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अभिशाप है निर्धनता

 

सबसे खतरनाक अभिशाप है निर्धनता

 

 

     यद्यपि मुझको इसका ज्ञान बहुत पहले ही जिन्दगी में हो चुका था कि जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है निर्धनता। यदि किसी व्यक्ति को तड़पा कर मारना हो तो उसके ऊपर आर्थिक प्रतिबंधं लगा दिया जाये। इसके कारण बड़े-बड़े देश दिवालिया पन को उपलब्ध हो जाते है साधारण मनुष्य कि औकात ही क्या है?

 

           पंचतंत्र संस्कृत साहित्य का सुविख्यात नीति ग्रंथ है, जिसका संक्षिप्त परिचय मैंने अन्यत्र दे रखा है। ग्रंथ के अंतर्गत एक प्रकरण में व्यावहारिक जीवन में धन-संपदा की महत्ता का वर्णन मिलता है। उसके दो सियार पात्रों–वस्तुतः दो भाइयों, दमनक एवं करटक–में से एक दूसरे के समक्ष अधिकाधिक मात्रा में धनसंपदा अर्जित करने का प्रस्ताव रखता है। दूसरे के "बहुत अधिक धन क्यों?" के उत्तर में वह धन के विविध लाभों को गिनाना आरंभ करता है और धन से सभी कुछ संभव है इस बात पर जोर डालता है। ऐसा नहीं है कि पंचतंत्र में धन को ही महत्त्व दिया गया हो। किसी अन्य स्थल पर तो ग्रंथकार ने उपभोग या दान न किए जाने पर धनसंपदा के नाश की भी बात की है। वस्तुतः ग्रंथ में परिस्थिति के अनुसार पशुपात्रों के माध्यम से कर्तव्य-अकर्तव्य की नीतिगत बातें कही गई हैं। याद दिला दूं कि पंचतंत्र के पात्र पशुगण हैं, जो मनुष्यों की भांति व्यवहार करते हैं और मनुष्य जीवन की समस्याओं से जूझ रहे होते हैं। यहाँ पर उस सियार पात्र के धनोपार्जन सम्बंधी कथनों को उद्धृत किया जा रहा है। प्रस्तुत हैं प्रथम तीन श्लोक:

 

      न हि तद्विद्यते किञ्चिद्यदर्थेन न सिद्ध्यति। यत्नेन मतिमांस्तस्मादर्थमेकं प्रसाधयेत्॥2॥

 

    अर्थः- ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे धन के द्वारा न पाया जा सकता है। अतः बुद्धिमान् व्यक्ति को एकमेव धन अर्जित करने का प्रयत्न करना चाहिए। भौतिक सुख-सुविधाएँ धन के माध्यम से एकत्र की जा सकती हैं। इतना ही नहीं सामाजिक सम्बंध भी धन से प्रभावित होते हैं। ऐसी ही तमाम बातें धन से संभव हो पाती हैं। इनका उल्लेख आगे किया गया हैः

 

      यस्यार्थाः तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः। यस्यार्थाः स पुमांल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः॥3॥

 

    अर्थः जिस व्यक्ति के पास धन हो उसी के मित्र होते हैं, उसी के बंधु- बांधव होते हैं, वही संसार में वस्तुतः पुरुष (सफल व्यक्ति) होता है और वही पंडित या जानकार होता है। आज के सामाजिक जीवन में ये बातें सही सिद्ध होती दिखाई देती हैं। आपके पास धन-दौलत है तो यार-दोस्त, रिश्तेदार, परिचित आदि आपको घेरे रहेंगे, अन्यथा आपसे देरी बनाए रहेंगे। जिसने धनोपार्जन कर लिया वही सफल माना जाता है, उसी की योग्यता की बातें की जाती हैं, उसकी हाँ में हाँ मिलाई जाती है, मानो कि उसे ही व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त हो। कदाचित् धन की ऐसी खूबी प्राचीन काल में भी स्वीकारी गई होगी।

 

       न-सा विद्या न तद्दानं न तच्छिल्पं न-सा कला। न तत्स्थैर्यं हि धनिनां याचकैर्यन्न गीयते॥4॥

 

       अर्थः- ऐसी कोई विद्या, दान शिल्प (हुनर) , कला, स्थिरता या वचनबद्धता नहीं है जिनके धनिकों में होने का गुणगान याचक वृंद द्वारा न किया जाता हो। संपन्न व्यक्ति की अनुकंपा प्राप्त करने और मौके-बेमौके उससे मदद पाने के लिए लोग प्रशंसा के बोल कहते देखे जाते हैं। उसको खुश करने के लिए लोग यह कहने में भी नहीं हिचकते हैं कि वह अनेक गुणों का धनी है। राजनीति के क्षेत्र में ऐसे अनेक 'महापुरुष' मिल जाएंगे, जिनके गुणगान में लोगों ने 'चालीसाएं' तक लिख डाली हैं। धनिकों के प्रति चाटुकारिता एक आम बात है ऐसा ग्रंथकार का मत है।

 

       इह लोके हि धनिनां परोऽपि स्वजनायते। स्वजनोऽपि दरिद्राणां सर्वदा दुर्जनायते॥5॥

 

     अर्थः इस संसार में धनिकों के लिए पराया व्यक्ति भी अपना हो जाता है और निर्धनों के मामले में तो अपने लोग भी दुर्जन (बुरे अथवा दूरी बनाये रखने वाले) हो जाते हैं। उक्त बातें प्राचीन काल में किस हद तक सही रही होंगी यह कहना कठिन है। परंतु आज के विशुद्ध भौतिकवादी युग में ये पूरी तरह खरी उतरती हैं। बहुत कम लोग होंगे जो अपने भाई-बहनों तक के साथ मिलकर अपनी संपदा का भोग करना चाहेंगे। "हम कमाएँ और वे खाएँ यह भला कैसे हो सकता है?" यह सोच सबके मन में रहती है। अतः उनसे दूरी बनाए रखने में ही उनकी संपदा परस्पर बंटने से बच सकती है। इसीलिए नीतिकार कहता है कि अगर आप अपनी धनसंपदा खो बैठते हैं तो आपके निकट सम्बंधी भी आपके नहीं रह जाते हैं। दूसरी ओर किसी धनी से सम्बंध बढ़ाने में लाभ की संभावना बनी रहती है, इसलिए लोग उसके 'अपने' बनने की फिराक में अकसर देखे जाते हैं।

 

 अर्थेभ्योऽपि हि वृद्धेभ्यः संवृत्तेभ्य इतस्ततः।

प्रवर्तन्ते क्रियाः सर्वाः पर्वतेभ्य इवापगाः॥6॥

 

       अर्थः- चारों तरफ से एकत्रित करके बढ़ाये गये धनसंपदा से ही विविध कार्यों का निष्पादन होता है, जैसे पर्वतों से नदियों का उद्गम होता है। इस कथन के अनुसार मनुष्य को चाहिए कि वह जैसे भी हो, जहाँ से भी हो, अपनी धनसंपदा बढ़ाता जाए। जब ढेर सारा धन आपके पास इकट्ठा हो तो उस धन के माध्यम से सभी कार्य एक-एक कर संपन्न होते चले जाएंगे। "हर स्रोत से धन इकट्ठा करे" का अर्थ क्या यह समझा जाए कि आर्थिक भ्रष्टाचार भी मान्य रास्ता है? शायद हां, तभी तो सर्वत्र भ्रष्टाचार का तांडव देखने को मिल रहा है।

 

     पूज्यते यदपूज्योऽपि यदगम्योपि गम्यते।

वन्द्यते यदवन्द्योऽपि स प्रभावो धनस्य च॥7॥

 

    अर्थः- धन का प्रभाव यह होता है कि जो सम्मान के अयोग्य हो उसकी भी पूजा होती है, जो पास जाने योग्य नहीं होता है उसके पास भी जाया जाता है, जिसकी वंदना (प्रशंसा) का पात्र नहीं होता उसकी भी स्तुति होती है। संस्कृत में एक उक्ति है:

 

"धनेन अकुलीनाः कुलीनाः भवन्ति धनम् अर्जयध्वम्।"

 

         अर्थात् धन के बल पर अकुलीन जन भी कुलीन हो जाते हैं, इसलिए धनोपार्जन करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि समाज में सामान्य अप्रतिष्ठित व्यक्ति ढेर-सी धनसंपदा जमा कर लेता है तो वह सामाजिक प्रतिष्ठा एवं सम्मान का हकदार हो जाता है। लोग उसके आगे-पीछे घूमना शुरू कर देते हैं। इसके विपरीत प्रतिष्ठित व्यक्ति जब दुर्भाग्य से अपनी संपदा खो बैठता है तो उसे सामाजिक प्रतिष्ठा भी गंवानी पड़ती है। लोग उसका सम्मान करना भूलने लगते हैं, उससे मिलने से भी कतराते हैं।

 

     अशनादिन्द्रियाणीव स्युः कार्याण्यखिलान्यपि। एतस्मात्कारणाद्वित्तं सर्वसाधनमुच्यते॥8॥

 

        अर्थः- भोजन का जो सम्बंध इंद्रियों के पोषण से है वही सम्बंध धन का समस्त कार्यों के संपादन से है। इसलिए धन को सभी उद्येश्यों की प्राप्ति अथवा कर्मों को पूरा करने का साधन कहा गया है। इस तथ्य को सभी लोग स्वीकार करेंगे कि चाहे धार्मिक अनुष्ठान संपन्न करने हों या याचकों को दान देना हो, धन चाहिए ही। शारीरिक स्वास्थ्य, मनोरंजन, एवं सुखसुविधाएँ आदि सभी के लिए धन-दौलत चाहिए। आज के जमाने में तो मु्फ्त में सेवा देने वाले अपवाद स्वरूप ही मिलते हैं। एक जमाना था जब सामाजिक कार्य संपन्न करने में परस्पर सहयोग एवं मदद देने की परंपरा थी, परंतु अब सर्वत्र धन का ही बोलबाला है।

 

      अर्थार्थी जीवलोकोऽयं श्मशानमपि सेवते। त्यक्त्वा जनयितारं स्वं निःस्वं गच्छति दूरतः॥9॥

 

        अर्थः- यह लोक धन का भूख होता है, अतः उसके लिए श्मशान का कार्य भी कार्य करने को तैयार रहता है। धन की प्राप्ति के लिए तो वह अपने ही जन्मदाता हो छोड़ दूर देश भी चला जाता है। पंचतंत्र के रचनाकार का मत है कि जीवन-धारण बिना धन के संभव नहीं हैं, अतः मनुष्य धनोपार्जन के लिए कोई भी व्यवसाय अपनाने को विवश होता है। कुछ कामधंधे समाज में अधिक प्रतिष्ठित माने जाते हैं, अतः लोग उनकी ओर दौड़ते हैं और सौभाग्य से उन्हें पा जाते हैं। किंतु सभी भाग्यवान एवं पर्याप्त योग्य नहीं होते। उन्हें उस कार्य में लगना पड़ता है जिसे निकृष्ट श्रेणी का माना जाता है। अथवा धनोपार्जन के लिए घर से दूर निकलना पड़ता है। आज के जमाने में ये बातें सामान्य हो चुकी हैं।

 

      गतवयसामपि पुंसां येषामर्था भवन्ति ते तरुणाः।

     अर्थे तु ये हीना वृद्धास्ते यौवनेऽपि स्युः॥10॥

 

       अर्थः- उम्र ढल जाने पर भी वे पुरुष युवा रहते हैं जिनके पास धन रहता है। इसके विपरीत जो धन से क्षीण होते हैं वे युवावस्था में भी बुढ़ा हो जाते हैं। इस श्लोक की मैं दो प्रकार से व्याख्या करता हूँ। पहली व्याख्या तो यह है धनवान व्यक्ति पौष्टिक भोजन एवं चिकित्सकीय सुविधा से हृष्टपुष्ट एवं स्वस्थ रह सकता है। तदनुसार उस पर बुढ़ापे के लक्षण देर से दिखेंगे। जिसके पास खाने-पीने को ही पर्याप्त न हो, अपना कारगर इलाज न करवा सके, वह तो जल्दी ही बूढ़ा दिखेगा। संपन्न देशों में लोगों की औसत उम्र अधिक देखी गई है। अतः इस कथन में दम है। दूसरी संभव व्याख्या यों हैः धनवान व्यक्ति धन के बल पर लंबे समय तक यौनसुख भोग सकता है, चाटुकार उसे घेरे रहेंगे और कहेंगे, "अभी तो आप एकदम जवान हैं।" कृत्रिम साधनों से भी वह युवा दिख सकता है और युवक-युवतियों के आकर्षण का केंद्र बने रह सकता है।

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