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उषस्ति की कठिनाई (उपनिषद की कहानी)

 

उषस्ति की कठिनाई

 


 

        हस्तिनापुर से लेकर पंजाब के पूर्वी भाग का नाम प्राचीन काल में कुरु प्रदेश था। यहीं पर राजा कुरु का वह कुरुक्षेत्र भी है जहाँ कौरवों और पाण्डवों के बीच में होने वाले महाभारत का युद्ध हुआ था । यहाँ पर अकसर पानी कम बरसता है। संयोग की बात, एक बार उसी कुरु प्रदेश में भीषण वृष्टि हुई । दस-बारह दिनों तक लगातार वृष्टि होती रही और एक घंटे के लिए भी बूंदाबांदी बन्द नहीं हुईं । उसका परिणाम यह हुआ कि सारा देश चौपट हो गया । लाखों जानें चली गई , “सारें मकान नदियों की धारा में वह गए । सैकड़ों गावों का कटी कोई पता ही नहीं रह गया ।

 

     सारी फसल चौपट हो गई, जो कुछ अन्न गृहस्थों के घर में था बह सब भी इस बाढ़ में नष्ट हो गया ओर सारा देश अकाल से ग्रस्त हो गया । लोग फूटे अन्न के लिए तरसने लगे । उस समय रेल तार की सुविधा तो थी नहीं जो बाहर ने कुछ सहायता पहुंचाई जाता सारे देश के लोग भोजन की खाने के लिए बाहर चले गये, ओर जो अपाहिज थे, चल फिर नहीं सकते थे, वे मृत्यु के कराल गाल में चल गए ।

 

         उसी मरू प्रदेश में सरस्वती नदी के पवित्र तट पर एक विद्वान ब्राह्मण चक्र का निवास स्थान था। वह अपने समय के बहुत बड़े विद्वान माने जाते थे । दूर-दूर से सैकड़ों विद्यार्थी आ-आ कर उनके गुरुकुल में अध्ययन करते थे । चक्र की मृत्यु के बाद उनके पुत्र उषस्ति गुरुकुल का काम चलाने लगे। वह भी चक्र की तरह बहुत बड़े विद्वान थे । उस भीषण बाढ़ में नदी तट पर होने के कारण जब आश्रम का कोई पता नहीं रहा और सब शिष्य मण्डली भी आहार की कमी से पढ़ाई छोड़कर चली गई तब उषस्ति भी अपनी नव पत्नी आटिकी को साथ लेकर आहार की चिन्ता से बाहर निकले। आटिकी का ब्याह हुए अभी थोड़े ही दिन बीते थे, वह अभी इतनी सयानी नहीं हुईं थी कि मार्ग की कठिनाइयों का सामना कर सके। इसलिए उषस्ति के साथ पैदल चलते- चलते उसके पैर सज आए, तलुवों में छाले पड़ गए और सारा शरीर थकान से चूर-चूर हों गया । ऊपर से सूरज को ज्वाला में उसकी आँखें अन्न के एक-एक कण के लिए भी लालायित थी । उषस्ति जैसे विद्वान को देश में या परदेश में जो इतनी कठिनाई उठानी पड़ी उसका कारण भीषण दुष्काल था। जब किसी के पास अपने ही खाने भर का अन्न नहीं था तो अतिथि, गुरु, पुरोहित की चिन्ता कैसे की जाती । आहार की खोज में वह इतने परेशान हुए कि जिन्दगी में इसका कभी अन्दाजा भी नहीं हुआ था । जिनके हाथ बडे-बडे राजाओं के यहाँ कभी हीरे- जवाहर के लिए भी नहीं खुले ये वही मार्ग में एक मुट्ठी अन्न के लिए इधर उधर बीसों जगह शिर मार कर रह गये पर कही भी सफलता नहीं मिली । अ्न्त में आटिकी एक जगह हताश होकर प्राण त्यागने पर उतारू हो गई । उषस्ति का हृदय विधि की इस बिडम्बना पर विद्रोही हो उठा कि जो कभी सैकड़ों विद्यार्थियों का पोषक था वहीं आज एक मुट्ठी अन्न के लिए अपनी स्त्री की मृत्यु देख रहा है। थोड़ी देर तक दोनों प्राणी एक वृक्ष की छाया में इधर-उधर देखते हुए बैठे रहे ।

 

       संयोग अच्छा था । पूर्व देश के पाँच-छः पथिक जिनके पास कुछ अन्न  शेष बच गया था, उसी मार्ग से कहीं जा रहे थे । आटिकी की विपदा उनसे सटी नहीं गई । अगले दिन की कोई चिन्ता न कर के एक दयालु पथिक ने आटिकी के लिए अपना बचा खुचा,अन्न दे दिया । उसे खाकर आटिकी की प्रिय प्राण जीवन-ज्योति कुछ देर के लिए टिमिटिमाने लगी।

 

        तदनन्तर उषस्ति ने प्रोत्साहन देते हुए परिहास के स्वर में उससे कहा --प्रिये । अभी विधि को हम लोगों की जोड़ी कुछ दिनों तक कायम रखनी है । चलो आगे बढ़े । सुनने में आ रहा है कि उधर कोशल प्रदेश में इतना अकाल नहीं पड़ा है, वहाँ खाने भर का भोजन तो आसानी से मिल जाता है । तो फिर हम ब्राह्मणों को खाने-पीने की वहाँ कोई कमी नहीं पड़ेगी, केवल पहुँचने भर की देर है । आटिकी उठ बैठी, और अपने पति के पीछे - पीछे धीरे-धीरे चलने लगी । दस बारह दिनों से उषस्ति को भी अन्न देवता के दर्शन दुर्लभ हो गए थे । पेड़ की पत्तियों जो खा-खाकर जब तक चल सकते थे। उसी दिन सन्ध्या होने-होते उनके सांस ने भी जवाब दे दिया । ब्रह्मचर्य के कारण तेजस्वी शरीर ने इतने दिनों तक साथ दिया पर अन्न के अभाव में आगे कब तक जलता रहे । उनके भी पैर लड़खड़ाने लगे, कमजोरी के कारण आँखों से बार -बार आँसू आने लगे, पेट में आतें एक दूसरे से चिपक कर सूख-सी गई । गला भी सूख गया और हड्डियों में दर्द होने लगा । अब तय जो मार्ग मनोहर कथाओं के कहने-सुनने में कट रहा था वह अशक्ति के कारण बोलना बन्द कर देने में एकदम दुर्बल बन गया। आटिकी अपने प्राणपति की इस दुर्दशा को अपनी आँखों से देख रही थी, पर क्या करती ।

 

          सन्‍ध्या हो गई । सूर्य की किरणें वृक्षों की चोटियों पर अपनी आखिरी शक्ति का परिचय कराने लगीं। मध्याह्न का तेजस्वी भास्कर आग के एक गोले के समान पश्चिम ये क्षितिज पर दिखाई पड़ने लगा । यह बेला उपस्ति के सन्ध्या वन्‍दन की थी। पर आज उन्हें यह मालूम हुआ मानों सूर्य समान उनके जीवन सूर्य भी सदा के लिए अवसान होने वाला है । एक जलाशय के समीप पहुंच कर उषस्ति ने आटिकी से कहा--प्रिये । थोड़ी देर के लिए रूक जाओ, सन्‍ध्या बन्दन तो कर लूं । कौन जाने कल का सूर्य मुझे न मिले । आखिरी बातें करते समय उषस्ति का मुरझाया मुखमंडल प्रदीप्त हो उठा । तरल आंखों में मोती की दो बुंदे बाहर निकल कर धारा बनाने लगी ।

      आटिकी ने अपने कमल के समान कोमल हाथों से पति के आंसू, को पोंछते हुए कहा--'प्राणनाथ । ऐसा क्यों कहते हैं, दोपहर को तो तुम ने कहा था कि अभी हमारी जोड़ी बहुत दिनों तक कायम रहेगी सो अभी क्यों ऐसी बात जबान पर लाते हैं। मेरा मन कह रहा है कि आगे वाले गाँव में तुम्हें कुछ खाने को अवश्य मिलेगा ।

 

         उषस्ति के सूखते प्राणों में आटिकी की उत्साह रस से भरी बातों ने थोड़ा सा जीवन डाल दिया । निराशा के घने बादल जो उसके साहसी हृदय को भी छेद चुका थे, इन उत्साह पूर्ण बातों से कुछ क्षण के लिए दूर हो गए । जलाशय में किसी तर उत्तर कर उसने सन्ध्या की खोर फिर हरि का स्मरण करते हुए आगे का मार्ग पकड़ा ।

 

         अगले गाँव में पहुँचते-पहुँचते उषस्ति को काफी रात बीत चुको थी। अकाल का प्रभाव इस गाँव में भी था । गाँव भर में केवल महावतों की वस्ती थी जो बहुत गरीबी के दिन बिताते थे। यहाँ तक किसी तरह पहुँच कर उषस्ति की कृत्रिम संजीवनी शक्ति समाप्त होने पर आ गई । आगे को एक-एक पग भूमि उन्हें योजनों से भी बढ़ कर दूर मालूम होने लगी । आखिरकार दोनों पति-पत्नी ने इसी गाँव में रात काटने की बात तय कर ला ओर गाँव में जो सब से अधिक संपन्न महावत था उस के द्वार पर जाकर पड़ाव डाल दिया।

 

        धनी महावत उस समय भोजन कर रहा था, भोजन भी कोई दूसरा नहीं था । तीन-चार दिनों के बाद वह भी कही से मांग-जाँच कर उड़द ले आया था और उसी को पकाया था। उस समय उसकी थाली में बहुत थोड़ा उड़द बच रहा था। उषस्ति ने जब देखा कि महावत उड़द खा रहा है तो उन्हें यह निश्चय हों गया, कि इसके घर में मुझे भूखा ही मरना होगा। क्योंकि इसको अपने दरवाजे पर बैठे ब्राह्मण जोड़े की परवाह नहीं है, इसलिए उन्होंने महावत को सुनाते हुए कहा की ऐ स्वार्थी महावत तुम्हारे दरवाजे पर एक पति पत्नी ब्राह्मण भूखे मर रहें हैं, तू उनकी तरफ ध्यान नहीं दे रहा है, इससे तेरे दोनों लोक बिगड़ जाएंगे।

     महावत ने कहा मैं क्या करूं क्योंकि मैं भी तो पिछले कई दीनों से भूखा ही हूं।

     उषस्ति को महावत की यह विनीत बाते तीखे वाणों की तरह दुःखदायी लग रही थीं । उनका आतुर मन थाली में बचे हुए उड़द की ओर था और चिर संचित ज्ञान, धैर्य तथा विवेक एकमत होकर आकुल प्राणों को रक्षा में लगे थे। वह भल्ला उठे और कुछ कठोर स्वर में बोले-- भाई । मुझे धर्मशास्त्र की शिक्षा न दो। मनुष्य का सब से प्रधान धर्म है प्राणों की रक्षा । मुझ में अब थोड़ी देर के लिए भी भोजन की प्रतीक्षा करने की ताव नहीं है । तुम्हें कोई भी पाप नहीं लगेगा, वरन्‌ एक जीवन दान करने का महान पुण्य मिलेगा ।

 

        महावत आगे क्या बोलता? चुपचाप हाथ मुंह बिना धोए ही उसने अपनी थाली और जल समेत लोटे को उषस्ति क सामने रख दिया । जीवन के इस कठोर सत्य को निर्निमेष नेत्रों से वह देखने लगा और इधर देखते ही देखते उषस्ति ने थाली के उड़द में से थोड़ा सा अगली बार के लिए छोड़कर सब सफाचट कर दिया। आटिकी पहले ही इतना भोजन पा चुकी थी जो कम से कम चौबीस घन्टे तक जीवन- रक्षा करने में समर्थ था । उड़द खा चुकने पर उषस्ति ने महावत से जल माँगा। महावत ने कहा--'महाराज । उसी लोटे में जल भी है । इस पर उषस्ति ने कहा--'भाई ! मैं तुम्हारा जूठा जल नहीं पी सक्तता, क्योंकि ऐसा करने पर मुझे पाप लगेगा और तुम्हारा भी धर्म नष्ट हो जायेगा ।

 

    महावत विस्मय में डूबने-उतराने लगा । वह सोचने लगा कि यह ब्राह्मण अजीब सनकी मालूम पड़ रहा है। जूठे उड़द के खाने में इसको पाप नहीं लगा और जूठे पानी के पीने में पाप लगेगा और मेरा धर्म भी नष्ट हो जायेगा । वह चुप नहीं रह सका। विनीत स्वर में बोला--महाराज ! आप ने मेरे जूठे उड़द तो खा लिए पर पानी पीने म क्या हरज है ?

 

   उषस्ति के निर्जीव शरीर में अन्न ने कुछ चेतना पहुँचा दी थी । हाथ की अंगुलियों को चाटते हुए वह बोले--भाई ! यदि मैं तुम्हारे जूठे उड़द को न खाता तो थोड़ी ही देर में मेरे प्राण पक्षी उड़ जाते । किन्तु जल के बिना तो मेरे प्राण रह सकते हैं, उसका कही भी अभाव नहीं है। प्राणों को संकट में समझ कर ही तुम्हारा जूठा उड़द मैंने खाया है, जल तो कहीं भी पी सकता हूं । यदि उड़द की तरह तुम्हारे जूठे जल को भी मैं पी लूँ तो वह स्वेच्छाचार होगा, आपदधर्म नहीं ।

     आपदधर्म उस धर्म को कहते हैं जो प्राणों के बचने का कोई उपाय न रहने पर किया जाता है। उस दशा में अगर धर्म की मर्यादा कुछ टूट भी जाती है तो दोष नहीं लगता है।

 

      उषस्ति की बातें महावत के मन में सटीक बैठ गई । उसने झट पट हाथ मुंह धोकर लोटे को साफ कर जल दिया। उषस्ति भी हाथ मुंह धोकर निवृत्त हुए। वह रात उन्होंने महावत के घर पर ही बिताई ।

       रात भर अनेक पुरानी कथाओं को सुन कर महावत धन्य हो गया। दूसरे दिन प्रातःकाल उठ कर उषस्ति ने प्रातः कर्म से निवृत्त हो कर आगे का मार्ग पकड़ा । भक्त महावत ने बहुत दूर तक पहुँचा कर सन्‍तुष्ट उषस्ति का मंगल आर्शीवाद ग्रहण किया । आगे-आगे उषस्ति और पीछे - पीछे आटिकी अनेक तरह की बातें करते हुए मार्ग पर बढ़ने लगीं। धीरे-धीरे दोपहर का समय समीप आया । एक सुन्दर सरोवर के मनोहर तट पर दोनों प्राणी बैठ गए । तटवर्ती विशाल वट वृक्ष की सुखद छाया में लेट कर उषस्ति की आंखें झंप गई । आटिकी भी थकान से चूर होकर उसी बट वृक्ष के ऊपर निकली हुई एक मोटी जड़ पर शिर लटका कर उँठग गई, और उसकी भी आंखें आलस की गोद में थोड़ी देर के लिए मुँद गई ।

      मध्याह्न हो गया। पक्षी गण धूप को सहन न कर सकने के कारण वट वृक्ष पर आ-आकर जमा होने लगे। समीप वाले गाँव के चरवाहे अपने “अपने पशु लेकर सरोवर में नहाने लगे। गाँव की स्त्रियों का समूह उसी वट वृक्ष के नीचे आकर जमा होने लगा, क्योंकि उनका वही घाट था । इसी बीच आटिकी की आंखे खुल गई, सामने खड़ी हुईं स्त्रियों को देख कर वह उठ बैठी ओर सकुचाते हुए एक वृद्धा को सम्बोधित कर बोली--'मात! जी । बैठिए । मेरी आंखें झेंप गई थीं, थकान के कारण शरीर एकदम चूर-चूर हो गया है । आप लोग देर से यहाँ आई हैं क्या ।...

 

      एक नवयुवती ने मुसकराते हुए कहा--'बहिन । आप कहीं बहुत दूर से आ रही हैं क्या? आपको देखने ही से ऐसा मालूम हो रहा है कि बहुत थक गई हैं। हम लोगों ने अभी-अभी आकर आपकी नींद में बाधा डाल दी ।

 

    आटिकी सहमते हुए बोली--“नहीं बहिन ! इसमें बाधा डालने की क्या बात है? मैं इधर पश्चिम के देश से आ रही हूँ । कई दिन चलते-चलते बीत गए । हमारे देश में बड़े जोरों का अकाल पड़ गया है, बाढ़ में सब कुछ नाश हो गया ।

 

    वृद्धा ने उषस्ति की और संकेत करते हुए कहा--'बेटी ! वह तुम्हारे पतिदेव हैं ? देखने में तो बहुत बड़े पंडित-से लगते है । आटिकी थोड़ी देर तक चुप रही, फिर बाद में सिर नीचे कर बोली--हाँ, उनकी पाठशाला में सैकड़ों विद्यार्थी पढ़ते थे। एक समय था, जब सब विद्यार्थियों के अ्न्न-वस्त्र की व्यवस्था की जाती थी, अब अपने ही लिए एक मुट्ठी अन्न नहीं मिल रहा है। सरस्वती को बाढ़ में आश्रम और गुरुकुल सब का विनाश हो गया। दाने-दाने को लाले पड़ गए हैं ।?  स्त्रियाँ बैठ गई । आटकि की मधुर बातों ने उन्हें मोल ले लिया । फिर तो आटिकी के साथ उनकी अनेक तरह की बाते होने लगी । थोड़ी ही देर में पिता के घर से लेकर यहाँ आने के पहले तक का उसका सारा वृतान्त उन्हें मालूम हो गया। आटिकी को भी यह बता दिया गया कि वह गाँव भी अकाल की छाया से अछूता नहीं बचा है, गाँव के प्रायः सारे पुरुष दूर परदेश में चले गए हैं और वहीं से महीने पन्द्रह दिन का भोजन लेकर आते हैं और देकर फिर चले जाते हैं । पूरे गाँव स्त्रियों और बच्चों को छोड़कर सयाना कोई नहीं है । चारे के अभाव में कितने पशु-पक्षी भी मर गये हैं।

 

       इसी बीच में उषस्ति बरगद की छाया में से छनकर आने वाली सूर्य की किरणों से जाग पड़े और आँखें मीचते हुए उठ बैठे। उन्हें जगा देखकर स्त्रियाँ भी उठ कर नहाने के लिये जाने लगीं । जाते - जाते बूढ़ि स्त्रि ने कहा--“बेटी । अपने पति से कहो कि यहाँ से दस कोस की दूरी पर एक राजा बहुत बड़ा यज्ञ कर रहा है । उसमें बहुत बड़े- बड़े पंडित बुलाये गए हैं। उन्हें दक्षिणा भी खूब दो जायेगी । वहाँ जाने से भोजन-वस्त्र की काई चिन्ता नहीं रहेगी । इतने बड़े विद्वान को पाकर राजा बहुत सम्मान करेगा । मेरा बेटा भी वहाँ गया हुआ है ।

 

     उषस्ति भी वहाँ उनकी बाते सुन रहा था। आटिकी ने उठ कर स्त्रियों को विदा किया और फिर पति के समीप आकर उससे राजा के यज्ञ का हाल बतलाया ।

 

     उषस्ति ने जँभाई लेते हुए कहा--'प्रिये । मैं भी उस बूढ़ीया की बातें सुन रहा था किन्तु इस समय भूख इतनी जबरदस्त लग गई है कि कोस भर चलने की भा हिम्मत नहीं है । यहाँ सुस्ता लेने के कारण वह और भी जाग पड़ी है। अभी चलना दस कोस है। आटिकी बैठ गई और गठरी में बंधे हुए पिछले दिन के बचे उड़द को देती हुई बोली--'प्राणनाथ ! यह उड़द अभी शेष है। इसे खाकर पानी पी लिया जाये । कुछ दूर चलने की शक्ति आ जायेगी ॥

 

      उषस्ति बहुत प्रसन्न हुए। बोले--'फिर तो अब किसी बात की चिन्ता नहीं हे । इतना खा लेने पर तो दस कोस पानी पी-पीकर चल लेंगे। यज्ञ में पहुँचने पर तो खाने पीने का दारिद्र ही नहीं रह जायेगा। देखेंगे, कहाँ-कहाँ के विद्वान आए हुए हैं ।

 

     आटिकी ने सरोवर से जल लाकर रख दिया। उषस्ति बड़े चाव से बासी और जूठे उड़द के दाने में से थोड़ा आटिकी के लिए अलग करके स्वयं खाने लगा। उसके पानी पी लेने के बाद आटिकी भी उड़द खाकर और पानी पीकर आगे का मार्ग तय करने को तैयार हो गई । दोपहरी लटक गई थी। सूर्य पश्चिम की ओर वापस आकर समस्त संसार को अपने-अपने कर्मों में प्रवृत्त होने का सन्देश दे रहा था। धूप की चमक कुछ मन्‍द हो चली थी । आदी और उषस्ति वट वृक्ष की छाया से उठकर पूर्व की ओर जाने वाली पगडंडी को पकड़ कर आगे बढ़े । वृक्ष पर बैठे हुए पक्षियों के झुंड ने अपने कलरव से उस दम्पति को सफल होने वाली यात्रा की शुभ सूचना दी ।

 

       चलते-चलते सायंकाल हो गयी। उषस्ति और आटिकी ठीक उसी तरह अविभ्रान्त गति से अपनी पग्डण्डी पर चलते रहे जिस तरह पीछे का सूर्य चल रहा था । अंधकार की काली रेखाएँ दिशाओं में छाने लगी । पश्चिम का क्षितिज लाल हो गया । पक्षी गण दिन भर से सूने अपने-अपने घोसले की नीरवता भंग करने लगे, पर उषस्ति का गन्तव्य अभी तीन कोस शेष था । थकान से चूर - चूर आटिकी के अंग-प्रत्यंग जवाब दे रहे थे । रात में राजा के द्वार पर पहुँच कर भी कोई लाभ नहीं था अतः विवश दम्पति ने एक ऐसे स्थान पर अपना डेरा जमा दिया, जहाँ दूर तक न कोई बस्ती थी, न कोई जलाशय था । ऐसे वीरान स्थल में भोजन का कोई उपाय न देख निराशा ने भूख की तड़पन को एकदम बन्द कर दिया । दोनों प्राणी उसी पगडण्डी से कुछ दूर जाकर भूमि पर लेट गए; और एक विचित्र सन्‍तोष की सांसे खींचते हुए तारों की ओर ताकने लगे। इसी बीच में उन्हें यह भी पता नहीं लगा कि आँखों की पलकों ने एक दूसरे का संयोग प्राप्त कर इस दुःखदायी दुनिया से उन्हें रात भर के लिए कब दूर कर दिया। थकान के कारण टूटने वाले उनके अंगों ने निद्रा के मीठे अंकों में पड़ कर सन्तोष की साँस ली थी तो सहसा वे कैसे उठते। आखिरकार प्रातःकाल की सर्दी ने उन्हें जगाया और आगे चल कर शेष मार्ग काट देने की प्रेरणा दी । क्योंकि बहुत सवेरे ही राजा के यज्ञ में पहुँच जाने पर उसी दिन सम्मिलित हो जाने का लोभ था। दम्पति उठ कर फिर कल की तरह आगे की पगडणडी पर चलने को तैयार हो गए । उस समय भुजैटा अपने ठाकुर जी को तथा दूर वाले गाँव के मुर्गे दशरथ जी को पुकारने लगे थे।

 

     सुहावना प्रातःकाल हुआ । सूर्य की किरणों ने संसार में कर्म जाल का बुनना प्रारम्भ कर दिया और उषस्ति को प्रतीक्षित राजा का नगर सामने दिखाई पड़ा। आशा के सुमधुर प्रकाश ने निराशा के घोर अन्धकार को क्षण भर में ही दूर भगा दिया । उनमें बला की शक्ति आ गई । जिस समय राजा के नगर में उन्होंने प्रवेश किया उस समय आटिकी पीछे-पीछे थी ओर वह आगे-आगे ।

 

      राजा का यज्ञ पिछले पाँच छः दिनों से प्रारम्भ था । दूर तक फैले हुए विशाल मण्डप में सैकडों विद्वान्‌ यज्ञकुण्ड के चारों तरफ बैठ कर आहुति छोड़ रहे थे । मण्डप के चारों प्रवेश-द्वारों पर एक-एक वेदों के पाठ करने वाले सुमधुर स्वर के साथ मंत्रों का पवित्र उच्चारण कर रहे थे । कही पर जप करने वाले पंडित बैठकर जप कर रहे थे और कहीं आहुति की तैयारी में , अनेक पुरोहित लगे हुए थे ।

       उस समय एक प्रहर दिन चढ़' चुका था। राजा विधिवत्‌ स्नानादि से निवृत्त होकर पंडितों के बीच में बैठ कर यज्ञाग्नि में आहुति डालने जा रहा था। उषस्ति ने पूर्वद्वार पर नियुक्त प्रहरियों के रोके जाने के बाद भी यज्ञ मण्डप से बलात प्रवेश किया । उस समय उसका तेजस्वी शरीर उसके महान पाणिडित्य की सूचना दे रहा था अत; प्रहरियों को सामान्य वेश भूषा में रहने पर भी उसे रोकने की हिम्मत नहीं पडी। प्रवेश करते ही उषस्ति ने सारे यज्ञ मंडप से एक उड़ती हुई दृष्टि डाली । उससे यह छिपा नहीं रह सका कि दक्षिणा के लोभ में पड़े हुए इन पुरोहितों एवं पंडितों में कौन कितने पानी में है । उसने देखा कि पंडितों का मन कहीं दूसरी जगह है, और आँखें कहीं दूसरी जगह । मुंह से बड़बडाते हुए जप करने वाले पुरोहितों की आँखें यज्ञ मण्डप की छत में अरझी हुई हैं और हाथ से माला की एक-एक मनिया अपने नियत क्रम में नीचे गिरती जा रही है । यज्ञ-कुण्ड की ओर आँखें फेरते ही उसे मालूम हो गया कि आहुति डालने वाले पुरोहितों में भी कितने ऐसे हैं जो स्वाहा के बाद भी आहुति गिराना एकाध बार भूल जाते हैं । इस प्रकार राजा के यज्ञ की इस महान दुर्दशा को देखकर उषस्ति का निश्चल मन तिलमिला उठा ओर स्वाभिमानी पांडित्य जाग पड़ा । स्वर को गम्भीर और कठोर बनाते हुए उसने पूर्व प्रवेश द्वारा के पुरोहित को संबोधित कर कहा- 'प्रस्तोता महोदय ! आप के इस याज्ञिक पाप कर्म को देख कर मुझे बड़ा दुःख हो रहा है। क्या आप जिस देवता का स्तुति-पाठ वहाँ बैठ कर रहे हैं उसका कुछ स्वरूप भी जानते हैं ! यदि स्वरूप को बिना जाने या पहिचाने ही आप याद किए गए, मंत्रों को यों ही पढ़ते जा रहे हैं तो याद रखिये कि अब आपका मस्तक नीचे गिर पड़ेगा ।

 

      उषस्ति की धीर गंभीर वाणी सारे यज्ञ मंडप में आंतक मचाती हुई पंडितों के हृदय में घुस गई । उन्हें मालूम होने लगा मानो सचमुच अभी अभी मस्तक नीचे गिर रहा है। सब के सब भीतर से कांप उठे । राजा हाथ की आहुति को अग्नि में डालते हुए उठ खड़ा हुआ ।

     पुरोहितों एवं पंडितों की मंडली भी राजा के साथ ही उठ कर खड़ी हो गई । तब तक उषस्ति मण्डप के दूसरे प्रवेश द्वार पर उद्गाता को पुकार कर कह रहा था--हे उद्गीथ की स्तुति करने वाले विप्र यदि आप उद्गीथ भाग के देवता का स्वरूप बिना पहचाने हुए यूं ही उनका उद्गान करेंगे तो अब आप का मस्तक नीचे गिर पड़ेगा ।

 

     राजा भी उषस्ति की गम्भीर वाणी से काँप उठा। रंग में भंग होने की भीषण संभावना ने उसे भी विचलित कर दिया। उसे मालूम होने लगा मानो दक्ष का यज्ञ विध्वंस करने वाला वीरभद्र आज पुनः भूमण्डल में आ गया है। धीरे-धीरे वह उसी ओर बढ़ने लगा जिस ओर उषस्ति घूम रहे थे । इसी बीच । उषस्ति मण्डप के तीसरे द्वार पर पहुँच कर प्रतिहार के गान करने वाले को पुकार कर कह रहे थे-- 'प्रतिहार के गान करने वाले महोदय ! यदि आप देवता को बिना जाने उसका प्रतिहार करें तो अब आप का मस्तक नीचे गिर जायेगा ।

    इस प्रकार उषस्ति की भीषण तथा गम्भीर वाणी को सुन कर यज्ञ मण्डप के सभी पुरोहित, प्रस्तोता, उद्गाता ओर प्रतिहर्ता अपने-अपने मस्तक के नीचे गिरने के डर से काँपने लगे और यज्ञीय कर्मों को छोड़ कर चुपचाप खड़े हो गए । इसी समय भयभीत राजा हाथ जोड़ कर उषस्ति के चरणों पर गिर पड़ा और थोड़ी देर तक चुपचाप पड़े रहने के बाद उठकर खड़ा हुआ । उषस्ति मन क्रुद्ध और स्वाभिमानी ब्राह्मण राजा की इस विनीत भावना से पराभूत हो गया ओर हँसते हुए बोला --'राजन्‌ । कहो क्‍या बात है ?

 

     राजा ने गिड़गिड़ाते हुए हाथ जोड़कर कहा--भगवन्‌। आप कौन है? मैं आप का परिचय जानना चाहता हूं।

 

     उषस्ति ने कुछ गम्भीर होकर कहा--राजन्‌ । मैं उस प्रमष्रि चक्र का पुत्र उषस्ति हूँ, जिसके पांडित्य की चर्चा जगन्मणडल में व्याप्त थी । शायद इससे अधिक परिचय देने की आवश्यकता मुझे नहीं है ।

 

     राजा प्रसन्नता से नाच उठा ओर गद्गद कंठ से बोला-- ओ हो । भगवन्‌ ! ब्राह्मण चक्र के सुपुत्र उषस्ति आप ही हैं । योग्य पिता के सुयोग्य पुत्र ! आप का नाम तो से बहुत दिनों से सुन रहा था । इस यज्ञ के लिए भी मैंने अपना दूत आप का सेवा में भेजा था पर दूतों ने आकर यह बतलाया कि बाढ़ में आश्रम के बह जाने के बाद आप छात्रों समेत कहीं अन्यत्र चले गए हैं। मैंने अभी कल तक आपको ढुढ़ने के लिये सब जगह चर भेजे हैं। मेरे धन्य भाग्य । जो आप के समान विद्वान ब्राह्मण के चरणों का रज शीश में लगाया। भगवन्‌ !

    मेरे सौभाग्य से ही आप का पदार्पण यहाँ हुआ है क्‍योंकि मैं तो आप के बारे में बहुत निराश हो चुका था ।

 

 

     उषस्ति ने मुसकराते हुए कहा - 'राजन्‌ ! किन्तु मुझे अभी तक आप का परिचय नहीं मिला था, क्या आप सचमुच मेरे पूज्य पिता जी को और मुझे जानते थे ?

 

       राजा ने विनीत भाव से कहा--'भगवन्‌ ! आप के पूज्य पिता जी की मेरे ऊपर बड़ी कृपा रहती थी । वह वर्ष में एक बार इधर अवश्य आते थे । मेरे अनेक यज्ञों के सारे काम उन्हीं के आचार्यत्व में सम्पन्न हुए हैं । इधर कई वर्ष से उनका शुभागमन नहीं हुआ। उन्हीं के मुख से मैंने आप का नाम भी सुन रखा था । इस यज्ञ के प्रारम्भ होने के ठीक तीन दिन पूर्व आप के पिता जी के देहावसान का समाचार मिला है और तभी आप के पास मैंने दूत भी भेजा था ।

 

     उपषस्ति ने कहा---'राजन्‌ । बहुत अच्छा । आप चलिए और यज्ञ सम्पन्न कीजिये । मेरे क्रुद्ध होने का कारण केवल इतना ही था कि यह ऋत्विज लोग दिखाऊ मन से यज्ञ की सारी क्रियाएँ सम्पन्न कर रहे थे, इनको मैं सावधान कर देना चाहता था । आप अपने मन में यह खयाल न करें कि इनमें कोई त्रुटि है । यह सब के सब परम विद्वान हैं, ब्राह्मण हैं, और यज्ञ की समस्त विधिओं के जानने वाले ह किन्तु मन को चुराने वाले हैं। अब यह पहले को तरह असावधानी नहीं कर सकते, आप निश्चिन्त रहिए । क्योंकि अब सचमुच असावधानी करने पर इनका मस्तक नीचे गिर जायगा ।

 

    राजा ने कहा--भगवन्‌ ! अब तो मैं चाहता हूँ कि मेरे यज्ञ की सारी विधि आप ही सम्पन्न करें ।

 

      उपस्ति ने कहा-- राजन । दुविधा से यज्ञ का श्रेय नष्ट हो जाता है । मेरी बातों पर विश्वास रखिए । आप के यह पुरोहित सब के सब परम विद्वान्‌ हैं, अब इनसे कोई त्रुटि नहीं होगी । मेरी ही आज्ञा से यह सब यश कम सम्पन्न करेंगे । मैं चाहता हूं कि जितनी दक्षिणा इन्हें दी जाये उतनी ही मुझे भी दी जाये । मैं न तो इन्हें आप के यज्ञ से निकालना चाहता हूँ और न दक्षिणा में अधिक धन लेकर इनका अपमान ही करना चाहता हूँ । मेरी देख-रेख में यह सब के सब अपना - अपना काम शुरू कर दें राजा ने कहा--'भगवन्‌ । आप की आज्ञा शिरोधार्य है।'

 

    तदनन्तर प्रस्तोता, उद्गाता आदि समस्त ऋत्विजो ने उषस्ति के समीप आ-आकर विनयपूर्वक उनसे यज्ञ की समस्त विधिओं की यथोचित शिक्षा प्राप्त कर उस विषय में सदा के लिए पूरी जानकारी कर ली और फिर उषस्ति के आचार्यत्व में राजा का यज्ञ पूर्ववत् चलने लगा ।

 

     इस प्रकार चक्र के पुत्र उपस्ति ने ऐसी कठिनाइयों का सामना कर आपदधर्म द्वारा अपने प्राणों की रक्षा की थी और उस धर्मभीरु राजा का यज्ञ सम्पन्न किया था ।

 

 

 

 

 

छान्दोग्य उपनिपद्‌ से ।

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