ब्रह्म विद्या
तथा भौतिक विज्ञान
अनादि प्रश्न तीन
हैं - (१) में क्या हूँ? (२) यह संसार क्या है? (३) इसका कर्ता संचालक ईश्वर क्या है?
ध्यान देकर
विचारिये कि हम कौन हैं? क्या हैं? हमारा प्रयोजन - उद्देश्य क्या है? उस उद्देश्य को
पूरा करने का साधन क्या है? हमें मनुष्य शरीर देने वाला इस समस्त
विश्व का बनाने वाला, संचालक, व्यवस्थापक कौन है, कैसा है, व क्या चाहता है ?
भौतिक विज्ञान से
जीवन की सुविधायें तो मिली पर विशुद्ध सुख नहीं मिला। इस क्षेत्र में लाखों लोग
पूरा जोर लगा रहे हैं, परन्तु यह ब्रह्मविद्या, समाधि का विज्ञान उनके पास नहीं होने से वे असफल हो रहे हैं। ब्रह्मविद्या
काल्पनिक नहीं। दर्शनों में यों ही मान नहीं रखी है। यह असाधारण विद्या है। ऋषियों
की अनुभव की हुई है। पुत्रैषणा, लोकैषणा, वित्तैषणा से ग्रस्त सामान्य मनुष्य और वैज्ञानिकों को यह अप्राप्य है।
वैज्ञानिक कहते
हैं कि हम सत्य की खोज करते हैं। व्यक्ति या तो लौकिक सुख या आध्यात्मिक सुख दो
में से किसी एक को चाहता है। वैज्ञानिक आध्यात्मिक सुख को जानते नहीं हैं । तब
अर्थापत्ति से सिद्ध हुआ कि वे तीन एषणाओं को चाहते हुए-लौकिक सुख को चाहने के लिए
ही सत्य की खोज को अपना लक्ष्य बनाते हैं। इन एषणाओं की तृप्ति ही उनका लक्ष्य है।
आज भौतिक विज्ञान उग्र रूप में उभर आया है। योग विज्ञान लुप्त-प्राय: है। अत:
परमात्मा का साक्षात्कार करने वाले भूगोल में दो चार ही मिलें ऐसा संभव है। यदि
बहुत बड़ा समुदाय कुछ गलत करने लग जाये तो लोग उसे ही ठीक मानने लग जाते हैं। आजकल
नाड़ी बन्द करना, आठ दिन भूमि में दबना, मूरछित होना (कुछ भी पता न लगना), आँख दबाने से
प्रकाश दीखना, कान दबाने से शब्द ब्रह्म सुनना आदि को ही
योग व योग की सिद्धि मान रहे हैं, पर यह सब योग नहीं है।
इस ' गलत योग ' को देख -सुन कर आधुनिक वैज्ञानिक 'योग'
को सत्य विज्ञान स्वीकार नहीं कर रहे हैं।
योगवाद व भोगवाद
इस आर्यावर्त्त
देश में लाखों ऋषि हुए और वे सब वेद को ही प्रमुख ग्रन्थ मानते रहे। वेद के अन्दर
ऐसे उपदेश (ज्ञान-विज्ञान) की बातें हैं। जिनके माध्यम से मानव जीवन सफल हो जाता
है।
भौतिक विज्ञान का
भी अपना महत्त्व है, परन्तु केवल भौतिक विज्ञान को लेकर
चलने से और वैदिक विज्ञान को छोड़ देने से मानव जीवन सफल नहीं हो सकता। वेद ऐसा
ग्रन्थ है जिससे व्यक्ति अपने चरम लक्ष्य (मुक्ति सुख) को प्राप्त कर लेता है। आज
मानव ने भौतिक उन्नति खूब की पर परिणाम सामने है। जैसे-जैसे जरूरतें, धन - साधन बढ़ते गये, दु:ख भी बढ़ते गये। इसके अन्दर जो
दोष हैं उनको मानव ने नहीं जाना।
केवल भौतिक
उन्नति मानव जाति को आक्रान्त कर चुकी है, दबा चुकी है। हम
समाधि से जान सकते हैं कि जो यह भौतिक विद्या से सुख है उससे अनेक गुणा अधिक सुख ईश्वर
प्राप्ति में है ।
संप्रदायों के
पास ईश्वर का सच्चा रूप नहीं होने से उन्होंने लोगों को ईश्वर अविश्वासी और योगवाद
से विमुख कर दिया। कहते हैं कि इच्छानुसार भिन्न-भिन्न प्रकार से पूजा करने से भी
सफलता मिलती है। यह गलत मान्यता है कि कोई व्यक्ति सीधा और घूमकर ईश्वर के पास
पहुँच जाता है। क्या आर्यवन रोजड़ में पहुँचने के लिये कोई उसे दिल्ली के पास , कोई बम्बई या चण्ड़ीगढ़ के पास मान कर चले तो पहुँच सकता है ? ईश्वर को मानते हुए भी उसके रहने का ठिकाना अलग-अलग स्थानों पर कोई सातवें
आसमान, कोई चौथे आसमान, कोई क्षीरसागर, कोई वैकुण्ठ कोई परमधाम आदि में मानते हैं । इस प्रकार ढूँढ़ने से क्या ईश्वर
प्राप्त कर सकेंगे? यदि ईश्वर का सही ठिकाना
(सर्वव्यापकता का स्वरूप) नहीं जाना तो फिर सीधे चले या घूमकर, सभी उसे किस प्रकार पा सकेंगे ?
"ईशा वास्यमिदं
सर्वम्" ईश्वर सब जगह विद्यमान है, यह जानकर चलने से
मन को सैकड़ों जगह भेजते हैं तब भी वह ईश्वर सब जगह है यह जानकर मन ईश्वर में
स्थिर हो जायेगा। यह है व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध का योगाभ्यास में उपयोग।
आज नित्य आनन्द
से दूर और क्षणिक सुख के लिये बेचारे सब जुटे हुए हैं। केवल लौकिक भोगों को भोगना
ही चरम लक्ष्य बन गया है। सृष्टि के आदि से किसी भी वैदिक ऋषि ने इस लौकिक सुख को
चरम लक्ष्य नहीं माना परन्तु ईश्वरीय आनन्द को प्राप्त करना ही मुख्य लक्ष्य बताया
है।
केवल भोगवाद अथवा
भौतिकवाद आज अध्यात्मवाद पर हावी हो गया है। इससे टकराना इसको हटाना अत्यन्त कठिन
हो गया है। उनकी मान्यता है कि न कोई आत्मा नाम की न कोई परमात्मा नाम की चीज है।
केवल यह पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि आदि विकास को प्राप्त कर (होकर) प्राणी आदि चेतन बन गये, क्या लाखों-करोड़ों जड़ वस्तु मिलकर भी चेतन वस्तु बन सकती हैं? और क्या जो आत्माएँ हैं वे मिलकर भी प्रकृति का एक अणु बन सकती हैं ?
विशुद्ध मानव
जीवन, सफल मानव जीवन, योग से निर्मित होता है। यह मानव
शरीर जिसमें हम रहते हैं, योग के माध्यम से ऋषियों ने इसे समझा
और अपने ग्रन्थों में लेखबद्ध कर दिया। आज मानव जाति अत्यन्त निम्न अवस्था में
पहुँच गई है मनुष्य की परिभाषा इतनी अशुद्ध हो गई है कि बिगड़े हुए को अच्छा माना
जाता है।
योगवाद से भोगवाद
की टक्कर है। एक उभर कर आयेगा तो दूसरा धाराशायी हो जाएगा। योगवादी मानता है कि
भोग तो पाँच इन्द्रियों के विषय हैं। इन दुःखदायी विषयों से मुक्ति के लिये
ईश्वर-जीव-प्रकृति का सम्बन्ध जानकर योग द्वारा मुक्ति प्राप्त करनी चाहिए।
भोगवादी का सिद्धान्त है कि आत्मा-परमात्मा, पाप-पुण्य, धर्मादि सब कल्पना मात्र हैं। जो ठीक लगे वह करें, न लगे वह न करें। जिन्हें बोलने का भान नहीं, बिना सिर पैर की बात बोलते हैं उन भोगवादियों का प्रभाव ईश्वरवादियों पर भी
पड़ा है कि धन को ही सब से बड़ी चीज मानने लगे हैं।
जो लोग अज्ञान से
और स्वार्थ से ओत-प्रोत हैं, अपने आत्मा के विरुद्ध
कर्म करने वाले हैं, उनकी अवस्था इस जन्म में भी और अगले
जन्मों में भी दु:खमय होती है। "असुर्या नाम ते लोका अन्धेन" वे लोग इस
जन्म में और अगले जन्मों में भी असुर-पिशाच-पापी कहाते हैं जो अपने प्राणों के
पोषण में लगे हुए हैं। जीवात्मा मनुष्य शरीर पाकर सोचता है कि मैं अपना ही भला करूँ
परन्तु इसका उलटा होता है। जितना-जितना अपना भला व जितनी-जितनी दूसरे की उपेक्षा
करता है उतना-उतना अधिक दुःखी होता है। यह दूसरों को हानि पहुँचा कर भी अपना भला
चाहता है। आज प्रधानमंत्री स्तर का व्यक्ति भी रिश्वत लेता हैं। इसका कारण यह
स्वार्थी भोगवादी प्रवृत्ति-संस्कृति है। यह ईश्वर आज्ञा का अनुकरण न कर धर्म
विरुद्ध चलना है। ईश्वर के आदेश का पालन न करने वाला कभी सुखी नहीं हो सकता। आज
बहुसंख्यक या तो झूठे भोगवाद के सिद्धान्त को मानने लगे हैं या संशय में पड़े हैं।
नीचे से ऊपर तक न्याय नाम की चीज नहीं मिलती।
यह विचार ठीक
नहीं कि ये कार, विमान, नौकर-चाकर वाले
सुखी हैं,
और जिनके पास ये साधन नहीं है वे महादु:ख घोर नरक भोग रहे
हैं। सुख कपड़े-मकान-जूतों में नहीं है। सुख को मन से देखें। जो लोग आत्मा के ज्ञान से विरुद्ध आचरण करते हैं वे आत्मा का
हनन करने वाले महादुःख घोर नरक भोगते हैं। ये दुरात्मा भोगवादी-मनस्यन्यत्, वचस्यन्यत्, कर्मण्यन्यत् हैं। अध्यात्मवादी-मनस्येकं, वचस्येकं कर्मण्येकं होते हैं।
हम स्वार्थों को
ठोकर मारकर प्राणीमात्र का कल्याण करें।
ईश्वरवादियों पर
भोगवाद का प्रभाव
आज तो ईश्वरवादी
भी भोगवाद से बुरी तरह प्रभावित हैं। दुनियाँ रोचकता चाहती है, सत्याचरण नहीं, अतः आडम्बर-अंधकार में फँसती है। आज
के अधिकांश ईश्वरवादी पूजा-स्थलों में भौतिक साधनों की चकाचौन्ध द्वारा लखलुट धन
लगा भौतिक भव्यता का प्रदर्शन कर जन-मानस को आकर्षित व प्रभावित करने की तीव्र
स्पर्धा में लगे हुए हैं। उन्होंने अपना सारा क्रिया-कलाप, वत्त्ताव लगभग भोगवादियों की तरह स्वीकार कर लिया है। ईंट पर ईंट, पत्थर पर पत्थर लगा-सजाकर प्रभु के गृह निर्माण की प्रतिस्पर्धा में जुटे हुए
हैं। इन्होंने "ईशा वास्यमिदं सर्वम्" को भुला, मानव निर्माण के कार्य से बिलकुल विमुख होकर, मानव समाज को सर्वनाश की ज्वाला में झोंक दिया है। माता-पिता भौतिक विद्या
पढ़ाने लिखाने के लिये एड़ी से चोटी तक जोर लगाते हैं पर बालकों को आत्मा-
परमात्मा-प्रकृति के बारे में, धर्म, परोपकार, सत्यभाषण आदि के बारे में कुछ भी नहीं
बताते। सभी बच्चे डाक्टर, इन्जीनियर बनना चाहते हैं क्योंकि धन
प्राप्त होगा। यह सब भी करें, पर साथ-साथ मानव निर्माण
को भी अपनायें तो क्या हानि ? पैदा होना, भोग भोगना व रोगी होकर मरना ही लक्ष्य है ?
भोगवाद योगवाद को
सूक्ष्मरूप से कैसे प्रभावित करता है इस बात को विशेष पढ़ा-लिखा भौतिकवादी भी नहीं
पकड़ सकता। भौतिकवादी सोचता है कि इस संसार की सब वस्तुओं के स्वामी हम हैं । इसका
प्रभाव आध्यात्मिकों पर सूक्ष्मरूप से रहता है। भोगवादी ने नियम बनाये-गाय, घोड़े, पशु-पक्षी सब को खायें। यह मूल दोष कहाँ
से आया?
ईश्वर को स्वामी न मानने से। मनुष्य सारे संसार का मालिक
स्वयं बनना चाहता है। ये लड़ाई-झगड़े सब इसी से होते हैं। जो मालिक स्वयं बनता है
क्या वह एक बाजरे के दाने या एक बाल को भी बना सकता है? यह शरीर इन्द्रियाँ आदि उपकरण हटा दीजिये तो यह जीवात्मा, यह भी नहीं जान सकता कि मैं कहाँ पड़ा हूँ। धरती पर पड़ा जीवात्मा स्वयं की
शक्ति से एक अंगुल भी नहीं सरक सकता। यदि अकेले जीवात्मा की शक्ति कुछ भी नहीं तो
वह कहाँ इस संसार का मालिक बना बैठा है? आस्तिक कहने को
कहते हैं कि सब भगवान् का है। गलत रूप में ईश्वर को मानने वाले भी नास्तिक से कम
नहीं। धन सब अपना मानते हैं और कहते हैं 'तेरा तुझ को अर्पण', धन चढ़वा कर सब को लूट रहे हैं। जीवात्मा इस शरीर इन इन्द्रियों आदि को ईश्वर
प्रदत्त नहीं मानता यह 'भोगवाद' है। हम धनवान्, विद्वान्, बलवान्, चक्रवर्ती राजा भी बनें पर सब ईश्वर का, ईश्वर प्रदत्त मानकर भौतिकवादी न बनें तो क्या हानि है?
व्यक्ति सदा अपने
जीवन में ईश्वर की महत्ता अनुभव करता रहे, ताकि ईश्वर की
सहायता सदा मिलती रहे। इस भोगवाद-केवल भौतिकवाद ने ईश्वरवाद को दबाकर रख दिया।
भोगवादी ऐसा स्वार्थी कंजूस हो जाता है कि सारा खुद खाना भोगना चाहता है। उसकी
मान्यता है कि भोग से उसकी सन्तुष्टि हो जायेगी । इनकी मान्यता है कि खाने-पीने से, विषयों के भोग से तृप्त हो जायेंगे। ये मायावादी घाटा न सह सकने पर बम्बई जैसे
नगरों में कोई फाँसी लगाकर, कोई मकान से गिरकर आत्महत्या कर लेते
हैं। ऋषियों की मान्यता से विरुद्ध रजनीश का जो कुछ सिद्धान्त था वह सब केवल भोग
भोगने का था। भोगवादी के सामने कोई धर्म-कर्म आदि नहीं होता।
सारे विश्व की
वस्तुएँ एक व्यक्ति को मिल जायें फिर भी तृप्ति नहीं होगी, फिर शेष पाँच अरब व्यक्तियों के भोग की सामग्री कैसे पूरी होगी?
भोगवादी की
बुद्धि पक्षपात की होगी। अध्यात्मवादी न्यायप्रिय होगा। भोगवादी कितना ही
न्यायप्रिय हो पक्षपातरहित और परोपकारी न होकर स्वार्थी होगा। ईश्वर के सानिध्य से
योगवादी व्यक्ति अपना सर्वस्व देकर भी अन्य की भलाई चाहेगा।
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