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ज्ञानवर्धक कथाएं -भाग -14

 

ज्ञानवर्धक कथाएं -भाग -14

 

👉 परतन्त्रता संसार का सबसे बड़ा अभिशाप है।

 

एक सन्त के आश्रम में एक शिष्य कहीं से एक तोता ले आया और उसे पिंजरे में रख लिया। सन्त ने कई बार शिष्य से कहा कि “इसे यों कैद न करो। परतन्त्रता संसार का सबसे बड़ा अभिशाप है।”

 

किन्तु शिष्य अपने बालसुलभ कौतूहल को न रोक सका और उसे अर्थात् पिंजरे में बन्द किये रहा।

 

तब सन्त ने सोचा कि “तोता को ही स्वतंत्र होने का पाठ पढ़ाना चाहिए”

 

उन्होंने पिंजरा अपनी कुटी में मँगवा लिया और तोते को नित्य ही सिखाने लगे- ‘पिंजरा छोड़ दो, उड़ जाओ।’

 

कुछ दिन में तोते को वाक्य भली भाँति रट गया। तब एक दिन सफाई करते समय भूल से पिंजरा खुला रह गया। सन्त कुटी में आये तो देखा कि तोता बाहर निकल आया है और बड़े आराम से घूम रहा है साथ ही ऊँचे स्वर में कह भी रहा है- “पिंजरा छोड़ दो, उड़ जाओ।”

 

सन्त को आता देख वह पुनः पिंजरे के अन्दर चला गया और अपना पाठ बड़े जोर-जोर से दुहराने लगा। सन्त को यह देखकर बहुत ही आश्चर्य हुआ। साथ ही दुःख भी।

 

वे सोचते रहे “इसने केवल शब्द को ही याद किया! यदि यह इसका अर्थ भी जानता होता- तो यह इस समय इस पिंजरे से स्वतंत्र हो गया होता!

 

दोस्तों ठीक इसी तरह - हम सब भी ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें सीखते और करते तो हैं किन्तु उनका मर्म नहीं समझ पाते और उचित समय तथा अवसर प्राप्त होने पर भी उसका लाभ नहीं उठा पाते और जहाँ के तहाँ रह जाते हैं।

 

👉 लक्ष्य में तन्मय हो जाइए

 

मन बड़ा शक्तिवान है परन्तु बड़ा चञ्चल । इसलिए उसकी समस्त शक्तियाँ छितरी रहती हैं और इसलिए मनुष्य सफलता को आसानी से नहीं पा लेता। सफलता के दर्शन उसी समय होते हैं, जब मन अपनी वृत्तियों को छोड़कर किसी एक वृत्ति पर केन्द्रित हो जाता है, उसके अलावा और कुछ उसके आमने-सामने और पास रहती ही नहीं, सब तरफ लक्ष्य ही लक्ष्य, उद्देश्य ही उद्देश्य रहता है।

 

मनुष्य अनन्त शक्तियों का घर है, जब मनुष्य तन्मय होता है तो जिस शक्ति के प्रति तन्मय होता है, वह शक्ति जागृत होती और उस व्यक्ति को वह सराबोर कर देती है। पर जो लोग तन्मयता के रहस्य को नहीं जानते अपने जीवन में जिन्हें कभी एकाग्रता की साधना का मौका नहीं मिला, वे हमेशा डाल डाल और पात पात पर डोलते रहे परन्तु सफलता देवी के वे दर्शन नहीं कर सके।

 

जिन्हें हम विघ्न कहते हैं, वे हमारे चित्त की विभिन्न वृत्तियाँ हैं जो अपने अनेक आकार प्रकार धारण करके सफल नहीं होने देतीं। यदि हम लक्ष्य सिद्ध करना चाहते हैं तो यह आवश्यक है कि लक्ष्य से विमुख करने वाली जितनी भी विचार धारायें उठें और पथ-भ्रष्ट करने का प्रयत्न करें हमें उनसे अपना सम्बन्ध विच्छेद करते जाना चाहिए। और यदि हम चाहें अपनी दृढ़ता को कायम रखें, अपने आप पर विश्वास रखें तो हम ऐसा कर सकते हैं, इसमें किसी प्रकार का कोई सन्देह नहीं है। एक ऐतिहासिक घटना इस सम्बन्ध में हमें विशेष प्रकाश दे सकती है।

 

सिंहगढ़ जीतने के लिए मराठों के एक दल ने उस पर चढ़ाई कर दी। प्रसिद्ध तानाजी राव इसके सेनानी थे। अपने सैनिकों के साथ किले की दीवार पर रस्सी टाँगकर चढ़ गये। शत्रुओं के साथ घोर युद्ध होने लगा। तानाजी खेत रहे। इस पर वीर मराठा चंचल हो गये और एकाग्रता भंग होते ही उन्होंने भागना आरम्भ कर दिया, जिस रास्ते आये थे उसी रास्ते से उतरने का प्रयत्न करने लगे। तानाजी के भाई सूर्याजी ने उस रास्ते को बन्द करने के लिए रस्सी को काट दिया और कह दिया कि भागने का रास्ता बन्द हो गया। भागने का रास्ता बन्द हो जाने पर जीत का ही रास्ता खुला मिला, इस लिए जो शक्ति भागने में लग गई थी उसने फिर जीत का बाना पहना। और सिंहगढ़ पर विजय प्राप्त की।

 

मन की अपरिमित शक्ति को जो लक्ष्य की ओर लगा देते हैं और लक्ष्य भ्रष्ट करने वाली वृत्तियों पर अंकुश लगा लेते हैं अथवा उनसे अपना मुँह मोड़ देते हैं वे ही जीवन के क्षेत्र में विजयी होते हैं, सफल होते हैं। शास्त्रों में इस सफलता को पाने के लिए बाण के समान गतिवाला बनने का आदेश दिया है-

“शर वत् तन्मयो भवेत्”

बाण की तरह तन्मय होना चाहिए।

 

धनुष से छूटा बाण अपनी सीध में ही चलता जाता है, वह आस-पास की किसी वस्तु के साथ अपना संपर्क न रख कर सीधा वहीं पहुँचता है जो कि उसके सामने होती है। अर्थात् सामने की तरफ ही उसकी आँख खुली रहती है और सब ओर से बन्द। इसलिये जो लोग लक्ष्य की तरफ आँख रखकर शेष सभी ओर से अपनी इन्द्रियों को मोड़ लेते है और लक्ष्य की ओर ही समस्त शक्ति लगा देते हैं वे ही सफल होते हैं। उस समय अर्जुन से पूछे गये द्रोण के प्रश्न-उत्तर में अर्जुन की तरह उनकी अन्तरात्मा में एक ही ध्वनि गूँजती है अतः अपना लक्ष्य ही दिखाई देता है।

 

पं श्रीराम शर्मा आचार्य

अखण्ड ज्योति फरवरी 1950

👉 मन को जानें:-

 

फ्रायड ने अपनी जीवन कथा में एक छोटा-सा उल्लेख किया है। उसने लिखा है कि एक बार वह बगीचे में अपनी पत्नी और छोटे बच्चे के साथ घूमने गया। देर तक वह पत्नी से बातचीत करता रहा, टहलता रहा। फिर जब सांझ होने लगी और बगीचे के द्वार बंद होने का समय करीब हुआ, तो फ्रायड की पत्नी को खयाल आया कि ‘उसका बेटा न-मालूम कहां छूट गया है? इतने बड़े बगीचे में वह पता नहीं कहां होगा? द्वार बंद होने के करीब हैं, उसे कहां खोजूं?’ फ्रायड की पत्नी चिंतित हो गयी, घबड़ा गयी।

 

फ्रायड ने कहा, ‘‘घबड़ाओ मत! एक प्रश्र मैं पूछता हूँ तुमने उसे कहीं जाने से मना तो नहीं किया? अगर मना किया है तो सौ में निन्यानबे मौके तुम्हारे बेटे के उसी जगह होने के हैं, जहां जाने से तुमने उसे मना किया है।

 

”उसकी पत्नी ने कहा, ‘‘मना तो किया था कि फव्वारे पर मत पहुंच जाना।’

 

फ्रायड ने कहा, ” अगर तुम्हारे बेटे में थोड़ी भी बुद्धि है, तो वह फव्वारे पर ही मिलेगा। वह वहीं होगा। क्योंकि कई बेटे ऐसे भी होते हैं, जिनमें बुद्धि नहीं होती। उनका हिसाब रखना फिजूल है। ” फ्रायड की पत्नी बहुत हैरान हो गयी। वे गये दोनों भागे हुए फव्वारे की ओर। उनका बेटा फव्वारे पर पानी में पैर लटकाए बैठा पानी से खिलवाड़ कर रहा था।

 

फ्रायड की पत्नी ने कहा, ‘‘बड़ा आश्‍चर्य! तुमने कैसा पता लगा लिया कि हमारा बेटा यहां होगा? फ्रायड ने कहा, "आश्चर्य इसमें कुछ भी नहीं है। मन को जहां जाने से रोका जाये, मन वहीं जाने के लिए आकर्षित होता है। जहां के लिए कहा जाये, मत जाना वहां, एक छिपा हुआ रहस्य शुरू हो जाता है कि मन वहीं जाने को तत्‍पर हो जाता है।

 

” फ्रायड ने कहा, यह तो आश्‍चर्य नहीं है कि मैंने तुम्हारे बेटे का पता लगा लिया, आश्‍चर्य यह है कि मनुष्य-जाति इस छोटे-से सूत्र का पता अब तक नहीं लगा पायी। और इस छोटे-से सूत्र को बिना जाने जीवन का कोई रहस्य कभी उदघाटित नहीं हो पाता। इस छोटे-से सूत्र का पता न होने के कारण मनुष्य-जाति ने अपना सारा धर्म; सारी नीति, सारे समाज की व्यवस्था सप्रेशन पर, दमन पर खड़ी की हुई है।

 

 

👉 कहाँ छुपी हैं शक्तियां!

 

एक बार देवताओं में चर्चा हो रहो थी, चर्चा का विषय था मनुष्य की हर मनोकामनाओं को पूरा करने वाली गुप्त चमत्कारी शक्तियों को कहाँ छुपाया जाये। सभी देवताओं में इस पर बहुत वाद- विवाद हुआ। एक देवता ने अपना मत रखा और कहा कि इसे हम एक जंगल की गुफा में रख देते हैं। दूसरे देवता ने उसे टोकते हुए कहा नहीं- नहीं हम इसे पर्वत की चोटी पर छिपा देंगे। उस देवता की बात ठीक पूरी भी नहीं हुई थी कि कोई कहने लगा, न तो हम इसे कहीं गुफा में छिपाएंगे और न ही इसे पर्वत की चोटी पर हम इसे समुद्र की गहराइयों में छिपा देते हैं यही स्थान इसके लिए सबसे उपयुक्त रहेगा।

 

सबकी राय खत्म हो जाने के बाद एक बुद्धिमान देवता ने कहा क्यों न हम मानव की चमत्कारिक शक्तियों को मानव -मन की गहराइयों में छिपा दें। चूँकि बचपन से ही उसका मन इधर -उधर दौड़ता रहता है, मनुष्य कभी कल्पना भी नहीं कर सकेगा कि ऐसी अदभुत और विलक्षण शक्तियां उसके भीतर छिपी हो सकती हैं। और वह इन्हें बाह्य जगत में खोजता रहेगा अतः इन बहुमूल्य शक्तियों को हम उसके मन की निचली तह में छिपा देंगे। बाकी सभी देवता भी इस प्रस्ताव पर सहमत हो गए। और ऐसा ही किया गया, मनुष्य के भीतर ही चमत्कारी शक्तियों का भण्डार छुपा दिया गया, इसलिए कहा जाता है मानव मवन में अद्भुत शक्तियां निहित हैं।

 

दोस्तों इस कहानी का सार यह है कि मानव मन असीम ऊर्जा का कोष है। इंसान जो भी चाहे वो हासिल कर सकता है। मनुष्य के लिए कुछ भी असाध्य नहीं है। लेकिन बड़े दुःख की बात है उसे स्वयं ही विश्वास नहीं होता कि उसके भीतर इतनी शक्तियां विद्यमान हैं। अपने अंदर की शक्तियों को पहचानिये, उन्हें पर्वत, गुफा या समुद्र में मत ढूंढिए बल्कि अपने अंदर खोजिए और अपनी शक्तियों को निखारिए। हथेलियों से अपनी आँखों को ढंककर अंधकार होने का शिकायत मत कीजिये। आँखें खोलिए, अपने भीतर झांकिए और अपनी अपार शक्तियों का प्रयोग कर अपना हर एक सपना पूरा कर डालिये।

 

👉 मजदूर के जूते

 

एक बार एक शिक्षक संपन्न परिवार से सम्बन्ध रखने वाले एक युवा शिष्य के साथ कहीं टहलने निकले उन्होंने देखा की रास्ते में पुराने हो चुके एक जोड़ी जूते उतरे पड़े हैं, जो संभवतः पास के खेत में काम कर रहे गरीब मजदूर के थे जो अब अपना काम ख़त्म कर घर वापस जाने की तैयारी कर रहा था।

 

शिष्य को मजाक सूझा उसने शिक्षक से कहागुरु जी क्यों न हम ये जूते कहीं छिपा कर झाड़ियों के पीछे छिप जाएं; जब वो मजदूर इन्हें यहाँ नहीं पाकर घबराएगा तो बड़ा मजा आएगा!!

 

शिक्षक गंभीरता से बोले, किसी गरीब के साथ इस तरह का भद्दा मजाक करना ठीक नहीं है क्यों ना हम इन जूतों में कुछ सिक्के डाल दें और छिप कर देखें की इसका मजदूर पर क्या प्रभाव पड़ता है!!

 

शिष्य ने ऐसा ही किया और दोनों पास की झाड़ियों में छुप गए।

 

मजदूर जल्द ही अपना काम ख़त्म कर जूतों की जगह पर आ गया उसने जैसे ही एक पैर जूते में डाले उसे किसी कठोर चीज का आभास हुआ, उसने जल्दी से जूते हाथ में लिए और देखा की अन्दर कुछ सिक्के पड़े थे, उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और वो सिक्के हाथ में लेकर बड़े गौर से उन्हें पलट -पलट कर देखने लगा फिर उसने इधर -उधर देखने लगा, दूर -दूर तक कोई नज़र नहीं आया तो उसने सिक्के अपनी जेब में डाल लिए अब उसने दूसरा जूता उठाया, उसमे भी सिक्के पड़े थे …मजदूर भावविभोर हो गया, उसकी आँखों में आंसू आ गए, उसने हाथ जोड़ ऊपर देखते हुए कहा – हे भगवान्, समय पर प्राप्त इस सहायता के लिए उस अनजान सहायक का लाख -लाख धन्यवाद, उसकी सहायता और दयालुता के कारण आज मेरी बीमार पत्नी को दावा और भूखें बच्चों को रोटी मिल सकेगी।

 

मजदूर की बातें सुन शिष्य की आँखें भर आयीं शिक्षक ने शिष्य से कहा –  क्या तुम्हारी मजाक वाली बात की अपेक्षा जूते में सिक्का डालने से तुम्हे कम ख़ुशी मिली?

 

शिष्य बोला, आपने आज मुझे जो पाठ पढाया है, उसे मैं जीवन भर नहीं भूलूंगा आज मैं उन शब्दों का मतलब समझ गया हूँ जिन्हें मैं पहले कभी नहीं समझ पाया था कि लेने की अपेक्षा देना कहीं अधिक आनंददायी है देने का आनंद असीम है देना देवत्त है।

 

👉 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति (भाग 18)

 

👉 कर्मफल के सिद्धान्त को समझना भी अनिवार्य

इस सम्बन्ध में एक बड़ी मार्मिक घटना है। महाराष्ट्र का कोई व्यक्ति उनसे मिलने आया। उसकी आयु यही कोई ३०- ३५ वर्ष रही होगी। पर जिन्दगी की मार ने उसे असमय बूढ़ा कर दिया था। रुखे- उलझे सफेद बाल, हल्की पीली सी धंसी आँखें। चेहरे पर विषाद की घनी छाया। दुबली- पतली कद- काठी, सांवला रंग- रूप। बड़ी आशा और उम्मीद लेकर वह गुरुदेव के पास आया था। आते ही उसने प्रणाम करते हुए अपना नाम बताया उदयवीर घोरपड़े। साथ ही यह कहा कि वह महाराष्ट्र के जलगांव के पास के किसी गांव का रहने वाला है। इतना सा परिचय देने के बाद वह फफक- फफक कर रो पड़ा। और रोते हुए उसने अपनी विपद् कथा कह सुनायी।

 

सचमुच ही उसकी कहानी करुणा से भरी थी। लम्बी बीमारी से पत्नी की मृत्यु, डकैती में घर की सारी सम्पत्ति का लुट जाना और साथ ही सभी स्वजनों की नृशंस हत्या। वह स्वयं तो इसलिए बच गया क्योंकि कहीं काम से बाहर गया था। अब निर्धनता और प्रियजनों के विछोह ने उसे अर्ध विक्षिप्त बना दिया था। जीवन उसके लिए अर्थहीन था और मौत ने उसे अस्वीकार कर दिया था। अपनी कहानी सुनाते हुए उसने एक रट लगा रखी थी कि गुरुजी! मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ। मैंने तो किसी का भी कुछ नहीं बिगाड़ा था। भगवान ऐसा अन्यायी क्यों है? पूज्य गुरुदेव ने बड़े प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- बेटा! अभी तेरा मन ठीक नहीं है। मैं तुझे कुछ बताऊँगा भी तो तुझे समझ नहीं आएगा।

 

अभी तो मैं तुझे एक कहानी सुनाता हूँ। यह कहानी उस समय जन्मी जब भगवान श्रीकृष्ण पाण्डवों के दूत बनकर कौरव सभा में गए थे। और वहाँ उन्होंने उद्दण्ड दुर्योधन को डपटते हुए अपना विराट् रूप दिखाया। इस दिव्य रूप को भीष्म, विदुर जैसे भक्तों ने देखा। ऐसे में धृतराष्ट्र ने भी कुछ समय के लिए आँखों का वरदान माँगा, ताकि वह भी भगवान् की दिव्य छवि निहार सके। कृपालु प्रभु ने धृतराष्ट्र की प्रार्थना स्वीकार की। तभी धृतराष्ट्र ने कहा- भगवन् आप कर्मफल सिद्धान्त को जीवन की अनिवार्य सच्चाई मानते हैं। सर्वेश्वर मैं यह जानना चाहता हूँ, किन कर्मों के परिणाम स्वरूप मैं अन्धा हूँ।

 

भगवान ने धृतराष्ट्र की बात सुनकर कहा, धृतराष्ट्र इस सच्चाई को जानने के लिए मुझे तुम्हारे पिछले जन्मों को देखना पड़ेगा। भगवान के इन वचनों को सुनकर धृतराष्ट्र विगलित स्वर में बोले- कृपा करें प्रभु, आपके लिए भला क्या असम्भव है। कुरु सम्राट के इस कथन के साथ भगवान योगस्थ हो गए। और कहने लगे- धृतराष्ट्र मैं देख रहा हूँ कि पिछले तीन जन्मों में तुमने ऐसा कोई पाप नहीं किया है, जिसकी वजह से तुम्हें अन्धा होना पड़े? श्रीकृष्ण के इस कथन को सुनकर धृतराष्ट्र बोले- तब तो कर्मफल विधान मिथ्या सिद्ध हुआ प्रभु! नहीं धृतराष्ट्र अभी इतना शीघ्र किसी निष्कर्ष पर न पहुँचो और भगवान् धृतराष्ट्र के विगत जन्मों का हाल बताने लगे। एक- एक करके पैंतीस जन्म बीत गए।

 

सुनने वाले चकित थे। धृतराष्ट्र का समाधान नहीं हो पा रहा था। तभी प्रभु बोले- धृतराष्ट्र मैं इस समय तुम्हारे १०८ वें जन्म को देख रहा हूँ। मैं देख रहा हूँ- एक युवक खेल- खेल में पेड़ पर लगे चिड़ियों के घोंसले उठा रहा है। और देखते- देखते उसने चिड़ियों के सभी बच्चों की आँखें फोड़ दीं। ध्यान से सुनो धृतराष्ट्र, यह युवक और कोई नहीं तुम ही हो। विगत जन्मों में तुम्हारे पुण्य कर्मों की अधिकता के कारण यह पाप उदय न हो सका। इस बार पुण्य क्षीण होने के कारण इस अशुभ कर्म का उदय हुआ है।

 

इस कथा को सुनाते हुए परम पूज्य गुरुदेव ने उस युवक के माथे पर भौहों के बीच हल्का सा दबाव दिया। और वह निस्पन्द होकर किसी अदृश्य लोक में प्रविष्ट हो गया। कुछ मिनटों में उसने पता नहीं क्या देख लिया। जब वापस उसकी चेतना लौटी तो वह शान्त था। गुरुदेव उससे बोले- समझ गए न बेटा। वह बोला- हाँ गुरुजी मेरे ही कर्म हैं। यह सब मेरे ही दुष्कर्मों का फल है। कोई बात नहीं बेटा, जब जागो तभी सबेरा। अब से तुम अपने जीवन को संवारों। मैं तुम्हारा साथ दूँगा। क्या करना होगा, उस युवक ने पूछा। चित्त के संस्कारों को जानो और इनका परिष्कार करो। गुरुदेव के इस कथन ने उसके जीवन में नयी राह खोल दी।

 

।।।। क्रमशः जारी

✍🏻 डॉ। प्रणव पण्ड्या

📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति

 

👉 भगवान् की कृपा Bhagwan Ki Kripa

 

किसी स्थान पर संतों की एक सभा चल रही थी, किसी ने एक घड़े में गंगाजल भरकर वहां रखवा दिया ताकि संतजन को जब प्यास लगे तो गंगाजल पी सकें।

 

संतों की उस सभा के बाहर एक व्यक्ति खड़ा था, उसने गंगाजल से भरे घड़े को देखा तो उसे तरह-तरह के विचार आने लगे। वह सोचने लगा:- "अहा, यह घड़ा कितना भाग्यशाली है, एक तो इसमें किसी तालाब पोखर का नहीं बल्कि गंगाजल भरा गया और दूसरे यह अब सन्तों के काम आयेगा। संतों का स्पर्श मिलेगा, उनकी सेवा का अवसर मिलेगा, ऐसी किस्मत किसी-किसी की ही होती है।

 

घड़े ने उसके मन के भाव पढ़ लिए और घड़ा बोल पड़ा:- बंधु मैं तो मिट्टी के रूप में शून्य पड़ा था, किसी काम का नहीं था, कभी नहीं लगता था कि भगवान् ने हमारे साथ न्याय किया है। फिर एक दिन एक कुम्हार आया, उसने फावड़ा मार-मारकर हमको खोदा और गधे पर लादकर अपने घर ले गया। वहां ले जाकर हमको उसने रौंदा, फिर पानी डालकर गूंथा, चाक पर चढ़ाकर तेजी से घुमाया, फिर गला काटा, फिर थापी मार-मारकर बराबर किया।

 

बात यहीं नहीं रूकी, उसके बाद आंवे के अंदर आग में झोंक दिया जलने को। इतने कष्ट सहकर बाहर निकला तो गधे पर लादकर उसने मुझे बाजार में भेज दिया, वहां भी लोग ठोक-ठोककर देख रहे थे कि ठीक है कि नहीं?

 

ठोकने-पीटने के बाद मेरी कीमत लगायी भी तो क्या- बस 20 से 30 रुपये, मैं तो पल-पल यही सोचता रहा कि:- "हे ईश्वर सारे अन्याय मेरे ही साथ करना था, रोज एक नया कष्ट एक नई पीड़ा देते हो, मेरे साथ बस अन्याय ही अन्याय होना लिखा है।"

 

भगवान ने कृपा करने की भी योजना बनाई है यह बात थोड़े ही मालूम पड़ती थी। किसी सज्जन ने मुझे खरीद लिया और जब मुझमें गंगाजल भरकर सन्तों की सभा में भेज दिया तब मुझे आभास हुआ कि कुम्हार का वह फावड़ा चलाना भी भगवान् की कृपा थी। उसका वह गूंथना भी भगवान् की कृपा थी, आग में जलाना भी भगवान् की कृपा थी और बाजार में लोगों के द्वारा ठोके जाना भी भगवान् की कृपा ही थी।

 

अब मालूम पड़ा कि सब भगवान् की कृपा ही कृपा थी। परिस्थितियां हमें तोड़ देती हैं, विचलित कर देती हैं- इतनी विचलित की भगवान के अस्तित्व पर भी प्रश्न उठाने लगते हैं। क्यों हम सबमें इतनी शक्ति नहीं होती ईश्वर की लीला समझने की, भविष्य में क्या होने वाला है उसे देखने की? इसी नादानी में हम ईश्वर द्वारा कृपा करने से पूर्व की जा रही तैयारी को समझ नहीं पाते।

 

बस कोसना शुरू कर देते हैं कि सारे पूजा-पाठ, सारे जतन कर रहे हैं फिर भी ईश्वर हैं कि प्रसन्न होने और अपनी कृपा बरसाने का नाम ही नहीं ले रहे। पर हृदय से और शांत मन से सोचने का प्रयास कीजिए, क्या सचमुच ऐसा है या फिर हम ईश्वर के विधान को समझ ही नहीं पा रहे? आप अपनी गाड़ी किसी ऐसे व्यक्ति को चलाने को नहीं देते जिसे अच्छे से ड्राइविंग न आती हो तो फिर ईश्वर अपनी कृपा उस व्यक्ति को कैसे सौंप सकते हैं जो अभी मन से पूरा पक्का न हुआ हो।

 

कोई साधारण प्रसाद थोड़े ही है ये, मन से संतत्व का भाव लाना होगा। ईश्वर द्वारा ली जा रही परीक्षा की घड़ी में भी हम सत्य और न्याय के पथ से विचलित नहीं होते तो ईश्वर की अनुकंपा होती जरूर है, किसी के साथ देर तो किसी के साथ सवेर।

 

यह सब पूर्वजन्मों के कर्मों से भी तय होता है कि ईश्वर की कृपादृष्टि में समय कितना लगना है। घड़े की तरह परीक्षा की अवधि में जो सत्यपथ पर टिका रहता है वह अपना जीवन सफल कर लेता है।

 

👉 बापु रोटी लाया।।।

 

डाइनिंग टेबल पर खाना देखकर बच्चा भड़का, फिर वही सब्जी, रोटी और दाल में तड़का।।।? मैंने कहा था न कि मैं पिज्जा खाऊंगा, रोटी को बिलकुल हाथ नहीं लगाउंगा! बच्चे ने थाली उठाई और बाहर गिराई।।।

 

बाहर थे कुत्ता और आदमी, दोनों रोटी की तरफ लपके।। कुत्ता आदमी पर भोंका, आदमी ने रोटी में खुद को झोंका और हाथों से दबाया।। कुत्ता कुछ भी नहीं समझ पाया उसने भी रोटी के दूसरी तरफ मुहं लगाया।।

 

दोनों भिड़े जानवरों की तरह एक तो था ही जानवर, दूसरा भी बन गया था जानवर।। आदमी ज़मीन पर गिरा, कुत्ता उसके ऊपर चढ़ा कुत्ता गुर्रा रहा था और अब आदमी कुत्ता है या कुत्ता आदमी है कुछ भी नहीं समझ आ रहा था।।।

 

नीचे पड़े आदमी का हाथ लहराया, हाथ में एक पत्थर आया कुत्ता कांय-कांय करता भागा।। आदमी अब जैसे नींद से जागा हुआ खड़ा और लड़खड़ाते कदमों से चल पड़ा।।।। वह कराह रहा था रह-रह कर हाथों से खून टपक रहा था बहते खून के साथ ही आदमी एक झोंपड़ी पर पहुंचा।।

 

झोंपड़ी से एक बच्चा बाहर आया और ख़ुशी से चिल्लाया।। आ जाओ, सब आ जाओ बापू रोटी लाया, देखो बापू रोटी लाया, देखो बापू रोटी लाया।।

 

👉 सर्वस्व दान

 

एक पुराना मंदिर था। दरारें पड़ी थीं। खूब जोर से वर्षा हुई और हवा चली। मंदिर का बहुत-सा भाग लडख़ड़ा कर गिर पड़ा। उस दिन एक साधु वर्षा में उस मंदिर में आकर ठहरे थे। भाग्य से वह जहां बैठे थे उधर का कोना बच गया। साधु को चोट नहीं लगी। साधु ने सवेरे पास के बाजार में चंदा जमा करना प्रारंभ किया। उन्होंने सोचा- ‘‘मेरे रहते भगवान का मंदिर गिरा है तो इसे बनवा कर ही तब मुझे कहीं जाना चाहिए।’’

 

बाजार वालों में श्रद्धा थी। साधु विद्वान थे। उन्होंने घर-घर जाकर चंदा एकत्र किया। मंदिर बन गया। भगवान की मूर्त की बड़े भारी उत्सव के साथ पूजा हुई। भंडारा हुआ। सबने आनंद से भगवान का प्रसाद लिया। भंडारे के दिन शाम को सभा हुई। साधु बाबा दाताओं को धन्यवाद देने के लिए खड़े हुए। उनके हाथ में एक कागज था। उसमें लम्बी सूची थी।

 

उन्होंने कहा- ‘‘सबसे बड़ा दान एक बुढिया माता ने दिया है। वह स्वयं आकर दे गई थीं।’’ लोगों ने सोचा कि अवश्य किसी बुढिया ने एक-दो लाख रुपए दिए होंगे लेकिन सबको बड़ा आश्चर्य हुआ जब बाबा ने कहा- ‘‘उन्होंने मुझे एक रुपए का सिक्का और थोड़ा-सा आटा दिया है।’’

 

लोगों ने समझा कि साधु मजाक कर रहे हैं। साधु ने आगे कहा- ‘‘वह लोगों के घर आटा पीस कर अपना काम चलाती हैं। यह एक रुपया वह कई महीने में एकत्र कर पाई थीं। यही उनकी सारी पूंजी थी। मैं सर्वस्व दान करने वाली उन श्रद्धालु माता को प्रणाम करता हूं।’’

 

लोगों ने मस्तक झुका लिए। सचमुच बुढिया का मन से दिया हुआ यह सर्वस्व दान ही सबसे बड़ा था।

 

👉 दो मित्र

 

दो मित्र एक आम के बगीचे में पहुँचे। पेड़ पके हुए मीठे फलों से लदे हुए थे। दोनों का मन फलों को देखकर खाने के लिए ललचाने लगा। बाग का माली उधर से निकला। उसने आगन्तुकों की इच्छा को जाना और कहा-मालिक की आज्ञा है कि कोई यात्री एक दिन यहाँ ठहर सकता है, जितना खा सके आम खा सकता है पर साथ नहीं ले जा सकता। सो आप लोग चाहे तो दिन भर इच्छानुसार आम खायें पर संध्या होते-होते चले जावें। साथ में एक भी आम न ले जा सकेंगे।

 

मित्रों को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे अपनी रुचि के आम खाने को चल दिये। पेड़ सभी अच्छे थे आम सभी मीठे थे सो एक मित्र जिस पेड़ पर चढ़ा उसी पर बैठा-बैठा खाने लगा। शाम तक खूब पेट भरा और तृप्त होकर नीचे आ गया।

 

दूसरे ने सोचा, इस सुन्दर बगीचे की जाँच पड़ताल कर ले। खट्टे, मीठे और जाति किस्म का पता लगाते अन्त में खाना आरम्भ करेंगे। वह इसी खोज बीन में लगा रहा और शाम हो गई। माली ने दोनों आगन्तुकों को बाहर किया और बाग का फाटक बन्द कर दिया। एक का पेट भर चुका था दूसरे का खाली। एक प्रसन्न था दूसरा असन्तुष्ट।

 

फाटक के बाहर बैठे हुए एक दरवेश ने कहा-दोस्तों यह संसार आम के बगीचे की तरह है। थोड़ी देर यहाँ रहने का मौका मिलता है और समय बीतते ही विदाई की घड़ी आ पहुँचती है। बुद्धिमान वह है जो सत्कर्मों द्वारा तृप्ति दायक सत्परिणामों का लाभ से सका, मूर्ख वह है जो मोह ममता प्रपंच में इधर-उधर मारा फिरे। लगता है कि तुम में से भी एक ने मूर्खता और एक ने बुद्धिमत्ता बरती है।

 

📖 अखण्ड ज्योति मई 1964

 

👉 भगवान् की कृपा

 

किसी स्थान पर संतों की एक सभा चल रही थी, किसी ने एक घड़े में गंगाजल भरकर वहां रखवा दिया ताकि संतजन को जब प्यास लगे तो गंगाजल पी सकें।

 

संतों की उस सभा के बाहर एक व्यक्ति खड़ा था, उसने गंगाजल से भरे घड़े को देखा तो उसे तरह-तरह के विचार आने लगे। वह सोचने लगा:- "अहा, यह घड़ा कितना भाग्यशाली है, एक तो इसमें किसी तालाब पोखर का नहीं बल्कि गंगाजल भरा गया और दूसरे यह अब सन्तों के काम आयेगा। संतों का स्पर्श मिलेगा, उनकी सेवा का अवसर मिलेगा, ऐसी किस्मत किसी-किसी की ही होती है।

 

घड़े ने उसके मन के भाव पढ़ लिए और घड़ा बोल पड़ा:- बंधु मैं तो मिट्टी के रूप में शून्य पड़ा था, किसी काम का नहीं था, कभी नहीं लगता था कि भगवान् ने हमारे साथ न्याय किया है। फिर एक दिन एक कुम्हार आया, उसने फावड़ा मार-मारकर हमको खोदा और गधे पर लादकर अपने घर ले गया।

 

वहां ले जाकर हमको उसने रौंदा, फिर पानी डालकर गूंथा, चाक पर चढ़ाकर तेजी से घुमाया, फिर गला काटा, फिर थापी मार-मारकर बराबर किया। बात यहीं नहीं रूकी, उसके बाद आंवे के अंदर आग में झोंक दिया जलने को। इतने कष्ट सहकर बाहर निकला तो गधे पर लादकर उसने मुझे बाजार में भेज दिया, वहां भी लोग ठोक-ठोककर देख रहे थे कि ठीक है कि नहीं?

 

ठोकने-पीटने के बाद मेरी कीमत लगायी भी तो क्या- बस 20 से 30 रुपये, मैं तो पल-पल यही सोचता रहा कि:- "हे ईश्वर सारे अन्याय मेरे ही साथ करना था, रोज एक नया कष्ट एक नई पीड़ा देते हो, मेरे साथ बस अन्याय ही अन्याय होना लिखा है।" भगवान ने कृपा करने की भी योजना बनाई है यह बात थोड़े ही मालूम पड़ती थी।

 

किसी सज्जन ने मुझे खरीद लिया और जब मुझमें गंगाजल भरकर सन्तों की सभा में भेज दिया तब मुझे आभास हुआ कि कुम्हार का वह फावड़ा चलाना भी भगवान् की कृपा थी। उसका वह गूंथना भी भगवान् की कृपा थी, आग में जलाना भी भगवान् की कृपा थी और बाजार में लोगों के द्वारा ठोके जाना भी भगवान् की कृपा ही थी।

 

अब मालूम पड़ा कि सब भगवान् की कृपा ही कृपा थी।

 

परिस्थितियां हमें तोड़ देती हैं, विचलित कर देती हैं- इतनी विचलित की भगवान के अस्तित्व पर भी प्रश्न उठाने लगते हैं। क्यों हम सबमें इतनी शक्ति नहीं होती ईश्वर की लीला समझने की, भविष्य में क्या होने वाला है उसे देखने की? इसी नादानी में हम ईश्वर द्वारा कृपा करने से पूर्व की जा रही तैयारी को समझ नहीं पाते। बस कोसना शुरू कर देते हैं कि सारे पूजा-पाठ, सारे जतन कर रहे हैं फिर भी ईश्वर हैं कि प्रसन्न होने और अपनी कृपा बरसाने का नाम ही नहीं ले रहे। पर हृदय से और शांत मन से सोचने का प्रयास कीजिए, क्या सचमुच ऐसा है या फिर हम ईश्वर के विधान को समझ ही नहीं पा रहे?

 

आप अपनी गाड़ी किसी ऐसे व्यक्ति को चलाने को नहीं देते जिसे अच्छे से ड्राइविंग न आती हो तो फिर ईश्वर अपनी कृपा उस व्यक्ति को कैसे सौंप सकते हैं जो अभी मन से पूरा पक्का न हुआ हो। कोई साधारण प्रसाद थोड़े ही है ये, मन से संतत्व का भाव लाना होगा।

 

ईश्वर द्वारा ली जा रही परीक्षा की घड़ी में भी हम सत्य और न्याय के पथ से विचलित नहीं होते तो ईश्वर की अनुकंपा होती जरूर है, किसी के साथ देर तो किसी के साथ सवेर। यह सब पूर्वजन्मों के कर्मों से भी तय होता है कि ईश्वर की कृपादृष्टि में समय कितना लगना है।

 

घड़े की तरह परीक्षा की अवधि में जो सत्यपथ पर टिका रहता है वह अपना जीवन सफल कर लेता है।

 

👉 अच्छा इंसान

 

एक 6 वर्ष का लड़का अपनी 4 वर्ष की छोटी बहन के साथ बाजार से जा रहा था। अचानक से उसे लगा कि, उसकी बहन पीछे रह गयी है। वह रुका, पीछे मुड़कर देखा तो जाना कि, उसकी बहन एक खिलौने के दुकान के सामने खडी कोई चीज निहार रही है।

 

लडका पीछे आता है और बहन से पूछता है, "कुछ चाहिये तुम्हें?" लडकी एक गुड़िया की तरफ उंगली उठाकर दिखाती है। बच्चा उसका हाथ पकडता है, एक जिम्मेदार बडे भाई की तरह अपनी बहन को वह गुड़िया देता है। बहन बहुत खुश हो गयी।

 

दुकानदार यह सब देख रहा था, बच्चे का प्रगल्भ व्यवहार देखकर आश्चर्यचकित भी हुआ। अब वह बच्चा बहन के साथ काउंटर पर आया और दुकानदार से पूछा, "सर, कितनी कीमत है इस गुड़िया की ?"

 

दुकानदार एक शांत और गहरा व्यक्ति था, उसने जीवन के कई उतार देखे थे, उन्होने बड़े प्यार और अपनत्व से बच्चे से पूछा, "बताओ बेटे, आप क्या दे सकते हो ?" बच्चा अपनी जेब से वो सारी सीपें बाहर निकालकर दुकानदार को देता है जो उसने थोड़ी देर पहले बहन के साथ समुंदर किनारे से चुन चुन कर बीनी थी!

 

दुकानदार वो सब लेकर यूँ गिनता है जैसे कोई पैसे गिन रहा हो।सीपें गिनकर वो बच्चे की तरफ देखने लगा तो बच्चा बोला,"सर कुछ कम हैं क्या?" दुकानदार : "नहीं - नहीं, ये तो इस गुड़िया की कीमत से भी ज्यादा है, ज्यादा मैं वापस देता हूँ" यह कहकर उसने 4 सीपें रख ली और बाकी की बच्चे को वापिस दे दी। बच्चा बड़ी खुशी से वो सीपें जेब मे रखकर बहन को साथ लेकर चला गया।

 

यह सब उस दुकान का कामगार देख रहा था, उसने आश्चर्य से मालिक से पूछा, "मालिक ! इतनी महंगी गुड़िया आपने केवल 4 सीपों के बदले मे दे दी?" दुकानदार एक स्मित संतुष्टि वाला हास्य करते हुये बोला, "हमारे लिये ये केवल सीप है पर उस 6 साल के बच्चे के लिये अतिशय मूल्यवान है और अब इस उम्र में वो नहीं जानता, कि पैसे क्या होते हैं?

 

पर जब वह बडा होगा ना।। और जब उसे याद आयेगा कि उसने सीपों के बदले बहन को गुड़िया खरीदकर दी थी। तब उसे मेरी याद जरुर आयेगी, और फिर वह सोचेगा कि, "यह विश्व अच्छे मनुष्यों से भी भरा हुआ है।"

 

यही बात उसके अंदर सकारात्मक दृष्टिकोण बढानेे में मदद करेगी और वो भी एक अच्छा इंन्सान बनने के लिये प्रेरित होगा।

 

👉 आत्मवत् सर्व भूतेषु:-

 

महामुनि मेतार्य ने कृच्छ चांद्रायण तप विधिवत सम्पन्न किया। अनुष्ठान काल में सम्पूर्ण एक मास केवल आँवला के फलों पर ही निर्वाह किया, इससे उनके शरीर में दुर्बलता तो थी किन्तु तपश्चर्या से अर्जित प्राण शक्ति और आँवले के कल्प के कारण उनके सम्पूर्ण शरीर में तेजोवलय स्पष्ट झलक रहा था।

 

अनुष्ठान समाप्त कर वे राजगृह की ओर चल पड़े। नियमानुसार वे दिन में एक बार किसी सद्गृहस्थ के घर भोजन ग्रहण कर लोक-कल्याण के कार्यों में जुटे रहते थे। उनकी लोक कल्याणकारी वृति देख कर मगध का हर नागरिक उनके आतिथ्य को अपना परम सौभाग्य मानता था।

 

आज वे राजगृह के स्वर्णकार के द्वार पर खड़े थे। स्वर्णकार कोई आभूषण बनाने के लिये स्वर्ण के छोटे-छोटे गोल, दाने बना कर ढेर करता जा रहा था। द्वार पर खड़े मेतार्य को देखा तो उसका हाथ वही रुक गया “ अतिथि देवोभव “ कहकर उसने मुनि मेतार्य का हार्दिक स्वागत किया। उनकी भिक्षा का प्रबन्ध करने के लिए जैसे ही वह अन्दर गया वृक्ष पर बैठे पक्षी उतर कर वहाँ आ गये जहाँ स्वर्णकार सोने के दाने गढ़ रहा था।

 

उन्होंने इन दानों को अन्न समझा सो जब तक स्वर्णकार वापस लौटे सारे दाने चुग डाले और उड़कर डाली में जा बैठे।

 

स्वर्णकार बाहर आया और सोने के बिखरे दानों को गायब पाया तो उसके गुस्से का ठिकाना न रहा। उसने देख द्वार पर मुनि मेतार्य चुपचाप बैठे है आतिथ्य भूल गया-पूछा- “आचार्य प्रवर यहाँ कोई आया तो नहीं|”

 

“नहीं तात! मेरे सिवाय और तो कोई नहीं आया|” मेतार्य ने सहज ही उत्तर दिया।

 

इस पर स्वर्णकार को क्रोध और भी बढ़ गया उसने निश्चय कर लिया मेतार्य ने ही वह स्वर्ण चुरा लिया और अब यहाँ ढोंग करके बैठा है।

 

मेतार्य से उसने पूछा- “स्वर्णकण तुमने चुराये हैं?”

 

इस पर वे कुछ न बोले। अब तो स्वर्णकार को और भी विश्वास हो गया कि मेतार्य ही वास्तविक चोर हैं सो उसने अन्य कुटुम्बियों को भी बुला लिया और उनकी अच्छी मरम्मत की। जितनी बार पूछा जाता- ‘तुमने स्वर्ण चुराया है|’ मेतार्य चुप रहते- कुछ भी न बोलते इससे उनका संदेह और बढ़ जाता।

 

अन्त में निश्चय किया गया कि मेतार्य के मस्तक पर गोले चमड़े की पट्टी बाँध कर चिल-चिलाती धूप में पटक दिया जाये। यही किया गया उनके मत्थे पर चमड़े की गीली पट्टी बाँध दी गई और धूप में कर दिया गया। जैसे जैसे पट्टी सूखती गई महर्षि का सिर कसता गया। शरीर पहले ही दुर्बल हो रहा था। पीड़ा सहन न हो सकी। वे चक्कर खाकर गिर पड़े। दिन उन्होंने प्राणान्तक पीड़ा में बिताया।

 

साँझ हो चली। वृक्ष पर बैठे पक्षियों ने बीट की तो वह दाने नीचे गिरे। किसी ने देखा तो कहा- “अरे सोने के दाने तो पक्षियों ने चुन लिये महर्षि को क्यों कष्ट दे रहे हो।“ स्वर्णकार हक्का बक्का रह गया।

 

उसने दौड़कर महर्षि के माथे की पट्टी खोली उन्हें जल पिलाया और दुःखी स्वर में पूछा- “महामहिम! आपने बता दिया होता कि स्वर्ण दाने पक्षियों ने चुगे हैं तो आपकी यह दुर्दशा क्यों होती?”

 

महर्षि मुस्कराये और बोले- “वैसा करने से जो दंड मैंने भुगता उससे भी कठोर दंड इन अज्ञानी पक्षियों को भुगतना पड़ता।“

 

महर्षि की इस महा दयालुता पर सबको रोमाँच हो आया। स्वर्णकार बोला- “जो प्राणिमात्र में अपनी तरह अपनी ही आत्मा को देखता है वही सच्चा साधु है।“

 

📖 अखण्ड ज्योति, मार्च-1971

 

👉 विश्वास की दौलत

 

सऊदी अरब में बुखारी नामक एक विद्वान रहते थे। वह अपनी ईमानदारी के लिए मशहूर थे। एक बार वह समुद्री जहाज से लंबी यात्रा पर निकले। उन्होंने सफर के खर्च के लिए एक हजार दीनार अपनी पोटली में बांध कर रख लिए। यात्रा के दौरान बुखारी की पहचान दूसरे यात्रियों से हुई। बुखारी उन्हें ज्ञान की बातें बताते।

 

एक यात्री से उनकी नजदीकियां कुछ ज्यादा बढ़ गईं। एक दिन बातों-बातों में बुखारी ने उसे दीनार की पोटली दिखा दी। उस यात्री को लालच आ गया। उसने उनकी पोटली हथियाने की योजना बनाई। एक सुबह उसने जोर-जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया, ‘हाय मैं मार गया। मेरा एक हजार दीनार चोरी हो गया।’ वह रोने लगा। जहाज के कर्मचारियों ने कहा, ‘तुम घबराते क्यों हो। जिसने चोरी की होगी, वह यहीं होगा। हम एक-एक की तलाशी लेते हैं। वह पकड़ा जाएगा।’

 

यात्रियों की तलाशी शुरू हुई। जब बुखारी की बारी आई तो जहाज के कर्मचारियों और यात्रियों ने उनसे कहा, ‘अरे साहब, आपकी क्या तलाशी ली जाए। आप पर तो शक करना ही गुनाह है।’ यह सुन कर बुखारी बोले, ‘नहीं, जिसके दीनार चोरी हुए है उसके दिल में शक बना रहेगा। इसलिए मेरी भी तलाशी भी जाए।’ बुखारी की तलाशी ली गई। उनके पास से कुछ नहीं मिला।

 

दो दिनों के बाद उसी यात्री ने उदास मन से बुखारी से पूछा, ‘आपके पास तो एक हजार दीनार थे, वे कहां गए?’ बुखारी ने मुस्करा कर कहा, ‘उन्हें मैंने समुद्र में फेंक दिया। तुम जानना चाहते हो क्यों? क्योंकि मैंने जीवन में दो ही दौलत कमाई थीं- एक ईमानदारी और दूसरा लोगों का विश्वास। अगर मेरे पास से दीनार बरामद होते और मैं लोगों से कहता कि ये मेरे हैं तो लोग यकीन भी कर लेते लेकिन फिर भी मेरी ईमानदारी और सच्चाई पर लोगों का शक बना रहता। मैं दौलत तो गंवा सकता हूं लेकिन ईमानदारी और सच्चाई को खोना नहीं चाहता।

 

👉 सकारात्मक सोच की शक्ति!

 

हम हमेशा एक कहावत सुनते हैं, जैसा हम सोचते हैं वैसा ही हम बन जाते हैं। ये कहावत पूरी तरह से सही हैं, क्योकि हमारा Mind एक वक्त में एक ही विचार कर सकता हैं Negative या Positive!

 

आप लोग हमेशा सुनते होंगे, हमें positive सोच रखनी चाहिए negative नहीं। क्या है ये positive और negative विचार?

 

दुनिया में हो रही घटनाओं को देखने का हम सभी का अपना अलग अलग नजरिया होता है। कुछ लोग इसे negative रूप में देखते हैं, अर्थात हमेशा कुछ न कुछ कमी निकालते रहते हैं जब कि कुछ लोग उसी घटना को positive रूप में देखते हैं और उसमे ये खोजते है कि इसमें क्या अच्छाई है, और उसी अच्छाई से सिख लेकर नित अपना जीवन सफल बनाते चले जाते हैं। वास्तव में हमारे जीवन में जो होता हैं अच्छे के लिए होता है। हमें कुछ समय के लिए उस घटना से दुःख जरुर होता है लेकिन बाद में यही पता चलता है कि ये हमारे लिए अच्छा ही हुआ।

 

आइये पढ़ते हैं एक कहानी >>>

 

एक ऋषि के दो शिष्य थे जिनमें से एक शिष्य सकारात्मक सोच वाला था वह हमेशा दूसरों की भलाई का सोचता था और दूसरा बहुत नकारात्मक सोच रखता था और स्वभाव से बहुत क्रोधी भी था। एक दिन महात्मा जी अपने दोनों शिष्यों की परीक्षा लेने के लिए उनको जंगल में ले गये।

 

जंगल में एक आम का पेड़ था जिस पर बहुत सारे खट्टे और मीठे आम लटके हुए थे। ऋषि ने पेड़ की ओर देखा और शिष्यों से कहा की इस पेड़ को ध्यान से देखो। फिर उन्होंने पहले शिष्य से पूछा की तुम्हें क्या दिखाई देता है।

 

शिष्य ने कहा कि ये पेड़ बहुत ही विनम्र है लोग इसको पत्थर मारते हैं फिर भी ये बिना कुछ कहे फल देता है। इसी तरह इंसान को भी होना चाहिए, कितनी भी परेशानी हो विनम्रता और त्याग की भावना नहीं छोड़नी चाहिए। फिर दूसरे शिष्य से पूछा कि तुम क्या देखते हो, उसने क्रोधित होते हुए कहा की ये पेड़ बहुत धूर्त है बिना पत्थर मारे ये कभी फल नहीं देता इससे फल लेने के लिए इसे मारना ही पड़ेगा।

 

इसी तरह मनुष्य को भी अपने मतलब की चीज़ें दूसरों से छीन लेनी चाहिए। गुरु जी हँसते हुए पहले शिष्य की बडाई की और दूसरे शिष्य से भी उससे सीख लेने के लिए कहा। सकारात्मक सोच हमारे जीवन पर बहुत गहरा असर डालती है। नकारात्मक सोच के व्यक्ति अच्छी चीज़ों मे भी बुराई ही ढूंढते हैं।

 

उदाहरण के लिए:- गुलाब के फूल को काँटों से घिरा देखकर नकारात्मक सोच वाला व्यक्ति सोचता है की “इस फूल की इतनी खूबसूरती का क्या फ़ायदा इतना सुंदर होने पर भी ये काँटों से घिरा है ”जबकि उसी फूल को देखकर सकारात्मक सोच वाला व्यक्ति बोलता है की “वाह! प्रकृति का कितना सुंदर कार्य है की इतने काँटों के बीच भी इतना सुंदर फूल खिला दिया” बात एक ही है लेकिन फ़र्क है केवल सोच का।

 

अब ये हम पर निर्भर करता है कि हम अपने दुखों को देखकर और दुखी होते चले जाएँ ये इससे सिख लेकर अपने जीवन को एक नयी दिशा में ले जाएँ। प्रकृति का ये नियम है कि आप जितना संघर्ष करोगे आपके सफलता का प्रतिशत उतना ही अधिक होगा। इसलिए संघर्ष करना हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिसा इससे भागे नहीं बल्क़ि इसे अपना दोस्त बना लें।

 

आप जब चाहे Negative Thinking को Positive Thinking में बदल सकते हैं। यदि आप Positive Thinking को पुरे निश्चय के साथ कई बार दोहराए की मुझे इस काम से डर नहीं लगता या कोई आशंका नहीं हैं मैं इसे बहुत अच्छे से पूरा करुगा या मेरा ये काम अवश्य सिद्ध होगा, तो आप निश्चत ही अपने काम में सफल हो जाऐगे।

 

अंत में कोई परिस्थिति कितनी भी बुरी क्यों न हो हमें उसे सकरात्मक नजरिये से देखना चाहिए क्योंकि ये हमारे जीवन को सफल बना सकता है, हमें इसकी power को अनदेखा नहीं करनी चाहिए।

 

संगठन में ताकत Strength in Organization 💪💪💪

 

एक वन में बहुत बडा अजगर रहता था। वह बहुत अभिमानी और अत्यंत क्रूर था। जब वह अपने बिल से निकलता तो सब जीव उससे डर कर भाग खडे होते। उसका मुंह इतना विकराल था कि खरगोश तक को निगल जाता था।

 

एक बार अजगर शिकार की तलाश में घूम रहा था। सारे जीव तो उसे बिल से निकलते देख कर ही भाग चुके थे। उसे कुछ न मिला तो वह क्रोधित होकर फुफकारने लगा और इधर-उधर खाक छानने लगा। वहीं निकट में एक हिरणी अपने नवजात शिशु को पत्तियों के ढेर के नीचे छिपा कर स्वयं भोजन की तलाश में दूर निकल गई थी। अजगर की फुफकार से सूखी पत्तियां उडने लगी और हिरणी का बच्चा नजर आने लगा। अजगर की नजर उस पर पडी हिरणी का बच्चा उस भयानक जीव को देख कर इतना डर गया कि उसके मुंह से चीख तक न निकल पाई। अजगर ने देखते-ही-देखते नवजात हिरण के बच्चे को निगल लिया।

 

तब तक हिरणी भी लौट आई थी, पर वह क्या करती? आंखों में आंसू भर जड होकर दूर से अपने बच्चे को काल का ग्रास बनते देखती रही। हिरणी के शोक का ठिकाना न रहा। उसने किसी-न-किसी तरह अजगर से बदला लेने की ठान ली। हिरणी की एक नेवले से दोस्ती थी। शोक में डूबी हिरणी अपने मित्र नेवले के पास गई और रो-रोकर उसे अपनी दुख-भरी कथा सुनाई। नेवले को भी बहुत दुख हुआ। वह दुख-भरे स्वर में बोला 'मित्र, मेरे बस में होता तो मैं उस नीच अजगर के सौ टुकडे कर डालता। पर क्या करें, वह छोटा-मोटा सांप नहीं है, जिसे मैं मार सकूं वह तो एक अजगर है। अपनी पूंछ की फटकार से ही मुझे अधमरा कर देगा। लेकिन यहां पास में ही चीटिंयों की एक बांबी हैं। वहां की रानी मेरी मित्र हैं। उससे सहायता मांगनी चाहिए।'

 

हिरणी ने निराश स्वर में विलाप किया “पर जब तुम्हारे जितना बडा जीव उस अजगर का कुछ बिगाडने में समर्थ नहीं हैं तो वह छोटी-सी चींटी क्या कर लेगी?” नेवले ने कहा 'ऐसा मत सोचो। उसके पास चींटियों की बहुत बडी सेना है | संगठन में बडी शक्ति होती है |'

 

हिरणी को कुछ आशा की किरण नजर आई। नेवला हिरणी को लेकर चींटी रानी के पास गया और उसे सारी कहानी सुनाई। चींटी रानी ने सोच-विचार कर कहा 'हम तुम्हारी सहायता करेंगे। हमारी बांबी के पास एक संकरीला नुकीले पत्थरों भरा रास्ता है। तुम किसी तरह उस अजगर को उस रास्ते से आने पर मजबूर करो। बाकी काम मेरी सेना पर छोड दो।'

 

नेवले को अपनी मित्र चींटी रानी पर पूरा विश्वास था। इस लिए वह अपनी जान जोखिम में डालने पर तैयार हो गया। दूसरे दिन नेवला जाकर सांप के बिल के पास अपनी बोली बोलने लगा। अपने शत्रु की बोली सुनते ही अजगर क्रोध में भर कर अपने बिल से बाहर आया। नेवला उसी संकरे रास्ते वाली दिशा में दौडा। अजगर ने पीछा किया। अजगर रुकता तो नेवला मुड कर फुफकारता और अजगर को गुस्सा दिला कर फिर पीछा करने पर मजबूर करता। इसी प्रकार नेवले ने उसे संकरीले रास्ते से गुजरने पर मजबूर कर दिया। नुकीले पत्थरों से उसका शरीर छिलने लगा। जब तक अजगर उस रास्ते से बाहर आया तब तक उसका काफ़ी शरीर छिल गया था और जगह-जगह से ख़ून टपक रहा था।

 

उसी समय चींटियों की सेना ने उस पर हमला कर दिया। चींटियां उसके शरीर पर चढकर छिले स्थानों के नंगे मांस को काटने लगीं। अजगर तडप उठा। अपना शरीर पटकने लगा जिससे और मांस छिलने लगा और चींटियों को आक्रमण के लिए नए-नए स्थान मिलने लगे। अजगर चींटियों का क्या बिगाडता? वे हजारों की गिनती में उस पर टूट पड रही थीं। कुछ ही देर में क्रूर अजगर ने तडप-तडप कर दम तोड दिया।

 

सीख -- संगठन शक्ति बड़े-बड़ों को धूल चटा देती है।

 

👉 कमी का एहसास

 

एक प्रेमी-युगल शादी से पहले काफी हँसी मजाक और नोक झोंक किया करते थे। शादी के बाद उनमें छोटी छोटी बातो पे झगड़े होने लगे। कल उनकी सालगिरह थी, पर बीबी ने कुछ नहीं बोला वो पति का रिस्पॉन्स देखना चाहती थी। सुबह पति जल्द उठा और घर से बाहर निकल गया। बीबी रुआँसी हो गई।

 

दो घण्टे बाद कॉलबेल बजी, वो दौड़ती हुई जाकर दरवाजा खोली। दरवाजे पर गिफ्ट और बकेट के साथ उसका पति था। पति ने गले लग के सालगिरह विश किया। फिर पति अपने कमरे मेँ चला गया। तभी पत्नि के पास पुलिस वाले का फोन आता है की आपके पति की हत्या हो चूकी है, उनके जेब में पड़े पर्स से आपका फोन नम्बर ढूढ़ के कॉल किया।

 

पत्नि सोचने लगी की पति तो अभी घर के अन्दर आये है। फिर उसे कही पे सुनी एक बात याद आ गई की मरे हुये इन्सान की आत्मा अपना विश पूरा करने एक बार जरूर आती है। वो दहाड़ मार के रोने लगी। उसे अपना वो सारा चूमना, लड़ना, झगड़ना, नोक-झोंक याद आने लगा। उसे पश्चतचाप होने लगा की अन्त समय में भी वो प्यार ना दे सकी।

 

वो बिलखती हुई रोने लगी। जब रूम में गई तो देखा उसका पति वहाँ नहीं था। वो चिल्ला चिल्ला के रोती हुई प्लीज कम बैक कम बैक कहने लगी, लगी कहने की अब कभी नहीं झगड़ूंगी। तभी बाथरूम से निकल के उसके कंधे पर किसी ने हाथ रख के पूछा क्या हुआ?

 

वो पलट के देखी तो उसके पति थे। वो रोती हुई उसके सीने से लग गइ फिर सारी बात बताई। तब पति ने बताया की आज सुबह उसका पर्स चोरी हो गया था। फिर दोस्त की दुकान से उधार लिया गिफ्ट।

 

जिन्दगी में किसी की अहमियत तब पता चलती है जब वो नही होता, हमलोग अपने दोस्तो, रिश्तेदारो से नोकझोंक करते है, पर जिन्दगी की करवटे कभी कभी भूल सुधार का मौका नहीं देती।

 

!! हँसी खुशी में प्यार से जिन्दगी बिताइये, नाराजगी को ज्यादा दिन मत रखिये !!

 

👉 अस्थिर आस्था के लूटेरे

 

एक विशाल नगर में हजारों भीख मांगने वाले थे। अभावों में भीख मांगकर आजीविका चलाना उनका पेशा था। उनमें कुछ अन्धे भी थे। उस नगर में एक ठग आया और भीखमंगो में सम्मलित हो गया। दो तीन दिन में ही उसने जान लिया कि उन भीखारियों में अंधे भीखारी अधिक समृद्ध थे। अन्धे होने के कारण दयालु लोग उन्हे कुछ विशेष ही दान देते थे। उनका धन देखकर ठग ललचाया। वह अंधो के पास पहुंच कर कहने लगा-“सूरदास महाराज ! धन्य भाग जो आप मुझे मिल गये। मै आप जैसे महात्मा की खोज में था! गुरूवर, आप तो साक्षात भगवान हो। मैं आप की सेवा करना चाहता हूँ! लीजिये भोजन ग्रहण कीजिए, मेरे सर पर कृपा का हाथ रखिए और मुझे आशीर्वाद दीजिये।“

 

अन्धे को तो जैसे बिन मांगी मुराद मिल गई। वह प्रसन्न हुआ और भक्त पर आशिर्वाद की झडी लगा दी। नकली भक्त असली से भी अधिक मोहक होता है। वह सेवा करने लगा। अंधे सभी साथ रहते थे। वैसे भी उन्हे आंखो वाले भीखमंगो पर भरोसा नहीं था। थोडे ही दिनों में ठग ने अंधो का विश्वास जीत लिया। अनुकूल समय देखकर उस भक्त ने, अंध सभा को कहा-“ महात्माओं मुझे आप सभी को तीर्थ-यात्रा करवाने की मनोकामना है। आपकी यह सेवा कर संतुष्ट होना चाहता हूँ। मेरा जन्म सफल हो जाएगा। सभी अंधे ऐसा श्रवणकुमार सा योग्य भक्त पा गद्गद थे। उन्हे तो मनवांछित की प्राप्ति हो रही थी। वे सब तैयार हो गये।सभी ने आपना अपना संचित धन साथ लिया और चल पडे। आगे आगे ठगराज और पिछे अंधो की कतार।

 

भक्त बोला- “महात्माओं, आगे भयंकर अट्वी है, जहाँ चोर डाकुओं का उपद्रव रहता है। आप अपने अपने धन को सम्हालें”। अंध-समूह घबराया ! हम तो अंधे है अपना अपना धन कैसे सुरक्षित रखें? अंधो ने निवेदन किया – “भक्त ! हमें तुम पर पूरा भरोसा है, तुम ही इस धन को अपने पास सुरक्षित रखो”, कहकर सभी ने नोटों के बंडल भक्त को थमा दिये। ठग ने इस गुरुवर्ग को आपस में ही लडा मारने की युक्ति सोच रखी थी। उसने सभी अंधो की झोलीयों में पत्थर रखवा दिये और कहा – “आप लोग मौन होकर चुपचाप चलते रहना, आपस में कोई बात न करना। कोई मीठी मीठी बातें करे तो उस पर विश्वास न करना और ये पत्थर मार-मार कर भगा देना। मै आपसे दूरी बनाकर नजर रखते हुए चलता रहूंगा”। इस प्रकार सभी का धन लेकर ठग चलते बना।

 

उधर से गुजर रहे एक राहगीर सज्जन ने, इस अंध-समूह को इधर उधर भटकते देख पूछा –“सूरदास जी आप लोग सीधे मार्ग न चल कर, उन्मार्ग – अटवी में क्यों भटक रहे हो”? बस इतना सुनते ही सज्जन पर पत्थर-वर्षा होने लगी। पत्थर के भी कहाँ आँखे होती है, एक दूसरे अंधो पर भी पत्थर बरसने लगे। अंधे आपस में ही लडकर समाप्त हो गये।

 

आपकी डाँवाडोल, अदृढ श्रद्धा को चुराने के लिएसेवा, परोपकार और सरलता का स्वांग रचकर ठग, आपकी आस्था को लूटेने के लिए तैयार बैठे है। यथार्थ दर्शन चिंतन के अभाव में हमारा ज्ञान भी अंध है। अज्ञान का अंधापा हो तो अस्थिर आस्था जल्दी विचलित हो जाती है। एक बार आस्था लूट ली जाती है तो सन्मार्ग दिखाने वाला भी शत्रु लगता है। अज्ञानता के कारण ही अपने  समृद्ध दर्शन की कीमत हम नहीं जान पाते। हमेशा डाँवाडोल श्रद्धा को सरल-जीवन, सरल धर्म के पालन का प्रलोभन देकर आसानी से ठगा जा सकता है। विचलित विचारी को गलत मार्ग पर डालना बड़ा आसान है। आस्था टूट जाने के भय में रहने वाले ढुल-मुल  अंधश्रद्धालु को सरलता से आपस में लडाकर खत्म किया जा सकता है।

 

अस्थिर आस्थाओं की ठग़ी ने आज जोर पकड़ा हुआ है। निष्ठा पर ढुल-मुल नहीं सुदृढ बनें।

 

👉 कमियाँ नज़र अंदाज़ करें

 

एक बार की बात है किसी राज्य में एक राजा था जिसकी केवल एक टाँग और एक आँख थी। उस राज्य में सभी लोग खुशहाल थे क्योंकि राजा बहुत बुद्धिमान और प्रतापी था।

 

एक बार राजा के विचार आया कि क्यों न खुद की एक तस्वीर बनवायी जाये। फिर क्या था, देश विदेशों से चित्रकारों को बुलवाया गया और एक से एक बड़े चित्रकार राजा के दरबार में आये। राजा ने उन सभी से हाथ जोड़कर आग्रह किया कि वो उसकी एक बहुत सुन्दर तस्वीर बनायें जो राजमहल में लगायी जाएगी।

 

सारे चित्रकार सोचने लगे कि राजा तो पहले से ही विकलांग है फिर उसकी तस्वीर को बहुत सुन्दर कैसे बनाया जा सकता है, ये तो संभव ही नहीं है और अगर तस्वीर सुन्दर नहीं बनी तो राजा गुस्सा होकर दंड देगा। यही सोचकर सारे चित्रकारों ने राजा की तस्वीर बनाने से मना कर दिया। तभी पीछे से एक चित्रकार ने अपना हाथ खड़ा किया और बोला कि मैं आपकी बहुत सुन्दर तस्वीर बनाऊँगा जो आपको जरूर पसंद आएगी।

 

फिर चित्रकार जल्दी से राजा की आज्ञा लेकर तस्वीर बनाने में जुट गया। काफी देर बाद उसने एक तस्वीर तैयार की जिसे देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और सारे चित्रकारों ने अपने दातों तले उंगली दबा ली।

 

उस चित्रकार ने एक ऐसी तस्वीर बनायीं जिसमें राजा एक टाँग को मोड़कर जमीन पे बैठा है और एक आँख बंद करके अपने शिकार पे निशाना लगा रहा है। राजा ये देखकर बहुत प्रसन्न हुआ कि उस चित्रकार ने राजा की कमजोरियों को छिपा कर कितनी चतुराई से एक सुन्दर तस्वीर बनाई है। राजा ने उसे खूब इनाम दिया।

 

तो मित्रों, क्यों ना हम भी दूसरों की कमियों को छुपाएँ, उन्हें नजरअंदाज करें और अच्छाइयों पर ध्यान दें। आजकल देखा जाता है कि लोग एक दूसरे की कमियाँ बहुत जल्दी ढूंढ लेते हैं चाहें हममें खुद में कितनी भी बुराइयाँ हों लेकिन हम हमेशा दूसरों की बुराइयों पर ही ध्यान देते हैं कि अमुक आदमी ऐसा है, वो वैसा है। सोचिये अगर हम भी उस चित्रकार की तरह दूसरों की कमियों पर पर्दा डालें उन्हें नजरअंदाज करें तो धीरे धीरे सारी दुनियाँ से बुराइयाँ ही खत्म हो जाएँगी और रह जाएँगी सिर्फ अच्छाइयाँ।

 

इस कहानी से ये भी शिक्षा मिलती है कि कैसे हमें नकारात्मक परिस्थितियों में भी सकारात्मक सोचना चाहिए और किस तरह हमारी सकारात्मक सोच हमारी समस्यायों को हल करती है।

 

👉 पहले अपने अंदर झांको

 

पुराने जमाने की बात है। गुरुकुल के एक आचार्य अपने शिष्य की सेवा भावना से बहुत प्रभावित हुए। विधा पूरी होने के बाद शिष्य को विदा करते समय उन्होंने आशीर्वाद के रूप में उसे एक ऐसा दिव्य दर्पण भेंट किया, जिसमें व्यक्ति के मन के भाव को दर्शाने की क्षमता थी।

 

शिष्य उस दिव्य दर्पण को पाकर बहुत खुश हुआ। उसने परीक्षा लेने की जल्दबाजी में दर्पण का मुँह सबसे पहले गुरुजी के सामने ही कर दिया। वह यह देखकर आश्चर्यचकित हो गया कि गुरुजी के हृदय में मोह, अहंकार, क्रोध आदि दुर्गुण परिलक्षित हो रहे थे। इससे उसे बड़ा दुख हुआ। वह तो अपने गुरुजी को समस्त दुर्गुणों से रहित सत्पुरुष समझता था।

 

दर्पण लेकर वह गुरुकुल से रवाना हो गया। उसने अपने कई मित्रों तथा अन्य परिचितों के सामने दर्पण रखकर परीक्षा ली। सब के हृदय में कोई न कोई दुर्गुण अवश्य दिखाई दिया। और तो और अपने माता व पिता की भी वह दर्पण से परीक्षा लेने से नहीं चूका। उनके हृदय में भी कोई न कोई दुर्गुण देखा, तो वह हतप्रभ हो उठा। एक दिन वह दर्पण लेकर फिर गुरुकुल पहुँचा।

 

उसने गुरुजी से विनम्रता पूर्वक कहा- “गुरुदेव, मैंने आपके दिए दर्पण की मदद से देखा कि सबके दिलों में तरह - तरह के दोष और दुर्गुण हैं।“ तब गुरु जी ने दर्पण का रुख शिष्य की ओर कर दिया। शिष्य दंग रह गया। क्योंकि उसके मन के प्रत्येक कोने में राग,द्वेष, अहंकार, क्रोध जैसे दुर्गुण थे।

 

तब गुरुजी बोले- “वत्स यह दर्पण मैंने तुम्हें अपने दुर्गुण देखकर जीवन में सुधार लाने के लिए दिया था। दूसरों के दुर्गुण देखने के लिए नहीं। जितना समय तुमने दूसरों के दुर्गुण देखने में लगाया, उतना समय यदि तुमने स्वयं को सुधारने में लगाया होता तो अब तक तुम्हारा व्यक्तित्व बदल चुका होता। मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि वह दूसरों के दुर्गुण जानने में ज्यादा रुचि रखता है। वह स्वयं को सुधारने के बारे में नहीं सोचता। इस दर्पण की यही सीख है जो तुम नहीं समझ सके।“

 

दोस्तों ये हम पर भी लागु होती है। हममें से भी ज़्यादातर लोग अपने अंदर छिपी बड़ी बड़ी बुराइयों को, दुर्गुणों को, गलत आदतों को भी सुधारना नहीं चाहते। लेकिन दूसरों की छोटी छोटी बुराइयों को भी उसके प्रति द्वेष भावना रखते हैं या उसे बुरा भला कहते हैं या फिर दूसरों को सुधरने के लिए उपदेश देने लग जाते हैं। तो सबसे पहले अपने अंदर झांको और अपनी बुराइयों को दूर करो।

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