स कदाचिदुपाध्यायमाहोत्तङ्क आज्ञापयतु भवान् किं ते प्रियमुपाहरामि गुर्वर्थमिति ।। ९३ ॥
तदनन्तर किसी दिन उत्तंकने फिर उपाध्यायसे कहा-'भगवन्! आज्ञा दीजिये, मैं आपको कौन-सी प्रिय वस्तु गुरुदक्षिणाके रूपमें भेंट करूँ?' ।। ९३ ।।
तमुपाध्यायः प्रत्युवाच वत्सोत्तङ्क बहशो मां चोदयसि गुर्वर्थमुपाहरामीति तद् गच्छेनां प्रविश्योपाध्यायानीं पृच्छ किमुपाहरामीति ।। ९४ ॥ एषा यद् ब्रवीति तदुपाहरस्वेति।
यह सुनकर उपाध्यायने उनसे कहा-'वत्स उत्तंक! तुम बार-बार मुझसे कहते हो कि 'मैं क्या गुरुदक्षिणा भेंट करूँ?' अतः जाओ, घरके भीतर प्रवेश करके अपनी गुरुपत्नीसे पूछ लो कि 'मैं क्या गुरुदक्षिणा भेंट करूँ?' ।। ९४ ।। 'वे जो बतावें वही वस्तु उन्हें भेंट करो।'
स एवमुक्त उपाध्यायेनोपाध्यायानीमपृच्छद् भगवत्युपाध्यायेनास्म्यनुज्ञातो गृह गन्तुमिच्छामीष्टं ते गुर्वर्थमुपहृत्यानृणो गन्तुमिति ॥ ९५ ।। तदाज्ञापयतु भवती किमुपाहरामि गुर्वर्थमिति ।
उपाध्यायके ऐसा कहनेपर उत्तंकने गुरुपत्नीसे पूछा-'देवि! उपाध्यायने मुझे घर जानेकी आज्ञा दी है, अतः मैं आपको कोई अभीष्ट वस्तु गुरुदक्षिणाके रूपमें भेंट करके गुरुके ऋणसे उऋण होकर जाना चाहता हूँ ।। ९५ ।। अतः आप आज्ञा दें; मैं गुरुदक्षिणाके रूपमें कौन-सी वस्तु ला दूं।'
सैवमुक्तोपाध्यायानी तमुत्तङ्क प्रत्युवाच गच्छ पौष्यं प्रति राजानं कुण्डले भिक्षितुं तस्य क्षत्रियया पिनद्धे ।। ९६ ।।
उत्तंकके ऐसा कहनेपर गुरुपत्नी उनसे बोलीं-'वत्स! तुम राजा पीष्यके यहाँ, उनकी क्षत्राणी पत्नीने जो दोनों कुण्डल पहन रखे हैं, उन्हें माँग लानेके लिये जाओ ।। १६ ।।
ते आनयस्व चतुर्थेऽहनि पुण्यकं भविता ताभ्यामाबद्धाभ्यां शोभमाना ब्राह्मणान् परिवेष्टुमिच्छामि । तत् सम्पादयस्व, एवं हि कुर्वतः श्रेयो भवितान्यथा कुतः श्रेय इति ।। ९७॥
और उन कुण्डलोंको शीघ्र ले आओ। आजके चौथे दिन पुण्यक व्रत होनेवाला है, मैं उस दिन कानोंमें उन कुण्डलोंको पहनकर सुशोभित हो ब्राह्मणोंको भोजन परोसना चाहती हूँ: अतः तुम मेरा यह मनोरथ पूर्ण करो। तुम्हारा कल्याण होगा। अन्यथा कल्याणकी प्राप्ति कैसे सम्भव है?' || ९७ ॥
स एवमुक्तस्तया प्रातिष्ठतोत्तङ्कः स पथि गच्छन्नपश्यदृषभमतिप्रमाणं तमधिरूढं च पुरुषमतिप्रमाणमेव स पुरुष उत्तङ्कमभ्यभाषत ।। ९८ ॥
गुरुपत्नीके ऐसा कहनेपर उत्तंक वहाँसे चल दिये। मार्गमें जाते समय उन्होंने एक बहुत बड़े बैलको और उसपर चढ़े हुए एक विशालकाय पुरुषको भी देखा। उस पुरुषने उत्तंकसे कहा-।। ९८ ।।
भो उत्तङ्कतत् पुरीषमस्य ऋषभस्य भक्षयस्वेति स एवमुक्तो नैच्छत् ।। ९९ ।।
'उत्तंक! तुम इस बैलका गोबर खा लो।' किंतु उसके ऐसा कहनेपर भी उत्तंकको वह गोबर खानेकी इच्छा नहीं हुई ।। ९९ ॥
तमाह पुरुषो भूयो भक्षयस्वोत्तङ्क मा विचारयोपाध्यायेनापि ते भक्षितं पूर्वमिति ।। १००॥ -
तब वह पुरुष फिर उनसे बोला-'उत्तंक! खा लो, विचार न करो। तुम्हारे उपाध्यायने भी पहले इसे खाया था' ॥ १०॥
स एवमुक्तो बाढमित्युक्त्वा तदा तद् वृषभस्य मूत्रं पुरीषं च भक्षयित्वोत्तङ्कः सम्भ्रमादुत्थित एवाप उपस्पृश्य प्रतस्थे । १०१ ॥
उसके पुनः ऐसा कहनेपर उत्तंकने 'बहुत अच्छा' कहकर उसकी बात मान ली और उस बैलके गोबर तथा मूत्रको खा-पीकर उतावलीके कारण खड़े-खड़े ही आचमन किया। फिर वे चल दिये ।। १०१ ।।
यत्र स क्षत्रियः पौष्यस्तमुपेत्यासीनमपश्यदुत्तङ्कः ।
स उत्तङ्कस्तमुपेत्याशीर्भिरभिनन्द्योवाच ।। १०२ ।।
जहाँ वे क्षत्रिय राजा पौष्य रहते थे, वहाँ पहुँचकर उत्तंकने देखा-वे आसनपर बैठे हुए हैं, तब उत्तंकने उनके समीप जाकर आशीर्वादसे उन्हें प्रसन्न करते हुए कहा- ।। १०२ ।।
अर्थी भवन्तमुपागतोऽस्मीति स एनमभिवाद्योवाच भगवन् पौष्यः खल्वहं किं करवाणीति ।। १०३ ।।
'राजन्! मैं याचक होकर आपके पास आया हूँ।' राजाने उन्हें प्रणाम करके कहा -'भगवन्! मैं आपका सेवक पौष्य हूँ; कहिये, किस आज्ञाका पालन करूँ?' ।। १०३ ।।
तमुवाच गुर्वर्थ कुण्डलयोरर्थेनाभ्यागतोऽस्मीति ।
ये वै ते क्षत्रियया पिनद्धे कुण्डले ते भवान् दातुमर्हतीति ।। १०४ ।। -
उत्तंकने पौष्यसे कहा-'राजन्! मैं गुरुदक्षिणाके निमित्त दो कुण्डलोंके लिये आपके यहाँ आया हूँ। आपकी क्षत्राणीने जिन्हें पहन रखा है, उन्हीं दोनों कुण्डलोंको आप मुझे दे दें। यह आपके योग्य कार्य है' ।। १०४ ।।
तं प्रत्युवाच पौष्यः प्रविश्यान्तःपुरं क्षत्रिया याच्यतामिति ।
स तेनैवमुक्तः प्रविश्यान्तःपुरं क्षत्रियां नापश्यत् ।। १०५॥
यह सुनकर पोष्यने उत्तंकसे कहा-'ब्रह्मन्! आप अन्तःपुरमें जाकर क्षत्राणीसे वे कुण्डल माँग लें।' राजाके ऐसा कहनेपर उत्तंकने अन्तःपुरमें प्रवेश किया, किंतु वहाँ उन्हें क्षत्राणी नहीं दिखायी दी ।। १०५ ।।
स पौष्यं पुनरुवाच न युक्तं भवताहमनृतेनोपचरितुं न हि तेऽन्तःपुरे क्षत्रिया सन्निहिता नैनां पश्यामि ।। १०६ ।।
तब वे पुनः राजा पोष्यके पास आकर बोले-'राजन्! आप मुझे संतुष्ट करनेके लिये झूठी बात कहकर मेरे साथ छल करें, यह आपको शोभा नहीं देता है। आपके अन्तःपुरमें क्षत्राणी नहीं हैं, क्योंकि वहाँ वे मुझे नहीं दिखायी देती हैं। ॥ १०६ ।।
स एवमुक्तः पौष्यः क्षणमात्रं विमृश्योत्तङ्क प्रत्युवाच नियतं भवानुच्छिष्टः स्मर तावन्न हि सा क्षत्रिया उच्छिष्टेनाशुचिना शक्या द्रष्टुं पतिव्रतात्वात् सैषा नाशुचेर्दर्शनमुपेतीति ।। १०७।।
उत्तंकके ऐसा कहनेपर पौष्यने एक क्षणतक विचार करके उन्हें उत्तर दिया-'निश्चय ही आप जूठे मुँह हैं, स्मरण तो कीजिये, क्योंकि मेरी क्षत्राणी पतिव्रता होनेके कारण उच्छिष्ट- अपवित्र मनुष्यके द्वारा नहीं देखी जा सकती हैं। आप उच्छिष्ट होनेके कारण अपवित्र हैं, इसलिये वे आपकी दृष्टिमें नहीं आ रही हैं। ।। १०७।।
अथैवमुक्त उत्तकः स्मृत्योवाचास्ति खलु मयोत्थितेनोपस्पृष्ट गच्छतां चेति । तं पोष्यः प्रत्युवाच-एष ते व्यतिक्रमो नोत्थितेनोपस्पृष्टं भवतीति शीघ्रं गच्छता चेति ।। १०८॥
उनके ऐसा कहनेपर उत्तंकने स्मरण करके कहा-'हाँ, अवश्य ही मुझमें अशुद्धि रह गयी है। यहाँकी यात्रा करते समय मैंने खड़े होकर चलते-चलते आचमन किया है।' तब पौष्यने उनसे कहा-'ब्रह्मन्! यही आपके द्वारा विधिका उल्लंघन हुआ है। खड़े होकर और शीघ्रतापूर्वक चलते-चलते किया हुआ आचमन नहींके बराबर है' ।। १०८॥
अधोत्तड़करतं तधेत्युक्त्वा प्राङ्मुख उपविश्य सप्रक्षालितपाणिपादवदनो निःशब्दाभिरफेनाभिरनुष्णाभिर्हद्गताभिरद्भिस्त्रिः पीत्वा द्विः परिमृज्य खान्यद्भिरुपस्पृश्य चान्तःपुरं प्रविवेश ।। १०९ ।।
तत्पश्चात् उत्तंक राजासे 'ठीक है' ऐसा कहकर हाथ, पैर और मुँह भलीभाँति धोकर पूर्वाभिमुख हो आसनपर बैठे और हृदयतक पहुँचनेयोग्य शब्द तथा फेनसे रहित शीतल जलके द्वारा तीन बार आचमन करके उन्होंने दो बार अंगूठेके मूल भागसे मुख पोछा और नेत्र, नासिका आदि इन्द्रिय-गोलकोंका जलसहित अंगुलियों द्वारा स्पर्श करके अन्तःपुरमें प्रवेश किया ।। १०९ ।।
ततस्तां क्षत्रियामपश्यत्, सा च दृष्ट्वेवोत्तङ्क प्रत्युत्थायाभिवाद्योवाच स्वागतं ते भगवन्नाज्ञापय किं करवाणीति ।। ११०॥
तब उन्हें क्षत्राणीका दर्शन हुआ। महारानी उत्तंकको देखते ही उठकर खड़ी हो गयीं और प्रणाम करके बोलीं-'भगवन्! आपका स्वागत है, आज्ञा दीजिये, मैं क्या सेवा करूँ?' ||११०॥
स तामुवाचैते कुण्डले गुर्वर्थ मे भिक्षिते दातुमर्हसीति । सा प्रीता तेन तस्य सद्धावेन पात्रमयमनतिक्रमणीयश्चेति मत्वा ते कुण्डलेऽवमुच्यास्मै प्रायच्छदाह तक्षको नागराजः सुभृशं प्रार्थयत्यप्रमत्तो नेतुमर्हसीति ।। १११ ।।
उत्तंकने महारानीसे कहा-'देवि! मैंने गुरुके लिये आपके दोनों कुण्डलोंकी याचना की है। वे ही मुझे दे दें।' महारानी उत्तंकके उस सद्भाव (गुरुभक्ति)-से बहुत प्रसन्न हुई। उन्होंने यह सोचकर कि 'ये सुपात्र ब्राह्मण हैं, इन्हें निराश नहीं लौटाना चाहिये'-अपने दोनों कुण्डल स्वयं उतारकर उन्हें दे दिये और उनसे कहा-'ब्रान! नागराज तक्षक इन कुण्डलोंको पानेके लिये बहुत प्रयत्नशील हैं। अतः आपको सावधान होकर इन्हें ले जाना चाहिये ।। १११ ॥
स एवमुक्तस्तां क्षत्रियां प्रत्युवाच भगवति सुनिता भव ।
न मां शक्तस्तक्षको नागराजो धर्षयितुमिति ॥ ११२ ।।
रानीके ऐसा कहनेपर उत्तंकने उन क्षत्राणीसे कहा-'देवि! आप निश्चिन्त रहें। नागराज तक्षक मुझसे भिड़नेका साहस नहीं कर सकता' ।। ११२ ।।
स एवमुक्त्वा तां क्षत्रियामामन्त्र्य पौष्यसकाशमागच्छत् ।
आह चैनं भोः पोष्य प्रीतोऽस्मीति तमुत्तङ्क पोष्यः प्रत्युवाच ।। ११३ ॥ ___
महारानीसे ऐसा कहकर उनसे आज्ञा ले उत्तंक राजा पोष्यके निकट आये और बोले -'महाराज पोष्य! मैं बहुत प्रसन्न हूँ (और आपसे विदा लेना चाहता हूँ।' यह सुनकर पौष्यने उत्तंकसे कहा- ।। ११३ ॥
भगवंश्चिरेण पात्रमासाद्यते भवांश्च गुणवानतिथिस्तदिच्छे श्राद्धं कर्तुं क्रियतां क्षण इति ।।११४ ॥ ___
'भगवन्! बहुत दिनोंपर कोई सुपात्र ब्राह्मण मिलता है। आप गुणवान् अतिथि पधारे हैं, अतः मैं श्राद्ध करना चाहता हूँ। आप इसमें समय दीजिये ।। ११४ ।।
तमुत्तकः प्रत्युवाच कृतक्षण एवास्मि शीघ्रमिच्छामि यथोपपन्नमन्त्रमुपस्कृतं भवतेति स तथेत्युक्त्वा यथोपपन्नेनान्नेनेनं भोजयामास ।। ११५ ।।
तब उत्तंकने राजासे कहा-'मेरा समय तो दिया ही हुआ है, किंतु शीघ्रता चाहता हूँ। आपके यहाँ जो शुद्ध एवं सुसंस्कृत भोजन तैयार हो उसे मगाइये।' राजाने 'बहुत अच्छा' कहकर जो भोजन-सामग्री प्रस्तुत थी, उसके द्वारा उन्हें भोजन कराया ।। ११५ ।।
अथोत्तकः सकेशं शीतमन्नं दृष्ट्वा अशुच्येतदिति मत्वा तं पौष्यमुवाच यस्मान्मेऽशुच्यन्नं ददासि तस्मादन्धो भविष्यसीति ।। ११६ ।।
परंतु जब भोजन सामने आया, तब उत्तंकने देखा, उसमें बाल पड़ा है और वह ठण्डा हो चुका है। फिर तो 'यह अपवित्र अन्न है' ऐसा निश्चय करके वे राजा पोष्यसे बोले-'आप मुझे अपवित्र अन्न दे रहे हैं, अतः अन्धे हो जायेंगे ||११६ ॥
तं पोष्यः प्रत्युवाच यस्मात्त्वमप्यदुष्टमन्नं दूषयसि तस्मात्त्वमनपत्यो भविष्यसीति तमुत्तकः प्रत्युवाच ।। 117॥
तब पौष्यने भी उन्हें शापके बदले शाप देते हुए कहा-'आप शुद्ध अन्नको भी दूषित बता रहे हैं, अतः आप भी संतानहीन हो जायेंगे।' तब उत्तंक राजा पौष्यसे बोले -।।११7 ॥
न युक्तं भवतान्नमशुचि दत्त्वा प्रतिशापं दातुं तस्मादन्नमेव प्रत्यक्षीकुरु । ततः पौष्यस्तदन्नमशुचि दृष्ट्वा तस्याशुचिभावमपरोक्षयामास ।। ११८ ।। ___
'महाराज! अपवित्र अन्न देकर फिर बदलेमें शाप देना आपके लिये कदापि उचित नहीं है। अतः पहले अन्नको ही प्रत्यक्ष देख लीजिये। तब पौष्यने उस अन्नको अपवित्र देखकर उसकी अपवित्रताके कारणका पता लगाया ।।११८ ।।
अथ तदनं मुक्तकेश्या स्त्रिया यत् कृतमनुष्णं सकेशं चाशुच्येतदिति मत्वा तमूषिमुत्तङ्क प्रसादयामास ।। ११९ ।।
वह भोजन खुले केशवाली स्त्रीने तैयार किया था। अतः उसमें केश पड़ गया था। देरका बना होनेसे वह ठण्डा भी हो गया था। इसलिये वह अपवित्र है. इस निश्चयपर पहुँचकर राजाने उत्तंक ऋषिको प्रसन्न करते हुए कहा-।।११९ ।।
भगवन्नेतदज्ञानादन्नं सकेशमुपाहृतं शीतं तत् क्षामये भवन्तं न भवेयमन्ध इति तमुत्तङ्कः प्रत्युवाच ।। १२० ।। ___
'भगवन्! यह केशयुक्त और शीतल अन्न अनजानमें आपके पास लाया गया है। अतः इस अपराधके लिये में आपसे क्षमा मांगता हूँ। आप ऐसी कृपा कीजिये, जिससे मैं अन्धा न होऊँ।' तब उत्तंकने राजासे कहा- ||१२०॥
न मृषा ब्रवीमि भूत्वा त्वमन्धो न चिरादनन्धो भविष्यसीति ।
ममापि शापो भवता दत्तो न भवेदिति ।। १२१ ।। ___
'राजन्! मैं झूठ नहीं बोलता। आप पहले अन्धे होकर फिर थोड़े ही दिनोंमें इस दोषसे रहित हो जायेंगे। अब आप भी ऐसी चेष्टा करें, जिससे आपका दिया हुआ शाप मुझपर लागू न हो' ।। १२१ ।।।
तं पोष्यः प्रत्युवाच न चाहं शक्तः शापं प्रत्यादातुं न हि मे मन्युरधाप्युपशमं गच्छति किं चैतद् भवता न ज्ञायते यथा-॥ १२२ ।।
नवनीतं हृदयं ब्राह्मणस्यवाचि क्षुरो निहितस्तीक्ष्णधारः।
तदुभयमेतद् विपरीतं क्षत्रियस्य वाङ्नवनीतं हृदयं तीक्ष्णधारम् । इति ।। १२३ ।।
यह सुनकर पौष्यने उत्तंकसे कहा-'मैं शापको लौटाने में असमर्थ हूँ, मेरा क्रोध अभीतक शान्त नहीं हो रहा है। क्या आप यह नहीं जानते कि ब्राह्मणका हृदय मक्खनके समान मुलायम और जल्दी पिघलनेवाला होता है? केवल उसकी वाणी में ही तीखी धारवाले छरेका-सा प्रभाव होता है। किंतु ये दोनों ही बातें क्षत्रियके लिये विपरीत हैं। उसकी वाणी तो नवनीतके समान कोमल होती है, लेकिन हृदय पैनी धारवाले छरेके समान तीखा होता है ।। १२२-१२३ ।।
तदेवं गते न शक्तोऽहं तीक्ष्णहृदयत्वात् तं शापमन्यथा कर्तुं गम्यतामिति । तमुत्तकः प्रत्युवाच भवताहमनस्याशुचिभावमालक्ष्य प्रत्यनुनीतः प्राक् च तेऽभिहितम् ।। १२४ ।। यस्माददुष्टमन्नं दूषयसि तस्मादनपत्यो भविष्यसीति । दुष्टे चान्ने नेष मम शापो भविष्यतीति ।। १२५ ॥
"अतः ऐसी दशामें कठोरहृदय होनेके कारण मैं उस शापको बदलने में असमर्थ हूँ। इसलिये आप जाइये।' तब उत्तंक बोले-'राजन! आपने अन्नकी अपवित्रता देखकर मुझसे क्षमाके लिये अनुनय-विनय की है, किंतु पहले आपने कहा था कि 'तुम शुद्ध अन्नको दूषित बता रहे हो, इसलिये संतानहीन हो जाओगे।' इसके बाद अन्नका दोषयुक्त होना प्रमाणित हो गया, अतः आपका यह शाप मुझपर लागू नहीं होगा' ।। १२४-१२५ ॥
साधयामस्तावदित्युक्त्वा प्रातिष्ठतोत्तङ्कस्ते कुण्डले गृहीत्वा सोऽपश्यदथ पथि नग्नं क्षपणकमागच्छन्तं मुहर्मुहुर्दश्यमानमदृश्यमानं च ।। १२६ ।।
'अब हम अपना कार्यसाधन कर रहे हैं। ऐसा कहकर उत्तंक दोनों कुण्डलोंको लेकर वहाँसे चल दिये। मार्गमें उन्होंने अपने पीछे आते हुए एक नग्न क्षपणकको देखा जो बारबार दिखायी देता और छिप जाता था ।। १२६ ।।
अथोत्तङ्कस्ते कुण्डले संन्यस्य भूमावुदकार्थ प्रचक्रमे ।
एतस्मिन्नन्तरे स क्षपणकस्त्वरमाण उपसत्य ते कुण्डले गृहीत्वा प्राद्रवत् ।। १२७ ।।
कुछ दूर जानेके बाद उत्तंकने उन कुण्डलोंको एक जलाशयके किनारे भूमिपर रख दिया और स्वयं जलसम्बन्धी कृत्य (शौच, स्नान, आचमन, संध्यातर्पण आदि) करने लगे। इतनेमें ही वह क्षपणक बड़ी उतावलीके साथ वहाँ आया और दोनों कुण्डलोंको लेकर चंपत हो गया ।। १२७ ॥
तमुत्तकोऽभिसृत्य कृतोदककार्यः शुचिः प्रयतो नमो देवेभ्यो गुरुभ्यश्च कृत्वा महता जवेन तमन्वयात् ।। १२८ ॥
उत्तंकने स्नान-तर्पण आदि जलसम्बन्धी कार्य पूर्ण करके शुद्ध एवं पवित्र होकर देवताओं तथा गुरुओंको नमस्कार किया और जलसे बाहर निकलकर बड़े वेगसे उस क्षपणकका पीछा किया ।। १२८ ।।
तस्य तक्षको दृढमासन्नः स तं जग्राह गृहीतमात्रः स तदपं विहाय तक्षकस्वरूपं कृत्वा सहसा धरण्यां विवृतं महाबिलं प्रविवेश ।। १२९ ।।
वास्तवमें वह नागराज तक्षक ही था। दौडनेसे उत्तंकके अत्यन्त समीपवर्ती हो गया। उत्तंकने उसे पकड़ लिया। पकड़में आते ही उसने क्षपणकका रूप त्याग दिया और तक्षक नागका रूप धारण करके वह सहसा प्रकट हुए पृथ्वीके एक बहुत बड़े विवरमें घुस गया ।। १२९ ।।
प्रविश्य च नागलोकं स्वभवनमगच्छत् ।
अथोत्तङ्कस्तस्याः क्षत्रियाया वचः स्मृत्वा तं तक्षकमन्वगच्छत् ।। १३०॥
बिलमें प्रवेश करके वह नागलोकमें अपने घर चला गया। तदनन्तर उस क्षत्राणीकी बातका स्मरण करके उत्तंकने नागलोकतक उस तक्षकका पीछा किया ।। १३० ।।
स तद् बिलं दण्डकाष्ठेन चखान न चाशकत् ।
तं क्लिश्यमानमिन्द्रोऽपश्यत् स वज्जं प्रेषयामास ।। १३१ ।।
पहले तो उन्होंने उस विवरको अपने डंडेकी लकड़ीसे खोदना आरम्भ किया, किंतु इसमें उन्हें सफलता न मिली। उस समय इन्द्रने उन्हें क्लेश उठाते देखा तो उनकी सहायताके लिये अपना वज़ भेज दिया ।। १३१ ।।
गच्छास्य ब्राह्मणस्य साहाय्यं कुरुष्वेति ।
अथ वजं दण्डकाष्ठमनुप्रविश्य तद् बिलमदारयत् ।।१३२॥
उन्होंने वज़से कहा-'जाओ, इस ब्राह्मणकी सहायता करो।' तब वजने डंडेकी लकड़ी में प्रवेश करके उस बिलको विदीर्ण कर दिया (इससे पाताललोकमें जानेके लिये मार्ग बन गया) ॥ १३२ ।। ___
तमुत्तङ्कोऽनुविवेश तेनेव बिलेन प्रविश्य च तं नागलोकमपर्यन्तमनेकविधप्रासादहऱ्यावलभीनिहशतसंकुलमुच्चावचक्रीडाश्चर्य स्थानावकीर्णमपश्यत् ।। १३३ ।। स तत्र नागांस्तानस्तुवदेभिः श्लोकेःय ऐरावतराजानः सर्पाः समितिशोभनाः ।। क्षरन्त इव जीमूताः सविधुत्पवनेरिताः ।। १३४ ।।
तब उत्तंक उस बिलमें घुस गये और उसी मार्गसे भीतर प्रवेश करके उन्होंने नागलोकका दर्शन किया, जिसकी कहीं सीमा नहीं थी। जो अनेक प्रकारके मन्दिरों, महलों, झुके हुए छज्जोंवाले ऊँचे-ऊँचे मण्डपों तथा सैकड़ों दरवाजोंसे सुशोभित और छोटे-बड़े अद्भुत क्रीडास्थानोंसे व्याप्त था। वहाँ उन्होंने इन श्लोकोद्वारा उन नागोंका स्तवन किया -ऐरावत जिनके राजा है, जो समरांगणमें विशेष शोभा पाते हैं, बिजली और वायुसे प्रेरित हो जलकी वर्षा करनेवाले बादलोंकी भांति बाणोंकी धारावाहिक वृष्टि करते हैं, उन सोंकी जय हो ।। १३३-१३४ ॥
सुरूपा बहुरूपाश्च तथा कल्माषकुण्डलाः ।
आदित्यवन्नाकपूछे रेजुरेरावतो.द्रवाः ।। १३५ ।।
ऐरावतकुलमें उत्पन्न नागगणोंमेंसे कितने ही सुन्दर रूपवाले हैं. उनके अनेक रूप हैं, वे विचित्र कुण्डल धारण करते हैं तथा आकाशमें सूर्यदेवकी भाँति स्वर्गलोकमें प्रकाशित होते हैं ।। १३५ ।।
बहूनि नागवेश्मानि गङ्गायास्तीर उत्तरे ।
तत्रस्थानपि संस्तोमि महतः पन्नगानहम् ।। १३६ ।।
गंगाजीके उत्तर तटपर बहुत-से नागोंके घर हैं, वहाँ रहनेवाले बड़े-बड़े सपोंकी भी मैं स्तुति करता हूँ ।। १३६ ।।
इच्छेत् कोऽर्काशुसेनायां चर्तुमैरावतं विना।
शतान्यशीतिरष्टी च सहस्राणि च विंशतिः ।। १३०।।
सर्पाणां प्रग्रहा यान्ति धृतराष्ट्रो यदेजति ।
ये चैनमुपसर्पन्ति ये च दूरपथं गताः ।। १३८ ।। अहमरावतज्येष्ठभ्रातृभ्योऽकरवं नमः ।
यस्य वासः कुरुक्षेत्रे खाण्डवे चाभवत् पुरा ।। १३९ ।।
तं नागराजमस्तोषं कुण्डलार्थाय तक्षकम् ।
तक्षकश्चाश्वसेनश्च नित्यं सहचरावुभौ ।। १४० ।। कु
रुक्षेत्रं च वसतां नदीमिक्षुमतीमनु ।
जघन्यजस्तक्षकस्य श्रुतसेनेति यः श्रुतः ।। १४१ ।।
अवसद्यो महशुम्नि प्रार्थयन नागमुख्यताम् ।
करवाणि सदा चाहं नमस्तस्मै महात्मने ।। १४२ ।।
ऐरावत नागके सिवा दूसरा कोन है, जो सूर्यदेवकी प्रचण्ड किरणोंके सैन्यमें विचरनेकी इच्छा कर सकता है? ऐरावतके भाई धृतराष्ट्र जब सूर्यदेवके साथ प्रकाशित होते और चलते हैं, उस समय अढाईस हजार आठ सर्प सूर्यके घोडोंकी बागडोर बनकर जाते हैं। जो इनके साथ जाते हैं और जो दूरके मार्गपर जा पहुंचे हैं, ऐरावतके उन सभी छोटे बन्धुओंकों मैंने नमस्कार किया है। जिनका निवास सदा कुरुक्षेत्र और खाण्डववनमें रहा है. उन नागराज तक्षककी मैं कुण्डलोंके लिये स्तुति करता हूँ। तक्षक और अश्वसेन-ये दोनों नाग सदा साथ विचरनेवाले हैं। ये दोनों कुरुक्षेत्रमें इक्षुमती नदीके तटपर रहा करते थे। जो तक्षकके छोटे भाई हैं, श्रुतसेन नामसे जिनकी ख्याति है तथा जो पाताललोकमें नागराजकी पदवी पानेके लिये सूर्यदेवकी उपासना करते हुए कुरुक्षेत्रमें रहे हैं, उन महात्माको मैं सदा नमस्कार करता हूँ॥ १३०-१४२ ।।
एवं स्तुत्वा स विप्रर्षिरुत्तको भुजगोत्तमान् ।
नैव ते कुण्डले लेभे ततश्चिन्तामुपागमत् ।। १४३ ।।
इस प्रकार उन श्रेष्ठ नागोंकी स्तुति करनेपर भी जब ब्रह्मर्षि उत्तंक उन कुण्डलोंको न पा सके तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई ।। १४३ ।।
एवं स्तुवन्नपि नागान् यदा ते कुण्डले नालभत तदापश्यत् स्त्रियो तन्त्र अधिरोप्य सुवेमे पटं वयन्त्यो । तस्मिंस्तन्त्रे कृष्णाः सिताश्च तन्तवश्चक्रं चापश्यद् द्वादशारं षभिः कुमारैः परिवर्त्यमानं पुरुष चापश्यदश्वं च दर्शनीयम् ।। १४४ ।। स तान् सर्वास्तुष्टाव एभिर्मन्त्रवदेव श्लोकः ।। १४५ ॥
इस प्रकार नागोंकी स्तुति करते रहनेपर भी जब वे उन दोनों कुण्डलोंको प्राप्त न कर सके, तब उन्हें वहाँ दो स्त्रियाँ दिखायी दी, जो सुन्दर करघेपर रखकर सूतके तानेमें वस्त्र बुन रही थीं, उस तानेमें उत्तंक मुनिने काले और सफेद दो प्रकारके सूत और बारह अरोंका एक चक्र भी देखा, जिसे छ: कुमार घुमा रहे थे। वहीं एक श्रेष्ठ पुरुष भी दिखायी दिये। जिनके साथ एक दर्शनीय अश्व भी था। उत्तंकने इन मन्त्रतुल्य श्लोकोंद्वारा उनकी स्तुति की - ।। १४४-१४५ ॥
त्रीण्यर्पितान्यत्र शतानि मध्ये षष्टिश्च नित्यं चरति ध्रुवेऽस्मिन् ।
चक्रे चतुर्विशतिपर्वयोगे षड़वे कुमाराः परिवर्तयन्ति ।। १४६ ।।
यह जो अविनाशी कालचक्र निरन्तर चल रहा है, इसके भीतर तीन सौ साठ अरे हैं, चौबीस पर्व हैं और इस चक्रको छः कुमार घुमा रहे हैं ।। १४६ ॥
तन्त्रं चेदं विश्वरूपे युवत्यो वयतस्तन्तून सततं वर्तयन्त्यो।
कृष्णान् सितांश्चैव विवर्तयन्त्योभूतान्यजस्रं भुवनानि चैव ।। १४०।।
यह सम्पूर्ण विश्व जिनका स्वरूप है, ऐसी दो युवतियाँ सदा काले और सफेद तन्तुओंको इधर-उधर चलाती हुई इस वासना-जालरूपी वस्त्रको बुन रही हैं तथा वे ही सम्पूर्ण भूतों और समस्त भुवनोंका निरन्तर संचालन करती हैं । १४७ ।।
वजस्य भर्ता भुवनस्य गोप्तावृत्रस्य हन्ता नमुचेनिहन्ता।
कृष्णे वसानो बसने महात्मा सत्यानृते यो विविनक्ति लोके ।। १४८ ।।
यो वाजिनं गर्भमपां पुराणं वैश्वानरं वाहनमभ्युपैति ।
नमोऽस्तु तस्मै जगदीश्वरायलोकत्रयेशाय पुरन्दराय ।। १४९ ।।
जो महात्मा बज धारण करके तीनों लोकोंकी रक्षा करते हैं, जिन्होंने वत्रासुरका वध तथा नमुचि दानवका संहार किया है, जो काले रंगके दो वस्त्र पहनते और लोकमें सत्य एवं असत्यका विवेचन करते हैं; जलसे प्रकट हुए प्राचीन वैश्वानररूप अश्वको वाहन बनाकर उसपर चढ़ते हैं तथा जो तीनों लोकोंके शासक हैं. उन जगदीश्वर पुरन्दरको मेरा नमस्कार है।। १४८-१४९ ।।
ततः स एनं पुरुषः प्राह प्रीतोऽस्मि तेऽहमनेन स्तोत्रेण किं ते प्रियं करवाणीति स तमुवाच ॥ १५०॥
तब वह पुरुष उत्तंकसे बोला-'ब्रह्मन्! मैं तुम्हारे इस स्तोत्रसे बहुत प्रसन्न हूँ। कहो, तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?' यह सुनकर उत्तंकने कहा- ।।१५० ।।
नागा मे वशमीयुरिति स चैनं पुरुषः पुनरुवाच एतमश्वमपाने घमस्वेति ।। १५१ ॥
'सब नाग मेरे अधीन हो जायें-उनके ऐसा कहनेपर वह पुरुष पुनः उत्तकसे बोला -'इस घोड़ेकी गुदामें फूंक मारो' ।। १५१ ।।
ततोऽश्वस्यापानमधमत् ततोऽश्वाद्धम्यमानात् सर्वस्रोतोभ्यः पावकार्चिषः सधूमा निष्पेतुः ।। १५२ ॥
यह सुनकर उत्तंकने घोड़ेकी गुदामें फूंक मारी। फूंकनेसे घोड़ेके शरीरके समस्त छिद्रोंसे धूएँसहित आगकी लपटें निकलने लगीं ।। १५२ ।।
ताभिर्नागलोक उपधूपितेऽथ सम्भ्रान्तस्तक्षकोऽग्नेस्तेजोभयाद् विषण्णः कुण्डले गृहीत्वा सहसा भवनानिष्क्रम्योत्तङ्कमुवाच ।। १५३ ।।
उस समय सारा नागलोक धूएंसे भर गया। फिर तो तक्षक घबरा गया और आगकी ज्वालाके भयसे दुःखी हो दोनों कुण्डल लिये सहसा घरसे निकल आया और उत्तंकसे बोला - ||१५३ ॥
इमे कुण्डले गहातु भवानिति स ते प्रतिजग्राहोत्तङ्कः प्रतिगृह्य च कुण्डलेऽचिन्तयत् ।। १५४ ।। ___
'ब्रह्मन्! आप ये दोनों कुण्डल ग्रहण कीजिये।' उत्तंकने उन कुण्डलोंको ले लिया। कुण्डल लेकर वे सोचने लगे- ।। १५४ ।।
अद्य तत् पुण्यकमुपाध्यायान्या दूरं चाहमभ्यागतः स कथं सम्भावयेयमिति तत एनं चिन्तयानमेव स पुरुष उवाच ।। १५५ ।।
"अहो! आज ही गुरुपत्नीका वह पुण्यकव्रत है और मैं बहुत दूर चला आया हूँ। ऐसी दशामें किस प्रकार इन कुण्डलोद्वारा उनका सत्कार कर सकूँगा?' तब इस प्रकार चिन्तामें पड़े हुए उत्तंकसे उस पुरुषने कहा-॥१५५ ।।
उत्तक एनमेवाश्वमधिरोह त्वां क्षणेनेवोपाध्यायकुलं प्रापयिष्यतीति ।। १५६ ॥
'उत्तंक! इसी घोड़ेपर चढ़ जाओ। यह तुम्हें क्षणभरमें उपाध्यायके घर पहुंचा देगा' ।। १५६ ॥
स तथेत्युक्त्वा तमश्वमधिरुह्य प्रत्याजगामोपाध्यायकुलमुपाध्यायानी च स्नाता केशानावापयन्त्युपविष्टोत्तको नागच्छतीति शापायास्य मनो दधे ।। १५७॥
'बहुत अच्छा' कहकर उत्तंक उस घोड़ेपर चढ़े और तुरंत उपाध्यायके घर आ पहुंचे। इधर गुरुपत्नी स्नान करके बैठी हुई अपने केश सँवार रही थीं। 'उत्तंक अबतक नहीं आया'-यह सोचकर उन्होंने शिष्यको शाप देनेका विचार कर लिया ।। १५॥
अथ तस्मिन्नन्तरे स उत्तङ्कः प्रविश्य उपाध्यायकुलमुपाध्यायानीमभ्यवादयत् ते चास्य कुण्डले प्रायच्छत् सा चैनं प्रत्युवाच ।। १५८ ॥
इसी बीच में उत्तंकने उपाध्यायके घरमें प्रवेश करके गुरुपत्नीको प्रणाम किया और उन्हें वे दोनों कुण्डल दे दिये। तब गुरुपत्नीने उत्तंकसे कहा- ॥ १५८ ।।
उत्तइक देशे कालेऽभ्यागतः स्वागतं ते वत्स त्वमनागसि मया न शप्तः श्रेयस्तवोपस्थितं सिद्धिमानहीति ।। १५९ ।।
'उत्तंक! तू ठीक समयपर उचित स्थानमें आ पहुँचा। वत्स! तेरा स्वागत है। अच्छा हुआ जो बिना अपराधके ही तुझे शाप नहीं दिया। तेरा कल्याण उपस्थित है, तुझे सिद्धि प्राप्त हो' ।। १५९ ॥
अधोत्तक उपाध्यायमभ्यवादयत् ।
तमुपाध्यायः प्रत्युवाच वत्सोत्तङ्क स्वागतं ते किं चिरं कृतमिति ॥१६0॥
तदनन्तर उत्तंकने उपाध्यायके चरणों में प्रणाम किया। उपाध्यायने उससे कहा-'वत्स उत्तंक! तुम्हारा स्वागत है। लौटने में देर क्यों लगायी? ।।१६०॥
तमुत्तक उपाध्यायं प्रत्युवाच भोस्तक्षकेण मे नागराजेन विघ्नः कृतोऽस्मिन् कर्मणि तेनास्मि नागलोकं गतः ।। १६१ ।।।
तब उत्तंकने उपाध्यायको उत्तर दिया-'भगवन! नागराज तक्षकने इस कार्यमें विघ्न डाल दिया था। इसलिये मैं नागलोकमें चला गया था ।। ११ ।।
तत्र च मया दष्टे स्त्रियो तन्त्रेऽधिरोप्य पटं बयन्त्यो तस्मिंश्च कृष्णाः सिताश्च तन्तवः किं तत् ।। १६२ ।।
वहीं मैंने दो स्त्रियाँ देखीं, जो करघेपर सूत रखकर कपड़ा बुन रही थी। उस करघेमें काले और सफेद रंगके सूत लगे थे। वह सब क्या था? || १५२ ।।
तत्र च मया चक्रं दृष्टं द्वादशारं षट् चैनं कुमाराः परिवर्तयन्ति तदपि किम् । पुरुषश्चापि मया दृष्टः स चापि कः । अश्वश्वातिप्रमाणो दृष्टः स चापि कः ।। १६३ ।।
वहीं मैंने एक चक्र भी देखा, जिसमें बारह अरे थे। छ: कुमार उस चक्रको घुमा रहे थे। वह भी क्या था? वहाँ एक पुरुष भी मेरे देखने में आया था। वह कौन था? तथा एक बहुत बड़ा अश्व भी दिखायी दिया था। वह कौन था? ।। १६३ ।।।
पथि गच्छता च मया ऋषभो दृष्टस्तं च पुरुषोऽधिरूढस्तेनास्मि सोपचारमुक्त उत्तकास्य ऋषभस्य पुरीषं भक्षय उपाध्यायेनापि ते भक्षितमिति ।। १६४ ।।
इधरसे जाते समय मार्गमें मैंने एक बैल देखा, उसपर एक पुरुष सवार था। उस पुरुषने मुझसे आग्रहपूर्वक कहा-'उत्तंक! इस बेलका गोबर खा लो। तुम्हारे उपाध्यायने भी पहले इसे खाया है ॥ १६४ ।।
ततस्तस्य वचनान्मया तवृषभस्य पुरीषमुपयुक्तं स चापि कः । तदेतद् भवतोपदिष्टमिच्छेयं श्रोतुं किं तदिति । स तेनैवमुक्त उपाध्यायः प्रत्युवाच ।। १५५ ।। ___
'तब उस पुरुषके कहनेसे मैंने उस बेलका गोबर खा लिया। अतः वह बैल और पुरुष कौन थे? मैं आपके मुखसे सुनना चाहता हूँ वह सब क्या था?' उत्तंकके इस प्रकार पूछनेपर उपाध्यायने उत्तर दिया-॥१५५ ॥ -
ये ते स्त्रियो धाता विधाता च ये च ते कृष्णाः सितास्तन्तवस्ते रात्र्यहनी । यदपि तच्चक्रं द्वादशारं षड़ वै कुमाराः परिवर्तयन्ति तेऽपि षड़ ऋतवः द्वादशारा द्वादश मासाः संवत्सरश्चक्रम् ।।१६६ ।।
'वे जो दोनों स्त्रियाँ थीं, वे धाता और विधाता हैं। जो काले और सफेद तन्तु थे, वे रात और दिन हैं। बारह अरोंसे युक्त चक्रको जो छ: कुमार घुमा रहे थे, वे छः ऋतुएँ हैं। बारह | महीने ही बारह अरे हैं। संवत्सर ही वह चक्र है ।।१६६ ॥
यः पुरुषः स पर्जन्यो योऽश्वः सोऽग्निर्य ऋषभस्त्वया पथि गच्छता दृष्टः स ऐरावतो नागराट् ॥ १६७।।
'जो पुरुष था, वह पर्जन्य (इन्द्र) है। जो अश्व था वह अग्नि है। इधरसे जाते समय मार्गमें तुमने जिस बेलको देखा था, वह नागराज ऐरावत हैं ।। १६० ।।
यश्चैनमधिरूढः पुरुषः स चेन्द्रो यदपि ते भक्षितं तस्य ऋषभस्य पुरीषं तदमृतं तेन खल्वसि तस्मिन् नागभवने न व्यापन्नस्त्वम् ।। १६८ ॥ ___
और जो उसपर चढ़ा हुआ पुरुष था, वह इन्द्र है। तुमने बैलके जिस गोबरको खाया है, वह अमृत था। इसीलिये तुम नागलोकमें जाकर भी मरे नहीं ।। १६८।।
स हि भगवानिन्द्रो मम सखा त्वदनुक्रोशादि-ममनुग्रहं कृतवान् । तस्मात् कुण्डले गहीत्वा पुनरागतोऽसि ॥ १६९ ॥
वे भगवान् इन्द्र मेरे सखा हैं। तुमपर कृपा करके ही उन्होंने यह अनुग्रह किया है। यही कारण है कि तुम दोनों कुण्डल लेकर फिर यहाँ लौट आये हो ।। १६९ ।।
तत् सौम्य गम्यतामनुजाने भवन्तं श्रेयोऽवाप्स्यसीति । स उपाध्यायेनानुज्ञातो भगवानुत्तकः क्रुद्धस्तक्षकं प्रतिचिकीर्षमाणो हास्तिनपुरं प्रतस्थे ।। १७०।।
"अतः सौम्य! अब तुम जाओ, मैं तुम्हें जानेकी आज्ञा देता हूँ। तुम कल्याणके भागी होओगे।' उपाध्यायकी आज्ञा पाकर उत्तंक तक्षकके प्रति कुपित हो उससे बदला लेनेकी इच्छासे हस्तिनापुरकी ओर चल दिये ।। १७०।।
स हास्तिनपुरं प्राप्य न चिराद् विप्रसत्तमः ।
समागच्छत राजानमुत्तको जनमेजयम् ।। १७१ ।।
हस्तिनापुरमें शीघ्र पहुँचकर विप्रवर उत्तंक राजा जनमेजयसे मिले ।। १०१ ।।
पुरा तक्षशिलासंस्थं निवृत्तमपराजितम् ।
सम्यग्विजयिनं दृष्ट्वा समन्तान्मन्त्रिभिर्वतम् ।। १७२ ।।
तस्मै जयाशिषः पूर्व यथान्यायं प्रयुज्य सः ।
उवाचैनं वचः काले शब्दसम्पन्नया गिरा ।। १७३ ।।
जनमेजय पहले तक्षशिला गये थे। वे वहाँ जाकर पूर्ण विजय पा चुके थे। उत्तंकने मन्त्रियोंसे घिरे हुए उत्तम विजयसे सम्पन्न राजा जनमेजयको देखकर पहले उन्हें न्यायपूर्वक जयसम्बन्धी आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात् उचित समयपर उपयुक्त शब्दोंसे विभूषित वाणीद्वारा उनसे इस प्रकार कहा-।।१7२-१7३ ।।
उत्तइक उवाच
अन्यस्मिन् करणीये तु कार्ये पार्थिवसत्तम ।
बाल्यादिवान्यदेव त्वं कुरुषे नृपसत्तम ।। १७४ ।।
उत्तंक बोले-नृपश्रेष्ठ! जहाँ तुम्हारे लिये करनेयोग्य दूसरा कार्य उपस्थित हो, वहाँ अज्ञानवश तुम कोई और ही कार्य कर रहे हो ।। १७४ ।।
सौतिरुवाच एवमुक्तस्तु विप्रेण स राजा जनमेजयः ।
अर्चयित्वा यथान्यायं प्रत्युवाच द्विजोत्तमम् ।। १7५ ।।
उग्रश्रवाजी कहते हैं-विप्रवर उत्तंकके ऐसा कहनेपर राजा जनमेजयने उन द्विजश्रेष्ठका विधिपूर्वक पूजन किया और इस प्रकार कहा ।। १७५ ।।
जनमेजय उवाच आसां प्रजानां परिपालनेन स्वं क्षत्रधर्म परिपालयामि।
प्रब्रूहि मे किं करणीयमद्ययेनासि कार्येण समागतस्त्वम् ।। 176॥
जनमेजय बोले-ब्रह्मन्! मैं इन प्रजाओंकी रक्षाद्वारा अपने क्षत्रियधर्मका पालन करता हूँ। बताइये, आज मेरे करनेयोग्य कौन-सा कार्य उपस्थित है? जिसके कारण आप यहाँ पधारे हैं ।। 176॥
सौतिरुवाच
स एवमुक्तस्तु नृपोत्तमेन द्विजोत्तमः पुण्यकृतां वरिष्ठः ।
उवाच राजानमदीनसत्त्वं स्वमेव कार्य नृपते कुरुष्व ।। १७७।।
उग्रश्रवाजी कहते हैं-राजाओंमें श्रेष्ठ जनमेजयके इस प्रकार कहनेपर पुण्यात्माओंमें अग्रगण्य विप्रवर उत्तंकने उन उदार हृदयवाले नरेशसे कहा-'महाराज! वह कार्य मेरा नहीं, आपका ही है, आप उसे अवश्य कीजिये ।। १७७ ।।
उत्तक उवाच तक्षकेण महीन्द्रेन्द्र येन ते हिंसितः पिता ।
तस्मै प्रतिकुरुष्व त्वं पन्नगाय दुरात्मने ।। १०८ ।।
इतना कहकर उत्तंक फिर बोले-भूपालशिरोमणे! नागराज तक्षकने आपके पिताकी हत्या की है; अतः आप उस दुरात्मा सर्पसे इसका बदला लीजिये ।। १७८ ।।
कार्यकालं हि मन्येऽहं विधिदृष्टस्य कर्मणः।
तद्गच्छापचितिं राजन् पितुस्तस्य महात्मनः ।। १७९ ।।
मैं समझता हूँ शत्रुनाशन-कार्यकी सिद्धिके लिये जो सर्पयज्ञरूप कर्म शास्त्रमें देखा गया है, उसके अनुष्ठानका यह उचित अवसर प्राप्त हुआ है। अतः राजन्! अपने महात्मा पिताकी मृत्युका बदला आप अवश्य लें।। १७९ ।।
तेन ह्यनपराधी सदष्टो दुष्टान्तरात्मना।
पञ्चत्वमगम राजा वजाहत इव दुमः ।। १८०॥
यद्यपि आपके पिता महाराज परीक्षित्ने कोई अपराध नहीं किया था तो भी उस दुष्टात्मा सर्पने उन्हें डॅस लिया और वे वजके मारे हुए वृक्षकी भाँति तुरंत ही गिरकर कालके गालमें चले गये ।। १८०॥
बलदर्पसमुत्सितस्तक्षकः पन्नगाधमः ।
अकार्यं कृतवान् पापो योऽदशत् पितरं तव ।। १८१।।
सोमें अधम तक्षक अपने बलके घमण्डसे उन्मत्त रहता है। उस पापीने यह बड़ा भारी अनुचित कर्म किया जो आपके पिताको डॅस लिया ।। १८१ ।।
राजर्षिवंशगोप्तारममरप्रतिमं नृपम्।
यियासुंकाश्यपं चैव न्यवर्तयत पापकृत् ।। १८२ ।।
वे महाराज परीक्षित् राजर्षियोंके वंशकी रक्षा करनेवाले और देवताओंके समान तेजस्वी थे, काश्यप नामक एक ब्राह्मण आपके पिताकी रक्षा करनेके लिये उनके पास आना चाहते थे, किंतु उस पापाचारीने उन्हें लौटा दिया ।। १८२ ।।
होतुमर्हसि तं पापं ज्वलिते हव्यवाहने।
सर्पसत्रे महाराज त्वरितं तद् विधीयताम् ।। १८३ ॥
अतः महाराज! आप सर्पयज्ञका अनुष्ठान करके उसकी प्रज्वलित अग्निमें उस पापीको होम दीजिये; और जल्दी-से-जल्दी यह कार्य कर डालिये ।। १८३ ।।
एवं पितुश्चापचितिं कृतवांस्त्वं भविष्यसि । मम प्रियं च सुमहत् कृतं राजन् भविष्यति ।। १८४ ।। कर्मणः पृथिवीपाल मम येन दुरात्मना। विघ्नः कृतो महाराज गुर्वर्थ चरतोऽनघ ।। १८५ ।।
ऐसा करके आप अपने पिताकी मृत्युका बदला चुका सकेंगे एवं मेरा भी अत्यन्त प्रिय कार्य सम्पन्न हो जायगा। समूची पृथ्वीका पालन करनेवाले नरेश! तक्षक बड़ा दुरात्मा है। पापरहित महाराज! मैं गुरुजीके लिये एक कार्य करने जा रहा था, जिसमें उस दुष्टने बहुत बड़ा विघ्न डाल दिया था ।। १८४-१८५ ॥
सौतिरुवाच
एतच्छ्रुत्वा तु नृपतिस्तक्षकाय चुकोप ह ।
उत्तङ्कवाक्यहविषा दीप्तोऽग्निहविषा यथा ।। १८६ ।।
उग्रश्रवाजी कहते हैं-महर्षियो! यह समाचार सुनकर राजा जनमेजय तक्षकपर कुपित हो उठे। उत्तंकके वाक्यने उनकी क्रोधाग्निमें घीका काम किया। जैसे घीकी आहुति पड़नेसे अग्नि प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार वे क्रोधसे अत्यन्त कुपित हो गये ।। १८६।।
अपृच्छत् स तदा राजा मन्त्रिणस्तान् सुदुःखितः ।
उत्तकस्यैव सांनिध्ये पितुः स्वर्गगति प्रति ।। १८७॥
उस समय राजा जनमेजयने अत्यन्त दुःखी होकर उत्तंकके निकट ही मन्त्रियोंसे पिताके स्वर्गगमनका समाचार पूछा ।। १८७।।
तदेव हि स राजेन्द्रो दुःखशोकाप्लुतोऽभवत् ।
यदेव वृत्तं पितरमुत्तङ्कादशृणोत् तदा ।। १८८ ।।
उत्तंकके मुखसे जिस समय उन्होंने पिताके मरनेकी बात सुनी, उसी समय वे महाराज दुःख और शोकमें डूब गये ।। १८८ ।।
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पोष्यपर्वणि तृतीयोऽध्यायः ॥३॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौष्यपर्वमें (पौष्याख्यानविषयक)
तीसरा
अध्याय पूरा हुआ ॥३॥
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