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ऋग्वेद मंडल 01 सूक्त (011)

 ऋषि: - जेता माधुच्छ्न्दसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


इन्द्रं॒ विश्वा॑ अवीवृधन्त्समु॒द्रव्य॑चसं॒ गिरः॑। 

र॒थीत॑मं र॒थीनां॒ वाजा॑नां॒ सत्प॑तिं॒ पति॑म्॥


विषय - अब ग्यारहवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। तथा पहले मन्त्र में इन्द्र शब्द से ईश्वर वा विजय करनेवाले पुरुष का उपदेश किया है-


पदार्थ -

हमारी ये (विश्वाः) सब (गिरः) स्तुतियाँ (समुद्रव्यचसम्) जो आकाश में अपनी व्यापकता से परिपूर्ण ईश्वर, वा जो नौका आदि पूरण सामग्री से शत्रुओं को जीतनेवाले मनुष्य (रथीनाम्) जो बड़े-बड़े युद्धों में विजय कराने वा करनेवाले (रथीतमम्) जिसमें पृथिवी आदि रथ अर्थात् सब क्रीड़ाओं के साधन, तथा जिसके युद्ध के साधन बड़े-बड़े रथ हैं, (वाजानाम्) अच्छी प्रकार जिनमें जय और पराजय प्राप्त होते हैं, उनके बीच (सत्पतिम्) जो विनाशरहित प्रकृति आदि द्रव्यों का पालन करनेवाला ईश्वर, वा सत्पुरुषों की रक्षा करनेहारा मनुष्य (पतिम्) जो चराचर जगत् और प्रजा के स्वामी, वा सज्जनों की रक्षा करनेवाले और (इन्द्रम्) विजय के देनेवाले परमेश्वर के, वा शत्रुओं को जीतनेवाले धर्मात्मा मनुष्य के (अवीवृधन्) गुणानुवादों को नित्य बढ़ाती रहें॥१॥


भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। सब वेदवाणी परमैश्वयर्युक्त, सब में रहने, सब जगह रमण करने, सत्य स्वभाव, तथा धर्मात्मा सज्जनों को विजय देनेवाले परमेश्वर और धर्म वा बल से दुष्ट मनुष्यों को जीतने तथा धर्मात्मा वा सज्जन पुरुषों की रक्षा करनेवाले मनुष्य का प्रकाश करती हैं। इस प्रकार परमेश्वर वेदवाणी से सब मनुष्यों को आज्ञा देता है॥१॥


ऋषि: - जेता माधुच्छ्न्दसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


स॒ख्ये त॑ इन्द्र वा॒जिनो॒ मा भे॑म शवसस्पते। 

त्वाम॒भि प्रणो॑नुमो॒ जेता॑र॒मप॑राजितम्॥


विषय - फिर भी अगले मन्त्र में इन्हीं दोनों का प्रकाश किया है-


पदार्थ -

हे (शवसः) अनन्तबल वा सेनाबल के (पते) पालन करनेहारे ईश्वर वा अध्यक्ष ! (अभिजेतारम्) प्रत्यक्ष शत्रुओं को जिताने वा जीतनेवाले (अपराजितम्) जिसका पराजय कोई भी न कर सके (त्वा) उस आप को (वाजिनः) उत्तम विद्या वा बल से अपने शरीर के उत्तम बल वा समुदाय को जानते हुए हम लोग (प्रणोनुमः) अच्छी प्रकार आप की वार-वार स्तुति करते हैं, जिससे (इन्द्र) हे सब प्रजा वा सेना के स्वामी ! (ते) आप जगदीश्वर वा सभाध्यक्ष के साथ (सख्ये) हम लोग मित्रभाव करके शत्रुओं वा दुष्टों से कभी (मा भेम) भय न करें॥२॥


भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जो मनुष्य परमेश्वर की आज्ञा के पालने वा अपने धर्मानुष्ठान से परमात्मा तथा शूरवीर आदि मनुष्यों में मित्रभाव अर्थात् प्रीति रखते हैं, वे बलवाले होकर किसी मनुष्य से पराजय वा भय को प्राप्त कभी नहीं होते॥२॥


ऋषि: - जेता माधुच्छ्न्दसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


पू॒र्वीरिन्द्र॑स्य रा॒तयो॒ न वि द॑स्यन्त्यू॒तयः॑। 

यदी॒ वाज॑स्य॒ गोम॑तः स्तो॒तृभ्यो॒ मंह॑ते म॒घम्॥


विषय - फिर भी अगले मन्त्र में इन्हीं दोनों का उपदेश किया है-


पदार्थ -

(यदि) जो परमेश्वर वा सभा और सेना का स्वामी (स्तोतृभ्यः) जो जगदीश्वर वा सृष्टि के गुणों की स्तुति करनेवाले धर्मात्मा विद्वान् मनुष्य हैं, उनके लिये (वाजस्य) जिसमें सब सुख प्राप्त होते हैं, उस व्यवहार, तथा (गोमतः) जिसमें उत्तम पृथिवी, गौ आदि पशु और वाणी आदि इन्द्रियाँ वर्त्तमान हैं, उसके सम्बन्धी (मघम्) विद्या और सुवर्णादि धन को (मंहते) देता है, तो इस (इन्द्रस्य) परमेश्वर तथा सभा सेना के स्वामी की (पूर्व्यः) सनातन प्राचीन (रातयः) दानशक्ति तथा (ऊतयः) रक्षा हैं, वे कभी (न) नहीं (विदस्यन्ति) नाश को प्राप्त होतीं, किन्तु नित्य प्रति वृद्धि ही को प्राप्त होती रहती हैं॥३॥


भावार्थ - इस मन्त्र में भी श्लेषालङ्कार है। जैसे ईश्वर वा राजा की इस संसार में दान और रक्षा निश्चल न्याययुक्त होती हैं, वैसे अन्य मनुष्यों को भी प्रजा के बीच में विद्या और निर्भयता का निरन्तर विस्तार करना चाहिये। जो ईश्वर न होता तो यह जगत् कैसे उत्पन्न होता? तथा जो ईश्वर सब पदार्थों को उत्पन्न करके सब मनुष्यों के लिये नहीं देता तो मनुष्य लोग कैसे जी सकते? इससे सब कार्य्यों का उत्पन्न करने और सब सुखों का देनेवाला ईश्वर ही है, अन्य कोई नहीं, यह बात सब को माननी चाहिये॥३॥


ऋषि: - जेता माधुच्छ्न्दसः देवता - इन्द्र: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः 


पु॒रां भि॒न्दुर्युवा॑ क॒विरमि॑तौजा अजायत। 

इन्द्रो॒ विश्व॑स्य॒ कर्म॑णो ध॒र्ता व॒ज्री पु॑रुष्टु॒तः॥


विषय - फिर अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से सूर्य्य और सेनापति के गुणों का उपदेश किया है-


पदार्थ -

जो यह (अमितौजाः) अनन्त बल वा जलवाला (वज्री) जिसके सब पदार्थों को प्राप्त करानेवाले शस्त्रसमूह वा किरण हैं, और (पुराम्) मिले हुए शत्रुओं के नगरों वा पदार्थों का (भिन्दुः) अपने प्रताप वा ताप से नाश वा अलग-अलग करने (युवा) अपने गुणों से पदार्थों का मेल करने वा कराने तथा (कविः) राजनीति विद्या वा दृश्य पदार्थों का अपने किरणों से प्रकाश करनेवाला (पुरुष्टुतः) बहुत विद्वान् वा गुणों से स्तुति करने योग्य (इन्द्रः) सेनापति और सूर्य्यलोक (विश्वस्य) सब जगत् के (कर्मणः) कार्यों को (धर्त्ता) अपने बल और आकर्षण गुण से धारण करनेवाला (अजायत) उत्पन्न होता और हुआ है, वह सदा जगत् के व्यवहारों की सिद्धि का हेतु है॥४॥


भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे ईश्वर का रचा और धारण किया हुआ यह सूर्य्यलोक अपने वज्ररूपी किरणों से सब मूर्तिमान् पदार्थों को अलग-अलग करने तथा बहुत से गुणों का हेतु और अपने आकर्षणरूप गुण से पृथिवी आदि लोकों का धारण करनेवाला है, वैसे ही सेनापति को उचित है कि शत्रुओं के बल का छेदन साम, दाम और दण्ड से शत्रुओं को छिन्न-भिन्न करके बहुत उत्तम गुणों को ग्रहण करता हुआ भूमि में अपने राज्य का पालन करे॥४॥


ऋषि: - जेता माधुच्छ्न्दसः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगुष्णिक् स्वरः - ऋषभः


त्वं व॒लस्य॒ गोम॒तोऽपा॑वरद्रिवो॒ बिल॑म्। 

त्वां दे॒वा अबि॑भ्युषस्तु॒ज्यमा॑नास आविषुः॥


विषय - फिर भी अगले मन्त्र में सूर्य्य के गुणों का उपदेश किया है-


पदार्थ -

(अद्रिवः) जिसमें मेघ विद्यमान है, ऐसा जो सूर्य्यलोक है, वह (गोमतः) जिसमें अपने किरण विद्यमान हैं उस (अबिभ्युषः) भयरहित (बलस्य) मेघ के (बिलम्) जलसमूह को (अपावः) अलग-अलग कर देता है, (त्वाम्) इस सूर्य्य को (तुज्यमानासः) अपनी-अपनी कक्षाओं में भ्रमण करते हुए (देवाः) पृथिवी आदिलोक (आविषुः) विशेष करके प्राप्त होते हैं॥५॥


भावार्थ - जैसे सूर्य्यलोक अपनी किरणों से मेघ के कठिन-कठिन बद्दलों को छिन्न-भिन्न करके भूमि पर गिराता हुआ जल की वर्षा करता है, क्योंकि यह मेघ उसकी किरणों में ही स्थित रहता, तथा इसके चारों ओर आकर्षण अर्थात् खींचने के गुणों से पृथिवी आदि लोक अपनी-अपनी कक्षा में उत्तम-उत्तम नियम से घूमते हैं, इसी से समय के विभाग जो उत्तरायण, दक्षिणायन तथा ऋतु, मास, पक्ष, दिन, घड़ी, पल आदि हो जाते हैं, वैसे ही गुणवाला सेनापति होना उचित है॥५॥


ऋषि: - जेता माधुच्छ्न्दसः देवता - इन्द्र: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


तवा॒हं शू॑र रा॒तिभिः॒ प्रत्या॑यं॒ सिन्धु॑मा॒वद॑न्। 

उपा॑तिष्ठन्त गिर्वणो वि॒दुष्टे॒ तस्य॑ का॒रवः॑॥


विषय - अब अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से शूरवीर के गुणों का उपदेश किया है-


पदार्थ -

हे (शूर) धार्मिक घोर युद्ध से दुष्टों की निवृत्ति करने तथा विद्या बल पराक्रमवाले वीर पुरुष ! जो (तव) आपके निर्भयता आदि दानों से मैं (सिन्धुम्) समुद्र के समान गम्भीर वा सुख देनेवाले आपको (आवदन्) निरन्तर कहता हुआ (प्रत्यायम्) प्रतीत करके प्राप्त होऊँ। हे (गिर्वणः) मनुष्यों की स्तुतियों से सेवन करने योग्य ! जो (ते) आपके (तस्य) युद्ध राज्य वा शिल्पविद्या के सहायक (कारवः) कारीगर हैं, वे भी आप को शूरवीर (विदुः) जानते तथा (उपातिष्ठन्त) समीपस्थ होकर उत्तम काम करते हैं, वे सब दिन सुखी रहते हैं॥६॥


भावार्थ - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। ईश्वर सब मनुष्यों को आज्ञा देता है कि-जैसे मनुष्यों को धार्मिक शूर प्रशंसनीय सभाध्यक्ष वा सेनापति मनुष्यों के अभयदान से निर्भयता को प्राप्त होकर जैसे समुद्र के गुणों को जानते हैं, वैसे ही उक्त पुरुष के आश्रय से अच्छी प्रकार जानकर उनको प्रसिद्ध करना चाहिये तथा दुःखों के निवारण से सब सुखों के लिये परस्पर विचार भी करना चाहिये॥६॥


ऋषि: - जेता माधुच्छ्न्दसः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः 


मा॒याभि॑रिन्द्र मा॒यिनं॒ त्वं शुष्ण॒मवा॑तिरः। 

वि॒दुष्टे॒ तस्य॒ मेधि॑रा॒स्तेषां॒ श्रवां॒स्युत्ति॑र॥


विषय - फिर भी अगले मन्त्र में सूर्य्य के गुणों का उपदेश किया है-


पदार्थ -

हे परमैश्वर्य्य को प्राप्त कराने तथा शत्रुओं की निवृत्ति करनेवाले शूरवीर मनुष्य ! (त्वम्) तू उत्तम बुद्धि सेना तथा शरीर के बल से युक्त हो के (मायाभिः) विशेष बुद्धि के व्यवहारों से (शुष्णम्) जो धर्मात्मा सज्जनों का चित्त व्याकुल करने (मायिनम्) दुर्बुद्धि दुःख देनेवाला सब का शत्रु मनुष्य है, उसका (अवातिर) पराजय किया कर, (तस्य) उसके मारने में (मेधिराः) जो शस्त्रों को जानने तथा दुष्टों को मारने में अति निपुण मनुष्य हैं, वे (ते) तेरे संगम से सुखी और अन्नादि पदार्थों को प्राप्त हों, (तेषाम्) उन धर्मात्मा पुरुषों के सहाय से शत्रुओं के बलों को (उत्तिर) अच्छी प्रकार निवारण कर॥७॥


भावार्थ - बुद्धिमान् मनुष्यों को ईश्वर आज्ञा देता है कि-साम, दाम, दण्ड और भेद की युक्ति से दुष्ट और शत्रुजनों की निवृत्ति करके विद्या और चक्रवर्त्ति राज्य की यथावत् उन्नति करनी चाहिये। तथा जैसे इस संसार में कपटी, छली और दुष्ट पुरुष वृद्धि को प्राप्त न हों, वैसा उपाय निरन्तर करना चाहिये॥७॥


ऋषि: - जेता माधुच्छ्न्दसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः 


इन्द्र॒मीशा॑न॒मोज॑सा॒भि स्तोमा॑ अनूषत। 

स॒हस्रं॒ यस्य॑ रा॒तय॑ उ॒त वा॒ सन्ति॒ भूय॑सीः॥


विषय - अगले मन्त्र में ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है-


पदार्थ -

(यस्य) जिस जगदीश्वर के ये सब (स्तोमाः) स्तुतियों के समूह (सहस्रम्) हजारों (उत वा) अथवा (भूयसीः) अधिक (रातयः) दान (सन्ति) हैं, वे उस (ओजसा) अनन्त बल के साथ वर्त्तमान (ईशानम्) कारण से सब जगत् को रचनेवाले तथा (इन्द्रम्) सकल ऐश्वर्य्ययुक्त जगदीश्वर के (अभ्यनूषत) सब प्रकार से गुणकीर्त्तन करते हैं॥८॥


भावार्थ - जिस दयालु ईश्वर ने प्राणियों के सुख के लिये जगत् में अनेक उत्तम-उत्तम पदार्थ अपने पराक्रम से उत्पन्न करके जीवों को दिये हैं, उसी ब्रह्म के स्तुतिविधायक सब धन्यवाद होते हैं, इसलिये सब मनुष्यों को उसी का आश्रय लेना चाहिये॥८॥इस सू्क्त में इन्द्र शब्द से ईश्वर की स्तुति, निर्भयता-सम्पादन, सूर्य्यलोक के कार्य्य, शूरवीर के गुणों का वर्णन, दुष्ट शत्रुओं का निवारण, प्रजा की रक्षा तथा ईश्वर के अनन्त सामर्थ्य से कारण करके जगत् की उत्पत्ति आदि के विधान से इस ग्यारहवें सूक्त की सङ्गति दशवें सूक्त के अर्थ के साथ जाननी चाहिये। यह भी सूक्त सायणाचार्य्य आदि आर्य्यावर्त्तवासी तथा यूरोपदेशवासी विलसन साहब आदि ने विपरीत अर्थ के साथ वर्णन किया है॥



ऋग्वेद मंडल 01 सूक्त (10)

ऋग्वेद मंडल 01 सूक्त (12)


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