योग विद्या व
विज्ञान
योग के बिना कोई
भी व्यक्ति जीवन में सफल न हुआ, न हो रहा है और न होगा।
जीवन व्यवहार में शुभ कर्मों का करना अशुभ को छोड़ना। शुभ कर्मों को भी इतना उच्च
बनाना कि केवल निष्काम कर्म रह जायें। कोई बात केवल कहने मात्र से सिद्ध नहीं होती, प्रमाणों से जो सिद्ध हो उसे सत्य जानें। योग चित्त की एक विशिष्ट अवस्था है।
यह मन (चित्त) जड़ वस्तु है, फिर भी दो मिनट वश में
नहीं रह सकता, भले ही वर्षों से जानता, मानता, करता रहा हो। जड़-चेतन की अलग-अलग
विशेषतायें हैं; परन्तु बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी चेतन को
जड़ का मिश्रण ही मान रहे हैं ।
दर्शन और विज्ञान
दोनों स्वीकार करते हैं कि कारण के गुण कार्य में आते हैं। जैसे पीले रंग के धागे
से पीला वस्त्र बनेगा सत्त्व-रज-तम रूप प्रकृति से बना मन भी पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु की तरह जड़
है। परन्तु चेतना (= आत्मा) का संयोग होने से मन चेतन जैसा दीखता है, अनुभव होता है। जैसे हमारा शरीर जड़ होते हुए भी आत्म संयोग से चेतन दीखता है।
जो ज्ञानादि संवेदनशीलता का अनुभव नहीं करता वह जड़ है। चेतन तत्व 'आत्मा' शरीर रूपी साधन से सम्बद्ध होने पर अपनी
क्रियायें करने लगता है, इसलिये जिनके मत में पांच भूतों के
संघात मात्र से ही शरीर चेतन होकर क्रियाएँ करने लगता है उनका मत ठीक नहीं। उनका
मत मानने पर तो मृत्यु का हीअभाव हो जाना चाहिए जो प्रत्यक्ष के विरुद्ध है।
जड़ तत्त्व में
क्रिया उत्पन्न करने के लिये चेतन की जरूरत पड़ती है। व्यवहार, विज्ञान, दर्शन से यह सिद्ध है। स्थिर वस्तु बिना
बाह्य शक्ति के स्थिर ही रहेगी और चलायमान वस्तु चलती ही रहेगी जब तक कोई बाह्य
शक्ति (=चेतन त्त्व) गति या स्थिर न करे। एक चलने वाला दूसरा चलाने वाला। एक रुकने
वाला दूसरा रोकने वाला। एक जड़ दूसरा चेतन दो तत्त्व (= पदार्थ ) हुए ।
मन जड़ है -
चित्त (मन) जड़ है, पर यह जीवात्मा के बाह्य विषयों का
ज्ञान कराने का साधन है। जैसे टेलीफोन (साधन) को नहीं पता होता कि उस पर क्या बात
हो रही है।
मन रोका जा सकता
है। जैसे विद्यार्थी जड़ मन को परीक्षा देते समय तीन घण्टे रोक लेता है उस समय उसे
खाने-पीने देखने व सैर करने आदि की बात कुछ नहीं सुहाती, कोई विचार नहीं आता क्योंकि वह परीक्षा के महत्त्व को जानता है। इसी प्रकार
विषय (ईश्वर) का महत्त्व समझने पर योगाभ्यासी का मन रुक जाता है।
सामान्य इच्छायें
नियम बनाने संकल्प करने से व तीव्र इच्छायें अभ्यास करने से रुकती हैं। सदा स्मरण
रखें कि ईश्वर के बनाये हुए इस मन को मैं (ईश्वर की दी हुई शक्ति से) चलाता हूँ, न कि यह जड़ मन स्वयं चला (भाग) जाता है ।
रोकने में कठिनाई
- नियम (संकल्प) के बिना मन को स्वतन्त्रता से विचारने दिया जाता है। दूसरे मन को
चेतन मान रखा है कि वह जैसे स्वयं चला जाता है परन्तु जो ज्ञान से युक्त है वह
चेतन है,
जो इससे उलटा हो वह जड़। जैसे आँख के लिये कहें कि यह देखती
है मानती नहीं। यह बात युक्ति संगत नहीं क्योंकि चक्षु को हम अपनी इच्छा अनुसार
खोल या बन्द कर सकते हैं। इसी प्रकार मन को भी अपनी इच्छा शक्ति से विषयों से खींच
सकते हैं,
हटा सकते हैं। विचार स्वयं कदापि नहीं आते बल्कि हम विचारते
हैं। विपरीत ज्ञान से, संस्कार दोष से ये विचार उभरते हैं
अर्थात् हम उभारते हैं ।
मन की पांच अवस्थायें - (१) क्षिप्त=चञ्चल (२) मूढ=मूरच्छित, ज्ञान-विज्ञान से शून्य। (३) विक्षिप्त=इसमें चित्त की एकाग्रता आरम्भ होती है तो किसी बाधा से भंग हो जाती है। यथा बाहर की आवाज आदि से और आन्तरिक वृत्तियों से। (४) एकाग्र=इसमें चित्त की एकाग्रता बनी रहती है। (५) निरुद्ध=ऊँचे ज्ञान-विज्ञान-विवेक के बाद अनन्त ईश्वर में वृत्ति निरोध होने पर यह अवस्था आती है। उस काल में सर्दी-गर्मी एक सीमा तक नहीं सतायेगी। काम, क्रोध, लोभादि मर नहीं जाते, रुक जाते हैं। असावधानी से यदि क्लेश आये तो विवेक अभ्यास से तुरंत रोक सकता है। इस अवस्था में योगी देखता है कि भोगी- संसार क्लेश में पिस रहा है। पर में इनसे ऊपर आनन्द के पहाड़ पर खड़ा हुआ हूँ।
योगाभ्यासी मन को
रोकने में समर्थ हो सकता है
यदि वह...
(१) मन को जड़ समझ ले ।
(२) स्वयं को मन का चलाने
वाला जान ले।
(३) संसार के विषयों में
दु:ख अनुभव करे।
(४) स्व-स्वामी सम्बन्ध
का नाश कर दे ।
(५) व्याप्य-व्यापक का
ज्ञान कर ले।
(६) भोक्ता-भोग्यपन को
नष्ट कर दे ।
(७) ईश्वर प्रणिधान बना
ले।
(८) शरीर व संसार को
अनित्य समझ ले ।
(९) ऋषियों के निर्णयों
पर विश्वास करे।
(१०) व्यवहार काल में भी
मन को नियत्रित रखने का अभ्यास करे ।
(११) प्रलय अवस्था का
सम्पादन कर ले।
योग में बाधक अविरति - अविरति=विरति (वैराग्य) का न होना अर्थात् संसार की वस्तुओं से वैराग्य भाव न होना, हर समय मन में कोई न कोई सांसारिक सुख का विचार बना रहता है। सुख के बाद राग भी होता है, वस्तु के सेवन के पश्चात् पुनः सेवन की इच्छा बनी रहती है। वैराग्य का अभाव एक रोग है। यह उपासना में बड़ा बाधक है। विवेक वैराग्य के अभाव में हम उपासना में मन नहीं लगा सकते। सांसारिक सुख की इच्छायें उत्पन्न करते ही रहते हैं। इसे दूर करें।
योग में बाधक स्व-स्वामी सम्बन्ध
आपने उत्तम-उत्तम
पदार्थों का निर्माण किया। उत्तम भोजन बनाय। स्वयं भी खाया तथा अन्यों को भी
खिलाया। भावना यह बनी कि ये मेरे पदार्थ थे, मैंने भोजन का
प्रबन्ध किया। यह मेरा, मैंने किया आदि विचार अज्ञान के कारण
अच्छे लगते हैं, परन्तु जिन पदार्थों से प्रबन्ध किया वे
सब ईश्वर के हैं। जिस शरीर से किया यह भी ईश्वर का दिया हुआ है। मेरी विद्या, मेरा शरीर, मेरा धन, मेरा परिवार, मेरी बुद्धि, मेरा चातुर्य यह सब अपना मानने लगता है। अत: छोड़ते समय कष्ट होता है, परन्तु सच्चा योगी सब ईश्वर का मानता है। वह अपने सम्मान से विष तुल्य डरता है
व अपमान को अमृत तुल्य मानता है। मेरा-मेरी की समझ, मेरा सम्मान हो आदि यह उलटी स्थिति क्यों बनी ? इसका कारण बाल्यावस्था से ही उलटी शिक्षा मिलते रहना है। बाल्यावस्था से लौकिक
रस लेना सिखाया पर ईश्वर का रस लेना नहीं सिखाया।
भोग्य पदार्थ
ईश्वर के मानकर सेवन करें, अपना न मानकर ईश्वर के समर्पण करें।
ईश्वर के मानकर उनका रक्षण करते हुए प्रयोग करें। वास्तव में न्याय की बात यह है
कि यह सब ईश्वर के बनाये हुए पदार्थ उसी के हैं। बिना शरीर के संसार भर के संपूर्ण
जीव कुछ भी नहीं बना सकते।
स्व-स्वामी
सम्बन्ध ही उपासना में बड़ा बाधक है, निष्काम कर्म में
विघ्न है। लौकिक व्यक्ति अधिक से अधिक लौकिक वस्तुओं का संग्रह करके अपने आप को
निर्भय,
सुखी, बलवान् समझता है यह सब
जीवन यापन के लिये साधन रूप में कुछ अंश में ठीक है परन्तु इसे साध्य समझना भूल है।
योगी तो
स्व-स्वामी सम्बन्ध तोड़कर जितना भौतिक वस्तुओं का त्याग करेगा उतना ही अपने को
निर्भय पायेगा तथा आनन्दित रहेगा। स्व-स्वामी सम्बन्ध में राग का कारण अविद्या है।
जहाँ अधर्म होगा वहाँ दुःख होगा। जो भी धन, बल, रूप मिला है वह परमात्मा का मानकर चलेगा तो सुखी होगा।
व्यक्ति जितना
अधिक संग्रह करेगा उतना ही अधिक पांच प्रकार का दोष उपस्थित होगा।
(१) अर्जन दोष, (२) रक्षण दोष, (३) क्षय दोष, (४) संग दोष , (५) हिंसा दोष। बिना प्राणियों को
कष्ट दिये कोई भोग नहीं भोगा जा सकता।
आध्यात्मिक
व्यक्ति के द्वारा जहाँ अपने स्थायी निवास के आश्रम बनाये हुए हैं, उन स्व-स्वामी (=संग) दोष आता है। उसके द्वारा किये गये धर्म प्रचार, लेखन कार्य आदि सभी का उद्देश्य अपने आश्रम को भव्य बनाना होता है। उसकी सारी
शक्ति इसी में खर्च हो जाती है। इस बारे में एक देश विदेश में प्रतिष्ठित योगाचार्य
का एक उदाहरण देना ही पर्याप्त है। जिससे हम प्रेरणा ले सकते हैं। उन्होंने अभिमान
में आकर ऋषिकेश में लाखों रूपये संग्रह करके बड़े परिश्रम से, लगभग बीस वर्षों का समय लगाकर एक भव्य आश्रम बनाया। अन्त में उनके मुख से
दुःखी मन से यह सुनने को मिला कि इस आश्रम की कुटियायें मुझे कूट रही हैं। उनको
स्व-स्वामी सम्बन्ध सता रहा था। उन्हें सौपने के लिये योग्य पात्र अधिकारी नहीं
मिले। संन्यासियों द्वारा अपने मठ-आश्रम बनाने में कुछ दोष समाज का भी है। समाज की
कुव्यवस्था के कारण शरीर रक्षण के लिये संन्यासी उपदेशक को आश्रम बनाने पड़ते हैं।
उपासना काल में
उपासक को नाम-रूप को तोड़ना पड़ता है। आत्मा का कोई नाम नहीं। जो चीज हम लेकर नहीं
आये वह साथ भी नहीं जायेगी। अविद्या के कारण शरीर, धन,
पुत्र, पत्नी को हम अपने आत्मा
का अंग मान कर चलते हैं। व्यक्तम् = सगे सम्बन्धी आदि और अव्यक्तम्
द्रव्य-धन-मकान-फैक्ट्री जब बढ़ते हैं तो में बढ़ रहा हूँ ऐसा मानता है। जब नष्ट
होता है तो मेरा टुकड़ा टूट गया, में कमजोर हो गया, मर गया ऐसा समझ दु:खी होता है। यहाँ तक कि संन्यासी, आचार्य भी शिष्य, विद्यार्थी के आश्रम-गुरुकुल से चले
जाने पर स्व-स्वामी सम्बन्ध के कारण रोने लगते हैं।
उपासना का अंग जप
- ईश्वर की उपासना से उपासक में ईश्वरीय गुण प्राप्त होते हैं। बार बार मंत्र का
उच्चारण जप कहलाता है। वह मंत्र-श्लोक ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव को जताने वाला हो।
जप तीन प्रकार से
किया जाता है - (१) मानसिक विचार द्वारा। (२) अत्यल्प ध्वनि जिसमें केवल होठ हिलते
हों। (३) वाचिक उच्च स्वर सें। इसलिये नहीं कि ईश्वर कहीं दूर है उसे पुकारें, परन्तु नवीन अभ्यासी के लिये बाह्य दूसरी ध्वनि बाधा न डाल सके और वह अपने ही
स्वर को सुनकर अर्थ का विचार करके ईश्वर समर्पित हो सके।
साधक जब ज्ञान पूर्वक परिश्रम करता है तो उसे सफलता मिलती है। साधक को सदा बोध हो कि जिस-जिस काम के लिये मैं इच्छा व प्रयत्न करूँगा वही कार्य होगा। ऐसा न समझे कि मन में जैसे विचार आयेंगे वैसा ही करना पड़ेगा। यह न समझे कि मेरी इच्छा के बिना मन-इन्द्रियाँ स्वत: कार्य में लग जाते हैं।
शब्द
को बोलते ही अर्थ बोध होना चाहिये। उस काल निरीक्षण करें कि क्या जप में गायत्री
के पदों का अर्थ उच्चारण काल में रहता है या नहीं। धुन में, उच्चारण में भूल हो सकती है यह गौण है, मुख्य तो अर्थ में
भूल न होना है। हमें ईश्वर से सम्बन्ध जोड़ना है। उसका ज्ञान, बल,
आनन्द लेना है। ऐसा समझ कर योगाभ्यास करना चाहिए। लम्बे
स्वर से पदोच्चारण करते, शब्दार्थ करते हुए अन्य विचार आयें
तो दूर कर फिर अर्थ पर ध्यान रखते हुए ईश्वर समर्पण (ईश्वर सम्बन्ध) भी बनाये रखें।
जप में तीन काम
(१) मंत्र का उच्चारण।
(२) मन्त्र का अर्थ | (३) ईश्वर समर्पण। मैं ईश्वर के सामने
उपस्थित होकर यह उच्चारण व अर्थ भावना कर रहा हूँ ऐसी भावना मन में बनाए रखें। यह
ध्यान की रीति है। 'धीमहि' का अर्थ है हम आपके ज्ञान, बल, आनन्द, तेज को धारण कर रहे हैं। धारण करने का
प्रयास कर रहे हैं।
कोई नई चीज सीखने
में कठिनाई तो होगी। वर्षों के अभ्यास से विधि आयेगी। फिर क्रियारूप में करता है
तब सफलता मिलती है। आठ अङ्गों का आचरण करने पर अशुद्धि का नाश होने पर
आत्मा-परमात्मा का ज्ञान होने तक निरंतर ज्ञान में वृद्धि होती है। साधक के
अविद्या- अधर्म का नाश होने पर समाधि प्राप्त होती है। यदि नहीं हो रही तो समझना
चाहिए कुछ कमी-दोष है। मन-वाणी- शरीर से योगाङ्गों का ठीक आचरण नहीं कर रहे है ।
जिससे विचार, मनन,
संकल्प, विकल्प करते हैं वह मन
है, मन से विविध प्रकार की तरंगें उठती हैं उनको रोकना योग है। कई बार विपरीत
समाचार सुन कर मन की तरंगों पर नियन्त्रण न कर पाने से हृदय गति रुकने से कईयों की
मृत्यु भी हो जाती है। उसी मन को समझ पूर्वक रोकने पर योगी बन जाता है, ईश्वर को प्राप्त कर लेता है। ईश्वर उपासना से जो ज्ञान-विज्ञान मिलता है वह
जीवन निर्माण में अद्भुत होता है। जो ऋषि दयानन्द में ईश्वर की उपासना न होती तो
सारे संसार का विरोध कैसे सहते? एक ओर काशी के सैकड़ों
विद्वान् पण्डित और काशी नरेश अपने हजारों अनुयायी लोगों सहित शास्त्रार्थ समर में
ऋषि को पराजित करने पर उतारु, तो दूसरी और निर्द्न्द्ध
दयानन्द अकेले। उनकी भाषा ऐसी कि जैसे परमात्मा के सामने खड़े होकर बात कर रहे हों
।
ईश्वर उपासना की
औपचारिकता निभाने के लिये प्रातः सायं केवल पन्द्रह मिनट मंत्र बोल लिये, इस प्रकार से कोई विशेष लाभ नहीं होता। जो व्यक्ति दिन भर ईश्वर की उपासना
करता है,
उससे सम्बन्ध जोड़े रखता है उसका सारा जीवन कार्य करते हुए
ईश्वर के आनन्द, ज्ञान, बल से परिपूर्ण
रहता है।
ईश्वर प्राप्ति
की तीव्र इच्छा मन में इतनी अधिक होवे कि ईश्वर को छोड़कर अन्य कुछ भी न भावे
(=अच्छा लगे)। यदि ईश्वर प्राप्ति के संस्कार नहीं हैं तो बनाये जा सकते हैं।
ईश्वर के तुल्य या ईश्वर से अधिक किसी पदार्थ को न मानें। इस प्रकार निरंतर अभ्यास
करते हुए साधक को ईश्वर शीघ्र अपना कर अपना स्वरूप दिखा देता है।
जप की विधि
गायत्री मन्त्र या अन्य किसी मंत्र को लेकर केवल हजार-लाख बार पाठ करने से नहीं परन्तु धीमी गति से अर्थ और भक्ति भाव सहित जप से आनन्द आता है। धीमी गति में सावधानी से अर्थ सहित जप करते हुए यदि साधक मन को विषयान्तर करता है तो पकड़ में आ जाता धीमी लम्बी गति से शब्द का अर्थ करने से और स्वर मधुर होने से ऋषिकृत अर्थ पर प्रेम भाव होता है। इसके साथ अन्य विषय में मन को नहीं लगाना| याद रहे हमारी आत्मा के प्रयत्न बिना मन अपने आप कहीं नहीं जायेगा। क्रिया करने वाले पदार्थ केवल दो ही हैं। हम और ईश्वर| यही दो
ज्ञान पूर्वक
क्रिया करने वाले हैं, अन्य प्राण, इन्द्रियाँ, मन, वायु, जल,
आकाश आदि नहीं।
हमारे मन में
आत्मा के प्रयत्न बिना कभी भी विचार नहीं आता। वस्तुत: यह विचार कौन उठाता है? हताशा, निराशा, कौन ले आता है? अपने मन को शरीर के किसी एक भाग पर
स्थित करते हुए एक केन्द्र पर विचारो कि "यह विचार कहाँ से आते हैं ?" देखें, निरीक्षण करें कहीं से नहीं आते। इससे सरल
जप करते जाओ अर्थ करते जाओ। यदि असावधानी से मन गया, (नहीं-नहीं भेज दिया) फिर वृत्ति रोकते जाओ चलते जाओ। जैसे मोटर ड्राईवर सामने
आजू-बाजू भी देखता है, ब्रेक भी लगाता है, स्टीयरिंग भी काबू में रखता है। ध्यान ईश्वर में लगाने से विषयान्तर में नहीं
जायेगा। कठिनाई तब उत्पन्न होती है, जब मन में ईश्वर
के प्रति शंका उत्पन्न होती है, कि 'जिसका में ध्यान कर रहा हूँ वह ईश्वर है या नहीं? यह विचारों की टक्कर चलेगी । जैसे कार चालक चौराहे पर सोचेगा कौन सा मार्ग
मेरे गंतव्य की ओर आता है? वह रुकेगा, पर जब पता चलेगा कि यह रास्ता मेरे लिये है तो बिना हिचके चला जायेगा। अत:
शब्द प्रमाण और अनुमान प्रमाण पर विश्वास रख कर यह 'ऋषियों के प्रयोग' स्वयं करके देखें।
जप के विशेष
वाक्यः
ओ३म् सत्यं
ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ।
ओ३म् असतो मा
सद्गमय ।
ओ३म् तमसो मा
ज्योतिर्गमय ।
ओ३म्
मृत्योर्माऽमृतं गमय ।
उपासना का अंग
ध्यान
परिभाषा : 'तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्'। (यो. द. ३/२) अर्थात्
धारणा करने वाले स्थान पर मन को स्थिर करके, ईश्वर की खोज
सम्बन्धी ज्ञान का लगातार बने रहना ध्यान है।
मुण्डक उपनिषद्
में ध्यान की विधि -
प्रणवो धनुः शरो
ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ।
अप्रमत्तेन
वेद्धव्यं शरवत् तन्मयो भवेत् ॥
अर्थ - प्रणव :
(ब्रह्मवाचक) ओम् (पद) ही धनुष है, और आत्मा बाण है
तथा ब्रह्म (परमात्मा) ही उस जीवात्मा का लक्ष्य कहा जाता है। उस लक्ष्यरूपी
ब्रह्म को प्रमाद रहित सावधान होकर बींधना चाहिये। बाण की तरह उस लक्ष्य में घुस
जाये (लीन होवें)।
प्रश्न - क्या
निराकार का भी ध्यान हो सकता है ?
उत्तर - हाँ।
निराकार का भी ध्यान होता है। यदि निराकार वस्तु को आकार=रंग, रूप,
सीमा वाली मानकर ध्यान करेंगे तो उस वस्तु का ध्यान नहीं
होगा, बल्कि अध्यान होगा। पदार्थ का जो गुण है उसे लेकर ही ध्यान हो सकता है। जैसा
ईश्वर का गुण-कर्म-स्वभाव नहीं है वैसा ध्यान करने से कभी भी उसका ध्यान नहीं हो
सकता है। गलत रूप में वस्तु का ध्यान करने से ही आज दु:ख की वृद्धि हो रही है, परम सुख अप्राप्य है। उदाहरण के रूप में किसी व्यक्ति का (पर्स) बटुआ जिसका
रंग नीला,
६ x ४, इंच लम्बा चौड़ा दस हजार रुपये से भरा हुआ अंधेरी गली में खो गया। अब उस बटुए
को हम अन्धेरी गली में खोजते हैं, वह जब तक नहीं मिलता तब
तक खोज चलती ही रहती है यही ध्यान कहलाता है। मिलने पर ध्यान समाप्त।
'ध्यानं निर्विषयं मनः' इस सूत्र की व्याख्या 'जिसमें कुछ भी पता न लगें इस प्रकार
के कुछ विद्वानों ने योग के क्षेत्र में यह महा भ्रम फैलाया हुआ है। कुछ भी पता न
लगे का यथार्थ अर्थ है बाहर के वातावरण से हट जाना। जो दु:ख का कारण है वह हट
जाये। परन्तु शान्त होते हुए भी बुद्धिपूर्वक ईश्वर तत्त्व से संबन्ध जुड़े बिना
विशेष सफलता नहीं मिलती। कई कहते हैं। अपने शरीर में दुःख ढूंढ़ने लगो। उससे बाहर
से कुछ राहत तो होगी, परन्तु यह अशुद्ध है। कई श्वास पर
ध्यान रखने को कहते हैं, यह भी अपूर्ण है।
जैसे अनजाना
विदेशी लाल किले को देखने आता है जैसा वर्णन उसने सुना वैसा ही मन में रखते हुए
लाल किले की खोज करेगा। यदि जामा-मस्जिद को ध्यान में रख रहा है और ढूंढ़ता है लाल
किले को तो वह कभी भी लाल किले के दर्शन नहीं कर सकेगा। एक वस्तु को इस जन्म में
देखा नहीं परन्तु शब्द प्रमाण से या अनुमान से गुण, कर्म,
स्वभाव दिमाग में रखकर ढूँढ़ता है तो मिलती है। उस वस्तु को
जिसे वह ढूँढ़ता है उसका शाब्दिक ज्ञान या आनुमानिक ज्ञान होना चाहिए। ध्यान करते
हुए ईश्वर नामक वस्तु को ढूँढ़ते हुए साधक ऐसा लालायित रहे विह्वल हो जाये जैसे
छोटा बालक माँ के लिये रहता है।
ध्यान में अन्य
सब कार्य विचार रोक देना, केवल ईश्वर तत्त्व का ही विचार करना।
अच्छे-बुरे सभी विचार त्याग देना। विचार प्रारम्भ से ही न उठाए जायें। व्यवहार काल
में जिससे अनबन या मन मुटाव खींचातानी हुई उसको सजा देने का ख्याल उपासना में
बैठते ही यदि नहीं दबाया तो उपासना कर ही नहीं पायेगा। उसे तुरन्त रोकना वरना बाद
में काफी देर तक यह विचार ही पीछा नहीं छोड़ेगा।
प्रलयवत् संसार -
बौद्धिक स्तर पर संसार को प्रलयवत् देखने, अनुभव करने से
समाधि प्राप्त होती है। शरीर उत्पन्न होने से पहले नहीं था, उत्पन्न होने के बाद कालान्तर में नहीं रहेगा। दूसरे शरीर आयेंगे, वे भी जायेंगे। एक दिन ऐसा आयेगा कि कोई भी नहीं रहेगा इसी प्रकार ये सूर्य, चन्द्र, तारे, पृथ्वी भी नहीं
रहेंगे। इस अवस्था में केवल ईश्वर शेष रहने पर जीवात्मा उस अनन्त में चक्कर काटने
पर ईश्वर में स्थिर (समाधि प्राप्त) हो जायेगा। इसी तरह मृत्यु में (जो
अवश्यम्भावी है) अपने शरीर को पहुँचा दें। मृत्यु भय से भागें तो जायें कहाँ? इस प्रकार वृत्तियों की सब दौड़-धूप समाप्त हो जायेगी। साधक ज्ञान के स्तर पर
सब से नाता तोड़ता, छोड़ता जाता है और समाधि को प्राप्त
होता है।
ईश्वर का
प्रत्यक्ष - जैसे अग्नि का अपने गुण गर्मी, प्रकाश, दाहक शक्ति से प्रत्यक्ष होता है। मिश्री का अपने रूप व मिठास से प्रत्यक्ष
होता है। वैसे ही ईश्वर अपने गुण आनन्द-बल-ज्ञान से प्रत्यक्ष हो जाता है।
प्रत्यक्ष अवस्था में साधक, सारे संसार को ईश्वर में डूबा हुआ
जानता
व्याप्य - व्यापक
का विज्ञान जाने बिना सफलता नहीं मिलती। हम व लोक लोकान्तर व्याप्य और ईश्वर
व्यापक है। जब अन्य वस्तु में मन लगायें तो वहाँ भी ईश्वर को व्यापक देखें। फिर
दूसरी तीसरी वस्तु में जहाँ भी साधक देखेगा। वहाँ ईश्वर दिखाई देगा। सूर्य व्याप्य
में ईश्वर व्यापक देखें। सम्बोधित करें हे ओ३म् ! आदित्य आपके बाण हैं हमारी रक्षा
के लिये। व्यापक के प्रभाव से व्याप्य का प्रभाव समाप्त हो जायेगा जैसे व्याप्य
लोहे का गोला व्यापक अग्नि के प्रभाव से अग्निवत् लाल हो जाता है।
जैसे ही साधक
बौद्धिक स्तर पर संसार को प्रलयवत् बना देता है उस अवस्था में वृत्ति निरोध होकर
समाधि आरम्भ हो जायेगी। यह प्रारम्भिक अवस्था सम्प्रज्ञात समाधि है। इस में ईश्वर
प्रत्यक्ष नहीं होता। जैसे बंकर में बैठा व्यक्ति बमों की मार से सुरक्षित होता है, इसी प्रकार प्रलयवत् अवस्था में बाहर के काम, क्रोध, मोह आदि बमों की मार से योग साधक सुरक्षित
रहता है।
ईश्वर - नियामक
तत्त्व - आज का वैज्ञानिक भी सृष्टि में हर जगह नियम देखता है। बिना नियामक के
नियम नहीं होता। अचानक दुर्घटना में चोट आदि का कम-अधिक लगना, मरना या बचना सो कार्य ईश्वर का नहीं। यह तो 'क्रियाभेदात् परिणामभेदः ' ही है जिसका परिणाम
अनिश्चित है। परन्तु जहाँ क्रिया बार-बार एक ही प्रकार हो वहाँ यह ज्ञान होता है
कि इन क्रियाओं का नियामक कोई शक्तिमान् त्त्व अवश्य है। जो इस सृष्टि को चलाता
है। एक ऐसा जड़ तत्त्व जो चलाए बिना चले नहीं, गतिशील पत्थर
स्वयं विचार कर रुके नहीं। परन्तु चेतन जीव स्वयं विचार कर सकता है। इन गतिमान्
सूर्य, पृथ्वी, तारों आदि को चलाने वाला सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान्
तत्त्व ईश्वर है। क्योंकि अप्राप्य देश में कत्ता के बिना क्रिया नहीं होती।
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