत्पादक को (अपश्यत्) देखता है, जिससे (मेध्यासः) पवित्र हुए (देवाः) विद्वान् (अग्रम्) उत्तम सुख और (देवताम्) दिव्यगुणों के (उपायन्) उपाय को प्राप्त होते हैं और जिससे (रोहम्) वृद्धियुक्त प्रसिद्धि को (आयन्) प्राप्त होवें, (तेन) उससे उत्तम गुणों, उत्तम सुख तथा (तेन) उससे वृद्धि को प्राप्त हो। जो (आरण्यम्) बनैली (शरभम्) शेही (ते) तेरी प्रजा को हानि देनेवाली है, उसको (अनुदिशामि) बतलाता हूँ, (तेन) उससे बचाए हुए पदार्थ से (चिन्वानः) बढ़ता हुआ (तन्वः) शरीर में (निषीद) निवास कर और (तम्) उस (शरभम्) शल्यकी को (ते) तेरा (शुक्) शोक (ऋच्छतु) प्राप्त हो और (ते) तेरे (यम्) जिस शत्रु से हम लोग (द्विष्मः) द्वेष करें, उसको (शोकात्) शोकरूप (अग्नेः) अग्नि से (शुक्) शोक अर्थात् शोक से बढ़कर शोक अत्यन्त शोक (ऋच्छतु) प्राप्त होवे ॥५१ ॥

भावार्थभाषाः -मनुष्यों को उचित है कि बकरे और मोर आदि श्रेष्ठ पशु पक्षियों को न मारें और इनकी रक्षा कर के उपकार के लिये संयुक्त करें और जो अच्छे पशुओं और पक्षियों के मारनेवाले हों, उनको शीघ्र ताड़ना देवें। हाँ, जो खेती को उजाड़ने हारे श्याही आदि पशु हैं, उन को प्रजा की रक्षा के लिये मारें ॥५१ ॥

 

त्वं य॑विष्ठ दा॒शुषो॒ नॄः पा॑हि शृणु॒धी गिरः॑। रक्षा॑ तो॒कमु॒त त्मना॑ ॥५२ ॥

 

फिर कैसे पशुओं की रक्षा करना और हनना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (यविष्ठ) अत्यन्त युवा ! (त्वम्) तू रक्षा किये हुए इन पशुओं से (दाशुषः) सुखदाता (नॄन्) धर्मरक्षक मनुष्यों की (पाहि) रक्षा कर, इन (गिरः) सत्य वाणियों को (शृणुधि) सुन और (त्मना) अपने आत्मा से मनुष्य (उत्) और पशुओं के (तोकम्) बच्चों की (रक्ष) रक्षा कर ॥५२ ॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य मनुष्यादि प्राणियों के रक्षक पशुओं को बढ़ाते हैं और कृपामय उपदेशों को सुनते-सुनाते हैं, वे आन्तर्य सुख को प्राप्त होते हैं ॥५२ ॥

 

अ॒पां त्वेम॑न्त्सादयाम्य॒पां त्वोद्म॑न्सादयाम्य॒पां त्वा॒ भस्म॑न्त्सादयाम्य॒पां त्वा॒ ज्योति॑षि सादयाम्य॒पां त्वाय॑ने सादयाम्यर्ण॒वे त्वा॒ सद॑ने सादयामि समु॒द्रे त्वा॒ सद॑ने सादयामि। सरि॒रे त्वा॒ सद॑ने सादयाम्य॒पां त्वा॒ क्षये॑ सादयाम्य॒पां त्वा॒ सधि॑षि सादयाम्य॒पां त्वा॒ सद॑ने सादयाम्य॒पां त्वा॑ स॒धस्थे॑ सादयाम्य॒पां त्वा॒ योनौ॑ सादयाम्य॒पां त्वा॒ पुरी॑षे सादयाम्य॒पां त्वा॒ पाथ॑सि सादयामि। गाय॒त्रेण॑ त्वा॒ छन्द॑सा सादयामि॒ त्रैष्टु॑भेन त्वा॒ छन्द॑सा सादयामि॒ जाग॑तेन त्वा॒ छन्द॑सा सादया॒म्यानु॑ष्टुभेन त्वा॒ छन्द॑सा सादयामि॒ पाङ्क्ते॑न त्वा॒ छन्द॑सा सादयामि ॥५३ ॥

 

अब पढ़नेवालों को पढ़ानेवाले क्या उपदेश करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्य ! जैसे शिक्षा करनेवाला मैं (अपाम्) प्राणों की रक्षा के निमित्त (एमन्) गमनशील वायु में (त्वा) तुझ को (सादयामि) स्थापित करता हूँ, (अपाम्) जलों की (ओद्मन्) आर्द्रतायुक्त ओषधियों में (त्वा) तुझ को (सादयामि) स्थापना करता हूँ, (अपाम्) प्राप्त हुए काष्ठों की (भस्मन्) राख में (त्वा) तुझ को (सादयामि) संयुक्त करता हूँ, (अपाम्) व्याप्त हुए बिजुली आदि अग्नि के (ज्योतिषि) प्रकाश में (त्वा) तुझ को (सादयामि) नियुक्त करता हूँ, (अपाम्) अवकाशवाले (अयने) स्थान में (त्वा) तुझ को (सादयामि) बैठाता हूँ, (सदने) स्थिति के योग्य (अर्णवे) प्राणविद्या में (त्वा) तुझ को (सादयामि) संयुक्त करता हूँ, (सदने) गमनशील (समुद्रे) मन के विषय में (त्वा) तुझ को (सादयामि) सम्बद्ध करता हूँ, (सदने) प्राप्त होने योग्य (सरिरे) वाणी के विषय में (त्वा) तुझ को (सादयामि) संयुक्त करता हूँ, (अपाम्) प्राप्त होने योग्य पदार्थों के सम्बन्धी (क्षये) घर में (त्वा) तुझ को (सादयामि) स्थापित करता हूँ, (अपाम्) अनेक प्रकार के व्याप्त शब्दों के सम्बन्धी (सधिषि) उस पदार्थ में कि जिससे अनेक शब्दों को समान यह जीव सुनता है अर्थात् कान के विषय में (त्वा) तुझ को (सादयामि) स्थित करता हूँ, (अपाम्) जलों के (सदने) अन्तरिक्षरूप स्थान में (त्वा) तुझ को (सादयामि) स्थापित करता हूँ, (अपाम्) जलों के (सधस्थे) तुल्यस्थान में (त्वा) तुझ को (सादयामि) स्थापित करता हूँ, (अपाम्) जलों के (योनौ) समुद्र में (त्वा) तुझ को (सादयामि) नियुक्त करता हूँ, (अपाम्) जलों की (पुरीषे) रेती में (त्वा) तुझ को (सादयामि) नियुक्त करता हूँ, (अपाम्) जलों के (पाथसि) अन्न में (त्वा) तुझ को (सादयामि) प्रेरणा करता हूँ, (गायत्रेण) गायत्री छन्द से निकले (छन्दसा) स्वतन्त्र अर्थ के साथ (त्वा) तुझको (सादयामि) नियुक्त करता हूँ, (त्रैष्टुभेन) त्रिष्टुप् मन्त्र से विहित (छन्दसा) शुद्ध अर्थ के साथ (त्वा) तुझ को (सादयामि) नियुक्त करता हूँ, (जागतेन) जगती छन्द में कहे (छन्दसा) आनन्दायक अर्थ के साथ (त्वा) तुझ को (सादयामि) नियुक्त करता हूँ, (आनुष्टुभेन) अनुष्टुप् मन्त्र में कहे (छन्दसा) शुद्ध अर्थ के साथ (त्वा) तुझ को (सादयामि) प्रेरणा करता हूँ और (पाङ्क्तेन) पङ्क्ति मन्त्र से प्रकाशित हुए (छन्दसा) निर्मल अर्थ के साथ (त्वा) तुझ को (सादयामि) प्रेरित करता हूँ, वैसे ही तू वर्त्तमान रह ॥५३ ॥

भावार्थभाषाः -विद्वानों को चाहिये कि सब पुरुषों को और सब स्त्रियों को वेद पढ़ा और जगत् के वायु आदि पदार्थों की विद्या में निपुण करके उन को उन पदार्थों से प्रयोजन साधने में प्रवृत्त करें ॥५३ ॥

 

अ॒यं पु॒रो भुव॒स्तस्य॑ प्रा॒णो भौ॑वा॒यनो व॑स॒न्तः प्रा॑णाय॒नो गा॑य॒त्री वा॑स॒न्ती गा॑य॒त्र्यै गा॑य॒त्रं गा॑य॒त्रादु॑पा॒ꣳशुरु॑पा॒ꣳशोस्त्रि॒वृत् त्रि॒वृतो॑ रथन्त॒रं वसि॑ष्ठ॒ऽ ऋषिः॑। प्र॒जाप॑तिगृहीतया॒ त्वया॑ प्राणं गृ॑ह्णामि प्र॒जाभ्यः॑ ॥५४ ॥

 

अब मनुष्यों को सृष्टि से कौन-कौन उपकार लेने चाहियें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे स्त्रि ! जैसे (अयम्) यह (पुरो भुवः) प्रथम होनेवाला अग्नि है, (तस्य) उसका (भौवायनः) सिद्ध कारण से रचा हुआ (प्राणः) जीवन का हेतु प्राण (प्राणायनः) प्राणों की रचना का हेतु (वसन्तः) सुगन्धि आदि में बसाने हारा वसन्त ऋतु (वासन्ती) वसन्त ऋतु का जिस में व्याख्यान हो, वह (गायत्री) गाते हुए का रक्षक गायत्रीमन्त्रार्थ ईश्वर (गायत्र्यै) गायत्री मन्त्र का (गायत्रम्) गायत्री छन्द (गायत्रात्) गायत्री से (उपांशुः) समीप से ग्रहण किया जाय (उपांशोः) उस जप से (त्रिवृत्) कर्म, उपासना और ज्ञान के सहित वर्त्तमान फल (त्रिवृतः) उस तीन प्रकार के फल से (रथन्तरम्) रमणीय पदार्थों से तारने हारा सुख और (वसिष्ठः) अतिशय करके निवास का हेतु (ऋषिः) सुख प्राप्त कराने हारा विद्वान् (प्रजापतिगृहीतया) अपने सन्तानों के रक्षक पति को ग्रहण करनेवाली (त्वया) तेरे साथ (प्रजाभ्यः) सन्तानोत्पत्ति के लिये (प्राणम्) बलयुक्त जीवन का ग्रहण करते हैं, वैसे तेरे साथ मैं सन्तान होने के लिये बल का (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ ॥५४ ॥

भावार्थभाषाः -हे स्त्री-पुरुषो ! तुम को योग्य है कि अग्नि आदि पदार्थों को उपयोग में ला के परस्पर प्रीति के साथ अति विषयसेवा को छोड़ और सब संसार से बल का ग्रहण करके सन्तानों को उत्पन्न करो ॥५४ ॥

 

अ॒यं द॑क्षि॒णा वि॒श्वक॑र्मा॒ तस्य॒ मनो॑ वैश्वकर्म॒णं ग्री॒ष्मो मा॑न॒सस्त्रि॒ष्टुब् ग्रैष्मी॑ त्रि॒ष्टुभः॑ स्वा॒रꣳ स्वा॒राद॑न्तर्य्या॒मो᳖ऽन्तर्या॒मात् प॑ञ्चद॒शः प॑ञ्चद॒शाद् बृ॒हद् भ॒रद्वा॑ज॒ऽ ऋषिः॑ प्र॒जाप॑तिगृहीतया॒ त्वया॒ मनो॑ गृह्णामि प्र॒जाभ्यः॑ ॥५५ ॥

 

अब मनुष्यों को ग्रीष्म ऋतु में कैसे वर्त्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे स्त्रि ! जैसे (दक्षिणा) दक्षिण दिशा से (अयम्) यह (विश्वकर्मा) सब कर्मों का निमित्त वायु के समान विद्वान् चलता है, (तस्य) उस वायु के योग से (वैश्वकर्मणम्) जिससे सब कर्म सिद्ध होते हैं, वह (मनः) विचारस्वरूप प्रेरक मन (मानसः) मन की गर्मी से उत्पन्न के तुल्य (ग्रीष्मः) रसों का नाशक ग्रीष्म ऋतु (ग्रैष्मी) ग्रीष्म ऋतु के व्याख्यानवाला (त्रिष्टुप्) त्रिष्टुप् छन्द (त्रिष्टुभः) त्रिष्टुप् छन्द के (स्वारम्) ताप से हुआ तेज (स्वारात्) और तेज से (अन्तर्यामः) मध्याह्न के प्रहर में विशेष दिन और (अन्तर्यामात्) मध्याह्न के विशेष दिन से (पञ्चदशः) पन्द्रह तिथियों की पूरक स्तुति के योग्य पूर्णमासी (पञ्चदशात्) उस पूर्णमासी से (बृहत्) बड़ा (भरद्वाजः) अन्न वा विज्ञान की पुष्टि और धारण का निमित्त (ऋषिः) शब्दज्ञान प्राप्त कराने हारा कान (प्रजापतिगृहीतया) प्रजापालक पति राजा ने ग्रहण की विद्या से न्याय का ग्रहण करता है, वैसे मैं (त्वया) तेरे साथ (प्रजाभ्यः) प्रजाओं के लिये (मनः) विचारस्वरूप विज्ञानयुक्त चित्त का ग्रहण करता है, वैसे मैं (त्वया) तेरे साथ विज्ञान का (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ ॥५५ ॥

भावार्थभाषाः -स्त्री पुरुषों को चाहिये कि प्राण का मन और मन का प्राण नियमन करनेवाला है, ऐसा जान के प्राणायाम से आत्मा को शुद्ध करते हुए पुरुषों से सम्पूर्ण सृष्टि के पदार्थों का विज्ञान स्वीकार करें ॥५५ ॥

 

अ॒यं प॒श्चाद् वि॒श्वव्य॑चा॒स्तस्य॒ चक्षु॑र्वै॒श्वव्यच॒सं व॒र्षाश्चा॑क्षु॒ष्यो᳕ जग॑ती वा॒र्षी जग॑त्या॒ऽ ऋक्स॑म॒मृक्स॑माच्छु॒क्रः शु॒क्रात् स॑प्तद॒शः स॑प्तद॒शाद् वै॑रू॒पं ज॒मद॑ग्नि॒र्ऋषिः॑ प्र॒जाप॑तिगृहीतया॒ त्वया॒ चक्षु॑र्गृह्णामि प्र॒जाभ्यः॑ ॥५६ ॥

 

अब स्त्री पुरुष आपस में कैसा आचरण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे उत्तम मुखवाली स्त्री ! जैसे (अयम्) यह सूर्य्य के समान विद्वान् (विश्वव्यचाः) सब संसार को चारों ओर के प्रकाश से व्यापक होकर प्रकट करता (पश्चात्) पश्चिम दिशा में वर्त्तमान (तस्य) उस सूर्य्य का (वैश्वव्यचसम्) प्रकाशक किरणरूप (चक्षुः) नेत्र (चाक्षुष्यः) नेत्र से देखने योग्य (वर्षाः) जिस समय मेघ वर्षते हैं, वह वर्षा ऋतु (वार्षी) वर्षा ऋतु के व्याख्यानवाला (जगती) संसार में प्रसिद्ध जगती छन्द (जगत्याः) जगती छन्द से (ऋक्समम्) ऋचाओं के सेवन का हेतु विज्ञान (ऋक्समात्) उस विज्ञान से (शुक्रः) पराक्रम (शुक्रात्) पराक्रम से (सप्तदशः) सत्रह तत्त्वों का पूरक विज्ञान (सप्तदशात्) उस विज्ञान से (वैरूपम्) अनेक रूपों का हेतु जगत् का ज्ञान और जैसे (जमदग्निः) प्रकाशस्वरूप (ऋषिः) रूप का प्राप्त कराने हारा नेत्र (प्रजापतिगृहीतया) सन्तानरक्षक पति ने ग्रहण की हुई विद्यायुक्त स्त्री के साथ (प्रजाभ्यः) प्रजाओं के लिये तेरे साथ (चक्षुः) विद्यारूपी नेत्रों का ग्रहण करता है, वैसे मैं तेरे साथ संसार से बल को (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ ॥५६ ॥

भावार्थभाषाः -स्त्री-पुरुषों को चाहिये कि सामवेद के पढ़ने से सूर्य आदि प्रसिद्ध जगत् को स्वभाव से जान के सब सृष्टि के गुणों के दृष्टान्त से अच्छा देखें और चरित्र ग्रहण करें ॥५६ ॥

 

इ॒दमु॑त्त॒रात् स्व॒स्तस्य॒ श्रोत्र॑ꣳ सौ॒वꣳ श॒रछ्रौ॒त्र्यनु॒ष्टुप् शा॑र॒द्य᳖नु॒ष्टुभ॑ऽ ऐ॒डमै॒डान् म॒न्थी म॒न्थिन॑ऽ एकवि॒ꣳशऽ ए॑कवि॒ꣳशाद् वै॑रा॒जं वि॒श्वामि॑त्र॒ऽ ऋषिः॑ प्र॒जाप॑तिगृहीतया॒ त्वया॒ श्रोत्रं॑ गृह्णामि प्र॒जाभ्यः॑ ॥५७ ॥

 

अब शरद् ऋतु में कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे सौभाग्यवती ! जैसे (इदम्) यह (उत्तरात्) सब से उत्तर भाग में (स्वः) सुखों का साधन दिशारूप है, (तस्य) उसके (सौवम्) सुख का साधन (श्रोत्रम्) कान (श्रौत्री) कान की सम्बन्धी (शरत्) शरदृतु (शारदी) शरद् ऋतु के व्याख्यानवाला (अनुष्टुप्) प्रबद्ध अर्थवाला अनुष्टुप् छन्द (अनुष्टुभः) उससे (ऐडम्) वाणी के व्याख्यान से युक्त मन्त्र (ऐडात्) उस मन्त्र से (मन्थी) पदार्थों के मथने का साधन (मन्थिनः) उस साधन से (एकविंशः) इक्कीस विद्याओं का पूर्ण करने हारा सिद्धान्त (एकविंशाद्) उस सिद्धान्त से (वैराजम्) विविध पदार्थों के प्रकाशक सामवेद के ज्ञान को प्राप्त हुआ (विश्वामित्रः) सब से मित्रता का हेतु (ऋषिः) शब्द ज्ञान कराने हारा कान और (प्रजाभ्यः) उत्पन्न हुई बिजुली आदि के लिये (श्रोत्रम्) सुनने के साधन को ग्रहण करते हैं, वैसे (प्रजापतिगृहीतया) प्रजापालक पति ने ग्रहण की (त्वया) तेरे साथ में प्रसिद्ध हुई बिजुली आदि से (श्रोत्रम्) सुनने के साधन कान को (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ ॥५७ ॥

भावार्थभाषाः -स्त्री पुरुषों को चाहिये कि ब्रह्मचर्य्य के साथ विद्या पढ़ और विवाह करके बहुश्रुत होवें और सत्यवक्ता आप्त जनों से सुने बिना पढ़ी हुई भी विद्या फलदायक नहीं होती, इसलिये सदैव सज्जनों का उपदेश सुन के सत्य का धारण और मिथ्या को छोड़ देवें ॥५७ ॥

 

इ॒यमु॒परि॑ म॒तिस्तस्यै॒ वाङ्मा॒त्या हे॑म॒न्तो वा॒च्यः प॒ङ्क्तिर्है॑म॒न्ती प॒ङ्क्त्यै नि॒धन॑वन्नि॒धन॑वतऽ आग्रय॒णऽ आ॑ग्रय॒णात् त्रि॑णवत्रयस्त्रि॒ꣳशौ त्रि॑णवत्रयस्त्रि॒ꣳशाभ्या॑ꣳ शाक्वररैव॒ते वि॒श्वक॑र्म॒ऽ ऋषिः॑ प्र॒जाप॑तिगृहीतया॒ त्व॒या वाचं॑ गृह्णामि प्र॒जाभ्यः॑ ॥५८ ॥

 

अब हेमन्त ऋतु में किस प्रकार वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे विदुषी स्त्री ! जो (इयम्) यह (उपरि) सब से ऊपर विराजमान (मतिः) बुद्धि है, (तस्यै) उस (मात्या) बुद्धि का होना वा कर्म (वाक्) वाणी और (वाच्यः) उस का होना वा कर्म (हेमन्तः) गर्मी का नाशक हेमन्त ऋतु (हैमन्ती) हेमन्त ऋतु के व्याख्यानवाला (पङ्क्तिः) पङ्क्ति छन्द (पङ्क्त्यै) उस पङ्क्ति छन्द का (निधनवत्) मृत्यु का प्रशंसित व्याख्यानवाला सामवेद का भाग (निधनवतः) उससे (आग्रयणः) प्राप्ति का साधन ज्ञान का फल (आग्रयणात्) उससे (त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ) बारह और तेंतीस सामवेद के स्तोत्र (त्रिणवत्रयस्त्रिंशाभ्याम्) उन स्तोत्रों से (शाक्वररैवते) शक्ति और धन के साधक पदार्थों को जान के (विश्वकर्मा) सब सुकर्मों के सेवनेवाला (ऋषिः) वेदार्थ का वक्ता पुरुष वर्त्तता है, वैसे मैं (प्रजापतिगृहीतया) प्रजापालक पति ने ग्रहण की (त्वया) तेरे साथ (प्रजाभ्यः) प्रजाओं के लिये (वाचम्) विद्या और अच्छी शिक्षा से युक्त वाणी को (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ ॥५८ ॥

भावार्थभाषाः -स्त्री पुरुषों को चाहिये कि विद्वानों की शिक्षारूप वाणी को सुन के अपनी बुद्धि बढ़ावें, उस बुद्धि से हेमन्त ऋतु में कर्त्तव्य कर्म और सामवेद के स्तोत्रों को जान महात्मा ऋषि लोगों के समान वर्त्ताव कर विद्या और अच्छी शिक्षा से शुद्ध की वाणी को स्वीकार करके अपने सन्तानों के लिये भी इन वाणियों का उपदेश सदैव किया करें ॥५८ ॥ इस अध्याय में ईश्वर, स्त्रीपुरुष और व्यवहार का वर्णन करने से इस अध्याय में कहे अर्थ की पूर्व अध्याय के अर्थ के साथ सङ्गति जानो ॥ यह यजुर्वेदभाष्य का तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१३॥


यजुर्वेद अध्याय 13 मंत्र (41-50)                 यजुर्वेद अध्याय 14

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