ज्ञानवर्धक
कथाएं भाग -39
👉 छुरे की धार पर नचिकेता चलेगा
आर्य श्रेष्ठ! आचार्य मही ने यम से
विनीत निवेदन किया- नचिकेता कुमार ही तो है, उसके साथ इतनी कठोरता
मुझसे देखी नहीं जाती। दस माह बीत गये नचिकेता ने गौ-दधि और जौ की सूखी रोटियों के
अतिरिक्त कुछ खाया नहीं, अन्य स्नातक और स्वयं मेरे बच्चे भी
रस युक्त, स्वाद युक्त भोजन करते हैं फिर नचिकेता के साथ ही
यह कठोरता क्यों?
यमाचार्य ने हंसकर कहा- देवी! तुम
नहीं जानती आत्मा को, ब्रह्म को प्राप्त करने का उपाय ही यही हैं
साधना को ‘समर’ कहते हैं युद्ध में तो अपना प्राण भी संकट में पड़ सकता कोई आवश्यक
नहीं कि विजय ही उपलब्ध हो। अभी तो नचिकेता का अन्न संस्कार ही कराया गया है।
ब्रह्म विराट् है, अत्यन्त पवित्र है, अग्नि
रूप है। शरीर समर्थ न होगा तो नचिकेता उसे धारणा कैसे करेगा। छोटी सी लकड़ी दस मन
बोझ नहीं उठा सकती टूट जाती है पर तपाई दबाई और पिटी हुई उतनी बड़ी लोहे की छड़
पचास मन भार उठा लेती है। नचिकेता का यह अन्न संस्कार उसके अन्नमय कोश के दूषित
मलखरण, रोग और विजातीय द्रव्य निकाल कर उसे आत्मा के
साक्षात्कार योग्य शुद्ध और उपयुक्त बना देगा। छुरे की धार पर चलने के समान कठिन
है पर नचिकेता साहसी और प्रबल आत्म जिज्ञासु है ऐसा व्यक्ति ही यह साधना कर सकता
है।
गुरु माता के विरोध की अपेक्षा भी
नचिकेता का अन्न संस्कार यमाचार्य ने एक वर्ष चलाया। और उसके बाद उन्होंने नचिकेता
को प्राणायाम के अभ्यास प्रारम्भ कराये। प्राणाकर्षण, लोम-विलोम
सूर्य वेधन उज्जयी और नाड़ी शोधन आदि प्राणायाम के अभ्यास कराते हुए कुछ दिन बीते
उसके प्रभाव से नचिकेता के मुख मंडल पर कांति तो बढ़ी पर उसका आहार निरन्तर घटता
ही चला गया।
गुरुमाता यह देखकर पुनः दुःखी हुई
और बोली-स्वामी ऐसा न करो- नचिकेता किसी और का पुत्र है कठोरता अपने बच्चों के साथ
बरती जा सकती है औरों के साथ नहीं।
यमाचार्य फिर हँसे और बोले-भद्रे!
शिष्य अपने पुत्र से बढ़कर होता है, नचिकेता के हृदय में तीव्र
आत्मा जिज्ञासायें हैं वह वीर और साहसी बालक आत्म-कल्याण की, साधनाओं की हर कठिनाई झेलने में समर्थ है इसीलिये हम उसे पंचाग्नि विद्या
सिखा रहे हैं। आर्यावर्त की पीढ़ियाँ कायर और कमजोर न हो जायें और यह आत्म विद्या
लुप्त न हो जाये इस दृष्टि से भी नचिकेता को यह साधना कराना श्रेयस्कर ही है। माना
कि उसका आहार कम हो गया है पर प्राण स्वयं ही आहार है। आत्मा-अग्नि रूप है,
प्राण और प्रकाशवान् हैं, वह प्राणायाम से
पुष्ट होती है, इसी से उसे हर पौष्टिक आहार मिलते हैं मनोमय
कोश के नियन्त्रण के लिये ‘प्राणायाम” कोश का यह परिष्कार आवश्यक ही नहीं अनिवार्य
भी है।
एक वर्ष प्राण-साधन में बीता।
नचिकेता को अब यमाचार्य ने मन के हर संकल्प को पूरा करने का अभ्यास कराया। नचिकेता
सोता तब अचेतन मन की पूर्व जन्मों की स्मृति स्वप्न पटल पर उमड़ती उसमें कई ऐसे
पापों की क्रियायें भी होती जिन्हें प्रकट करने में आत्मा-ग्लानि होती है, नचिकेता
को वह सारी बातें बतानी पड़ती, गुरुमाता ने उससे भी नचिकेता
को बचाने का यत्न किया पर यमाचार्य ने कहा- आत्मा-ग्लानि और कुछ नहीं पूर्व जन्मों
के पापों के संस्कार मात्र हैं जब तक मन नितान्त शुद्ध नहीं हो जाता तब तक
आत्म-बेधन का मनोबल कहाँ से आयेगा। मन की गांठें खोलने का इससे अतिरिक्त कोई उपाय
भी तो नहीं है कि साधक अपनी इस जन्म की सारी की सारी गुप्त से गुप्त बातों को
प्रकट कर अपने कुसंस्कार धोये स्वप्नों में परिलक्षित होने वालों में पूर्व जन्मों
के पापों को भी उसी प्रकार बताये और उनकी शुद्धि का प्रायश्चित करे।
मनोमय कोश की शुद्धि के लिये
नचिकेता को कृच्छ चान्द्रायण से लेकर गोमय, गौमूत्र सेवन करने तक की
सारी प्रायश्चित साधनायें करनी पड़ीं। उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही साधना की कठोरता को
देखकर गुरुमाता का हृदय करुणा रही साधना की कठोरता को देखकर गुरुमाता का हृदय
करुणा से सिसक उठता पर यमाचार्य जानते थे कि आत्मा की ग्रन्थियाँ तोड़कर उसे प्रकट
करने का समर कितना कष्ट साध्य है अतएव वे नचिकेता को तपाने में तनिक भी विचलित न
हुए।
तीन वर्ष बीत गये, नचिकेता
ने जीवन का कोई भी सुख नहीं जाना शरीर को उसने शुद्ध कर लिया पर शरीर क्षीण हो गया,
प्राणों पर नियन्त्रण की विद्या उसने सीख ली, पर
उससे मन क्षीण हो गया, मनोमय कोश को उसने जीत लिया पर उससे
यश-क्षीण होता जान पड़ा। संकल्प विकल्प मुक्त नचिकेता अब इस स्थिति में था कि अपने
मन को ब्रह्मरंध्र में प्रवेश कराकर सूक्ष्म जगत के विज्ञानमय रहस्यों की खोज करे
और आत्मा तक पहुँचकर उसे सुभित करे, जगाये और प्राप्त करे।
मन को दबाकर क्रमशः आज्ञा चक्र का भेदन करते हुए विद्या रूपिणी महाकाली की हलकी
झाँकी होती तो उस विराट् रूप को देखकर नचिकेता का मन काँप जाता। पर दूसरे ही क्षण
एक पुकार अन्तः करण से आती, मन और यह भौतिक सुख नचिकेता! यदि
मिल भी गये तो इन्द्रियाँ उनका रसास्वादन कितने दिन तक कर सकती हैं तू तो उस अक्षर,
अनादि आत्मा का वरण कर। पूर्णमासी का दिन, बसन्त-ऋतु-चार
वर्ष से निरन्तर उग्र तप कर रहे नचिकेता का शरीर बिलकुल क्षीण पड़ गया था आज का
दिन उसके जीवन में विशेष महत्व रखता है। मूलाधार स्थित कुण्डलिनी को जागृत करने की
तिथि आज ही है। एक प्राण को दूसरे प्राण में समेटता हुआ नचिकेता मूलाधार तक जा
पहुँचा उसने अपने संकल्प की चोट की उस आद्य शक्ति पर, चिर
निद्रा में विलीन कुण्डलिनी पर उसका कुछ असर न हुआ इस पर नचिकेता ने तीव्र पर
तीव्र प्रहार किये। चोट खाई हुई काल-रूपिणी महा सर्पिणी फुंसकार मारकर उठीं और
उसने नचिकेता के मन को, स्थूल भाव को चबा डाला, जला डाला। नचिकेता आज मन न रहकर आत्मा हो गया, उसकी
लौकिक-भौतिक वासनायें पूरी तरह जल गई वह ऋषि हो गया यह संवाद सारे संसार में छा
गया। नचिकेता के यश की विमल पताका सारे संसार में लहराने लगी।
अब वह ब्रह्मा प्राप्ति के समीप था, ब्रह्म
से वह किसी भी क्षण मिल सकता था तथापि अपने देश, अपने धर्म,
अपनी महान् संस्कृति के उत्थान का संकल्प लेकर नचिकेता वहाँ से चल
पड़ा और नव निर्माण के महान् कार्य में जुट गया। उसने इन पंचाग्नि विद्या का सारे
संसार में प्रसार कर अमर साधक का श्रेय प्राप्त किया।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1971
👉 कुवें का मेंढक
एक कुवे में एक मेंढक रहता था। एक
बार समुद्र का एक मेंढक कुवे में आ पहुंचा तो कुवे के मेंढक ने उसका हालचाल, अता
पता पूछा। जब उसे ज्ञात हुआ कि वह मेंढक समुद्र में रहता हैं और समुद्र बहुत बड़ा
होता हैं तो उसने अपने कुवे के पानी में एक छोटा-सा चक्कर लगाकर उस समुद्र के
मेंढक से पूछा कि क्या समुन्द्र इतना बड़ा होता हैं?
कुंवे के मेंढक ने तो कभी समुद्र
देखा ही नहीं था। समुद्र के मेंढक ने उसे बताया कि इससे भी बड़ा होता हैं।
कुंवे का मेंढक चक्कर बड़ा करता गया
और अंत में उसने कुंवे की दीवार के सहारे-सहारे आखिरी चक्कर लगाकर पूछा- “क्या
इतना बड़ा हैं तेरा समुद्र ?”
इस पर समुद्र के मेंढक ने कहा-
“इससे भी बहुत बड़ा?”
अब तो कुंवे के मेंढक को गुस्सा आ
गया। कुंवे के अलावा उसने बाहर की दुनिया तो देखी ही नहीं थी। उसने कह दिया- “जा
तू झूठ बोलता हैं। कुंवे से बड़ा कुछ होता ही नहीं हैं। समुद्र भी कुछ नहीं होता।”
मेंढक वाली ये कथा यह बताती हैं कि; जितना
अध्ययन होगा उतना अपने अज्ञान का आभास होगा। आज जीवन में पग-पग पर हमें ऐसे कुंवे
के मेंढक मिल जायेंगे, जो केवल यही मानकर बैठे हैं कि जितना
वे जानते हैं, उसी का नाम ज्ञान हैं, उसके
इधर-उधर और बाहर कुछ भी ज्ञान नहीं हैं। लेकिन सत्य तो यह हैं कि सागर कि भांति
ज्ञान की भी कोई सीमा नहीं हैं। अपने ज्ञानी होने के अज्ञानमय भ्रम को यदि तोड़ना
हो तो अधिक से अधिक अध्ययन करना आवश्यक हैं, जिससे आभास होगा
कि अभी तो बहुत कुछ जानना और पढ़ना बाकी हैं।
शुभ प्रभात। आज का दिन आप के लिए
शुभ एवं मंगलमय हो।
👉 देह और आत्मा:-
जनक ने एक धर्म—सभा बुलाई थी। उसमें
बड़े—बड़े पंडित आए। उसमें अष्टावक्र के पिता भी गए।
अष्टावक्र आठ जगह से टेढ़ा था, इसलिए
तो नाम पड़ा अष्टावक्र। दोपहर हो गई। अष्टावक्र की मां ने कहा कि तेरे पिता लौटे
नहीं, भूख लगती होगी, तू जाकर उनको
बुला ला।
अष्टावक्र गया। धर्म—सभा चल रही थी, विवाद
चल रहा था। अष्टावक्र अंदर गया। उसको आठ जगह से टेढ़ा देख कर सारे पंडितजन हंसने
लगे। वह तो कार्टून मालूम हो रहा था। इतनी जगह से तिरछा आदमी देखा नहीं था। एक
टांग इधर जा रही है, दूसरी टांग उधर जा रही है, एक हाथ इधर जा रहा है, दूसरा हाथ उधर जा रहा है,
एक आंख इधर देख रही है, दूसरी आंख उधर देख रही
है। उसको जिसने देखा वही हंसने लगा कि यह तो एक चमत्कार है! सब को हंसते देख कर।। ।यहां
तक कि जनक को भी हंसी आ गई।
मगर एकदम से धक्का लगा, क्योंकि
अष्टावक्र बीच दरबार में खड़ा होकर इतने जोर से खिलखिलाया कि जितने लोग हंस रहे थे
सब एक सकते में आ गए और चुप हो गए।
जनक ने पूछा कि मेरे भाई, और
सब क्यों हंस रहे थे, वह तो मुझे मालूम है, क्योंकि मैं खुद भी हंसा था, मगर तुम क्यों हंसे?
उसने कहा मैं इसलिए हंसा कि ये चमार
बैठ कर यहां क्या कर रहे हैं! क्योंकि इनको चमड़ी ही दिखाई पड़ती है। मेरा शरीर आठ
जगह से टेढ़ा है, इनको शरीर ही दिखाई पड़ता है। ये सब चमार इकट्ठे कर लिए
हैं और इनसे धर्म—सभा हो रही है और ब्रह्मज्ञान की चर्चा हो रही है? इनको अभी आत्मा दिखाई नहीं पड़ती। है कोई यहां जिसको मेरी आत्मा दिखाई पड़ती
हो? क्योंकि आत्मा तो एक भी जगह से टेढ़ी नहीं है।
वहां एक भी नहीं था। कहते हैं, जनक
ने उठ कर अष्टावक्र के पैर छुए। और कहा कि आप मुझे उपदेश दें।
👉 गैर हाज़िर कन्धे
विश्वास साहब अपने आपको भाग्यशाली
मानते थे। कारण यह था कि उनके दोनों पुत्र आई. आई. टी. करने के बाद लगभग एक करोड़ रुपये का वेतन अमेरिका में प्राप्त कर रहे थे।
विश्वास साहब जब सेवा निवृत्त हुए तो उनकी इच्छा हुई कि उनका एक पुत्र भारत लौट आए
और उनके साथ ही रहे; परन्तु अमेरिका जाने के बाद कोई पुत्र
भारत आने को तैयार नहीं हुआ, उल्टे उन्होंने विश्वास साहब को
अमेरिका आकर बसने की सलाह दी। विश्वास साहब अपनी पत्नी भावना के साथ अमेरिका गये;
परन्तु उनका मन वहाँ पर बिल्कुल नहीं लगा और वे भारत लौट आए।
दुर्भाग्य से विश्वास साहब की पत्नी
को लकवा हो गया और पत्नी पूर्णत: पति की सेवा पर निर्भर हो गई। प्रात: नित्यकर्म
से लेकर खिलाने–पिलाने, दवाई देने आदि का सम्पूर्ण कार्य विश्वास
साहब के भरोसे पर था। पत्नी की जुबान भी लकवे के कारण चली गई थी। विश्वास साहब
पूर्ण निष्ठा और स्नेह से पति धर्म का निर्वहन कर रहे थे।
एक रात्रि विश्वास साहब ने दवाई
वगैरह देकर भावना को सुलाया और स्वयं भी पास लगे हुए पलंग पर सोने चले गए। रात्रि
के लगभग दो बजे हार्ट अटैक से विश्वास साहब की मौत हो गई। पत्नी प्रात: 6 बजे जब
जागी तो इन्तजार करने लगी कि पति आकर नित्य कर्म से निवृत्त होने मे उसकी मदद
करेंगे। इन्तजार करते करते पत्नी को किसी अनिष्ट की आशंका हुई। चूँकि पत्नी स्वयं
चलने में असमर्थ थी, उसने अपने आपको पलंग से नीचे गिराया और फिर
घसीटते हुए अपने पति के पलंग के पास पहुँची।
उसने पति को हिलाया–डुलाया पर कोई
हलचल नहीं हुई। पत्नी समझ गई कि विश्वास साहब नहीं रहे। पत्नी की जुबान लकवे के
कारण चली गई थी; अत: किसी को आवाज देकर बुलाना भी पत्नी के वश में नहीं
था। घर पर और कोई सदस्य भी नहीं था। फोन बाहर ड्राइंग रूम मे लगा हुआ था। पत्नी ने
पड़ोसी को सूचना देने के लिए घसीटते हुए फोन की तरफ बढ़ना शुरू किया। लगभग चार
घण्टे की मशक्कत के बाद वह फोन तक पहुँची और उसने फोन के तार को खींचकर उसे नीचे
गिराया। पड़ोसी के नंबर जैसे तैसे लगाये।
पड़ौसी भला इंसान था, फोन
पर कोई बोल नहीं रहा था, पर फोन आया था, अत: वह समझ गया कि मामला गंभीर है। उसने आस– पड़ोस के लोगों को सूचना देकर
इकट्ठा किया, दरवाजा तोड़कर सभी लोग घर में घुसे। उन्होने
देखा -विश्वास साहब पलंग पर मृत पड़े थे तथा पत्नी भावना टेलीफोन के पास मृत पड़ी
थी। पहले विश्वास और फिर भावना की मौत हुई। जनाजा दोनों का साथ–साथ निकला।
पूरा मोहल्ला कंधा दे रहा था परन्तु
दो कंधे मौजूद नहीं थे जिसकी माँ–बाप को उम्मीद थी। शायद वे कंधे करोड़ो रुपये की
कमाई के भार से पहले ही दबे हुए थे।
👉 मैं तुम्हारे साथ हूँ ।।।
प्रतिवर्ष माता पिता अपने पुत्र को
गर्मी की छुट्टियों में उसके दादा दादी के
घर ले जाते। 10-20 दिन सब वहीं रहते और फिर लौट आते। ऐसा प्रतिवर्ष चलता रहा। बालक
थोड़ा बड़ा हो गया।
एक दिन उसने अपने माता पिता से कहा
कि अब मैं अकेला भी दादी के घर जा सकता
हूं ।तो आप मुझे अकेले को दादी के घर जाने दो। माता पिता पहले तो राजी नहीं हुए। परंतु बालक ने जब जोर दिया तो उसको सारी
सावधानी समझाते हुए अनुमति दे दी।
जाने का दिन आया। बालक को छोड़ने
स्टेशन पर गए।
ट्रेन में उसको उसकी सीट पर बिठाया।
फिर बाहर आकर खिड़की में से उससे बात की ।उसको सारी सावधानियां फिर से समझाई।
बालक ने कहा कि मुझे सब याद है। आप
चिंता मत करो। ट्रेन को सिग्नल मिला। व्हीसिल लगी। तब पिता ने एक लिफाफा पुत्र को दिया कि बेटा अगर
रास्ते में तुझे डर लगे तो यह लिफाफा खोल कर इसमें जो लिखा उसको पढ़ना बालक ने
पत्र जेब में रख लिया।
माता पिता ने हाथ हिलाकर विदा किया।
ट्रैन चलती रही। हर स्टेशन पर लोग आते रहे पुराने उतरते रहे। सबके साथ कोई न कोई
था। अब बालक को अकेलापन लगा। ट्रेन में अगले स्टेशन पर ऐसी शख्सियत आई जिसका चेहरा
भयानक था।
पहली बार बिना माता-पिता के, बिना
किसी सहयोगी के, यात्रा कर रहा था। उसने अपनी आंखें बंद कर
सोने का प्रयास किया परंतु बार-बार वह चेहरा उसकी आंखों के सामने घूमने लगा। बालक
भयभीत हो गया। रुंआसा हो गया। तब उसको पिता की चिट्ठी। याद आई।
उसने जेब में हाथ डाला। हाथ कांपरहा
था। पत्र निकाला। लिफाफा खोला। पढा पिता ने लिखा था तू डर मत मैं पास वाले
कंपार्टमेंट में ही इसी गाड़ी में बैठा हूं। बालक का चेहरा खिल उठा। सब डर
दूर हो गया।
मित्रों,
जीवन भी ऐसा ही है।
जब भगवान ने हमको इस दुनिया में
भेजा उस समय उन्होंने हमको भी एक पत्र दिया है, जिसमें लिखा है, "उदास मत
होना, मैं हर पल, हर क्षण, हर जगह तुम्हारे साथ हूं। पूरी यात्रा तुम्हारे साथ करता हूँ। वह हमेशा
हमारे साथ हैं।
अन्तिम श्वास तक।
👉 यात्रा बहुत छोटी है
एक बुजुर्ग महिला बस में यात्रा कर
रही थी। अगले पड़ाव पर, एक मजबूत, क्रोधी
युवती चढ़ गई और बूढ़ी औरत के बगल में बैठ गई। उस क्रोधी युवती ने अपने बैग से कई
बुजुर्ग महिला को चोट पहुंचाई।
जब उसने देखा कि बुजुर्ग महिला चुप
है, तो आखिरकार युवती ने उससे पूछा कि जब उसने उसे अपने बैग से मारा तो उसने
शिकायत क्यों नहीं की?
बुज़ुर्ग महिला ने मुस्कुराते हुए
उत्तर दिया: "असभ्य होने की या इतनी तुच्छ बात पर चर्चा करने की कोई आवश्यकता
नहीं है,
क्योंकि आपके बगल में मेरी यात्रा बहुत छोटी है, क्योंकि मैं अगले पड़ाव पर उतरने जा रही हूं।"
यह उत्तर सोने के अक्षरों में लिखे
जाने के योग्य है: "इतनी तुच्छ बात पर चर्चा करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि
हमारी यात्रा एक साथ बहुत छोटी है।"
हम में से प्रत्येक को यह समझना
चाहिए कि इस दुनिया में हमारा समय इतना कम है कि इसे बेकार तर्कों, ईर्ष्या,
दूसरों को क्षमा न करने, असंतोष और बुरे
व्यवहार के साथ जाया करना मतलब समय और ऊर्जा की एक हास्यास्पद बर्बादी है।
क्या किसी ने आपका दिल तोड़ा? शांत
रहें।
यात्रा बहुत छोटी है।
क्या किसी ने आपको धोखा दिया, धमकाया,
धोखा दिया या अपमानित किया? आराम करें -
तनावग्रस्त न हों
यात्रा बहुत छोटी है।
क्या किसी ने बिना वजह आपका अपमान
किया? शांत रहें। इसे नजरअंदाज करो।
यात्रा बहुत छोटी है।
क्या किसी पड़ोसी ने ऐसी टिप्पणी की
जो आपको पसंद नहीं आई? शांत
रहें। उसकी ओर ध्यान मत दो। इसे माफ कर
दो।
यात्रा बहुत छोटी है।
किसी ने हमें जो भी समस्या दी है, याद
रखें कि हमारी यात्रा एक साथ बहुत छोटी है।
हमारी यात्रा की लंबाई कोई नहीं
जानता। कोई नहीं जानता कि यह अपने पड़ाव पर कब पहुंचेगा।
हमारी एक साथ यात्रा बहुत छोटी है।
आइए हम दोस्तों और परिवार की सराहना
करें।
आइए हम आदरणीय, दयालु
और क्षमाशील बनें।
आखिरकार हम कृतज्ञता और आनंद से भर
जाएंगे।
अपनी मुस्कान सबके साथ बाँटिये।।।।
क्योंकि हमारी यात्रा बहुत छोटी है!
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