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ज्ञानवर्धक कथाएं भाग -25

 

ज्ञानवर्धक कथाएं भाग -25

 

👉 हृदय परिवर्तन

 

एक राजा को राज भोगते काफी समय हो गया था। बाल भी सफ़ेद होने लगे थे। एक दिन उसने अपने दरबार में उत्सव रखा और अपने गुरुदेव एवं मित्र देश के राजाओं को भी सादर आमन्त्रित किया। उत्सव को रोचक बनाने के लिए राज्य की सुप्रसिद्ध नर्तकी को भी बुलाया गया।

 

राजा ने कुछ स्वर्ण मुद्रायें अपने गुरु जी को भी दीं, ताकि नर्तकी के अच्छे गीत व नृत्य पर वे उसे पुरस्कृत कर सकें। सारी रात नृत्य चलता रहा। ब्रह्म मुहूर्त की बेला आयी। नर्तकी ने देखा कि मेरा तबले वाला ऊँघ रहा है, उसको जगाने के लिए नर्तकी ने एक दोहा पढ़ा - "बहु बीती, थोड़ी रही, पल पल गयी बिताई। एक पलक के कारने, ना कलंक लग जाए।"

 

अब इस दोहे का अलग-अलग व्यक्तियों ने अपने अनुरुप अर्थ निकाला। तबले वाला सतर्क होकर बजाने लगा।

 

जब यह बात गुरु जी ने सुनी। गुरु जी ने सारी मोहरें उस नर्तकी के सामने फैंक दीं।

 

वही दोहा नर्तकी ने फिर पढ़ा तो राजा की लड़की ने अपना नवलखा हार नर्तकी को भेंट कर दिया।

 

उसने फिर वही दोहा दोहराया तो राजा के पुत्र युवराज ने अपना मुकट उतारकर नर्तकी को समर्पित कर दिया।

 

नर्तकी फिर वही दोहा दोहराने लगी तो राजा ने कहा - "बस कर, एक दोहे से तुमने वेश्या होकर सबको लूट लिया है।"

 

जब यह बात राजा के गुरु ने सुनी तो गुरु के नेत्रों में आँसू आ गए और गुरु जी कहने लगे - "राजा! इसको तू वेश्या मत कह, ये अब मेरी गुरु बन गयी है। इसने मेरी आँखें खोल दी हैं। यह कह रही है कि मैं सारी उम्र जंगलों में भक्ति करता रहा और आखिरी समय में नर्तकी का मुज़रा देखकर अपनी साधना नष्ट करने यहाँ चला आया हूँ, भाई! मैं तो चला।" यह कहकर गुरु जी तो अपना कमण्डल उठाकर जंगल की ओर चल पड़े।

 

राजा की लड़की ने कहा - "पिता जी! मैं जवान हो गयी हूँ। आप आँखें बन्द किए बैठे हैं, मेरी शादी नहीं कर रहे थे और आज रात मैंने आपके महावत के साथ भागकर अपना जीवन बर्बाद कर लेना था। लेकिन इस नर्तकी ने मुझे सुमति दी है कि जल्दबाजी मत कर कभी तो तेरी शादी होगी ही। क्यों अपने पिता को कलंकित करने पर तुली है?"

 

युवराज ने कहा - "पिता जी! आप वृद्ध हो चले हैं, फिर भी मुझे राज नहीं दे रहे थे। मैंने आज रात ही आपके सिपाहियों से मिलकर आपका कत्ल करवा देना था। लेकिन इस नर्तकी ने समझाया कि पगले! आज नहीं तो कल आखिर राज तो तुम्हें ही मिलना है, क्यों अपने पिता के खून का कलंक अपने सिर पर लेता है। धैर्य रख ।"

 

जब ये सब बातें राजा ने सुनी तो राजा को भी आत्म ज्ञान हो गया। राजा के मन में वैराग्य आ गया। राजा ने तुरन्त फैंसला लिया - "क्यों न मैं अभी युवराज का राजतिलक कर दूँ।" फिर क्या था, उसी समय राजा ने युवराज का राजतिलक किया और अपनी पुत्री को कहा - "पुत्री ! दरबार में एक से एक राजकुमार आये हुए हैं। तुम अपनी इच्छा से किसी भी राजकुमार के गले में वरमाला डालकर पति रुप में चुन सकती हो।" राजकुमारी ने ऐसा ही किया और राजा सब त्याग कर जंगल में गुरु की शरण में चला गया।

 

यह सब देखकर नर्तकी ने सोचा - "मेरे एक दोहे से इतने लोग सुधर गए, लेकिन मैं क्यूँ नहीं सुधर पायी?" उसी समय नर्तकी में भी वैराग्य आ गया। उसने उसी समय निर्णय लिया कि आज से मैं अपना बुरा धंधा बन्द करती हूँ और कहा कि "हे प्रभु! मेरे पापों से मुझे क्षमा करना। बस, आज से मैं सिर्फ तेरा नाम सुमिरन करुँगी।"

 

समझ आने की बात है, दुनिया बदलते देर नहीं लगती। एक दोहे की दो लाईनों से भी हृदय परिवर्तन हो सकता है। बस, केवल थोड़ा धैर्य रखकर चिन्तन करने की आवश्यकता है।

 

प्रशंसा से पिंघलना मत, आलोचना से उबलना मत, नि:स्वार्थ भाव से कर्म करते रहो, क्योंकि इस धरा का, इस धरा पर, सब धरा रह जायेगा।

 

👉 इच्छापूर्ति वृक्ष

 

एक घने जंगल में एक इच्छा पूर्ति वृक्ष था, उसके नीचे बैठ कर कोई भी इच्छा करने से वह तुरंत पूरी हो जाती थी। यह बात बहुत कम लोग जानते थे क्योंकि उस घने जंगल में जाने की कोई हिम्मत ही नहीं करता था।

 

एक बार संयोग से एक थका हुआ व्यापारी उस वृक्ष के नीचे आराम करने के लिए बैठ गया उसे पता ही नहीं चला कि कब उसकी नींद लग गयी। जागते ही उसे बहुत भूख लगी, उसने आस पास देखकर सोचा- 'काश कुछ खाने को मिल जाए!' तत्काल स्वादिष्ट पकवानों से भरी थाली हवा में तैरती हुई उसके सामने आ गई। व्यापारी ने भरपेट खाना खाया और भूख शांत होने के बाद सोचने लगा।। काश कुछ पीने को मिल जाए।। तत्काल उसके सामने हवा में तैरते हुए अनेक शरबत आ गए।

 

शरबत पीने के बाद वह आराम से बैठ कर सोचने लगा-  कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा हूँ। हवा में से खाना पानी प्रकट होते पहले कभी नहीं देखा न ही सुना।  जरूर इस पेड़ पर कोई भूत रहता है जो मुझे खिला पिला कर बाद में मुझे खा लेगा ऐसा सोचते ही तत्काल उसके सामने एक भूत आया और उसे खा गया।

 

इस प्रसंग से आप यह सीख सकते है कि हमारा मस्तिष्क ही इच्छापूर्ति वृक्ष है आप जिस चीज की प्रबल कामना करेंगे  वह आपको अवश्य मिलेगी।

 

अधिकांश लोगों को जीवन में बुरी चीजें इसलिए मिलती हैं।।।।।

 

क्योंकि वे बुरी चीजों की ही कामना करते हैं।

 

इंसान ज्यादातर समय सोचता है- कहीं बारिश में भीगने से मै बीमार न हों जाँऊ।। और वह बीमार हो जाता हैं।।!

                   

इंसान सोचता है - मेरी किस्मत ही खराब है ।। और उसकी किस्मत सचमुच खराब हो जाती हैं ।।!

       

इस तरह आप देखेंगे कि आपका अवचेतन मन इच्छापूर्ति वृक्ष की तरह आपकी इच्छाओं को ईमानदारी से पूर्ण करता है।।! इसलिए आपको अपने मस्तिष्क में विचारों को सावधानी से प्रवेश करने की अनुमति देनी चाहिए।

 

यदि गलत विचार अंदर आ जाएगे तो गलत परिणाम मिलेंगे। विचारों पर काबू रखना ही अपने जीवन पर काबू करने का रहस्य है।।!

 

आपके विचारों से ही आपका जीवन या तो स्वर्ग बनता है या नरक उनकी बदौलत ही आपका जीवन सुखमय या दुख:मय बनता है।

 

विचार जादूगर की तरह होते है, जिन्हें बदलकर आप अपना जीवन बदल सकते है।।!

       

इसलिये सदा सकारात्मक सोच रखें।

 

हम बदलेंगे, युग बदलेगा

 

👉 प्रेम और परमात्मा

 

संतो की उपदेश देने की रीति-नीति भी अनूठी होती है। कई संत अपने पास आने वाले से ही प्रश्न करते है और उसकी जिज्ञासा को जगाते है; और सही-सही मार्गदर्शन कर देते है। आचार्य रामानुजाचार्य एक महान संत एवं संप्रदाय-धर्म के आचार्य थे। दूर दूर से लोग उनके दर्शन एवं मार्गदर्शन के लिए आते थे। सहज तथा सरल रीति से वे उपदेश देते थे।

 

एक दिन एक युवक उनके पास आया और पैर में वंदना करके बोला। मुझे आपका शिष्य होना है। आप मुझे अपना शिष्य बना लीजिए। रामानुजाचार्यने कहा : तुझे शिष्य क्यों बनना है? युवक ने कहा: मेरा शिष्य होने का हेतु तो परमात्मा से प्रेम करना है। संत रामानुजाचार्य ने तब कहा: इसका अर्थ है कि तुझे परमात्मा से प्रीति करनी है। परन्तु मुझे एक बात बता दे कि क्या तुझे तेरे घर के किसी व्यक्ति से  प्रेम है?

 

युवक ने कहा : ना, किसीसे भी मुझे प्रेम नहीं। तब फिर संतश्री ने पूछा : तुझे तेरे माता-पिता या भाई-बहन पर स्नेह आता है क्या? युवक ने नकारते हुए कहा, मुझे किसी पर भी तनिक मात्र भी स्नेह नहीं आता। पूरी दुनिया स्वार्थपरायण है, ये सब मिथ्या मायाजाल है। इसीलिए तो मै आपकी शरण में आया हूँ।

 

तब संत रामानुज ने कहा :बेटा, मेरा और तेरा कोई मेल नहीं। तुझे जो चाहिए वह मै नहीं दे सकता।  युवक यह सुन स्तब्ध हो गया। उसने कहा : संसार को मिथ्या मानकर मैने किसी से प्रीति नहीं की। परमात्मा के लिए मैं इधर-उधर भटका। सब कहते थे कि परमात्मा के साथ प्रीति जोड़ना हो तो संत रामानुज के पास जा; पर आप तो इन्कार कर रहे है।

 

संत रामानुज ने कहा : यदि तुझे तेरे परिवार से प्रेम होता, जिन्दगी में तूने तेरे निकट के लोगों में से किसी से भी स्नेह किया होता तो मै उसे विशाल स्वरुप दे सकता था। थोड़ा भी प्रेमभाव होता, तो मैं उसे ही विशाल बना के परमात्मा के चरणों तक पहुँचा सकता था।

 

छोटे से बीज में से विशाल वटवृक्ष बनता है। परन्तु बीज तो होना चाहिए। जो पत्थर जैसा कठोर एवं शुष्क हो उस में से प्रेम का झरना कैसे बहा सकता हूँ? यदि बीज ही नहीं तो वटवृक्ष कहाँ से  बना सकता हूँ? तूने किसी से प्रेम किया ही नहीं, तो तेरे भीतर परमात्मा के प्रति प्रेम की गंगा कैसे बहा सकता हूँ?

 

कहानी का सार ये है कि जिसे अपने निकट के भाई-बंधुओं से प्रेमभाव नहीं, उसे ईश्वर से प्रेम भाव नहीं हो सकता। हमें अपने आस पास के लोगों और कर्तव्यों से मुंह नहीं मोड़ सकते। यदि हमें आध्यात्मिक कल्याण चाहिए तो अपने धर्म-कर्तव्यों का भी  उत्तम रीति से पालन करना होगा।

 

👉 यह संसार क्या है?

 

एक दिन एक शिष्य ने गुरु से पूछा, 'गुरुदेव, आपकी दृष्टि में यह संसार क्या है?

 

इस पर गुरु ने एक कथा सुनाई।

 

'एक नगर में एक शीशमहल था। महल की हरेक दीवार पर सैकड़ों शीशे जडे़ हुए थे। एक दिन एक गुस्सैल कुत्ता महल में घुस गया। महल के भीतर उसे सैकड़ों कुत्ते दिखे, जो नाराज और दुखी लग रहे थे। उन्हें देखकर वह उन पर भौंकने लगा। उसे सैकड़ों कुत्ते अपने ऊपर भौंकते दिखने लगे। वह डरकर वहां से भाग गया कुछ दूर जाकर उसने मन ही मन सोचा कि इससे बुरी कोई जगह नहीं हो सकती।

 

कुछ दिनों बाद एक अन्य कुत्ता शीशमहल पहुंचा। वह खुशमिजाज और जिंदादिल था। महल में घुसते ही उसे वहां सैकड़ों कुत्ते दुम हिलाकर स्वागत करते दिखे। उसका आत्मविश्वास बढ़ा और उसने खुश होकर सामने देखा तो उसे सैकड़ों कुत्ते खुशी जताते हुए नजर आए।

 

उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। जब वह महल से बाहर आया तो उसने महल को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ स्थान और वहां के अनुभव को अपने जीवन का सबसे बढ़िया अनुभव माना।  वहां फिर से आने के संकल्प के साथ वह वहां से रवाना हुआ।'

 

कथा समाप्त कर गुरु ने शिष्य से कहा।।

 

'संसार भी ऐसा ही शीशमहल है जिसमें व्यक्ति अपने विचारों के अनुरूप ही प्रतिक्रिया पाता है। जो लोग संसार को आनंद का बाजार मानते हैं, वे यहां से हर प्रकार के सुख और आनंद के अनुभव लेकर जाते हैं।

 

जो लोग इसे दुखों का कारागार समझते हैं उनकी झोली में दुख और कटुता के सिवाय कुछ नहीं बचता।'

 

👉 आजादी

 

एक समय की बात हैं, एक सेठ और सेठानी रोज सत्संग में जाते थे। सेठजी के एक घर एक पिंजरे में तोता पाला हुआ था। तोता रोज सेठ-सेठानी को बाहर जाते देख एक दिन पूछता हैं कि सेठजी आप रोज कहाँ जाते है। सेठजी बोले कि भाई सत्संग में ज्ञान सुनने जाते है। तोता कहता है सेठजी फिर तो कोई ज्ञान की बात मुझे भी बताओ। तब सेठजी कहते हैं की ज्ञान भी कोई घर बैठे मिलता हैं। इसके लिए तो सत्संग में जाना पड़ता हैं। तोता कहता है कोई बात नही सेठजी आप मेरा एक काम करना। सत्संग जाओ तब संत महात्मा से एक बात पूछना कि में आजाद कब होऊंगा। सेठजी सत्संग ख़त्म होने के बाद संत से पूछते है की महाराज हमारे घर जो तोता है उसने पूछा हैं की वो आजाद कब होगा?

 

संत को ऐसा सुनते हीं पता नही क्या होता है जो वो बेहोश होकर गिर जाते है। सेठजी संत की हालत देख कर चुप-चाप वहाँ से निकल जाते है। घर आते ही तोता सेठजी से पूछता है कि सेठजी संत ने क्या कहा। सेठजी कहते है की तेरे किस्मत ही खराब है जो तेरी आजादी का पूछते ही वो बेहोश हो गए। तोता कहता है कोई बात नही सेठजी में सब समझ गया। दूसरे दिन सेठजी सत्संग में जाने लगते है तब तोता पिंजरे में जानबूझ कर बेहोश होकर गिर जाता हैं।

   

सेठजी उसे मरा हुआ मानकर जैसे हीं उसे पिंजरे से बाहर निकालते है तो वो उड़ जाता है। सत्संग जाते ही संत सेठजी को पूछते है की कल आप उस तोते के बारे में पूछ रहे थे ना अब वो कहाँ हैं। सेठजी कहते हैं, हाँ महाराज आज सुबह-सुबह वो जानबुझ कर बेहोश हो गया मैंने देखा की वो मर गया है इसलिये मैंने उसे जैसे ही बाहर निकाला तो वो उड़ गया। तब संत ने सेठजी से कहा की देखो तुम इतने समय से सत्संग सुनकर भी आज तक सांसारिक मोह-माया के पिंजरे में फंसे हुए हो और उस तोते को देखो बिना सत्संग में आये मेरा एक इशारा समझ कर आजाद हो गया।

 

कहानी से तात्पर्य : हम सत्संग में तो जाते हैं ज्ञान की बाते करते हैं या सुनते भी हैं, पर हमारा मन हमेशा सांसारिक बातों में हीं उलझा रहता हैं। सत्संग में भी हम सिर्फ उन बातों को पसंद करते है जिसमे हमारा स्वार्थ सिद्ध होता हैं। हमे वहां भी मान यश मिल जाये यही सोचते रहते हैं। जबकि सत्संग जाकर हमें सत्य को स्वीकार कर सभी बातों को महत्व देना चाहिये और जिस असत्य, झूठ और अहंकार को हम धारण किये हुए हैं उसे साहस के साथ मन से उतार कर सत्य को स्वीकार करना चाहिए।

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