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सत्य की अनदेखी

 सत्य की अनदेखी

 


यथेमां वाचं कल्याणी मावदानि जनेभ्यः।

ब्रह्मराजन्याभ्याँ षुद्राय चार्म्यायचस्वाम चारणाय॥

 

      ओ३म् द्यौः शातिरन्तरित५शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्मशान्तिः सवैशान्तिः शान्तिरेव शान्तिः-सा मा शान्तिरेधि॥ ६॥

यतो यतः समहमे ततो नो अभयङ्कक।

शन्नोः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः॥ ७॥

यजु० अ० ३६. मं० १७. २२॥

  

     कितना साफ और सुन्दर भाव इसमें प्रकट किया गया हैं ऐसा किसी और धर्म ग्रन्थ में मिलना प्रायः असंभव हैं। द्यौ का मतलब है जो हमारे पृथ्वी ग्रह से अलग बहुत सारे दूसरे ग्रह है अन्तरिक्ष में इस प्रकार से संपूर्ण ब्रह्माण्ड को सम्बोधित किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि अन्तरिक्ष शान्त हो, इसमें किसी प्रकार की अशान्ति न आये इस लिए प्रार्थना है, क्योंकि उसका प्रभाव पृथ्वी पर तो अवश्य पड़ेगा जब अन्तरिक्ष शान्त होगा तो पृथ्वी पर भी शान्ति की वारिस होगी आज सब कुछ है इस जगत में बस वही शान्ति नहीं है। किसी में आगे है मंत्र कहता सम्पूर्ण भुमण्डल में ही नहीं जहां भी पानी हैं वह भी शान्त हो और सारी की सारी औषधियाँ भी शान्त हो, वनस्पत्तीयाँ भी वन के पेड़ और उसमें के सारे प्राणी शान्त और कल्याण कारी हो, विश्व में व्याप्त जो देवगण हैं जो देने वाले याज्ञीक लोग है जिससे संपूर्ण जगत के जीवन मात्र का कल्याण और उपकार होता हैं वह सब जो देवता जड़ और चेतन वह भी शान्त हो और ब्रह्म अर्थात परमात्मा भी शान्त हो अन्त में सर्वम शान्ति सब प्रकार की जो जड़ चेतन दृष्य अदृष्य वस्तुए पदार्थ है। वह सब के सब शान्ति देनेवाले या प्रदान करने वाले हो वह स्वयं शान्त और आनंदित हो। अगर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में शान्ति और आनन्द होगा तभी यह पृथ्वी पर भी शान्ति और सुन्दर आनन्द होने की संभावना होगी। यह विचार लाखों साल पुराना हैं। लेकिन फिर आज भी इस आधुनिक युग में भी कितना तरोताजा और निर्दोष है। निर्विकार, र्निद्वन्द, निश्चल और शान्ति सौमनस्य से भरा पड़ा है।

 

     दयानन्द जी ने जिस काम को चालू किया था वह पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सका, उसके बाद बहुत बड़ी उनकी फौज है। लेकिन जिस प्रकार का कार्य होना चाहिए था वह हो नहीं पाया। उसमें कई कारण है। जो मुख्य है वह है उसके जैसा दुबारा कोई सुरमा और हिम्मती बहादुर योद्धा नहीं आर्य समाज में पैदा हो पाया जिस वजह से जो पेड़ दयानन्द जी ने लगाया था उस पेड़ कि देख भाल पुरी तरह से नहीं हो सकी, यह अवश्य है कि उस पेड़ को अभी तक नाम मात्र का ही जिन्दा रखा गया है। जिस प्रकार से किसी मुर्दे को मिश्र में उसे ममी बनाकर बड़े शान से और सजा धजा कर कब्र में दफन कर देते थे। और वह हजारों वर्षों तक उसी तरह पड़ा रहता है। उस पर कई प्रकार के केमिकल लगा देते है। उसी प्रकार की हालत आज आर्य समाज की है। यह है तो दयानन्द का नाम है। मगर वह नहीं है। जीवन उसमें वह पुरुष न के समान है। जो वेद के सिद्धान्तों पर स्वयं चल सके और उनके जीवन से उस वैदिक संस्कृति कि सुगन्ध आ पाये जो हमारे दर्शन वेद कहते है। उसकी कसौटी पर खरा नहीं उतर पा रहे है। जिसकी वजह से वह कुंठित हो गया जिस प्रकार से आधा चावल पका कर आग से नीचे उतार लिया जाए, और उसको खाने कि जल्दी की वजह से ठंढे पानी में डाल दिया जाये, वह अधपका रह जाएगा और जो उसको खायेगा उसका पेट अवश्य खराब हो जाएगा। आज यही हो रहा है लोगों का भरोसा निरन्तर उठता जा रहा है। पुरी तरह से अपना विकास नहीं कर पाया वह उस में सिद्ध की कमी निरन्तर खलती हैं। कार्य को आगे बढ़ाने वाले तो बहुत है लेकिन कही ना कही वह मार्ग से भटक रहे है। जैसे अभी हाल की घटना को ले लेते है। आर्यसमाजों के जो स्वयं को प्रेषिडेन्ट कहते है वह सन्यासी स्वामी अग्निवेष है। उन्होंने सार्वजनिक रूप एक टी.बी चैनल पर यह इन्टरव्युय दिया कि वेदों उपनिषद और दयानन्द जी इस समलिगंता के पछधर है। जिसके अनुसार एक पुरुष दूसरे पुरुष के साथ गुदा मैथुन करने कि स्वतन्त्रता दी जाये और वह आपस में विवाह करने कि अनुमति दी जाने के लिए इसकी अर्जी सरकार को दी गई। क्योंकि यह मानव की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की बात है। इसके लिए जो कानून कि धारा है अग्रेजों के जमाने से ३७७ उसको खत्म की दिया जाए, जिसके वजह से पूरे आर्य समाज में एक प्रकार कि हड़कम्प-सी मच गई है। पुरा उसके पक्ष में काफी बुद्ध जीवी वर्ग है। अखिल विश्व में ख्याति प्राप्त लग भग दो सौ मानवता वादी भारतीय हस्तियों यथा-सर्व श्री सोली सोरब जी, सिद्धार्थ दुबे, ष्यामबेनगल, अरुणाराय, अरुन्धतिराय, अदिति देषाई, एम जे अकबर, डा. अर्मत्यसेन और विमी अग्निवेष आदि द्वारा समलैगिकता की पुर जोर वकालत करते हुए केन्द्रग सरकार से मागं की गई कि भारतिय दण्ड संहिता १४५ वर्ष पुवै अर्थात १८६१ मं लागू धारा ३७७ समाप्त की जाए व्यस्को को समलैगिंक प्रेम और योन सम्बन्ध बनाने में पाबन्दी लगाती है। क्योंकि जिस अंग्रेज हुकूमत के दौरे में यह धरा लागू की गई थी उसी इग्लैड में अब समलैगिक यौन सम्बन्धो को उचित ठहरा दिया गया है। इस प्रकार से समलैगिक यौन-सम्बन्ध मानव सभ्यता का एक प्रामाणिक अगं बन गया है। इस बात को लेकर आर्य समाज में काफी बवाल खड़ा होगया है। आपस में फुट पड़ने के संकेत मिलने लगे है। जो दूसरा पक्ष है वह समलैगिकता का बिरोध करता हैं उसका तर्क है। कि आज स्त्री और स्त्री को और पुरुष को पुरुष से संभोग की स्वक्षन्दता दी जारही है। कल यह परमीसन दिया जाएगा। तो कल वह यह भी माग कर सकते हैं कि वेष्यालय और आपस में मा बहन के साथ संभोग करने कि इजाजत दि जाये जैसा कि वाम मार्गी धर्मसाहित्य को मानने वाले करते है। कि "मातारमपि न त्यजेत्" अर्थात मता, कन्या और भगनि को भी सम्भोग किए बिना नहीं छोड़ना चाहिए इतना ही नहीं पशु आदि के साथ भी स्त्री पुरुष द्वारा यौन सम्बन्ध बनाना उचित माना जान चाहिए है। इस तरह से तो वैदिक संस्कृति का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा इसका खतरा लोगो को साफ-साफ दीखने लगा है। क्योंकि अब सारे फैसले कोट और कचहरी में जजो द्वारा तय किया जाता है। जो ठीक नहीं है। ऐसा पश्चिम यूरोप भारत ही नहीं पूरे विश्व में धड़ल्ले से होरहा हैं बाकादा इसपर फ़िल्मे बना कर बहुत बड़ा ब्यापार किया जारहा है। नेट के माध्यम से यह सभी के पास मोबाइल के चिप में सुलभता से पहुच रही है और इससे बचने का समाधन नहीं समझ आरहा है। किसी को सिवाय स्वच्क्षन्दता और उच्छृखलता के इसकी मात्र बढ़ रही है। जिस कार्य को दयानन्द ने सुरु किया था जिस पेड़ को उन्होंने लगाया था।

      उसी पेड़ की डाली और पत्तों के साथ में फुलों को भी अवसर देने का भागीरथी प्रयास या पुरुषार्थ किया रजनिष ओशो ने, लेकिन रजनीष ओशो को कुछ लोग ऐसा मानते है। की रजनीश पश्चिमी गुरु हैं वह पश्चिम का अनुसरण करते हैं जबकी रजनीश वेदो को तो नहीं पढ़ा है। ना ही वह संस्कृत के वांगमय से डायरेंक्ट संपर्क रखता हैं लेकिन वह सारी बाते जा सार्वभौमिक है। जो संस्कृत सें निकल कर ही फैली हैं। वाइबिल, कुरान, उपनीषद, गीता, जीन्दावस्ता और आधुनिक कितावों को अपना आधार बना कर बोलता है। जिसमे कही ना कही उसकी जड़ वेदो तक पहुचती हैं वह एक महान चिन्तक हैं। उसको समझाना स्वयं के समझने के समान हैं उसे वही समझ सकता हैं जो स्वयं को जानता है। उसका आधार स्वयं का अस्तित्व है। सारी विश्व की जो श्रेष्ठ अद्भुत किताबे हैं वह मनुष्य क अस्तित्व के चारों तरफ चक्कर लगा या घुम रही है। जिस प्रकार कोई उपग्रह पृथ्वी का चक्कर लगाता है। कोइ उपग्रह कितनी जानकारी दे सकता किसी ग्रह के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा उसकी बारीकी से तस्बिरो को खीच सकता है। उसका स्कैन करेगा या फिर कह सकते है। कि उसका एक्सरे कर सकता है। यही उस ग्रह के अस्तित्व का अन्त नहीं है। जिस रहस्य को आज तक वैज्ञानिक जान नहीं पाए है। कि मानव शरीर में वह कौन है? जो साषे ले रहा है। वह कौन-सी शक्ति है? जो खाद्य पदार्थ को पचा कर खुन बनादेता है और गाय घास फुस दूसरे वस्तुओ को खाकर दुध कैसे बनाति है? ऐसी मसीन आज तक नहीं बना पाया है। तो यह सारी किताबों के लिए रहस्य ही है। रजनीश भी यही करता हैं वह भी उसी ग्रह की भाँति अपने अस्तित्व के चारों तरफ चक्कर लगा रहा है। यहां दो बाते है। एक अस्तित्व है। दूसरा बुद्धि है। जो उसका विश्लेषण करती है। लेकिन वह पूर्ण की व्याख्या नहीं कर पाया है। उसने तो केवल इतना किया है। कि तुम को ध्यान दिला रहा है। क्योंकि उसने अपना सारा ध्यान उसी अपने केन्द्र पर ही स्थित रखता है। स्थिरता क्या है? वह स्वयं कहते है तुम्हारे भीतर संसार में तुम अपनी उन समस्याओं को भूलने की कोशिश करते हो जिनका तुम हल नहीं कर सकते। तुम अपना ध्यान उन समस्याओं की तरफ ले जाते हो जो तुम हल कर सकते हो। इस कारण प्रमुख बीमारियाँ भूमिगत हो जाती हैं। अंततः तुम उनके बारे में सचेत भी नहीं रहते और तुम झूठी समस्याओं से जूझते रह जाते हो। आन्तरिक स्थिरता के लिए पहली बात तो यह है कि इस बात का पता लगाओ की तुम्हारी समस्याओं, तुम्हारे द्वन्दो, तुम्हारी तनावो की जड़ क्या हैं-जड़ क्या है? उसके बारे में मत सोचो कि इनका हल कैसे किया जाएगा? पहले उनका बस पता लगाने की बात हैं उनके हल का कोई सवाल नहीं है उनको बदलने की कोई बात नहीं है। बस अपने मन की प्रमुख समस्याओ का पता लगावो बस सचेत रहो यह मत सोचो की इन्हे कैसे बदला जाए? क्योकि जिस क्षण तुम यह सोचने लगते हो की इन्हे कैसे बदला जाए? तुम होश पूर्ण रहने का औसर खो देते हो।

     क्रोध है, लोभ है, सैक्स है; उन्हे बदलने के बारे में मत सोचो, उनसे पार जाने के बारे मत सोचो। वे है, उनके बारे में सचेत होओ. यदि तुम सचमुच सचेत हो, तुम पार हो जाओगे। होश अतिक्रमण है। तुम्हारा मन के प्रति सतत होश तुम्हारे लोभ, तुम्हारे क्रोध, तुम्हारे सैक्स, तुम्हारी नफरत, तुम्हारी ईर्ष्या को विसर्जित कर देता है। वे स्वतः विसर्जित हो जातें है। उन्हे विसर्जित करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया जाता। वे वही है, तो उन्हे विसर्जित करने के लक्ष्य की जगह, उन्हे स्वीकारना ज़्यादा सहायक है। अपने क्रोध को स्विकारो। वह मौजुद है उसे स्विकारो और उसके प्रति सचेत होओ, ये दो बाते है, उसे स्विकार और होश। यदि तुम अपने क्रोध को अस्वीकार करते हो, तुम सचेत नहीं हो सकते। तुम इसेके आमने सामने नहीं हो सकते और जब क्रोध को आमने-सामने देखा जाता है, तो यह बिदा होजाता है या विसर्जित होजाता है। जब सैक्स को आमने-सामने देख लिया जाता है, उर्जा अलग ही आयाम में मुक्त हो जाती है। अपने मन को देखे और उसको स्विकार करो। नकारात्मक शिक्षाए, निन्दात्मक शिक्षाएं, शिक्षाएं जो सघंर्ष के आधार पर टिकी है, उन्होंने हमारी तथाकिथत दुनिया का निर्माण किया है। सारी पृथ्वी पागलखाना है और सभी विक्षिप्तता की तरफ जारहे है। विवके हमेशा स्वीकार पर आधारित होता हैं। यह रहस्य है। यदि पागल व्यक्ति अपने पागलपन को स्वीकार लेता है, पागल पन विदा हो जाएगा। जो कुछ तुम समग्रता से स्वीकार सको, भीतर एक नई घटना घटती है। स्वीकार के द्वारा, संघर्ष विदा हो जाता है। जो उर्जा संघर्ष में उलझी थी वह अब उलझी नहीं है सुलझ गई है और यह तुम्हे काफी मजबुत हो जाते हो, इस ताकत और होष के साथ, तुम अपने मन के उपर चले जाते हो। तब तुम अपने मन को स्विकारते हो और मन के प्रति होश रखते हो और तीसरी बातः इस दुनिया में रहो, इस दुनिया में जीयो, परिधि से नहीं बल्कि केन्द्र से। यदि तुम अन्तराल को बनाए रख सकतो हो-और वह मुष्किल नहीं है, होश यह बहुत आसान बात है-तब केन्द्र अछुता रह जाता है। यदि केन्द्र अछुता रह जाता है, देर-सबेर तुम निश्चित ही गहन स्थिरता का बिन्दु पाओगे जो सिर्फ़ तुम्हरा ही नहीं है बल्कि वह बिन्दु, वह केन्द्रीय बिंदु सारे अस्तित्व का केन्दीय बिन्दु है। यदि तुम अपने होने के केंन्द्रीय बिंदु से प्रवेश कर सको, वह मौन है जहा कोई ध्वनि नहीं है।

       वह शब्दो का जादुगर हैं वह ऋषि के समान है। समय के साथ ऋषि भी बदलते है। वह आज में जीता है। उसी को वह बोलता है। वह एक अनुबादक की तरह हैं उसने अपने जीवन में जो पढ़ा वह सब वैदिक शाष्वत यर्थाथ को व्यक्त करते या संकेत करते है। पतन्जली का योग दर्शन विश्व विख्यात है उसमे दो सुत्र जो बहुमुल्य जिसको ओशो होष और सचेत कहते है उसी को वह अनुशाषन और नीरोध कहते है। वैदिक संस्कृति क्या जिसकी ब्याख्या वेद करते है या वेद द्वार प्रतिपादित जो सिद्धान्त मंत्रो के रूप में है वही वैदिक संस्कृति के नाम से जान जाता है इस विश्व में जिसके प्रर्वतक ऋषियों को मान जाता है क्रमषः अग्नि, वायु, आदित्य, अगिरा नामक ऋषियो को यह ज्ञान परमात्मा द्वारा प्रदान किया गया ऐसा कहा जाता है उनकी आत्मा में श्रृष्टि के आरम्भ में जो अमैथुन श्रृष्टि थी बाद में मैथुनि का प्रारम्भ किया गया था और यह ज्ञान जो वेदो में है इसको इसी प्रकार श्रृष्टि के आरम्भ में दिया जाता है। इसको कई लाखो वर्षो तक मौखीक ओरल एक दूसरे को दिया जाता रहा गुरु ने अपने शीष्य को दे देता था। अर्थात एक ऋषि दूसरे ऋषि को रुपान्ततिर कर देता था बहुत ज़्यादा समय नहीं हुआ जब इसको कीताबो कारुप दिया गया व्यास द्वारा इसे त्रयी विद्या को कीताबो के रूप में अपने परम शीष्यो के द्वारा कराया गया। इसके पिछे कारण था कि समय के साथ मानव की स्मृति कमजोर हो रही थी इसलिए इसको संकलित किया गया, और उसको समझने के लिए भी वेदो के अंगों को लिखा गया, जिसमें शीक्षा, कल्प निरुक्त व्याकरण, ज्योतिषी और छन्द की रचना की गई, यही बात नहीं ठहरती है आगे उपनीषद और दर्शन, सैकणो की संख्या में पुराणो को साथ में स्मितिया, ब्राह्मणग्रन्थ रामायण, महाभारत, गीता यह सब लिखने का कारण पहले केवल एक था वह था कि मनुष्यों की क्षमता और समझ निरन्तर घट रही थी। कमजोर मनुष्य हो रहा था या फिर उसमे कुरुपता भ्रष्टाचार अत्याचार ज़्यादा फल-फुल रहा था वह अध्यात्म से दूर जारहा था या जो वेदो की आज्ञा थी उसको नकार रहे थे। क्योकि उसके समझ नहीं पारहे थे इसको समय के साथ वुद्धिजीवियो ने समझा, और इसका समाधान था कि ज्ञान बिज्ञान को सरल ढंग से प्रस्तुत किया जाए। जो लोगो को आसानी से समझ में आजाए यही कार्य प्रत्येक महापुरुष ने किया है। पहले बात को र्फामुला सुत्रो में कहा जाता था जिसको वह आसानी से समझ सकते थे। पहले मंत्रो को श्लोको में किया गया बाद में और विस्तारत किया गया बहुत सारी जब भाषावो का सर्जन होगया सारी विश्व की भाषा की जो जननी है। वह संस्कृत है और सारी भाषायें इसी संस्कृत का ही अपभ्रन्स या बिगड़ा हुआ रूप है। सब भाषाओं का श्रोत वैदिक संस्कृति ही हैं इनका विस्तार निरन्तर अपनी-अपनी लौकिक और मात्रृ भाषा में किया जाना लगा। जिसको जो हिस्सा पसन्द आया उसी को लेकर उसने एक नए किताब कि रचना कर डाली, इनको लिखने का मतलब सिर्फ़ इतना हैं कि लोगो को वह जो मुल उनके अस्तित्व से संमबन्धित सुत्र है। वह समझ सके इसमे अनन्त लोग है पूरे विश्व मे, आज जो मुल वैदिक या वेद है। उनके प्रत्येक शब्दों पर एक नई किताब लिखने की आवश्यक्ता है। क्योकि एक शब्द जिसने समझ लिया उसने जीवन को समझ लिया जैसा कि वैज्ञानिक कहते है कि यदि हम एक परमाणु को भी पुरी तरह से जान लें तो या तो हम इस ब्रह्माण्ड के सारे रहस्यो को सुलझा सकते है। या हमरा सर फुट जाऐगा और हम सब का अन्त हो जाएगा। यही बात आज से हजारो लाखो वर्षो पहले वेद भी कहता है। ऋग वेद का नाषदिय सुक्त और भाववृत्तम यही बात आगे चल कर उपनीषद कहता है यज्ञावलक्य जब राजा जनक के दरबार में शाष्त्रार्थ कर रहे थे उसमे समस्त भुमण्डल से ब्रह्मज्ञानियो को बुलाया गया था जिसमे राजा जनक ने इनाम के रूप में एक लाख गायो के सीहों पर एक-एक किलो सोने को जणवा कर रखा था। जो जीतेगा वह इनसारी गायो को अपने साथ ले जाएगा, उन गायो को याज्ञवलक्य ने अपने आश्रम के ब्रह्मचारीयो के साथ दे दिया। और उनसे कहा कि इसे तुम सब ले जावो मैं इनको शान्त कर के आता हु। याज्ञवलक्य ने कथना अनुसार सब को हरा दिया अन्त में गार्गी नाम की विद्वोसी ने उनसे शाष्त्रार्थ किया जो सन्तुष्ठ नहीं हो रही थी। क्योकि वह बहुत बड़ी विद्वान थी तो याज्ञवलक्य ने वही बात वेदो वाली दोहराई की ऐ गार्गी तु ज़्यादा प्रश्नो को मत कर नहीं तो तेरा दीमाग फट जाएगा। बस अब सीमा आगई है। इसका मतलब साफ है कि अभी तक एक भी शब्द पुर्णः नहीं समझ पाये है। क्योंकि इसलिए ही शब्द को ब्रह्म कहागया हैं। इस मानव जिसने एक शब्द कोभी समझ लिया वह मुक्त होगया वह ऋषि होगया। लेकिन समस्या एक है। कि उस एक शब्द को ही व्यक्त करने के लिए इतने शब्दों की उतपत्ति हुई है। वह शब्द परमआत्मा का नाम है जिसको ओ३म् कहते हैं अर्थात यह ओ३म् ही परमाणु स्वरुप हैं। जिस प्रकार से एक परमाणु को तीन अणुओं में विभक्त किया गया हैं इसी प्रकार से यह ओ३म् भी तीन रुपों में विभक्त करते हैं जिसको ईश्वर, जीव, प्रकृती कहते हैं। इस लिए वेदों को त्रई विद्या कहते हैं। जैसा कि वेद स्वयं कहता हैं कि एक् सद विप्रा वहुदा बदन्ति, एक को ही व्यक्त करने के लिये अनन्त शब्दो और नामो का उपयोग हो रहा हैं। सब का केन्द्र एक है, जिस प्रकार से लक्ष्य एक है और उस लक्ष्य को भेदने के लिए उसके चारो तरफ से शब्द रुपी तीरो से उसपर नीसाने लगाये जारहे हैं पहले तो नीसान सटीक लगता नहीं हैं। क्योकि लक्ष्य अदृष्य हैं उसे भौतिक आखें नहीं देख पारही हैं कोई कभी कभार किसी एक का नीसाना लग जाता है। तो उसका कोई प्रमाण उसके पास नहीं आता है। जिस बाड़ का संधान करके छोड़ा था वह वापिस नहीं आता है। क्योंकि वह ब्लैकहोल के समान है। जिसके करिब एक बार जो वस्तु पहूच जाती हैं चाहे वह सूर्य का प्रकाश ही क्यो ना हो? वह भी वापीस नहीं आपाता हैं। तो ओशो ही नहीं पूरे इस विश्व में जो अनन्त शब्दों के बाड़ वहुत लोगो ने चलाया और ऐसी कोई दीशा या एंगल नहीं हैं या दषो दीषाओं से-से चलाया जा रहा है रजनिश आज के मनुष्यो को खुब समझता हैं इसलिए वह एक मुल संस्कृत या किसी और भाषा अंग्रेजी के शब्दो को लेता हैं। तो उसपर वह इतना बोलता है हर एगंल हर दिशा से हर कोड़ से उस शब्द को समझाने का प्रयास करता है। और उदाहरण में वह संपूर्ण विश्व के जो प्रकाण्ड विद्वान नामचिन है वह भले किसी क्षेत्र के क्यो ना हो? उनका अपने शब्दों में और अपनी बातो को सिद्ध करने के लिए भरपुर उपयोग करने की कला वह जानता हैं। जिसके फलस्वरुप एक नहीं कई किताबे तैयार हो जाती है। यह अच्छा बहुत कुछ लोग समझते हैं लेकिन मैं ठिक नहीं समझता क्योंकि शब्दों के ऐसे जाल में उलझाता हैं। (जिसको न्याय दर्शन में शब्द, जल्प, वितण्डा, कहते हैं। यह सोलह तत्वो में से तीन मुख्य तत्व है जो ज्ञान का अवरोध करते हैं जो मनुष्यो जीवन की जो मुल समस्या है। उसके समाघान अर्थात समाधि में रुकावट खड़ी करते हैं भारतिय वैदिक दर्शन ही समाधि शास्त्र हैं।) जिसमे से एक पढ़ा लिखा जो धनाढ्य व्यति है विश्व वि़द्यालय से निकल कर आया है। वह कदापि नहीं निकल सकता हैं, क्योंकि वह विचार करता हैं तर्क करता है। सोचता हैं समझता हैं और अपनी त्रुटियो को स्वयं के अस्तित्व से अलग करना चाहता है। हा यह अवश्य है कि जों अनपढ़ हैं वह उसके चुगंल में फसे ही नहीं क्योंकि वह विचार कर जीवन को नहीं जीता हैं वह तो जीवन को ऐसे जीता हैं जैसा प्यसा पानी पीता हैं। उसके लिए जिवन कोई समस्या नहीं हैं समस्या उनके लिए हैं जो समझदार स्वयं को समझतें है और सब कुछ तर्को के आधार पर कसते है। जबकी वह साफ कहता है। वुद्धि को अलग कर दो स्वयं से और निर्विचार कर दो स्वयं को, लेकिन करता इसका उल्टा ही है वह विचारो को ही भरता हैं और वह कोई वुद्धिहिन व्यक्ति मनुष्य नहीं हैं। उसने वुद्धि का भरपुर प्रयोग किया है। ध्यान और होश सचेत जागरुकता यह सारे के सारे शब्द शीनोनिमष की तरह र्प्यावाची की तरह प्रयोग करता हैं।

       प्र०-इस विषय में कितने ही पुरुष ऐसी शङ्का करते हैं कि वेदों में शब्द, छन्द, पद और वाक्यों के योग होने से नित्य नहीं हो सकते। जैसे विना बनाने से घड़ा नहीं बनता इसी प्रकार से वेदों को भी किसी ने बनाया होगा। क्योंकि बनाने के पहले नहीं थे और प्रलय के अन्त में भी न रहेंगे, इससे वेदों को नित्य मानना ठीक नहीं है?। उ०—ऐसा आपको कहना उचित नहीं, क्योंकि शब्द दो प्रकार का होता है एक नित्य और दूसरा कार्य। इनमें से जो शब्द, अर्थ और सम्बन्ध परमेश्वर के ज्ञान में हैं वे सब नित्य ही होते हैं और जो हम लोगों की कल्पना से उत्पन्न होते हैं वे कार्य होते हैं। क्योंकि जिसका ज्ञान और क्रिया स्वभाव से सिद्ध और अनादि है उसका सब समय भी नित्य ही होता है, इससे वेद भी उसकी विद्यास्वरूप होने से नित्य ही हैं, क्योंकि ईश्वर की विद्या अनित्य कभी नहीं हो सकती।

        जैसा कि पतंजली कहते है। पहले ही सुत्र में अथः योग अनुषाषनः अर्थात सचेत जागरुक हो जाओ होश में आजाओ स्वयं को देखना सुरु करदो आत्मा मन वुद्धि का निरिक्षण करो की क्या हो रहा है? तुम द्रष्टा बनने के लिए यह पहला चरण हैं। दूसरा सुत्र है योगश्चित्त वृत्ती निरोधः, अर्थात योग चित्त कि वृत्तीयों के निरोध को कहते है। यह निरोध शब्द कोई साधारण नहीं है अद्वितिय है। पूरे योग दर्शन का जो आधार है वह यहीं है। इस एक शब्द में पुरा योग दर्शन भरा पड़ा है। जिस प्रकार से पानी की एक बुद में समन्दर की वह सारी खुबी है और उसकी एक वुद को जिसने समझ लिया वह बड़े गर्व के साथ इसका बड़े जोर शोर के साथ उद्घेष करता है जैसे वैज्ञानिक कहते है कि पानी के अन्दर क्या है? उसे वह जानते है यदि उनसे कोई पुछता है तो वह कहेगे कि वाटर अर्थात उसमे दो हइड्रोजन और एक आक्सिजन के परमाणु मिल कर बनाते है। जिस तरह से यह एक बुद को समझाना पूरे पानी के समझने के समान है। उसी प्रकार से यह निरोध शब्द भी वहुत वेशकिमती और बहुमुल्य का है, केवल इस एक शब्द को ना समझने के कारण ही बहुत बड़ी हानी पूरे मानवता को उठानी पड़ी है। और आज तक उठा रहा है। इस शब्द को बखुबि रजनिश ने समझा है। वह इस शब्द पर कई सौ कितावो के तैयार कर देता है। यह सुनने में ज़रूर एक आश्चर्य से कम नहीं लगता है। और इस बात पर कोई जल्दि विश्वाश भी नहीं करेगा की इसमे ऐसा क्या है? जिसको सिर्फ उसने समझा उससे पहले भी लोगो ने समझा तो अवश्य था लेकिन उन्होंने उसका तिल का ताड़ बनाने कि जो कला है। उससे से पुरी तरह अनभीज्ञ थे इस बात को भी उसने बड़ी गहराई से समझा या इसके प्रति वह आजीवन जागरुक रहा। यह निरोधे रहस्य पूर्ण है और बहुत सारे विद्वानो जो किताबी कीड़े है उन्होंने इस पर बिल्कुल ध्यान नहीं-नहीं दिया, उसका अर्थ एक भयंकर अनर्थ कर दिया जिसके कारण एक ऐसे विश्व और संकृण समाज की स्थापना हुई। जिसका आधार दमन पर टीका हैं। और रजनीश को लेते है वह कभी नहीं कहता है। कि तुम दमन करो सुधारो संयम करो वह कहता है। की तुम बहो पानी की धारा के साथ यह धारा जो तुम्हारे केंन्द्र से आरही है और यह केन्द्र पर ही तुम्हे ले जाएगी, वह यह नहीं कहता है कि तुम मन से लड़ो और इसको रोकने का प्रयास करो इसके लिए अपनी शक्ति को झोको वह कहता है। की तुम इसको स्विकारो और इसके द्रष्टा बन कर इसके मात्र ध्यान से देखने ही से तुम्हारे अन्दर स्थिरता और निश्चितता निद्वन्दता निर्दोषता का आर्भीभाव होने की संभावना है।

      यदि तुम ऐसा कर सको इसके सिवाय दूसरा रास्ता कोई नहीं है। ऐसा ही वेद कहता है। नान्या पन्था विद्यतेअनायः, इसके सिवाय दूसरा कोई मार्ग या रास्ता नहीं है और यही बात पतंजली अपने निरोध के माध्यम से कहना चाहतें है। की अवरोध मत खड़े करो तुम्हारी वुद्धि जब आन्तरीक जगत के निवार्ण या बदलाव करने का प्रयास करने लगती है तो एक भयंकर समस्या खड़ी होती हैं। जिसका वुद्धि को कोइ अनुभूती ही नहीं है और वह उसका इलाज करने लगती और उसे तरह-तरह के टा्रंकल्वाइजर देती है। जिससे समाधि तो नहीं लगती हैं उसके स्थान पर भयंकर मानसिक और शारीरिंक विमारीयो का जन्म होता है। यह ऐसे ही है जैसे कोई ओवरडोज अफिम या कोकिन का सेवन करता हैं तो उसको अलौकिक जगत के अद्भूत अनुभव और ज्ञान प्राप्त होता हैं। ओशो भी ऐसे ही ड्रग्स का सेवन करके प्रवचन देता था। इस कारण ही आज इस ग्रह पर किसी स्वस्थ व्यक्ति को तलास पाना अत्यधिक कठीन होगया हैं। जिसको हम यह कह सके की यह व्यक्ति पूर्णः स्वस्थ है। स्वस्थ का मतलब है। स्वयं में स्थित होना स्वयं को जानना या स्वस्थ होना अर्थात समाधिस्त होना एक समान ही है। स्वस्थ कोई शरीर होसकता यह भी कठीन है। क्योकि इसका प्रमाण स्वामी रामदेव जो शरीर को स्वस्थ रखने के लिए ही एक विश्व व्यापी आन्दोलन या क्रान्ति का विगुल बजा रखा है। प्रणायाम और योग आसन के साथ जड़ी बुटिया यानी आर्युवेद को समर्थन कर रहे है। वह एक वैद्य भी है। जो स्वयं की दवा भी बना रहे हैं बड़े पैमाने पर औषधियो के विक्रेता भी हैं। यही नहीं राजनिति में भी कदम बढ़ा दिया हैं अपनी एक भारत स्वाभिमान नाम की पार्टा बना लिया हैं। और इसका बड़े जोर से प्रचार भी कर रहे है। शारिरीक इसका मतलब यह है कि इस भुमण्डल पर शरीर के स्तर पर भी बहुत कम लोग ही स्वस्थ्य है। और यह सारा कार्य भौतिक जगत के लिए ही किया जारहा हैं। शरीर के स्वस्थ्य होने पर ही मानसीक स्वास्थ्य पर ध्यान जाता हैं। तिसरा चरण जो सबसे जटील या जिसको जटील बना दिया हैं इस समाज के ठेकेदारो ने और ऐयास महापुरुषो ने वह है। (ऐयास महपुरुषो का अर्थ हैं जो अपने अस्तित्व के चिन्ता करे वगैरह नए-नए रास्ते कुकर्म करने के आजाद करते है।) आध्यात्मीक स्वास्थ्य है। जैसा की कपील साख्य दर्शन कार कहते हैं त्रिविधः दुःखः अर्थात दुःख तिन प्रकार के है। वह है शारिरीक, मानसिक, आत्मिक और इससे मुक्त होन का साधन वह कह रहे हैं अत्यन्तपुरषार्थ अर्थात अत्यधिक प्रयत्न प्रयास स्ट्राइव करना और तिन प्रकार का पुरषार्थ भी है। जो मुख्य वह है। आध्यात्मि द्रष्टा की तरह जीना और यह सबसे कठीन कार्य होगया हैं इसलिए तो यह दुनिया नरक और मृत्युलोक के नाम से जानी जाती है। कपिल तो यहां तक कहते हैं कि आत्मा तो कभी किसी बन्धन में आती नहीं है। वह तो स्वतन्त्र है और निस्क्रिय है। क्रियाशीलता तो मन और शरीर का कर्म है। आत्मा तो सब देखने वाला हैं। लेकिन जो कर्म, मन, वुद्धि, शरीर कर्म सुकर्म अकर्म इसका फल उसे अवश्य भोगना पड़ता। निरोध जो मुल शब्द हैं जहां कोई अस्वीकार भाव नहीं है हर तरफ से स्विकार भाव र्है जहां जीवन में जो भी है वह काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, ईर्ष्या, सैक्स जो सब का जैसा स्वभाव है उसको बिना किसी अवरोध खड़ा किए बगैर स्वीकार लेना हि निरोध है। मगर तथा कथित हमारे पढ़े-पढ़ाये सीखे-सीखये मशीनी मावन ने स्वयं को और स्वयं के अस्तित्व को अपने अनुसार ढालने की कसम दृढ़ सकल्प कर लिया है। जिस प्रकार से सूर्य के अस्थान पर हम दिपक को नहीं रख सकते हैं, नाही उसकी हम तुलना ही कर सकते है। सायद इसको भविष्य में कभी सम्भव कर सके की सूर्य की तुलना किसी और तारे से कर सके लेकिन स्वयं के अस्तित्व के संर्दभ में ऐसा नहीं है। उसकी तुलना कभी हम कर नहीं सकते है। लेकिन फिर भी उसकी तुलना करते है और स्वयं को जीतना ज़्यादा कुरुप हम बना देते है। उतना ही इस मुर्दा समाज में स्वयं को सम्मान मीलता हैं और हम सब इसी में खो जाते है और जो सबसे प्रमुख था उसको नजर अन्दाज कर देते हैं जिस प्रकार से कोई बच्चा साप को रस्सि समझ कर पकड़ लेता है। उसी प्रकार यहां एक वृद्ध भी करता है। उसको आजीवन इसी लिए संस्कारीत किया गया हैं। और उसने स्वयं कों भी इसी प्रकार बनाया है। जिससे सिवाय दुःख पीड़ा ही मीलती है। क्योंकि उसने स्वयं के अन्तरतम से उठने वाले भाव को ध्यान से देखने का बिल्कुल समय ही नहीं दिया, उसने हमेशा से उनको नजर अन्दाज ही किया वह आज भी उठते है। लेकिन जो उनको नजरअन्दाज करने का संस्कार है। अब तक काफी प्रबल और शक्तिशाली अंहकार का रूप ले लिया है। उस झुठे अहंकार को नष्ट करना असम्भव प्रायः होजाता है। क्योंकि इस पर कार्य तो अपने जीवन के सुरुवात में ही सुरु करना पड़ता है। क्या सुरु करना है? स्वयं को स्वीकार की कला का यही सब ने किया है।

    बहुत पुराने समय की बात है। एक राजा था। उसने अपनी पुत्री को एक बहुत सुन्दर हीरे का हार उपहार स्वरूप दिया था और वह हार खो गया था। उसके आदमीयों ने हर जगह उसकी तलाश की लेकिन उसको तलाश नहीं पाये। फिर राजा ने सब से कहा उसकी तलाश करो। जो इसको तलाश कर लाएगा उसे ५० हजार डॉलर मिलेगें। एक दिन एक क्लर्क नदि के किनारे घुम रहा था। उस नदी किनारे पर बहुत सारी फैक्टरीयाँ थी और वह नदी पूरी तरह प्रदुषण के कारण गन्दी और बदबुदार हो गयी थी। दील्ली की जमुना की तरह, जैसे ही वह क्लर्क घुमते हुए वहाँ गया उसने देखा एक चमकदार वस्तु नदी के अन्दर चमक रहा था, और जब उसने ध्यान से देखा वह एक हीरे का हार था। उसे पकड़ने का निश्चय किया, उसको लेने के बाद वह उसे राजा के पास ले जायेगा जिससे उसे ५० हजार डॅालर का इनाम राजा द्वारा मिल सकता है। यह विचार करके वह गन्दी और बदबुदार नदी में प्रवेश किया और उस हीरे के हार को तलासने लगा लेकिन दुर्भाग्य वस वह उसके हाथ नहीं आया वह खो गया। उसने अपना हाथ बहार निकाला फिर उसने देखा वह हीरे का हार उस गन्दी नदी में चमक रहा था। उसने एक बार दृढ़ निश्चय किया कि वह हीरे के हार को अवश्य ही पकड़ेगा। इस बार वह स्वयं नदी में उतर गया उसका सारा कपड़ा नदी की गन्दगी से लथपथ हो गया। उसने बार-बार नदी के गन्दे पानी में हाथ डाला और कीचड़ में हीरे के हार को तलाशा मगर उसके हाथ में सिवाय कीचड़ के और कुछ नहीं आया। ऐसा उसने कई बार किया फिर भी हार नहीं मिला। वह बहार से जब भी देखता था उसे हीरे का हार नदी के गन्दे पानी में चमकता हुआ नजर आ रहा था। उसने उसे पाने का प्रयास बार-बार किया और हर बार असफल हुआ और अन्त में वह बहुत दुखी और परेशान हो गया। उसे समझ में नहीं आ रहा कि वह क्या करे? उसी समय उस रास्ते से एक संन्यासी गुजर रहा था। उस ने उस क्लर्क को देखा और उसके पास गया पुछा कि क्या परेशानी है? क्लर्क ने पहले तो कुछ नहीं बताया और उसने अपने मन में सोचा कि यदि मैं इसको हीरे के हार के बारे में बताऊंगा तो मेरे हाथ से ५० हजार डॅालर चला जायेगा। वह संन्यासी वहीं पर खड़ा था उसे उस क्लर्क पर तरस आ रहा था। उसने एक बार फिर पुछा बताओ कि क्या बात है? तो उस क्लर्क को उस संन्यासी कुछ भरोसा हुआ। तो उस क्लर्क ने उस संन्यासी से अपनी परेशानी बताई, संन्यासी ने जब उसकी बातो को सुना तो उसने कहा कि हार नदी में नहीं है। नदी के किनारे जो वृक्ष है उस की शाखा पर है। तुम उपर देखो जब उस क्लर्क ने उपर देखा तो उसे वह हीरे का हार वृक्ष की शाखा पर नजर आया। उस संन्यासी ने कहा तुम नदी में उसकी परछाई को पकड़ना चाहते हो और परछाई पकड़ में आने वाली नहीं है।

       ऐसा ही कुछ हम सब के साथ भी हैं हम सब संसार रुपी नदी में जो किचड़ से भरी हैं उसमें स्वयं को तलास रहें हैं वह तो इस प्रकृती रुपी शरीर के वृक्ष पर बैठा सुवर्ण पक्षी आत्मा और परमात्मा हैं जिसके लिए ही वेद उपनिषद कहते हैं द्वासुपर्णा सयुजा सखाय...

        प्र०—जब सब जगत् के परमाणु अलग २ हो के कारणरूप हो जाते हैं। तब जो कार्यरूप सव स्थूल जगत् हैं उसका अभाव होजाता हैं, उस समय वेदों के पुस्तकों का भी अभाव होजाता है, फिर वेदों को नित्य क्यों मानते हो, उ०-यह बात पुस्तक, पत्र, मसी और अक्षरों की बनावट आदि पक्ष में घटती है, तथा हम लोगों के क्रियापक्ष में भी बन सकती है, वेदपक्ष में नहीं घटती। क्योंकि वेद तो शब्द, अर्थ और सम्बन्धस्वरूप ही हैं, मसी काग़ज़ पत्र पुस्तक और अक्षरों की बनावटरूप नहीं हैं। यह जो मस लेखनादि क्रिया है सो मनुष्यों की बनाई है, इससे यह अनित्य है और ईश्वर के ज्ञान में सदा बने रहने से वेदों को हम लोग नित्य मानते हैं। इससे क्या सिद्ध हुआ कि पढ़ना पढ़ाना और पुस्तक के अनित्य होने से वेद अनित्य नहीं हो सकते, क्योंकि वे बीजाङ्कुरन्याय से ईश्वर के ज्ञान में नित्य वर्तमान रहते हैं। सृष्टि की आदि में ईश्वर से वेदों की प्रसिद्ध होती है और प्रलय में जगत् के नहीं रहने से उनकी अप्रसिद्धि होती हैं, इस कारण से वेद नित्यस्वरूप ही बने रहते हैं। जैसे इस कल्प की सृष्टि में शब्द, अक्षर, अर्थ और सम्बन्ध वेदों में हैं इसी प्रकार से पूर्वकल्प में थे और आगे भी होंगे, क्योंकि जो ईश्वर की विद्या है सो नित्य एक ही रस बनी रहती है उनके एक अक्षर का भी विपरीत भाव कभी नहीं होता। सो ऋग्वेद से लेके चारों वेदों की संहिता अब जिस प्रकार की हैं कि इनमें शब्द, अर्थ, सम्बन्ध, पद और अक्षरों का जिस क्रम से वर्तमान है इसी प्रकार का क्रम सब दिन बना रहता है, क्योंकि ईश्वर का ज्ञान नित्य है, उसकी वृद्धि क्षय और विपरीतता कभी नहीं होती, इस कारण से वेदों को नित्यस्वरूप ही मानना चाहिए॥

      यही बड़े-बड़े वुद्धि जीवीयो का भी मानना है। हिन्दू धर्म शकंराचार्य के नाम पेटेन्ट होगया है। हिन्दू धर्म शकंराचार्य ने गीता को आधार बना लिया है। उनका मानना है। कि गिता में जो प्रधान तत्व है वह ज्ञान काण्ड ज्ञान का ही अनुसरण करना है। केवल परमात्मा सत्य है बाकी जगत माया इल्युजन भ्रम है निरर्थक है। वह कहते है कि अज्ञान ही सारे रोगो विमारी की जण है तो हमारे सब रोगो के काटने का साधन भी सीवाय ज्ञान के हो भी क्या सकता है। यही कारण है कि शंकराचार्य के अनुसार गीता का मुख्य प्रतिपाद्य विषय ज्ञान योग है। कर्म तो करना पड़ता ही है। हम सभी को और इससे बचने का रास्ता और क्या है वह ज्ञान पुर्वक कर्म करना कर्म का त्याग करने के लिए संन्यास के लिए कर्मों की निवृति के लिए शकंराचार्य ने कहा कि गीता अध्याय चार श्लोक ३७ में लिखा है कि गीता 'ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्तसात् कुरुतेऽर्जुन' हे अर्जुन ज्ञान की अग्नि से सब कर्म भस्म हो जाते है; इसी प्रकार गीता अध्याय ४, श्लोक ३३ में लिखा है-'सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्ते'। सब कर्मो का अन्त ज्ञान में होता है इससे यह सिद्ध होता है कि गीता का प्रतिपाद्य विषय ' कर्मयोग नहीं कर्म संन्यास है। उपासना के संदर्भ में शकंराचार्य का कहना है। भक्ति तो साकार व्यक्ति विशेष की नहीं है इसलिए उसकी उपासना नहीं हो सकती है, उसके प्रति प्रेम या श्रद्धा या प्रेम भी नहीं हा सकती है। दो शब्दो मे, शकंराचार्य के अनुसार गीता का प्रतिपाद्य विषय ना ही कर्म योग है ना ही भक्ति योग ही बल्कि ज्ञान योग ही है। इस तरह से हिन्दू धर्म को शकंराचार्य ने गीता के आधार पर यह कह कर अपनी तरफ आकर्सित किया कि ज्ञान की तरफ बढ़ो जो उस समय की मांग के अनुरुप था इन्होने जो सबसे बड़ा कार्य किया है एक दूसरे की खीचाई की है। दूसरे की कमि को उजागर की या है।  जैसे शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म और जैन को भारत भुमी से उखाड़ने का कार्य किया उसमे काफी कुछ हद तक सफल भी हुऐ है। ऐसा सुना जाता हैं कि शंकराचार्य ने बहुत बड़ा आन्दोलन चलाया था जैन और बौद्ध धर्म को इस पृथ्वी या भारत भुमि से मीटाने के लिए बौद्ध धर्म तो प्रायः लुप्त ही होगया था जैन को भी भागने और स्वयं के जो पैगम्बर महाविर की मुर्तियो के साथ काफी अत्याचार किया गया और जैनियो ने उसे बचाने के लिए जमीन में गाड़ दिया था और जो शकंराचार्य के अनुयाई थे उन्होंन कम अत्याचार नहीं किया था जैनियो पर जिस प्रकार से हिटलर ने जमर्नी पर किया था एक तरफा आक्रमड़ ऐसा ही कुछ उस समय भी हुआ था पहले लोगो का जबरजस्ति धर्म को अपनाने के लिए बिवष किया या कर दिया जाता था जैसा की हम देख सकते है। इष्लाम और यहुदी में यह मान्यता प्रबल थी आज कम हो गई है इसका कारण है। कि सारी शक्ति राजाओ से छीन कर सरकारे बन गई है। और सरकारे राजनिति करती है। इनका धर्म से कोई लेना देना नहीं है। भारत तो वैसे भी ऐसा देश है। जिसका संविधान किसी एक धर्म को नहीं मानता यह सबका अपना परसनल विषय हैं या व्यक्तिगत है। सेकलुरिज्म जिसको कहते है अर्थात धर्म निरपेक्ष जो किसी धर्म को नहीं मानता है। पहले ऐसा नहीं था जब शंकराचार्य थे तो उन्होंने षास्त्रार्थ ते लिए उससमय के जो राजा हर्षवर्धन थे उनके पास गये और कहा कि जो मुझको षास्त्रार्थ में हरा देगा उसका धर्म मैं स्वीकार करुलुगा। यदि नहीं हरा पाये और मैं जीत गया तो जैनियो यहां से भागना पड़ेगा और फिर राजा हर्षवर्धन के सामने उनकी दरबार मे शास्त्रार्थ हुआ जो कई दिन चलता रहा जिसमे जैनियो को हारना पड़ा और उनको राजा की आज्ञा से देश के बाहर जाने के लिए बिवश कर दिया गया, दूसरी जो महत्त्वपूर्ण बात है। वह कि शंकराचार्य सिवाय शास़्त्रार्थ के कारण ही राजा और समस्त भारतवासीयो को दील पर नहीं छा गये थे बल्कि एक महत्तवपूर्ण बात थी वह थी कि वह आकाश गमन की सिद्धि समपन्न थे।

      जैसा कि शंकराचार्यदिग्विजय में आता है। कि मंण्डन पण्डित को जीतने के शास्त्रार्थ में जितने के लिए भगवान शंकराचार्य ने प्रयाग से प्रस्थान किया और आकाश मार्ग से गमन करके मण्डन पण्डिंत माहिष्मती नगरी को देखा और वहां उतर कर उससे शास्त्रार्थ किया। जिससे यह सिद्ध होता है कि आकाष गमन सम्भव था। {ऐसा ही एक प्रयास महर्षि महेष योगी ने भी करना चाहा था लेकिन वह दिल्ली में जब सभा में उनसे उड़ने के लिए कहा गया तो वह नहीं उड़ पाये थे, लेकिन वह यह मानते थे कि वह उड़ सकते है। दिल्ली में इस असफलता के बाद ही वह भारत छोण कर हालैण्ड चले गये और वहां से वापस उनकी लाश ही आई थी।} और यही नहीं इससे एक कदम आगे बढकर शंकराचार्य शरीर में से निकल कर दूसरे शरीर में प्रवेश करने कि क्षमता भी रखते थे। क्योंकि वह मण्डन पण्डित को हराने के बाद उसकी पत्नी ने उनसे शात्रार्थ करने के लिए उसने चुनौति दी, जिसमे उसने प्रश्न किया की काम क्या है? इसकी कोई अनुभुनित शंकराचार्य को नहीं थी। क्योंकि वह बाल ब्रह्मचारी थे, इसलिए उन्होंने पर शरीरगमन की सिद्धि का प्रयोग करके एक राजा जो तत्काल मर गया था। उसके शरीर में प्रवेश करके छः महीने उस राजा के शरीर में रह कर काम की अनुभूती कि अर्थात संम्भोग किया। क्योकि उस राजा की कई रानीयाँ थी। फिर अपने शिष्यों द्वारा सुरक्षित अपनी शरीर में वापस आकर मण्डन पण्डित की पत्नी के प्रश्नो का उत्तर देकर उसको शान्त किया या जीता था। यह बहुत बड़ा रीजन है। जिसने उनको भगवान की उपाधी से अलंकृत किया गया था। वह जो भी कहते थे उसको लोग आंख मुद कर मानते थे। यह उड़ने और पर शरीरगमन को स्वामी दयानन्द और रजनीश भी मानते है कि योगी जब अपनी इन्द्रियों को जीत लेता हैं तो वह ऐसे कितने कार्य कर सकता हैं जो साधारण मानव के लिए संभव नहीं है। पतंजलि भी अपने योग दर्शन में इससे संम्बन्धित सुत्र देतें है। जैसा कि श्लोक कहता है। "ततः प्रतस्थे भगवान् प्रगातं मण्डन पिएडत माषु जेतूम्। गच्छन् खससृप्या पुरुमालुलोके माहिष्मते मण्डन मण्डिता स॥ दूसरा प्रमाण आकाश गमन कि कालिदास के द्वारा रचित अभिज्ञान शाकुन्तलम् से मिलता है।" गालव इदानिमेव विहायसा गत्वा मम बचना त्तत्रभवते काण्डवाय प्रियवेदय यथा पुत्रवतिशकुन्तला वच्छापनिवृत्तों स्मृतियाँ दुष्यन्तेन प्रतिग्रहीतेति॥

      अर्थात हे गालब अभी इसी समय आकाश मार्ग से कण्ड्व के पास उनके आश्रम में जाकर मेरी ओर से यह प्रिय समाचार सुनाना कि दुर्वासा का श्राप मिट जाने पर आज दुष्यन्त ने पुत्र वती शकुन्तला को स्वीकार लिया है॥

      इसाई धर्म जीशस क्रास्ट की जागीर है, वह भी मुर्दा को जीन्दा करने की ताकता रखते थे ऐसा बाइविल में आता है। कि वह लजारथ नामक व्यक्ति को कब्र से नीकाल कर जीन्दा करते है और पानी पर चलनें की भी घटना आती है और यही नहीं वह पांच मछली और कुछ रोटी के टुकणो से वह पांच हजार लोगो को भोजन कराते हैं और दश वारह टोकरी भोजन बच भी जाता है। ऐसा कई बार करते है। बाइविल की कहानीयों पर-पर आधरीत करके टाल्स्टाय ने बहुत सारी कहानीयों का-का निवार्ण किया है। जो बहत सुन्दर है। जरथ्रुस्थ के जीन्दा वस्ता को ही आधार पर नित्से जर्मनी का लेखक कहता है। की परमात्मा मर गया है। इसलिए मानव स्वतन्त्र है। यह सब धर्म किसी पर आश्रीत है। मुशा द्वार यहुदि धर्म जो कहता है। की परमात्मा कठोर है और वह क्रुर है। जैसा कि वेदो में आता है। की परमात्मा रुद्र के समान है। सबको रुलाने वाला है। लेकिन जिसस इसका उल्टा कहता है। कि परमात्मा प्रेमी की तरह है। वह वुद्ध के द्वारा अस्थापीत किए गये सिद्धान्तो पर बोलता है और इष्लाम धर्म के अन्तिम पैगम्बर मोहम्द साहब के रूप में आज भी पुजा जा रहे है। मोहम्द साहब का धर्म भी तलवार की दम पर खडा़ किया गया है। जरथ्रुस्त पारसी धर्म उसके नाम का गुणगान गारहा हैं। इसी प्रकार से गुरुनानक जी भी एक सीख धर्म के संस्थापक है। यह जीतने भी मनुष्यों ने स्वयं के जाना जब तक वह यहां रहे इस पृथ्वी पर तब तक उनके सामने कार्य ठीक कुछ हद तक होता रहा। यह लोग बहुत चालाक और राजनीतिक योजना वद्ध तरिके से कार्य किया है। स्वयं को समाज से अलग करके एक नया समाज की स्थापना करके स्वयं को अमर करने की रणनीती की तहत किया है। उनके जाते ही लोगो ने उनके नाम पर अपनी उछृखलता और वासना को तृप्त करने का माध्यम बना लिया। क्योकि उनकी जो रणनिति थि वह किसी को समझ में नहि आया, इसलिए जो उस ऋषि ने कहा था वह तो किसी के याद नहीं रहा हा यह अवश्य हैं। कि उस मुख्य गुरु के शरीर के देहान्त के बाद उसका और उसके व्यक्तव्यों का मन मुताबिक परिवर्तन करके उसका सदउपयोग करना तो कठीन कार्य था। उसका दूरपयोग अवश्य भरपुर किया गया, जिस के कारण ही यह पृथ्वी इतनी ज़्यादा बदसुरत या कुरुप विक्षप्तो के लिए निवास स्थान बन गई हैं। पहले ऋषि स्वयं कोई किताब नहीं लिखते थे किताबे उनके शिष्यो ने लिखी हैं। जो मुर्दा शब्दो का संग्रह से ज़्यादा कुछ नहीं जिसको कोई जीन्दा व्यक्ति नहीं मीलता हैं। वह इन मुर्दा किताबों सें ही अपना काम चलाता हैं। इसलिए मात्र पाचं हजार सालों में कीताबो का इतना बड़ा भन्डार होगया है। उसको नष्ट करने का विचार हो रहा हैं। क्योकि बड़ी-बड़ी लाइब्ररी जो विश्व में अपना स्थान रखती हैं। उसके पढ़ने वालो कि संख्या निरन्तर कम हो रही हैं। अगले ३० से पचास सालों के बिच में यह किताबे जो कागजो पर छपती हैं वह लुप्त होने की के कगार पर आ जाऐगी इसके पिछे बड़ा कारण हैं कि एक हजार से लेकर एक लाख किताबों को एक छोटी-सी कमप्युटर चीप में आ जायेगी। आगे आने वाली पीढ़ी के लिए सब वैज्ञानिक ऐसी ब्यवस्था कर रहे हैं कि वह अपने साथ पुरी लाइब्रेरी को रखें। क्योकि कागज की छपाई और उसके रखरखाव में अधीक कठीनाई आरही है। उससे कम में हम कही उससे ज़्यादा कीताबो का संग्रह कर सकते है और हमारी जेब पर भी ज़्यादा भार नहीं पड़ेगा। अब तो पश्चिम और युरोप यहां तक भारत और चिन आस्ट्रेलिया में भी वड़ी जो पब्लिक स्कुल विश्वविद्यालय हैं वहां पर विद्यायर्थि वैग और किताबो के बजाय अपने साथ कमप्युटर लैपटाप या पैन टाप मोबाइल जो कमप्युटर के समान है उस पर कार्य करते है। लेकर जाते है और यह सारी स्कुलो और विश्वविद्यालय को बन्द होने का समय नजदीक ही आरहा है। क्योंकि सारा लेशन पाठयक्रम और दुनिया भर की प्रत्येक क्षेत्र की ज्ञान विज्ञान योग जो भी आज तक संकलीत पूरे विश्व की जानकारी है किताबो में जिसको सुरक्षित रखने का प्रयासं किया गया है। यह सब अब कमप्न्युटर के द्वारा प्रत्येक मनुष्य के करिब आगया हैं। जिसकी वजह से यह सारे अध्यापक प्रोफेसर के स्थान पर रीबोट मसीनो को लगा दिया जाएगा। औैर सारी जो खेति जमीनो पर होरही हैं। वह सब वैज्ञानिक लेबो्रटरी में प्रत्येक प्रकार के खाद्य आनाज, तेलहन, दलहनं सभी प्रकार के फल फ्रूट भी औषधियों को भी पैदा किया जारहा है या किया जाएगा। जिसकी मात्र अभी काफी कम हैं। नैनो टेक्नोलॉजी की सहायता से और खाने के लिय शरीर को अपना काफी समय और शक्ति को खर्च करना पड़ता हैं। इसको बचाने के लिए भी ऐसे सेन्थिसिस टैबलेट के रूप में ही भोजन दिया जाएगा जो मलैट्रि के लोगो को दिया जाता हैं जो दूर दराज पहाड़ी दुर्गम स्थानो पर रहते है। और युद्ध काल में उसका प्रयोग किया जाता हैं। भारी मात्रा में अन्तरिक्ष में जाने वालो के लिए वही भोजन के रूप में गोलियो का उपयोग किया जारहा है। पुरी पृथ्वी का चक्कर एक घंटै में ही लगा सकते है। ऐसे प्लेन आरहे है। जो हाइड्रोजन और युरेनियम से चलेगे, चाद पर ट्रेन को लेजाने की व्यवस्था होरही जो ५० हजार किलो मीटर के रप्तार से चलने वाली हैं। जसको मैगनेट के आधार पर ग्रबिटेषन की शक्ति का प्रयोग करके किया रहा है। ओर यही नहीं पृथ्वी की रक्षा सिर्फ़ जमीन, आकाश और जल तक सिमीत नहीं हैं। अब उसकी रक्षा के लिए बड़े-रीबोट और भयंकर यन्त्रो को लगाया गया हैं। जो इस ग्रह की दूसरे खतरनाक उल्का पिण्डो और जो दूसरे क्षुद्र ग्रह अन्तरिक्ष के जो अपनी कक्षा से भटकने या गुरुत्वाकर्षण शक्ति कमजोर होने के कारण पृथ्वी की तरफ आरहे हैं। उनको पृथ्वी के पास आकर टक्कर होने से पहले ही उस धुमकेतु को रास्ते भटका दिया जयेगा। वह वापीस कही दूर अन्तरिक्ष में स्वयं को लेकर खो जायेगा। क्योंकि उसके पृथ्वी से टकराते ही यह पृथ्वी पुरी तरह से बरबाद हो जाएगी इसका नामो निसान मिटने की सांभावना हैं। इस पृथ्वी पर यदि कोई तिस मीटर से बड़ी वस्तु टकराती है तो उससे इतनी उर्जा की उत्पत्ति होगी जिससे यह ग्रह नष्ट हो सकता है। सारी पृथ्वी के वायुमण्डल को वातावरण को फिर से सेटींग करने की बात चल रही हैं अर्थात इस पृथ्वी को चारों तरफ से एक ऐसे लिफाफे में डाल दिया जाएगा, जो काम उजोन की परत कर रही हैं उसके अस्थान पर कृतिम उजोन की परत को सेट कर दिया जाएगा। जिससे पृथ्वी के वायुमण्डल और इसके वातावरण को फीक्स कर दिया जाएगा। इस तरह से वार्मीगं की समंस्या का समाधान मिलने कि संभावना है। क्योकि पृथ्वी पर जिस प्रकार से गर्मी बढ़ रही हैं यह वैज्ञानिको और वुद्धिजीवीयो केलिए एक भयकंर चिन्ता का विषय बन चुकि हैं। इसलिए ही चांद पर वस्तियाँ वसाने कि पुरी तैयारी में वैज्ञानिक जोर-षोर से जुटे है। एक नई दुनिया बषाने की बात चल रही हैं, जिसका कमान्डर  पुरी तरह से कमप्युटर और वैज्ञानिक होगें। जो चाद और मंगल ग्रह पर बसाने की तैयारी पर वैज्ञानिक कार्य कर रहे है। विज्ञान मात्र तिन सौ सालो में इतना ज़्यादा खतरनाक रूप से विकाश किया हैं। जिसने इस पृथ्वी के अस्तित्व के लिए हि एक भंकर संकट लाकर खड़ा कर दिया हैं। अब यह एक तरफ से नहीं हर तरफ से पूरे विश्व के चिन्तको ने इस पृथ्वी और मानव के अस्तित्व को बचाने के लिए भरसक प्रयास कर रहे है। अगले ५० वर्षो में पृथ्वी की क्या हालत होगी? इसकी कल्पना भी नहीं कर पारहे है इतना निश्चित है। एक भंयंकर आपदा आने वाली है। जिससे बचने के लिए हर तरफ से हर प्रकार का कार्य निरन्तर होरहा हैं। यह पृथ्वी और यह दुनिया एक खुबसुरत सैक्सि औरत की तरह है और कौन ऐसा पुरुष इस पृथ्वी पर होगा जो उस पृथ्वी रुपी औरत को पाना नहीं चाहता हैं। और उसे बचाने के लिए अपना सब कुछ झोक देता हैं आज यही हालत बुद्धिजीवियो की हैं। यही नहीं एक छोटा सूर्य भी अन्तरिक्ष में बनाया जारहा हैं। जिससे पुरि पृथ्वी की जो उर्जा की आवश्यक्ता हैं। उसकी पुर्ति होगी, क्योकि पृथ्वी पर इतना कोयला या पेट्रोल या विजली नहीं हैं जिससे भविष्य कि ज़रूरत को पुरा किया जासके, यह सब प्रयोगीक  स्थिती में हैं। इससे दो वस्तुओं का फायदा होगा पहला समय का और दूसरा काफी मात्रा में धन का भी, और भी बहुत सारी चीजो का फायदा होगा। इस कब्र रुपी कीताब से बचने के लिए ही ऐसी माइक्रो चीप का आविस्कार हो चुका हैं जिससे पृथ्वी के किसी कोने पर रह कर कोई व्यक्ति उसे मात्र कुछ पलो में ही किसी भी सन्दर्भ में जानकारी प्राप्त कर लेगा। सब लोगो के काफी करीब पहुच में आजाएगी या आना प्राम्भ कर दिया हैं। इन्टरनेट साइबर कैफै के रूप में अब तो जानकारी सारे प्रकार के क्राइम अपराध भी कमप्युटर के माध्यम से होने प्रारम्भ होगये। जिसको साइबर क्राइम के नाम से जानते है। अमेरिका और रुस और बड़े देश अपनी शक्ति बढ़ाने में लगे है। क्योंकि उनको एक दूसरे से अत्यधीक खतरा महसूष हो रहा है। यहां तक प्रत्येक मनुष्य के दीमाग में भी माइक्रो चीप डालने की योजना पर काम होरहा है। जिससे उसके दमाग को डारेक्ट कमप्युटर से जोणा कर उसको जानकारी दिया और लिया जा सके। यह सब आज क वैज्ञानिक ही ऋषि समझे जारहे हैं जिनको नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया  क्योंकि यहीं लोग अग्रड़ी है।

      यह जो वेदों के नित्य होने का विषय है इस में व्याकरणादि शास्त्रों का प्रमाण साक्षी के लिये लिखते हैं। इन में से जे व्याकरण शास्त्र है सो संस्कृत और भाषाओं के सब शब्दविद्या का मुख्य मूल प्रमाण है। उसके बनाने वाले महामुनि पाणिनि और पतञ्जलि हैं। उन का ऐसा मत है कि सब शब्द नित्य हैं, क्योंकि इन शब्दों में जितने अक्षरादि अवयव हैं वे सब कूटस्थ अर्थात् विनाशरहित हैं और वे पूर्वापर विचलते भी नहीं, उन का अभाव वा आगम कभी नहीं होता। तथा कान से सुन के जिन का ग्रहण होता है, बुद्धि से जो जाने जाते हैं, जो वाक् इन्द्रिय से उच्चारण करने से प्रकाशित होते हैं और जिनका निवास का स्थान आकाश है उनको शब्द कहते हैं। इससे वैदिक अर्थात् जो वेद के शब्द और वेदों से जो शब्द लोक में आये हैं वे लौकिक कहाते हैं वे भी सत्र नित्य ही होते हैं, क्योंकि उन शब्दों के मध्य में सब वर्ण अविनाशी और अचल हैं, तथा इन में लोप, आगम और विकार नहीं बन सकते इस कारण से पूर्वोक्त शब्द नित्य हैं।

     जो एक बात सब में कामन या समान हैं, वह यह है कि पहले के किसी मनुष्य या महा मानव को ही इस पृथ्वी को और इसकी हालत को देख कर ना ही सन्तुष्टि या शान्ति थी ना आज ही है। मतलब सारे अशान्त है और इन सब ने ही मील कर इस पृथ्वी को एक भयंकर अशान्त ग्रह बनाने का दाइत्व जाता है। यह सब लोग खतरनाक लोग है। इनसे बचना आवश्यक है। यह सब किसी ना किसी प्रकार से सिवाय सोषण के करते ही क्या है? बाहर जगत में भ्रमण करना ही अशांती हैं और अन्तर्जगत में स्थित रहना ही शान्ती हैं,  ग़लत यह साधारण जनता नहीं है। ग़लत इनको बनाया गया है और अब सही बनाना असंम्भ है। क्योंकि आज की पीढ़ी एक अति पर आकर खड़ी होगई हैं। इसका समाधन सुझाव नहीं हो सकता है, समाधान है। वह विल्कुल मौन है और शून्य है। समाधि है और समाधि ही समाधन है। समाधि में उतरने का मार्ग स्वयं का अस्तित्व ही बता सकता है। या ध्यान हैं ध्यान सीखाया नहीं जासकता है। ध्यान तो एक कला है। जो अभ्याष और त्याग से ही आता है। संसार एक ऐसा रण क्षेत्र है। जहां किसी पर भरोसा करना स्वयं को खतरे में डालने के समान ही है। और यह खतरा ही मनुष्य को मनुष्य बनने के लिए प्रेरीरित करती है। तो बिना किसी सहारे के बिना किसी आसरे के स्वयं पर आस्था करके रण क्षेत्र में कुद पड़ो, यहां की जीत और हार की चिन्ता मत करो। क्योकि यह दोनो बराबर है।

      गणपाठ अष्टाध्यायी और महाभाष्य में अक्षरों के लोप, आगम और विकार आदि कहे हैं फिर शब्दों का नित्यत्व कैसे हो सकता है? इस प्रश्न का उत्तर महाभाष्यकार पतञ्जति मुनि देते हैं कि शब्दों के समुदायों के स्थानों में अन्य शब्दों के समुदायों का प्रयोगमात्र होता है। जैसे वेदपारगम् ड हुँ भू शप् तिप् इस पद समुदाय वाक्य के स्थान में वेदपारगोऽभवत् इस समुदायान्तर का प्रयोग किया जाता है। इस में किसी पुरुष की ऐसी बुद्धि होती है कि अम् ड् ३ श् प् इ इन की निवृत्ति होजाती है सो उसकी बुद्धि में भ्रम मात्र है, क्योंकि शब्दों के समुदाय के स्थानों में दूसरे शब्दों के समुदायों के प्रयोग किये जाते हैं। सो यह मत दाक्षी के पुत्र पाणिनिमुनिजी का है जिनने अष्टाध्यायी आदि व्याकरण के ग्रन्थ किये हैं। सो मत इस प्रकार से है कि शब्द नित्य ही होते हैं, क्योंकि जो उच्चारण और श्रवणादि हम लोगों की क्रिया है उस के क्षणभङ्ग होने से अनित्य गिनी जाती है, इससे शब्द अनित्य नहीं होते, क्योंकि यह जो हम लोगों की वाणी है वही वर्ण २ के प्रति अन्य २ होती जाती है। परन्तु शब्द तो सदा अखण्ड एकरस ही बने रहते हैं।

      तुफान के बाद आई स्तब्धसता में खिले मौन को तलासो-इसके पहले नही। तुम्हारी चेतना का फुल सिर्फ़ तब खीलेगा जब तुम्हे वास्तविक मौन घटेगा, इसके पहले कभी नही। तुम फुल को खीलने के लिए बाध्य नहीं करसकते हो। यह स्वतः खिलता है। तुम अपनी चेतना को खुलने के लिए बाध्य नहीं कर सकते। इसके लिए तुम हिंसक नहीं होसकते। यह बस नष्ट हो जायेगी।

     फुल अपने से स्वतः खीलता है। सिर्फ़ प्रमाणिक, वास्तविक, सहज मौन की मिट्टी की ज़रूरत होती है। ओढ़े हुए मौन से फुल कभी नही, खीलेगा। ओढ़े मौन से तुम बस सुस्त हो जावोगे। तुम्हारा होना कम जीवन्त होगा, बस यही होगा तुफान से गुजर जाओ और वास्तविक मौन को घटने दो, तब तुम्हारा होना खीलेगा-तब तक नही,

 

      आग ऐसी दील में लगी है। जो धधक-धधक कर जल रही हैं न चाहते हुए जीन्दगी में मनुष्य को ऐसे जख्मों को जीने के लिए विवश होना पड़ता हैं, जिसमे उसका कोइ दोष नहीं रहता है। उसके लिए भी उसे कष्ट दुःख और डैपरेसन को सहना पड़ता है। जिसका वह हकदार नहीं है। मनुष्य होना इस पृथ्वी पर सबसे वड़ा प्रसाद भी है और जो सबसे बड़ा और खतरनाक श्राप भी है। मनुष्य होना किसी सजा से कम नहीं है। या युं कहे की-की इससे बड़ी कोई सजा नहीं है।

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