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यजुर्वेद अध्याय 17 मंत्र (01- 20)

 ऋषि: - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - मरुतो देवताः छन्दः - भुरिगतिशक्वरी स्वरः - पञ्चमः


अश्म॒न्नूर्जं॒ पर्व॑ते शिश्रिया॒णाम॒द्भ्यऽओष॑धीभ्यो॒ वन॒स्पति॑भ्यो॒ऽअधि॒ सम्भृ॑तं॒ पयः॑। तां न॒ऽइष॒मूर्जं॑ धत्त मरुतः सꣳररा॒णाऽअश्म॑ꣳस्ते॒ क्षुन् मयि॑ त॒ऽऊर्ग्यं॑ द्वि॒ष्मस्तं ते॒ शुगृ॑च्छतु॥१॥


विषय - अब सत्रहवें अध्याय का आरम्भ किया जाता है॥ इसके पहिले मन्त्र में वर्षा की विद्या का उपदेश किया है॥


पदार्थ -

हे (संरराणाः) सम्यक् दानशील (मरुतः) वायुओं के तुल्य क्रिया करने में कुशल मनुष्यो! तुम लोग (पर्वते) पहाड़ के समान आकार वाले (अश्मन्) मेघ के (शिश्रियाणाम्) अवयवों में स्थिर बिजुली तथा (ऊर्जम्) पराक्रम और अन्न को (नः) हमारे लिये (अधि, धत्त) अधिकता से धारण करो और (अद्भ्यः) जलाशयों (ओषधिभ्यः) जौ आदि ओषधियों और (वनस्पतिभ्यः) पीपल आदि वनस्पतियों से (सम्भृतम्) सम्यक् धारण किये (पयः) रसयुक्त जल (इषम्) अन्न (ऊर्जम्) पराक्रम और (ताम्) उस पूर्वोक्त विद्युत् को धारण करो। हे मनुष्य! जो (ते) तेरा (अश्मन्) मेघविषय में (ऊर्क्) रस वा पराक्रम है, सो (मयि) मुझ में तथा जो (ते) तेरी (क्षुत्) भूख है, वह मुझ में भी हो अर्थात् समान सुख-दुःख मान के हम लोग एक दूसरे के सहायक हों और (यम्) जिस दुष्ट को हम लोग (द्विष्मः) द्वेष करें (तम्) उसको (ते) तेरा (शुक) शोक (ऋच्छतु) प्राप्त हो॥१॥


भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि जैसे सूर्य्य जलाशय और ओषध्यादि से रस का हरण कर मेघमण्डल में स्थापित करके पुनः वर्षाता है, उससे अन्नादि पदार्थ होते हैं, उसके भोजन से क्षुधा की निवृत्ति, क्षुधा की निवृत्ति से बल की बढ़ती, उससे दुष्टों की निवृत्ति और दुष्टों की निवृत्ति से सज्जनों के शोक का नाश होता है, वैसे अपने समान दूसरों का सुख-दुःख मान, सब के मित्र होके, एक-दूसरे के दुःख का विनाश करके, सुख की निरन्तर उन्नति करें॥१॥


ऋषि: - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृद्विकृतिः स्वरः - मध्यमः


इ॒मा मे॑ऽअग्न॒ऽइष्ट॑का धे॒नवः॑ स॒न्त्वेका॑ च॒ दश॑ च॒ दश॑ च श॒तं च॑ श॒तं च॑ स॒हस्रं॑ च स॒हस्रं॑ चा॒युतं॑ चा॒युतं॑ च नि॒युतं॑ च नि॒युतं॑ च प्र॒युतं॒ चार्बु॑दं च॒ न्यर्बुदं च समु॒द्रश्च॒ मध्यं॒ चान्त॑श्च परा॒र्द्धश्चै॒ता मे॑ऽअग्न॒ऽइष्ट॑का धे॒नवः॑ सन्त्व॒मु॒त्रा॒मुष्मिँ॑ल्लो॒के॥२॥


विषय - अब इष्टका आदि के दृष्टान्त से गणितविद्या का उपदेश किया है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) विद्वन्! जैसे (मे) मेरी (इमाः) ये (इष्टकाः) इष्ट सुख को सिद्ध करनेहारी यज्ञ की सामग्री (धेनवः) दुग्ध देने वाली गौओं के समान (सन्तु) होवें, आप के लिये भी वैसी हों। जो (एका) एक (च) दशगुणा (दश) दश (च) और (दश) दश (च) दश गुणा (शतम्) सौ (च) और (शतम्) सौ (च) दशगुणा (सहस्रम्) हजार (च) और (सहस्रम्) हजार (च) दश गुणा (अयुतम्) दश हजार (च) और (अयुतम्) दश हजार (च) दश गुणा (नियुतम्) लाख (च) और (नियुतम्) लाख (च) दश गुणा (प्रयुतम्) दश लाख (च) इसका दश गुणा क्रोड़, इसका दश गुणा (अर्बुदम्) दशक्रोड़ इस का दश गुणा (न्यर्बुदम्) अर्ब (च) इसका दश गुणा खर्ब, इसका दश गुणा निखर्ब, इसका दश गुणा महापद्म, इसका दश गुणा शङ्कु, इसका दश गुणा (समुद्रः) समुद्र (च) इसका दश गुणा (मध्यम्) मध्य (च) इसका दश गुणा (अन्तः) अन्त और (च) इसका दश गुणा (परार्द्धः) परार्द्ध (एताः) ये (मे) मेरी (अग्ने) हे विद्वन्! (इष्टकाः) वेदी की र्इंटें (धेनवः) गौओं के तुल्य (अमुष्मिन्) परोक्ष (लोके) देखने योग्य (अमुत्र) अगले जन्म में (सन्तु) हों, वैसा प्रयत्न कीजिये॥२॥


भावार्थ - जैसे अच्छे प्रकार सेवन की हुई गौ दुग्ध आदि के दान से सब को प्रसन्न करती हैं, वैसे ही वेदी में चयन की हुई ईटें वर्षा की हेतु हो के वर्षादि के द्वारा सब को सुखी करती हैं। मनुष्यों को चाहिये कि एक संख्या को दशवार गुणने से दश (१०), दश को दश बार गुणने से सौ (१००), उसको दश बार गुणने से हजार (१०००), उसको दश बार गुणने से दस हजार (१०,०००), उसको दश वार गुणने से लाख (१,००,०००), उसको दश बार गुणने से दश लाख (१०,००,०००), इसको दश वार गुणने से क्रोड (१,००, ००,०००), इसको दश वार गुणने से दश क्रोड़ (१०,००,००,०००), इसको दश वार गुणने से अर्ब (१,००,००,००,०००), इसको दश वार गुणने से दश अर्ब (१०,००,००,००,०००), इसको दश वार गुणने से खर्ब (१,००,००,००,००,०००), इसको दश वार गुणने से दश खर्ब (१०,००,००,००,००,०००), इसको दश वार गुणने से नील (१,००,००,००,००,००,०००), इसको दश वार गुणने से दश नील (१०,००,००,००,००,००,०००), इसको दश वार गुणने से पद्म (१,००,००,००,००,००,००,०००), इसको दश वार गुणने से दश पद्म (१०,००,००,००,००,००,००,०००), इसको दश वार गुणने से एक शङ्ख (१,००,००,००,००,००,००,००,०००), इसको दश वार गुणने से दश शङ्ख (१०,००,००,००,००,००,००,००,०००) इन संख्याओं की संज्ञा पड़ती हैं। ये इतनी संख्या तो कहीं, परन्तु अनेक चकारों के होने से और भी अङ्कगणित, बीजगणित और रेखागणित आदि की संख्याओं को यथावत् समझें। जैसे भूलोक में ये संख्या हैं, वैसे अन्य लोकों में भी हैं, जैसे यहां इन संख्याओं से गणना की और कारीगरों से चिनी हुई ईटें घर के आकार हो शीत, उष्ण, वर्षा और वायु आदि से मनुष्यादि की रक्षा कर आनन्दित करती हैं, वैसे ही अग्नि में छोड़ी हुई आहुतियां जल, वायु और ओषधियों के साथ मिल के सब को आनन्दित करती हैं॥२॥


ऋषि: - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः


ऋ॒तव॑ स्थऽऋता॒वृध॑ऽऋतु॒ष्ठा स्थ॑ऽऋता॒वृधः॑। 

घृ॒त॒श्च्युतो॑ मधु॒श्च्युतो॑ वि॒राजो॒ नाम॑ काम॒दुघा॒ऽअक्षी॑यमाणाः॥३॥


विषय - स्त्री लोग पति आदि के साथ कैसे वर्त्तें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे स्त्रियो! जो तुम लोग (ऋतवः) वसन्तादि ऋतुओं के समान (स्थ) हो तथा जो (ऋतावृधः) उदक से नदियों के तुल्य सत्य के साथ उन्नति को प्राप्त होने वा (ऋतुष्ठाः) वसन्तादि ऋतुओं में स्थित होने और (ऋतावृधः) सत्य को बढ़ाने वाली (स्थ) हो और जो तुम (घृतश्च्युतः) जिनसे घी निकले उन (मधुश्च्युतः) मधुर रस से प्राप्त हुई (अक्षीयमाणाः) रक्षा करने योग्य (विराजः) विविध प्रकार के गुणों से प्रकाशमान तथा (कामदुघाः) कामनाओं को पूरण करनेहारी (नाम) प्रसिद्ध गौओं के सदृश होवे, तुम लोग हम लोगों को सुखी करो॥३॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ऋतु और गौ अपने-अपने समय पर अनुकूलता से सब प्राणियों को सुखी करती हैं, वैसे ही अच्छी स्त्रियां सब समय में अपने पति आदि सब पुरुषों को तृप्त कर आनन्दित करें॥३॥


ऋषि: - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी गायत्री स्वरः - षड्जः


स॒मु॒द्रस्य॒ त्वाव॑क॒याग्ने॒ परि॑व्ययामसि। 

पा॒व॒कोऽअ॒स्मभ्य॑ꣳ शि॒वो भ॑व॥४॥


विषय - सभापति को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्वी सभापते! जैसे हम लोग (समुद्रस्य) आकाश के बीच (अवकया) जिससे रक्षा करते हैं, उस क्रिया के साथ वर्त्तमान (त्वा) आपको (परि, व्ययामसि) सब ओर से प्राप्त होते हैं, वैसे (पावकः) पवित्रकर्त्ता आप (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (शिवः) मङ्गलकारी (भव) हूजिये॥४॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य लोग समुद्र के जीवों की रक्षा कर सुखी करते हैं, वैसे धर्मात्मा रक्षक सभापति अपनी प्रजाओं की रक्षा कर निरन्तर सुखी करें॥४॥


ऋषि: - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी गायत्री स्वरः - षड्जः


हि॒मस्य॑ त्वा ज॒रायु॒णाग्ने॒ परि॑व्ययामसि।

पा॒व॒कोऽअ॒स्मभ्य॑ꣳ शि॒वो भ॑व॥५॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्विन् सभापते! हम लोग (हिमस्य) शीतल को (जरायुणा) जीर्ण करने वाले वस्त्र वा अग्नि से (त्वा) आपको (परि, व्ययामसि) सब प्रकार आच्छादित करते हैं, वैसे (पावकः) पवित्रस्वरूप आप (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (शिवः) मङ्गलमय (भव) हूजिये॥५॥


भावार्थ - हे सभापते! जैसे अग्नि वा वस्त्र शीत से पीडि़त प्राणियों को जाड़े से छुड़ा के प्रसन्न करता है, वैसे ही आप का आश्रय किये हुए हम लोग दुःख से छूटे हुए सुख सेवने वाले होवें॥५॥


ऋषि: - मेधातिथिर्ऋषिः  देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


उप॒ ज्मन्नुप॑ वेत॒सेऽव॑तर न॒दीष्वा। 

अग्ने॑ पि॒त्तम॒पाम॑सि॒ मण्डू॑कि॒ ताभि॒राग॑हि॒ सेमं नो॑ य॒ज्ञं पा॑व॒कव॑र्णꣳ शि॒वं कृ॑धि॥६॥


विषय - अब स्त्री-पुरुष आपस में कैसे वर्त्तें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्विनी विदुषि (मण्डूकि) अच्छे प्रकार अलङ्कारों से शोभित विदुषि स्त्रि! तू (ज्मन्) पृथिवी पर (नदीषु) नदियों तथा (वेतसे) पदार्थों के विस्तार में (अव, तर) पार हो, जैसे अग्नि (अपाम्) प्राण वा जलों के (पित्तम्) तेज का रूप (असि) है, वैसे तू (ताभिः) उन जल वा प्राणों के साथ (उप, आ, गहि) हमको समीप प्राप्त हो (सा) सो तू (नः) हमारे (इमम्) इस (पावकवर्णम्) अग्नि के तुल्य प्रकाशमान (यज्ञम्) गृहाश्रमरूप यज्ञ को (शिवम्) कल्याणकारी (उप, आ, कृधि) अच्छे प्रकार कर॥६॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। स्त्री और पुरुष गृहाश्रम में प्रयत्न के साथ सब कार्य्यों को सिद्ध कर शुद्ध आचरण के सहित कल्याण को प्राप्त हों॥६॥


ऋषि: - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी बृहती स्वरः - मध्यमः


अ॒पामि॒दं न्यय॑नꣳ समु॒द्रस्य॑ नि॒वेश॑नम्। 

अ॒न्याँस्ते॑ऽअ॒स्मत्त॑पन्तु हे॒तयः॑ पाव॒कोऽअ॒स्मभ्य॑ꣳ शि॒वो भ॑व॥७॥


विषय - गृहस्थ को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे विद्वन् पुरुष! जो (इदम्) यह आकाश (अपाम्) जलों वा प्राणों का (न्ययनम्) निश्चित स्थान है, उस आकाशस्थ (समुद्रस्य) समुद्र की (निवेशनम्) स्थिति के तुल्य गृहाश्रम को प्राप्त होके (पावकः) पवित्र कर्म करनेहारे होते हुए आप (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (शिवः) मङ्गलकारी (भव) हूजिये, (ते) आपके (हेतयः) वज्र वा उन्नति (अस्मत्) हम लोगों से (अन्यान्) अन्य दुष्टों को (तपन्तु) दुःखी करें॥७॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य लोग जैसे जलों का आधार समुद्र, सागर का आधार भूमि, उसका आधार आकाश है, वैसे गृहस्थी के पदार्थों के आधार घर को बना और मङ्गलरूप आचरण करके श्रेष्ठों की रक्षा तथा डाकुओं को पीड़ा दिया करें॥७॥


ऋषि: - वसुयुर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी गायत्री स्वरः - षड्जः


अग्ने॑ पावक रो॒चिषा॑ म॒न्द्रया॑ देव जि॒ह्वया॑। आ दे॒वान् व॑क्षि॒ यक्षि॑ च॥८॥


विषय - आप्त विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे (पावक) मनुष्यों के हृदयों को शुद्ध करने वाले (देव) सुन्दर (अग्ने) विद्या का प्रकाश वा उपदेश करनेहारे पुरुष! आप (मन्द्रया) आनन्द को सिद्ध करनेहारी (जिह्वया) सत्य प्रिय वाणी वा (रोचिषा) प्रकाश से (देवान्) विद्वान् वा दिव्य गुणों को (आ, वक्षि) उपदेश करते (च) और (यक्षि) समागम करते हो॥८॥


भावार्थ - जैसे सूर्य अपने प्रकाश से सब जगत् को प्रसन्न करता है, वैसे आप्त उपदेशक विद्वान् सब प्राणियों को प्रसन्न करें॥८॥


ऋषि: - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी गायत्री स्वरः - षड्जः


स नः॑ पावक दीदि॒वोऽग्ने दे॒वाँ२ऽइ॒हा व॑ह। उप॑ य॒ज्ञꣳ ह॒विश्च॑ नः॥९॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (पावक) पवित्र (दीदिवः) तेजस्विन् वा शत्रुदाहक (अग्ने) सत्यासत्य का विभाग करनेहारे विद्वन्! (सः) पूर्वोक्त गुण वाले आप जैसे यह अग्नि (नः) हमारे लिये अच्छे गुणों वाले (हविः) हवन किये सुगन्धित द्रव्य को प्राप्त करता है, वैसे (इह) इस संसार में (यज्ञम्) गृहाश्रम (च) और (देवान्) विद्वानों को (नः) हम लोगों के लिये (उप, आ, वह) अच्छे प्रकार समीप प्राप्त करें॥९॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे यह अग्नि अपने सूर्य्यादि रूप से सब पदार्थों से रस को ऊपर ले जा और वर्षा के उत्तम सुखों को प्रकट करता है, वैसे ही विद्वान् लोग विद्यारूप रस को उन्नति दे के सब सुखों का उत्पन्न करें॥९॥



ऋषि: - भारद्वाज ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी स्वरः - निषादः


पा॒व॒कया॒ यश्चि॒तय॑न्त्या कृ॒पा क्षाम॑न् रुरु॒चऽउ॒षसो॒ न भा॒नुना॑। तूर्व॒न् न याम॒न्नेत॑शस्य॒ नू रण॒ऽआ यो घृ॒णे न त॑तृषा॒णोऽअ॒जरः॑॥१०॥


विषय - सेनापति को कैसा होना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(यः) जो (पावकया) पवित्र करने और (चितयन्त्या) चेतनता करानेहारी (कृपा) शक्ति के साथ वर्त्तमान सेनापति जैसे (भानुना) दीप्ति से (उषसः) प्रभात समय शोभित होते हैं (न) वैसे (क्षामन्) राज्यभूमि में (रुरुचे) शोभित होता वा (यः) जो (यामन्) मार्ग वा प्रहर में जैसे (एतशस्य) घोड़े के बलों को (नु) शीघ्र (तूर्वन्) मारता है (न) वैसे (घृणे) प्रदीप्त (रणे) युद्ध में (ततृषाणः) प्यासे के (न) समान (अजरः) अजर अजेय ज्वान निर्भय (आ) अच्छे प्रकार होता वह राज्य करने को योग्य होता है॥१०॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य और चन्द्रमा अपनी दीप्ति से शोभित होते हैं, वैसे ही सती स्त्री के साथ उत्तम पति और उत्तम सेना से सेनापति अच्छे प्रकार प्रकाशित होता है॥१०॥


ऋषि: - लोपामुद्रा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी बृहती स्वरः - मध्यमः


नम॑स्ते॒ हर॑से शो॒चिषे॒ नम॑स्तेऽअस्त्व॒र्चिषे॑। 

अ॒न्याँस्ते॑ अ॒स्मत्त॑पन्तु हे॒तयः॑ पाव॒कोऽअ॒स्मभ्य॑ꣳ शि॒वो भ॑व॥११॥


विषय - न्यायाधीश को कैसा होना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे सभापते! (हरसे) दुःख हरने वाले (ते) तेरे लिये हमारा किया (नमः) सत्कार हो तथा (शोचिषे) पवित्र (अर्चिषे) सत्कार के योग्य (ते) तेरे लिये हमारा कहा (नमः) नमस्कार (अस्तु) हो जो (ते) तेरी (हेतयः) वज्रादि शस्त्रों से युक्त सेना हैं वे (अस्मत्) हम लोगों से भिन्न (अन्यान्) अन्य शत्रुओं को (तपन्तु) दुःखी करें (पावकः) शुद्धि करनेहारे आप (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (शिवः) न्यायकारी (भव) हूजिये॥११॥


भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि अन्तःकरण के शुद्ध मनुष्यों को न्यायधीश बनाकर और दुष्टों की निवृत्ति करके सत्य न्याय का प्रकाश करें॥११॥


ऋषि: - लोपामुद्रा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृद गायत्री स्वरः - षड्जः


नृ॒षदे॒ वेड॑प्सु॒षदे॒ वेड् ब॑र्हि॒षदे॒ वेड् व॑न॒सदे॒ वेट् स्व॒र्विदे॒ वेट्॥१२॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे सभापते! आप (नृषदे) नायकों में स्थिर पुरुष होने के लिये (वेट्) न्यायासन पर बैठने (अप्सुषदे) जलों के बीच नौकादि में स्थिर होने वाले के लिये (वेट्) न्याय गद्दी पर बैठने (बर्हिषदे) प्रजा को बढ़ानेहारे व्यवहार में स्थिर होने के लिये (वेट्) अधिष्ठाता होने (वनसदे) वनों में रहने वाले के लिये (वेट्) न्याय में प्रवेश करने और (स्वर्विदे) सुख को जाननेहारे के लिये (वेट्) उत्साह में प्रवेश करने वाले हूजिये॥१२॥


भावार्थ - जिस देश में न्यायधीश, नौकाओं के चलाने, प्रजा को बढ़ाने, वन में रहने, सेनादि के नायक और सुख पहुँचानेहारे विद्वान् होते हैं, वहीं सब सुखों की वृद्धि होती है॥१२॥


ऋषि: - लोपामुद्रा ऋषिः देवता - प्राणो देवता छन्दः - निचृदार्षी जगती स्वरः - षड्जः 


ये दे॒वा दे॒वानां॑ य॒ज्ञिया॑ य॒ज्ञिया॑ना संवत्स॒रीण॒मुप॑ भा॒गमास॑ते। 

अ॒हु॒तादो॑ ह॒विषो॑ य॒ज्ञेऽअ॒स्मिन्त्स्व॒यं पि॑बन्तु॒ मधु॑नो घृ॒तस्य॑॥१३॥


विषय - अब संन्यासियों को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

(ये) जो (देवानाम्) विद्वानों में (अहुतादः) बिना हवन किये हुए पदार्थ का भोजन करनेहारे (देवाः) विद्वान् (यज्ञियानाम्) वा यज्ञ करने में कुशल पुरुषों में (यज्ञियाः) योगाभ्यासादि यज्ञ के योग्य विद्वान् लोग (संवत्सरीणम्) वर्ष भर पुष्ट किये (भागम्) सेवने योग्य उत्तम परमात्मा की (उपासते) उपासना करते हैं, वे (अस्मिन्) इस (यज्ञे) समागमरूप यज्ञ में (मधुनः) शहत (घृतस्य) जल और (हविषः) हवन के योग्य पदार्थों के भाग को (स्वयम्) अपने आप (पिबन्तु) सेवन करें॥१३॥


भावार्थ - जो विद्वान् लोग इस संसार में अग्निक्रिया से रहित अर्थात् आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि सम्बन्धी बाह्य कर्मों को छोड़ के आभ्यन्तर अग्नि को धारण करने वाले संन्यासी हैं, वे होम को नहीं किये भोजन करते हुए सर्वत्र विचर के सब मनुष्यों को वेदार्थ का उपदेश किया करें॥१३॥


ऋषि: - लोपामुद्रा ऋषिः देवता - प्राणो देवता छन्दः - आर्षी जगती स्वरः - निषादः 


ये दे॒वा दे॒वेष्वधि॑ देव॒त्वमाय॒न् ये ब्रह्म॑णः पुरऽए॒तारो॑ऽअ॒स्य। 

येभ्यो॒ नऽऋ॒ते पव॑ते॒ धाम॒ किञ्च॒न न ते दि॒वो न पृ॑थि॒व्याऽअधि॒ स्नुषु॑॥१४॥


विषय - अब उत्तम विद्वान् लोग कैसे होते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(ये) जो (देवाः) पूर्ण विद्वान् (देवेषु, अधि) विद्वानों में सब से उत्तम कक्षा में विराजमान (देवत्वम्) अपने गुण, कर्म और स्वभाव को (आयन्) प्राप्त होते हैं और (ये) जो (अस्य) इस (ब्रह्मणः) परमेश्वर को (पुरएतारः) पहिले प्राप्त होने वाले हैं, (येभ्यः) जिनके (ऋते) विना (किम्) (चन) कोई भी (धाम) सुख का स्थान (न) नहीं (पवते) पवित्र होता (ते) वे विद्वान् लोग (न) न (दिवः) सूर्य्यलोक के प्रदेशों और (न) न (पृथिव्याः) पृथिवी के (अधि, स्नुषु) किसी भाग में अधिक वसते हैं॥१४॥


भावार्थ - जो इस जगत् में उत्तम विद्वान् योगीराज यथार्थता से परमेश्वर को जानते हैं, वे सम्पूर्ण प्राणियों को शुद्ध करने और जीवन्मुक्तिदशा में परोपकार करते हुए विदेहमुक्ति अवस्था में न सूर्य्यलोक और न पृथिवी पर नियम से वसते हैं, किन्तु ईश्वर में स्थिर हो के अव्याहतगति से सर्वत्र विचरा करते हैं॥१४॥


ऋषि: - लोपामुद्रा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः 


प्रा॒ण॒दाऽअ॑पान॒दा व्या॑न॒दा व॑र्चो॒दा व॑रिवो॒दाः। अन्याँ॒स्ते॑ऽअ॒स्मत्त॑पन्तु हे॒तयः॑ पाव॒कोऽअ॒स्मभ्य॑ꣳ शि॒वो भ॑व॥१५॥


विषय - विद्वान् और राजा कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे विद्वन् राजन्! (ते) आपकी जो उन्नति वा शस्त्रादि (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (प्राणदाः) जीवन तथा बल को देने वा (अपानदाः) दुःख दूर करने के साधन को देने वा (व्यानदाः) व्याप्ति और विज्ञान को देने (वर्चोदाः) सब विद्याओं के पढ़ने का हेतु को देने और (वरिवोदाः) सत्य धर्म्म और विद्वानों की सेवा को व्याप्त कराने वाली (हेतयः) वज्रादि शस्त्रों की उन्नतियां (अस्मत्) हमसे (अन्यान्) अन्य दुष्ट शत्रुओं को (तपन्तु) दुःखी करें, उनके सहित (पावकः) शुद्धि का प्रचार करते हुए आप हम लोगों के लिये (शिवः) मङ्गलकारी (भव) हूजिये॥१५॥


भावार्थ - वही राजा है जो न्याय को बढ़ाने वाला हो, और वही विद्वान् है जो विद्या से न्याय को जानने वाला हो, और वह राजा नहीं जो कि प्रजा को पीड़ा दे, और वह विद्वान् भी नहीं जो दूसरों को विद्वान् न करे, और वे प्रजाजन भी नहीं जो नीतियुक्त राजा की सेवा न करें॥१५॥


ऋषि: - भारद्वाज ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी गायत्री स्वरः - षड्जः


अ॒ग्निस्ति॒ग्मेन॑ शो॒चिषा॒ यास॒द्विश्वं॒ न्यत्रिण॑म्। अ॒ग्निर्नो॑ वनते र॒यिम्॥१६॥


विषय - विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे विद्वन् पुरुष! जैसे (अग्निः) अग्नि (तिग्मेन) तीव्र (शोचिषा) प्रकाश से (अत्रिणम्) भोगने योग्य (विश्वम्) सबको (यासत्) प्राप्त होता है कि जैसे (अग्निः) विद्युत् अग्नि (नः) हमारे लिये (रयिम्) धन को (नि, वनते) निरन्तर विभागकर्त्ता है, वैसे हमारे लिये आप भी हूजिये॥१६॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वानों को चाहिये कि जैसे अग्नि अपने तेज से सूखे गीले सब तृणादि को जला देता है, वैसे हमारे सब दोषों को भस्म कर गुणों को प्राप्त करें। जैसे बिजुली सब पदार्थों का सेवन करती है, वैसे हम को सब विद्या का सेवन करा के अविद्या से पृथक् किया करें॥१६॥


ऋषि: - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


यऽइ॒मा विश्वा॒ भुव॑नानि॒ जुह्व॒दृषि॒र्होता॒ न्यसी॑दत् पि॒ता नः॑। 

सऽआ॒शिषा॒ द्रवि॑णमि॒च्छमा॑नः प्रथम॒च्छदव॑राँ॒२ऽआवि॑वेश॥१७॥


विषय - अब ईश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! (यः) जो (ऋषिः) ज्ञानस्वरूप (होता) सब पदार्थों को देने वा ग्रहण करनेहारा (नः) हम लोगों का (पिता) रक्षक परमेश्वर (इमा) इन (विश्वा) सब (भुवनानि) लोकों को व्याप्त होके (न्यसीदत्) निरन्तर स्थित है और जो सब लोकों का (जुह्वत्) धारणकर्त्ता है (सः) वह (आशिषा) आशीर्वाद से हमारे लिये (द्रविणम्) धन को (इच्छमानः) चाहता और (प्रथमच्छत्) विस्तृत पदार्थों को आच्छादित करता हुआ (अवरान्) पूर्ण आकाशादि को (आविवेश) अच्छे प्रकार व्याप्त हो रहा है, यह तुम जानो॥१७॥


भावार्थ - सब मनुष्य लोग जो सब जगत् को रचने, धारण करने, पालने तथा विनाश करने और सब जीवों के लिये सब पदार्थों को देने वाला परमेश्वर अपनी व्याप्ति से आकाशादि में व्याप्त हो रहा है, उसी की उपासना करें॥१७॥


ऋषि: - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः


किᳬस्वि॑दासीदधि॒ष्ठान॑मा॒रम्भ॑णं कत॒मत् स्वि॑त् क॒थासी॑त्। यतो॒ भूमिं॑ ज॒नय॑न् वि॒श्वक॑र्मा॒ वि द्यामौर्णोन्महि॒ना वि॒श्वच॑क्षाः॥१८॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे विद्वन् पुरुष! इस जगत् का (अधिष्ठानम्) आधार (किं, स्वित्) क्या आश्चर्यरूप (आसीत्) है, तथा (आरम्भणम्) इस कार्य-जगत् की रचना का आरम्भ कारण (कतमत्) बहुत उपादानों में क्या और वह (कथा) किस प्रकार से (स्वित्) तर्क के साथ (आसीत्) है कि (यतः) जिससे (विश्वकर्मा) सब सत्कर्मों वाला (विश्वचक्षाः) सब जगत् का द्रष्टा जगदीश्वर (भूमिम्) पृथिवी और (द्याम्) सूर्यादि लोक को (जनयन्) उत्पन्न करता हुआ (महिना) अपनी महिमा से (व्यौर्णोत्) विविध प्रकार से आच्छादित करता है॥१८॥


भावार्थ - हे मनुष्यो! तुम को यह जगत् कहां वसता? क्या इसका कारण? और किसलिये उत्पन्न होता है? इन प्रश्नों का उत्तर यह है कि जो जगदीश्वर कार्य-जगत् को उत्पन्न तथा अपनी व्याप्ति से सब का आच्छादन करके सर्वज्ञता से सबको देखता है, वह इस जगत् का आधार और निमित्तकारण है। वह सर्वशक्तिमान् रचना आदि के सामर्थ्य से युक्त है, जीवों को पाप-पुण्य का फल देने भोगवाने के लिये इस संसार को रचा है, ऐसा जानना चाहिये॥१८॥


ऋषि: - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - भुरिगार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


वि॒श्वत॑श्चक्षुरु॒त वि॒श्वतो॑मुखो वि॒श्वतो॑बाहुरु॒त वि॒श्वत॑स्पात्। 

सं बा॒हुभ्यां॒ धम॑ति॒ सं पत॑त्रै॒र्द्यावा॒भूमी॑ ज॒नय॑न् दे॒वऽएकः॑॥१९॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! तुम लोग जो (विश्वतश्चक्षुः) सब संसार को देखने (उत) और (विश्वतोमुखः) सब ओर से सब का उपदेश करनेहारा (विश्वतोबाहुः) सब प्रकार से अनन्त बल तथा पराक्रम से युक्त (उत) और (विश्वतस्पात्) सर्वत्र व्याप्ति वाला (एकः) अद्वितीय सहायरहित (देवः) अपने आप प्रकाशस्वरूप (पतत्रैः) क्रियाशील परमाणु आदि से (द्यावाभूमी) सूर्य्य और पृथिवी लोक को (सम्, जनयन्) कार्य्यरूप प्रकट करता हुआ (बाहुभ्याम्) अनन्त बल पराक्रम से सब जगत् को (सम्, धमति) सम्यक् प्राप्त हो रहा है, उसी परमेश्वर को अपना सब ओर से रक्षक उपास्यदेव जानो॥१९॥


भावार्थ - जो सूक्ष्म से सूक्ष्म, बड़े से बड़ा, निराकार, अनन्त सामर्थ्य वाला, सर्वत्र अभिव्याप्त, प्रकाशस्वरूप, अद्वितीय परमात्मा है, वही अति सूक्ष्म कारण से स्थूल कार्यरूप जगत् के रचने और विनाश करने को समर्थ है। जो पुरुष इसको छोड़ अन्य की उपासना करता है, उससे अन्य जगत् में भाग्यहीन कौन पुरुष है?॥१९॥


ऋषि: - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - स्वराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


किस्वि॒द्वनं॒ कऽउ॒ स वृ॒क्षऽआ॑स॒ यतो॒ द्यावा॑पृथि॒वी नि॑ष्टत॒क्षुः। 

मनी॑षिणो॒ मन॑सा पृ॒च्छतेदु॒ तद्यद॒ध्यति॑ष्ठ॒द् भुव॑नानि धा॒रय॑न्॥२०॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

प्रश्न-हे (मनीषिणः) मन का निग्रह करने वाले योगीजनो! तुम लोग (मनसा) विज्ञान के साथ विद्वानों के प्रति (किं, स्वित्) क्या (वनम्) सेवने योग्य कारणरूप वन तथा (कः) कौन (उ) वितर्क के साथ (सः) वह (वृक्षः) छिद्यमान अनित्य कार्यरूप संसार (आस) है, ऐसा (पृच्छत) पूछो कि (यतः) जिससे (द्यावापृथिवी) विस्तारयुक्त सूर्य्य और भूमि आदि लोकों को किसने (निष्टतक्षुः) भिन्न-भिन्न बनाया है? उत्तर-(यत्) जो (भुवनानि) प्राणियों के रहने के स्थान लोक-लोकान्तरों को (धारयन्) वायु, विद्युत् और सूर्य्यादि से धारण करता हुआ (अध्यतिष्ठत्) अधिष्ठाता है, (तत्) (इत्) उसी (उ) प्रसिद्ध ब्रह्म को इस सब का कर्त्ता जानो॥२०॥


भावार्थ - इस मन्त्र के तीन पादों से प्रश्न और अन्त्य के एक पाद से उत्तर दिया है। वृक्ष शब्द से कार्य और वन शब्द से कारण का ग्रहण है। जैसे सब पदार्थों को पृथिवी, पृथिवी को सूर्य्य, सूर्य को विद्युत् और बिजुली को वायु धारण करता है, वैसे ही इन सब को ईश्वर धारण करता है॥२०॥

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