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ज्ञानवर्धक कथाएं - भाग -6

 👉 छोटे सद्गुणों ने आगे बढ़ाया


🔵 बालक अब्राहम लिंकन में महापुरुषों के जीवन चरित्र पढ़ने का बड़ा शौक था। घर की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय थी इसलिए वे खरीद तो न सकते पर इधर-उधर से माँग कर अपना शौक पूरा करते।


🔴 एक सुशिक्षित सज्जन से वे एक पुस्तक माँग कर पढ़ने लाये। उनने बालक की उत्कंठा देख कर पुस्तक दे तो दी पर कड़े शब्दों में हिदायत कर दी कि पुस्तक खराब न होने पावे और जल्दी से जल्दी लौटा दी जाय।


🔵 घर में दीपक न था। ठंड दूर करने के लिए अंगीठी में आग जला कर सारा घर उसी पर आग तापता था। लिंकन उसी के प्रकाश में पुस्तक पढ़ते थे। सारा घर सो गया, पर वे न सोये और पुस्तक में खोये रहे। अधिक रात गए जब नींद आने लगी तो जंगले में पुस्तक रख कर सो गया। संयोगवश रात को वर्षा हुई। बौछारें जंगले में हो कर आईं और पुस्तक भीग गई।


🔴 बालक सवेरे उठा तो उसे बड़ा दुख हुआ। बिना मैली कुचैली किये ठीक समय पर पुस्तक लौटा देने का वचन वह पूरा न कर सकेगा, इस पर उसे बड़ा दुःख हुआ। आँखों में आँसू भरे वह पुस्तक उधार देने वाले सज्जन के पास पहुँचा और ‘रुद्ध’ कण्ठ से भारी परिस्थिति कह सुनाई।


🔵 वे मैली पुस्तक वापिस लेने को तैयार न हुए। कीमत चुकाने को पैसे न थे। अंत में उनने यह उपाय बताया कि तीन दिन तक वह उस सज्जन के खेत में धान काटे और उस मजदूरी से पुस्तक की मूल्य भरपाई करे। बालक ने खुशी-खुशी यह स्वीकार कर लिया। तीन दिन धान काटे और वचन पूरा न करने के संकोच से छुटकारा पा लिया।


🔴 बालक लिंकन के ऐसे-ऐसे छोटे सद्गुणों ने उसे आगे बढ़ाया और बड़ा हो कर वह अमेरिका का लोक-प्रिय राष्ट्रपति चुना गया।

 

🌹 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1964


👉 विनयात् याति पात्रवाम्


🔴 विनयशीलता, नम्रता, सौम्यता व्यक्तित्व को उच्च स्थिति प्रदान करते है। लोगों के अंतःकरण जीतने का सबसे सरल मंत्र है कि हमारा जीवन, हमारा व्यवहार अत्यंत विनम्र हो।


🔵 यह धारणा डॉ० राजेंद्र प्रसाद की थी। जो अपनी विनम्रता के बल पर ही कम शिक्षा, अत्यंत सादगी, वहुत सरल विचारों के होते हुए भी, इस देश के सर्वप्रथम राष्ट्रपति निर्वाचित हुए और जब तक रहे उसी आदर भावना से उच्च पद पर प्रतिष्ठित रखे गए।


🔴 सामान्य लोगों में बडे़ और जिनसे स्वार्थ सधता हो उन्हीं तक विनम्र होने का संकीर्ण स्वभाव रहता है। आफिस में अफसर के सामने बहुत उदार हो जाते हैं, पर घर में पत्नी, बच्चे, नौकर के सामने ऐसे अकड़ भरते है जैसे वह कोई सेनापति हो, और वैसा करना आवश्यक हो, जिसने विनम्रता-सौम्यता त्यागी, उसने अपना जीवन जटिल बनाया प्रेम, स्नेह, आत्मीयता और सद्भाव का आनंद गँवाया। यदि इस जीवन को सफल, सार्थक और आनंदयुक्त रखना है तो स्वभाव उदार होना चाहिए। यह मनुष्यता की दृष्टि से भी आवश्यक है कि दूसरों से व्यवहार करते समय शब्दों और भाव-भंगिमाओं से कटुता प्रदर्शित न की जाए।


🔵 राजेंद्र बाबू के राष्ट्रपति जीवन की एक घटना है। उनकी हजामत के लिये जो नाई आया करता था, उसके हाथ-मुँह साफ नही रहते थे। गंदगी किसी को भी अच्छी नहीं लगती, तो फिर वह क्यों पसंद करते 'उन्होंने नाई से कहा आप हाथ-मुँह साफ करके आया करे। यह कहते हुए उन्होंने शब्दो में पूर्ण सतर्कता रखी। जोर न देकर शिष्ट भाव अधिक था, तो भी उन सज्जन पर इन शब्दों का कोई प्रभाव न पडा। वे अपने पूर्व क्रमानुसार ही आते रहे।


🔴 राजेंद्र बाबू राष्ट्रपति थे। अपने अधिकारियों से वे कठोर शब्दों में कहला सकते थे। यह भी संभव था कि नाई बदलवाकर किसी स्वच्छ साफ-सुथरे नाई की व्यवस्था कर लेते, पर मानवीयता की दृष्टि से उन्होंने इनमें से किसी की आवश्यकता नहीं समझी। एक व्यक्ति को सुधार लेना अच्छा, उसे बलात् मानसिक कष्ट देना या बहिष्कार करना अच्छा नहीं होता। मृदुता और नम्र व्यवहार से पराए अपने हो जाते हैं तो फिर अपनों को अपना क्यों नही बनाया जा सकता।


🔵 पर अब उन्हें इस बात का संकोच था कि दुबारा कहने से उस व्यक्ति को कहीं मानसिक कष्ट न हो। कई दिन उनका मस्तिष्क इन्हीं विचारों में घूमता रहा। यह भी उनका बडप्पन ही था कि साधारण-सी बात को भी उन्होंने विनम्रतापूर्वक सुलझाने में ही ठीक समझा।


🔴 दूसरे दिन नाई के आने पर बडी़ विनम्रता से बोले- आपको बहुत परिश्रम करना पड़ता होगा, उससे शायद वहाँ समय न मिलता होगा, इसलिए यहाँ आकर हाथ-मुँह धो लिया करे।


🔵 नाई को अपनी गलती पर बडा दुःख हुआ, साथ ही वह राजेंद्र बाबू की सहृदयता से बहुत प्रभावित हुआ। उसने अनुभव किया कि छोटी-छोटी बातों की उपेक्षा करने से ही डॉट-फटकार सुननी पडती है, पर विनम्रता से तो उसे भी ठीक किया जा सकता है। उसने उस दिन से हाथ-मुँह धोकर आने का नियम बना लिया। फिर कोई शिकायत नहीं हुई और न कोई कटुता ही पैदा हुई।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 48, 49


👉 दुर्जनों से मान जाऊँ हार, यह संभव नही है


🔴 वाराणसी हिंदू विश्वविद्यालय के निर्माण का जो स्वरूप महामना मालवीय ने स्थिर किया था, उनके लिये बहुत धन की आवश्यकता थी। भीख माँगना अच्छा नहीं पर यदि नेक कार्य के लिये भीख भी माँगनी पडे तो मैं यह भी करुँगा, यह कहकर मालवीय जी ने विश्वविद्यालय के लिए दान माँगने का अभियान चलाया।


🔵 सत्संकल्प कभी अधूरे नही रहते। यदि ईमानदारी और निष्काम भावना से केवल लोक-कल्याणार्थ कोई काम संपन्न करना हो तो भावनाशील योगदानियों की कमी नहीं रहती। क्या धनी, क्या निर्धन विश्वविद्यालय के लिये दान देने की होड लग गई। सबने सोचा यह विद्यालय राष्ट्र की धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत की रक्षा के लिए खुल रहा है। इसमे पढ़ने वाले छात्र चिरकाल तक प्रकाश पायेगे।


🔴 भारतीय संस्कृति के आदर्शों की रक्षा होगी इसलिये जो कुछ भी बन पडे देना चाहिये। उस समय दान के एक नये पैसे का भी वही मूल्य और महत्व हो गया, जो हजार दस हजार का होता है।


🔵 इकट्ठी और बडी रकम न मिले न सही, बहुत बडी शक्ति प्रतिभा योग्यता का एक व्यक्ति न मिले-न सही, कम योग्यता के कम साधनों के काफी व्यक्ति इकट्ठे हो जाएँ तो भी वह प्रयोजन आसानी से पूरे हो जाते है। इसलिये ५ रुपये का सहयोग भी उतना ही महत्त्व रखता है, जितना कि हजार का दान। दान में केवल व्यक्ति की भावना और लेने वाले का उद्देश्य पवित्र बना रहना चाहिए।


🔴 बिहार प्रांत का दौरा करते हुए मालवीय जी मुजफ्फरपुर पहुँचे। वहाँ एक भिखारिन ने दिन भर भीख मांगने के बाद जो पाँच पैसे मिले थे, सब मालवीय जी की झोली मे डाल दिए। पास ही एक और निर्धन व्यक्ति था उसने अपनी फटी कमीज दे दी उस कमीज को १०० रु. में नीलाम किया गया। किसी ने १०० कुर्सियों की जिम्मेदारी ली किसी ने एक कमरा बनवाने का संकल्प लिया, किसी ने पंखो के लिये रुपये दिए, किसी ने और कोई दान।


🔵 एक बंगाली सज्जन ने पाँच हजार रुपया नकद दान दिया। तो उनकी धर्मपत्नि ने बहुमूल्य कंगन दान दे दिया। पति ने दुगना दाम देकर खरीद लिया। पर भावना ही तो थी पत्नी ने उसे फिर दान दे दिया। यह क्रम इतनी देर चला कि रात हो गई। बिजली का प्रबंध था नहीं इसलिए लैंप की रोशनी में ही आई हुई धनराशि की गिनती की जाने लगी।


🔴 धन सग्रह एवं नीलामी का कार्य एक ओर चल रहा था, टिमटिमाते प्रकाश में दूसरी ओर कोठरी में रुपये गिने जा रहे थे, तभी कोइ बदमाश व्यक्ति उधर पहुँचा और बत्ती बुझाकर रूपयों से भरी तीनो थैलियां छीनकर ले भागा। कुछ लोगो ने पीछा ना किया पर अँधेरे मे वह कहाँ गायब हो गया, पता न चल पाया।


🔵 सब लोग इस घटना को लेकर दुःखी बैठे थे। एक सज्जन ने मालवीय जी से कहा- पंडित जी, इस पवित्र कार्य में भी जब लोग धूर्तता करने से बाज नहीं आते तो आप ही क्यों व्यर्थ परेशानियों का बोझ सर पर लेते है। जो कुछ मिला है किसी विद्यालय को देकर शांत हो जाइए। कोई बडा काम किया जाए, यह देश इस योग्य नहीं।


🔴 मालवीय जी गंभीर मुद्रा में बैठे थे, थोडा़ मुस्कराये और कहने लगे- भाई बदमाश एक ही तो था। मैं तो देखता हूँ कि भले आदमियों की संख्या सैकडो़ में तो यहीं खडी है। सौ भलों के बीच एक बुरे से घबराना क्या ? दुर्जनों से मान जाऊँ हार, यह मेरे लिये संभव नही। इस तरह यदि सतवृत्तियाँ रुक जाया करे, तो संसार नरक बन जायेगा। हम वह स्थिति नहीं लाने देना चाहते इसलिए अपने प्रयत्न बराबर जारी रखेगे।


🔵 मालवीय जी की तरह दुष्वृतियों से न डरने वाले लोग ही हिंदू विश्वविद्यालय जैसे बडे काम संपन्न कर पाते है।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 42, 43


👉 संत का गौरव


🔴 कुछ दिनों विनोबा भावे प्रतिदिन अपने पवनार आश्रम से लगभग तीन मील दूर स्थित सुरगाँव जाते थे, एक फावड़ा कंधे पर रखकर।  

 

🔵 एक बार कमलनयन बजाज ने उनसे पूछा कि आप फावड़ा रोज इतनी दूर अपने साथ क्यों ले जाते है। उस गाँव में ही किसी के यहाँ आप फावड़ा क्यों नहीं छोड़ आते ? 

 

🔴 विनोबा जी बोले-''जिस काम के लिए मैं जाता हूँ, उसका औजार भी मेरे साथ ही होना चाहिए। फौज का सिपाही अपनी बंदूक या अन्य हथियार लेकर चलता है, उसी प्रकार एक 'सफैया' को भी अपने औजार सदा अपने साथ लेकर ही चलना चाहिए। सिपाही को अपने हथियार से मोह हो जाता है उसी तरह हमें भी अपने औजारों को अपने साथ ले जाने में आनंद और गौरव अनुभव होना चाहिए।


🌹 प्रज्ञा पुराण भाग 2 पृष्ठ 17


👉 सत्य मेरा जीवन-मंत्र


🔴 दादा मावलंकर जिस अदालत के वकील थे उसका मजिस्ट्रेट उनका कोई घनिष्ठ मित्र था। यों वकालत के क्षेत्र में उन्हें पर्याप्त यश और सम्मान भी बहुत मिला था। संपत्ति भी उनके पास थी, पर यह सब कुछ उनके लिये तब तक था, जब तक उनके सांच को आँच न आने पाती थी। वे कोई झूठा मुकदमा नहीं लेते थे और सच्चाई के पक्ष में कोई भी प्रयत्न छोड़ते नहीं थे।


🔵 यह उदाहरण उन सबके लिए आदर्श है जो यह कहते हैं कि आज का युग ही ऐसा है झूठ न बोलो, मिलावट न करो तो काम नहीं चलता। सही बात तो यह है कि झूठे, चापसूस और अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले के जीवन सदैव टकराते रहते है।


🔴 विषाद, क्षोभ, ग्लानि, अपमान, अशांति और पश्चाताप की परिस्थितियाँ बनावटी लोगों के पास ही आती हैं। सच्चे व्यक्तियों के जीवन में बहुत थोडी अशांति, अव्यवस्था और तंगी रहती है। अधिकांश तो शान और स्वाभिमान का ही जीवन जीते है।


🔵 वैसे ही मावलंकर जी भी थे। एक बार उनके पास बेदखली के लगभग ४० मुकदमे आए। मुकमे लेकर पहुँचने वाले लोग जानते थे कि कलक्टर साहब मावलंकर जी के मित्र है। इसलिये सुनिश्चित जीत की आशा से वे भारी रकम चुकाने को तैयार थे। मावलंकर चाहते तो वैसा कर भी सकते थे, किंतु उन्होंने पैसे का रत्तीभर भी लोभ न कर सच्चाई और मनुष्यता का ही बडप्पन रखा।


🔴 सभी दावेदारों को बुलाकर उन्होंने पूछा देखो भाई आज तो आप लोगों ने सब कुछ देखसमझ लिया। आप लोग घर जाओ। कल जिनके मुकदमे सही हों वही मेरे पास आ जाना।


🔵 दूसरे दिन कुल एक व्यक्ति पहुँचा। मावलंकर जी ने उस एक मुकदमे को लिया और ध्यान देकर उसकी ही पैरवी की। वह व्यक्ति विजयी भी हुआ। शेष ने बहुत दबाव डलवाया पर उन्होंने वह मुकदमे छुए तक नहीं।


🔴 आप जानते होंगे कि गाँधी जी भी प्रारंभ में बैरिस्टर थे। उनका जीवनमंत्र था- "सच्चाई का समर्थन और उसके लिए लड़ना।" झूठ और छल से जिस तरह औरों को घृणा होती है, उन्हें भी घृणा थी पर ऐसी नहीं कि स्वार्थ का समय आए तो उनकी निष्ठा डिग जाए। सत्य वही है जो जीवन में उतरे तो अपने पराये, हानि-लाभ, मान-अपमान का ध्यान किये बिना निरंतर सखा और मित्र बना रहे।


🔵 जब गांधी जी अफ्रीका मे थे तब उन्हें एक मुकदमा मिला। लाखों की संपत्ति का मुकदमा था। मुकदमा चलाने वाला पक्ष जीत गया। गांधी जी के काफी बडी रकम फीस में मिली।


🔴 इस बीच गाँधी जी को पता चल गया कि मुकदमा झूठा था तब वे एक बडे वकील के साथ मुकदमा करते थे। उन्होंने जाकर कहा- मुकदमा गलत हो गया है। सच्चे पक्ष को हम लोगों ने बुद्धि-चातुर्य से हराया, यह मुझे अच्छा नहीं लगता न यह मानवता के सिद्धंतों के अनुरूप ही है। जिसकी संपत्ति है उसी के मिले, दूसरा अनधिकार चेष्टा क्यों करे ''


🔵 वकील बहुत गुस्सा हुआ और बोला यह वकालत है महाशय इसमें सच्चाई नहीं चलती। सच्चाई ढूँढो़गे तो भूखों मरोगे।"


🔴 गाँधी जी न अपनी बात से डिगे न भूखे मरने की नौबत आई। उनकी निष्ठ ने उन्हें उपर ही उठाया। सारी दुनिया का नेता बना दिया। उन्होंने वह मुकदमा फिर अदालत में पेश कर दिया। सारी बात जज को समझायी। जज ने मामला पलट दिया और अंत में सत्य पक्ष की ही जीत हुई। आर्थिक लाभ भले ही न हुआ हो पर उससे उनकी प्रतिष्ठा को आँच न आई।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 42, 43


👉 सच्चा जन नेता


🔴 रुस के जन नेता लेनिन पर एक बार उनके शत्रुओं ने घातक आक्रमण किया और वे घायल रोग शय्या पर गिर पड़े। अभी ठीक तरह अच्छे भी नहीं हो पाये थे कि एक महत्वपूर्ण रेलवे लाइन टूट गई। उसकी तुरंत मरम्मत किया जाना आवश्यक था। काम बड़ा था फिर भी जल्दी पूरा हो गया। 

 

🔵 काम पूरा होने पर जब हर्षोत्सव हुआ तो देखा कि लेनिन मामूली कुली-मजदूरों की पंक्ति में बैठे हैं। रुग्णता के कारण दुर्बल रहते हुए भी लट्ठे ढोने का काम बराबर करते रहें और अपने साथियों में उत्साह की भावना पैदा करते रहे।

 

🔴 आश्चर्यचकित लोगों ने पूछा-''आप जैसे जन-नेता को अपने स्वास्थ्य की चिंता करते हुए इतना कठिन काम नहीं करना चाहिए था।'' लेनिन ने हँसते हुए कहा-"जो इतना भी नहीं कर सके उसे जन-नेता कौन कहेगा?''


🌹 प्रज्ञा पुराण भाग 2 पृष्ठ 16


👉 व्यवस्थित जीवन की कुंजी- समय की पाबंदी


🔴 नियमपूर्वक तथा समय पर काम करने से सब काम भली प्रकार हो जाते हैं। जो लोग समय के पाबंद नही होते, उनके आधे काम अधूरे और हमेशा धमा-चौकडी़ मची रहती है। कम अच्छी तरह समाप्त हो जाता है तो उत्साह भी मिलता है और प्रसन्नता भी होती है। काम पूरा न होने से असंतोष और अप्रसत्रता होती है। विचारवान् व्यक्ति सदैव समय का पालन करते है। इस तरह दूसरी व्यवस्थाओं और प्रबंध के लिये भी समय बचाए रखते है।


🔵 अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन के जीवन की एक घटना से समय की पाबंदी की उपयोगिता का प्रकाश मिलता है। एक बार उन्होंने कुछ मेहमानों को तीन बजे भोजन के लिए आमंत्रित किया। साढे़ तीन बजे सैनिक कमांडरो की एक आवश्यक बैठक मे भाग लेना था।


🔴 नौकर जानता था कि जार्ज साहब समय की नियमितता को कितनी दृढता से निबाहते है ? ३ बजे ठीक मेज तैयार हो गई सूचना दी गई तीन बज गये अभी तक मेहमान नहीं आए।


🔵 एकबारगी वाशिंगटन के मस्तिष्क मे एक चित्र उभरा मेहमानों की प्रतीक्षा न की गई तो वे अप्रसन्न हो जायेंगे तो फिर क्या बैठक स्थगित करें। यह समय सारे राष्ट्र के जीवन से संबधित है। क्या अपनी सुविधा के लिये राष्ट्र का अहित करना उचित है, क्या राष्ट्रहित को दो-तीन व्यक्तियों की प्रसन्नता के लिए उत्सर्ग करना बुद्धिमानी होगी।


🔴 हृदय ने दृढतापूर्वक कहा नहीं, नहीं जब परमात्मा अपने नियम से एक सेकण्ड आगे-पीछे नही होता, जिस दिन जितने बजे सूरज को निकलना होता है, बिना किसी की परवाह किये वह उतने ही समय उग आता है तो मुझे ही ईश्वरीय आदेश का पालन करने मे संकोच या भय क्यों होना चाहिये।


🔵 ठीक है नौकर को संबिधित कर उन्होंने कहा- शेष प्लेटें उठा लो, हम अकेले ही भोजन करेंगे। मेहमानो की प्रतीक्षा नहीं की गई।


🔴 आधा भोजन समाप्त हो गया तब मेहमान पहुँचे। उन्हें बहुत दुःख हुआ देर से आने का कुछ अप्रसन्नता भी हुई, वे भोजन में बैठ गये, तब तक बाशिगटन ने अपना भोजन समाप्त किया और निश्चित समय विदा लेकर उस बैठक में भाग लिया।


🔵 मेहमान इसी बात पर रुष्ट थे कि उनकी १५ मिनट प्रतीक्षा नहीं की गई अब और भी कष्ट हुआ क्योकि मेहमान से पहले वे भोजन समाप्त कर वहाँ से चले भी गये। किसी तरह भोजन करके वे लोग भी अपने घर लौट गये।


🔴 सैनिक कमांडरो की बैठक में पहुँचने पर उन्हे पता चला कि यदि वे नियत समय पर नही पहुँचते तो अमेरिका के एक भाग से भयंकर विद्रोह हो जाता। समय पर पहुँच जाने के कारण स्थिति संभाल ली गई और एक बहुत बड़ी जन-धन की हानि को बचा लिया गया।


🔵 इस बात का पता कुछ समय बाद उन मेहमानों को भी चला तो उन्हें समय की नियमित्त्ता का महत्व मालूम पडा। उन्होंने अनुभव किया कि प्रत्येक काम निश्चित समय पर करने, उसमें आलस्य प्रमाद या डील न देने से भयंकर हानियों को रोका जा सकता है और जीवन को सुचारु ढंग से जिया जा सकता है।


🔴 वे फिर से राष्ट्रपति के घर गये और उनसे उस दिन हुई भूल की क्षमा माँगी। राष्ट्रपति ने कहा- 'इसमें क्षमा जैसी तो कोई बात नहीं है पर हाँ, जिन्हें अपने जीवन की व्यवस्था, परिवार, समाज और देश की उन्नति का ध्यान हो, उन्हें समय का कडाई से पालन करना चाहिए।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 40, 31


👉 धर्म एक और सनातन है


🔴 गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका में थे। अफ्रीकियों के स्वत्वाधिकार के लिए उनका आंदोलन सफलतापूर्वक चल रहा था, ब्रिटिश सरकार के इशारे पर एक दिन मीर नामक एक पठान ने गाँधी जी पर हमला कर दिया, गॉधी जी गंभीर रूप से घायल हुए। मनुष्य का सत्य, सेवा और सच्ची धार्मिकता का मार्ग है ही ऐसा कि इसमें मनुष्य को सुविधाओं की अपेक्षा कष्ट ही अधिक उठाने पडते हैं।


🔵 पर इससे क्या उच्च आत्माएँ कभी अपने पथ से विचलित हो जाती है क्या? बुराई की शक्ति अपना काम बंद नही करती तो फिर भलाई की शक्ति तो सौगुनी अधिक है, वह हार क्यों मानने लगे गाँधी जी को स्वदेश लौटने का आग्रह किया गया पर वे न लौटे। घायल गाँधी जी पादरी जोसेफ डोक के मेहमान बने और कुछ ही दिनों मे यह संबध घनिष्टता में परिवर्तित हो गया।


🔴 पादरी जोसेफ डोक यद्यपि बैपटिस्ट पंथ के अनुयायी और धर्म-गुरु थे, तथापि गांधी जी के संपर्क से वे भारतीय धर्म और सस्कृति से अत्यधिक प्रभावित हुए। वे धीरे-धीरे भारतीय स्वातंत्रता संग्राम का भी समर्थन करने लगे।


🔵 पादरी डोक के एक अंग्रेज मित्र ने उनसे आग्रह किया कि वे भारतीयों के प्रति इतना स्नेह और आदर भाव प्रदर्शित न करें अन्यथा जातीय कोप का भाजन बनना पड़ सकता है, इस पर डोक ने उत्तर दिया- मित्र क्या अपना धर्म-पीडितों और दुखियों की सेवा का समर्थन नहीं करता, क्या गिरे हुओं से ऊपर उठने मे मदद देना धर्म-सम्मत नही ? यदि ऐसा है तो मैं अपने धर्म का ही पालन कर रहा हूँ। भगवान् ईसा भी तो ऐसा ही करते हुए सूली पर चढे थे फिर मुझे घबराने की क्या आवश्यकता?


🔴 मित्र की आशंका सच निकली कुछ ही दिनों में गोरे उनके प्रतिरोधी बन गये और उन्हें तरह-तरह से सताने लगे। ब्रिटिश अखबार उनकी सार्वजनिक निंदा और अपमान करने से नहीं चूके थे, लेकिन इससे पादरी डोक की सिद्धांत-निष्ठा में कोई असर नही पडा़। बहुत सताए जाने पर भी वो भारतीयो का समर्थन भावना पूर्वक करते रहे।


🔵 गाँधी जी जहाँ उनके इस त्याग से प्रभावित थे, वही उन्हें इस बात का दुःख भी बहुत अधिक था वे पादरी डोक को उत्पीडित नहीं देखना चाहते थे, इसलिये जिस तरह एक मित्र अपने मित्र के प्रति वेदना रखता है। गाँधी जी भी उनके पास गए और बोले- आपको इन दिनो अपने जाति भाइयों से जो कष्ट उठाने पड रहे हैं उसके कारण हम भारतीयों की ओर से आपका आभार मानते हैं, पर आपके कष्ट हमसे नही देखे जाते। आप हमारा समर्थन बंद कर दें। परमात्मा हमारे साथ हैं यह लडाई भी हम लोग निपट लेगे।


🔴 इस पर पादरी डोक ने कहा मि० गाँधी आपने ही तो कहा था कि धर्म एक और सनातन है पीडित मानवता की सेवा।'' फिर यदि सांप्रदायिक सिद्धन्तों की अवहेलना करके मैं सच्चे धर्म का पालन करूँ तो इसमे दुख करने की क्या बात और फिर यह तो मैं स्वांतः सुखाय करता हूँ। मनुष्य धर्म की सेवा करते आत्मा को जो पुलक और प्रसन्नता होनी चाहिए, वह प्रसाद मुझे मिल रहा है, इसलिए वाह्य अडचनों, दुःखों और उत्पीडनों की मुझे किंचित भी परवाह नही।


🔵 पादरी डोक अंत तक भारतीयों का समर्थन करते रहे। उन जैसे महात्माओं के आशीर्वाद का फल है कि हम भारतीय आज अपने धर्म, आदर्श और सिद्धन्तों पर निष्कंटक चलने के लिए स्वतंत्र है।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 40, 31



👉 अहंकारिता और जल्दबाजी का दुष्परिणाम


🔴 दिल्ली का बादशाह मुहम्मद तुगलक विद्वान भी था और उदार भी। प्रजा के लिए कई उपयोगी काम भी उसने किए; किन्तु दो दुर्गुण उसमें ऐसे थे, जिनके कारण वह बदनाम भी हुआ और दुर्गति का शिकार भी। एक तो वह अहंकारी था; किसी की उपयोगी सलाह भी अपनी बात के आगे स्वीकार न करता था। दूसरा जल्दबाज इतना कि जो मन में आए उसे तुरंत कर गुजरने के लिए आतुर हो उठता था।

 

🔵 उसी सनक में उसने नयी राजधानी दौलताबाद बनायी और बन चुकने पर कठिनाइयों को देखते हुए रद्द कर दिया। एक बार बिना चिह्न के तांबे के सिक्के चलाए। लोगों ने नकली बना लिए और अर्थ व्यवस्था बिगड़ गयी। फिर निर्णय किया कि तांबे के सिक्के खजाने में जमा करके चाँदी के सिक्कों में बदल लें। लोग इस कारण सारा सरकारी कोष खाली कर गए। एक बार चौगुना टैक्स बढ़ा दिया। लोग उसका राज्य छोड़कर अन्यत्र भाग गए। 


🔴 विद्वत्ता और उदारता जितनी सराहनीय है, उतनी ही अहंकारिता और जल्दबाजी हानिकर भी-यह लोगों ने तुगलक के क्रिया-कलापों से प्रत्यक्ष देखा। उसका शासन सर्वथा असफल रहा।

  

🌹 प्रज्ञा पुराण भाग 2 पृष्ठ 11


-समर्पण की अनोखी पुण्य-प्रक्रिया


🔴 बात बहुत पुरानी है। नालंदा विश्वविद्यालय के विद्यार्थी उमंग भरे हृदयों से चीनी पर्यटक ह्वेनसांग को भाव भीनी विदाई देने जा रहे थे। सिंधु नदी के जल पर हिलती डोलती एक नौका चल रही थी। नौका मे बैठे हुए विद्यार्थी ह्वेनसांग के साथ विद्या-विनोद तथा धर्म-चर्चाऐं कर रहे थे। नाव किनारे की ओर तेजी से बढ़ती जा रही थी।


🔵 इतने में एकाएक एक भारी तूफान का झोंका आया। नौका तेजी से हिलने-डुलने लगी। अब डूबी तब डूबी का भय दिखाई देने लगा। नाविकों ने नौका को स्थिर रखने का जी-तोड़ प्रयत्न किया पर दुर्भाग्य से सब प्रयास विफल हुए।


🔴 और नौका में भार भी क्या कम था ? ह्वेनसांग भारत भर में घूमे थे और जहाँ भी उन्होंने भगवान् तथागत की अदस्य मूर्ति देखी या अप्राप्य ग्रथ देखा उसे तत्काल अपने साथ ले आए थे। जो अप्राप्त ग्रंथ प्राप्त न हो सका, उसकी वहीं कई दिन बैठकर नकल की। ऐसे अप्राप्य ग्रन्थ केवल १०-२० नहीं थे। खासे ६५७ ग्रन्थ और भगवान बुद्ध की लगभग १५० नयन मनोहर ध्यानस्थ मूर्तियाँ नौका में रखी हुईं थी।


🔵 दैवयोग से तूफान का जोर बड़ता गया। नाविकों के सब प्रयत्न बेकार साबित हुए। अंत में उनकी दृष्टि नौका मे भरी पुस्तकों और मूर्तियों पर पडी़। उन्होंने कहा-अब बचने का केवल एक ही मार्ग है। इन सारी पुस्तकों और मूर्तियां को जल में फैंक दो तो भार कुछ कम हो जायेगा और नाव धीरे-धीरे किनारे तक पहुँच जायेगी।


🔴 एक नाविक ने तो ग्रंथों का एक बंडल नदी में फैंकने के लिए उठा ही लिया था। यह दृश्य देखकर ह्वेनसांग तथागत की मन-ही मन प्रार्थना करने लगा- भगवान्। मुझे मृत्यु का तनिक भी भय नही है। मुझे भय केवल इसी बात का है कि अपने देश के लिये मैंने इतना कष्ट उठाकर जो यह अमूल्य सामग्री उपलब्ध की है वह सब एक पल में नष्ट हो जायेगी।''


🔵 फिर ह्वेनसांग ने खडे़ होकर शांति से कहा नौका का भार ही हलका करना है न, तो मैं स्वयं जल मे कूद पडता हूँ।"


🔴 नहीं मानव-जीवन बडी़ कीमती वस्तु है। भार तो इन पुस्तकों और मूर्तियों से कम करो। इसके बिना नौका किनारे तक पहुँचना सभव नहीं है।'' नाविकों ने कहा।


🔵 ह्वेनसांग बोला "मेरे मन में इस देह का कोई मूल्य नहीं। महत्व तो इन संस्कारवान वस्तुओ का है।''


🔴 इस वार्तालाप से नालंदा विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को सहसा प्रकाश मिला। एक वृद्ध चीनी यात्री की वर्षों की मेहनत इस तरह पानी में जायेगी। जो यह चीनी यात्री ही इन संस्कारो, वस्तुओं के लिए आत्मसमर्पण कर देगा तो हमारे भारत की आतिथ्य परंपरा का क्या महत्त्व रहा?


🔵 विद्यार्थियों ने मूक भाषा में संकेत में आपस में बातचीत की। उनमें से एक तेजस्वी बालक खडा हुआ। दोनों हाथ जोडकर सबसे अभिवादन करते हुए उसने कहा- भदंत! भारतवर्ष की भूमि से आपने जो यह संस्कार निधि एकत्र की है वह केवल नौका में भार के कारण डूब जाए यह हमारे लिए असह्य है। इतना कहकर वह युवक सिंधु नदी की अथाह धारा में कूद पडा। उसके बाद सभी विद्यार्थी जल में कूद कर लुप्त हो गए।


🔴 नाविक तो इस समर्पण का अद्भुत दृश्य फटी आँखों से देखते ही रहे। जीवन समर्पण की यह अनोखी पुण्य प्रक्रिया देख कर ह्वेनसांग कीं आँखों से भी अवरिल अश्रुधारा बहने लगी।


🔵 यह वह उज्ज्वल परपरा थी, जिसने न केवल ह्वेनसांग जैसे विदेशी मनीषी को ही प्रभावित किया, अपितु संसार में भारत की सांस्कृतिक गरिमा का उच्च आदर्श प्रस्थापित किया।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 38, 39


👉 विदुर का भोजन और श्रीकृष्ण


🔴 विदुर जी ने जब देखा कि धृतराष्ट्र और दुर्योधन अनीति करना नहीं छोड़ते, तो सोचा कि इनका सान्निध्य और इनका अन्न मेरी वृत्तियों को भी प्रभावित करेगा। इसलिए वे नगर के बाहर वन में कुटी बनाकर पली सुलभा सहित रहने लगे। जंगल से भाजी तोड़ लेते, उबालकर खा लेते तथा सत्यकार्यो में, प्रभु स्मरण में समय लगाते।

 

🔵 श्रीकृष्ण जब संधि दूत बनकर गए और वार्ता असफल हो गयी तो वे धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य आदि सबका आमंत्रण अस्वीकार करके विदुर जी के यहाँ जा पहुँचे। वहाँ भोजन करने की इच्छा प्रकट की।


🔴 विदुर जी को यह संकोच हुआ कि शाक प्रभु को परोसने पड़ेंगे? पूछा- '' आप भूखे भी थे, भोजन का समय भी था और उनका आग्रह भी, फिर आपने वहाँ भोजन क्यों नहीं किया?''  


🔵 भगवान बोले-''चाचाजी! जिस भोजन को करना आपने उचित नहीं समझा, जो आपके गले न उतरा, वह मुझे भी कैसे रुचता? जिसमें आपने स्वाद पाया, उसमें मुझे स्वाद न मिलेगा, ऐसा आप कैसे सोचते हैं?''


🔴 विदुर जी भाव विह्वल हो गए, प्रभु के स्मरण मात्र से ही हमें जब पदार्थ नहीं संस्कारप्रिय लगने लगते है, तो स्वयं प्रभु की भूख पदार्थों से कैसे बुझ सकती है। उन्हें तो भावना चाहिए। उसकी विदुर दम्पत्ति के पास कहाँ कमी थी। भाजी के माध्यम से वही दिव्य आदान-प्रदान चला। दोनों धन्य हो गए।


🔵 स्वार्थी व्यक्ति उदारता पूर्वक सुविधाएँ देने का प्रयास करते हैं, कर्तव्य भाव से नहीं, इसलिए कि उसका अहसान जताकर अपनी मनमानी करवा सकें। ऐसी सुविधाएँ न भगवान ही स्वीकार करते है, न उनके भक्त। दोनों उनसे परहेज करते है।


🌹 प्रज्ञा पुराण भाग 2 पृष्ठ 11


👉 नियमबद्धता और कर्तव्य-परायणता-बड़प्पन का आधार


🔴 मैसूर के दीवान की हैसियत से ये राज्य का दौरा कर रहे थे। एक गाँव में वे अकस्मात् बीमार पड गये। ऐसा तेज ज्वर चडा कि दो दिन तक चारपाई से न उठ सके। गांव के डॉक्टर को बीमारी का पता चला तो भागा-भागा आया और उनकी देखभाल की। उसके अथक परिश्रम से वे अच्छे हो गये।


🔵 डॉक्टर चलने लगे तो उन्होंने २५ रुपये का एक चेक उनकी फीस के बतौर हाथ में दिया। डॉ० हाथ जोडकर खडा हो गया और कहने लगा साहब! यह क्तो मेरा सौभाग्य था कि आपकी सेवा करने का अवसर मिला। मुझे फीस नही चाहिए।


🔴 चेक हाथ में थमाते हुए उन्होंने कहा बडे आदमी की कृपा छोटों के लिये दंड होती है। आप ऐसे अवसरों पर फीस इसलिये ले लिया कीजिये, ताकि गरीबों की बिना फीस सेवा भी कर सके। ऐसा न किया कीजिए कि दवाएँ किसी और पर खर्च कर पैसे किसी और से वसूल करे।


🔵 यह थी उनकी महानता। जहाँ बडे लोग अपनी सेवा मुफ्त कराने, अनुचित और अधिक सम्मान पाने में बडप्पन मानते हैं, वहाँ उन्होंने परिश्रम, नियमितता और कर्तव्यपालन में ही गौरव अनुभव किया, यदि यह कहा जाए कि अपने इन्ही गुणों से उन्होंने एक साधारण व्यक्ति से उठकर देश के सर्वाधिक ख्याति लब्ध इंजीनियर का पद पाया तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। वे नियम पालन में डॉक्टर के सामने क्या बडे-से-बडे व्यक्ति के सामने भी उतने ही तटस्थ रहे। कभी लचीलापन व्यक्त नहीं किया।


🔴 उन्हें भारत रत्न की उपाधि दी गई। अलंकरण समारोह में उपाधि ग्रहण करने के लिये वे दिल्ली आए। नियम है कि जिन्हें भारतरत्न की उपाधि से विभूषित किया जाता है वे राष्ट्रपति के अतिथि होते है और राष्ट्रपति भवन में ही निवास करते है। उन्हें भी यहीं ठहराया गया। राष्ट्रपति डॉ० राजेंद्र प्रसाद प्रतिदिन उनसे मिलते थे और उनकी सान्निध्यता में हर्ष अनुभव करते।


🔵 एक दिन जब राष्ट्रपति उनसे मिलने गए तो उन्होंने देखा कि वे अपना सामान बांध रहे हैं और जाने की तैयारी कर रहे हैं। उन्होने आते ही पूछा आप यह क्या कर रहे है, अभी तो आपका ठहरने का कार्यक्रम है।


🔴 उन्होंने उत्तर दिया हाँ तो पर अब कहीं दूसरी जगह ठहरना पडेगा। यहाँ का यह तो नियम है कि कोई व्यक्ति तीन दिन से अधिक नहीं ठहर सकता। राष्ट्रपति बोले आप तो अभी यही रुकिए।'' तो उन्होंने कहा नियम के सामने छोटे-बड़े सब एक है। मैं आपका स्नेह पात्र हूँ इस कारण नियम का उल्लंघन करूँ तो सामान्य लोग दुःखी न होंगे क्या और यह कहकर उन्होंने अपना सामान उठाया बाबू जी को प्रणाम किया और वहाँ से चले आए। शेष दिन दूसरी जगह ठहरे पर राष्ट्रपति के बहुत कहने पर भी वहाँ न रुके।


🔵 नियम पालन से मनुष्य बडा़ बने, केवल पद और प्रतिष्ठा पा लेना ही बडप्पन का चिन्ह नहीं। सूर्य चद्रमा तक जब सनातन नियमों की अवहेलना नहीं करते हुए पूज्य और प्रतिष्ठित हैं तो समुचित कर्तव्य और नियमो के पालन से मनुष्य का मूल्य कैसे घट सकता है? 'भले ही काम कितना ही छोटा क्यों न हो?


🔴 वह थे देश के महान इंजीनियर मोक्षगुंडम् विश्वैश्वरैया जिनकी प्रतिष्ठा और प्रशंसा भारतवर्ष ही नही इंगलैंड और अमेरिका तक में होती थी। पद के लिये नहीं वरन् कार्यकुशलता, नियम पालन अनुशासन और योग्यता जैसे गुणों के लिये।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 36, 37


👉 अहंकार का प्रदर्शन


🔴 राबिया बसरी कई संतों के संग बैठी बातें कर रही थी। तभी हसन बसरी वहाँ आ पहुँचे और बोले-''चलिए, झील के पानी पर बैठकर हम दोनों अध्यात्म चर्चा करें।'' हसन के बारे में प्रसिद्ध था कि उन्हें पानी पर चलने की सिद्धि प्राप्त है।    


🔵 राबिया ताड़ गई कि हसन उसी का प्रदर्शन करना चाहते है। बोली-'' भैया, यदि दोनों आसमान में उड़ते- उड़ते बातें करें तो कैसा रहे?'' (राबिया के बारे में भी प्रसिद्ध था कि वे हवा में उड़ सकती हैं।) फिर गंभीर होकर बोलीं-''भैया, जो तुम कर सकते हो, वह हर एक मछली करती है; और जो मैं कर सकती हूँ वह हर मक्खी करती है।


🔴 सत्य करिश्मेबाजी से बहुत ऊपर है। उसे विनम्र होकर खोजना पड़ता है। अध्यात्मवादी को दर्प करके अपनी गुणवत्ता गँवानी नहीं चाहिए।'' हसन ने अध्यात्म का मर्म समझा और राबिया को अपना गुरु मानकर आत्म-परिशोधन में जुट गए ।  


🌹 प्रज्ञा पुराण भाग 2 पृष्ठ 11


👉 जाओ करो नहीं आओ करो


🔴 कीचड में फँसे लकडी के लट्ठे उठाकर इमारत तक पहुँचाने थे। एक लकडी़ का लट्ठा काफी वजनदार था। आठ-दस सिपाही अपनी सपूर्ण शक्ति से उठाने का प्रयत्न कर रहे थे। लट्ठा जमीन तो छोडता रहा था पर पूरी तरह उठ नहीं पाता था। सिपाहियों की सम्मिलित शक्ति भी कुछ कर नहीं पा रही थी।


🔵 पास ही खडे़ अफसर ने सिपाहियो को डाँटा- "मूर्खों! इतने लोग लगे हो फिर भी लकडी नहीं उठा पा रहे हो।" सिपाहियों ने पुन पूरा जोर लगाया। लट्ठा पेट तक उठाए रख सकना कठिन हो गया और वह उनक हाथ से बरबस एटकर फिर कीचड में जा गिरा।


🔴 अफसर के रोष का ठिकाना न रहा वह चाहता था कि लट्ठा तुरंत उठ ही जाना चाहिए। यह तो नहीं कि कोई युक्ति सोचता, नई शक्ति जुटाता सिपाहियों के हौसले बढा़ता, उन्हे शाबासी देता? उल्टे आफिसरी का रोब दिखाता रहा। धैर्य और साहस दिखाने की एक शक्ति होती है वह अपने को छोटे सहयोगियों और कर्मचारियों का साहस बढा़ती है और उससे कर्तव्य भावना उद्दीप्त होती है। प्रेम और स्नेह से जो काम कराए जा सकते हैं वह बलपूर्वक नहीं। उससे तो शक्ति टूटती ही है, यह बात उन सब लोगों को याद रखनी चाहिए. जो बडी जिम्मेदारियाँ कंधों पर संभाले हैं। अफसर या प्रशासक हैं।


🔵 सिपाही प्रसन्नता से काम कर रहे होते तो लट्ठा कब का उठ गया होता, पर हुक्म चलाने की दांभिकता ने उनका सारा उत्साह शिथिल कर रखा था। इसलिये खींचातानी करने पर भी वह नही ही उठ पाया। अफसर उन्हें और भी बुरी तरह डाँटने-फटकारने लगा! तभी उधर से घोडे पर चढा़ नवयुवक आता दिखाई दिया। अफसर के पास आकर वह सादे वेष का घुडसवार शांति और धैर्य के साथ नीचे उतरा और गभीर स्वर में बोला भाई! जिस तरह आप इन्हें डॉट रहे है, उस तरह काम नहीं होता थोडा आप भी हाथ लगा देते तो लट्ठा कब का उठ गया होता ? काम से आदमी की शान नही घटती, न आपकी पदवी छोटी हो जाती। इससे सिपाहियों मे आपका सम्मान और स्वामिभक्ति ही बढ़ती।


🔴 देखो "जाओ करो" कहने की अपेक्षा "आओ करें" की शक्ति बडी होती है। उससे अधिक और सुव्यवस्थित काम संपन्न होते है। यह कहकर नवागंतुक ने घोडे की रास वहीं छोड दी और काम करते सिपाहियों में जा मिला फिर हँसकर कहा-देखो भाईयों अब हमारी शक्ति बढ़ गई यह अकेला लट्ठा अपने को बलवान् न कहने पाए। सब सिपाही इस मसखरेपन पर मुस्कराए बिना न रह सके और इसके बाद सबने एक जयकारा लगाकर जो लट्ठे को उठाया तो वह पलक मारते सीधे हाथों आकाश की ओर उठ गया। प्रसन्नता और सफलता से सबके चेहरे खिल उठे। जो काम ३ घंटे से रुका पडा़ था वही काम चंद मिनटो में पूरा हो गया।


🔵 आगुंतक ने पानी में हाथ-पाँव धोए और फिर घोडे़ पर सवार होकर-उस अफसर को संकेत करके बोला देखो भाई काम कराने का असली गुरु मंत्र यह है कि आप को भी सहयोग देकर काम का मूल्य बढा़ना चाहिए और उसके बोझीलेपन को कम करना चाहिए।


🔴 शाम को उस अफसर को पता चला कि नवागुंतक कोई और नहीं था, वरन उन्हीं का सेनापति जार्ज वाशिगटन था। वह अफसर अपनी दांभिकता पर बडा लज्जित हुआ। उसने अनुभव किया कि बडे आदमी पद से नहीं कर्तव्य भावना से बडे होते है, यदि किसी को केवल अमिमान है, तो किसी भी बडे पद में होकर वह बडा नहीं।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 35, 36


👉 दो मुँह वाला जुलाहा


🔴 एक जुलाहा का कर्धा टूट गया और उसके लिए लकड़ी काटने वह पास के जंगल में गया। जंगल में सूखा पेड़ एक ही दीखा और वह उसे काटने लगा। उस पेड़ पर एक यक्ष रहता था । उसने कहा- '' इस पर मेरा निवास है, इसे मत काटो। अपना काम चलाने के लिए कोई वरदान माँग लो।  


🔵 जुलाहा कोई लाभदायक वरदान माँगने की बात सोचने लगा । सोचते- सोचते एक बात समझ में आयी, कि दो हाथों की जगह चार हाथ और एक सिर की जगह दो सिर माँग लिए जाँय। चार हाथों से दुगुना कपड़ा बुना जा सकेगा। दो सिरों पर लाद कर हाट तक दूने वजन की पोटली ले जाई जा सकेगी ।


🔴 यक्ष ने मनोरथ पूरा कर दिया । इस विचित्र आकृति को लेकर वह घर लौटा, तो कौतूहल देखने सारा गाँव इकट्ठा हो गया । पत्नी भयभीत होकर छिप गई । मुहल्ले वालों ने उसे भूत- प्रेत समझा और ईंट-पत्थरों से मार डाला ।साधारण स्तर बनाये रहने में ही भलाई है ।


🌹 प्रज्ञा पुराण भाग 2 पृष्ठ 9


👉 सादगी और कमखर्ची का अनुकरणीय आदर्श


🔴 वे राज्यों के दौरे पर थे। बिहार राज्य के शहर रांची पहुँचने तक जूता दाँत दिखाने लगा। काफी घिस जाने के कारण कैइ कीलें निकल आइ थी, जो बैठे रहने में तो नहीं पैदल चलने में पैरों में चुभती थी, इसलिए रांची में दूसरा जूता-जोडा बदलने की व्यवस्था की गई।


🔵 यह तो वह फिजूलखर्ची लोग होते है, जो आय और औकत की परवाह किए बिना आमदनी से भी अधिक खर्च विलासितापूर्ण सामग्रियों में करते है। इस तरह वे व्यवस्था संबंधी कठिनाइयों और कर्ज के भार से तो दबते ही है, शिक्षा, पौष्टिक आहार, औद्योगिक एवं आर्थिक विकास से भी वंचित रह जाते हैं। मितव्ययी लोग थोडी-सी आमदनी से ही जैसी शान की जिंदगी बिता लेते है। फिजूलखर्च लंबी आमदनी वाली को वह सौभाग्य कहां नसीब होता है?


🔴 इनके लिए तो यह बात भी नही थी। आय और औकात दोनों ही बडे आदमियों जैसे थे, पर वे कहा करते थे कि दिखावट और फिजूलखर्ची अच्छे मनुष्यों का लक्षण नही वह चाहे कितना ही बडा़ आदमी क्यों न हो। फिजूल खर्च करने वाला समाज का अपराधी है क्योंकि बढे़ हुए खर्चों की पूर्ति अनैतिक तरीके से नही तो और कहाँ से करेगा ? मितव्ययी आदमी व्यवस्था और उल्लास की बेफिक्री और स्वाभिमान की जिदंगी बिताता है, क्या हुआ यदि साफ कपडा़ चार दिन पहन लिया जाए इसके बजाय कि केवल शौक फैशन और दिखावट के लिए दिन में चार कपडे बदले जाऐं रोजाना धोबी का धुला कपडा पहना जाए।


🔵 हर वस्तु का उपभोग तब तक करना चाहिए, जब तक उस की उपयोगिता पूरी तरह नष्ट न हो जाए। कपडा सीकर के दो माह और काम दे जाए तो सिला कपडा पहनना अच्छा बजाय इसके कि नये कपडे के लिए १० रुपया बेकार खर्च किये जाऐँ।


🔴 इस आदर्श का उन्होंने अपने जीवन में अक्षरश पालन भी किया था। उनका प्रमाण राँची वाले जूते थे। बस यहाँ तक का उनका जीवन था, अब उन जूतों को हर हालत मे बदल डालने की उन्होंने भी आवश्यकता अनुभव की।


🔵 उनके निजी सचिव गये और अच्छा-सा मुलायम १९ रुपये का जूता खरीद लाए। उन्होंने सोचा था यह जूते उनके व्यक्तित्व के अनुरूप फवेंगे, पर यहाँ तो उल्टी पडी, उन्होने कहा- जब ग्यारह रुपये वाले जूते से काम चल सकता है तो फिर १९ रुपये खर्च करने की क्या आवश्यकता है ? मेरा पैर कड़ा जूता पहनने का अभ्यस्त है, आप इसे लौटा दीजिये।


🔴 निजी सचिव अपनी मोटर की ओर बढे़ कि यह जूता बाजार जाकर वापस लौटा आऐं। पर वह ऐसे नेता नही थे। आजकल के नेताओं की तरह १ की जगह ४ खर्च करने, प्रजा का धन होली की तरह फूँकने की मनमानी नही थी। उनमें प्रजा के धन की रक्षा की भावना थी। राजा ही सदाचरण का पलन नहीं करेगा तो प्रजा उसका परिपालन कैसे करेगी ? इसलिए जान बूझकर उन्होंने अपने जीवन मे आडंबर को स्थान नही दिया था और हर समय इस बात का ध्यान रखते थे कि मेरी प्रजा का एक पैसा भी व्यर्थ बरबाद न हो।


🔵 उन्होंने सचिव को वापस बुलाकर कहा ‘दो मील जाकर और दो मील वापस लौटकर जितना पेट्रोल खर्च करेगे, बचत उससे आधी होगी तो ऐसी बचत से क्या फायदा ? सब लोग उनकी विलक्षण सादगी और कमखर्ची के आगे नतमस्तक हुए।


🔴 आप जानना चाहेंगे कि वह कौन था ? सादगी और कमखची की प्रतिमूर्ति- डा० राजेंद्र प्रसाद, भारतवर्ष के राष्ट्रपति रहकर भी जिन्होंने धन के सदुपयोग का अनुकरणीय आदर्श अपने जीवन में प्रस्तुत किया।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 33, 34


👉 अपव्ययता किसी की भी न चली


🔴 हिंदी के अनन्य सेवक भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र विचारवान् थे, उसके कारण उन्हें सार्वजनिक प्रतिष्ठा और सम्मान भी मिला, धन भी बहुत कमाया, किंतु अपव्यय के एक दुर्गुण ने ही उनके जीवन को दुर्दशाग्रस्त बना दिया। घर आए धन की होली फूँकने, अंधाधुंध खर्च करने से तो महाराजे भी कंगाल हो जाते हैं। भारतेंदु बाबू उक्त कथन के प्रत्यक्ष उदाहरण है।


🔵 पैतृण संपत्ति के रूप में उन्हें धन की कमी पहले ही न थी। अपने साहित्यिक उपार्जन से भी उन्होंने अपना कोष बढा़या। वह सब धन किसी बैंक या पोस्ट आफिस में जमा कर देते तो उसके ब्याज में सारा जीवन हँसी-खुशी और मस्ती में बिता लेते, पर अपव्यय की बुरी लत ने उन्हें ऐसा पछाडा कि मरते समय उनके पास कानी कौडी़ शेष न थी।


🔴 भारतवर्ष एक निर्धन देश है यहाँ के नागरिकों को साधारण मोटा-नोटा खाना और कपडा प्रयोग करना चाहिए पर भारतेंदु बाबू बहुत कीमती कपडे पहनते, खाना इतना मसालेदार और स्वादिष्ट बनता कि कोई राजा-महाराजा भी वैसा क्या खाता होगा ? प्रतिदिन दिन में कई बार अंगराग और कीमती सुंगधित तेलो की मालिश कराते। भोजन, वस्त्र, फुलेल की इतनी मात्रा खरीदी जाती कि स्वयं के पास प्रतिदिन कई चाटुकार और झूठे प्रशंसक भी उनका उतना ही आनंद लूटते।


🔵 दीपक में फुलेल जलता, रोशनदानों के कपडे रोज बदले जाते। जूते तो धनी आदमी भी पांच-छह महीने पहन लेते है, पर भारतेंदु बाबू के लिये इतने दिनों के लिये ४-५ जोडी जूते-चप्पल भी कम रहते। आखिर धन की आय की भी मर्यादा है। उस सीमा के भीतर पांव न रखने से तो आर्थिक दुर्गति होती ही है।


🔴 जाडे की रात्रि थी। कुछ लोग बाहर से मिलने आए थे। झूठे दंभ के लिए अपने में बहुत बडा़- चडा़कर व्यक्त करने वालों के पीछे उचक्कों की कमी नहीं रहती। वे प्रायः झूंठी प्रशंसा करके अपना उल्लू सीधा करते है। वह सज्जन उसी में अपना गौरव मानते है। ऐसे समय थोडा भविष्य पर भी विचार कर लिया करें तो संभवत लोग परेशानियों से पहले ही बच लें।


🔵 भारतेंदु पढे-लिखे थे, पर दूरदर्शी नहीं। उन लोगो ने आते ही उनकी उदारता की झूठी प्रशंसा प्रारंभ कर दी। इधर हाथ सेंकने के लिये अँगीठी की आवश्यकता पडी़। अँगीठी इधर-उधर दिखाई न दी तो उसे और बढकर ढूँढना अपना अपमान जान पडा। शेखी में आकर जेब से नोट निकालकर उन्हीं में आग लगा दी और अपने हाथ सेंके। हम नही समझते दर्शकों पर इसका क्या प्रभाव पडा़ होगा ? भीतर-ही-भीतर ऐसी मूर्खता पर वे हँसे ही होंगे।


🔴 इस तरह की संगति और जीवन-क्रम के कारण उनमे चरित्र-दोष भी आ गए। हितैषियों ने समझाया-भैया हाथ रोककर खर्च किया करो, जुटाया नही जाता, न जाने आगे कैसी स्थिति आ जाए पर भारतेंदु जी की बुद्धि ने सही काम न किया।


🔵 अपव्यय के दुर्गुणों ने उन्हें शारीरिक और मानसिक दोनों दृष्टि से विक्षिप्त कर दिया। वे तीस बष की आयु में ही मर गये। जीवन के अंतिम दिनों मे उन्हें पैसे-पैसे के लिए दूसरे साथियों के आगे हाथ फैलाना पडा। ऐसे पत्र सुरक्षित हैं, जिनमे उन्होंने आर्थिक सहायता की याचना की है, पर यहाँ इस संसार में अपनी-अपनी आवश्यकताओं से ही सभी तंग है, दूसरों की कौन देखे ? कौन सहायता करे


🔴 मृत्यु के क्षणो में भारतेंदु बाबू ने कहा-'किसी के पास धन और साधन कितने ही बडे़ क्यो न हो, उनका खर्च और उपयोग बहुत हाथ साधकर सावधानी के साथ भविष्य की चिंता रखकर ही करना चाहिए।"  यह तब पहले समझ में आई होती तो यह दुर्दशा न होती।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 31, 32


👉 परमार्थ की प्राथमिकता


🔴 जुटफेन का युद्ध-स्थल। सनसनाती हुई गोलियों की आवाज। सेना के प्रधान अधिकारी सर फिलिप सिडनी बडी़ बहादुरी से युद्धरत थे। अनेक सैनिकों को युद्ध-स्थल में उनके द्वारा मार्गदर्शन मिल रहा था। शत्रु की ओर से आई हुई एक गोली उनकी जाँघ में लगी और हड्डी के दो टुकडे़ करके पार निकल गई।


🔵 रक्त की धार फूट पडी, युद्ध करने का उनमें साहस न रहा, बचने की भी कोई आशा न रही। युद्ध में गिरकर प्राण देने की अपेक्षा उन्होंने कैंप में लौटना ज्यादा अच्छा समझा। उनका समझदार घोड़ा उन्हें लेकर पीछे लौट पडा। वह शिविर तक अभी न आ पाए थे कि वह बेहोश होकर जमीन पर गिर पडे जब मूर्छा टूटी तो उन्होंने संकेत से पानी पीने की इच्छा व्यक्त की। दौडा दौडा़ एक सैनिक गया और कहीं दूर की जलाशय से पानी लाया पानी का पात्र होठों से लगाया ही था, तब तक उनके कानों में पास पडे़ दूसरे सैनिक की आवाज आई जो 'पानी पानी' चिल्ला रहा था पर घायल होने के कारण उठकर पानी पीने की स्थिति में न था।


🔴 सिडनी ने सोचा मेरा तो जीवन वैसे ही समाप्त हो रहा है। शरीर से सारा रक्त निकल चुका है यह पानी मुझमें पुन जीवन न डाल सकेगा, मरते दम तक मेरी प्यास भले ही बुझा दे, मगर यह पानी पास का घायल सैनिक पी लेगा तो शायद उसका जीवन बच सके और मातृभूमि की रक्षा में पुनः योगदान दे सके। सिडनी ने पानी का गिलास अपने होठ से हटा दिया और धीरे से कहा-' यह पानी उस सिपाही को पिला दो।' अनेक सैनिकों ने इस बात का आग्रह किया कि आपका महत्त्व एक साधारण सैनिक से कहीं अधिक है आप पहले पानी पी लीजिये उस सैनिक के लिये भी पानी की व्यवस्था की जायेगी।


🔵 सिडनी ने कहा- आप मुझे इसीलिये तो अधिक महत्त्व देते हैं कि मै आप सबकी तकलीफों को अपनी तकलीफ समझता हूँ, और सबको सच्चे हृदय से प्यार करता हूँ। यदि ऐसा कोई गुण आप मुझ में न देखें तो भला मुझे कौन बडा मानेगा और मेरा क्या मूल्य रहेगा, यदि आप सब एक सैनिक से बडा़ मानते हैं तो मेरा बडप्पन भी इसी में है कि यह पानी उस सैनिक को पीने दूँ।


🔴 सिडनी की आज्ञा से यह पानी उस प्यासे सैनिक को पिला दिया गया और दूसरी बार एक अन्य सैनिक उसी जलाशय से पानी लेकर लौटा तब तक सिडनी अपने प्राण त्याग चुके थे। सिडनी इस ससार में आज भले ही न हों पर अपने अधीनस्थ सैनिकों के प्रति उदार व्यवहार के कारण वे आज भी स्मरण किए जाते हैं।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 29, 30


👉 सहनशीलता में महानता सन्निहित है


🔴 बात सन् १९६५ की है। उन दिनों भारत-पाकिस्तान का संघर्ष चल रहा था। चाहे जब हवाई हमले की घंटी बज सकती थी सुरक्षा के लिये प्रधान मंत्री भवन मे भी खाई बनवाई गई थी। प्रधान मंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री को कहा गया कि ''आज हमले की आशंका अधिक है आप घंटी बजते ही तुरंत खाई में चले जायें।''


🔵 किंतु दैवयोग से हमला नहीं हुआ। प्रातः देखा गया कि बिना बमबारी के खाई गिरकर पट गई है। खाई बनाने वालों तथा उसे पास करने वालों की यह अक्षम्य लापरवाही थी। यदि वे उस रात खाई के अंदर होते तो क्या होता सोचकर राँगेटे खडे हो जाते हैं। देश के प्रधानमंत्री का जीवन कितना मूल्यवान् होता है? वह भी युद्धकाल में?


🔴 अन्य व्यवस्था अधिकारियों ने भले ही इस प्रसंग पर कोई कार्यवाही की हो, किन्तु शास्त्रीजी ने संबंधित व्यक्तियों के प्रति कोई कठोरता नहीं बरती अपितु बालकों की भाँति क्षमा कर दिया।


🔵 दूसरी घटना भी सन् १९६५ ही है। युद्धकाल था ही, चौबीस घंटों में कभी भी कैबिनेट की इमरजैंसी मीटिंग हो जाती थी। उस दिन भी संध्या समय मीटिग थी। कडाके की ठंड थी, किन्तु उत्तरदायिवों के प्रति सजग तथा समय के पाबंद हमारे तत्कालीन प्रधान मंत्री नियत समय पर मीटिग के लिये चल दिए। जाकर कार मे बैठ गए। पर जब बडी़ देर हो गई और कार खडी ही रही तो उन्होंने इस संबंध में पूछताछ की और देर होने की बात भी कही।


🔴 तब कही संयोजक महोदय ने बताया कि मीटिग तो आज उन्हीं के घर पर है। कोई दूसरा प्रधान मंत्री होता तो यों अपना समय नष्ट करने पर संबधित अधिकारी को अवश्य ही प्रताडित करता, किन्तु वे दूसरों की त्रुटियों को माँ जैसी ममतापूर्वक ही सहन कर जाते थे।


🔵 आमतौर पर ऐसा होता है कि लोग घर में तो अधिकार-आशा तथा डांट-फटकार से काम लेते हैं और बाहर सज्जनता तथा उदारता के प्रतीक बने रहते हैं, किन्तु शास्त्रीजी इसके अपवाद थे। वे स्वभाव से ही उदार तथा सहिष्णु थे।


🔴 ताशकंद जाने के एक दिन पूर्व वे भोजन कर रहे थे। उस दिन उनकी पसंद का भोजन था। खिचडी तथा आलू का भरता। ये दोनों वस्तुएँ उन्हें सर्वाधिक प्रिय थीं। बडे़ प्रेम से खाते रहे। जब खा चुके उसके थोडी़ देर बाद उन्होंने वही प्रसंग आने पर बडे़ ही सहज भाव से श्रीमती ललिता जी से पूछा-क्या आज आपने खिचडी़ में नमक नहीं डाला था ? ललिता जी को बडा खेद हुआ अपनी गलती पर किन्तु वहाँ न कोई शिकायत थी न क्रोध मुस्कराते ही रहे वे फीकी खिचडी़ खाकर।


🔵 दूसरों की गलतियों को भी क्षमा कर देना तथा बजाय डांट-फटकार या चिल्ल-पुकार मचाने के प्रेमपूर्वक बता देना निश्चय ही एक महान् गुण हैं। शास्त्रीजी सहनशीलता के प्रतीक थे।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 27, 28


👉 प्लास्टिक का दिल बनाने वाले महान् डॉक्टर


🔴 टेमगाज के एक डॉक्टर श्री माईकेल डेवा ने चिकित्सा शास्त्र में एक अद्भुत चमत्कार कर दिखाया। उन्होंने एक हृदय रोगी का खराब दिल निकालकर उसके स्थान पर प्लास्टिक का एक नकली दिल लगा दिया।


🔵 डॉ० डेवा के इस अद्भुत कार्य का प्रभाव रोगी पर किसी प्रभार भी अन्यथा नही पडा। उसका नकली दिल यथावत् काम कर रहा है। शरीर का रक्त संचालन तथा रक्तचाप सामान्य रहा। साथ ही शरीर के अन्य अवयवों की कार्य प्रणाली में किसी प्रकार का व्यवधान अथवा विरोध नहीं आया। डॉ० डेवा की इस सफलता ने चिकित्सा विज्ञान में एक नई क्रांति का शुभारंभ कर दिया है।


🔴 डॉ० डेवा ने प्रारंभ से ही, जब वे कालेज मे पढते थे यह विचार बना लिया था कि वे अपना सारा जीवन संसार की सेवा में ही लगायेंगे। अपनी सेवाओं के लिये उन्होंने चिकित्सा का क्षेत्र चुना। डॉ० डेवा जब किशोर थे तभी से यह अनुभव कर रहे थे कि रोग मानव जाति के सबसे भयंकर शत्रु हैं। यह मनुष्यों के लिए न केवल अकाल के कारण बनते हैं बल्कि जिसको लग जाते है उसका जीवन ही बेकार तथा विकृत बना देते हैं। न जाने कितनी महान् आत्माऐं और ऊदीयमान प्रतिभाएँ जो संसार का बडे़ से बडा़ उपकार कर सकती है, विचार निर्माण तथा साहित्य के क्षेत्र में अद्भुत दान कर सकती है, इनका शिकार बनकर नष्ट हो जाती है।


🔵 इसके साथ ही उन्हें यह बात भी कम कष्ट नहीं देती थी कि रोग से ग्रस्त हो जाने पर जहाँ मनुष्य की कार्यक्षमता भी नष्ट हो जाती है, वहाँ उसके उपचार में बहुत सा धन भी बरबाद होता रहता है। रोगों के कारण संसार के न जाने कितने परिवार अभावग्रस्त बने रहते है। जो पैसा वे बच्चों की पढाई और परिवार की उन्नति में लगा सकते हैं, वह सब रोग की भेंट चढ़ जाता है और बहुत से होनहार बच्चे अशिक्षित रह जाते है।


🔴 इस बात को सोचकर तो वे और भी व्यग्र हो उठते थे कि रोगों से दूसरे नये रोगो का जन्म होता है। संसार की आबादी बुरी तरह बढती जा रही है। लोग अभी इतने समझदार नहीं हो पाए है कि यह समझ सकें कि जनवृद्धि के कारण संसार में उपस्थित अभाव भी अनेक रोगों को जन्म देता है। भर पेट भोजन न मिलने से मनुष्य की शक्ति क्षीण हो जाती है, जिससे उसे अनेक रोग दबा लेते हैं, उनका सक्रमण तथा प्रसार होता है और संसार की बहुत-सी बस्तियाँ बरबाद हो जाती है। रोग युद्ध से भी अधिक मानव समाज के शत्रु होते हैं।


🔵 वे चिकित्साशास्त्र के अध्ययन में लग गए और यह भी देखते रहे कि उन्हें इस क्षेत्र की किस शाखा मे अनुसंधान तथा विशेषता प्राप्त करनी चाहिए, उन्होंने पाया कि आजकल मनुष्यों में कृत्रिमता का बहुत प्रवेश हो गया है। लोग अप्राकृतिक जीवन के अभ्यस्त हो गए हैं। उनके खानपान में अनेक अखाद्य पदार्थ शामिल हो गये हैं, जो शरीर के लिये बहुत घातक सिद्ध होते है। इसके साथ तंबाकू शराब और अन्य बहुत-से नशों के कारण भी मानव स्वास्थ्य बुरी तरह चौपट होता जा रहा है। इन सारे व्यसनों तथा अनियमितताओं का सीधा प्रभाव हृदय पर पडता है इसीलिये अधिकांश रोगी दिल की किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त रहते हैं हार्टफेल्यौर की बीमारी का कारण भी उनका यही अनुपयुक्त रहन-सहन तथा आहार-विहार है।


🔴 डॉ० डेवा ने इस अयुक्तता पर दु़ःखी होते हुए एक हृदय संबंधी अनुसंधान तथा चिकित्सा में विशेषता प्राप्त करने के लिए जीवन का बहुत बडा भाग लगा दिया। उन्होंने एक लंबी अवधि के प्रयोग चिकित्सा, उपचार तथा अनुसंधान परीक्षणों के बाद अपनी साधना का मूल्य पाया और खराब दिल निकालकर उसके स्थान पर प्लास्टिक का दिल लगा सकने में सफल हो गए।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 25, 26

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