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ऋग्वेद अध्याय 1 सूक्त (10)

गाय॑न्ति त्वा गाय॒त्रिणोऽर्च॑न्त्य॒र्कम॒र्किणः॑। 

ब्र॒ह्माण॑स्त्वा शतक्रत॒ उद्वं॒शमि॑व येमिरे॥


विषय - अब दशम सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इस सूक्त के प्रथम मन्त्र में इस बात का प्रकाश किया है कि कौन-कौन पुरुष किस-किस प्रकार से इन्द्रसंज्ञक परमेश्वर का पूजन करते हैं-


पदार्थ -

हे (शतक्रतो) असंख्यात कर्म और उत्तम ज्ञानयुक्त परमेश्वर ! (ब्रह्माणः) जैसे वेदों को पढ़कर उत्तम-उत्तम क्रिया करनेवाले मनुष्य श्रेष्ठ उपदेश, गुण और अच्छी-अच्छी शिक्षाओं से (वंशम्) अपने वंश को (उद्येमिरे) प्रशस्त गुणयुक्त करके उद्यमवान् करते हैं, वैसे ही (गायत्रिणः) जो गायत्र अर्थात् प्रशंसा करने योग्य छन्दराग आदि पढ़े हुए धार्मिक और ईश्वर की उपासना करनेवाले हैं, वे पुरुष (त्वा) आपकी (गायन्ति) सामवेदादि के गानों से प्रशंसा करते हैं, तथा (अर्किणः) अर्क अर्थात् जो कि वेद के मन्त्र पढ़ने के नित्य अभ्यासी हैं, वे (अर्कम्) सब मनुष्यों को पूजने योग्य (त्वा) आपका (अर्चन्ति) नित्य पूजन करते हैं॥१॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सब मनुष्यों को परमेश्वर ही की पूजा करनी चाहिये अर्थात् उसकी आज्ञा के अनुकूल वेदविद्या को पढ़कर अच्छे-अच्छे गुणों के साथ अपने और अन्यों के वंश को भी पुरुषार्थी करते हैं, वैसे ही अपने आप को भी होना चाहिये। और जो परमेश्वर के सिवाय दूसरे का पूजन करनेवाला पुरुष है, वह कभी उत्तम फल को प्राप्त होने योग्य नहीं हो सकता, क्योंकि न तो ईश्वर की ऐसी आज्ञा ही है, और न ईश्वर के समान कोई दूसरा पदार्थ है कि जिसका उसके स्थान में पूजन किया जावे। इससे सब मनुष्यों को उचित है कि परमेश्वर ही का गान और पूजन करें॥१॥


यत्सानोः॒ सानु॒मारु॑ह॒द्भूर्यस्प॑ष्ट॒ कर्त्व॑म्। 

तदिन्द्रो॒ अर्थं॑ चेतति यू॒थेन॑ वृ॒ष्णिरे॑जति॥


विषय - फिर भी ईश्वर को कैसे जानें, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-


पदार्थ -

जैसे (यूथेन) वायुगण अथवा सुख के साधन हेतु पदार्थों के साथ (वृष्णिः) वर्षा करनेवाला सूर्य्य अपने किरणसमूह से प्रकाश करके (सानोः) पर्वत के एक शिखर से (सानुम्) दूसरे शिखर को (भूरि) बहुधा (आरुहत्) प्राप्त होता (अस्पष्ट) स्पर्श करता (एजति) क्रम से अपनी कक्षा में घूमता और घुमाता है, वैसे ही जो मनुष्य क्रम से एक कर्म को सिद्ध करके दूसरे को (कर्त्त्वम्) करने को (भूरि) बहुधा (आरुहत्) आरम्भ तथा (अस्पष्ट) स्पर्श करता हुआ (एजति) प्राप्त होता है, उस पुरुष के लिये (इन्द्रः) सर्वज्ञ ईश्वर उन कर्मों के करने को (सानोः) अनुक्रम से (अर्थम्) प्रयोजन के विभाग के साथ (भूरि) अच्छी प्रकार (चेतति) प्रकाश करता है॥२॥


भावार्थ - इस मन्त्र में भी इव शब्द की अनुवृत्ति से उपमालङ्कार समझना चाहिये। जैसे सूर्य्य अपने सम्मुख के पदार्थों को वायु के साथ वारंवार क्रम से अच्छी प्रकार आक्रमण, आकर्षण और प्रकाश करके सब पृथिव्यादि लोकों को घुमाता है, वैसे ही जो मनुष्य विद्या से करने योग्य अनेक कर्मों को सिद्ध करने के लिये प्रवृत्त होता है, वही अनेक क्रियाओं से सब कार्य्यों के करने को समर्थ हो सकता तथा ईश्वर की सृष्टि में अनेक सुखों को प्राप्त होता, और उसी मनुष्य को ईश्वर भी अपनी कृपादृष्टि से देखता है, आलसी को नहीं॥२॥


यु॒क्ष्वा हि के॒शिना॒ हरी॒ वृष॑णा कक्ष्य॒प्रा। 

अथा॑ न इन्द्र सोमपा गि॒रामुप॑श्रुतिं चर॥


विषय - अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से ईश्वर और सूर्य्यलोक का प्रकाश किया है-


पदार्थ -

हे (सोमपाः) उत्तम पदार्थों के रक्षक (इन्द्र) सब में व्याप्त होनेवाले ईश्वर ! जैसे आपका रचा हुआ सूर्य्यलोक जो अपने (केशिना) प्रकाशयुक्त बल और आकर्षण अर्थात् पदार्थों के खीचने का सामर्थ्य जो कि (वृषणा) वर्षा के हेतु और (कक्ष्यप्रा) अपनी-अपनी कक्षाओं में उत्पन्न हुए पदार्थों को पूरण करने अथवा (हरी) हरण और व्याप्ति स्वभाववाले घोड़ों के समान और आकर्षण गुण हैं, उनको अपने-अपने कार्यों में जोड़ता है, वैसे ही आप (नः) हम लोगों को भी सब विद्या के प्रकाश के लिये उन विद्याओं में (युक्ष्व) युक्त कीजिये। (अथ) इसके अनन्तर आपकी स्तुति में प्रवृत्त जो (नः) हमारी (गिराम्) वाणी हैं, उनका (उपश्रुतिम्) श्रवण (चर) स्वीकार वा प्राप्त कीजिये॥३॥


भावार्थ - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को सब विद्या पढ़ने के पीछे उत्तम क्रियाओं की कुशलता में प्रवृत्त होना चाहिये। जैसे सूर्य्य का उत्तम प्रकाश संसार में वर्त्तमान है, वैसे ही ईश्वर के गुण और विद्या के प्रकाश का सब में उपयोग करना चाहिये॥३॥


एहि॒ स्तोमाँ॑ अ॒भिस्व॑रा॒भि गृ॑णी॒ह्या रु॑व। 

ब्रह्म॑ च नो वसो॒ सचेन्द्र॑ य॒ज्ञं च॑ वर्धय॥


विषय - मनुष्यों को परमेश्वर से क्या-क्या माँगना चाहिये, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-


पदार्थ -

हे (इन्द्र) स्तुति करने के योग्य परमेश्वर ! जैसे कोई सब विद्याओं से परिपूर्ण विद्वान् (स्तोमान्) आपकी स्तुतियों के अर्थों को (अभिस्वर) यथावत् स्वीकार करता कराता वा गाता है, वैसे ही (नः) हम लोगों को प्राप्त कीजिये। तथा हे (वसो) सब प्राणियों को वसाने वा उनमें वसनेवाले ! कृपा से इस प्रकार प्राप्त होके (नः) हम लोगों के (स्तोमान्) वेदस्तुति के अर्थों को (सचा) विज्ञान और उत्तम कर्मों का संयोग कराके (अभिस्वर) अच्छी प्रकार उपदेश कीजिये (ब्रह्म च) और वेदार्थ को (अभिगृणीहि) प्रकाशित कीजिये। (यज्ञं च) हमारे लिये होम ज्ञान और शिल्पविद्यारूप क्रियाओं को (वर्धय) नित्य बढ़ाइये॥४॥


भावार्थ - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जो पुरुष वेदविद्या वा सत्य के संयोग से परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना करते हैं, उनके हृदय में ईश्वर अन्तर्यामि रूप से वेदमन्त्रों के अर्थों को यथावत् प्रकाश करके निरन्तर उनके लिये सुख का प्रकाश करता है, इससे उन पुरुषों में विद्या और पुरुषार्थ कभी नष्ट नहीं होते॥४॥


उ॒क्थमिन्द्रा॑य॒ शंस्यं॒ वर्ध॑नं पुरुनि॒ष्षिधे॑। 

श॒क्रो यथा॑ सु॒तेषु॑ णो रा॒रण॑त्स॒ख्येषु॑ च॥


विषय - फिर भी ईश्वर किस प्रकार का है, इस विषय का अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-


पदार्थ -

(यथा) जैसे कोई मनुष्य अपने (सुतेषु) सन्तानों और (सख्येषु) मित्रों के उपकार करने को प्रवृत्त होके सुखी होता है, वैसे ही (शक्रः) सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर (पुरुनिष्षिधे) पुष्कल शास्त्रों को पढ़ने-पढ़ाने और धर्मयुक्त कामों में विचरनेवाले (इन्द्राय) सब के मित्र और ऐश्वर्य की इच्छा करनेवाले धार्मिक जीव के लिये (वर्धनम्) विद्या आदि गुणों के बढ़ानेवाले (शंस्यम्) प्रशंसा (च) और (उक्थम्) उपदेश करने योग्य वेदोक्त स्तोत्रों के अर्थों का (रारणत्) अच्छी प्रकार उपदेश करता है॥५॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। इस संसार में जो-जो शोभायुक्त रचना प्रशंसा और धन्यवाद हैं, वे सब परमेश्वर ही की अनन्त शक्ति का प्रकाश करते हैं, क्योंकि जैसे सिद्ध किये हुए पदार्थों में प्रशंसायुक्त रचना के अनेक गुण उन पदार्थों के रचनेवाले की ही प्रशंसा के हेतु हैं, वैसे ही परमेश्वर की प्रशंसा जनाने वा प्रार्थना के लिये हैं। इस कारण जो-जो पदार्थ हम ईश्वर से प्रार्थना के साथ चाहते हैं, सो-सो हमारे अत्यन्त पुरुषार्थ के द्वारा ही प्राप्त होने योग्य हैं, केवल प्रार्थनामात्र से नहीं॥५॥


तमित्स॑खि॒त्व ई॑महे॒ तं रा॒ये तं सु॒वीर्ये॑। 

स श॒क्र उ॒त नः॑ शक॒दिन्द्रो॒ वसु॒ दय॑मानः॥


विषय - किस-किस पदार्थ की प्राप्ति के लिये ईश्वर की प्रार्थना करनी चाहिये, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-


पदार्थ -

जो (नः) हमारे लिये (दयमानः) सुखपूर्वक रमण करने योग्य विद्या, आरोग्यता और सुवर्णादि धन का देनेवाला, विद्यादि गुणों का प्रकाशक और निरन्तर रक्षक तथा दुःख दोष वा शत्रुओं के विनाश और अपने धार्मिक सज्जन भक्तों के ग्रहण करने (शक्रः) अनन्त सामर्थ्ययुक्त (इन्द्रः) दुःखों का विनाश करनेवाला जगदीश्वर है, वही (वसु) विद्या और चक्रवर्त्ति राज्यादि परमधन देने को (शकत्) समर्थ है, (तमित्) उसी को हम लोग (उत) वेदादि शास्त्र सब विद्वान् प्रत्यक्षादि प्रमाण और अपने भी निश्चय से (सखित्वे) मित्रों और अच्छे कर्मों के होने के निमित्त (तम्) उसको (राये) पूर्वोक्त विद्यादि धन के अर्थ और (तम्) उसी को (सुवीर्य्ये) श्रेष्ठ गुणों से युक्त उत्तम पराक्रम की प्राप्ति के लिये (ईमहे) याचते हैं ॥६॥


भावार्थ - सब मनुष्यों को उचित है कि सब सुख और शुभगुणों की प्राप्ति के लिये परमेश्वर ही की प्रार्थना करें, क्योंकि वह अद्वितीय सर्वमित्र परमैश्वर्य्यवाला अनन्त शक्तिमान् ही उक्त पदार्थों के देने में सामर्थ्यवाला है ॥६॥


सु॒वि॒वृतं॑ सुनि॒रज॒मिन्द्र॒ त्वादा॑त॒मिद्यशः॑। 

गवा॒मप॑ व्र॒जं वृ॑धि कृणु॒ष्व राधो॑ अद्रिवः॥


विषय - अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से ईश्वर और सूर्य्यलोक का प्रकाश किया है-


पदार्थ -

जैसे यह (अद्रिवः) उत्तम प्रकाशादि धनवाला (इन्द्रः) सूर्य्यलोक (सुनिरजम्) सुख से प्राप्त होने योग्य (त्वादातम्) उसी से सिद्ध होनेवाले (यशः) जल को (सुविवृतम्) अच्छी प्रकार विस्तार को प्राप्त (गवाम्) किरणों के (वज्रम्) समूह को संसार में प्रकाश होने के लिये (अपवृधि) फैलाता तथा (राधः) धन को प्रकाशित (कृणुष्व) करता है, वैसे हे (अद्रिवः) प्रशंसा करने योग्य (इन्द्र) महायशस्वी सब पदार्थों के यथायोग्य बाँटनेवाले परमेश्वर ! आप हम लोगों के लिये (गवाम्) अपने विषय को प्राप्त होनेवाली मन आदि इन्द्रियों के ज्ञान और उत्तम-उत्तम सुख देनेवाले पशुओं के (व्रजम्) समूह को (अपावृधि) प्राप्त करके उनके सुख के दरवाजे को खोल तथा (सुविवृतम्) देश-देशान्तर में प्रसिद्ध और (सुनिरजम्) सुख से करने और व्यवहारों में यथायोग्य प्रतीत होने के योग्य (यशः) कीर्ति को बढ़ानेवाले अत्युत्तम (त्वादातम्) आपके ज्ञान से शुद्ध किया हुआ (राधः) जिससे कि अनेक सुख सिद्ध हों, ऐसे विद्या सुवर्णादि धन को हमारे लिये (कृणुश्व) कृपा करके प्राप्त कीजिये॥७॥


भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेष और लुप्तोपमालङ्कार हैं। हे परमेश्वर ! जैसे आपने सूर्य्यादि जगत् को उत्पन्न करके अपना यश और संसार का सुख प्रसिद्ध किया है, वैसे ही आप की कृपा से हम लोग भी अपने मन आदि इन्द्रियों को शुद्धि के साथ विद्या और धर्म के प्रकाश से युक्त तथा सुखपूर्वक सिद्ध और अपनी कीर्ति, विद्याधन और चक्रवर्त्ति राज्य का प्रकाश करके सब मनुष्यों को निरन्तर आनन्दित और कीर्तिमान् करें॥७॥


न॒हि त्वा॒ रोद॑सी उ॒भे ऋ॑घा॒यमा॑ण॒मिन्व॑तः। 

जेषः॒ स्व॑र्वतीर॒पः सं गा अ॒स्मभ्यं॑ धूनुहि॥


विषय - फिर अगले मन्त्र में ईश्वर का प्रकाश किया है-


पदार्थ -

हे परमेश्वर ! ये (उभे) दोनों (रोदसी) सूर्य्य और पृथिवी जिस (ऋघायमाणम्) पूजा करने योग्य आपको (नहि) नहीं (इन्वतः) व्याप्त हो सकते, सो आप हम लोगों के लिये (स्वर्वतीः) जिनसे हमको अत्यन्त सुख मिले, ऐसे (अपः) कर्मों को (जेषः) विजयपूर्वक प्राप्त करने के लिये हमारे (गाः) इन्द्रियों को (संधूनुहि) अच्छी प्रकार पूर्वोक्त कार्य्यों में संयुक्त कीजिये॥८॥


भावार्थ - जब कोई पूछे कि ईश्वर कितना बड़ा है, तो उत्तर यह है कि जिसको सब आकाश आदि बड़े-बड़े पदार्थ भी घेर में नहीं ला सकते, क्योंकि वह अनन्त है। इससे सब मनुष्यों को उचित है कि उसी परमात्मा का सेवन उत्तम-उत्तम कर्म करने और श्रेष्ठ पदार्थों की प्राप्ति के लिये उसी की प्रार्थना करते रहें। जब जिसके गुण और कर्मों की गणना कोई नहीं कर सकता, तो कोई उसके अन्त पाने को समर्थ कैसे हो सकता है?॥८॥


आश्रु॑त्कर्ण श्रु॒धी हवं॒ नूचि॑द्दधिष्व मे॒ गिरः॑। 

इन्द्र॒ स्तोम॑मि॒मं मम॑ कृ॒ष्वा यु॒जश्चि॒दन्त॑रम्॥


विषय - फिर भी परमेश्वर का निरूपण अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

(आश्रुत्कर्ण) हे निरन्तर श्रवणशक्तिरूप कर्णवाले (इन्द्र) सर्वान्तर्यामि परमेश्वर ! (चित्) जैसे प्रीति बढ़ानेवाले मित्र अपनी (युजः) सत्यविद्या और उत्तम-उत्तम गुणों में युक्त होनेवाले मित्र की (गिरः) वाणियों को प्रीति के साथ सुनता है, वैसे ही आप (नु) शीघ्र ही (मे) मेरी (गिरः) स्तुति तथा (हवम्) ग्रहण करने योग्य सत्य वचनों को (श्रुधि) सुनिये। तथा (मम) अर्थात् मेरी (स्तोमम्) स्तुतियों के समूह को (अन्तरम्) अपने ज्ञान के बीच (दधिष्व) धारण करके (युजः) अर्थात् पूर्वोक्त कामों में उक्त प्रकार से युक्त हुए हम लोगों को (अन्तरम्) भीतर की शुद्धि को (कृष्व) कीजिये॥९॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि जो सर्वज्ञ जीवों के किये हुए वाणी के व्यवहारों का यथावत् श्रवण करनेहारा सर्वाधार अन्तर्यामी जीव और अन्तःकरण का यथावत् शुद्धि हेतु तथा सब का मित्र ईश्वर है, वही एक जानने वा प्रार्थना करने योग्य है॥९॥


वि॒द्मा हि त्वा॒ वृष॑न्तमं॒ वाजे॑षु हवन॒श्रुत॑म्। 

वृष॑न्तमस्य हूमह ऊ॒तिं स॑हस्र॒सात॑माम्॥


विषय - फिर भी मनुष्य लोग परमेश्वर को कैसा जानें, इस विषय का अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-


पदार्थ -

हे परमेश्वर ! हम लोग (वाजेषु) संग्रामों में (हवनश्रुतम्) प्रार्थना को सुनने योग्य और (वृषन्तमम्) अभीष्ट कामों के अच्छी प्रकार देने और जाननेवाले (त्वा) आपको (विद्म) जानते हैं, (हि) जिस कारण हम लोग (वृषन्तमस्य) अतिशय करके श्रेष्ठ कामों को मेघ के समान वर्षानेवाले (तव) आपकी (सहस्रसातमाम्) अच्छी प्रकार अनेक सुखों की देनेवाली जो (ऊतिम्) रक्षाप्राप्ति और विज्ञान हैं, उनको (हूमहे) अधिक से अधिक मानते हैं॥१०॥


भावार्थ - मनुष्यों को सब कामों की सिद्धि देने और युद्ध में शत्रुओं के विजय के हेतु परमेश्वर ही देनेवाला है, जिसने इस संसार में सब प्राणियों के सुख के लिये असंख्यात पदार्थ उत्पन्न वा रक्षित किये हैं, तथा उस परमेश्वर वा उस की आज्ञा का आश्रय करके सर्वथा उपाय के साथ अपना वा सब मनुष्यों का सब प्रकार से सुख सिद्ध करना चाहिये॥१०॥


आ तू न॑ इन्द्र कौशिक मन्दसा॒नः सु॒तं पि॑ब। 

नव्य॒मायुः॒ प्र सू ति॑र कृ॒धी स॑हस्र॒सामृषि॑म्॥


विषय - फिर परमेश्वर कैसा और मनुष्यों के लिये क्या करता है, इस विषय को अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-


पदार्थ -

हे (कौशिक) सब विद्याओं के उपदेशक और उनके अर्थों के निरन्तर प्रकाश करनेवाले (इन्द्र) सर्वानन्दस्वरूप परमेश्वर ! (मन्दसानः) आप उत्तम-उत्तम स्तुतियों को प्राप्त हुए और सब को यथायोग्य जानते हुए (नः) हम लोगों के (सुतम्) यत्न से उत्पन्न किये हुए सोमादि रस वा प्रिय शब्दों से की हुई स्तुतियों का (आ) अच्छी प्रकार (पिब) पान कराइये (तु) और कृपा करके हमारे लिये (नव्यम्) नवीन (आयुः) अर्थात् निरन्तर जीवन को (प्रसूतिर) दीजिये, तथा (नः) हम लोगों में (सहस्रसाम्) अनेक विद्याओं के प्रकट करनेवाले (ऋषिम्) वेदवक्ता पुरुष को भी (कृधि) कीजिये॥११॥


भावार्थ - जो मनुष्य अपने प्रेम से विद्या का उपदेश करनेवाला होकर अर्थात् जीवों के लिये सब विद्याओं का प्रकाश सर्वदा शुद्ध परमेश्वर की स्तुति के साथ आश्रय करते हैं, वे सुख और विद्यायुक्त पूर्ण आयु तथा ऋषि भाव को प्राप्त होकर सब विद्या चाहनेवाले मनुष्यों को प्रेम के साथ उत्तम-उत्तम विद्या से विद्वान् करते हैं॥११॥


परि॑ त्वा गिर्वणो॒ गिर॑ इ॒मा भ॑वन्तु वि॒श्वतः॑। 

वृ॒द्धायु॒मनु॒ वृद्ध॑यो॒ जुष्टा॑ भवन्तु॒ जुष्ट॑यः॥


विषय - उक्त सब स्तुति ईश्वर ही के गुणों का कीर्त्तन करती हैं, इस विषय का अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-


पदार्थ -

हे (गिर्वणः) वेदों तथा विद्वानों की वाणियों से स्तुति को प्राप्त होने योग्य परमेश्वर ! (विश्वतः) इस संसार में (इमाः) जो वेदोक्त वा विद्वान् पुरुषों की कही हुई (गिरः) स्तुति हैं, वे (परि) सब प्रकार से सब की स्तुतियों से सेवन करने योग्य जो आप हैं, उनको (भवन्तु) प्रकाश करनेहारी हों, और इसी प्रकार (वृद्धयः) वृद्धि को प्राप्त होने योग्य (जुष्टाः) प्रीति को देनेवाली स्तुतियाँ (जुष्टयः) जिनसे सेवन करते हैं, वे (वृद्धायुम्) जो कि निरन्तर सब कार्य्यों में अपनी उन्नति को आप ही बढ़ानेवाले आप का (अनुभवन्तु) अनुभव करें॥१२॥


भावार्थ - हे भगवन् परमेश्वर ! जो-जो अत्युत्तम प्रशंसा है, सो-सो आपकी ही है, तथा जो-जो सुख और आनन्द की वृद्धि होती है, सो-सो आप ही का सेवन करके विशेष वृद्धि को प्राप्त होती है। इस कारण जो मनुष्य ईश्वर तथा सृष्टि के गुणों का अनुभव करते हैं, वे ही प्रसन्न और विद्या की वृद्धि को प्राप्त होकर संसार में पूज्य होते हैं॥१२॥इस मन्त्र में सायणाचार्य्य ने परिभवन्तु इस पद का अर्थ यह किया है कि- सब जगह से प्राप्त हों, यह व्याकरण आदि शास्त्रों से अशुद्ध है, क्योंकि परौ भुवोऽवज्ञाने व्याकरण के इस सूत्र से परिपूर्वक भू धातु का अर्थ तिरस्कार अर्थात् अपमान करना होता है। आर्य्यावर्त्तवासी सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपखण्ड देशवासी साहबों ने इस दशवें सूक्त के अर्थ का अनर्थ किया है। जो लोग क्रम से विद्या आदि शुभगुणों को ग्रहण और ईश्वर की प्रार्थना करके अपने उत्तम पुरुषार्थ का आश्रय लेकर परमेश्वर की प्रशंसा और धन्यवाद करते हैं, वे ही अविद्या आदि दुष्टों गुणों की निवृत्ति से शत्रुओं को जीत कर तथा अधिक अवस्थावाले और विद्वान् होकर सब मनुष्यों को सुख उत्पन्न करके सदा आनन्द में रहते हैं। इस अर्थ से इस दशम सूक्त की सङ्गति नवम सूक्त के साथ जाननी चाहिये॥

ऋग्वेद मंडल 1. सूक्त (09)

ऋग्वेद मंडल 01 सूक्त (11)

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