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ज्ञानवर्धक कथाएं - भाग- 5

 👉 विवाह की अपेक्षा सेवा धर्म श्रेयष्कर


🔴 एक साथ, एक ही गॉव में छह बच्चे एक ही बीमारी से पीडित। सभी लकवे के शिकार है। तेज और असह्य बुखार। उसने ऐसे मरीज पहले कभी न देखे थे।


🔵 यह बात १९१० ई० की है, जब एक युवती अपने घोडे पर चढी़ आस्ट्रेलिया के एक आदिवासी क्षेत्र में घूमने आई थी। अब तक जिसे अपने वैभव और ऐश्वर्य से ही अवकाश न मिलता था, आज उसे पता चला कि दुनिया में दैन्य और दारिद्रय भी कम नहीं। परमात्मा के प्रति वह कृतज्ञ होती आई थी, पर जब उसने देखा कि हमने स्वयं उसकी अनंत कृपा के प्रति अपना कर्तव्य-भाव जागृत नहीं किया तो उसे बडी ग्लानि हुई। जब आधे से अधिक संसार अविकसित, अशिक्षित और पीड़ाओं से घिरा पडा हो तो साधन संपन्न खुशियाँ मना रहे हों यह कल्पना भी उसे असह्य प्रतीत हुई। एक डॉक्टर को तार भेजा। डॉक्टर ने जबाव भेजा अभी समय नहीं है।


🔴 उसने थोड़ी नर्सिग सीखी थी। डाक्टरों के अध्ययन से भी कुछ समाधान प्राप्त किये थे सो उसने अपने ही विश्वास पर औषधि मँगाकर उन बच्चों को दी। थोडी गर्मी प्रतीत हुई। जिन अंगों में रक्त-संचार बंद हो गया था, धीरे-धीरे फिर प्रारंभ हो गया। कई दिन कई रातों की अथक सुश्रूषा के बाद बच्चे उठ बैठे। युवती को ऐसा लगा जैसे सेवा के सुख से बढकर संसार में और कोई वस्तु नहीं। सम्मान तो सब कोई ले सकता है, पर आत्मीयता भरा प्यार का आनंद वही प्राप्त कर सकता है, जिसे सेवा का सौभाग्य मिला हो।


🔵 यह बात डॉक्टरो ने सुनी। उन्होंने इस लड़की की बडी़ प्रशंसा की और उसे नियमित रूप से नर्सिग करने के लिए प्रोत्साहित किया। लड़की को अपनी योग्यता पर विश्वास न था, सो वह बोली- यह जो कुछ हुआ वह भगवान् की कृपा मात्र थी, मै तो नर्सिंग पढी़ भी नही, मुझमें यह योग्यता कहाँ से आयेगी ?


🔴 एक डॉक्टर ने कहा क्षमता अपने भीतर से उत्पन्न होती है। तुम नहीं जानती मनुष्य में कितनी शक्ति है ? उसका उपयोग न करने के कारण सब कुछ असंभव लगता है, यदि तुम अपने आप पर विश्वास करो तो इन्हीं परिस्थितियों में पहाड़ के बराबर काम कर सकती हो?


🔵 'सचमुच कोई क्षमता जाग जाए तो हर व्यक्ति एक-डॉक्टर है, शिक्षक है, इंजीनियर है, नेता है, समाज सुधारक है। मनुष्य का ढाँचा सर्वत्र एक है, एक ही दिशा में योग्यता का विकास ही उसे डॉक्टर, शिक्षक, इंजीनियर, नेता या समाज-सुधारक बना देता है। 'चाहे यह योग्यता विद्यालय में विकसित हुई हो या अपने आप पैदा कर ली गई हो। दोनों ही रास्ते एक ही लक्ष्य की पूर्ति करते हैं।


🔴 लडकी ने अपनी योग्यताएँ बढा़नी शुरू की। नर्सिंग की अनेकों पुस्तकें मंगाकर उसने पढी़। डॉक्टरों से पूछताछ की। सामान्य मरीजों पर औषधियों के प्रयोग किए, हिम्मत खुलती चली गई और एक दिन उसने यह सिद्ध कर दिखाया कि योग्यताएँ संस्थानो में ही नहीं पनपती, वरन् घरों में अवकाश के प्रत्येक क्षण के उपयोग से कहीं भी बैठकर वे बढा़ई जा सकती हैं। ऐसी योग्यताऐं किसी भी विधिवत् शिक्षण प्राप्त योग्यता से कम नहीं होतीं। प्रमाणत वह प्रथम महायुद्ध में एक जहाजी अस्पताल में नर्स नियुक्त कर ली गई।


🔵 बहुत दिनों से उसके एक संबंधी की इच्छा थी कि वह शादी कर ले। उन्होंने विनम्र भाव से अपनी असहमति प्रकट करते हुए कहा- जब बहुत सारा संसार दीन-हीन अवस्था में पडा हो तब कुछ ऐसे व्यक्ति भी निकलने ही चाहिए जो सांसारिक सुखों का स्वेच्छा से त्यागकर अपने आपको इन कल्याण कार्यों में नियोजित कर सकें। मेरे लिए अब 'सेवा ' ही शादी है। लौकिक सुखों का यों परित्याग करते और अपनी योग्यताऐं बढा़ने के लिए प्रति पल सन्नद्ध रहने वाली, किसी स्कूल से जिसे डिग्री नहीं मिली, यही वीर बाला एक दिन सिस्टर एलिजाबेथ केनी के नाम से सारे विश्व में विख्यात हुई। उसकी शोध की हुई अनेक औषधियाँ अमेरिका, पेरिस, ब्रसेल, मास्को और ब्रिटेन तक पहुँची। अनेक विश्व विद्यालयों ने उसे डॉक्ट्रेट ' की उपाधि से विभूषित किया।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 79, 80


👉 अभिभावक की गलती का दंड भी उसे ही


🔴 बात बहुत दिनों की है, जब गाँधीजी दक्षिण अफ्रीका के फिनिक्स आश्रम में रहते थे। आश्रम के नियमानुसार विद्यार्थियों को कई-कई दिन का अस्वाद व्रत कराया जाता था। कौन, कब और कितने दिन का अस्वाद व्रत करेगा इसका निश्चय गाँधीजी ही किया करते थे।


🔵 एक दिन भोजन मे खिचडी के साथ कढी़ भी बनी। खिचडी बिना नमक की थी; जिन्हें अस्वाद व्रत करना था, उन्हें केवल खिचड़ी दी जानी थी; जिन्हें अस्वाद व्रत नहीं करना था, वे कढी भी ले सकते थे।


🔴 आश्रम में दूध-दही का प्रयोग कम होता था, इसलिए हर विद्यार्थी की यह इच्छा थी कि हमें भी कढी़ खाने को मिले, लेकिन गाँधी जी अपने निश्चय के बडे पक्के थे। उन्होंने कहा-व्रत तोड़ने से आत्मा कमजोर होती है, इसलिये जीभ के स्वाद के लिये व्रत नहीं तोड़ा जा सकता जो लोग उसका कडा़ई से पालन नहीं कर सकते उनके लिए उचित था, वे पहले से ही व्रत न लेते, पर व्रत लेकर बीच मे भंग करना तो एक तरह का पाप है।


🔵 विद्यार्थी मन मारकर रह गये। कढ़ी उन्हें ही मिली जो नमक ले सकते थे। शेष के लिए गाँधी जी ने घोषणा कर दी कि जिस दिन उनका व्रत पूरा हो जायेगा उनके लिए कढ़ी बनवा दी जायेगी। लड़के चुप पड़ गए। जिसे जो निर्धारित था भोजन कर लिया।


🔴 लेकिन गाँधी जी के पुत्र देवदास अड गये कि मुझे तो आज ही कडी़ चाहिए। गाँधी जी के पास खबर पहुँची तो उन्होंने देवदास को बुलाकर पूछा- अभी तुम्हारा अस्वाद व्रत कितने दिन चलेगा आठ दिन देवदास बोले-लेकिन मैं नौ दिन, दस दिन कर लूँगा पर आज तो मुझे कडी़ मिलनी ही चाहिए। मेरा कडी़ खाने का मन हो रहा है।


🔵 दुःखी होकर गाँधी जी बोले-बेटा दूध, दही, टमाटर, रोटी, तेल जो कुछ चाहिए ले लो नमक वाली कडी तो आज तुझे नहीं मिलेगी। तू ही आश्रम के नियमों का पालन न करेगा तो और विद्यार्थियो में वह दृढता कहाँ से आयेगी ?


🔴 गाँधी जी की सीख का भी देवदास पर कोइ प्रभाव नहीं पडा। वे वहीं खडे-खडे रोने लगे। सारे आश्रमवासी खडे कौतूहलवश देख रहे थे कि आगे क्या होता है?


🔵 देवदास का रोना देखकर गाँधी जी बडे दुःखी हुए। एक बार तो उनके मन में आया कि देवदास को दंड दिया जाए, पर तभी उनके मन में विचार आया कि कुछ दिन पहले वे स्वयं भी ऐसे ही किया करते थे। घर में अक्सर अच्छी चीजो के लिए मचल जाया करते थे, तब उन्हें ऐसा करते बालक देवदास भी देखा करता था, यह उसी का तो फल है कि आज देवदास भी वही कर रहा है।


🔴 अभिभावक जो काम लड़कों के लिए पसंद नहीं करते पहले उन्हे अपने से वह आदत दूर करनी चाहिए। अपनी भूल को न सुधारा जाए तो लडकों को आदर्शवादी नहीं बनाया जा सकता। इसमें दोष देवदास का नहीं मेरा है, फिर दंड भी देवदास को क्यों दिया जाए ?


🔵 घबराते हुए गाँधी जी ने, सबके सामने अपने गाल पर जोर-जोर से दो तमाचे मारे और कहा-देवदास यह मेरी भूल का परिणाम है, जो तू आज यों मचल रहा है, अपनी भूल की सजा तुझे कैसे दे सकता हूँ उसे तो मुझे ही भोगना चाहिए।


🔴 इस बात का देवदास पर ऐसा प्रभाव पडा कि फिर कढी़ के लिए उसने एक शब्द भी नहीं कहा और अपना अस्वाद व्रत नियमपूर्वक पूरा किया।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 77, 78


👉 यह खटकने वाला त्याग का अभाव


🔴 मेरे कुछ मित्र ढाका से लौट रहे थे। मार्ग में वह स्टीमर जिस पर यात्रा हो रही थी, किसी समुद्री चट्टान से टकरा गया और चूर-चूर होकर डूब गया। यात्रा कर रहे तीनों यात्री संकट में पड गए।


🔵 संयोग से एक नाव पास से गुजरी। डूबने वालों ने नाविक को पुकारा पर उसने कतई ध्यान नहीं दिया। डूबने वाले डूबते जाते थे और सहायता की प्रार्थना भी करते जाते थे। जीवन के प्रति प्यार छटपटाता रहा, पर मछुआरों में से कोई भी उनकी सहायता को तत्पर न हुआ, जबकि वे तीनों को बचा सकते थे। आत्म-त्याग का यह अभाव ही तो आज विश्व भर में अशांति, कलह और विद्वेष का कारण है। कदाचित् मनुष्य-मनुष्य के प्रति उत्सर्ग करना जानता तो कितना अच्छा होता ?


🔴 एक दिन और आया, हम एक खाड़ी में नौका-बिहार कर रहे थे। मछुओं ने मछली पकडने के लिये खूँटे गाड रखे थे। हमारी नाव उनसे टकरा गई और डूबने लगी। मछुओं को पुकार लगाई गई पर उनका ध्यान मछली पकडने में लगा था. हमारी कौन सुनता ?


🔵 हमारे मित्र ने कहा-जो हमें बचायेगा हम उसे सौ रुपया देंगे। फिर क्या था सब दौड़े। हाथों-हाथ बचा लिए गए। मछुओं को हमारे प्रति कोई करुणा न थी, कोई दया न थी। सहानुभूति और सेवा का भाव न था। वे सौ के नोट देखकर प्रसन्न हो रहे थे। उनके जीवन में धन ही सब कुछ था।


🔴 एक दिन हम सागर के तट पर खडे सिंधुराज की लहरों का खेल देख रहे थे। प्रकृति में कितनी संवेदना है कि उसका हर कण इतना प्यारा है कि उसे भुलाओ तो भूलता नहीं। पर उससे भी प्यारा है आहत हृदयों की सेवा का भाव, जिसकी शांति के आगे प्रकृति की शांति, सौंदर्य सब कुछ फीका है।


🔵 ऐसा दिखाई दिया कोई स्त्री सागर में डूब रही है। प्रयत्न करने पर उसे बचाया जा सकता था। हृदय ने कहा उछलो और समुद्र में कूद पडो़ तुम्हारे जीवन से किसी जीवन की रक्षा का सुख क्यों न उठाओ ? पर विवशता थी शरीर अशक्त था, हम तैर

नहीं सकते थे।


🔴 कुछ मछुए खड़े थे। हमने कहा भाई जो उस स्त्री को बचायेगा उसे बीस रुपये देंगे। मछुओं ने बिल्कुल ध्यान न दिया। जो मछलियों को मारते हैं उनकी तड़प देखकर भी दया नहीं करते। जीवों से जिन्हें प्रेम नहीं वह मनुष्य से ही कहाँ प्रेम करने लगे ?


🔵 हमने कहा-सौ रुपये देंगे। तब तो उन्हें सौदे में और भी आकर्षण दिखाई दिया। तब वे दौड़े और स्त्री को पानी से निकाल कर लाए। पैसे से मोह हो तो मनुष्य की आत्मा कितना गिर जाती है इसका अनुमान उस दिन हुआ तब से संसार का यह साधन भी तुच्छ लगता है।


🔴 इसी बीच टाइटेनिक जहाज के डूबने की घटना अखबारों मे पढी़। दो हजार यात्रियों को लेकर यह जहाज अटलांटिक महासागर में जा रहा था। एक रात वह ग्लेशियर से टकरा गया और डूबने लगा। उसमें अधिकांश योरोप और अमेरिका के धनी व्यक्ति थे सबने अपने धन और जीवन की चिंता छोड़ दी और सर्व प्रथम स्त्री और बच्चों को बचाने का प्रयत्न किया। इस प्रयत्न में कई लोग डूब भी गये पर अपनी आत्मा के अंदर उन्होंने कोई कमजोरी नहीं आने दी। अपनी आत्मा के आगे उन्होंने अपने आपको कायर नही होने दिया।


🔵 यह समाचार पढ़ता हूँ, याद करता हूँ तो आँखें छलक उठती हैं। सोचता हूँ वह कौन सा दिन होगा, जब इस तरह का प्यार और आत्म-त्याग का भाव मानवीय अंत करणों को छुयेगा।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 75, 76


👉 अपनी तृप्ति को धर्म मत बनाओ


🔵 धर्म का एक निश्चित विश्वास है, पारलौकिक जीवन की सुख-शांति और बंधन, मुक्ति। पर उस विश्वास की पुष्टि कैसे हो, इसके लिए धर्म की एक कसौटी है और वह यह है कि व्यक्ति का प्रस्तुत जीवन भी शांत-बंधनमुक्त, कलह, अज्ञान और अभाव मुक्त होना चाहिए।


🔴 धर्म का पालक बनें किंतु वह विशेषताएँ परिलक्षित न हों तो यह मानना चाहिये, वहाँ धर्म नहीं, अपनी तृप्ति का कोई खिलवाड या षड्यंत्र चल रहा है। आज सर्वत्र ऐसे ही भोंडे धर्म के दर्शन होते हैं। विचारशील व्यक्ति ऐसे धर्म को कभी भी स्वीकार नहीं करते, चाहे उसके लिए कितना ही दबाव पडे़, दुराग्रह हो या भयभीत किया जाए।


🔵 प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक प्लेटो के जीवन की एक महत्त्वपूर्ण घटना है, जब उन्होंने जीवन का संकट मोल लेकर भी इस तरह के अंध-विश्वास का प्रतिवाद किया।


🔴 एक बार नगर के एक देव मंदिर में कोई उत्सव था। नगरवासी प्लेटो को उसमें सम्मिलित होने के लिए सम्मानपूर्वक ले आए। नगरवासियों के प्रेम और आग्रह को प्लेटो ठुकरा न सके उत्सव मे सम्मिलित हुए। वैसे उनका विचार यह था कि इस तरह के उत्सव आयोजनों में किया जाने वाला व्यय मनुष्य के कल्याण में लगना चाहिए। बाहरी टीमराम, दिखावे या प्रदर्शनबाजी में नहीं।


🔵 मंदिर में जाकर एक नया ही दृश्य देखने को मिला। नगरवासी देव प्रतिमा के सामने अनेक पशुओं की बलि चढ़ाने लगे। जो भी आता, एक पशु अपने साथ लाता। देव प्रतिमा के सामने खडा़ कर उस पर तेज अस्त्र से प्रहार किया जाता है। दूसरे क्षण वह पशु तड़पता हुआ अपने प्राण त्याग देता और दर्शक यह सब देखते, हँसते-इठलाते और नृत्य करते।


🔴 जीव मात्र की अंतर्व्यथा की अनुभूति रखने वाले प्लेटो से यह दृश्य देखा न गया। उन्होंने पहली बार धर्म के नाम पर नृशंस आचरण के दर्शन किए। वहाँ दया, करुणा, संवेदना और आत्म-परायणता का कोई स्थान न था।


🔵 वे उठकर चलने लगे। उनका हृदय अंतर्नाद कर रहा था। तभी एक सज्जन ने उनका हाथ पकड़कर कहा- 'मान्य अतिथि आज तो आपको भी बलि चढा़नी होगी, तभी देव प्रतिमा प्रसन्न होगी। लीजिये यह रही तलवार और यह रहा बलि का पशु। वार कीजिए और देव प्रतिमा को अर्ध्यदान दीजिए।''


🔴 प्लेटो ने शांतिपूर्वक थोड़ा पानी लिया। मिट्टी गीली की उसी का छोटा सा जानवर बनाया। देव प्रतिमा के सामने तलवार चलाई और उसे काट दिया और फिर चल पडे घर ओर।


🔵 अंध-श्रद्धालु इस पर प्लेटो से बहस करने लगे- 'क्या यही आपका बलिदान है।'


🔴 हाँ प्लेटो ने शांति से कहा- ''आपका देवता निर्जीव है, निर्जीव भेंट उपयुक्त थी-सो चढा़ दी, वह खा-पी सकता इसलिए उसे मिट्टी चढ़ाना बुरा नहीं।


🔵 उन धर्मधारियों ने प्रतिवाद किया और कहा कि जिन लोगों यह प्रथा चलाई "क्या वे मूर्ख थे, क्या आपका अभिप्राय यह कि हमारा यह कृत्य मूर्खतापूर्ण है ?"


🔴 प्लेटो मुस्कराए, पर उनका अंतर कराह रहा था। जीवन मात्र के प्रति दर्द का भाव अब स्पष्ट ही हो गया। उन्होंने निर्भीक भाव से कहा- ''आप हों या पूर्वज, जिन्होंने भी यह प्रथा चलाई-पशुओं का नहीं, मानवीय करुणा की हत्या का प्रचलन किया है। कृपया देवता को कलंकित करो, न धर्म को। धर्म, दया और विवेक पर्याय है, हिंसा और अंध विश्वास का पोषक नहीं हो सकता।''


🔵 इस प्रश्न का जबाव किसी के पास न था। नगरवासी सिर सुकाए खडे रहे। प्लेटो उनके बीच से चले आए। ऐसे ही धर्म को स्वार्थ-साधन बनाने वालों के पास से परमात्मा भाग जाते हैं।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 73, 74


👉 निर्धनता से प्यार


🔵 संत फ्रांसिस एक धनवान् पिता के पुत्र थे। उनके यहाँ कपडे का बड़ा व्यापार होता था। अपने प्रारंभिक जीवन मे फ्रांसिस बडी शान से रहते थे। अच्छा-अच्छा खाते और कीमती कपडे पहनते थे। पर बाद में उनका हृदय ऐसा बदला कि उन्हें गरीबी से प्रेम हो गया। उन्होंने सब कुछ त्याग दिया और गरीबों की सेवा में लग गए।


🔴 एक बार एक भिखारी उनकी दुकान पर आया और बोला-भाई, मुझे कुछ खाने- पहनने को दो, मैं बहुत भूखा हूँ और जाड़े से मर रहा हूँ। फ़ांसिस को उसकी दशा पर बडी़ दया आई और उन्होंने उस गरीब को खाना खिलवाया और तन ढकने के लिये कपडा दिया। जब उनके पिता को इस बात का पता चला तो वे फ्रांसिस से बहुत बिगडे और बोले-धन इसलिए नहीं है कि वह इस तरह भिखमंगों को लुटा दिया जाए। संत फ्रांसिस को पिता की इस बात से बड़ा दुःख हुआ। वे सोचने लगे-वह धन यो बेकार की ही चीज है, जो गरीबों और असहायों की मदद करने में नहीं लगाया जा सकता। जब हजारों लोग हमारे सामने ही भूखों मर रहे हैं और नंगे रघूम हे हैं, तो हमें इस प्रकार धन जमा रखकर धनवान बने रहने का क्या अधिकार ? उन्हें धन से घृणा हो गई और वे शान-शौकत छोडकर सादे ढंग से रहने लगे।


🔵 एक बार फ्रांसिस घोड़े पर चढे़ हुए कहीं जा रहे थे। रास्ते में उन्हें एक कोढ़ी दिखाई दिया। वह नंगा पडा पीड़ा से कराह रहा था। पहले तो उसकी दशा देखकर, उन्हें बडी घृणा हुई। पर तत्काल ही उनकी आत्मा ने कहा- 'धिक्कार है फ्रांसिस! जिसकी तुम्हें मदद करनी चाहिए, उसे देखकर तुम घृणा करते हो।'' उनकी मनुष्यता जाग उठी। वे तत्काल घोड़े से उतरे। कोढी को गले लगाया और सेवा से उसका कष्ट दूर किया। अपने पास के कपडे और पैसे उसे दे दिए।


🔴 इस उपकार से फ्रांसिस की आत्मा बडी़ करुण हो गई और निर्धनता के प्रति उनका प्रेम जाग उठा। वे दिन रात गरीबों की चिंता में रहने लगे। एक दिन उन्हें चिंतित देखकर, उनके एक मित्र ने कहा-''भाई आजकल बडे विचारशील बने रहते हो, क्या विवाह करने का विचार कर रहे हो ?'' फ्रांसिस ने उत्तर दिया- विचार तो कुछ ऐसा ही है। एक बडी़ सुंदर स्त्री से विवाह का विचार है। बताओ वह स्त्री कौन है "मित्र ने कहा-" "कोई भी हो, होगी बड़ी भाग्यवान्। बताओ वह कौन है ?'' फ्रांसिस ने कहा- "उस सुंदर देवी का नाम है निर्धनता।" मैं उसी से विवाह करने का विचार कर रहा हूँ। फ्रांसिस ने अपने विचार को चरितार्थ किया और न केवल निर्धनता ही स्वीकार कर ली बल्कि निर्धनों महान् सेवक बन गए।


🔵 फ्रांसिस एक बार गिरजाघर में प्रार्थना करने गए। गिरजाघर बड़ा टूटा-फूटा था। भगवान् के घर की यह दशा देखकर उन्हें बडा दुःख हुआ। वे घर आए और कपडे की कई गाठे और अपना घोड़ा बेच डाला। उसका सारा पैसा ले पाकर पुजारी  को गिरजाघर की मरम्मत के लिये दे दिया।


🔴 पिता को पता चला तो उन्होने फ्रांसिस को बहुत मारा और विशप के पास ले जाकर कहा कि यह लड़का मेरा धन बरबाद किये जा रहा है, मैं इसे अपनी संपत्ति से वंचित कर चाहता हूँ।


🔵 पिता की बात सुनकर फ्रांसिस खुशी से उछल पडे़, बोले-आपने मुझे एक बहुत बडे मोह-बंधन से मुक्त कर दिया है। मैं स्वयं ही उस संपत्ति को दूर से प्रणाम करता हूँ, जो 'परमार्थ और परोपकार में काम नहीं आ सकती।' इतना कहकर उन्होंने कपडे तक उतारकर रख दिए और एक चोगा पहन चले गए।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 71, 72


👉 फूल एक सजीव सौंदर्य


🔴 दार्शनिक अरस्तु को फूलों से बड़ा प्रेम था। उन्हें जितना अवकाश का समय मिलता था, उस समय का संपूर्ण उपयोग फूलों को रोपने, उनकी क्यारियों में जल भरने, निकाई करने गोडाइ करने मे करते थे। उनकी छोटी-सी बगीची उसमें नाना प्रकार के हरे, नीले, पीले, लाल, गुलाबी फूल झूमते रहते थे। गर्मियों में भी पास से गुजरने वाले लोगों को हरियाली और सुगंध का लाभ मिलता था। दोनों वस्तुएँ ऐसी है, जिन्हें देखते ही आत्मा खिल उठती है, मन प्रफुल्लित हो उठता है।


🔵 एक दिन एक मित्र ने पूछा- "आपको फूलों से इतना प्रेम क्यों है" तो उन्होंने मुस्कराकर कहा- यों कि फूल परमात्मा का सौंदर्यबोध कराता है। फूलों को देखकर मानव सात्विक, सरल व सुरुचि भाव जाग्रत करता है। अंतःकरण की जो कोमल वृत्तियाँ हैं, फूलों के सान्निध्य और दर्शन से उनका विकास होता है। इसीलिए तो लोग देवालयों में जाकर फूल चढाते हैं कि उनकी कोमल भावनाएँ परमात्मा स्वीकार करे और स्नेह आशीर्वाद प्रदान करे।


🔴 बडे़ आदमियों, गुरुजनों से भेंट के समय विदाई और मिलन समारोहों में पुष्पहार पहनाना, गुलदस्ते भेंट करने के पीछे भी यही मनोविज्ञान है, उससे हम अपनों मे बडो़ के स्नेह का अधिकार प्राप्त करते है।


🔵 विदेशो में फुलबाड़ी लगाने में लोग बहुत रुचि प्रदर्शित करते हैं, बहुत धन खर्चते हैं और अच्छे-अच्छे फूलों की नस्लें, किस्में प्राप्त करने के लिये परिश्रम भी करते हैं। खेद है कि धार्मिक वृत्ति का देश होते हुए भी अब अपने देश में फूल लगाने की रुचि उतनी नहीं रही। प्रतिदिन उपासना, देव-प्रतिमाओं पर माल्यार्पण और पुष्पार्पण के लिए फूलों की आवश्यकता होती है, शुचिता, स्वच्छता आदि की तरह फूलों को उपासना का अविछिन्न अंग ही माना गया है, इस संबंध में पद्मपुराण के क्रियायोग के प्राय: ८९ और २८० वें अध्यायों में संपूर्ण रूप से फूलों की उपयोगिता का भी विवेचन हुआ है। लिखा है-


चैत्रे तु चम्पकेनैव जातिपुष्पेण वापुन:।

पूजनीय: प्रयत्नेन केशव: क्लेशनाशन:।।

वैसाखे तु सदा देवि ह्यर्चनीयो महाप्रभुः।

केतकी पत्रमादाय वृषस्थे च दिवाकरे।।


🔴 चैत्र में कमलपुष्प, जाति पुष्प, चंपा दौना, कटसरैया, वरुण पुष्प; बैसाख में केतकी, ज्येष्ठ मे यही पुष्प: आषाढ में कनेर (करवीर), कदंब तथा कमल पुष्पों से पूजा करनी चाहिए।


🔵 यह संदर्भ तत्कालीन लोगों में फूलों की अभिरुचि व्यक्त करते है। यद्यपि तब विविध पुष्पों की उपज माली करते थे। अब मालियों के पास न तो वैसे साधन- सुविधाएँ हैं और न रुचि इसलिए फूलों की आवश्यकता की पूर्ति हर गृहस्थ को स्वयं करनी चाहिए।


🔴 घरों के आस-पास काफी जमीन बेकार पडी रहती है उनकी क्यारियाँ बनाकर स्थायी और कुछ समय फूल देने वाले पौधे रोपे जा सकते हैं। जहाँ भूमि का अभाव है, वहाँ सजाकर रखे जा सकते हैं। थोडा भी समय देकर उनकी सिंचाई आदि की व्यवस्था की जा सके तो हर घर में आवश्यकता अनुरूप फूल उपजाए जा सकते है। कुछ लोग बडे पैमाने खेती भी कर सकते हैं।


🔵 उपासना की आवश्यकता की पूर्ति के साथ ही इस अभिरुचि से आस-पास के वातावरण में सौंदर्य का विकास होता है। फूलों से दृश्य मनोरम हो जाता है। जहाँ फूल होते हैं समझा जाता है कि यहाँ सुसंस्कृत और विचारवान् लोग निवास करते है। किसी भी दृष्टि से फूलों की अभिरुचि मनुष्य को प्रसन्नतादायक ही होती है। हमें एक नये सिरे से पुष्प उत्पादन का अभियान प्रारंभ करना चाहिए। स्वयं फूल उगाऐ उपासना के समय प्रयोग करें दूसरों को स्नेह के आदान-प्रदान के रूप दिया करें। बीज और पौधों का वितरण करके भी फूल अभियान को सफल बनाया जा सकता है।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 69, 70


👉 पति की नाव पत्नी ने खेई


🔵 श्री जगदीश चंद्र बसु कलकत्ता यूनिवर्सिटी में विज्ञान के अध्यापक नियुक्त किए गए। अभी तक ऐसा सम्मान किसी भी भारतीय को उपलब्ध नहीं हुआ था। इसलिए श्री जगदीशचंद्र बसु को भारतीय बडा भाग्यशाली मानते थे।


🔴 कुछ दिन पीछे पदोन्नति का समय आया। श्री बसु को पदोन्नत कर दिया गया, पर अब वे जिस पद पर पहुँचे, उस पर पहले से काम कर रहे अंग्रेज पदाधिकारी की अपेक्षा उन्हें वेतन कम दिया गया। जहाँ अन्य संबंधियों ने उन्हें इस बात की उपेक्षा करने की सलाह दी वहीं श्री जगदीश चंद्र बसु ने इसे अपने स्वाभिमान पर आघात माना और तब तक वेतन लेने से इनकार कर दिया जब तक कि उनका स्वयं का वेतन अंग्रेज पदाधिकारी के बराबर नहीं कर दिया जाता। इस तरह का सत्याग्रह करते हुये भी अध्यापन कार्य नहीं छोड़ा। आजीविका का स्रोत बंद हो जाने के कारण घर-खर्च की तंगी आ गई। उनकी धर्म पत्नी ने ऐसे गाढ़े समय पति के स्वाभिमान को चोट न आने देने व उनको किसी प्रकार कष्ट न होने देने में पूर्ण तत्परता बरती।


🔵 उन दिनो में हुगली नदी पर पुल नहीं बना था। कालेज जाने के मार्ग में हुगली पडती थी, उसे पार करने में आठ आने देने पडते थे। इस तरह के कई अनावश्यक खर्च जिन्हें उनकी धर्म पत्नी ने बचा लिया, पर इस खर्च को रोक सकना कठिन था।


🔴 कोई उपाय नहीं सूझ रहा था, तब श्रीमती अवला वसु ने अपने एक मांगलिक आभूषण को बाजार में बेचकर एक छोटी नाव खरीद ली। उस दिन से वह स्वयं नदी तक उनके साथ जाती। नाव में बैठकर पार पहुँचा आती और वापसी घर अपना काम-काज करती। सांयकाल फिर ठीक समय वे नाव लेकर पहुंच जाती और श्री बसु को उसमें बैठाकर साथ लेकर आती। सरकार को इस बात का पता चला तो उसने यह लिखते हुए-"जिसकी ऐसी निष्ठावान् पत्नी हो उसका वेतन नहीं रोका जा सकता।" उनका वेतन अंग्रेज पदाधिकारी के बराबर कर दिया और अपनी पराजय मान ली।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 67, 68


👉 निर्भीक-सहिष्णुता


🔵 निर्भीकता, सहनशीलता और समदर्शिता सच्चे संत के आवश्यक गुण माने गए हैं। जो किसी भय अथवा दबाव में आकर अपने पथ से विचलित हो उठे, अपने व्यक्तिगत अपमान अथवा कष्ट से उत्तेजित अथवा विक्षुब्ध हो उठे अथवा जो किसी लोभ-लालच, ऊँच-नीच, धनी-निर्धन, पद पदवी के कारण किसी के प्रति अंतर माने उसे सच्चा संत नहीं कहा जा सकता, सच्चा संत भगवान् के राज्य में निर्भय विचरता और व्यवहार करता है, सुख-दुःख, मान-अपमान को उसका कौतुक मानता और प्राणी मात्र में समान दृष्टिकोण रखता है। उसको न कहीं भय होता है, न दु:ख और न ऊँच-नीच।


🔴 सिक्खों के आदि गुरु नानक साहब में यह सभी गुण पूरी मात्रा में मौजूद थे और वे वास्तव में एक सच्चे संत थे। गुरु नानक गाँव के जमींदार दौलत खाँ के मोदीखाने में नौकर थे। जमींदार बड़ा सख्त और जलाली आदमी था, किंतु गुरु नानक न तो कभी उससे दबे न डरे। बल्कि एक बार जब उन्होंने तीन दिन की विचार समाधि के बाद अपना पूर्ण परीक्षण कर विश्वास कर लिया कि अब उन्होंने जन-सेवा के योग्य पूर्ण संतत्व प्राप्त कर लिया है तब वे दौलतखाँ को यह बतलाने गये कि अब नौकरी नहीं करेंगे, बल्कि शेष जीवन जन सेवा में लगाएँगे।


🔵 जमींदार ने उन्हें अपने बैठक खाने में बुलवाया गुरुनानक गये और बिना सलाम किए उसके बराबर आसन पर बैठ गये जमींदार की भौंहे तन गई बोला-नानक! मेरे मोदी होकर तुमने मुझे सलाम नहीं किया और आकर बराबर में बैठ गए। यह गुस्ताखी क्यों की ? नानक ने निर्भीकता से उत्तर दिया दौलतखान! आपका मोदी नानक तो मर गया है, अब उस नानक का जन्म हुआ है, जिसके हृदय में भगवान् की ज्योति उतर आई है, अब जिसके लिए दुनिया में सब बराबर हैं। जो सबको अपना प्यारा भाई समझता है। कहते-कहते नानक के मुख पर एक तेज चमकने लगा। जमींदार ने कुछ देखा और कुछ समझा, 'फिर भी कहा-अगर आप किसी में अंतर नहीं समझते और मुझे अपना भाई समझते हैं, तो मेरे साथ मस्जिद में नमाज पढने चलिए। नानक ने जरा संकोच नहीं किया और एक एकेश्वरवादी संत उसके साथ मस्जिद चला गया।


🔴 जिस समय नानक मक्का की यात्रा को गए, घटना उस समय की है। निर्द्वद्व संत दिन भर स्थान-स्थान पर सत्संग करते, मुसलमान धर्म का स्वरूप समझते और अपने धर्म का प्रचार करते फिरते रहे। एक रात में मस्ती के साथ एक मैदान में पड़कर सो रहे थे। संयोगवश उनके पैर काबा की ओर फैले हुए थे। उधर से कई मुसलमान निकले। वे बडे ही संकीर्ण विचार वाले थे। गुरुनानक को काबे की तरफ पैर किए लेटा देखा तो आपे से बाहर हो गए। पहले तो उन्होने उन्हें काफिर आदि कहकर बहुत गालियाँ दीं और तब भी जब उनकी नीद न टूटी तो लात-घूँसों से मरने लगे। नानक जागे और नम्रता से बोले- "भाई क्या गलती हो गई जो मुझ परदेशी को आप लोग मार रहे है ?


🔵 मुसलमान गाली देते हुए बोले- 'तुझे सूझता नहीं कि इधर कबा-खुदा का घर है और तू उधर ही पैर किये लेटा है।''


🔴 नानक ने कहा- 'उसे सब जगह और सब तरफ न मानकर किसी एक खास जगह में मानना, मनुष्य की अपनी बौद्धिक सकीर्णता है। अच्छा हो कि आप लोग भी उसे मेरी ही तरह सब जगह और सब तरफ मानें। इसी में खुदा की बडाई है और इसी में हमारी सबकी भलाई है।''


🔵 गुरु नानक की सहनशीलता, निर्भीकता और ईश्वरीय निष्ठा देखकर मुसलमानो का अज्ञान दूर हो गया। उन्होंने उन्हे सच्चा संत समझा और अपनी मूल की माफी माँगकर उनका आदर किया।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 65, 66


👉 सबका आदर सच्ची सभ्यता


🔴 राष्ट्रपति का घोड़ा शान के साथ आगे-आगे चल रहा था। पीछे कुछ साथी थे और बाद में अंगरक्षक घुडसवार। यह कोई राजकीय यात्रा न थी। मन बहलाव के लिये निकले थे सब लोग।


🔵 सडक पर बढ़ते हुए राष्ट्रपति को एक हबशी मिला हबशी ने राष्टाध्यक्ष को पहचाना उसने अपनी टोपी उतारी और झुककर प्रणाम किया फिर राष्ट्रपति ने भी अपनी टोपी उतारी और सिर झुकाकर अभिवादन का उत्तर अभिवादन से दिया। हबशी का मुख प्रसन्नता से खिल उठा, खुशी-खुशी एक ओर निकलकर अपने घर चला गया।


🔴 कुछ नजदीकी मित्र और संबंधी थे, राष्ट्रपति का प्रत्युत्तर में झुककर प्रणाम करना उन्हें अच्छा न लगा। इतने बडे राष्ट्र का स्वामी एक मामूली हबशी को विनम्र अभिवादन करे, इसमे कुछ शान का घटियापन लगा बेचारे बोल कुछ न सकते थे। सबके सब पीछे-पीछे चलते और मनोविनोद करते गये।


🔵 शाम को घर लौटे अतिथियों सहित सब लोग भोजन पर बैठे तो एक मित्र ने दिन वाला प्रसंग छेड दिया और कहा कहाँ उनकी यह संभ्रात स्थिति कहाँ वह गुलाम हबशी-आपको उसे मस्तक झुकाकर अभिवादन नहीं करना चाहिए था। वह एक साधारण व्यक्ति था। इसलिये उसे विनम्र होना अनिवार्य था आपके लिये नहीं राष्ट्रपति हँसे और बोले-ठीक कहते हो भाई राष्ट्रपति तो बहुत बडा़ आदमी होता है लेकिन क्या उसे बेअदब भी होना चाहिए 'राष्ट्रपति तो मैं इसलिये हूँ कि मुझमें शासन सत्ता संभालने की योग्यता अनुभव की गई है, पर यदि अपना राष्ट्रपति पद और उस व्यक्ति का हबशी कहा जाना दोनों निकाल दें तो फिर हम दोनों एक ही सामान्य श्रेणी के मनुष्य रह जाते है प्रत्येक मनुष्य रह जाते हैं। प्रत्येक मनुष्य दूसरे मनुष्य का आदर करे। भाइयो यही तो सच्ची सभ्यता है। पद-प्रतिष्ठा और उच्च सम्मान पाने का यह तो अर्थ नहीं है कि लोग मानवीय कर्तव्यों की अवहेलना करने लगें। उसने जिस आत्मीयता और सम्मान के साथ प्रणाम किया था, वैसे मैं न करता तो यह मानवता का अपमान न होता ?


🔴 मित्रों को उनकी बात के आगे कोई दलील सूझ न पडी़ तो भी अपने पक्ष की पुष्टि ले लिए उन्होनें इस बार राष्ट्रपति के परिवार वालों का समर्थन पाने की कोशिश की। उन्होंने कहा कुछ हो आप जैसे विद्वान और प्रतिष्ठित व्यक्ति को वैसा नहीं करना चाहिए।


🔵 राष्ट्रपति की धर्मपत्नी भी वहीं उपस्थित थी। उन्होंने कहा जॉर्ज साहब ने जो कुछ भी किया। वह आदर्श ही नहीं, अनुकरणीय भी है मनुष्य-मत्रुष्य में परस्पर भेद-भाव न रहे इसके लिये यह आवश्यक है कि ऊँची या नीची परिस्थितियों में रहते हुए भी आत्म-समानता का ध्यान रखा जाए। एक दिन था जब हम लोग निर्धन थे, सामान्य श्रेणी में गिने जाते थे। आज इस स्थिति में हैं, इसका यह तो अर्थ नहीं कि हम मनुष्य नहीं रह गये। मनुष्य के नाते इन्होंने जो कुछ किया, वही सही था। एक अनपढ व्यक्ति ने झुककर प्रणाम किया यह उसकी सभ्यता थी और यदि पढ़े-लिखे होकर भी ये वैसा प्रत्युत्तर न देते तो इससे बडी असभ्यता प्रकट होती।'' यह सुनकर सब उनसे सहमत हो गये।


🔴 यह राष्ट्रपति अमेरिका के निर्माता जार्ज वाशिंगटन थे।


🔵 प्रत्येक मनुष्य अपनी अच्छी-बुरी स्थिति का अच्छा-बुरा परिणाम पाता है, इसको मापदंड मानकर सभ्यता नही छोडी जा सकती है। ऊँच-नीच का भेदभाव न रखकर हर मनुष्य को सम्मान देना ही सच्ची सभ्यता है।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 63, 64


👉 एकाग्रचित्त काम-बहुत बड़े परिणाम


🔴 इंग्लैंड के इतिहास में 'एल्फ्रेड' का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। एल्फ्रेड ने प्रजा की भलाई के लिए अनेक साहसिक कार्य किए जिससे वह महान् एल्फ्रेड (एल्फ्रेड द ग्रेट) के नाम से जाना जाता है।


🔵 प्रारंभ में एल्फ्रेड भी एक साधारण राजा की तरह जो बाप-दादों से होता आया है वह चाहे अच्छा या हो बुरा करने की अंधविश्वासी प्रवत्ति के कारण वह सामान्य व्यक्तियों का सा खाओ पियो और वैभव विलास में डूबे रहो ? जीवन जीने लगा। समुद्र में पडा़ तिनका जिस तरह लहरों के साथ उठता-गिरता है, वैसे ही अस्त व्यस्त जीवन एल्फ्रेड का भी था। एक दिन ऐसा भी आया, जब उसकी यह सुस्ती शत्रुओं के लिये लाभदायक सिद्ध हुई। एल्फ्रेड का राज्य औरों ने हडप लिया और उसे गद्दी से उतारकर मार गिराया।


🔴 इधर-उधर मारे-मारे फिर रहे एल्फ्रेड को एककिसान के घर नौकरी करनी पडी उसे बर्तन माँजने, पानी भरने और चौके का काम सौंपा गया, उसके काम की देख रेख किसान की स्त्री करती थी। एल्फ्रेड छिपे वेष में जिंदगी काटने लगा।


🔵 एक दिन किसान की स्त्री को किसी आवश्यक काम से बाहर जाना पड़ा। बटलोई पर दाल चढी़ थी, सो उसने एल्फ्रेड से कहा कि जब तक मैं वापिस नही आ जाती तुम बटलोई की दाल का ध्याना रखना यह कहकर स्त्री चली गई।


🔴 वहाँ से काम पूरा कर लौटी तो स्त्री ने देखा, एल्फ्रेड एक ओर बैठा कुछ सोच रहा है ओर बटलोई की सारी दाल जल चुकी है। स्त्री ने कहा-मूर्ख नवयुवक। लगता है तुझ पर एल्फ्रेड की छाया पड़ गई है, जो काम सौंपा जाता है उसे कभी एकाग्र चित्त होकर पूरा नहीं करता। तू भी उसकी तरह मारा-मारा घूमेगा।


🔵 स्त्री बेचारी को क्या पता था कि जिससे वह बात कर रही है वह एल्फ्रेड ही है, पर एल्फ्रेड को अपनी भूल का पता चल गया। उसने बात गाँठ बाँध ली, आज से जो कुछ भी करुँगा दत्तचित्त होकर करुंगा। कल्पना के किले बनाते रहने से कोई लाभ नहीं।


🔴 एल्फ्रेड एक बार फिर सहयोगियों से मिला। धन संग्रह किया, सेना एकत्र की और फिर दुश्मनों पर चढा़ई करके लंदन को फिर से जीत लिया। इस बार उसने सारे इंग्लैण्ड को एक सूत्र में बाँधकर नये उत्साह, सूझ-बूझ और एकाग्रता से काम किया, जिससे देश की उन्नति हुई।


🔵 एक दिन एल्फ्रेड़ फिर उस किसान स्त्री के घर गया और उसे बहुत-सा धन देकर कहा-माँ तूने उस दिन शिक्षा न दी होती तो मैं इस स्थिति पर नही पहुँचता। छोटे की भी अच्छी बात मानने के एल्फ्रेड के इस गुण की प्रशंसा की जाती है। स्त्री तो आश्चर्य में डूब गई कि मैंने उस दिन इतने महान आदमी को अनजान में यह शब्द कह दिये।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 62, 63


👉 वशीकरण विद्या


🔵 संत दादू के पास एक महिला आई। उसका पति रुष्ट रहता था। घर की अनबन से निरन्तर अशाँति बनी रहती थी। महिला ने अपनी दुःखी गाथा संत से कही और कष्ट निवारण के लिए वशीकरण कवच माँगा।


🔴 संत ने उसे समझाया कि पति के दोष दुर्गुणों का विचार न करते हुए तुम सच्चे मन से उसकी सेवा करो। प्रेम से पशु भी वश में हो जाते हैं, मनुष्य की तो बात ही क्या है?


🔵 महिला को इससे संतोष न हुआ। वह वशीकरण कवच की ही माँग करती रही। अन्त में दादू जी ने एक कागज पर दो लाइन उसे लिखकर दे दीं और कहा- यह कवच है इसे पहनना और मेरे कहे अनुसार पति की प्रेमपूर्वक सेवा करना।


🔴 एक वर्ष बाद वह महिला बहुत सी भेंट उपहार लेकर आई। उसका पति वश में हो चुका था ‘घर का नरक स्वर्ग में परिणत हो चुका था। श्रद्धापूर्वक उसने संत के चरणों में मस्तक नवाते हुए भेंट प्रस्तुत की और वशीकरण कवच की बड़ी प्रशंसा करने लगी।


🔵 दादू ने उपस्थित लोगों से कहा-आप लोग भी यह वशीकरण विद्या सीख लें। महिला से उन्होंने कवच वापिस लेकर उसे खोला और सबको दिखाया। उसमें एक दोहा लिखा था-


दोहा-दोष देख मत क्रोध कर, मन से शंका खोय।

प्रेम भरी सेवा लगन से, पति वश में होय॥


🌹 अखण्ड ज्योति जून 1964


👉 प्रधान मंत्री की सादगी


🔴 यूनान के एक राजदूत ने भारत के प्रधान मंत्री चाणक्य की विद्वता, कूटनीतिज्ञता तथा सादगी की बात सुनी तो उनसे भेंट करने चल पडा। चाणक्य की कुटिया गंगा किनारे थी। वह राजदूत तलाश करता हुआ गंगा तट पर पहुँचा, उसने देखा कि एक बलिष्ठ व्यक्ति गंगा में नहा रहा है। थोडी ही देर में वह निकला, उसने पानी का एक घडा अपने कंधे पर रखा और चल दिया।


🔵 राजदूत ने पूछा- 'क्यों भाइ! मुझे चाणक्य के निवास स्थान का पता बताओगे।' उसने घास-फूस से निर्मित कुटी की ओर हाथ का संकेत कर दिया। राजदूत को बडा आश्चर्य हुआ कि मैंने तो प्रधान मंत्री का निवास पूछा और इसने तो कुटिया की ओर इशारा कर दिया। क्या इतने बड़े देश का प्रधानमंत्री इस कुटिया में रहता है। ऐसे विचार उसके मन में आते रहे।


🔴 पहले उस राजदूत ने गंगा स्नान करना उचित समझा, फि वह उसी कुटी पर पहुँचा। कुटी के बाहर से उसने देखा कि थोडे़ से बरतन रखे हैं। एक किनारे पर जल का वही घडा जो गंगा में से अभी भरकर आया था। एक खाट और मोटे-मोटे ग्रंथों का छोटा संग्रह।


🔵 "मैं प्रधान मंत्री चाणक्य से भेंट करना चाहता हूँ।" राजूदत ने कहा- "स्वागत है अतिथि आपका, मुझे ही चाणक्य कहते हैं।''


🔴 राजदूत के नेत्र आश्वर्य से खुले ही रह गए। इस व्यक्ति से तो अभी भेंट हो ही चुकी थी। लंबी-सी चोटी साधारण-सी धोती पहने सीधा मेरुदंड किये पुस्तक के पृष्ठ पलटने वाला यह किसी देश का प्रधान मंत्री हो सकता है?  आश्चर्य! स्वावलंबन का यह अनोखा जीवन कि पानी तक स्वयं भरकर लाता है। यहां तो कोई नौकर चाकर भी दिखाई नहीं देते। फर्नीचर अलमारियाँ तथा उपयोग एवं दिखावे की अन्य वस्तुओं का एकदम अभाव।


🔵 वह कुटिया में एक आसन पर बैठकर चाणक्य से चर्चा करता रहा। जब वह अपने देश को लौटा तो उसने वहाँ के लोगों को बताया कि भारत एक महान् देश है और उसे महान बनाने का श्रेय वहाँ के महापुरुषों को है, जो त्याग और संयम का जीवन व्यतीत करते हैं। जो सादा जीवन को ही अपना गौरव मानते हैं। वहाँ के प्रधानमंत्री तक निर्धन व्यक्ति जैसा जीवन व्यतीत करते हैं। जिस देश का प्रधानमंत्री अपने देशवासियों की इतनी चिंता करता है और धन के सदुपयोग पर ध्यान रखता है, फिर उसे कौन विदेशी परास्त करने की हिम्मत कर सकता है ?


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 60, 61


👉 झूठी प्रशंसा


🔵 फ्रेडरिक महान शासक होने के साथ-साथ कुछ नाटक लिखने का भी शौक रखता था। वह अपने लिखे नाटक अपने दरबारियों को सुनाया करता था। दरबारी नाटक अच्छा न होने पर उसकी तारीफ के पुल बाँध दिया करते थे। इससे फ्रेडरिक को अपने बहुत बड़े नाटककार होने का भ्रम हो गया।


🔴 उसी के समय में “व्हाल्टायर” नाम का एक बहुत ही जाना-माना प्रसिद्ध नाटककार था। फ्रेडरिक-द-ग्रेट ने एक बार उक्त नाटककार को आमंत्रित कर बड़े गर्व से अपना नाटक सुनाया। उसे आशा थी ‘व्हाल्टायर’ भी अन्य दरबारियों की तरह राज-रचना होने के कारण प्रभावित हो प्रशंसा करेगा।


🔵 किन्तु उस नाटक-मर्मज्ञ व्हाल्टायर ने उसका नाटक सुनकर बड़ी ही स्पष्टता से असफल और रद्दी कह दिया। इस पर फ्रेडरिक को बहुत बुरा लगा और उसने व्हाल्टायर को जेल भिजवा दिया।


🔴 कुछ समय बाद फ्रेडरिक ने एक और नाटक लिखा, और उसने व्हाल्टायर को बन्दीगृह से बुलवाकर अपना नया नाटक सुनाया। उसे विश्वास था कि व्हाल्टायर का दिमाग जेल की यातनाओं से बदल गया होगा और अब वह अवश्य नाटक की तारीफ करेगा।


🔵 किन्तु व्हाल्टायर नाटक सुनते-सुनते बीच में ही उठ कर चल दिया। फ्रेडरिक ने पूछा—”कहाँ जा रहे हो?” इस पर उस नाटककार ने उत्तर दिया कि—”आपका यह नाटक सुनने से तो जेल की यातना अच्छी है।”


🔴 उसकी इस प्रकार निर्भीक स्पष्टोक्ति से फ्रेडरिक महान बहुत प्रभावित हुआ और व्हाल्टायर को जेल से मुक्त करके उसे अपना साहित्यिक गुरु मान लिया।


🌹 अखण्ड ज्योति मार्च 1965


👉 प्रथम आहुति-पूर्णाहुति


🔴 डचों का आक्रमण अप्रत्याशित था। इंडोनेशियाई सैनिक उसके लिए बिलकुल भी तैयार नहीं थे। अब दो ही विकल्प सामने थे-एक तो डचों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया जाए अन्यथा जो भी शक्ति है, उसे ही लेकर सकट का संपूर्ण साहस के साथ सामना किया जाए।


🔵 कोई भी स्वाभिमानी जाति अपने सम्मान, संस्कृति और स्वाधीनता की रक्षा के लिये जो निर्णय ले सकती है, वही निर्णय इडोनेशियाई सैनिकों ने लिया अर्थात् उन्होंने जीवन की अंतिम साँस तक लडने और डचों का सामना करने का संकल्प ठान लिया।


🔴 कमांडरों की बैठक हुई और योजना बनाई गई कि सेना को कई छोटी-छोटी टुकडि़यों में बाँटकर छापा मार युद्ध किया जाए।


🔵 सीमित शक्ति से असीमित का मुकाबला साहस और शौर्य का ही परिचायक होता है।


🔴 इधर जिन सैनिको को, जिस टोली में जाने का आदेश मिलता, वह आनन-फानन मे तैयार होकर चल पडता ऐसा शौर्य इंडोनेशियायियों में इससे पहले कभी देखने को नहीं मिला था।


🔵 जब यह सब हो रहा था, सेना का एक जवान जिसका नाम था सुवर्ण मार्तंडनाथ। मिलिटरी हेड क्वार्टर में लगाइ गई पहली टोली में जाने वालों के नामों की सूची बडे ध्यान से पढ़ रहा था। सब नाम पढ लिए और जब उसे अपना नाम नहीं मिला तो उसकी आँखे भर आई, पहली टोली में नाम न पाने का बडा दुर्भाग्य मनाया उसने। क्या किया जाए ? अभी वह यह सोच ही रहा था कि ''फील्ड सर्विस मार्चिग आडर'' (युद्ध की पूर्ण सज्जित वेष-भूषा) में उसके बडे भाई ने पीछे से उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा-क्यों सुवर्ण अपना नाम न पाकर तुम दुःख कर रहे हो, इसमे दुःख की क्या बात बलिदान सबको होना है, क्या आगे-क्या पीछे ?


🔴 मार्तंडनाथ की भरी आँखें बरस पडी, हृदय का गुबार कपोलो से बह निकला-उसने अपने भाई के पाँव पकड लिए और रुँधे गले से कहा-भैया! आप यह सौभाग्य मुझे नही दे सकते क्या ? मेरा हठ आपको स्वीकार करना ही होगा छोटा हूँ तो क्या ? उत्सर्ग का प्रथम अधिकार मुझे मिलना चाहिए।


🔵 बडे भाई ने बडे स्नेह से सुवर्ण के आँसू पोंछते हुए कहा-तात! मोमबत्ती के सभी कण पहले जलने के लिये उलझ पडे तो फिर मोमबत्ती के लिए देर तक प्रकाश दे सकना कहाँ संभव रह जाए ? वह उलझकर बुझ न जायेगी। जिद न करो आज नहीं तो कल तुम्हारी बारी आनी ही है।


🔴 उत्सर्ग का सुख जानने वाले सुवर्ण मार्तंडनाथ के लिए और सारे शब्द शूल से लग रहे थे वह तो पहली टोली से स्वयं जाने की आशा मात्र का अभिलाषी था। आखिर कमांडरों को उसकी जिद के आगे झुकना पड़ा। उसका नाम पहली टोली में चढा दिया गया।


🔵 बडे भाई का नाम अंतिम टुकडी में आया। कई दिन के घनघोर युद्ध के बाद विजय इंडोनेशिया की रही। स्वाधीनता के लिए शहीद होने वालो की सूची निकाली गई। युवक सुवर्ण मार्तंडनाथ ने उसे लेकर जैसे ही दृष्टि डाली कि उसमें पहला ही नाम उसके बड़े भाई का मिला। "पूर्णाहुति का सौभाग्य आखिर आपको ही मिला" इतना कहते-कहते एकबार सुवर्ण मार्तंडनाथ की आँखें भर आई, उससे पूरी लिस्ट पढी नही गई।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 58, 59


👉 काशीफल का दान


🔴 कटक (उडीसा) के समीप एक गाँव में एक सभा का आयोजन किया गया उसमें हजारों संभ्रांत नागरिक और आदिवासी एकत्रित थे। गाँधी जी को हिंदी में भाषण का अभ्यास था, किंतु इस आशंका से कि कही ऐसा न हो यह लोग हिंदी न समझ पायें उडिया अनुवाद का प्रबंध कर लिया गया था।


🔵 भाषण कुछ देर ही चला था कि भीड़ ने आग्रह किया गाँधी जी आप हिंदी में ही भाषण करे। सीधी-सच्ची बातें जो हृदय तक पहुँचती हैं, उनके लिए बनावट और शब्द विन्यास की क्या आवश्यकता आपकी सरल भाषा में जो माधुर्य छलकता है उसी से काम चल जाता है, दोहरा समय लगाने की आवश्यकता नहीं।


🔴 गाँधीजी की सत्योन्मुख आत्मा प्रफुल्ल हो उठी। उन्होंने अनुभव किया कि सत्य और निश्छल अंत:करण का मार्गदर्शन भाषा-प्रान्त के भेदभाव से कितने परे होते है ? आत्मा बुद्धि से नहीं हृदय से पहचानी जाती है। समाज सेवक जितना सहृदय और सच्चा होता है लोग उसे उतना ही चाहते हैं, फिर चाहे उसकी योग्यता नगण्य-सी क्यों न हो। आत्मिक तेजस्विता ही लोक-सेवा की सच्ची योग्यता है- यह मानकर वे भाषण हिंदी में करने लगे।


🔵 लोगों को भ्रम था कि गाँधी जी की वाणी उतना प्रभावित नही कर सकेगी पर उनकी भाव विह्वलता के साथ सब भाव-विह्वल होते गए। सामाजिक विषमता, राष्ट्रोद्धार और दलित वर्ग के उत्थान के लिए उनका एक-एक आग्रह श्रोताओं के हृदय में बैठता चला गया।


🔴 भाषण समाप्त हुआ तो गाँधी जी ने कहा- ''आप लोगों से हरिजन फंड के लिये कुछ धन मिलना चाहिए। हमारी सीधी सादी सामाजिक आवश्यकताएँ आप सबके पुण्य सहयोग से पूरी होनी है।'' गांधी जी के ऐसा कहते ही रुपये-पैसों की बौछार होने लगी, जिसके पास जो कुछ था देता चला गया।


🔵 एक आदिवासी लड़का भी उस सभा में उपस्थित था। अबोध बालक, पर आवश्यकता को समझने वाला बालक। जेब में हाथ डाला तो हाथ सीधा पार गया। एक भी पैसा तो उसके पास न था जो बापू की झोली में डाल देता किंतु भावनाओ का आवेग भी तो उसके सँभाले नहीं सँभल सका। जब सभी लोग लोक-मंगल के लिए अपने श्रद्धा-सुमन भेंट किए जा रहे हों, वह बालक भी चुप कैसे रह सकता था ?


🔴 भीड को पार कर घर की ओर भागता हुआ गया और एक कपडे मे छुपाए कोई वस्तु लेकर फिर दौडकर लौट आया। गाँधी जी के समीप पहुँचकर उसने वह वस्तु गांधी जी के हाथ मे सौंप दी। गाँधी ने कपडा हटाकर देखा-बडा-सा गोल-मटोल काशीफल था।


🔵 गाँधी जी ने उसे स्वीकार कर लिया। उस बच्चे की पीठ पर हाथ फेरते हुए पूछा-कहाँ से लाए यह काशीफल ?


🔴 ''मेरे छप्पर मे लगा था बापू।" लडके ने सरल भाव से कहा-हमने अपने दरवाजे पर इसकी बेल लगाई है, उसका ही फल है और तो मेरे पास कुछ नहीं है, ऐसा कहते हुए उसने दोनो जेबें खाली करके दिखा दी।


🔵 आँखें छलक आई भावनाओं के साधक की। उसने पूछा बेटे- आज फिर सब्जी किसकी खाओगे ?


🔴 ''आज नमक से खा लेंगे बापू! लोक-मंगल की आकांक्षा खाली हाथ न लौट जाए, इसलिये इसे स्वीकार कर लो।'' बच्चे ने साग्रह विनय की।


🔵 गांधी जी ने काशीफल भंडार में रखते हुए कहा-मेरे बच्चो! जब तक तुम्हारे भीतर त्याग और लोक-सेवा का भाव अक्षुण्ण है, तब तक अपने धर्म और अपनी संस्कृति को कोई दबाकर नहीं रख सकेगा।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 56, 57


👉 प्रकृति की चोरी


🔵 काँग्रेस कार्यकारिणी की मीटिंग में सम्मिलित होने, एक बार गाँधीजी इलाहाबाद आये और पं0 मोती लाल नेहरू के यहाँ आनन्द भवन में ठहरे। सवेरे नित्य कर्म से निवृत्त होकर गाँधीजी हाथ मुँह धो रहे थे और जवाहरलाल नेहरू पास खड़े कुछ बातें कर रहे थे। कुल्ला करने के लिए गाँधीजी जितना पानी लिया करते थे वह समाप्त हो गया तो उन्हें दूसरी बार फिर पानी लेना पड़ा।


🔴 इस पर गाँधीजी बड़े खिन्न हुए और बात चीत का सिलसिला टूट गया। जवाहरलालजी ने इसका कारण पूछा तो उन्होंने कहा— ध्यान न रहने से मैंने पहला पानी अनावश्यक रूप से खर्च कर दिया और अब मुझे दुबारा फिर लेना पड़ रहा है। यह मेरा प्रमाद है।


🔵 पं0 नेहरू हंसे और कहा— यहाँ तो गंगा-जमुना दोनों बहती हैं। रेगिस्तान की तरह पानी कम थोड़े ही है आप थोड़ा अधिक पानी खर्च कर लें तो क्या चिन्ता की बात है।


🔴 गाँधी जी ने कहा— गंगा-जमुना मेरे लिए ही तो नहीं बहतीं। प्रकृति में कोई चीज कितनी ही उपलब्ध हो, मनुष्य को उसमें से उतना ही खर्च करना चाहिए जितना उसके लिए अनिवार्यतः आवश्यक हो। ऐसा न करने से दूसरों के लिए कमी पड़ेगी और वह प्रकृति की एक चोरी मानी जायगी।


🌹 अखण्ड ज्योति अगस्त 1964


👉 सच्ची लगन सफलता का मूल


🔵 दक्षिण भारत के एक छोटे-से गाँव की एक कुटिया में बैठा हुआ वह व्यक्ति निरंतर लेखन-कार्य में निमग्न था, उसे न खाने की सुध थी न पानी की। आस-पास, पास-पडो़स मे क्या हो रहा है ? उसे यह भी पता नहीं, कुटिया में कौन आता-जाता है ? भोजन कौन दे जाता ? जूठे पात्रों को कौन उठा ले जाता? बिस्तर कौन संभाल जाता है ? इसका कुछ भी ध्यान नहीं। लेखन के आवश्यक उपकरण कगज, दवात, स्याही आदि कहाँ से आते है? कब आते है ?  कौन लाता है ? इसका कुछ भी भान नहीं है नित्यक्रिया शौच, लघुशंका आदि के उपरात स्नान, ध्यान, भोजन आदि स्वभाववश हो जाते थे। पुनः अपनी लेखनी उठाई और अपनी साधना में निमग्न। प० वाचस्पति जी मिश्र अपने सुप्रसिद्ध वेदांत ग्रंथ "भामती" के प्रणयन मे इस प्रकार निरत थे।


🔴 तन्मयता और सच्ची लगन वह गुण है जो व्यक्ति को उसके निर्दिष्ट लक्ष्य तक पहुँचाते हैं। सफलता के अन्य सूत्र भी हैं उनकी भी आवश्यकता पडती है, परंतु जैसे दीपक जलने के लिये तेल सबसे आवश्यक उपकरण है, वैसे ही सफलता के लिए सच्ची और प्रगाढ़ लगन। मनुष्य में यदि इसका अभाव रहा तो सारे उपकरण रहते हुए भी कुछ नहीं कर सकेंगे। देखने में लगेगा कुछ हो रहा है। ऐसी मनःस्थिति में किये गये लँगडे़ लूले काम भला कहीं सफल होते हैं ?


🔵 पं० वाचस्पति जी मिश्र में ऐसी ही तन्मयता और निष्ठा थी। एक रात को बैठे वे लिख रहे थे अपने ग्रन्थ को। दीपक का तेल समाप्त सा हो रहा था। लौ भी फीकी पड़ रही थी। इतने में दो हाथ उधर से उठे। आशय यह था कि दीपक तेज किया जाय। इसी प्रयत्न में दीपक बुझ गया। उन हाथों ने फिर बत्ती जलाई। संयोग था कि उस समय पंडित जी का ग्रन्थ पूरा हो चला था। अन्यथा अनेक वर्षों तक वे ऐसी बाधाओं को जान भी न सके थे। लिखना और लेखनी बंद करके सोचना बस चिंतन की यह तन्मयता ही उनका जीवन था। दीपक भी कुछ होता है, यह लिखते समय उनके ध्यान में कभी नहीं आया।


🔴 ग्रंथ पूरा हो गया था। सरस्वती के पुत्र का ध्यान भंग हुआ दीपक जलाकर जाती हुई पत्नी को उन्होंने देखा और पूछा-देवि तुम कौन हो ? यहाँ किसलिए आईं थीं ? आप


🔵 मैं आपकी चरण सेविका हूँ। पिछले चालीस-पचास वर्षों से आपकी ही सेवा कर रही हूँ, उस नारी ने विनम्रतापूवंऊ उत्तर दिया- ''आज दीपक बुझ जाने से कार्य में विघ्न पड़ा इसके लिए क्षमा करें। भविष्य में ऐसा कष्ट न आने दूँगी।


🔴 मेरी सेविका ? पंडित जी इसका रहस्य न समझ सके पवित्रता की प्रतिमूर्ति अपने पतिदेव के आश्चर्य का आशय समझ गई वह आगे स्पष्टीकरण करते हुए पुनः बोल उठी "पिता अपनी पुत्री का हाथ जिस पुरुष के हाथ में दे देता है, वह उसकी सेविका ही होती है। आप तो विवाह मंडप में भी हाथों मे कुछ पन्ने लिये हुए

उनके ही चिंतन में लीन थे। इस कुटिया में भी जब से आई आपको अपने लेखन से अवकाश कहाँ ?


🔵 "तो फिर तुम मुझसे क्या चाहती हो ?"


🔴 कभी चाहती थी कि संसार में नाम रखने का कुछ आधार होता किंतु अब तो शरीर भी जर्जर हो चुका, अतः आपकी सेवा सुश्रूभा में ही मुझे परम सुख है।


🔵 तुम्हारा नाम ? पंडित जी ने पूछा- भामती, नन्हा-सा उत्तर था। पंडितजी ने अपनी लेखनी उठाई और उस ग्रंथ के ऊपर लिख दिया- "भामती" बोले, लो संसार में जब तक भारतीय संस्कृति और उसकी गरिमा जीवित रहेगी तुम्हारा नाम अमर रहेगा। सचमुच पंडित वाचस्पति की सच्ची निष्ठा "भामती"  आज भी कायम है।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 54, 55


👉 इन्द्रासन प्राप्त हुआ


🔵 नहुष को पुण्य फल के बदले में इन्द्रासन प्राप्त हुआ। वे स्वर्ग में राज्य करने लगे। ऐश्वर्य और सत्ता का मद जिन्हें न आवें, ऐसे कोई विरले ही होते हैं। नहुष भी सत्ता मद से प्रभावित हुये बिना अछूते न रह सके। उनकी दृष्टि रूपवती इन्द्राणी पर पड़ी। वे उसे अपने अन्तःपुर में लाने की विचारणा करने लगे। प्रस्ताव उनने इन्द्राणी के पास भेज ही दिया।


🔴 इन्द्राणी बहुत दुखी हुई। राजाज्ञा के विरुद्ध खड़े होने का साहस उसने अपने में न पाया तो एक दूसरी चतुरता बरती। नहुष के पास उसने सन्देश भिजवाया कि वह ऋषियों को पालकी में जोते और उस पर चढ़कर मेरे पास आवे तो प्रस्ताव स्वीकार कर लूँगी।


🔵 आतुर नहुष ने अविलम्ब वैसी व्यवस्था की। ऋषि पकड़ बुलाये, उन्हें पालकी में जोता गया, उस पर चढ़ा हुआ राजा जल्दी-जल्दी चलने की प्रेरणा करने लगा।


🔴 दुर्बलकाय ऋषि दूर तक इतना भार लेकर तेज चलने में समर्थ न हो सके। अपमान और उत्पीड़न से वे क्षुब्ध हो उठे। एक ने कुपित होकर शाप दे ही डाला- “दुष्ट! तू स्वर्ग से पतित होकर पुनः धरती पर जा गिर।” शाप सार्थक हुआ, नहुष स्वर्ग से पतित होकर मृत्यु लोक में दीन-हीन की नाईं विचरण करने लगे।


🔵 इन्द्र पुनः स्वर्ग के इन्द्रासन पर बैठे। उन्होंने नहुष के पतन की सारी कथा ध्यानपूर्वक सुनी और इन्द्राणी से पूछा-भद्रे! तुमने ऋषियों को पालकी में जोतने का प्रस्ताव किस आशय से किया था?


🔴 शची मुस्कराने लगीं। वे बोलीं-नाथ, आप जानते नहीं, सत्पुरुषों का तिरस्कार करने, उन्हें सताने से बढ़कर सर्वनाश का कोई दूसरा कार्य नहीं। नहुष को अपनी दुष्टता समेत शीघ्र ही नष्ट करने वाला सबसे बड़ा उपाय मुझे यही सूझा। वह सफल भी तो हुआ।


🔵 देव सभा में सभी ने शची से सहमति प्रकट कर दी। सज्जनों को सताकर कोई भी नष्ट हो सकता है। बेचारा नहुष भी उसका अपवाद कैसे रहता।

 

🌹 अखण्ड ज्योति फरवरी 1965


👉 अभेद आदर-निर्विकार न्याय


🔵 इस युग में भी जब कि बुद्धि-विकास तेजी से हो रहा है, लोगों में ऊँच-नीच, छूत-अछूत, छोटे-बड़े का भाव देखकर हर विचारशील व्यक्ति को कष्ट होता है। उस परिस्थिति में तो और भी जब कि सामाजिक न्याय के लिए भी पक्षपात होता है। साधारण कर्मचारी से लेकर बडे-बडे पदाधिकारी और न्यायाधीशों में भी इस तरह की प्रवंचना देखने मे आती है तो उन महापुरुषों की यादें उभर आती हैं, जिन्होंने कर्तव्यपरायणता से अपने पद को सम्मानित किया, आज की तरह उस पर कलंक का टीका नहीं लगाया।


🔴 बंबई हाईकोर्ट के जज गोंविद रानाडे को कौन नहीं जानता ? पर इसके लिए नहीं कि वे अंग्रेजी युग के सम्माननीय जज थे वरन इसलिये कि उन्होंने पद की अपेक्षा कर्तव्य पालन को उच्च माना और उसकी पूर्ति में कभी हिचक न होने दी।


🔵 एक बार की बात हैं- रानाडे साहब अपने कमरे में पुस्तक पढ़ रहे थे, तो उस समय कोई अत्यत दीन और वेषभूषा से दरिद्र व्यक्ति उनसे मिलने गया अफसरों के लिये इतना ही काफी होता है अपने पास से किसी को भगा देने के लिए। कोई अपना मित्र संबंधी, प्रियजन हो तो सरकारी काम की भी अवहेलना कर सकते है पर न्याय के लिए हर-आम की बात गौर से सुन लेना, अब शान के खिलाफ माना जाता है।


🔴 रानाडे इस दृष्टि से निर्विकार थे। उन्होंने अपने चपरासी से कहा-उस व्यक्ति को आदरपूर्वक भीतर ले आओ। कोइ छोटी जाति का आदमी था। नमस्कार कर एक ओर खडा हो गया। कहने लगा हुजूर मेरी एक प्रार्थना है।


🔵 "सो तो मैं सुनूँगा।" जज साहब ने सौम्य शब्दों में कहा- "पहले आप कुर्सी पर बैठिए।"


🔴 "हुजूर मैं छोटी जाति का आदमी हूँ आपके सामने कैसे बैठ जाऊ, यो ही खडे-खडे अर्ज कर देता हूं।"


🔵 रानाडे जानते थे, इनके साथ हर जगह उपेक्षापूर्ण बर्ताव होता है, इसीलिए वह यहाँ भी डर रहा है। उनके लिए यह बडा दुःख था कि मनुष्य-मनुष्य में भेद जताकर उसका अनादर करता है। परिस्थितियों में किसी को हीन स्थिति मिली तो इसका यह अर्थ नही होता है कि उन्हें दुतकारा जाए और सामाजिक न्याय से वंचित रखा जाए। भेद किया जाए तो हर व्यक्ति दूसरे से छोटा है। जब चाहे, जो चाहे जिसका अनादर कर सकता है। ऐसा होने लगे तो संसार में प्रेमा-आत्मीयता और आदर का लेशमात्र स्थान न बचे।


🔴 जज साहब ने उसे पहले आग्रहपूर्वक कुर्सी पर बैठाया और फिर अपनी बात कहने के लिए साहस बंधाया था।


🔵 बंबई नगरपालिका के विरुद्ध अभियोग था। साधारण व्यक्ति होने के कारण सुनवाई न हुई थी, वरन् उसे जहाँ गया डॉट- फटकार ही मिली थी। आजकल वैसा नही होता तो बहानेबाजी, रिश्वतखोरी की बाते चलती हैं दोनों एक-सी है। फिर जितना उपर बढो़ सुनवाई की संभावना भी उतनी ही मंद पड़ती जाती है।


🔴 जज साहब ने बात ध्यान से सुनी और कहा- "मैं सब कुछ आज ही ठीक कर दूँगा।" आश्वासन पाकर उस दीन जन की आँखें भर आईं। जज साहब ने उसी दिन उस बेचारे का वर्षों का रुका काम निबटाया। यह भी हिदायत दी कि किसी को निम्न वर्ग वाला, अशिक्षित या अछूत मानकर उपेक्षित और न्याय से वंचित न रखा जाए।


🔵 जज साहब की यह आदर्शवादिता यदि आज के पदाधिकारियों में होती तो भारतीय लोकतंत्र उजागर हो जाता।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 52, 53



👉 सफाई तो स्वाभाविक धर्म


🔴 सफाई को वे गाँधी जी की तरह अत्यावश्यक धर्म मानते थे और उनकी भी यह धारणा व्यावहारिक थी कि सफाई, जैसी आवश्यक वस्तु के लिये न तो दूसरों पर निर्भर रहना चाहिए और न ही उसे छोटा और घृणित कार्य मानना चाहिए। सफाई ऐसी व्यवस्था है, जिससे स्वास्थ्य और मानसिक प्रसन्नता चरितार्थ होती है, उससे दैनिक जीवन पर बडा़ सुंदर प्रभाव पड़ता है। इसलिए छोटा हो या बडा़ सफाई का कार्य सबके लिए एक जैसा है।


🔵 आफिसों के लोग, साधारण पदवी वाले कर्मचारी और घरों में भी जो लोग थोडा बहुत पढ-लिख जाते हैं, वे अपने आपको साफ-सुथरा रख सकते हैं। पर अपने आवास और पास-पडोस को साफ रखने से शान घटने की ओछी धारणा लोगों में पाई जाती है, किंतु उनको यह बात बिल्कुल भी छू तक न गई थी।


🔴 बात पहुत पहले की नहीं, तब की है जब वे प्रधानमंत्री थे, पार्लियामैंट से दोपहर का भोजन करने वे  अपने आवास जाया करते थे एक दिन की बात है घर के बच्चों ने तमाम् कागज के टुकडे फाड फाड कर चारों तरफ फैला दिये थे। खेल-खेल में और भी तमाम गंदगी इकट्ठी हो गई थी घर के लोग दूसरे कामों मे व्यस्त रहे, किसी का ध्यान इस तरफ नहीं गया कि घर साफ नहीं है और उनका भोजन करने का वक्त हो गया है।


🔵 प्रधान मंत्री नियमानुसार दोपहर के भोजन के लिए घर पहुँचे घर में पाँव रखते ही उनकी निगाह सर्वप्रथम घर की अस्त-व्यस्तता और गंदगी पर गई। दूसरा कोई होता तो नौकर को बुलाता घर बालों को डॉटता। पर उनका कहना था ऐसा करना मनुष्य का छोटापन व्यक्त करता है। सामने आया हुआ छोटा काम भी यदि भावनापूर्वक किया जाता है, तो उस छोटे काम का भी मूल्य बड़ जाता है, और सच पूछो तो छोटे छोटे कामों को भी लगन और भवनापूर्वक करने की इन्हीं सुंदर आदतों और सिद्धंतों ने उन्हें एक साधारण किसान के बेटे से विशाल गणराज्य का प्रधानमंत्री प्रतिष्ठित किया था।


🔴 उन्होंने न किसी को बुलाया, न डॉट-फटकार लगाई चुपचाप झाडू उठाया और कमरे में सफाई शुरु कर दी, तब दूसरे लोगों का भी ध्यान उधर गया पहरे के सिपाही, घर के नौकर उनकी धर्मपत्नि सब जहाँ थे, वही निर्वाक खडे देखते रहे और वे चुपचाप झाडू लगाते रहे। किसी को बीच में टोकने का साहस न पड़ा, क्योकि उनकी कडी़ चेतावनी थी काम करने के बीच में कोई भी छेडना अच्छा नहीं होता।


🔵 सफाई हो गई तो ये लोग मुस्कराते हुए रसोइ पहुँचे। ऐसा जान पडता था कि इनके मन मे झाडू लगाने से कोइ कष्ट नहीं पहुँचा वरन मानसिक प्रसन्नता बढ़ गई है।


🔴 धर्मपत्नी ने विनीत भाव से हाथ धोने के पानी देते हुए कहा- हम लोगों की लापरवाही से आपको इतना कष्ट उठाना पडा़ तो वे हँसकर बोले- हाँ लापरवाही तो हुई पर मुझे सफाई से कोई कष्ट नहीं हुआ। यह तो हर मनुष्य का स्वाभाविक धर्म है कि यह अपनी और अपने पडो़सी की बेझिझक सफाई रखा करे।


🔵 सब कुछ जहाँ का तहाँ व्यवस्थित हुआ, वे भोजन समाप्त कर फिर अपने नियत समय पर पार्लियामेंट लौट आए। अब जानना चाहेंगे अपने ऐसे आदर्शों के बल पर साधारण व्यक्ति से प्रधानमंत्री बनने वाले कौन थे ? वह और कोई नहीं लाल बहादुर शास्त्री थे। उन्होंने साबित कर दिया कि मनुष्य जन्मजात न तो बडा होता है, न प्रतिष्ठा का पात्र। उसको बडा़ उसका काम, उसकी सच्चाई और ईमानदारी बनाती है। उनका सपूर्ण जीवन ही ऐसे उद्धरणों से परिपूर्ण है।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 50, 51

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