ज्ञानवर्धक
कथाएं भाग -34
👉 भोगे बिना छुटकारा नहीं
वह दोनों सगे भाई थे। गुरु और माता
पिता के द्वारा शिक्षा पाई थी, पूजनीय आचार्यों से प्रोत्साहन पाया था,
मित्रों द्वारा सलाह पाई थी। उन्होंने वर्षों के अध्ययन, चिन्तन और अन्वेषण के पश्चात जाना था कि दुनिया में सबसे बड़ा काम जो
मनुष्य के करने का है वह यह है कि अपनी आत्मा का उद्धार करे। मूर्ख इसे नहीं
जानते। वे पत्ते-पत्ते को सींचते फिरते हैं फिर भी पेड़ मुरझाता ही चला जाता है।
संसार की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक
शारीरिक सभी प्रकार की समस्यायें इसी एक बात पर निर्भर हैं कि आदमी ईमानदार बने,
सदाचारी हो, आत्म कल्याण करे।
वे दोनों भाई शंख और लिखित इस तत्व
को भली प्रकार जान लेने के बाद तपस्या करने लगे। पास पास ही दोनों के कुटीर थे।
मधुर फलों के वृक्षों से वह स्थान और भी सुन्दर एवं सुविधाजनक बन गए। ये दोनों भाई
अपनी-अपनी तपोभूमि में तप करते और यथा अवसर आपस में मिलते-जुलते थी।
एक दिन लिखित भूखे थे। वे भाई के
आश्रम में गये और वहाँ से कुछ फल तोड़ लाये। उन्हें खा रहे थे कि शंख भी वहाँ आ
पहुँचे। उन्होंने पूछा यह फल तुम कहाँ से लाये ? लिखित ने उन्हें
हंसकर उत्तर दिया-तुम्हारे आश्रम से।
शंख यह सुनकर बड़े दुखी हुए। फल
स्वयं कोई बहुत मूल्यवान वस्तु न थे। दोनों भाई आपस में फल लेते देते भी रहते थे
किन्तु चोरी से बिना पूछे नहीं उन्होंने कहा-भाई ! यह तुमने बुरा किया। किसी की
वस्तु बिना पूछे लेने से तुम्हें चोरी का पाप लग गया। लिखित को अब पता चला कि
वास्तव में उन्होंने पाप किया है और पाप के फल का बिना भोगे छुटकारा नहीं हो सकता।
दोनों भाई इस समस्या में उलझ गये कि
अब क्या करना चाहिए। पाप का फल तुरंत ही मिल जाय तो ठीक अन्यथा प्रारब्ध में जाकर
वह बढ़ता ही रहता है। और आगे चलकर ब्याज समेत चुकाना पड़ता है। निश्चय हुआ कि इस
पाप का फल शीघ्र ही भोग लिया जाय। चूँकि दंड देने का अधिकार राजा को होता है इसलिए
लिखित अपने कार्य का दंड पाने के लिए राजा सुद्युम्न के पास पहुँचे।
इस तेज मूर्ति तपस्वी को देखकर राजा
सिंहासन से उठ खड़े हुए और बड़े आदर के साथ उन्हें उच्च सिंहासन पर बिठाया।
तदुपरान्त राजा ने हाथ जोड़कर तपस्वी से पूछा-महाराज कहिये मेरे योग्य क्या आज्ञा
है ?
लिखित ने कहा-राजन्! मैंने अपने भाई के पेड़ से चोरी करके फल खाये
हैं सो मुझे दंड दीजिए इसीलिए आपके पास आया हूँ।
राजा बड़े असमंजस में पड़ा। इस छोटे
से अपराध पर इतने बड़े तपस्वी को वह क्या दंड दे। और वह भी ऐसे समय जबकि वह स्वयं
अपना अपराध स्वीकार करते हुए दंड पाने के लिए आया है। राजा कुछ भी उत्तर न दे सका।
तपस्वी ने उसके मन की बात जान ली।
और उन्होंने न्यायाधिपति से स्वयं ही पूछा कि बताइये शास्त्र के अनुसार चोरों को
क्या दंड दिया जाता है? न्यायाधीश अपनी ओर से बिना कुछ कहे शास्त्र
का चोर प्रकरण निकाल लाये। उसमें विधान था कि चोर के हाथ काट लिये जायें।
‘यही दंड मुझे मिलना चाहिए।’ तपस्वी
ने कहा - न्याय दंड किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। व्यक्तियों का ख्याल किये बिना
निष्पक्ष भाव से जो व्यवहार किया जाता है वही सच्चा न्याय है। राजन् तुमने मुझसे
आते समय यह पूछा था मेरे योग्य क्या आज्ञा है? मैं तुम्हें आज्ञा देता
हूँ कि शीघ्र ही मेरे दोनों हाथ कटवा डालो।’ राजा विवश था, उसे
तपस्वी की आज्ञा पालन करनी पड़ी।
अपने अपराध का दंड पाकर तपस्वी
लिखित प्रसन्नतापूर्वक आश्रम को लौट आये। अपने भाई की कर्त्तव्य परायणता और कष्ट
सहनशीलता को देखकर शंख का गला भर आया और वे उनके गले से लिपट गये। शंख ने
कहा-अपराधी हाथों को लेकर जीने की अपेक्षा बिना हाथों के जीना अधिक श्रेष्ठ है।
लिखित ! पाप का फल पाकर अब तुम विशुद्ध हो गये।
शंख की आज्ञानुसार लिखित ने पास की
नदी में जाकर स्नान किया। स्नान करते ही उनके दोनों हाथ फिर वैसे ही उग आये। वे
दौड़े हुए भाई के पास गए और उन नये हाथों को आश्चर्य पूर्वक दिखाया।
शंख ने कहा-भैया, इसमें
आश्चर्य की कोई बात नहीं है। हम लोगों की तपस्या के कारण ही यह क्षतिपूर्ति हुई
है। तब लिखित ने और अधिक अचंभित होकर पूछा-यदि हम लोगों की इतनी तपस्या है तो क्या
उसके बल से उस छोटे से पाप को दूर नहीं किया जा सकता था?
शंख ने कहा- ‘न’ पाप का परिणाम
भोगना ही पड़ता है। उसे बिना भोगे छुटकारा नहीं मिल सकता।
(महाभारत)
👉 ये मिट्टी किसी को नहीं छोडेगी:-
एक राजा बहुत ही महत्वाकांक्षी था
और उसे महल बनाने की बड़ी महत्वाकांक्षा रहती थी उसने अनेक महलों का निर्माण
करवाया!
रानी उनकी इस इच्छा से बड़ी व्यथित
रहती थी की पता नहीं क्या करेंगे इतने महल बनवाकर!
एक दिन राजा नदी के उस पार एक
महात्मा जी के आश्रम के वहाँ से गुजर रहे थे तो वहाँ एक संत की समाधि थी और
सैनिकों से राजा को सूचना मिली की संत के पास कोई अनमोल खजाना था और उसकी सूचना
उन्होंने किसी को न दी पर अंतिम समय मे उसकी जानकारी एक पत्थर पर खुदवाकर अपने साथ
ज़मीन मे गढ़वा दिया और कहा की जिसे भी वो खजाना चाहिये उसे अपने स्वयं के हाथों
से अकेले ही इस समाधि से चोरासी हाथ नीचे सूचना पड़ी है निकाल ले और अनमोल सूचना
प्राप्त कर लेंवे और ध्यान रखे उसे बिना कुछ खाये पिये खोदना है और बिना किसी की
सहायता के खोदना है अन्यथा सारी मेहनत व्यर्थ चली जायेगी !
राजा अगले दिन अकेले ही आया और अपने
हाथों से खोदने लगा और बड़ी मेहनत के बाद उसे वो शिलालेख मिला और उन शब्दों को जब
राजा ने पढ़ा तो उसके होश उड़ गये और सारी अकल ठिकाने आ गई!
उस पर लिखा था हॆ राहगीर संसार
के सबसे भूखे प्राणी शायद तुम ही हो और आज मुझे तुम्हारी इस दशा पर बड़ी हँसी आ रही
है तुम कितने भी महल बना लो पर तुम्हारा अंतिम महल यही है एक दिन तुम्हे इसी
मिट्टी मे मिलना है!
सावधान राहगीर, जब
तक तुम मिट्टी के ऊपर हो तब तक आगे की यात्रा के लिये तुम कुछ जतन कर लेना क्योंकि
जब मिट्टी तुम्हारे ऊपर आयेगी तो फिर तुम कुछ भी न कर पाओगे यदि तुमने आगे की
यात्रा के लिये कुछ जतन न किया तो अच्छी तरह से ध्यान रखना की जैसे ये चौरासी हाथ
का कुआं तुमने अकेले खोदा है बस वैसे ही आगे की चौरासी लाख योनियों में तुम्हें
अकेले ही भटकना है और हे राहगीर ये कभी न भूलना की "मुझे भी एक दिन इसी
मिट्टी मे मिलना है बस तरीका अलग- अलग है"
फिर राजा जैसे तैसे कर के उस कुएँ
से बाहर आया और अपने राजमहल गया पर उस शिलालेख के उन शब्दों ने उसे झकझोर के रख
दिया और सारे महल जनता को दे दिये और "अंतिम घर" की तैयारियों मे जुट
गया!
हमें एक बात हमेशा याद रखना की इस
मिट्टी ने जब रावण जैसे सत्ताधारियों को नहीं बक्सा तो फिर साधारण मानव क्या चीज
है इसलिये ये हमेशा याद रखना की मुझे भी एक दिन इसी मिट्टी में मिलना है क्योंकि
ये मिट्टी किसी को नहीं छोड़ने वाली है!
👉 साक्षी की साधना
बुद्ध के पास एक राजकुमार दीक्षित
हो गया,
दीक्षा के दूसरे ही दिन किसी श्राविका के घर उसे भिक्षा लेने बुद्ध
ने भेज दिया। वह वहां गया। रास्ते में दोत्तीन घटनाएं घटीं लौटते आते में, उनसे बहुत परेशान हो गया। रास्ते में उसके मन में खयाल आया कि मुझे जो
भोजन प्रिय हैं, वे तो अब नहीं मिलेंगे। लेकिन श्राविका के
घर जाकर पाया कि वही भोजन थाली हैं जो उसे बहुत प्रीतिकर हैं। वह बहुत हैरान हुआ।
फिर सोचा संयोग होगा, जो मुझे पसंद है वही आज बना होगा। वह
भोजन करता है तभी उसे खयाल आया कि रोज तो भोजन के बाद में विश्राम करता था दो घड़ी,
आज तो फिर धूप में वापस लौटना है। लेकिन तभी उस श्राविका ने कहा कि
भिक्षु बड़ी अनुकंपा होगी अगर भोजन के बाद दो घड़ी विश्राम करो। बहुत हैरान हुआ। जब
वह सोचता था यह तभी उसने यह कहा था, फिर भी सोचा संयोग कि ही
बात होगी कि मेरे मन भी बात आई और उसके मन में भी सहज बात आई कि भोजन के बाद
भिक्षु विश्राम कर ले।
चटाई बिछा दी गई, वह
लेट गया, लेटते ही उसे खयाल आया कि आज न तो अपना कोई साया है,
न कोई छप्पर है अपना, न अपना कोई बिछौना है,
अब तो आकाश छप्पर है, जमीन बिछौना है। यह
सोचता था, वह श्राविका लौटती थी, उसने
पीछे से कहा: भंते! ऐसा क्यों सोचते हैं?
न तो किसी की शय्या है, न किसी का साया है। अब
संयोग मानना कठिन था, अब तो बात स्पष्ट थी। वह उठ कर बैठ गया
और उसने कहा कि मैं बड़ी हैरानी में हूं, क्या मेरे विचार तुम
तक पहुंच जाते हैं? क्या मेरा अंतःकरण तुम पढ़ लेती हो?
उस श्राविका ने कहा:
निश्चित ही। पहले तो, सबसे पहले स्वयं के विचारों का
निरीक्षण शुरू किया था, अब तो हालत उलटी हो गई, स्वयं के विचार तो निरीक्षण करते-करते क्षीण हो गए और विलीन हो गए,
मन हो गया निर्विचार, अब तो जो निकट होता है
उसके विचार भी निरीक्षण में आ जाते हैं। वह भिक्षु घबड़ा कर खड़ा हो गया और उसने कहा
कि मुझे आज्ञा दें, मैं जाऊं, उसके
हाथ-पैर कंपने लगे। उस श्राविका ने कहा:
इतने घबड़ाते क्यों हैं? इसमें घबड़ाने की क्या बात है?
लेकिन भिक्षु फिर रुका नहीं। वह वापस लौटा, उसने
बुद्ध से कहा: क्षमा करें, उस द्वार पर दुबारा भिक्षा मांगने मैं न जा सकूंगा।
बुद्ध ने कहा: कुछ गलती हुई? वहां कोई भूल हुई?
उस भिक्षु ने कहा: न तो भूल हुई, न कोई गलती,
बहुत आदर-सम्मान और जो भोजन मुझे प्रिय था वह मिला, लेकिन वह श्राविका, वह युवती दूसरे के मन के विचारों
को पढ़ लेती है, यह तो बड़ी खतरनाक बात है। क्योंकि उस सुंदर
युवती को देख कर मेरे मन में तो कामवासना भी उठी, विकार भी
उठा था, वह भी पढ़ लिया गया होगा? अब
मैं कैसे वहां जाऊं? कैसे उसके सामने खड़ा होऊंगा? मैं नहीं जा सकूंगा, मुझे क्षमा करें!
बुद्ध ने कहा: वहीं जाना पड़ेगा। अगर ऐसी क्षमा मांगनी थी तो
भिक्षु नहीं होना था। जान कर वहां भेजा है। और जब तक मैं न रोकूंगा, तब
तक वहीं जाना पड़ेगा, महीने दो महीने, वर्ष
दो वर्ष, निरंतर यही तुम्हारी साधना होगी। लेकिन होशपूर्वक
जाना, भीतर जागे हुए जाना और देखते हुए जाना कि कौनसे विचार
उठते हैं, कौन सी वासनाएं उठती हैं, और
कुछ भी मत करना, लड़ना मत जागे हुए जाना, देखते हुए जाना भीतर कि क्या उठता है, क्या नहीं
उठता।
वह दूसरे दिन भी वहीं गया। वह भिक्षु अपने मन को देख रहा है, जागा
हुआ है, आज पहली दफा जिंदगी में वह जागा हुआ चल रहा है सड़क
पर, जैसे-जैसे उस श्राविका का घर करीब आने लगा, उसका होश बढ़ने लगा, भीतर जैसे एक दीया जलने लगा और
चीजें साफ दिखाई पड़ने लगीं और विचार घूमते हुए मालूम होने लगे। जैसे उसकी सीढ़ियां
चढ़ा, एक सन्नाटा छा गया भीतर, होश
परिपूर्ण जग गया। अपना पैर भी उठाता है तो उसे मालूम पड़ रहा है, श्वास भी आती-जाती है तो उसके बोध में है। जरा सा भी कंपन विचार का भीतर
होता है, लहर उठती है कोई वासना की, वह
उसको दिखाई पड़ रही है। वह घर के भीतर प्रविष्ट हुआ, मन में
और भी गहरा शांत हो गया, वह बिलकुल जागा हुआ है। जैसे किसी
घर में दीया जल रहा हो और एक-एक चीज, कोना-कोना प्रकाशित हो
रहा हो।
वह भोजन को बैठा, उसने
भोजन किया, वह उठा, वह वापस लौटा,
वह उस दिन नाचता हुआ वापस लौटा। बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा और उसने
कहा: अदभुत हुई बात। जैसे-जैसे मैं उसके
निकट पहुंचा और जैसे-जैसे मैं जागा हुआ हो गया, वैसे-वैसे
मैंने पाया कि विचार तो विलीन हो गए, कामनाएं तो क्षीण हो
गईं, और मैं जब उसके घर में गया तो मेरे भीतर पूर्ण सन्नाटा
था, वहां कोई विचार नहीं था, कोई वासना
नहीं थी, वहां कुछ भी नहीं था, मन
बिलकुल शांत और निर्मल दर्पण की भांति था।
बुद्ध ने कहा: इसी बात के लिए वहां भेजा था, कल
से वहां जाने की जरूरत नहीं। अब जीवन में इसी भांति जीओ, जैसे
तुम्हारे विचार सारे लोग पढ़ रहे हों। अब जीवन में इसी भांति चलो, जैसे जो भी तुम्हारे सामने है, वह जानता है, तुम्हारे भीतर देख रहा है। इस भांति भीतर चलो और भीतर जागे रहो। जैसे-जैसे
जागरण बढ़ेगा, वैसे-वैसे विचार, वासनाएं
क्षीण होती चली जाएंगी। जिस दिन जागरण पूर्ण होगा उस दिन तुम्हारे जीवन में कोई
कालिमा, कोई कलुष रह जाने वाला नहीं है। उस दिन एक
आत्म-क्रांति हो जाती है। इस स्थिति के जागने को, इस चैतन्य
के जागने को मैं कह रहा हूं।
👉 मैं कौन हूँ
एक था भिखारी ! रेल सफ़र में भीख
माँगने के दौरान एक सूट बूट पहने सेठ जी उसे दिखे। उसने सोचा कि यह व्यक्ति बहुत
अमीर लगता है, इससे भीख माँगने पर यह मुझे जरूर अच्छे पैसे देगा। वह उस
सेठ से भीख माँगने लगा।
भिखारी को देखकर उस सेठ ने कहा, “तुम
हमेशा मांगते ही हो, क्या कभी किसी को कुछ देते भी हो?”
भिखारी बोला, “साहब
मैं तो भिखारी हूँ, हमेशा लोगों से मांगता ही रहता हूँ,
मेरी इतनी औकात कहाँ कि किसी को कुछ दे सकूँ?”
सेठ:- जब किसी को कुछ दे नहीं सकते
तो तुम्हें मांगने का भी कोई हक़ नहीं है। मैं एक व्यापारी हूँ और लेन-देन में ही
विश्वास करता हूँ, अगर तुम्हारे पास मुझे कुछ देने को हो तभी
मैं तुम्हें बदले में कुछ दे सकता हूँ।
तभी वह स्टेशन आ गया जहाँ पर उस सेठ
को उतरना था, वह ट्रेन से उतरा और चला गया।
इधर भिखारी सेठ की कही गई बात के
बारे में सोचने लगा। सेठ के द्वारा कही गयीं बात उस भिखारी के दिल में उतर गई। वह
सोचने लगा कि शायद मुझे भीख में अधिक पैसा इसीलिए नहीं मिलता क्योंकि मैं उसके
बदले में किसी को कुछ दे नहीं पाता हूँ। लेकिन मैं तो भिखारी हूँ, किसी
को कुछ देने लायक भी नहीं हूँ। लेकिन कब तक मैं लोगों को बिना कुछ दिए केवल मांगता
ही रहूँगा।
बहुत सोचने के बाद भिखारी ने निर्णय
किया कि जो भी व्यक्ति उसे भीख देगा तो उसके बदले में वह भी उस व्यक्ति को कुछ
जरूर देगा। लेकिन अब उसके दिमाग में यह प्रश्न चल रहा था कि वह खुद भिखारी है तो
भीख के बदले में वह दूसरों को क्या दे सकता है?
इस बात को सोचते हुए दिन भर गुजरा
लेकिन उसे अपने प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिला।
दूसरे दिन जब वह स्टेशन के पास बैठा
हुआ था तभी उसकी नजर कुछ फूलों पर पड़ी जो स्टेशन के आस-पास के पौधों पर खिल रहे थे, उसने
सोचा, क्यों न मैं लोगों को भीख के बदले कुछ फूल दे दिया
करूँ। उसको अपना यह विचार अच्छा लगा और उसने वहां से कुछ फूल तोड़ लिए।
वह ट्रेन में भीख मांगने पहुंचा। जब
भी कोई उसे भीख देता तो उसके बदले में वह भीख देने वाले को कुछ फूल दे देता। उन
फूलों को लोग खुश होकर अपने पास रख लेते थे। अब भिखारी रोज फूल तोड़ता और भीख के
बदले में उन फूलों को लोगों में बांट देता था।
कुछ ही दिनों में उसने महसूस किया
कि अब उसे बहुत अधिक लोग भीख देने लगे हैं। वह स्टेशन के पास के सभी फूलों को तोड़
लाता था। जब तक उसके पास फूल रहते थे तब तक उसे बहुत से लोग भीख देते थे। लेकिन जब
फूल बांटते - बांटते ख़त्म हो जाते तो उसे भीख भी नहीं मिलती थी,अब
रोज ऐसा ही चलता रहा।
एक दिन जब वह भीख मांग रहा था तो
उसने देखा कि वही सेठ ट्रेन में बैठे है जिसकी वजह से उसे भीख के बदले फूल देने की
प्रेरणा मिली थी।
वह तुरंत उस व्यक्ति के पास पहुंच
गया और भीख मांगते हुए बोला, आज मेरे पास आपको देने के लिए कुछ फूल
हैं, आप मुझे भीख दीजिये बदले में मैं आपको कुछ फूल दूंगा।
सेठ ने उसे भीख के रूप में कुछ पैसे
दे दिए और भिखारी ने कुछ फूल उसे दे दिए। उस सेठ को यह बात बहुत पसंद आयी।
सेठ:- वाह क्या बात है।।? आज
तुम भी मेरी तरह एक व्यापारी बन गए हो, इतना कहकर फूल लेकर
वह सेठ स्टेशन पर उतर गया।
लेकिन उस सेठ द्वारा कही गई बात एक
बार फिर से उस भिखारी के दिल में उतर गई। वह बार-बार उस सेठ के द्वारा कही गई बात
के बारे में सोचने लगा और बहुत खुश होने लगा। उसकी आँखें अब चमकने लगीं, उसे
लगने लगा कि अब उसके हाथ सफलता की वह चाबी लग गई है जिसके द्वारा वह अपने जीवन को
बदल सकता है।
वह तुरंत ट्रेन से नीचे उतरा और
उत्साहित होकर बहुत तेज आवाज में ऊपर आसमान की ओर देखकर बोला, “मैं
भिखारी नहीं हूँ, मैं तो एक व्यापारी हूँ।।
मैं भी उस सेठ जैसा बन सकता हूँ।।
मैं भी अमीर बन सकता हूँ!
लोगों ने उसे देखा तो सोचा कि शायद
यह भिखारी पागल हो गया है, अगले दिन से वह भिखारी उस स्टेशन पर फिर कभी
नहीं दिखा।
एक वर्ष बाद इसी स्टेशन पर दो
व्यक्ति सूट- बूट पहने हुए यात्रा कर रहे थे। दोनों ने एक दूसरे को देखा तो उनमें
से एक ने दूसरे को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा, “क्या आपने मुझे
पहचाना?”
सेठ:- “नहीं तो ! शायद हम लोग पहली
बार मिल रहे हैं।
भिखारी:- सेठ जी।। आप याद कीजिए, हम
पहली बार नहीं बल्कि तीसरी बार मिल रहे हैं।
सेठ:- मुझे याद नहीं आ रहा, वैसे
हम पहले दो बार कब मिले थे?
अब पहला व्यक्ति मुसकुराया और बोला:
हम पहले भी दो बार इसी ट्रेन में
मिले थे,
मैं वही भिखारी हूँ जिसको आपने पहली मुलाकात में बताया कि मुझे जीवन
में क्या करना चाहिए और दूसरी मुलाकात में बताया कि मैं वास्तव में कौन हूँ।
नतीजा यह निकला कि आज मैं फूलों का
एक बहुत बड़ा व्यापारी हूँ और इसी व्यापार के काम से दूसरे शहर जा रहा हूँ।
आपने मुझे पहली मुलाकात में प्रकृति
का नियम बताया था।।। जिसके अनुसार हमें तभी कुछ मिलता है, जब
हम कुछ देते हैं। लेन देन का यह नियम वास्तव में काम करता है, मैंने यह बहुत अच्छी तरह महसूस किया है, लेकिन मैं
खुद को हमेशा भिखारी ही समझता रहा, इससे ऊपर उठकर मैंने कभी
सोचा ही नहीं था और जब आपसे मेरी दूसरी मुलाकात हुई तब आपने मुझे बताया कि मैं एक
व्यापारी बन चुका हूँ। अब मैं समझ चुका था कि मैं वास्तव में एक भिखारी नहीं बल्कि
व्यापारी बन चुका हूँ।
भारतीय मनीषियों ने संभवतः इसीलिए
स्वयं को जानने पर सबसे अधिक जोर दिया और फिर कहा -
सोऽहंशिवोहम !!
समझ की ही तो बात है।।।
भिखारी ने स्वयं को जब तक भिखारी
समझा,
वह भिखारी रहा | उसने स्वयं को व्यापारी मान
लिया, व्यापारी बन गया |
जिस दिन हम समझ लेंगे कि मैं कौन
हूँ।।।
अर्थात मैं भगवान का अंश हूं।
फिर जानने समझने को रह ही क्या
जाएगा ?
जयहिंद जयगुरूदेव जयजगत।
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