ज्ञानवर्धक
कथाएं भाग -19
👉 वरिष्ठता: -
एक बगीचे में एक बाँस का झुरमुट था
और पास ही आम का वृक्ष उगा खड़ा था।
ऊँचाई में बाँस ऊपर था और आम नीचा।
बाँस ने आम से कहा- "देखते नहीं मैं तुमसे कितना ऊँचा हूँ। मेरी वरिष्ठता
तुम्हें स्वीकार करनी चाहिए।"
आम कुछ बोला नहीं- चुप होकर रह गया।
गर्मी का ऋतु आई। आम फलों से लद
गया। उसकी टहनियाँ फलों के भार से नीची झुक गई।
बाँस तना खड़ा था। वह आम से बोला-
"तुम्हें तो इन फलों की फसल ने और भी अधिक नीचे गिरा दिया अब तुम मेरी तुलना
में और भी अधिक छोटे हो गए हो।"
आम ने फिर भी कुछ नहीं कहा। सुनने
के बाद उसने आंखें नीची कर ली।
उस दिन थके मुसाफिर उधर से गुजरे।
कड़ाके की दुपहरी आग बरसा रही थी सो उन्हें छाया की तलाश थी। भूख-प्यास से बेचैन
हो रहे थे अलग। पहले बाँस का झुरमुट था। वही बहुत दूर से ऊंचा दीख रहा था। चारों
ओर घूमकर देखा उसके समीप छाया का नाम भी नहीं था। कंटीली झाड़ियां सूखकर इस तरह
घिर गई थी कि किसी की समीप तक जाने की हिम्मत न पड़े।
निदान वे कुछ दूर पर उगे आम के नीचे
पहुँचे। यहाँ दृश्य ही दूसरा था। सघन छाया की शीतलता और पककर नीचे गिरे हुए मीठे
फलों का बिखराव। उन्होंने आम खाकर भूख बुझाई। समीप के झरने में पानी पिया और शीतल
छाँह में संतोषपूर्वक सोये।
जब उठे तो बाँस और आम की तुलनात्मक
चर्चा करने लगे।
उस खुसफुस की भनक बाँस के कान में
पड़ी। उसने पहली बार उस समीक्षा के आधार पर जाना कि ऊँचा होने में और बड़प्पन में
क्या कुछ अंतर होता है।
"दोस्तों।।! हम सभी में अपने
तरह की खूबियाँ और ख़ामियाँ मौजूद हैं।।। कुछ हमने अपनी मेहनत से पाईं हैं और कुछ
हमें ईश्वर की देन हैं।।। पर कोई भी पूरी तरह न सर्वश्रेष्ठ है न निकृष्ट।।। इसलिए
घमंड या निराशा का भी कोई कारण नहीं है।।। हमें बस अपनी ख़ामियों/ ख़ूबियों का जानने, स्वीकार
करने और तराशने की आवश्यकता है।। और यह तभी संभव है जब हम औरों की खूबियों से
ईर्ष्या करने और खराबियों की आलोचना करने की बजाय खुद को जानने और तराशने में अपना
वक्त और ऊर्जा लगाएं हमें दुनिया से अपनी श्रेष्ठता स्वीकार करवाने की कोई
आवश्यकता नहीं। आवश्यकता है तो खुद को 'कल जो हम थे' या 'आज जो हम हैं' उससे बेहतर
बनाने का प्रयास करते रहने की।।। समाज आपकी श्रेष्ठता तभी स्वीकार करेगा जब वो
आपको दिन ब दिन निखरता देखेगा और आपकी खूबियों से लाभान्वित होगा।।। तब आपको कुछ
कहने की जरूरत न पडेगी आपके कर्म ही आपकी श्रेष्ठता का बयान होंगे।। कर्मों से
बोला हुआ चरित्र ही देर तक याद रखा जाता है।।॥"
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, जुलाई-1975
👉 उत्तराधिकार
एक राजा के तीन योग्य पुत्र थे, सभी
परीक्षा में एक समान नम्बर लाते थे, एक से बढ़कर एक साधक थे,
एक से बढ़कर एक योद्धा थे, एक से बढ़कर एक
राजनीतिज्ञ थे। लेकिन राज्य किसके हाथ मे सौंपा जाय, यह तो
अनुभव और जीवन जीने की कला पर निर्णय होना था। राजा ने सबसे सलाह ली, जिनमें एक बुद्धिमान किसान की युक्ति राजा को पसन्द आयी।
तीनो राजकुमार को बुलाकर एक एक बोरा
गेहूँ का दाना दिया। बोला मैं तीर्थ यात्रा में जा रहा हूँ कुछ वर्षों में
लौटूंगा। मुझे मेरे गेहूँ तुमसे वापस चाहिए होगा।
पहले राजकुमार ने पिता की अमानत
तिज़ोरी में बन्द कर दी, पहरेदार सैनिक लगवा दिए।
दूसरे ने सैनिक बुलाये और बोरी
को खाली जमीन में फिकवा दिया, और
भगवान से प्रार्थना कि हे भगवान जैसे आप प्रत्येक जीव का ख्याल रखते हो, इन बीजों का भी रखना। मैं तुम्हारी पूजा करता हूँ इसलिए तुम इन बीजों को
पौधे बना देना और खाद-पानी दे देना। न जमीन के खर-पतवार हटाये और न ही स्वयं खाद
पानी दिया, सब कुछ भगवान भरोसे छोड़के साधना में लग गया।
तीसरा राजकुमार किसानों को बुलवाया, उनसे
खेती के गुण धर्म समझा। उचित भूमि का चयन किया, स्वयं
किसान-मज़दूरों के साथ लगकर जमीन तैयार की, गेहूं बोया और
नियमित खाद पानी दिया। रोज यज्ञ गायत्री मंत्र और महामृत्युंजय मंत्र से खेत पर
करता, बची हुई राख खेत मे छिड़कर भगवान से प्रार्थना करता
भगवान मेरे खेत की रक्षा करना और पिता के गेंहू मैं लौटा सकूँ इस योग्य बनाना। फ़सल
अच्छी हुई और गेहूं अन्य किसानों से उत्तम क़्वालिटी का निकला। अन्य किसानों ने बीज
मांगा तो उसने सहर्ष भेंट कर दिए, साथ में बीजो में प्राण
भरे इस हेतु साधना और यज्ञ सिखा दिया। सभी किसानों की खेती अच्छी हुई तो आसपास के
समस्त गांवों में भी खेती के गुण, साधना-स्वाध्याय के गुण,
यज्ञ इत्यादि सिखा दिया। खेतों में अनाज के साथ साथ लोगों के हृदय
में अध्यात्म की खेती लहलहा उठी। सर्वत्र राजकुमार की जय हो उठी।
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पांच वर्ष बाद राजा लौटा, बड़े
पुत्र को बुलाया और गेहूं मांगा तो तिज़ोरी खोली गयी। घुन ने गेंहू को राख कर दिया
था। राजा बोला जिसने जीवित सम्भवनाओ के बीज को मृत कर दिया। वो इस राज्य को भी मृत
कर देगा। तुम अयोग्य उत्तराधिकारी साबित हुए।
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दूसरे को बुलाया, तो
भगवान को कोसने लगा। बोला गुरुजी झूठे है, भगवान पक्षपाती
है। गुरुजी ने कहा था भगवान भक्त की रक्षा करता है, लेकिन
भगवान ने मेरे गेंहू के बीजों की रक्षा नहीं की और न हीं उन्हें पौधा बनाया। जो
प्रकृति का निर्माता है उसने मेरे बीजों के साथ पक्षपात किया। राजा पिता ने कहा,
तूने तो जीवन की शिक्षा पाई ही नहीं केवल पुस्तको का कोरा ज्ञान
अर्जित किया। कर्मप्रधान सृष्टि को समझा ही नहीं, ईश्वर उसकी
मदद करता है जो अपनी मदद स्वयं करता हैं। उपासना के साथ साधना और आराधना भी करनी
होती है ये समझा ही नहीं। उपासना रूपी सम्भावना को साधना -आत्म शोधन/मिट्टी की
परख/निराई-गुणाई की ही नहीं। तू अयोग्य है। तू मेरा राज्य भी भगवान भरोसे चलाएगा।
तूने तो धर्म का मर्म ही नहीं समझा, तू अयोग्य साबित हुआ।
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तीसरे पुत्र को बुलाया, लेकिन
यह क्या कई सारे ग्रामवासी बैलगाड़ियों में गेहूँ लिए आये चले जा रहे हैं। राजकुमार
और राजा जी की जय बोलते हुए। राजा ने कहा, बेटा मुझे केवल
मेरा गेहूँ वापस चाहिए गांव वालों से नहीं।
राजुकमार ने मुसकुरा के पिता को
प्रणाम करके कहा- पिताजी आपके द्वारा दिये सम्भावनाओ के बीज अत्यंत उच्च कोटि के
थे, हम सबने मेहनत करके उसको विस्तारित कर दिया। ये इतनी सारी बोरियां उसी
सम्भावनाओ/गेंहू के बीज से उपजी है। यह सब आपकी ही है, इन्होंने
ने लाखों लोगों की क्षुधा भी शांत की। धन्यवाद पिताश्री आपने मुझे सेवा का सौभाग्य
दिया।
पिता पुत्र पर गौरवान्वित हुआ, हृदय
से लगा लिया और अपने राज्य का उत्तराधिकार सहर्ष सौंप दिया।
👉 "पांच प्रेत"
नगर अभी दूर था। वन हिंसक जन्तुओं
से भरा पड़ा था। सो विशाल वटवृक्ष, सरोवर और शिव मंदिर देखकर
आचार्य महीधर वहीं रुक गये। शेष यात्रा अगले दिन पूरी करने का निश्चय कर थके हुए
आचार्य महीधर शीघ्र ही निद्रा देवी की गोद में चले गये।
आधा रात, सघन
अन्धकार, जीव-जन्तुओं की रह-रहकर आ रहीं भयंकर आवाजें-
आचार्य प्रवर की नींद टूट गई। मन किसी बात पर विचार करे इससे पूर्व ही उन्हें कुछ
सिसकियाँ सुनाई दीं उन्हें लगा पास में कोई अन्ध-कूप है उनमें कोई पड़ा हुआ रुदन
कर रहा है अब तक सप्तमी का चन्द्रमा आकाश में ऊपर आ गया था, हल्का-हल्का
प्रकाश फैल रहा था, आचार्य महीधर कूप के पास आये और झाँककर
देखा तो उसमें पाँच प्रेत किलबिला रहे थे।
यों दुःखी अवस्था में पड़े प्रेतों
को देखकर महीधर को दया आ गई उन्होंने पूछा-तात! आप लोग कौन हैं यह दुर्दशा आप लोग
क्यों भुगत रहे हैं ? इस पर सबसे बड़े प्रेत ने बताया हम लोग
प्रेत है मनुष्य शरीर में किये गये पापों के दुष्परिणाम भुगत रहे हैं आप संसार में
जाइये और लोगों को बताइये जो पाप कर हम लोग प्रेत योनि में आ पड़े है वह पाप और
कोई न करें। आचार्य ने पूछा- आप लोग यह भी तो बताइये कौन कौन से पाप आप सबने किये
हैं तभी तो लोगों को उससे बचने के लिए कहा जा सकता है।
“मेरा नाम पर्युषित है आर्य” पहले
प्रेत ने बताना प्रारम्भ किया- मैं पूर्व जन्म में ब्राह्मण था, विद्या
भी खूब पढ़ी थी किन्तु अपनी योग्यता का लाभ समाज को देने की बात को तो छुपा लिया
हाँ अपने पाँडित्य से लोगों में अन्ध-श्रद्धा, अन्धविश्वास
जितना फैला सकता था फैलाया और हर उचित अनुचित तरीके से केवल यजमानों से
द्रव्य-दोहन किया उसी का प्रतिफल आज इस रूप में भुगत रहा हूँ ब्राह्मण होकर भी जो
ब्रह्म नहीं रखता, समाज को धोखा देता है वह मेरी ही तरह
प्रेत होता है।
“मैं क्षत्रिय था पूर्व जन्म में”
अब सूचीमुख नामक दूसरे प्रेत ने आत्म कथा कहनी प्रारम्भ की। मेरे शरीर में शक्ति
की कमी नहीं थी मुझे लोगों की रक्षा के लिये नियुक्त किया गया। रक्षा करना तो दूर
प्रमोद वश मैं प्रजा का भक्षक ही बन बैठा। चाहे किसी को दण्ड देना, चाहे
जिसको लूट लेना ही मेरा काम था एक दिन मैंने एक अबला को देखा जो जंगल में अपने
बेटे के साथ जा रही थी मैंने उसे भी नहीं छोड़ा उसका सारा धन छीन लिया, यहाँ तक उनका पानी तक लेकर पी लिया। दोनों प्यास से तड़प कर वहीं मर गये
उसी पाप का प्रतिफल प्रेतयोनि में पड़ा भुगत रहा हूँ।
तीसरे शीघ्राग ने बताया- मैं था
वैश्य। मिलावट, कम तौल, ऊँचे भाव तक ही सीमित रहता
तब भी कोई बात थी, व्यापार में अपने साझीदारों तक का गला
काटा। एक बार दूर देश वाणिज्य के लिए अपने एक मित्र के साथ गया। वहाँ से प्रचुर धन
लेकर लौट रहा था रास्ते में लालच आ गया मैंने अपने मित्र की हत्या करदी और उसकी
स्त्री, बच्चों को भी धोखा दिया व झूठ बोला उसकी स्त्री ने
इसी दुःख में अपने प्राण त्याग दिये उस समय तो किसी की पकड़ में नहीं आ सका पर
मृत्यु से आखिर कौन बचा है तात ! मेरे पाप ज्यों - ज्यों मरणकाल समीप आता गया मुझे
संताप की भट्टी में झोंकते गये और आज जो मेरी स्थिति है वह आप देख ही रहे है। पाप
का प्रतिफल ही है जो इस प्रेतयोनि में पड़ा मल-मूत्र पर जीवन निर्वाह करने को विवश
हूँ अंग-अंग से व्रण फूट रहे हैं दुःखों का कहीं अन्त नहीं दिखाई दे रहा।
अब चौथे की बारी थी- उसने अपने
घावों पर बैठी मक्खियों को हाँकते और सिसकते हुये कहा- तात! मैं पूर्व जन्म में
“रोधक” नाम का शूद्र था। तरुणाई में मैंने व्याघ्र किया कामुकता मेरे मस्तिष्क पर
बुरी तरह सवार हुई। पत्नी मेरे लिये भगवान् हो गई उसकी हर सुख सुविधा का ध्यान
दिया पर अपने पिता-माता, भाई बहनों का कुछ भी ध्यान नहीं दिया। ध्यान
देना तो दूर उन्हें श्रद्धा और सम्मान भी नहीं दिया। अपने बड़ों के कभी पैर छुये
हों मुझे ऐसा एक भी क्षण स्मरण नहीं। आदर करना तो दूर जब तब उन्हें धमकाया और
मारा-पिटा भी। माता-पिता बड़े दुःख और असह्य पूर्ण स्थिति में मरे। एक स्त्री से
तृप्ति नहीं हुई तो और विवाह किये। पहली पत्नियों को सताया घर से बाहर निकाला।
उन्हीं सब कर्मों का प्रतिफल भुगत रहा हूँ मेरे तात् और अब छुटकारे का कोई मार्ग
दीख नहीं रहा।
चार प्रेत अपनी बात कह चुके किन्तु
पांचवां प्रेत तो आचार्य महीधर की ओर मुख भी नहीं कर रहा था पूछने पर अन्य प्रेतों
ने बताया-यह तो हम लोगों को भी मुँह नहीं दिखाते-बोलते बातचीत तो करते हैं पर अपना
मुँह इन्होंने आज तक नहीं दिखाया।
“आप भी तो कुछ बताइये”- आचार्य
प्रवर ने प्रश्न किया-इस पर घिंघियाते स्वर में मुंह पीछे ही फेरे-फेरे पांचों
प्रेत ने बताया-मेरा नाम “कलाकार” है मैं पूर्व जन्म में एक अच्छा लेखक था पर मेरी
कलम से कभी नीति, धर्म और सदाचार नहीं लिखा गया। कामुकता,
अश्लीलता और फूहड़पन बढ़ाने वाला साहित्य ही लिखा मैंने, ऐसे ही संगीत, नृत्य और अभिनय का सृजन किया जो फूहड़
से फूहड़ और कुत्सायें जगाने वाला रहा हो। मैं मूर्तियाँ और चित्र एक से एक
भावपूर्ण बना सकता था, किन्तु उनमें भी कुरुचि वर्द्धक
वासनायें और अश्लीलतायें गढ़ी। सारे समाज को भ्रष्ट करने का अपराध लगाकर मुझे
यमराज ने प्रेत बना दिया। किन्तु मैं यहाँ भी इतना लज्जित हूँ कि अपना मुंह इन
प्रेत भाइयों को भी नहीं दिखा सकता।
आचार्य महीधर ने अनुमान लगाया अपने -
अपने कर्तव्यों से गिरे हुये यह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और कलाकार कुल पाँच ही थे इन्हें
प्रेतयोनि का कष्ट भुगतना पड़ रहा है और आज जबकि सृष्टि का हर ब्राह्मण, हर क्षत्रिय, वैश्य और प्रत्येक शूद्र कर्तव्यच्युत
हो रहा है, हर कलाकार अपनी कलम और तूलिका से हित-अनहित की
परवाह किये बिना वासना की गन्दी कीचड़ उछाल रहा है तब आने वाले कल में प्रेतों की
संख्या कितनी भयंकर होगी। कुल मिलाकर सारी धरती नरक में ही बदल जायेगी। सो लोगों
को कर्तव्य जागृत करना ही आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। अब तक प्रातःकाल हो चुका
था आचार्य महीधर यह संकल्प लेकर चल पड़े पाँचों प्रेतों की कहानी सुनकर मार्ग
भ्रष्ट लोगों को सही पथ प्रदर्शन करने लगे।
📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1971
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