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ऋग्वेद अध्याय 01 सूक्त 16, 17, 18

 ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


आ त्वा॑ वहन्तु॒ हर॑यो॒ वृष॑णं॒ सोम॑पीतये। इन्द्र॑ त्वा॒ सूर॑चक्षसः॥


विषय - अब सोलहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में सूर्य्य के गुणों का उपदेश किया है-


पदार्थ -

हे (इन्द्र) विद्वन् ! जिस (वृषणम्) वर्षा करनेहारे सूर्य्यलोक को (सोमपीतये) जिस व्यवहार में सोम अर्थात् ओषधियों के अर्क खिंचे हुए पदार्थों का पान किया जाता है, उसके लिये (सूरचक्षसः) जिनका सूर्य्य में दर्शन होता है, (हरयः) हरण करनेहारे किरण प्राप्त करते हैं, (त्वा) उसको तू भी प्राप्त हो, जिसको सब कारीगर लोग प्राप्त होते हैं, उसको सब मनुष्य (आवहन्तु) प्राप्त हों। हे मनुष्यो ! जिसको हम लोग जानते हैं (त्वा) उसको तुम भी जानो॥१॥


भावार्थ - जो सूर्य्य की प्रत्यक्ष दीप्ति सब रसों के हरने सबका प्रकाश करने तथा वर्षा करनेवाली हैं, वे यथायोग्य अनुकूलता के साथ सेवन करने से मनुष्यों को उत्तम-उत्तम सुख देती हैं॥१॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


इ॒मा धा॒ना घृ॑त॒स्नुवो॒ हरी॑ इ॒होप॑वक्षतः। इन्द्रं॑ सु॒खत॑मे॒ रथे॑॥


विषय - फिर भी अगले मन्त्र में सूर्य्यलोक के गुणों का ही उपदेश किया है-


पदार्थ -

(हरी) जो पदार्थों को हरनेवाले सूर्य्य के कृष्ण वा शुक्ल पक्ष हैं, वे (इह) इस लोक में (इमाः) इन (धानाः) दीप्तियों को तथा (इन्द्रम्) सूर्य्यलोक को (सुखतमे) जो बहुत अच्छी प्रकार सुखहेतु (रथे) रमण करने योग्य विमान आदि रथों के (उप) समीप (व क्षतः) प्राप्त कराते हैं॥२॥


भावार्थ - जो इस संसार में रात्रि और दिन शुक्ल तथा कृष्णपक्ष दक्षिणायन और उत्तरायण हरण करनेवाले कहलाते हैं, उनसे सूर्य्यलोक आनन्दरूप व्यवहारों को प्राप्त कराता है॥२॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र:  छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः 


इन्द्रं॑ प्रा॒तर्ह॑वामह॒ इन्द्रं॑ प्रय॒त्य॑ध्व॒रे। इन्द्रं॒ सोम॑स्य पी॒तये॑॥


विषय - अब अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से तीन अर्थों का उपदेश किया है-


पदार्थ -

हम लोग (प्रातः) नित्यप्रति (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य्य देनेवाले ईश्वर का (प्रयत्यध्वरे) बुद्धिप्रद उपासनायज्ञ में (हवामहे) आह्वान करें। हम लोग (प्रयति) उत्तम ज्ञान देनेवाले (अध्वरे) क्रिया से सिद्ध होने योग्य यज्ञ में (प्रातः) प्रतिदिन (इन्द्रम्) उत्तम ऐश्वर्य्यसाधक विद्युत् अग्नि को (हवामहे) क्रियाओं में उपदेश कह सुनके संयुक्त करें, तथा हम लोग (सोमस्य) सब पदार्थों के सार रस को (पीतये) पीने के लिये (प्रातः) प्रतिदिन यज्ञ में (इन्द्रम्) बाहरले वा शरीर के भीतरले प्राण को (हवामहे) विचार में लावें और उसके सिद्ध करने का विचार करें॥३॥


भावार्थ - मनुष्यों को परमेश्वर प्रतिदिन उपासना करने योग्य है और उसकी आज्ञा के अनुकूल वर्त्तना चाहिये। बिजुली तथा जो प्राणरूप वायु है, उसकी विद्या से पदार्थों का भोग करना चाहिये॥३॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


उप॑ नः सु॒तमा ग॑हि॒ हरि॑भिरिन्द्र के॒शिभिः॑। सु॒ते हि त्वा॒ हवा॑महे॥


विषय - अब अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से वायु के गुणों का उपदेश किया है-


पदार्थ -

(हि) जिस कारण यह (इन्द्र) वायु (केशिभिः) जिनके बहुत से केश अर्थात् किरण विद्यमान हैं, वे (हरिभिः) पदार्थों के हरने वा स्वीकार करनेवाले अग्नि, विद्युत् और सूर्य्य के साथ (नः) हमारे (सुतम्) उत्पन्न किये हुए होम वा शिल्प आदि व्यवहार के (उपागहि) निकट प्राप्त होता है, इससे (त्वा) उसको (सुते) उत्पन्न किये हुए होम वा शिल्प आदि व्यवहारों में हम लोग (हवामहे) ग्रहण करते हैं॥४॥


भावार्थ - जो पदार्थ हम लोगों को शिल्प आदि व्यवहारों में उपकारयुक्त करने चाहियें, वे अग्नि विद्युत् और सूर्य वायु ही के निमित्त से प्रकाशित होते तथा जाते आते हैं॥४॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः


सेमं नः॒ स्तोम॒मा ग॒ह्युपे॒दं सव॑नं सु॒तम्। गौ॒रो न तृ॑षि॒तः पि॑ब॥


विषय - फिर भी अगले मन्त्र में इन्द्र के गुणों का उपदेश किया है-


पदार्थ -

जो उक्त सूर्य्य (नः) हमारे (इमम्) अनुष्ठान किये हुए (स्तोमम्) प्रशंसनीय यज्ञ वा (सवनम्) ऐश्वर्य प्राप्त करानेवाले क्रियाकाण्ड को (न) जैसे (तृषितः) प्यासा (गौरः) गौरगुणविशिष्ट हरिन (उपागहि) समीप प्राप्त होता है, वैसे (सः) वह (इदम्) इस (सुतम्) उत्पन्न किये ओषधि आदि रस को (पिब) पीता है॥५॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे अत्यन्त प्यासे मृग आदि पशु और पक्षी वेग से दौड़कर नदी तालाब आदि स्थान को प्राप्त होके जल को पीते हैं, वैसे ही यह सूर्य्यलोक अपनी वेगवती किरणों से ओषधि आदि को प्राप्त होकर उसके रस को पीता है। सो यह विद्या की वृद्धि के लिये मनुष्यों को यथावत् उपयुक्त करना चाहिये॥५॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


इ॒मे सोमा॑स॒ इन्द॑वः सु॒तासो॒ अधि॑ ब॒र्हिषि॑। ताँ इ॑न्द्र॒ सह॑से पिब॥


विषय - अब वायु किसलिये किसमें किन पदार्थों के रस को पीता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

अधि बर्हिषि) जिसमें सब पदार्थ वृद्धि को प्राप्त होते हैं, उस अन्तरिक्ष में (इमे) ये (सोमासः) जिनसे सुख उत्पन्न होते हैं, (इन्दवः) और सब पदार्थों को गीला करनेवाले रस हैं, वे (सहसे) बल आदि गुणों के लिये ईश्वर ने (सुतासः) उत्पन्न किये हैं, (तान्) उन्हीं को (इन्द्र) वायु क्षण-क्षण में (पिब) पिया करता है॥६॥


भावार्थ - ईश्वर ने इस संसार में प्राणियों के बल आदि वृद्धि के लिये जितने मूर्तिमान् पदार्थ उत्पन्न किये हैं, सूर्य्य से छिन्न-भिन्न किये हुए उनको पवन अपने निकट करके धारण करता है, उसके संयोग से प्राणी और अप्राणी बल पराक्रमवाले होते हैं॥६॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


अ॒यं ते॒ स्तोमो॑ अग्रि॒यो हृ॑दि॒स्पृग॑स्तु॒ शंत॑मः। अथा॒ सोमं॑ सु॒तं पि॑ब॥


विषय - उक्त वायु कैसे गुणवाला है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

मनुष्यों को जैसे यह वायु प्रथम (सुतम्) उत्पन्न किये हुए (सोमम्) सब पदार्थों के रस को (पिब) पीता है, (अथ) उसके अनन्तर (ते) जो उस वायु का (अग्रियः) अत्युत्तम (हृदिस्पृक्) अन्तःकरण में सुख का स्पर्श करानेवाला (स्तोमः) उसके गुणों से प्रकाशित होकर क्रियाओं का समूह विदित (अस्तु) हो, वैसे काम करने चाहियें॥७॥


भावार्थ - मनुष्यों के लिये उत्तमगुण तथा शुद्ध किया हुआ यह पवन अत्यन्त सुखकारी होता है॥७॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


विश्व॒मित्सव॑नं सु॒तमिन्द्रो॒ मदा॑य गच्छति। वृ॒त्र॒हा सोम॑पीतये॥


विषय - फिर अगले मन्त्र में उसी के गुणों का उपदेश किया है-


पदार्थ -

यह (वृत्रहा) मेघ को हनन करनेवाला (इन्द्रः) वायु (सोमपीतये) उत्तम-उत्तम पदार्थों का पिलानेवाला तथा (मदाय) आनन्द के लिये (इत्) निश्चय करके (सवनम्) जिससे सब सुखों को सिद्ध करते हैं, जिससे (सुतम्) उत्पन्न हुए (विश्वम्) जगत् को (गच्छति) प्राप्त होते हैं॥८॥


भावार्थ - वायु आकाश में अपने गमनागमन से सब संसार को प्राप्त होकर मेघ की वृष्टि करने वा सब से वेगवाला होकर सब प्राणियों को सुखयुक्त करता है। इसके विना कोई प्राणी किसी व्यवहार को सिद्धि करने को समर्थ नहीं हो सकता॥८॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः


सेमं नः॒ काम॒मा पृ॑ण॒ गोभि॒रश्वैः॑ शतक्रतो। स्तवा॑म त्वा स्वा॒ध्यः॑॥


विषय - अब अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है-


पदार्थ -

हे (शतक्रतो) असंख्यात कामों को सिद्ध करनेवाले अनन्तविज्ञानयुक्त जगदीश्वर ! जिस (त्वा) आपकी (स्वाध्यः) अच्छे प्रकार ध्यान करनेवाले हम लोग (स्तवाम) नित्य स्तुति करें, (सः) सो आप (गोभिः) इन्द्रिय, पृथिवी, विद्या का प्रकाश और पशु तथा (अश्वैः) शीघ्र चलने और चलानेवाले अग्नि आदि पदार्थ वा घोड़े हाथी आदि से (नः) हमारी (कामम्) कामनाओं को (आपृण) सब ओर से पूरण कीजिये॥९॥


भावार्थ - ईश्वर में यह सामर्थ्य सदैव रहता है कि पुरुषार्थी धर्मात्मा मनुष्यों का उन के कर्मों के अनुसार सब कामनाओं से पूरण करता है तथा जो संसार में परम उत्तम-उत्तम पदार्थों का उत्पादन तथा धारण करके सब प्राणियों को सुखयुक्त करता है, इससे सब मनुष्यों को उसी परमेश्वर की नित्य उपासना करनी चाहिये॥९॥ऋतुओं के सम्पादक जो कि सूर्य्य और वायु आदि पदार्थ हैं, उन के यथायोग्य प्रतिपादन से इस पन्द्रहवें सूक्त के अर्थ के साथ पूर्व सोलहवें सूक्त के अर्थ की सङ्गति समझनी चाहिये। इस सूक्त का भी अर्थ सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपदेशवासी अध्यापक विलसन आदि ने विपरीत वर्णन किया है॥


ऋग्वेद मंडल 01 सूक्त (017)


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


इन्द्रा॒वरु॑णयोर॒हं स॒म्राजो॒रव॒ आ वृ॑णे। ता नो॑ मृळात ई॒दृशे॑॥


विषय - अब सत्रहवें सूक्त का आरम्भ है। इसके पहिले मन्त्र में इन्द्र और वरुण के गुणों का उपदेश किया है-


पदार्थ -

मैं जिन (सम्राजोः) अच्छी प्रकार प्रकाशमान (इन्द्रावरुणयोः) सूर्य्य और चन्द्रमा के गुणों से (अवः) रक्षा को (आवृणे) अच्छी प्रकार स्वीकार करता हूँ, और (ता) वे (ईदृशे) चक्रवर्त्ति राज्य सुखस्वरूप व्यवहार में (नः) हम लोगों को (मृळातः) सुखयुक्त करते हैं॥१॥


भावार्थ - जैसे प्रकाशमान, संसार के उपकार करने, सब सुखों के देने, व्यवहारों के हेतु और चक्रवर्त्ति राजा के समान सब की रक्षा करनेवाले सूर्य्य और चन्द्रमा हैं, वैसे ही हम लोगों को भी होना चाहिये॥१॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - यवमध्याविराड्गायत्री स्वरः - षड्जः


गन्ता॑रा॒ हि स्थोऽव॑से॒ हवं॒ विप्र॑स्य॒ माव॑तः। ध॒र्तारा॑ चर्षणी॒नाम्॥


विषय - अब इन्द्र और वरुण से संयुक्त किये हुए अग्नि और जल के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

जो (हि) निश्चय करके ये सम्प्रयोग किये हुए अग्नि और जल (मावतः) मेरे समान पण्डित तथा (विप्रस्य) बुद्धिमान् विद्वान् के (हवम्) पदार्थों का लेना-देना करानेवाले होम वा शिल्प व्यवहार को (गन्तारा) प्राप्त होते तथा (चर्षणीनाम्) पदार्थों के उठानेवाले मनुष्य आदि जीवों के (धर्त्तारा) धारण करनेवाले (स्थः) होते हैं, इससे मैं इनको अपने सब कामों की (अवसे) क्रिया की सिद्धि के लिये (आवृणे) स्वीकार करता हूँ॥२॥


भावार्थ - पूर्वमन्त्र से इस मन्त्र में आवृणे इस पद का ग्रहण किया है। विद्वानों से युक्ति के साथ कलायन्त्रों में युक्त किये हुए अग्नि-जल जब कलाओं से बल में आते हैं, तब रथों को शीघ्र चलाने, उनमें बैठे हुए मनुष्य आदि प्राणी पदार्थों के धारण कराने और सबको सुख देनेवाले होते हैं॥२॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


अ॒नु॒का॒मं त॑र्पयेथा॒मिन्द्रा॑वरुण रा॒य आ। ता वां॒ नेदि॑ष्ठमीमहे॥


विषय - इस प्रकार साधे हुए ये दोनों किस किसके हेतु होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

जो (इन्द्रावरुण) अग्नि और जल (अनुकामम्) हर एक कार्य्य में (रायः) धनों को देकर (तर्प्पयेथाम्) तृप्ति करते हैं, (ता) उन (वाम्) दोनों को हम लोग (नेदिष्ठम्) अच्छी प्रकार अपने निकट जैसे हो, वैसे (ईमहे) प्राप्त करते हैं॥३॥


भावार्थ - मनुष्यों को योग्य है कि जिस प्रकार अग्नि और जल के गुणों को जानकर क्रियाकुशलता में संयुक्त किये हुए ये दोनों बहुत उत्तम-उत्तम सुखों को प्राप्त करें, उस युक्ति के साथ कार्य्यों में अच्छी प्रकार इनका प्रयोग करना चाहिये॥३॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - पादनिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः


यु॒वाकु॒ हि शची॑नां यु॒वाकु॑ सुमती॒नाम्। भू॒याम॑ वाज॒दाव्ना॑म्॥


विषय - उक्त कार्य्य के करने से क्या होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

हम लोग (हि) जिस कारण (शचीनाम्) उत्तम वाणी वा श्रेष्ठ कर्मों के (युवाकु) मेल तथा (वाजदाव्नाम्) विद्या वा अन्न के उपदेश करने वा देने और (सुमतीनाम्) श्रेष्ठ बुद्धिवाले विद्वानों के (युवाकु) पृथग्भाव करने को (भूयाम) समर्थ होवें, इस कारण से इनको साधें॥४॥


भावार्थ - मनुष्यों को सदा आलस्य छोड़कर अच्छे कामों का सेवन तथा विद्वानों का समागम नित्य करना चाहिये, जिससे अविद्या और दरिद्रपन जड़-मूल से नष्ट हों॥४॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - भुरिगार्चीगायत्री स्वरः - षड्जः


इन्द्रः॑ सहस्र॒दाव्नां॒ वरु॑णः॒ शंस्या॑नाम्। क्रतु॑र्भवत्यु॒क्थ्यः॑॥


विषय - फिर इन्द्र और वरुण किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

सब मनुष्यों को योग्य है कि जो (इन्द्र) अग्नि बिजुली और सूर्य्य (हि) जिस कारण (सहस्रदाव्नाम्) असंख्यात धन के देनेवालों के मध्य में (क्रतुः) उत्तमता से कार्य्यों को सिद्ध करनेवाले (भवति) होते हैं, तथा जो (वरुणः) जल, पवन और चन्द्रमा भी (शंस्यानाम्) प्रशंसनीय पदार्थों में उत्तमता से कार्य्यों के साधक हैं, इससे जानना चाहिये कि उक्त बिजुली आदि पदार्थ (उक्थ्यः) साधुता के साथ विद्या की सिद्धि करने में उत्तम हैं॥५॥


भावार्थ - पहिले मन्त्र से इस मन्त्र में हि इस पद की अनुवृत्ति है। जितने पृथिवी आदि वा अन्न आदि पदार्थ दान आदि के साधक हैं, उनमें अग्नि विद्युत् और सूर्य्य मुख्य हैं, इससे सबको चाहिये कि उनके गुणों का उपदेश करके उनकी स्तुति वा उनका उपदेश सुनें और करें, क्योंकि जो पृथिवी आदि पदार्थों में जल वायु और चन्द्रमा अपने-अपने गुणों के साथ प्रशंसा करने और जानने योग्य हैं, वे क्रियाकुशलता में संयुक्त किये हुए उन क्रियाओं की सिद्धि करानेवाले होते हैं॥५॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः


तयो॒रिदव॑सा व॒यं स॒नेम॒ नि च॑ धीमहि। स्यादु॒त प्र॒रेच॑नम्॥


विषय - फिर उन दोनों से मनुष्यों को क्या-क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

हम लोग जिन इन्द्र और वरुण के (अवसा) गुणज्ञान वा उनके उपकार करने से (इत्) ही जिन सुख और उत्तम धनों को (सनेम) सेवन करें (तयोः) उनके निमित्त से (च) और उनसे पाये हुए असंख्यात धन को (निधीमहि) स्थापित करें अर्थात् कोश आदि उत्तम स्थानों में भरें, और जिन धनों से हमारा (प्रचेरनम्) अच्छी प्रकार अत्यन्त खरच (उत) भी (स्यात्) सिद्ध हो॥६॥


भावार्थ - मनुष्यों को उचित है कि अग्नि आदि पदार्थों के उपयोग से भरपूर धन को सम्पादन और उसकी रक्षा वा उन्नति करके यथायोग्य खर्च करने से विद्या और राज्य की वृद्धि से सबके हित की उन्नति करनी चाहिये॥६॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


इन्द्रा॑वरुण वाम॒हं हु॒वे चि॒त्राय॒ राध॑से। अ॒स्मान्त्सु जि॒ग्युष॑स्कृतम्॥


विषय - कैसे धन के लिये उपाय करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

जो (इन्द्रावरुणा) पूर्वोक्त इन्द्र और वरुण अच्छी प्रकार क्रिया कुशलता में प्रयोग किये हुए (अस्मान्) हम लोगों को (सुजिग्युषः) उत्तम विजययुक्त (कृतम्) करते हैं, (वाम्) उन इन्द्र और वरुण को (चित्राय) जो कि आश्चर्य्यरूप राज्य, सेना, नौकर, पुत्र, मित्र, सोना, रत्न, हाथी, घोड़े आदि पदार्थों से भरा हुआ (राधसे) जिससे उत्तम-उत्तम सुखों को सिद्ध करते हैं, उस सुख के लिये (अहम्) मैं मनुष्य (हुवे) ग्रहण करता हूँ॥७॥


भावार्थ - जो मनुष्य अच्छी प्रकार साधन किये हुए मित्र और वरुण को कामों में युक्त करते हैं, वे नाना प्रकार के धन आदि पदार्थ वा विजय आदि सुखों को प्राप्त होकर आप सुखसंयुक्त होते तथा औरों को भी सुखसंयुक्त करते हैं॥७॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः


इन्द्रा॑वरुण॒ नू नु वां॒ सिषा॑सन्तीषु धी॒ष्वा। अ॒स्मभ्यं॒ शर्म॑ यच्छतम्॥


विषय - फिर उन से क्या-क्या सिद्ध होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

(नु) जिस कारण से (इन्द्रावरुणा) इन्द्र और वरुण (सिषासन्तीषु) उत्तम कर्म करने को चाहने और (धीषु) शुभ अशुभ वृत्तान्त धारण करनेवाली बुद्धियों में (नु) शीघ्र (अस्मभ्यम्) हम पुरुषार्थी विद्वानों के लिये (शर्म) दुःखविनाश करनेवाले उत्तम सुख का (आयच्छतम्) अच्छी प्रकार विस्तार करते हैं, इससे (वाम्) उन को कार्य्यों की सिद्धि के लिये मैं निरन्तर (हुवे) ग्रहण करता हूँ॥८॥


भावार्थ - इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से हुवे इस पद का ग्रहण किया है। जो मनुष्य शास्त्र से उत्तमता को प्राप्त हुई बुद्धियों से शिल्प आदि उत्तम व्यवहारों में उक्त इन्द्र और वरुण को अच्छी रीति से युक्त करते हैं, वे ही इस संसार में सुखों को फैलाते हैं॥८॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


प्र वा॑मश्नोतु सुष्टु॒तिरिन्द्रा॑वरुण॒ यां हु॒वे। यामृ॒धाथे॑ स॒धस्तु॑तिम्॥


विषय - उक्त इन्द्र और वरुण के यथायोग्य गुणकीर्त्तन करने की योग्यता का अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-


पदार्थ -

मैं जिस प्रकार से इस संसार में जिन इन्द्र और वरुण के गुणों की यह (सुष्टुतिः) अच्छी स्तुति (प्राश्नोतु) अच्छी प्रकार व्याप्त होवे, उसको (हुवे) ग्रहण करता हूँ, और (याम्) जिस (सधस्तुतिम्) कीर्त्ति के साथ शिल्पविद्या को (वाम्) जो (इन्द्रावरुणौ) इन्द्र और वरुण (ऋधाथे) बढ़ाते हैं, उस शिल्पविद्या को (हुवे) ग्रहण करता हूँ॥९॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को जिस पदार्थ के जैसे गुण हैं, उनको वैसे ही जानकर और उनसे सदैव उपकार ग्रहण करना चाहिये, इस प्रकार ईश्वर का उपदेश है॥९॥पूर्वोक्त सोलहवें सूक्त के अनुयोगी मित्र और वरुण के अर्थ का इस सूक्त में प्रतिपादन करने से इस सत्रहवें सूक्त के अर्थ के साथ सोलहवें सूक्त के अर्थ की सङ्गति करनी चाहिये।इस सूक्त का भी अर्थ सायणाचार्य आदि तथा यूरोपदेशवासी विलसन आदि ने कुछ का कुछ ही वर्णन किया है॥


ऋग्वेद मंडल 01 सूक्त (18)


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः


सो॒मानं॒ स्वर॑णं कृणु॒हि ब्र॑ह्मणस्पते। क॒क्षीव॑न्तं॒ य औ॑शि॒जः॥


विषय - अब अठारहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके पहले मन्त्र में यजमान ईश्वर की प्रार्थना कैसी करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

(ब्रह्मणस्पते) वेद के स्वामी ईश्वर ! (यः) जो मैं (औशिजः) विद्या के प्रकाश में संसार को विदित होनेवाला और विद्वानों के पुत्र के समान हूँ, उस मुझको (सोमानम्) ऐश्वर्य्य सिद्ध करनेवाले यज्ञ का कर्त्ता (स्वरणम्) शब्द अर्थ के सम्बन्ध का उपदेशक और (कक्षीवन्तम्) कक्षा अर्थात् हाथ वा अङ्गुलियों की क्रियाओं में होनेवाली प्रशंसनीय शिल्पविद्या का कृपा से सम्पादन करनेवाला (कृणुहि) कीजिये॥१॥


भावार्थ - जो कोई विद्या के प्रकाश में प्रसिद्ध मनुष्य है, वही पढ़ानेवाला और सम्पूर्ण शिल्पविद्या के प्रसिद्ध करने योग्य है। क्योंकि ईश्वर भी ऐसे ही मनुष्य को अपने अनुग्रह से चाहता है। इस मन्त्र का अर्थ सायणाचार्य्य ने कल्पित पुराण ग्रन्थ भ्रान्ति से कुछ का कुछ ही वर्णन किया है॥१॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


यो रे॒वान्यो अ॑मीव॒हा व॑सु॒वित्पु॑ष्टि॒वर्ध॑नः। स नः॑ सिषक्तु॒ यस्तु॒रः॥


विषय - फिर वह ईश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

(यः) जो जगदीश्वर (रेवान्) विद्या आदि अनन्त धनवाला, (यः) जो (पुष्टिवर्धनः) शरीर और आत्मा की पुष्टि बढ़ाने तथा (वसुवित्) सब पदार्थों का जानने (अमीवहा) अविद्या आदि रोगों का नाश करने तथा (यः) जो (तुरः) शीघ्र सुख करनेवाला वेद का स्वामी जगदीश्वर है, (सः) सो (नः) हम लोगों को विद्या आदि धनों के साथ (सिषक्तु) अच्छी प्रकार संयुक्त करे॥२॥


भावार्थ - जो मनुष्य सत्यभाषण आदि नियमों से संयुक्त ईश्वर की आज्ञा का अनुष्ठान करते हैं, वे अविद्या आदि रोगों से रहित और शरीर वा आत्मा की पुष्टिवाले होकर चक्रवर्त्ति राज्य आदि धन तथा सब रोगों की हरनेवाली ओषधियों को प्राप्त होते हैं॥२॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः


मा नः॒ शंसो॒ अर॑रुषो धू॒र्तिः प्रण॒ङ्मर्त्य॑स्य। रक्षा॑ णो ब्रह्मणस्पते॥


विषय - अगले मन्त्र में ईश्वर की प्रार्थना का प्रकाश किया है-


पदार्थ -

हे (ब्रह्मणस्पते) वेद वा ब्रह्माण्ड के स्वामी जगदीश्वर ! आप (अररुषः) जो दान आदि धर्मरहित मनुष्य है, उस (मर्त्यस्य) मनुष्य के सम्बन्ध से (नः) हमारी (रक्ष) रक्षा कीजिये, जिससे कि वह (नः) हम लोगों के बीच में कोई मनुष्य (धूर्त्तिः) विनाश करनेवाला न हो और आपकी कृपा से जो (नः) हमारा (शंसः) प्रशंसनीय यज्ञ अर्थात् व्यवहार है, वह (मा पृणक्) कभी नष्ट न होवे॥३॥


भावार्थ - किसी मनुष्य को धूर्त्त अर्थात् छल कपट करनेवाले मनुष्य का संग न करना तथा अन्याय से किसी की हिंसा न करनी चाहिये, किन्तु सब को सब की न्याय ही से रक्षा करनी चाहिये॥३॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - ब्रह्मणस्पतिरिन्द्रश्च सोमश्च छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः


स घा॑ वी॒रो न रि॑ष्यति॒ यमिन्द्रो॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑। सोमो॑ हि॒नोति॒ मर्त्य॑म्॥


विषय - अगले मन्त्र में इन्द्रादिकों के कार्य्यों का उपदेश किया है-


पदार्थ -

उक्त इन्द्र (ब्रह्मणस्पतिः) ब्रह्माण्ड का पालन करनेवाला जगदीश्वर और (सोमः) सोमलता आदि ओषधियों का रससमूह (यम्) जिस (मर्त्यम्) मनुष्य आदि प्राणी को (हिनोति) उन्नतियुक्त करते हैं, (सः) वह (वीरः) शत्रुओं का जीतनेवाला वीर पुरुष (न घ रिष्यति) निश्चय है कि वह विनाश को प्राप्त कभी नहीं होता॥४॥


भावार्थ - जो मनुष्य वायु, विद्युत्, सूर्य्य और सोम आदि ओषधियों के गुणों को ग्रहण करके अपने कार्य्यों को सिद्ध करते हैं, वे कभी दुखी नहीं होते॥४॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - ब्रह्मणस्पतिसोमेन्द्रदक्षिणाः छन्दः - पादनिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः


 त्वं तं ब्र॑ह्मणस्पते॒ सोम॒ इन्द्र॑श्च॒ मर्त्य॑म्। दक्षि॑णा पा॒त्वंह॑सः॥


विषय - कैसे वे रक्षा करनेवाले होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

हे (ब्रह्मणस्पते) ब्रह्माण्ड के पालन करनेवाले जगदीश्वर ! (त्वम्) आप (अहंसः) पापों से जिसकी (पातु) रक्षा करते हैं, (तम्) उस धर्मात्मा यज्ञ करनेवाले (मर्त्यम्) विद्वान् मनुष्य की (सोमः) सोमलता आदि ओषधियों के रस (इन्द्रः) वायु और (दक्षिणा) जिससे वृद्धि को प्राप्त होते हैं, ये सब (पातु) रक्षा करते हैं॥५॥


भावार्थ - जो मनुष्य अधर्म से दूर रहकर अपने सुखों के बढ़ाने की इच्छा करते हैं, वे ही परमेश्वर के सेवक और उक्त सोम, इन्द्र और दक्षिणा इन पदार्थों को युक्ति के साथ सेवन कर सकते हैं॥५॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - सदसस्पतिः छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः


सद॑स॒स्पति॒मद्भु॑तं प्रि॒यमिन्द्र॑स्य॒ काम्य॑म्। स॒निं मे॒धाम॑यासिषम्॥


विषय - अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से परमेश्वर के गुणों का उपदेश किया है-


पदार्थ -

मैं (इन्द्रस्य) जो सब प्राणियों को ऐश्वर्य्य देने (काम्यम्) उत्तम (सनिम्) पाप-पुण्य कर्मों के यथायोग्य फल देने और (प्रियम्) प्राणियों को प्रसन्न करानेवाले (अद्भुतम्) आश्चर्य्यमय गुण और स्वभाव स्वरूप (सदसस्पतिम्) और जिसमें विद्वान् धार्मिक न्याय करनेवाले स्थित हों, उस सभा के स्वामी परमेश्वर की उपासना और सब उत्तम गुण स्वभाव परोपकारी सभापति को प्राप्त होके (मेधाम्) उत्तम ज्ञान को धारण करनेवाली बुद्धि को (अयासिषम्) प्राप्त होऊँ॥६॥


भावार्थ - जो मनुष्य सर्वशक्तिमान् सबके अधिष्ठाता और सब आनन्द के देनेवाले परमेश्वर की उपासना करते और उत्कृष्ट न्यायाधीश को प्राप्त होते हैं, वे ही सब शास्त्रों के बोध से प्रसिद्ध क्रियाओं से युक्त बुद्धियों को प्राप्त और पुरुषार्थी होकर विद्वान् होते हैं॥६॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - सदसस्पतिः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


यस्मा॑दृ॒ते न सिध्य॑ति य॒ज्ञो वि॑प॒श्चित॑श्च॒न। स धी॒नां योग॑मिन्वति॥


विषय - वही सब जगत् को रचता है, इसका उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

हे मनुष्यो ! (यस्मात्) जिस (विपश्चितः) अनन्त विद्यावाले सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर के (ऋते) विना (यज्ञः) जो कि दृष्टिगोचर संसार है, सो (चन) कभी (न सिध्यति) सिद्ध नहीं हो सकता, (सः) वह जगदीश्वर सब मनुष्यों की (धीनाम्) बुद्धि और कर्मों के (योगम्) संयोग को (इन्वति) व्याप्त होता वा जानता है॥७॥


भावार्थ - व्यापक सब में रहनेवाले ईश्वर और व्याप्य जगत् का नित्य सम्बन्ध है। वही सब संसार को रचकर तथा धारण करके सब की बुद्धि और कर्मों को अच्छी प्रकार जानकर सब प्राणियों के लिये उनके शुभ अशुभ कर्मों के अनुसार सुख दुःखरूप फल को देता है। कभी ईश्वर को छोड़ के अपने आप स्वभावमात्र से सिद्ध होनेवाला अर्थात् जिसका कोई स्वामी न हो, ऐसा संसार नहीं हो सकता, क्योंकि जड़ पदार्थों के अचेतन होने से यथायोग्य नियम के साथ उत्पन्न होने की योग्यता कभी नहीं होती॥७॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - सदसस्पतिः छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः


आदृ॑ध्नोति ह॒विष्कृ॑तिं॒ प्राञ्चं॑ कृणोत्यध्व॒रम्। होत्रा॑ दे॒वेषु॑ गच्छति॥


विषय - फिर वह यज्ञ कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

जो उक्त सर्वज्ञ सभापति देव परमेश्वर (प्राञ्चम्) सब में व्याप्त और जिस को प्राणी अच्छी प्रकार प्राप्त होते हैं, (हविष्कृतिम्) होम करने योग्य पदार्थों का जिसमें व्यवहार और (अध्वरम्) क्रियाजन्य अर्थात् क्रिया से उत्पन्न होनेवाले जगद्रूप यज्ञ में (होत्राणि) होम से सिद्ध करानेवाली क्रियाओं को (कृणोति) उत्पन्न करता तथा (आदृध्नोति) अच्छी प्रकार बढ़ाता है, फिर वही यज्ञ (देवेषु) दिव्य गुणों में (गच्छति) प्राप्त होता है॥८॥


भावार्थ - जिस कारण परमेश्वर सकल संसार को रचता है, इससे सब पदार्थ परस्पर अपने-अपने संयोग में बढ़ते और ये पदार्थ क्रियामययज्ञ और शिल्पविद्या में अच्छी प्रकार संयुक्त किये हुए बड़े-बड़े सुखों को उत्पन्न करते हैं॥८॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - सदसस्पतिर्नराशंसो वा छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


नरा॒शंसं॑ सु॒धृष्ट॑म॒मप॑श्यं स॒प्रथ॑स्तमम्। दि॒वो न सद्म॑मखसम्॥


विषय - फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

मैं (न) जैसे आकाशमय सूर्य्यादिकों के प्रकाश से (सद्ममखसम्) जिसमें प्राणी स्थिर होते और जिसमें जगत् प्राप्त होता है, (सप्रथस्तमम्) जो बड़े-बड़े आकाश आदि पदार्थों के साथ अच्छी प्रकार व्याप्त (सुधृष्टमम्) उत्तमता से सब संसार को धारण करने (नराशंसम्) सब मनुष्यों को अवश्य स्तुति करने योग्य पूर्वोक्त (सदसस्पतिम्) सभापति परमेश्वर को (अपश्यम्) ज्ञानदृष्टि से देखता हूँ, वैसे तुम भी सभाओं के पति को प्राप्त होके न्याय से सब प्रजा का पालन करके नित्य दर्शन करो॥९॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। इस मन्त्र में सातवें मन्त्र से सदसस्पतिम् इस पद की अनुवृत्ति जाननी चाहिये। जैसे मनुष्य सब जगह विस्तृत हुए सूर्य्यादि के प्रकाश को देखता है, वैसे ही सब जगह व्याप्त ज्ञान प्रकाशरूप परमेश्वर को जानकर सुख के विस्तार को प्राप्त होता है॥९॥पूर्व सत्रहवें सूक्त के अर्थ के साथ मित्र और वरुण के साथ अनुयोगी बृहस्पति आदि अर्थों के प्रतिपादन से इस अठारहवें सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये। यह भी सूक्त सायणाचार्य्य आदि और यूरोपदेशवासी विलसन आदि ने कुछ का कुछ ही वर्णन किया है॥


ऋग्वेद मंडल 01 सूक्त (015)

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