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ज्ञानवर्धक कथाएं - भाग-7

 ज्ञानवर्धक कथाएं - भाग-7


👉 संकल्प तोड़ना ठीक बात नहीं

 

 

 

 🔴 कांग्रेस के इतिहास में शोलापुर कांड लगभग जलियाँ वाला कांड जैसा ही था। वहाँ मार्शल ला लगा दिया गया था। देश भर से वालंटियर वहाँ जाते थे और गोलियां की बौछार द्वारा चने की तरह भून दिये जाते थे।

 

 

 

🔵 लालबहादुर शास्त्री ने भी अपना नाम वालंटियरों में भेज दिया। यह खबर टंडन जी को लगी तो उन्हें शास्त्रीजी के जीवनरक्षा की चिंता हुई। उन्होंने शास्त्रीजी की माता जी को खबर भेजी किसी तरह शास्त्रीजी को वहाँ जाने से तुम्हीं रोको वह और किसी की बात मानने वाले नहीं।''

 

 

 

🔴 भारतीय माताओं का वात्सल्य और मोह अन्यतम कहा जा सक्ता है। विशेषकर ऐसी स्थिति में जबकि जीवन-मरण की समस्या प्रस्तुत हुई हो उनका मोह उग्र होना स्वाभाविक ही कहा जा सकता है, वे हर संभव प्रयास करती हैं कि बच्चा रूक जाए, अमुक कार्य न करे, जिससे कोई हानि हो या जीवन को खतरा उत्पत्र हो।

 

 

 

🔵 शास्त्री जी की माता जी ग्रामीण जीवन में पली थीं। यह आशा थी कि वे इस समाचार से व्याकुल हो उठेंगी और शास्त्रीजी को शोलापुर न जाने देंगी।

 

 

 

🔴 पर हुआ कुछ दूसरा ही। जैसे ही उनके पास यह खबर पहुँची, वह रोष में भरकर बोलीं- मेरे बच्चे ने जो संकल्प लिया है उसे पूरा करना ही चाहिए। मैं उसे रोक नहीं सकती। बच्चे का शहीद होना सौभाग्य मानूँगी, पर उसे कर्तव्य से गिरते सहन नहीं कर सकती। प्रतिज्ञाऐं किन्हीं महत्वपूर्ण कार्यों की पूर्ति के लिये की जाती हैं, उन्हें निभाना मनुष्य का परम धर्म है। जो उसकी अवहेलना करता है उसकी आत्मा कमजार होती है। मेरा बच्चा कमजोर आत्मा वाला कायर और कर्तव्यद्युत कहलाए, यह हमारी शान के प्रतिकूल है। मैं उसे सहर्ष शोलापुर जाने की आज्ञा देती हूँ।

 

 

 

🔵 धर्म और आदर्शों की रक्षा ऐसी ही माताओं से होती है, जो बेटे के स्थूल शरीर की अपेक्षा उसके गुणों से मुहब्बत रखती हैं, जिन्हें चाम प्यारा नहीं होता, आत्माभिमान प्यारा होता है। माता जी की इस दृढ मनस्विता को ही श्रेय दिया जा सकता है, जो सामान्य परिस्थितियों से बढकर शास्त्री जी भारतीय इतिहास आकाश में उज्ज्वल नक्षत्र की तरह चमके। कर्तव्यपालन की अडिगता धैर्य, निर्भीकता और संकल्प-ज्ञयता के भाव उनकी माता जी के ही देन थे।

 

 

 

🔴 यह आदर्श हर भारतीय माता का आदर्श होना चाहिए। बच्चों के आत्म-विकास में चरित्र और गुणों का स्थान सर्वोपरि है, यदि बच्चे को ऐसी किसी कसौटी से गुजरना पडे़ तो माताओं को उनके गुण-गौरव को ही प्रोत्साहन देना चाहिए, भले ही भौतिक दृष्टि से हानि ही क्यों न हो?

 

 

 

🔵 शास्त्रीजी रोक दिये गये होते तो उनकी आत्मा आत्म हीनता और प्रायश्चित के बोझ से दब गई होती। दबी हुई आत्माएँ तो सच्ची और न्याय की बात भी स्पष्ट नहीं कह पाती देश और समाज को राह दिखाना उन बेचारों के बूते कहाँ? जो प्रतिज्ञाएँ करते है और मरकर भी उन्हें पूरा करने का प्रयत्न करते है, एसे दृढ स्वभाव के व्यक्ति आगे चलकर कुछ बडे काम कर पाते है।

 

 

 

🔴 शास्त्रीजी शोलापुर गये। उन्होंने मृत्यु की परवाह नहीं की। जेल चले गए यातनाएँ सहीं, पर उन्होंने की हुई प्रतिज्ञाओं से कभी पीछे कदम न हटाया। कर्तव्य पालन की इस दृढ़ता ने एक छोटे-से आदमी को बडा बना दिया। साधारण ग्रामीण को अंतरराष्ट्रीय ख्याति का प्रधानमंत्री बना दिया।

 

 

 

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

 

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 23, 24

 

 

 

👉 आराम नहीं काम चाहिए

 

 

 

🔴 एशिया के उद्योगशील और समृद्ध देशों में इन दिनों जापान की सर्वत्र चर्चा है। जानना चाहिये कि वही की समृद्धि का मूल कारण दैवी अनुकंपा नहीं वह श्रम और ईमानदारी है, जिसे जापानी नागरिक अपनी विरासत समझते है।

 

 

 

🔵 कुछ समय पूर्व एक अमेरिकन फर्म ने जापान में अपना व्यापार खोला। अमेरिका एक संपत्र देश है, वहाँ थोडे समय काम करके कम परिश्रम में भी लोग क्स्स्फी पैसा कमा लेते है, पर यह स्थिति जापान में कहाँ, वहाँ के लोग मेहनत-कश होते है, परिश्रम को वे शारीरिक संपत्ति मानते है। "जो मेहनत नही करता, वह अस्वस्थ होता है और समाज को विपन्न करता है" यह धारणा प्रत्येक जपानी नागरिक में पाई जाती है।

 

 

 

🔴 फर्म बेचारी को इसका क्या पता था? दूसरे देश में जाकर लोग आमतौर से अपने देश की उदारता ही दिखाने का प्रयास करते हैं। अमेरिका के उद्योगपति ने भी वही किया। उसने कर्मचारी जापानी ही रखने का फैसला किया, साथ ही यह भी निश्चय किया कि अमेरिकन कानून के अनुसार सप्ताह में केवल ५ दिन काम होगा। शनिवार और रविवार की छुट्टी रहेगी।

 

 

 

🔵 साहब बहादुर का विश्वास था कि इस उदारता से जापानियों पर बडा़ असर होगा, वे लोग प्रसन्न होकर दुआएँ देगे। पर एक दिन जब उन्होंने देखा कि फर्म के सभी कर्मचारी विरोध में प्रदर्शन कर रहे हैं तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अधिक से अधिक सहूलियतें दी गई हैं, फिर भी कर्मचारी विरोध कर रहे हैं, फर्म के मैनेजर एकाएक यह बात समझ नहीं सके।

 

 

 

🔴 यह तो अल्पबुद्धि के लोग होते हैं, जो अधिक आराम पाना सौभाग्य मानते हैं, पर आलस्य और अकर्मण्यता के कारण जो रोग और दारिद्रय छाए रहते हैं, उनकी ओर कदाचित् ध्यान ही नहीं जाता। यह बात समझ ली गई होती, तो आज सैकड़ों भारतवासी भी रोग, अस्वस्थता और कर्ज आदि से बच गए होते।

 

 

 

🔵 यह गुरु मंत्र कोई जापानी भाइयों से सीखे। आखिर विरोध का कारण जानने के लिये मैनेजर साहब ने कर्मचारियों के पास जाकर पूछा- ''आप लोगों को क्या तकलीफ है''

 

 

 

🔴 तकलीफ! उन लोगों ने उत्तर दिया- 'तकलीफ यह है कि हमें दो छुट्टियाँ नही चाहिए। हमारे लिए एक ही छुट्टी पर्याप्त है।'' ऐसा क्यों ?'' पूछने पर उन्होंने आगे बताया आप जानते होंगे कि अधिक आराम देने से हमारी खुशी बढे़गी तो यह आपका भ्रम हे। अधिक छुट्टियाँ होने से हम आलसी बन जाएँगे। परिश्रम करने में हमारा मन नहीं लगेगा और उसका दुष्प्रभाव हमारे वैयक्तिक और राष्ट्रीय जीवन पर पड़ेगा। हमारा स्वास्थ्य खराब होगा। छुट्टी के कारण इधर उधर घूमने में हमारा अपव्यय बढेगा। जो छुट्टी हमारा स्वास्थ्य गिराए और हमे आर्थिक भार से दबा दे- ऐसी छुट्टी हमारे जीवन में बिलकुल नहीं खपती।

 

 

 

🔵 अमेरिक उद्योगपति उनकी इस दूरदर्शिता और आदर्शवाद पर मुस्कराए बिना न रह सके। उन्हें कहना ही पडा़ जापनी भाइयों! आपकी समृद्धि और शीघ्र सफलता का रहस्य हम आज समझे। सचमुच परिश्रम और पुरुषार्थ ही समृद्धि की कुंजी है। आप लोग कभी निर्धन ओर अस्वस्थ नहीं रह सकते।''

 

 

 

🔴 न जाने यह बात हमारे देश वाले कब तक सीख पाएँगे ?

 

 

 

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

 

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 21, 22

 

 

 

👉 बन्दा बैरागी की साधना

 

 

 

🔴 बन्दा वैरागी भी इसी प्रकार समय की पुकार की अवहेलना कर, संघर्ष में न लगकर एकान्त साधना कर रहे थे। उन्हीं दिनों गुरुगोविन्दसिंह की बैरागी से मुलाकात हुई। उन्होंने एकान्त सेवन को आपत्तिकाल में हानिकारक बताते हुए कहा- "बन्धु! जब देश, धर्म, संस्कृति की मर्यादाएँ नष्ट हो रही है और हम गुलामी का जीवन बिता रहे है, आताताइयों के अत्याचार हम पर हो रहे है उस समय यह भजन, पूजन, ध्यान, समाधि आदि किस काम के हैं?"

 

 

 

🔵 गुरुगोविन्दसिंह की युक्तियुक्त वाणी सुनकर बन्दा वैरागी उनके अनुयायी हो गए और गुरु की तरह उसने भी आजीवन देश को स्वतन्त्र कराने, अधर्मियों को नष्ट करने और संस्कृति की रक्षा करने की प्रतिज्ञा की। इसी उद्देश्य के लिए बन्दा वैरागी आजीवन प्रयत्नशील रहे। मुसलमानों द्वारा वैरागी पकड़े गये, उन्हें एक पिंजरें में बन्द किया गया। मौत या धर्म परिवर्तन की शर्त रखी गई, लेकिन वे तिल मात्र भी विचलित नहीं हुए। अन्तत: आतताइयों ने उनके टुकड़े- टुकडे कर दिये। बन्दा अन्त तक मुस्कराते ही रहे। भले ही बन्दा मर गये परन्तु अक्षय यश और कीर्ति के अधिकारी बने।

 

 

 

🌹 प्रज्ञा पुराण भाग 1 पृष्ठ 18

 

 

 

👉 जगहित आपनि खोरि कराऊँ

 

 

 

🔴 संत रामानुजाचार्य ने श्रीरंगम के संन्यासी यतिराज से दीक्षा लेकर सन्यास आश्रम में प्रवेश किया। गुरुदेव ने उन्हें अष्टाक्षर नारायण मंत्र का उपदेश दिया और कहा वत्स! यह परम पवित्र मंत्र है। इसके निष्ठापूर्वक जप करने से साधु मोक्ष के अधिकारी होते हैं।

 

 

 

🔵 श्री यतिराज ने चलते समय यह भी कहा तात! यह मंत्र अधिकारी पात्र को ही दिया जाता है। इसका सस्वर उच्चारण मत करना। जिस किसी के कान में पड़ जाता है, वह पापी हो या पुण्यात्मा सभी पवित्र हो जाते हैं।

 

 

 

🔴 गुरुदेव से विदा होकर रामानुजाचार्य अपनी कुटिया में आए पर यह क्या! आज तो उनके मन में कल वाली शांति भी नहीं थी। मस्तिष्क में अंतर्द्वन्द चल रहा था।

 

 

 

🔵 उन्होंने विचार किया सारा संसार पाप की ज्वाला में जल रहा है। भगवान् की सृष्टि मे अमंगल नाम की कोई वस्तु नही है तो भी लोग पाप और बुरे कर्मो के कारण दुःखी हैं, यदि इन्हें पाप से बचाया जाना संभव हो तो क्यों संसार में किसी को कष्ट हो?

 

 

 

🔴 तभी गुरुदेव के वे शब्द याद आए- 'यह मंत्र जिसके कान में पड़ जाता है वही पवित्र हो जाता है।'' फिर यदि ऐसी शक्ति है इस मंत्र में तो उन्होंने उसे सस्वर उच्चारण के लिये मना क्यों किया। सन्यासी को एकमात्र लोकहित की चिंता होती है; फिर यह मंत्र जिसमें लोकहित का सार छुपा है, उसमें बंधन क्यों लगाया गया?

 

 

 

🔵 देर तक विचारमंथन चलता रहा। यदि गुरुदेव की आज्ञा मानता हूँ तो अपने सन्यास धर्म और संसार को पाप से बचाने के कर्तव्य से गिरता हूए अपनी हानि नहीं-पर लोक हानि होती है। यदि गुरुदेव की बात नहीं मानता तो आज्ञा उल्लंघन क पाप लगता है।

 

 

 

🔴 इस मानसिक संघर्ष में नीद नहीं आई। दो तिहाई रात ऐसे ही अंतर्द्वंद्व में बीती। प्रातःकाल होने को आया तो एकाएक रामानुजाचार्य उठे और मकान की छत पर चढ गये और खडे होकर जोर-जोर से-"ऊँ नमो नारायणाय"- "ऊँ नमो नारायणाय" चिल्लाने लगे। आसपास के सभी लोगों की नींद टूट गई। लोग चौंककर जाग बैठे। रामानुजाचार्य मंत्र भी चिल्लाते जाते थे और यह भी समझाते जाते थे- ''भाइयों! जो भी इस मंत्र का निष्ठापूवक जाप करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।'' एकदूसरे शिष्य को भेजकर गुरु यतिराज ने रामानुज को अपने पास बुलाया। रामानुज अपराधी की भाँति गुरुदेव के समीप जा खडे हुए। रात भर नींद न आने के कारण आँखें सूज रही थी।

 

 

 

🔵 नाराज स्वर मे गुरुदेव ने पूछा- रामानुज! तुझसे मना किया था, यह मंत्र किसी के कान मे नही पडना चाहिये, तूने मेरी आज्ञा का उल्लंघन कैसे किया ?

 

 

 

🔴 देव! रामानुजाचार्य ने विनम्र वाणी मैं कहा आपकी आझा का पालन न करने से मुझे महापातक लगेगा, यह मैं जानता हूँ; किन्तु भगवान के इस सुंदर संसार को पापी और दु़ःखी नही देखा जाता। इस मंत्र से सबका उद्धार हो जाए तो क्या बुरा, मुझे जो यातना मिलेगी वह सब सह लूंगा, पर संसार का तो कल्याण हो जाएगा।

 

 

 

🔵 यतिराज शिष्य क्य इस लोकमंगल की निष्ठा से गद्गगद् हो उठे। रामानुज को छाती से लगाकर उन्होंने कहा- "रामानुज! तू ही मेरा सच्चा शिष्य है। तू निश्चित ही एक दिन सारे संसार को प्रकाश देगा।"

 

 

 

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

 

🌹  संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 19, 20

 

 

 

👉 जडे़ कमजोर थी

 

 

 

🔴 एक रात भयंकर तूफान आया। सैकड़ों विशालकाय वृक्ष धराशायी हो गये। अनेक किशोर वृक्ष भी थे जो बच तो गये थे, पर बुरी तरह सकपकाये खड़े थे।

 

 

 

🔵 प्रात:काल आया, सूर्य ने अपनी रश्मियाँ धरती पर फेंकी। डरे हुए पौधों को देखकर किरणों ने पूछा- 'बालको। तुम इतना सहमे हुए क्यों हो। ' किशोर पौधों ने कहा- देवियो! ऊपर देखो हमारे कितने पुरखे धराशायी पड़े हैं। रात के तूफान ने उन्हें उखाड़ फेंका। न जाने कब यही स्थिति हमारी भी आ बने।

 

 

 

🔴 किरणें हँसी और बच्चों से बोली- तात! आओ इधर देखो- यह वृक्ष तूफान के कारण नहीं जड़ें खोखली हो जाने के कारण गिरे, तुम अपनी जड़ें मजबूत रखना, तूफान तुम्हारा कुछ भी बिगाड़ नहीं पायेंगे।

 

 

 

🔵 मनुष्यों का दीन- हीन होना विचित्र बात है। जब बिना साधनों के जंगल के जानवर स्वस्थ, निरोग और आमोद- प्रमोद का जीवन जी लेते हैं तो मनुष्य दु:खों का रोना क्यों रोये। स्पष्ट है उसकी तृष्णा, वासनायें और अहंता ही उसे श्मशान के भूत की तरह सताती रहती हैं। यदि व्यक्ति अपने दायरे को संकीर्ण न बनाता, इन तृष्णाओं के चंगुल में न फँसता तो दीन- दु:खी जीवन जीने की नौबत ही क्यों आती?

 

 

 

🌹 प्रज्ञा पुराण भाग 1 पृष्ठ 13

 

 

 

👉 अध्यवसायी-ईश्वरचंद्र

 

 

 

🔴 पं. ईश्वरचंद्र विद्यासागर के पिता दो-तीन रुपये मासिक के मजदूर थे। घर का गुजारा ही कठिनता से हो पाता था, तब पुत्र को पढ़ा सकने का प्रश्न ही न उठता था। किंतु उनकी यह इच्छा जरूर थी कि उनका पुत्र पढ़-लिखकर योग्य बने पर आर्थिक विवशता ने उन्हें इस इच्छा को महत्व देने से रोके रखा।

 

 

 

🔵 ईश्वरचंद्र जब कुछ सयाने हुए तो गाँव के लडकों को स्कूल जाता देखकर पिता से रोते हुए बोले- "मैं भी पढ़ने जाऊँगा।" पिता ने परिस्थिति बतलाते हुए कह- बेटा तेरे भाग्य में विद्या ही होती तो मेरे जैसे निर्धन के यही क्यों पैदा होता? कुछ और बडे होकर मेहनत मजदूरी करने की सोचना, जिससे ठीक तरह से पेट भर सके। पढ़ाई के विषय में सोचना फिजूल बात है।''

 

 

 

🔴 पिता की निराशापूर्ण बात सुनकर ईश्वरधंद्र मन मसोसकर रह गये। इससे अधिक वह बालक और कर भी क्या सकता था? पिता का उत्तर पाकर भी उसका उत्साह कम नहीं हुआ। उसने पढ़ने वाले अनेक छात्रों को मित्र बनाया और उनकी किताब से पूछकर पढ़ने लगा। इस प्रकार धीरे-धीरे उसने अक्षर-ज्ञान प्राप्त कर लिया और एक दिन कोयले से जमीन पर लिखकर, पिता को दिखलाया। पिता विद्या के प्रति उसकी लगन देखकर मन-ही मन निर्धनता को कोसने लगे। पुत्र को पढाने के लिए उनका हृदय अधीर हो उठा।

 

 

 

🔵 एक दिन कुछ अधिक कमाने के लिए वे ईश्वरचंद को लेकर कलकत्ता की ओर चल दिए। रास्ते में एक जगह सुस्ताने के लिए रुककर उन्होंने कहा-न जाने कितनी दूर चले आऐ हैं ? अनायास ही ईश्वरचंद्र बोल उठा- ६ मील पिताजी! उन्होंने आश्चर्य से पूछा- तुझे कैसे पता चला 'ईश्वरचंद्र ने बतलाया कि पास के मील पत्थर पर ६ लिखा है। पिता यह जानकर हर्ष-विभोर हो गये कि ईश्वरचंद्र ने चलते-चलते मील के पत्थरों से ही अंग्रेजी अंकों का ज्ञान कर लिया। वे उसे लेकर वही से घर वापस लौट पडे। रास्ते भर सोचते आए कि यदि ऐसे जिज्ञासु तथा उत्साही पुत्र को पढने से वंचित रखा तो यह बहुत बडा अपराध होगा। मैं एक वक्त खाऊँगा, घर को आधा पेट रखूँगा, किंतु ईश्वरचंद्र को पाठशाला अवश्य भेजूँगा। घर आकर उन्होंने ईश्वरचंद्र को गाँव की पाठशाला में भरती करा दिया।

 

 

 

🔴 गाँव से आगे पढा़ सकना तो पिता के लिये सर्वथा असंभव था। उन्होंने इनकार किया। इस पर ईश्वरचंद्र ने प्रार्थना की कि वे उसे किसी विद्यालय में भरती भर करा दें उसके बाद उसे कोई खर्च न दें। वह शहर में स्वयं उसका प्रबंध कर लेगा। पिता ने उनकी बात मान ली और उसे कलकत्ता के एक संस्कृत विद्यालय मे भरती करा दिया। विद्यालय में पहुँचकर ईश्वरचंद्र ने अपनी सेवा, लगन तथा योग्यता के बल पर शिक्षको को यही तक प्रसन्न कर लिया कि उनकी फीस माफ हो गई। पुस्तकों के लिए वह अपने सहपाठिर्यो का साझीदार हो जाता था।

 

 

 

🔵 अपनी इस व्यवस्था के साथ संतुष्ट रहकर ईश्वरचद्र ने अध्ययन में इतना परिश्रम किया कि उन्नीस वर्ष की आयु पहुंचते पहुँचते उन्होंने व्याकरण, साहित्य, अलंकार, स्मृति तथा वेदांत शास्त्र में निपुणता प्राप्त कर ली। उनकी असंदिग्ध विद्वता तथा तदनुकूल आचरण से प्रभावित होकर विद्वानों की एक सभा ने उन्हें मानपत्र के साथ "विद्यासागर" की उपाधि से विभूषित किया और उसके मूल्यांकन में अनुरोधपूर्वक फोर्ट विलियम संस्कृत कालेज में प्रधान पंडित के पद पर नियुक्त कर लिए गये। परिश्रम एवं पुरुषार्थ का सहारा लेने वाले ईश्वरचंद का जीवन ही बदल गया। वहाँ लोग उनके दो-चार रुपये मासिक का मजदूर बनने की सोच रहे थे और कही वे भारत के ऐतिहासिक व्यक्ति बनकर राष्ट्र के श्रद्धा पात्र बनकर अमर हो गये।

 

 

 

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

 

🌹  संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 17, 18

 

 

 

👉 बलि का तेज चला गया

 

 

 

🔴 राजा बलि असुर कुल में उत्पन्न हुए थे पर वे बड़े सदाचारी थे और अपनी धर्म परायपता के उनने बहुत वैभव और यश कमाया था। उनका पद इन्द्र के समान हो गया। पर धीरे- धीरे जब धन सें उत्पन्न होने वाले अहंकार, आलस्य, दुराचार जैसे दुर्गुण बढ़ने लगे तो उनके भीतर वाली शक्ति खोखली होने लगी।

 

 

 

🔵 एक दिन इन्द्र की बलि से भेंट हुई तो सबने देखा कि बलि के शरीर से एक प्रचण्ड तेज निकलकर इन्द्र के शरीर में चला गया है और बलि श्री विहीन हो गये।

 

 

 

🔴 उस तेज से पूछा गया कि आप कौन हैं? और क्यों बलि के शरीर से निकलकर इन्द्र की देह में गये? तो तेज ने उत्तर दिया कि मैं सदाचरण है। मैं जहां भी रहता हूँ वहीं सब विभूतियाँ रहती हैं।

 

 

 

🔵 बलि ने तब तक मुझे धारण किया जब तक उसका वैभव बढ़ता रहा था। जब इसने मेरी उपेक्षा कर दी तो मैं सौभाग्य को साथ लेकर, सदाचरण में तत्पर इन्द्र के यहाँ चला आया हूँ।

 

 

 

🔴 बलि का सौभाग्य सूर्य अस्त हो गया और इन्द्र का चमकने लगा, उसमें सदाचरण रूपी तेज की समाप्ति ही प्रधान कारण थी।

 

 

 

🔵 ऐसे भी व्यक्ति होतै हैं जो अपने व्यक्तित्व को ऊँचा उठाकर अपने को महामानव स्तर तक पहुँचा देते है, जन सम्मान पाते हैं। ऐसे निष्ठावानों से भारतीय- संस्कृति सदा से गौरवान्वित होती रही है।

 

 

 

🌹 प्रज्ञा पुराण भाग 1 पृष्ठ 12

 

 

 

👉 शिवजी कोढी बने

 

 

 

🔴 मनुष्य के चिन्तन और व्यवहार से ही आचरण बनता हैं। वातावरण से परिस्थिति बनती है और वही सुख-दुःख, उत्थान-पतन का निर्धारण करती हैं। जमाना बुरा है, कलयुग का दौर है, परिस्थितियाँ कुछ प्रतिकूल बन गयी हैं, भाग्य चक्र कुछ उल्टा चल रहा है-ऐसा कह कर लोग मन को हल्का करते हैं, पर इससे समाधान कुछ नहीं निकलता। जन समाज में से ही तो अग्रदूत निकलते हैं।

 

 

 

🔵 एक बार पार्वती ने शिवजी से पूछा-' भगवन्! लोग इतना कर्मकाण्ड करते हैं फिर भी इन्हें आस्था का लाभ क्यों नहीं मिलता? शिवजी बोले-धार्मिक कर्मकाण्ड होने पर भी मनुष्य जीवन में जो बने आडम्बर छाया है; यहीं अनास्था है। लोग धार्मिकता का दिखावा करते हैं, उनके मन वैसे नहीं है। परीक्षा लेने दोनों धरती पर आये।

 

 

 

🔴 मां पार्वती ने सुन्दरी साध्वी पत्नी का व शिवजी ने कोढ़ी का रूप धारण किया। मन्दिर की सीढ़ियों के समीप वे पति को लेकर बैठ गयीं। दानदाता दर्शनार्थ आते रहे व रुककर कुछ पल पार्वती जी को देखकर आगे बढ़ जाते। बेचारे शिवजी को गिनें चुनें कुछ सिक्के मिल पाये। कुछ दान दाताओं ने तो संकेत भी किया कि कहाँ इस कोढ़ी पति के साथ बैठी हो। इन्हें छोड दो। पार्वतीजी सहन नहीं कर पायीं, बोलीं-! प्रभु! लौट चलिए अब कैलाश पर। सहन नहीं होता इन पाखण्डियों के यह कुत्सित स्वरूप।

 

 

 

🔵 इतने में ही एक दीन-हीन भक्त आया, पार्वतीजी के चरण हुए और बोला- माँ! आप धन्य हैं जो पति परायण हो इनकी सेवा में लगी है। आइये! मैं इनके घावों को धो दूँ। फिर मेरे पास जो भी कुछ सतू आदि हैं, आप हम साथ-साथ खा लें। ब्राह्मण यात्री ने घावों पर पट्टी बाँधी, सतू थमा पुन: प्रणाम, कर ज्योंही आगे बढ़ा वैसे ही शिवजी ने कहा-' यही है भार्ये एकमात्र भक्त, जिसने मन्दिर में  प्रवेश से पूर्व निष्कपट भाव से सेवा धर्म को प्रधानता दी।

 

 

 

🔴 ऐसे लोग गिने चुने हैं। शेष तो सब आत्म प्रवंचना भर करते है व अवगति को प्राप्त होते हैं। शिव-पार्वती ने अपने वास्तविक स्वरूप में उस भक्त को दर्शन दिये। परमगति का अनुदान दिया व वापस लौट गये।

 

 

 

👉 रैदास के पैसे गंगाजी ने हाथ में लिए

 

 

 

🔴 सन्त रैदास मोची का काम करते थे। काम को वें भगवान् की पूजा मानकर पूरी लगन एवं ईमानदारी से पूरा करते थे। एक साधु को सोमवती अमावस्या के दिन गंगा स्नान करने को साथ- साथ चलने के लिए उन्होंने आश्वासन दिया था। साधु सदा जप- तप में तल्लीन रहते थे।

 

 

 

🔵 अमावस्या के स्नान का दिन निकट था। साधु रैदास के पास पहुँचे। गंगा स्नान की बात याद दिलायी। रैदास लोगों के जूते सीने का काम हाथ में ले चुके थे। समय पर देना था। अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए रैदास ने कहा 'महात्मन्! आप मुझे क्षमा करें। मेरे भाग्य में गंगा का स्नान नहीं है। यह एक पैसा लेते जाँय और गंगा माँ को मेरे नाम पर चढा देना। '

 

 

 

🔴 साधु गंगा सान के लिए संमय पर पहुँचे। स्नान करने के बाद उन्हें रैदास की बात स्मरण हो आयी। मन ही मन गंगा से बोले 'माँ यह पैसा रैदास ने भेजा है- स्वीकार करें। ' इतना कहना था कि गंगा की अथाह जल राशि से दो विशाल हाथ बाहर उभरे और पैसे को हथेली में ले लिया। साधु यह दृश्य देखकर विस्मित रह गये और सोचने लगे मैंने इतना जप- तप किया, गंगा आकर स्नान किया तो भी गंगा माँ की कृपा नहीं प्राप्त हो सकी, जब कि गंगा का बिना स्नान किए ही रैदास को अनुकुम्पा प्राप्त हो गयी।

 

 

 

🔵 वे रेदास के पास पहुँचे और पूरी बात बतायी। रैदास बोले- 'महात्मन्! यह सब कर्त्तव्य धर्म के निर्वाह का प्रतिफल है। इसकें मुझ अकिंचन के तप, पुरुषार्थ की कोई भूमिका नहीं।

 

 

 

🌹 प्रज्ञा पुराण भाग 1 पृष्ठ 8

 

 

 

👉 शैतानियत से इस तरह निपटा जाए

 

 

 

🔴 अल कैपोन जिस रास्ते निकल जाता लोग रास्ता छोड देते। जिस पदाधिकरी से भेंट से जाती, उसके प्राण सूख जाते। पुलिस और न्यायाधीश उसकी दृष्टि से उसका बचाव करते थे। बड़ा खूंखार और बेईमान था वह व्यक्ति। उसके गिरोह में कितने बदमाश थे, इसका पता भी नहीं चल सकता था। वह अकेले अवैध शराब के धंधे में ही ३ करोड डालर प्रतिवर्ष कमाता था, पर क्या मजाल कि कोई अधिकारी उस पर चूँ कर जाए। सब उसकी कृपा-दृष्टि के लिए लालायित रहा करते थे।

 

 

 

🔵 स्वस्थ और बलवान् रहा होगा पर वह कोई भूत नहीं था जो उससे घबराया जाता, पर जब मनुष्य की संघर्ष और बुराइयों से मुकाबले की शक्ति समाप्त हो जाती है, तब कोई छोटा-सा साहसी बालक भी रौब गालिब कर सकता है। यदि १००-५० व्यक्ति भी संगठित होकर खड़े हो जाते तो अल कोपेन जैसे २० दुष्टों को मार कर रख देते पर प्राणों का अकारण मोह और पस्त हिम्मत खा जाती है मनुष्य को। जिस समाज के लोग बुराइयों से डरते है उनसे लड नहीं सकते वे उन अमेरिकनों की भाँति ही सताए जाते रहते है। चाहे चीनी हो या भारतवासी। हम भी तो आए दिन अवांछनीय लोगों द्वारा सताए जाते है, पर कही यह हिम्मत होती है उनसे लड पडने की ?

 

 

 

🔴 बात धीरे-धीरे अमेरिकन राष्ट्रपति हर्बर्ट हूवर के कानों तक पहुंच गई। हर्बर्ट हूवर हैरान थे कि एक व्यक्ति का मुकाबला करना भी लोगों को कठिन है, फिर यदि चारों तरफ ऐसे लोगो का फैलाव हो जाये तो क्या हो ? उन्होंने निश्चय कर लिया जो भी हो एक अमेरिकन राष्ट्रपति और भी गोली का शिकार हो जलेगा ? पर शैतानियत को खुलकर खेलने का अवसर नहीं दिया जायेगा। यदि कोपेन कुछ बुरे लोगो का मार्गदर्शन कर सकता है तो हम हजारो अच्छे लोगों को किस तरह बुराइयों से निबटा जाता है ? यह सिखाने की जिंदादिली भी रखते है।

 

 

 

🔵 अभी वे नये-नये ही राष्ट्रपति चुने गए हैं। जब लोगों को विजयोल्लास की सूझ रछ थी, तब राष्ट्रपति की आँखों में देशवासियों के इस संकट की किरकिरी खटक रही थी, मियामी के एक होटल में राष्ट्रपति के सम्मान में स्वागत दिया गया था। उनके हजारों प्रशंसक और पार्टीमेन सम्मिलित हुए थे। दैवयोग से राष्ट्रपति और अल-कोपेन की भेंट वहीं हो गई। उपस्थित अधिकारियों की उपेक्षा करता हुआ वह सिगरेट का धुँआ अभद्रता से छोड़ता हुआ निकल गया; सबकी आँखे उधर गई पर किसी को मी टोकने की हिम्मत न पडी़। उन्हें पता था उसे छेड़ने का मूल्य प्राणों से चुकना पड़ सकता है।

 

 

 

🔴 राष्ट्रपति हूवर ने पूछा-कौन है यह ?

 

'अल कैपोन' लोगों ने बताया। राष्ट्रपति का उबलकर आया हुआ क्रोध दब तो गया, पर वह इस निश्चय में बदल गया कि अब इस धूर्त को जल्दी से मिट्टी चखाना चाहिए।

 

 

 

🔵 साथियों, सलाहकारों ने समझाया कि उससे मोर्चा लेना आसान बात नहीं है। वह कोई भी कांड कर सकता है। इस पर राष्ट्रपति ने कहा मैं कब चाहता हूँ कि मैं केवल आसान बातें ही निबटाता रहूँ। मनुष्य को परमात्मा ने ऐसी शक्ति दी है कि हर किसी को असाधारण कार्य के लिए तैयार रहना चाहिए।

 

 

 

🔴 राष्ट्रपति ने सूचना विभाग का एक पूरा दस्ता उसके पीछे लगा दिया। उसे पता भी चल गया और किसी अपराध की पुष्टि नहीं हो रही थी, पर इनकम टैक्स के मामले में वह पकड़ में आ गया और राष्ट्रपति ने आगे आकर उसे गिरफ्तार करा दिया। इस बार न्यायधीशों के पास राष्ट्रपति की हिम्मत थी, सो उसे ११ वर्ष की कडी सजा दी गई। कैपोन जब जेल से छूटा तब एक ढी़ला डाला मजदूर मात्र रह गया था। उसके गिरोह का पता भी न था।

 

 

 

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

 

🌹  संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 11, 12

 

 

 

👉 नौ सौ बच्चों के स्नेहपूर्ण पिता

 

 

 

🔴 शार्लोट (उत्तरी कैरोलाइना) के विला हाइट्स प्राथमिक स्कूल में चले जाइए। वहाँ के प्रधानाध्यापक श्री राल्फ क्लाइन को आप सदा बच्चों की चिंता में मग्न पायेंगे। इस शाला में नौ सौ बच्चे है। श्री राल्फ क्लाइन का बच्चों के प्रति अत्यंत की स्नेहसिक्त है।

 

 

 

🔵 अपनी कुर्सी पर बैठकर कार्य तो वे बहुत ही कम करते है। अधिकांश समय वे विद्यार्थियों तथा शिक्षकों के बीच गलियारों में घूमते हुये ही बिताते हैं, खाली समय मे भी वे विशेषत: ऐसे ही विद्यार्थियों को उद्बोधन देते रहते हैं, जिनकी रुचि पढ़ने-लिखने में कम होती है या जो किसी विशेष कमी के शिकार होते है।

 

 

 

🔴 इस शाला के बच्चों के लिए उनके सद्भाव, सद्व्यवहार, स्नेह तथा आत्मीयता की उपयोगितायों और अधिक बढ़ जाती है, क्योंकि उसमे अधिकांशत: पिछडे वर्ग के बच्चे ही शिक्षा पाते है।

 

 

 

🔵 किसी-किसी को तो जीवन की मूल आवश्यकताओ की पूर्ति के साधन भी उपलब्ध नहीं होते।

 

 

 

🔴 श्री क्लाइन का मत है कि जब तक बच्चे की मूल तथा प्रारंभिक आवश्यकताऐं पूर्ण नहीं होती-उससे अच्छी पढाई, या किसी भी कुशलता अथवा सफलता की आशा करना व्यर्थ है। उन्होंने अपनी शाला में दोपहर के निःशुल्क भोजन की व्यवस्था की है। कभी-कभी नाश्ता भी दिया जाता है।

 

 

 

🔴 वे स्वयं प्रत्येक कठिनाइ का हल निकालकर, छात्रों तथा शिक्षकों की समस्याओं का समाधान करते हैं। उनका व्यवहार उन सबके प्रति वैसा ही है, जैसा किसी परिवार के मुखिया का होता है। बच्चों से असीम स्नेह-अतुल प्यार तथा आत्मीयतापूर्ण अपनापन। किंतु साथ ही इतनी स्वतंत्रता भी नहीं कि उच्छृंखलता को किसी प्रकार का बढावा मिले।

 

 

 

🔵 उनके प्रशिक्षण का ढंग अत्यंत ही अनुशासित तथा व्यवस्थित है। प्रत्येक विद्यार्थी के विषय में वे पूरी जानकारी रखते हैं कि उसकी मनोभूमि किस स्तर की है उसी प्रकार वे उससे व्यवहार तथा आशाएँ रखते हैं।

 

 

 

🔴 उनका कहना है कि बच्चे अपनी सहज ग्रहणशीलता के आधार पर यह जान जाते हैं कि आप उनका ध्यान रखते हैं या नहीं। अपने शिक्षको को भी उन्होंने इस प्रकार के निर्देश दे रखे हैं कि वे बालक बालिकाओं से अत्यंत ही प्रेम पूर्ण व्यवहार करें। गलती भी समझाएँ, पर उचित तथा मनोवैज्ञानिक ढंग से।

 

 

 

🔵 हाँ और यदि कोई बच्चा सीधे-सीधे समझाने तथा प्रयत्न करने पर भी सही रास्ते पर नहीं आता, तब कडाई का व्यवहार भी करते हैं उसी प्रकार जैसे एक अनुभवी पिता अपने बच्चों को गलत राह जाने से रोकता है। उनका अपना भी यही मत है कि बच्चों के मस्तिष्क मे यह बात भली-भॉति बैठा देनी चाहिए कि शिक्षक उनके साथ तभी कड़ा बर्ताव करता है, जबकि कुछ गलत कार्य मना करने पर भी करते है और शिक्षक तब बहुत प्यार करते हैं-जब बच्चे कोई अच्छा और उत्साहवर्द्धक कार्य करते है।

 

 

 

🔴 श्री क्लाइन-अपने आप में आदर्श शिक्षक के एक उदाहरण हैं। चालीस वर्ष की अवस्था में भी युवकों जैसी स्फूर्ति तथा उत्साह एवं हँसमुख स्वभाव उनके व्यक्तित्व का विशेष आकर्षण  है। आज के शिक्षकों को जो अपना उत्तरदायित्व पूर्ण रूप से नहीं निभाते इनसे बहुत कुछ सीखना चाहिए।

 

 

 

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

 

🌹  संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 11, 12

 

 

 

👉 निर्बुद्धि संत और विद्वान बुढ़िया

 

 

 

🔴 एक दिन संत कन्फ्यूशियस के पास उनके कुछ शिष्य जाकर बोले गुरुदेव सच्चा झानी कौन होता है ?''

 

 

 

🔵 कन्फ्यूशियस ने कहा सब लोग बैठ जाओ, अभी बताते हैं-यह कहकर उन्होंने अपनी शेष दिनचर्या पूरी की और कपडे पहने फिर सब शिष्यों को लेकर एक ओर चल पडे।

 

 

 

🔴 सब लोग एक गुफा के अंदर प्रविष्ट हुए। वहाँ एक महात्मा निवास करते थे। जप, तप और चिंतन में अपना समय बिताया करते थे। कन्फ्यूशियस ने उनके प्रणाम किया और एक ओर बैठ गये फिर शांत होकर पूछा-भगवन! हम लोग आपके पास ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करने आए है बताइए यह कौन है? क्या है? कहाँ रहता है ?

 

 

 

🔵 महात्मा बिगड उठे "तुम लोग यहां मेरी शांति भंग करने क्यों आ गये, भागो मेरे भजन में विघ्न पड़ता है।" कन्फ्यूशियस शिष्यों को लेकर बाहर निकल आए। उन्होंने कहा एक ज्ञानी तो यह है कि जिन्होंने संसार से आँखें मूँद ली है। संसार में सुख-दुःख की परिस्थितियों से अलग एकांत मे शांति का इच्छा रखने वाले यह संत छोटे दर्ज के ज्ञानी हुए।''

 

 

 

🔴 और अब वे गांव में पहुँचे जहाँ एक तेली कोल्हू चला रहा था। बैल की आँखें बँधी थीं, वह अपनी मस्त चाल में उतना दायरा न मालूम कब से नाप रहा था और तेली कोल्ह पर बैठा कोई गीत गुनगुना रहा था।

 

 

 

🔴 कन्फ्यूशियस ने कहा- "भाई मैंने सुना है कि तुम ब्रहाज्ञानी हो, हमें भी थोडा ब्रह्म का उपदेश कीजिए।" तेली ने हँसकर उत्तर दिया- "भाई यह बैल ही मेरा ब्रह्म, मेरा परमात्मा है। इसकी सेवा मैं करता हूँ, यह मेरी सेवा करता है। बस हम दोनों सुखी हैं, सुख ही ब्रह्म है।''

 

 

 

🔵 गुरुदेव बाहर निकले और शिष्यों को संबोधित कर कहा- 'मध्यम ज्ञानी प्रबुद्ध गृहस्थ के रूप में यह तेली है, जिसके मन में ज्ञान-प्राप्ति की आकांक्षा है, यह धीरे-धीरे अपने लक्ष्य की ओर बढ रहा है।''

 

 

 

🔴 अब वे फिर आगे बढे़। उन्होंने कहा- 'संसार की खुली परिस्थितियों का अध्ययन करने से स्थिति का उतना अच्छा ज्ञान हो सकता है जितना कि पुस्तको के पढ़ने अथवा महात्माओं के प्रवचन से नहीं हो सकता। पुस्तक तो एक व्यक्ति का दृष्टिकोण होती है, प्रवचन एक व्यक्ति की ज्ञान-साधना का निष्कर्ष इसलिये संसार को देखो और यह पता लगाओ कि स्पष्ट स्थिति कहाँ है और भ्रम कहाँ जो निर्विकार और सही हो उसे तुम्हारी बुद्धि आप स्वीकार करेगी, फिर उसे अपने जीवन में धारण करने से कल्याण हो सकता है।"

 

 

 

🔵 इस तरह बातचीत करते हुए वे एक बुढि़या के दरवाजे पर रुके। कई लड़के बुढ़ि़या के आस-पास शोरगुल कर रहे थे। बुढि़या चरखा कात रही थी। बीच-बीच में किसी बच्चे के माँगने पर पानी पिला देती, कभी किसी नटखट बालक को डांट भी देती। कभी किसी को हँसकर समझाती, फिर बच्चे खेलने लगते तो वह भी अपना चरखा कातने में मग्न हो जाती।

 

 

 

🔴 कन्फ्यूशियस जैसे ही वहाँ पहुँचे सब लड़के भाग गए। उन्होंने पूछा माता जी! आप कृपा कर यह बताइये क्या आपने ईश्वर देखा है ?

 

 

 

🔵 बुढिया मुस्कराई और बोली हाँ-हाँ बेटा। वह अभी यहीं खेल रहा था, आपको देखते ही भाग गया। वह निरर्थक शोरगुल, बच्चों का रूठना, मेरा मनाना फिर हँसी फिर विनोद यही तो ईश्वर था जो तुम्हारे यहाँ आते ही चला गया।"

 

 

 

🔴 कन्फ्यूशियस शिष्यों को साथ लेकर घर लौट पडे़ उन्होंने बताया- निष्काम ज्ञानी के रूप में यह बुढिया ही सच्ची ज्ञानी है जो ज्ञान का संबंध किसी उपयोग या लाभ से नही जोड़ती, उसे उन्मुक्त रखकर स्वयं भी मुक्त-भाव का अनुभव करती है।''

 

 

 

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

 

🌹  संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 9, 10

 

 

 

👉 सबसे बड़ी पराजय का दिन

 

 

 

🔴 पेरिस संसार का सबसे खूबसूरत शहर माना जाता हैं-सौंदर्य या नग्न संस्कृति के लिए। और कुछ तो हम नहीं कह सकते, पर जिस दिन हम उस शहर की धरती पर उतरे थे, उससे मोहित हुए बिना न रह सके। जी भरकर उसे देखा। एक ही स्थान को कई बार देखा फिर भी आकर्षण कम न हुआ। हमारे अमेरिकन मित्र-टामसन रिचे जिनके साथ हम विशेष अध्ययन के लिए मिशगन जाते हुए यहाँ ठहरे थे, हमारे साथ ही थे। उन्होंने ही सारा शहर भली भॉति घुमाया। अंत मे उनका आभार मानते हुए कहना ही पडा-'मित्र! आखिर आपकी कृपा से विश्व के इस अद्वितीय सौंदय को समीप से देखने का सौभाग्य सफल हो गया।''

 

 

 

🔵 आशा की थी कि इस आभार-प्रदर्शन से मित्र महोदय प्रसन्न होंगे। हम इतने आदर्शवादी हो गये हैं कि बात-बात में प्रशंसा करने लगते हैं, इससे हमें झूठा आत्म-सतोष तो संभव है मिल जाए, पर अति आदर्शवाद का अर्थ है यथार्थता से विमुख होना। संसार में अनेक प्रकार की सुंदर से सुंदर वस्तुऐं है, पर हम किसी एक सौंदर्य पर ही इतना आसक्त हो जाते हैं कि सृष्टि की अन्य सुंदरताओं की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। हम समझते हैं आज का सपूर्ण भौतिकवादी समाज ज्ञान की इस संकीर्ण कोठरी मे बंद है। परमात्मा की सृष्टि कितनी विशाल! कितनी शोभायुक्त और दर्शनीय!!। उसका अवलोकन करने के लिए जिस बंधनमुक्त आत्मा की जरूरत है, उधर हमारा ध्यान ही नहीं जाता, क्योंकि हम आसक्त हैं, भौतिकता की चमक से चकाचौंध है।

 

 

 

🔴 हुआ प्रत्याशा से विरुद्ध। मित्र महोदय ने एक व्यंग भरी मुस्कान छोडते हुए कहा-''अनिल! काश तुम्हारे शब्दों का समर्थन कर पाता तो बडी प्रसन्नता होती, पर यह कहते हुए बडा दुख होता है जिन भारतीयों ने विश्व को अध्यात्म ज्ञान की गंगा से नहला कर स्वच्छ किया वही पाश्चात्य-दर्शन के गुण गाते हैं। वेद, गीता, रामायण, महाभारत का नाम भी अच्छी प्रकार नहीं जानते पर पैराडाइस लास्ट, हैमलेट या जूलियस सीजर पर अनेकों थीसिस लिख सकते हैं। भारतीय संगीत, कला की गंभीरता को भूलकर, पश्चिम की कला के पैर पूजते है। हिंदू होकर हिंदी नहीं जानते और अंग्रेजी का कोई क्षेत्र नहीं छोड़ते। भारतीयों को अपनी इस पराधीन स्थिति पर भले ही संकोच न होता हो, पर हम दुःख से नत हो जाते हैं कि यथार्थवादी सत्य-शिव-सुंदर का प्रतिपालक भारतीय तत्त्व-ज्ञान ही नष्ट हो गया तो इस विश्व का क्या होगा ?"

 

 

 

🔵 टामसन साहब उस समय साक्षात रुद्र की भाँति लग रहे थे। साँस लेकर पुन: बोले- 'मेरा मतव्य यही है कि सब अच्छी वस्तुएँ भारतवर्ष में ही है, वरन् जो विश्व में है वह भारत में अवश्य है। मैं १० वर्ष भारत में गाँव-गाँव घूमा हूँ। हिमालय का सा सौंदर्य इस तुच्छ पेरिस में कहाँ है। गंगोत्री, अमरनाथ, दार्जिलिंग, वृंदावन, मीनाक्षी, श्रीरंगपट्टम जैसा प्राकृतिक और आध्यात्मिक सौंदर्य दुनिया में कहाँ मिलेगा ? संस्कृत-सी देवभाषा की समता नादान अंग्रेजी कर सके, इतनी प्रौढ़ता उसमें कहाँ, मेरे मित्र! मुझे दुःख है कि आप श्रेष्ठता ढू़ँढने अमेरिका और पेरिस दौड़े आते हैं, धन्य है आपकी स्वतंत्रता और विचार-साधीनता!

 

 

 

🔴 सचमुच मेरी हिम्मत न हुई कि मैं टामसन रिचे के आगे मुँह उठा सकूँ लज्जा से धरती में गड़ा जा रहा था। भारतीय होकर भी अपनी अभारतीयता की स्थिति पर तब इतना क्षोभ हुआ, शायद उतना अपनी माँ की मृत्यु पर भी न हुआ हो। वास्तव मे वह मेरी सबसे बड़ी पराजय थी। उस दिन से मुझे भारतीय वेशभूषा पसंद है। वेद, गीता, रामायण आदि का स्वाध्याय कर लेता हूँ। इनमे जो भावनात्मक आनंद आता है, वह अंग्रेजी-उपन्यासों मैं कदापि नहीं मिला। अब विदेश घूमने की इच्छा कभी नहीं होती, वहाँ जाकर अपना आत्माभिमान क्यों बेचें ?

 

 

 

👉 दोस्त का जवाब

 

🔴 बहुत समय पहले की बात है, दो दोस्त बीहड़ इलाकों  से होकर शहर जा रहे थे. गर्मी बहुत अधिक होने के कारण वो बीच-बीच में रुकते और आराम करते. उन्होंने अपने साथ खाने-पीने की भी कुछ चीजें रखी हुई थीं. जब दोपहर में उन्हें भूख लगी तो दोनों ने एक जगह बैठकर खाने का विचार किया।

 

 

 

🔵 खाना खाते – खाते दोनों में किसी बात को लेकर बहस छिड गयी..और धीरे-धीरे बात इतनी बढ़ गयी कि एक दोस्त ने दूसरे को थप्पड़ मार दिया. पर थप्पड़ खाने के बाद भी दूसरा दोस्त चुप रहा और कोई विरोध नहीं किया….बस उसने पेड़ की एक टहनी उठाई और उससे मिटटी पर लिख दिया आज मेरे सबसे अच्छे दोस्त ने मुझे थप्पड़ मारा।

 

 

 

🔴 थोड़ी देर बाद उन्होंने पुनः यात्रा शुरू की, मन मुटाव होने के कारण वो बिना एक-दूसरे से बात किये आगे बढ़ते जा रहे थे कि तभी थप्पड़ खाए दोस्त के चीखने की आवाज़ आई, वह गलती से दलदल में फँस गया था…दूसरे दोस्त ने तेजी दिखाते हुए उसकी मदद की और उसे दलदल से निकाल दिया।

 

 

 

🔴 इस बार भी वह दोस्त कुछ नहीं बोला उसने बस एक नुकीला पत्थर उठाया और एक विशाल पेड़ के तने पर लिखने लगा आज मेरे सबसे अच्छे दोस्त ने मेरी जान बचाई।

 

 

 

🔵 उसे ऐसा करते देख दूसरे मित्र से रहा नहीं गया और उसने पूछा, जब मैंने तुम्हे थप्पड़ मारा तो तुमने मिटटी पर लिखा और जब मैंने तुम्हारी जान बचाई तो तुम पेड़ के तने पर कुरेद -कुरेद कर लिख रहे हो, ऐसा क्यों?

 

 

 

🔵 जब कोई तकलीफ दे तो हमें उसे अन्दर तक नहीं बैठाना चाहिए ताकि क्षमा रुपी हवाएं इस मिटटी की तरह ही उस तकलीफ को हमारे जेहन से बहा ले जाएं, लेकिन जब कोई हमारे लिए कुछ अच्छा करे तो उसे इतनी गहराई से अपने मन में बसा लेने चाहिए कि वो कभी हमारे जेहन से मिट ना सके.” दोस्त का जवाब आया।

 

 

 

👉 आप हाथी नहीं इंसान हैं!

 

 

 

🔴 एक आदमी कहीं से गुजर रहा था, तभी उसने सड़क के किनारे बंधे हाथियों को देखा, और अचानक रुक गया. उसने देखा कि हाथियों के अगले पैर में एक रस्सी बंधी हुई है, उसे इस बात का बड़ा अचरज हुआ की हाथी जैसे विशालकाय जीव लोहे की जंजीरों की जगह बस एक छोटी सी रस्सी से बंधे हुए हैं!! ये स्पष्ठ था कि हाथी जब चाहते तब अपने बंधन तोड़ कर कहीं भी जा सकते थे, पर किसी वजह से वो ऐसा नहीं कर रहे थे।

 

🔵 उसने पास खड़े महावत से पूछा कि भला ये हाथी किस प्रकार इतनी शांति से खड़े हैं और भागने का प्रयास नही कर रहे हैं?

 

 

 

🔴 तब महावत ने कहा, इन हाथियों को छोटे पर से ही इन रस्सियों से बाँधा जाता है, उस समय इनके पास इतनी शक्ति नहीं होती की इस बंधन को तोड़ सकें. बार-बार प्रयास करने पर भी रस्सी ना तोड़ पाने के कारण उन्हें धीरे-धीरे यकीन होता जाता है कि वो इन रस्सियों को नहीं तोड़ सकते, और बड़े होने पर भी उनका ये यकीन बना रहता है, इसलिए वो कभी इसे तोड़ने का प्रयास ही नहीं करते।

 

 

 

🔵 आदमी आश्चर्य में पड़ गया कि ये ताकतवर जानवर सिर्फ इसलिए अपना बंधन नहीं तोड़ सकते क्योंकि वो इस बात में यकीन करते हैं!!

 

 

 

🔴 इन हाथियों की तरह ही हममें से कितने लोग सिर्फ पहले मिली असफलता के कारण ये मान बैठते हैं कि अब हमसे ये काम हो ही नहीं सकता और अपनी ही बनायीं हुई मानसिक जंजीरों में जकड़े-जकड़े पूरा जीवन गुजार देते हैं।

 

 

 

🔵 याद रखिये असफलता जीवन का एक हिस्सा है, और निरंतर प्रयास करने से ही सफलता मिलती है. यदि आप भी ऐसे किसी बंधन में बंधें हैं जो आपको अपने सपने सच करने से रोक रहा है तो उसे तोड़ डालिए….. आप हाथी नहीं इंसान हैं।

 

 

 

👉 कर्तव्य का पाठ

 

 

 

🔴 तपस्वी जाजलि श्रद्धा पूर्वक वानप्रस्थ धर्म का पालन करने के बाद खडे़ होकर कठोर तपस्या करने लगे।उन्हें गतिहीन देखकर पक्षियों ने उन्हें कोई वृक्ष समझ लिया और उनकी जटाओं में घोंसले बनाकर अंडे दे दिए।

 

 

 

🔵 अंडे बढे़ और फूटे, उनसे बच्चे निकले। बच्चे बड़े हुए और उड़ने भी लगे। एक बार जब बच्चे उड़कर पूरे एक महीने तक अपने घोंसले में नहीं लौटे, तब जाजलि हिले।

 

 

 

🔴 वह स्वयं अपनी तपस्या पर आश्चर्य करने लगे और अपने को सिद्ध समझने लगे। उसी समय आकाशवाणी हुई, 'जाजलि, गर्व मत करो। काशी में रहने वाले व्यापारी तुलाधार के समान तुम धार्मिक नहीं हो।'

 

 

 

🔵 आकाशवाणी सुनकर जाजलि को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह उसी समय काशी चल पड़े। उन्होंने देखा कि तुलाधार तो एक अत्यंत साधारण दुकानदार हैं। वह अपनी दुकान पर बैठकर ग्राहकों को तौल-तौलकर सौदा दे रहे थे।

 

 

 

🔴 जाजलि को तब और भी आश्चर्य हुआ जब तुलाधार ने उन्हें उठकर प्रणाम किया, उनकी तपस्या, उनके गर्व तथा आकाशवाणी की बात भी बता दी। जाजलि ने पूछा, 'तुम्हें यह सब कैसे मालूम?' तुलाधार ने विनम्रतापूर्वक कहा, 'सब प्रभु की कृपा है। मैं अपने कर्त्तव्य का सावधानी से पालन करता हूं। न मद्य बेचता हूं, न और कोई निंदित पदार्थ। अपने ग्राहकों को मैं तौल में कभी ठगता नहीं। ग्राहक बूढ़ा हो या बच्चा, वह भाव जानता हो या न जानता हो, मैं उसे उचित मूल्य पर उचित वस्तु ही देता हूं। किसी पदार्थ में दूसरा कोई दूषित पदार्थ नहीं मिलाता। ग्राहक की कठिनाई का लाभ उठाकर मैं अनुचित लाभ भी उससे नहीं लेता हूं। ग्राहक की सेवा करना मेरा कर्त्तव्य है, यह बात मैं सदा स्मरण रखता हूं। मैं राग-द्वेष और लोभ से दूर रहता हूं। यथाशक्ति दान करता हूं और अतिथियों की सेवा करता हूं। हिंसारहित कर्म ही मुझे प्रिय है। कामना का त्याग करके संतोषपूर्वक जीता हूं।'

 

 

 

🔵 जाजलि समझ गए कि आखिर क्यों उन्हें तुलाधार के पास भेजा गया। उन्होंने तुलाधार की बातों को अपने जीवन में उतारने का संकल्प किया।

 

 

 

👉 काबिलियत की पहचान

 

 

 

🔴 किसी जंगल में एक बहुत बड़ा तालाब था। तालाब के  पास एक बागीचा था, जिसमे अनेक प्रकार के पेड़ पौधे लगे थे दूर- दूर से लोग वहाँ आते और बागीचे की तारीफ करते।

 

 

 

🔵 गुलाब के पेड़ पर  लगा पत्ता हर रोज लोगों को आते-जाते और फूलों की तारीफ करते देखता, उसे लगता की हो सकता है एक दिन कोई उसकी भी तारीफ करें, पर जब काफी दिन बीत जाने के बाद भी किसी ने उसकी तारीफ नहीं की तो वो काफी हीन महसूस करने लगा उसके अन्दर तरह-तरह के विचार आने लगे— सभी लोग गुलाब और अन्य फूलों की तारीफ करते नहीं थकते पर मुझे कोई देखता तक नहीं, शायद मेरा जीवन किसी काम का नहीं …कहाँ ये खूबसूरत फूल और कहाँ मैं… और ऐसे विचार सोच कर वो पत्ता काफी उदास रहने लगा।

 

 

 

🔴 दिन यूँ ही बीत रहे थे कि एक दिन जंगल में बड़ी जोर-जोर से हवा चलने लगी और देखते-देखते उसने आंधी का रूप ले लिया. बागीचे के पेड़-पौधे तहस-नहस होने लगे, देखते-देखते सभी फूल ज़मीन पर गिर कर निढाल हो गए, पत्ता भी अपनी शाखा से अलग हो गया और उड़ते-उड़ते तालाब में जा गिरा।

 

 

 

🔵 पत्ते ने देखा कि उससे कुछ ही दूर पर कहीं से एक चींटी हवा के झोंको की वजह से तालाब में आ गिरी थी और अपनी जान बचाने के लिए संघर्ष कर रही थी।

 

 

 

🔴 चींटी प्रयास करते-करते काफी थक चुकी थी और उसे अपनी मृत्यु तय लग रही थी कि तभी पत्ते ने उसे आवाज़ दी, घबराओ नहीं, आओ, मैं तुम्हारी मदद कर देता हूँ। और ऐसा कहते हुए अपनी उपर बैठा लिया. आंधी रुकते-रुकते पत्ता तालाब के एक छोर पर पहुँच गया; चींटी किनारे पर पहुँच कर बहुत खुश हो गयी और बोली,  आपने आज मेरी जान बचा कर बहुत बड़ा उपकार किया है, सचमुच आप महान हैं, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद!

 

 

 

🔵 यह सुनकर पत्ता भावुक हो गया और बोला, धन्यवाद तो मुझे करना चाहिए, क्योंकि तुम्हारी वजह से आज पहली बार मेरा सामना मेरी काबिलीयत से हुआ, जिससे मैं आज तक अनजान था. आज पहली बार मैंने अपने जीवन के मकसद और अपनी ताकत को पहचान पाया हूँ…

 

 

 

🔴 मित्रों, ईश्वर ने हम सभी को अनोखी शक्तियां दी हैं; कई बार हम खुद अपनी काबिलीयत से अनजान होते हैं और समय आने पर हमें इसका पता चलता है, हमें इस बात को समझना चाहिए कि किसी एक काम में असफल होने का मतलब हमेशा के लिए अयोग्य होना नहीं है। खुद की काबिलीयत को पहचान कर आप वह काम  कर सकते हैं, जो आज तक किसी ने नहीं किया है!

 

 

 

👉 तीन मछलियां

 

 

 

 

 

🔴 एक सरोवर मे तीन दिव्य मछलिया रहती थी। वहाँ की तमाम मछलिया उन तीनो के प्रति ही श्रध्दा मे बटी हुई थी।

 

 

 

🔵 एक मछली का नाम व्यावहारिक बुद्धि था, दूसरी का नाम मध्यम बुद्धि और तीसरी का नाम अति बुद्धि था।

 

 

 

🔴 अति बुद्धि के पास ज्ञान का असीम भंडार था। वह सभी प्रकार के शास्त्रों का ज्ञान रखती थी। मध्यम बुद्धि को उतनी ही दूर तक सोचने की आदत थी, जिससे उसका वास्ता पड़ता था। वह सोचती कम थी, परंपरागत ढंग से अपना काम किया करती थी। व्यवहारिक बुद्धि न परंपरा पर ध्यान देती थी और न ही शास्त्र पर। उसे जब जैसी आवश्यकता होती थी निर्णय लिया करती थी और आवश्यकता न पड़ने पर किसी शास्त्र के पन्ने तक नहीं उलटती थी।

 

 

 

🔵 एक दिन कुछ मछुआरे सरोवर के तट पर आये और मछलियों की बहुतायत देखकर बाते करने लगे कि यहाँ काफी मछलियाँ है, सुबह आकर हम इसमें जाल डालेंगे।

 

 

 

🔴 उनकी बाते मछलियों ने सुनी।

 

 

 

🔵 व्यवहारिक बुद्धि ने कहा-” हमें फौरन यह तालाब छोड़ देना चाहिए। पतले सोतों का मार्ग पकड़कर उधर जंगली घास से ढके हुए जंगली सरोवर में चले जाना चाहिये।”

 

 

 

🔴 मध्यम बुद्धि ने कहा- ” प्राचीन काल से हमारे पूर्वज ठण्ड के दिनों में ही वहाँ जाते है और अभी तो वो मौसम ही नहीं आया है, हम हमारे वर्षों से चली आ रही इस परंपरा को नहीं तोड़ सकते। मछुआरों का खतरा हो या न हो, हमें इस परंपरा का ध्यान रखना है।”

 

 

 

🔵 अति बुद्धि ने गर्व से हँसते हुए कहा-” तुम लोग अज्ञानी हो, तुम्हें शास्त्रों का ज्ञान नहीं है। जो बादल गरजते है वे बरसते नहीं है। फिर हम लोग एक हजार तरीकों से तैरना जानते है, पानी के तल में जाकर बैठने की सामर्थ्यता है, हमारे पूंछ में इतनी शक्ति है कि हम जालो को फाड़ सकती है। वैसे भी कहा गया है कि सकटों से घिरे हुए हो तो भी अपने घर को छोड़कर परदेश चले जाना अच्छी बात नहीं है। अव्वल तो वे मछुआरे आयेंगे नहीं, आयेंगे तो हम तैरकर नीचे बैठ जायेगी उनके जाल में आयेंगे ही नहीं, एक दो फंस भी गई तो पुँछ से जाल फाड़कर निकल जायेंगे। भाई! शास्त्रों और ज्ञानियों के वचनों के विरुद्ध मैं तो नहीं जाऊँगी।”

 

 

 

🔴 व्यवहारिक बुद्धि ने कहा-” मैं शास्त्रों के बारे में नहीं जानती, मगर मेरी बुद्धि कहती है कि मनुष्य जैसे ताकतवर और भयानक शत्रु की आशंका सिर पर हो, तो भागकर कही छुप जाओ।” ऐसा कहते हुए वह अपने अनुयायिओं को लेकर चल पड़ी।

 

 

 

🔵 मध्यम बुद्धि और अति बुद्धि अपने परपरा और शास्त्र ज्ञान को लेकर वही रूक गयीं। अगले दिन मछुआरों ने पुरी तैयारी के साथ आकर वहाँ जाल डाला और उन दोनों की एक न चली। जब मछुआरे उनके विशाल शरीर को टांग रहे थे तब व्यवहारिक बुद्धि ने गहरी साँस लेकर कहा-” इनके शास्त्र ज्ञान ने ही धोखा दिया। काश! इनमें थोड़ी व्यवहारिक बुद्धि भी होती।”

 

 

 

🔴 व्यवहारिक बुद्धि से हमारा आशय है कि किस समय हमें क्या करना चाहिए और जो हम कर रहे है उस कार्य का परिणाम निकलने पर क्या समस्यायें आ सकती है, यह सोचना ही व्यवहारिक बुद्धि है। बोलचाल की भाषा में हम इसे सामान्य ज्ञान (कॉमन सेंस) भी कहते हैं, और भले ही हम बड़े ज्ञानी ना हों मोटी-मोटी किताबें ना पढ़ीं हों लेकिन हम अपनी व्यवहारिक बुद्धि से किसी परिस्थिति का सामना आसानी से कर सकते हैं।

 

 

 

 

 

👉 खरा सौदा

 

 

 

🔴 किसी गांव में एक साहूकार रहता था। उसके तीन बेटे थे-रामलाल, श्यामलाल, मोहन कुमार। साहूकार के पास रुपए पैसे की कमी न थीं। किंतु अब उसकी उम्र बढ़ रही थी। वह अधिक मेहनत नहीं कर पाता था। इसलिए उसने सोचा कि चलो अपना व्यापार बेटों को सौंप दूं।

 

 

 

🔵 साहूकार चाहता था कि उसका धन गलत हाथों में पड़कर बर्बाद न हो जाए। इसलिए उसने अपने बेटों की परीक्षा लेने का मन बनाया। उसने बातों-बातों में कहा-‘ईश्वर तो सब जगह रहता है। वह तुम्हारी रक्षा करेगा। तुम लोग मुझे ऐसी जगह से एक-एक अशर्फी लाकर दो, जहां कोई देख न रहा हो।’

 

 

 

🔴 तीनों बेटे पिता की बात सुनकर चल पड़े। रामलाल को पता था के पिता जी पैसा कहां रखते हैं? जब साहूकार सो रहा था तो उसने एक अशर्फी चुपके से उठा ली। इसी तरह श्यामलाल ने मां की संदूकची में से अशर्फी चुराई। लेकिन मोहन को पिता की बात भूली न थी।

 

 

 

🔵 उसने सोचा-‘पिता जी ने कहा था कि ईश्वर सब जगह रहता है फिर तो वह मेरी चोरी देख लेगा?’ उसने कहीं से भी अशर्फी नहीं ली। दोनों भाइयों ने बड़ी शान से अपनी अक्लमंदी पिता को बताई। जब मोहन ने अपनी बात बताई तो साहूकार ने उसे गले से लगा लिया। मोहन पिता जी की परीक्षा में खरा उतरा।

 

 

 

🔴 फिर साहूकार ने तीनों बेटों को एक-एक रुपया देकर कहा, ‘जाओ, ऐसा खरा सौदा करना कि माल से कमरा भर जाए?’ पहला बेटा रामलाल बाजार गया। बहुत दिमाग लड़ाने के बाद उसने एक रुपये का भूसा खरीद लिया। भूसे को फैलाकर कमरे में बिखेर दिया। कमरा भर गया। अपने उत्साह में उसने राह में बैठे भूखे भिखारी को लात मार दी।

 

 

 

🔵 श्यामलाल को भी राह में वही भिखारी मिला। उसे भी खरा सौदा करने की जल्दी थी। उसने भिखारी को दुत्कार दिया। एक रुपए की रुई खरीदी और बैलगाड़ी में लदवाकर घर ले गया। कमरे में रूई ठूंस दी उसका कमरा भी लद गया।

 

 

 

🔴 मोहन ने पहले भिखारी को खाना खिलाया और फिर  मोहन ने बचे हुए पैसों से एक माचिस व मोमबत्ती खरीद ली। जब साहूकार देखने आया तो उसने वही मोमबत्ती अपने कमरे में जला दी। सारा कमरा रोशनी से जगमगा उठा। दरअसल, साहूकार ही भिखारी बनकर राह में बैठा, बेटों की परीक्षा ले रहा था।

 

 

 

🔵 उसे बड़े दो बेटों से बहुत निराशा हुई। वह मोहन से बोला-‘वाह बेटा! तुमने किया है खरा सौदा।’

 

 

 

🔴 इंसान वही है, जो दूसरों के दुख पहले दूर करे और बाद में अपने लिए सोचे। साहूकार ने मोहन को अपनी सारी संपत्ति सौंप दी।

 

 

 

🔵 मोहन ने कहा-‘पिता जी, हम तीनों भाई मिलकर आपके काम ही देख-रेख करेंगे।’ साहूकार की आंखें खुशी से भर आईं। बड़े भाइयों ने भी मोहन से मानवता की सीख ली और सब मिल-जुलकर रहने लगे।

 

 

 

👉 मरम्मत करो !

 

 

 

🔴 एक साधक ने श्री रामकृष्णदेव से पूछा कि : “महाशय, मै इतना प्रभु नाम लेता हूँ, धर्म चर्चा करता हूँ, चिंतन-मनन करता हूँ, फिर भी समय-समय पर मेरे मन में कुभाव क्यों उठते है?”

 

 

 

🔵 श्री रामकृष्णदेव साधक को समझाते हुए बोले : “एक आदमी ने एक कुत्ता पाला था। वह रात-दिन उसी को लेकर मग्न रहता, कभी उसे गोद में लेता तो कभी उसके मुँह में मुँह लगाकर बैठा रहेता था।

 

 

 

🔴 उसके इस मूर्खतापूर्ण आचरण को देख एक दिन किसी जानकार व्यक्ति ने उसे यह समझाकर सावधान किया कि कुत्ते का इतना लाड-दुलार नहीं करना चाहिए, आखिर जानवर की ही जात ठहरी, न जाने किस दिन लाड करते समय काट खाए।

 

 

 

🔵 इस बात ने उस आदमी के मन में घर कर लिया। उसने उसी समय कुत्ते को गोद में से फेंक दिया और मन में प्रतिज्ञा कर ली कि अब कभी कुत्ते को गोद में नहीं लेगा। पर भला कुत्ता यह कैसे समझे! वह तो मालिक को देखते ही दौड़कर उसकी गोद पर चढ़ने लगता। आखिर मालिक को कुछ दिनों तक उसे पीट-पीट कर भगाना पड़ा तब कही उसकी यह आदत छूटी।

 

 

 

🔴 तुम लोग भी वास्तव मे ऐसे ही हो। जिस कुत्ते को तुम इतने दीर्घ – काल तक छाती से लगाते आये हो उससे अब अगर तुम छुटकारा पाना भी चाहो तो वह भला तुम्हें इतनी आसानी से कैसे छोड़ सकता है?

 

 

 

🔵 अब से तुम उसका लाड करना छोड़ दो और अगर वह तुम्हारी गोद में चढाने आए तो उसकी अच्छी तरह से मरम्मत करो। ऐसा करने से कुछ ही दिनों के अन्दर तुम उससे पूरी तरह छुटकारा पा जाओगे।”

 


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