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यजुर्वेद अध्याय 14 हिन्दी भाष्य

 




यजुर्वेद अध्याय 14

 

 ऋषि: - उशना ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

 

ध्रु॒वक्षि॑तिर्ध्रु॒वयो॑निर्ध्रु॒वासि॑ ध्रु॒वं योनि॒मासी॑द साधु॒या।

उख्य॑स्य के॒तुं प्र॑थ॒मं जु॑षा॒णाऽ अ॒श्विना॑ऽध्व॒र्यू सा॑दयतामि॒ह त्वा॑॥१॥

 

     (ध्रुवक्षितिः) आत्मा में निश्चल वास करने वाला परमात्मा

(ध्रुवयोनिः) और उसके साथ निश्चल वास करने वाली आत्मा इस भौतिक शरीर में (ध्रुवा) स्वयं को जब परमात्मा में दृढ़धर्म्म से युक्त हो कर रहती (असि) है(ध्रुवम्) तो निश्चित ही (योनिम्) इस भौतिक शरीर में जो उसके घर के समान है (आसीद) वह लंबे काल तक स्थिर रहने में समर्थ होती है, (साधुया) जिसके लिए आत्मा श्रेष्ठ धर्म से युक्त कर के स्वयं को (उख्यस्य) किसी गन्ने के समान पका कर रस युक्त करती है, अपनी (केतुम्) बुद्धि को तपा कर अपनी साधना और तपस्या से (प्रथमम्) वह प्रथम विस्तारयुक्त उस परम ब्रह्म के साथ स्वयं को एकाकार करके (जुषाणा) अपने योग साधन के द्वारा स्वयं को ब्रह्म से जोड़ कर (अश्विना) सब विद्याओं में व्यापक अध्यापक और उपदेशक के समान ज्ञान और अज्ञान के मध्य में स्वयं स्थित करके वह (अध्वर्यू) अपने लिये रक्षणीय गृहाश्रम को समृद्ध करने के लिए परोपकार संयम मर्यादा सदाचार और पुरुषार्थ से (सादयताम्) स्वयं को इस संसार में अच्छी प्रकार स्थापित करने में समर्थ होती है और समृद्धि के साथ लौकिक और पारलौकिक ऐश्वर्य को उपलब्ध करती है(इह) इसी प्रकार से और दूसरे जन जो गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के इच्छुक हैं, उन्हें भी अपने जीवन को (त्वा) बनाने के लिए निरंतर परमात्मा से संयुक्त होना चाहिए।

       इस मंत्र में चार बार ध्रुव शब्द का उपयोग किया गया है, जिसका मतलब होता है कि मनुष्य चार प्रकार के होते हैं, प्रथम जिसको ब्राह्मण कहा जाता है वह आत्मा केन्द्रित होते हैं, दूसरे वह होते हैं, जो क्षत्रिय होते हैं वह बुद्धि केन्द्रित होते है, तीसरे मनुष्य जो व्यापारी किस्म के होते हैं वह मन के केन्द्र पर स्थित होते हैं, चौथा मानव जो सबसे निम्न कोटि का होता है वह शरीर के केन्द्र पर स्थित होता है, जिसे शूद्र नाम से संबोधित किया गया है, यह चार प्रकार की मानव की कोटियाँ है, इस मंत्र के माध्यम से यह उपदेश दिया जा रहा है, कि प्रत्येक मानव को ब्राह्मण बनाना चाहिए और ब्राह्मणत्व को प्राप्त करने के लिए आत्मा केन्द्रित स्वस्थित होकर स्वस्थ होना चाहिए। 

 

     ध्रुवक्षिति- जो कभी अपना स्थान कभी नहीं बदलता है, जो मानव अपने आत्मा के केन्द्र पर हमेशा उपस्थित रहता है, जो शरीर सभी प्राणियों के जीवन का मुख्य श्रोत घर है, जिसके बिना आत्मा का इस भौतिक जगत में रहना सर्वथा असंभव है, उस योनि स्वरूप घर में सुख पूर्वक रहने वाली आत्मा को ज्ञानी पुरुष स्वयं को जान कर स्वयं में स्थित हो जाता है, उसके लिए उसकी शरीर किसी साधारण मनुष्य की तरह नहीं यद्यपि वह शरीर उसकी सभी दैहिक, भौतिक और आध्यात्मिक खजाने का आदि श्रोत बन जाती है जिससे साधक साधारण मनुष्य ना हो कर वह असाधारण संसाधनों का स्वामी बन जाता है, जिस प्रकार से ऊख को पेर कर प्रथम उसके रस को प्राप्त करके मनुष्य परमानंद को प्राप्त करता है उसी प्रकार से इस शरीर को जब साधक योगी साधु साध लेता है तो वह इसमें विद्यमान अमृत को प्राप्त कर परमानंद को प्राप्त करता है, क्योंकि उसने अपने बुद्धि को पूर्ण रूप से विकसित कर लिया होता है, जिस प्रकार से सूर्य तो प्रत्येक क्षण विद्यमान रहता है लेकिन उसको आंख के अंधे नहीं देख पाते हैं, यह स्वयं को देखने की आँख भौतिक नहीं है यद्यपि वह सूक्ष्म है, जो यहां मंत्र में जो अश्विना पद आया है इसका भाव यहीं है कि जगत दो प्रकार का है एक शरीर के बाहर का जगत और एक शरीर के अंदर का जगत, जो साधक इस स्थूल और सूक्ष्म जगत का निरीक्षण करने में समर्थ होता है, वह स्वयं को इन दोनों के केन्द्र में स्वयं को स्थित कर देता है वह दोनों द्वेत से स्वयं को मुक्त कर लेता है, जिस प्रकार से संध्या करने के लिए ऐसे समय को चुना जाता है जो दिन और रात्रि  के मिलन बेला गोधूलि होती है, उसी प्रकार से साधक ना शरीर के केन्द्र पर होता है और ना ही वह मन के केन्द्र पर होता है। वह आत्मस्थ होता है, इसलिए मंत्र आगे कहता है की तुम सब भी इस प्रकार से स्वयं को साधो। अर्थात शरीर मन बुद्ध से अलग जो अचल केन्द्र जो ध्रुव के समान है, वहीं तुम्हारा वास्तविक स्थान हैं वहीं तुम हो तुम स्वयं में स्थित हो वही स्थित होने पर तुम्हारी सारी समस्या का समाधान होता है और तुम्हारी समाधि सिद्ध हो जाती है। 

 

    इस मंत्र में आत्म केन्द्रित होने की बात की जा रही है, और आत्म केन्द्रित होने के लिए साधना जरूरी है, जिसके लिए साधक या साधु होना पड़ता है, साधु का मतलब यह नहीं जो हमारे समाज में लोग साधु बन कर घूम रहें हैं, यहां पर साधु का मतलब है, जो स्वाध्यायशील योगारूढ़ है, जो ब्रह्मचर्य का पालन और सत्य शास्त्र वेदों का अध्ययन करता है, और अपने कर्तव्यों का उचित रिती से निर्वाह करता है, जिसका जीवन संयमित है, जिसके विचार मन बुद्धि सत्य को स्वीकारते हैं, और असत्य को अस्वीकार करने की शक्ति से युक्त हैं, जो किसी का अनुसरण नहीं करता हैं, जो स्वयं परीक्षण करके स्वयं को सत्य का साक्षात्कार करने में समर्थ करते हैं, और लोगों को सत्य का साक्षात्कार कराने सहयोग करते हैं।  

 

 

                                                                         मनोज पाण्डेय

महर्षि स्वामी दयानंद हिन्दी भाष्य        


    विषय - अब चौदहवें अध्याय का आरम्भ है, इस के पहिले मन्त्र में स्त्रियों के लिये उपदेश किया है॥

 

पदार्थ -

    हे स्त्रि! जो तू (साधुया) श्रेष्ठ धर्म के साथ (उख्यस्य) बटलोई में पकाये अन्न की सम्बन्धी और (प्रथमम्) विस्तारयुक्त (केतुम्) बुद्धि को (जुषाणा) प्रीति से सेवन करती हुई (ध्रुवक्षितिः) निश्चल वास करने और (ध्रुवयोनिः) निश्चल घर में रहने वाली (ध्रुवा) दृढ़धर्म्म से युक्त (असि) है, सो तू (ध्रुवम्) निश्चल (योनिम्) घर में (आसीद) स्थिर हो (त्वा) तुझको (इह) इस गृहाश्रम में (अध्वर्यू) अपने लिये रक्षणीय गृहाश्रम आदि यज्ञ के चाहने हारे (अश्विना) सब विद्याओं में व्यापक अध्यापक और उपदेशक (सादयताम्) अच्छे प्रकार स्थापित करें॥१॥

 

      भावार्थ - विदुषी पढ़ाने और उपदेश करने हारी स्त्रियों को योग्य है कि 

कुमारी कन्याओं को ब्रह्मचर्य अवस्था में गृहाश्रम और धर्म्मशिक्षा दे के इनको 

श्रेष्ठ करें॥१॥

 

ऋषि: - उशना ऋषिःदेवता - अश्विनौ देवतेछन्दः - निचृद्ब्राह्मी बृहतीस्वरः - मध्यमः

 

कु॒ला॒यिनी॑ घृ॒तव॑ती॒ पुर॑न्धिः स्यो॒ने सी॑द॒ सद॑ने पृथि॒व्याः।

अ॒भि त्वा॑ रु॒द्रा वस॑वो गृणन्त्वि॒मा ब्रह्म॑ पीपिहि॒ सौभ॑गाया॒श्विना॑ध्व॒र्यू सा॑दयतामि॒ह त्वा॑॥२॥

 

विषय - फिर पूर्वोक्त विषय का अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥

 

      जैसा कि इस अध्याय के प्रथम मंत्र में आत्म केन्द्रित होने की बात का उपदेश किया है, उसी विषय को आगे बढ़ाते हुए अगले मंत्र में उपदेश किया है, कि कुलायिनी जिसका मतलब है, का आत्मा का कुल आत्मा का खानदान आत्मा के द्वारा जिससे आत्मा का सृजन होता है, अर्थात आत्मा का तो कभी जन्म नहीं होता है, यहां आत्मा को एक वृक्ष मान सकते हैं, जो बहुत विशाल है, जिसमें बहुत सी टहनियां शाखा और पत्ते फल फूल है, वह सब आत्मा के ही परिवार के समान हैं, इस आत्मा का जो बृहत रूप है वह परमात्मा है, जिस प्रकार से सागर की प्रत्येक बूंद मिल कर एक सागर को बनाती है उसी प्रकार से यहां पर सभी जगत की चल अचल आत्मा मिल कर एक ब्रह्मांडीय आत्मा बनती है जिसे हम सब ईश्वर के नाम से जानते हैं, यहां पर कुलायिनी कहने का मतलब सिर्फ इतना है, कि हम सब उस ईश्वर के ही अंश हैं, या फिर हम सब उसके परीवार के ही सदस्य हैं, वहीं हम सब का माता पिता है, यह संबंध वीर्य का संबंध नहीं हैं, यद्यपि ज्ञान का संबंध हैं, हम सब ईश्वर के ज्ञान से स्वयं को संयुक्त करने का सामर्थ्य रखते हैं। दूसरा शब्द मंत्र का कहता है वह कैसा है, इसके लिए वह उपमा या उदाहरण से समझाते हैं कि जिस प्रकार से घृत होता है, हम सब इतना तो जानते ही है कि दूध जो एक साधारण उत्पाद है, इसको जमाने के बाद दही बनती है, और दही को मथने के बाद इसमें से दो तत्व निकलते हैं एक तो छाछ (मट्ठा) होता है और एक नयन (वटर) जिसको तपाने के बाद घृत बनता है।

 

     इसी प्रकार से यह शरीर दूध के समान है, जिसमें मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार हैं, इनको को साधने से या मंथन चिंतन करने से या इसको तपाने तपस्या करने से इसमें एक परम शक्तिशाली तत्व का साक्षात्कार होता है जिसको आत्मा कहते हैं, यह घृत के समान है, जो पुरन्धि हैं, अर्थात यह पुरी रूप शरीर को धारण करने वाली है, जो स्योने अर्थात परम सुख का साधन है, जैसा की कहा गया है कि शरीर माद्य कलु धर्म साधनम्, अर्थात शरीर अधर्म अज्ञान से मुक्त होने का अर्थात ज्ञान को प्राप्त करने के लिए परम साधन है। अगला शब्द मंत्र का है सदने जिसका मतलब है, यह शरीर आत्मा के घर के समान है, जिसमें आत्मा निवास करती है, यह पृथ्वी के सामान है, क्योंकि जिस प्रकार से किसी भी वीज को उत्पन्न होने के लिए पृथ्वी की जरूरत पड़ती है, उसी प्रकार से आत्मा रूपी बीज जो हमारे शरीर में हैं, या हम सब स्वयं बीज रूप से विद्यमान हैं, उसको पूर्णरूप से विकसित होने के लिए इस शरीर का पूर्णतः विकसित होना परमावश्यक है, क्योंकि जब हमारा ध्यान इस पर और इसके पूर्ण क्रिया कलापों पर होता है तो हम इसको पूर्णतः पहचानने में समर्थ होते है, ऐसा नहीं होने पर हम शरीर को  पूर्णतः पहचान नहीं पाते हैं, जिसके कारण इसका पूर्णतः प्रयोग भी नहीं कर पाते हैं जिसके कारण हम सब के लिए यह शरीर ही, हमें अर्थात हम सब आत्माओं को रूलाने हमारे दुःख का कारण बन जाती है। यद्यपि इसको वह मनुष्य पहचान जाते हैं, जो उच्च कोटि के प्रथम विद्वान होते हैं, इस लिए वह अपने सहायता के लिए वह ब्रह्म का आश्रय लेते हैं, और उसकी स्तुति उपासना और प्रशंसा करते हैं,  गृणन्त्विमा का मतलब यहीं है, वह मनुष्य जो विद्वान होते हैं, वह अपना संबंध अपनी जड़ से जोड़ लेते हैं, योग के माध्यम से जो योगी होते हैं, और योगारुढ़ होते हैं, वही अच्छी प्रकार से उस ब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं, और जब वह इस ब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं, अर्थात जब उनको ब्रह्म का ज्ञान हो जाता है तो वह सौभाग्यवान होते हैं, अर्थात वह हर प्रकार की शारीरिक मानसिक और आत्मिक शांति ऐश्वर्य के साथ लौकिक और पारलौकिक संपत्ति को उपलब्ध करने में समर्थ होते हैं, क्योंकि इस मंत्र में जो अश्विना है इसका भाव यहीं है की यहां पर लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के ऐश्वर्य को उपलब्ध होने की बात का समर्थन मंत्र करता है। अगला शब्द मंत्र का अध्वर्यु हैं जिसका मतलब है, कि वह अपने द्वारा उपलब्ध लौकिक और पारलौकिक संपदा समृद्धि को जो ब्रह्मज्ञान के माध्यम से उन्हें प्राप्त होती है, वह उसके संरक्षण के लिए गृहस्थ जीवन को इसके उत्पादन के लिए प्रेरित करते हैं, कि वह भी इस अमूल्य धरोहर को अपने जीवन में प्राप्त करने और उसको स्थापित करने के लिए निरंतर उद्योग करें। जैसा कि मैंने किया है वैसा तुम सब भी करो।  

 

मनोज पाण्डेय

 

अगला भाष्य महर्षि स्वामी दयानंद जी का है।          

 

पदार्थ -

 


    हे (स्योने) सुख करने हारी! जिस (त्वा) तुझ को (वसवः) प्रथम कोटि के 

विद्वान् और (रुद्राः) मध्य कक्षा के विद्वान् (इमा) इन (ब्रह्म) विद्याधनों के देने वाले गृहस्थों की (अभि) अभिमुख होकर (गृणन्तु) प्रशंसा करें, सो तू (सौभगाय) सुन्दर संपत्ति होने के लिये इन विद्याधन को (पीपिहि) अच्छे प्रकार प्राप्त हो, (घृतवती) बहुत जल और (पुरन्धिः) बहुत सुख धारण करनेवाली (कुलायिनी) प्रशंसित कुल की प्राप्ति से युक्त हुई (पृथिव्याः) अपनी भूमि के (सदने) घर में (सीद) स्थित हो, (अध्वर्यू) अपने लिये रक्षणीय गृहाश्रम आदि यज्ञ चाहने वाले (अश्विना) सब विद्याओं में व्यापक और उपदेशक पुरुष (त्वा) तुझको (इह) इस गृहाश्रम में (सादयताम्) स्थापित करें॥२॥

 

भावार्थ - स्त्रियों को योग्य है कि साङ्गोपाङ्ग पूर्ण विद्या और धन ऐश्वर्य का सुख भोगने के लिये अपने सदृश पतियों से विवाह करके विद्या और सुवर्ण आदि धन को पाके सब ऋतुओं में सुख देने हारे घरों में निवास करें तथा विद्वानों का संग और शास्त्रों का अभ्यास निरन्तर किया करें॥२॥


स्वैर्दक्षै॒र्दक्ष॑पिते॒ह सी॑द दे॒वाना॑सु॒म्ने बृ॑ह॒ते रणा॑य। पि॒तेवै॑धि सू॒नव॒ऽआ सु॒शेवा॑ स्वावे॒शा त॒न्वा संवि॑शस्वा॒श्विना॑ध्व॒र्यू सा॑दयतामि॒ह त्वा॑॥३॥


     यजुर्वेद के 14 अध्याय के प्रथम मंत्र में आत्मा शरीर की शिक्षा से दी गई है, दूसरे मंत्र में भी शरीर और आत्मा को विकसित करने की बात कही गई है, अब तीसरे मंत्र में का प्रारंभ ही स्वयं अनुशासन से कर रहे हैं, स्वयं के मन पर जिसका पूर्ण अधिकार होता है, वह देवता के समान अर्थात दिव्य आत्मा के गुणों को धारण करने वाला महा मानव बहुत अच्छी तरह से जीवन के रण में जीवन के संग्राम में स्वयं को विजय दिलाने वाला होता है, और वह अपने पुरखों के द्वारा प्रदत्त अधिकार का सदुपयोग करते हुए,    

विषय - फिर भी पूर्वोक्त विषय को ही अगले मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे स्त्रि! तू जैसे (स्वैः) अपने (दक्षैः) बलों और चतुर भृत्यों के साथ वर्तता हुआ (देवानाम्) धर्म्मात्मा विद्वानों के मध्य में वर्त्तमान (बृहते) बड़े (रणाय) संग्राम के लिये (सुम्ने) सुख के विषय (दक्षपिता) बलों वा चतुर भृत्यों का पालन करने हारा होके विजय से बढ़ता है, वैसे (इह) इस लोक के मध्य में (एधि) बढ़ती रह। (सुम्ने) सुख में (आसीद) स्थिर हो और (पितेव) जैसे पिता (सूनवे) अपने पुत्र के लिये सुन्दर सुख देता है, वैसे (सुशेवा) सुन्दर सुख से युक्त (स्वावेशा) अच्छी प्रीति से सुन्दर, शुद्ध शरीर, वस्त्र, अलंकार को धारण करती हुई अपने पति के साथ प्रवेश करने हारी होके (तन्वा) शरीर के साथ (संविशस्व) प्रवेश कर और (अध्वर्यू) गृहाश्रमादि यज्ञ की अपने लिये इच्छा करने वाले (अश्विना) पढ़ाने और उपदेश करने हारे जन (त्वा) तुझ को (इह) इस गृहाश्रम में (सादयताम्) स्थित करें॥३॥

 

भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। स्त्रियों को चाहिये कि युद्ध में भी अपने पतियों के साथ स्थित रहें। अपने नौकर, पुत्र और पशु आदि की पिता के समान रक्षा करें और नित्य ही वस्त्र और आभूषणों से अपने शरीरों को संयुक्त करके वर्त्तें। विद्वान् लोग भी इन को सदा उपदेश करें और स्त्री भी इन विद्वानों के लिये सदा उपदेश करें॥३॥


     पृ॒थि॒व्याः पुरी॑षम॒स्यप्सो॒ नाम॒ तां त्वा॒ विश्वे॑ऽअ॒भिगृ॑णन्तु दे॒वाः। स्तोम॑पृष्ठा घृ॒तव॑ती॒ह सी॑द प्र॒जाव॑द॒स्मे द्रवि॒णाय॑जस्वा॒श्विना॑ध्व॒र्यू सा॑दयतामि॒ह त्वा॑॥४॥


विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे स्त्रि! जो (स्तोमपृष्ठा) स्तुतियों को जानने की इच्छायुक्त तू (इह) इस गृहाश्रम में (पृथिव्याः) पृथिवी की (पुरीषम्) रक्षा (अप्सः) सुन्दररूप और (नाम) नाम और (घृतवती) बहुत घी आदि प्रशंसित पदार्थों से युक्त (असि) है, (ताम्) उस (त्वा) तुझको (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (अभिगृणन्तु) सत्कार करें, (इह) इसी गृहाश्रम में (सीद) वर्त्तमान रह और जिस (त्वा) तुझ को (अध्वर्यू) अपने लिये रक्षणीय गृहाश्रमादि यज्ञ चाहने वाले (अश्विना) व्यापक बुद्धि बढ़ाने और उपदेश करने हारे (इह) इस गृहाश्रम में (सादयताम्) स्थित करें सो तू (अस्मे) हमारे लिये (प्रजावत्) प्रशंसित सन्तान होने का साधन (द्रविणा) धन (यजस्व) दे॥४॥

 

भावार्थ - जो स्त्री गृहाश्रम की विद्या और क्रिया-कौशल में विदुषी हों, वे ही सब प्राणियों को सुख दे सकती हैं॥४॥


अदि॑त्यास्त्वा पृ॒ष्ठे सा॑दयाम्य॒न्तरि॑क्षस्य ध॒र्त्री वि॒ष्टम्भ॑नीं दि॒शामधि॑पत्नीं॒ भुव॑नानाम्। ऊ॒र्मिर्द्र॒प्सोऽअ॒पाम॑सि वि॒श्वक॑र्मा त॒ऽऋषि॑रश्विना॑ध्व॒र्यू सा॑दयतामि॒ह त्वा॑॥५॥

विषय - फिर भी पूर्वोक्त विषय ही अगले मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे स्त्रि! जो (ते) तेरा (विश्वकर्मा) सब शुभ कर्मों से युक्त (ऋषिः) विज्ञानदाता पति मैं (अन्तरिक्षस्य) अन्तःकरण के नाशरहित विज्ञान को (धर्त्रीम्) धारण करने (दिशाम्) पूर्वादि दिशाओं की (विष्टम्भनीम्) आधार और (भुवनानाम्) सन्तानोत्पत्ति के निमित्त घरों की (अधिपत्नीम्) अधिष्ठाता होने से पालन करने वाली (त्वा) तुझ को सूर्य्य की किरण के समान (अदित्याः) पृथिवी के (पृष्ठे) पीठ पर (सादयामि) घर की अधिकारिणी स्थापित करता हूँ, जो तू (अपाम्) जलों की (ऊर्मिः) तरंग के सदृश (द्रप्सः) आनन्दयुक्त (असि) है, उस (त्वा) तुझ को (इह) इह गृहाश्रम में (अध्वर्यू) रक्षा के निमित्त यज्ञ को करने वाले (अश्विना) विद्या में व्याप्तबुद्धि अध्यापक और उपदेशक पुरुष (सादयताम्) स्थापित करें॥५॥

 

भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो स्त्रियाँ अविनाशी सुख देनेहारी सब दिशाओं में प्रसिद्ध कीर्ति वाली विद्वान् पतियों से युक्त सदा आनन्दित हैं, वे ही गृहाश्रम का धर्म पालने और उस की उन्नति के लिये समर्थ होती हैं, तेरहवें अध्याय में जो (मधुश्च॰मन्त्र २५) कहा है, वहां से यहां तक वसन्त ऋतु के गुणों की प्रधानता से व्याख्यान किया है, ऐसा जानना चाहिये॥५॥


शु॒क्रश्च॒ शुचि॑श्च॒ ग्रैष्मा॑वृ॒तूऽ अ॒ग्नेर॑न्तःश्लेषोऽसि॒ कल्पे॑तां॒ द्यावा॑पृथि॒वी कल्प॑न्ता॒माप॒ऽ ओष॑धयः॒ कल्प॑न्ताम॒ग्नयः॒ पृथ॒ङ् मम॒ ज्यैष्ठ्या॑य॒ सव्र॑ताः। येऽअ॒ग्नयः॒ सम॑नसोऽन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वीऽइ॒मे। ग्रैष्मा॑वृ॒तूऽ अ॑भि॒कल्प॑माना॒ऽइन्द्र॑मिव दे॒वाऽअ॑भि॒संवि॑शन्तु॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वे सी॑दतम्॥६॥


विषय - फिर भी ग्रीष्म ऋतु का व्याख्यान अगले मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे स्त्री-पुरुषो! जैसे (मम) मेरे (ज्यैष्ठ्याय) प्रशंसा के योग्य होने के लिये जो (शुक्रः) शीघ्र धूली की वर्षा और तीव्र ताप से आकाश को मलीन करने हारा ज्येष्ठ (च) और (शुचिः) पवित्रता का हेतु आषाढ़ (च) ये दोनों मिल के प्रत्येक (ग्रैष्मौ) ग्रीष्म (ऋतू) ऋतु कहाते हैं। जिस (अग्नेः) अग्नि के (अन्तःश्लेषः) मध्य में कफ के रोग का निवारण (असि) होता है, जिससे ग्रीष्म ऋतु के महीनों से (द्यावापृथिवी) प्रकाश और अन्तरिक्ष (कल्पेताम्) समर्थ होवें, (आपः) जल (कल्पन्ताम्) समर्थ हों, (ओषधयः) यव वा सोमलता आदि ओषधियां और (अग्नयः) बिजुली आदि अग्नि (पृथक्) अलग-अलग (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें। जैसे (समनसः) विचारशील (सव्रताः) सत्याचरणरूप नियमों से युक्त (अग्नयः) अग्नि के तुल्य तेजस्वी को (अन्तरा) (ग्रैष्मौ) (ऋतू) (अभिकल्पमानाः) सन्मुख होकर समर्थ करते हुए (देवाः) विद्वान् लोग (इन्द्रमिव) बिजुली के समान उन अग्नियों की विद्या में (अभिसंविशन्तु) सब ओर से अच्छे प्रकार प्रवेश करें, वैसे (तया) उस (देवतया) परमेश्वर देवता के साथ तुम दोनों (इमे) इन (द्यावापृथिवी) प्रकाश और पृथिवी को (ध्रुवे) निश्चल स्वरूप से इन का भी (अङ्गिरस्वत्) अवयवों के कारणरूप रस के समान (सीदतम्) विशेष कर के ज्ञान कर प्रवर्त्तमान रहो॥६॥

 

भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। वसन्त ऋतु के व्याख्यान के पीछे ग्रीष्म ऋतु की व्याख्या करते हैं। हे मनुष्यो! तुम लोग जो पृथिवी आदि पञ्चभूतों के शरीरसम्बन्धी वा मानस अग्नि हैं कि जिन के विना ग्रीष्म ऋतु नहीं हो सकता, उन को जान और उपयोग में ला के सब प्राणियों को सुख दिया करो॥६॥


स॒जूर्ऋ॒तुभिः॑ स॒जूर्वि॒धाभिः॑ स॒जूर्दे॒वैः स॒जूर्दे॒वैर्व॑योना॒धैर॒ग्नये॑ त्वा वैश्वान॒राया॒श्विना॑ध्व॒र्यू सा॑दयतामि॒ह त्वा॑ स॒जूर्ऋ॒तुभिः॑ स॒जूर्वि॒धाभिः॑ स॒जूर्वसु॑भिः स॒जूर्दे॒वैर्व॑योना॒धैर॒ग्नये॑ त्वा वैश्वान॒राया॒श्विना॑ऽध्व॒र्यू सा॑दयतामि॒ह त्वा॑ स॒जूर्ऋ॒तुभिः॑ स॒जूर्वि॒धाभिः॑ स॒जू रु॒द्रैः स॒जूर्दे॒वैर्व॑योना॒धैर॒ग्नये॑ त्वा वैश्वान॒राया॒श्विना॑ध्व॒र्यू सा॑दयतामि॒ह त्वा॑ स॒जूर्ऋ॒तुभिः॑ स॒जूर्वि॒धाभिः॑ स॒जूरा॑दि॒त्यैः स॒जूर्दे॒वैर्व॑योना॒धैर॒ग्नये॑ त्वा वैश्वान॒राया॒श्विना॑ध्व॒र्यू सा॑दयतामि॒ह त्वा॑ स॒जूर्ऋ॒तुभिः॑ स॒जूर्वि॒धाभिः॑ स॒जूर्वि॒श्वै॑र्दे॒वैः स॒जूर्दे॒वैर्व॑योना॒धैर॒ग्नये॑ त्वा वैश्वान॒राया॒श्विना॑ध्व॒र्यू सा॑दयतामि॒ह त्वा॑॥७॥


विषय - फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे स्त्रि वा पुरुष! जिस (त्वा) तुझ को (इह) इस जगत् में (अध्वर्यू) रक्षा करने हारे (अश्विना) सब विद्याओं में व्यापक पढ़ाने और उपदेश करने वाले पुरुष और स्त्री (वैश्वानराय) सम्पूर्ण पदार्थों की प्राप्ति के निमित्त (अग्नये) अग्नि विद्या के लिये (सादयताम्) नियुक्त करें और हम लोग भी जिस (त्वा) तुझ को स्थापित करें सो तू (ऋतुभिः) वसन्त और वर्षा आदि ऋतुओं के साथ (सजूः) एक सी तृप्ति वा सेवा से युक्त (विधाभिः) जलों के साथ (सजूः) प्रीतियुक्त (देवैः) अच्छे गुणों के साथ (सजूः) प्रीतिवाली वा प्रीति वाला और (वयोनाधैः) जीवन आदि वा गायत्री आदि छन्दों के साथ सम्बन्ध के हेतु (देवैः) दिव्य सुख देने हारे प्राणों के साथ (सजूः) समान सेवन से युक्त हो। हे पुरुषार्थयुक्त स्त्रि वा पुरुष! जिस (त्वा) तुझ को (इह) इस गृहाश्रम में (वैश्वानराय) सब जगत् के नायक (अग्नये) विज्ञानदाता ईश्वर की प्राप्ति के लिये (अध्वर्यू) रक्षक (अश्विना) सब विद्याओं में व्याप्त अध्यापक और उपदेशक (सादयताम्) स्थापित करें और जिस (त्वा) तुझको हम लोग नियत करें सो तू (ऋतुभिः) ऋतुओं के साथ (सजूः) पुरुषार्थी (विधाभिः) विविध प्रकार के पदार्थों के धारण के हेतु प्राणों की चेष्टाओं के साथ (सजूः) समान सेवन वाले (वसुभिः) अग्नि आदि आठ पदार्थों के साथ (सजूः) प्रीतियुक्त और (वयोनाधैः) विज्ञान का सम्बन्ध कराने हारे (देवैः) सुन्दर विद्वानों के साथ (सजूः) समान प्रीति वाले हों। हे विद्या पढ़ने के लिये प्रवृत्त हुए ब्रह्मचारिणी वा ब्रह्मचारी! जिस (त्वा) तुझ को (इह) इस ब्रह्मचर्य्याश्रम में (वैश्वानराय) सब मनुष्यों के सुख के साधन (अग्नये) शास्त्रों के विज्ञान के लिये (अध्वर्यू) पालने हारे (अश्विना) पूर्ण विद्यायुक्त अध्यापक और उपदेशक लोग (सादयताम्) नियुक्त करें और जिस (त्वा) तुझ को हम लोग स्थापित करें सो तू (ऋतुभिः) ऋतुओं के साथ (सजूः) अनुकूल सेवन वाले (विधाभिः) विविध प्रकार के पदार्थों के धारण के निमित्त प्राण की चेष्टाओं से (सजूः) समान प्रीति वाले (रुद्रैः) प्राण, अपान, व्यान उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय और जीवात्मा इन ग्यारहों के (सजूः) अनुसार सेवा करने हारे और (वयोनाधैः) वेदादि शास्त्रों के जनाने का प्रबन्ध करनेहारे (देवैः) विद्वानों के साथ (सजूः) बराबर प्रीति वाले हों। हे पूर्णविद्या वाले स्त्री वा पुरुष! जिस (त्वा) तुझ को (इह) इस संसार में (वैश्वानराय) सब मनुष्यों के लिये पूर्ण सुख के साथ (अग्नये) पूर्ण विज्ञान के लिये (अध्वर्यू) रक्षक (अश्विना) शीघ्र ज्ञानदाता लोग (सादयताम्) नियत करें और जिस (त्वा) तुझ को हम नियुक्त करें सो तू (ऋतुभिः) ऋतुओं के साथ (सजूः) अनुकूल आचरण वाले (विधाभिः) विविध प्रकार की सत्यक्रियाओं के साथ (सजूः) समान प्रीति वाले (आदित्यैः) वर्ष के बारह महीनों के साथ (सजूः) अनुकूल आहारविहारयुक्त और (वयोनाधैः) पूर्ण विद्या के विज्ञान और प्रचार के प्रबन्ध करने हारे (देवैः) पूर्ण विद्यायुक्त विद्वानों के (सजूः) अनुकूल प्रीति वाले हों। हे सत्य अर्थों का उपदेश करने हारी स्त्री वा पुरुष! जिस (त्वा) तुझ को (इह) इस जगत् में (वैश्वानराय) सब मनुष्यों के हितकारी (अग्नये) अच्छे शिक्षा के प्रकाश के लिये (अध्वर्यू) ब्रह्मविद्या के रक्षक (अश्विना) शीघ्र पढ़ाने और उपदेश करनेहारे लोग (सादयताम्) स्थित करें और जिस (त्वा) तुझ को हम लोग नियत करें सो तू (ऋतुभिः) काल क्षण आदि सब अवयवों के साथ (सजूः) अनुकूल सेवी (विधाभिः) सुखों में व्यापक सब क्रियाओं के (सजूः) अनुसार होकर (विश्वैः) सब (देवैः) सत्योपदेशक पतियों के साथ (सजूः) समान प्रीति वाले और (वयोनाधैः) कामयमान जीवन का सम्बन्ध करानेहारे (देवैः) परोपकार के लिये सत्य असत्य के जनाने वाले जनों के साथ (सजूः) समान प्रीति वाले हों॥७॥

 

भावार्थ - इस संसार में मनुष्य का जन्म पाके स्त्री तथा पुरुष विद्वान् होकर जिन ब्रह्मचर्य्य-सेवन, विद्या और अच्छी शिक्षा के ग्रहण आदि शुभ-गुण, कर्मों में आप प्रवृत्त होकर जिन अन्य लोगों को प्रवृत्त करें, वे उन में प्रवृत्त होकर परमेश्वर से लेके पृथिवीपर्यन्त पदार्थों के यथार्थ विज्ञान से उपयोग ग्रहण करके सब ऋतुओं में आप सुखी रहें और अन्यों को सुखी करें॥७॥


प्रा॒णम्मे॑ पाह्यपा॒नम्मे॑ पाहि व्या॒नम्मे॑ पाहि॒ चक्षु॑र्मऽउ॒र्व्या विभा॑हि॒ श्रोत्र॑म्मे श्लोकय। अ॒पः पि॒न्वौष॑धीर्जिन्व द्वि॒पाद॑व॒ चतु॑ष्पात् पाहि दि॒वो वृष्टि॒मेर॑य॥८॥


विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे पते वा स्त्रि! तू (उर्व्या) बहुत प्रकार की उत्तम क्रिया से (मे) मेरे (प्राणम्) नाभि से ऊपर को चलने वाले प्राणवायु की (पाहि) रक्षा कर (मे) मेरे (अपानम्) नाभि के नीचे गुह्येन्द्रिय मार्ग से निकलने वाले अपान वायु की (पाहि) रक्षा कर (मे) मेरे (व्यानम्) विविध प्रकार की शरीर की संधियों में रहने वाले व्यान वायु की (पाहि) रक्षा कर (मे) मेरे (चक्षुः) नेत्रों को (विभाहि) प्रकाशित कर (मे) मेरे (श्रोत्रम्) कानों को (श्लोकय) शास्त्रों के श्रवण से संयुक्त कर (अपः) प्राणों को (पिन्व) पुष्ट कर (ओषधीः) सोमलता वा यव आदि ओषधियों को (जिन्व) प्राप्त हो (द्विपात्) मनुष्यादि दो पगवाले प्राणियों की (अव) रक्षा कर (चतुष्पात्) चार पग वाले गौ आदि की (पाहि) रक्षा कर और जैसे सूर्य्य (दिवः) अपने प्रकाश से (वृष्टिम्) वर्षा करता है, वैसे घर के कार्यों को (एरय) अच्छे प्रकार प्राप्त कर॥८॥

 

भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। स्त्री-पुरुषों को चाहिये कि स्वयंवर विवाह करके अति प्रेम के साथ आपस में प्राण के समान प्रियाचरण, शास्त्रों का सुनना, ओषधि आदि का सेवन और यज्ञ के अनुष्ठान से वर्षा करावें॥८॥


मू॒र्धा वयः॑ प्र॒जाप॑ति॒श्छन्दः॑ क्ष॒त्रं वयो॒ मय॑न्दं॒ छन्दो॑ विष्ट॒म्भो वयोऽधि॑पति॒श्छन्दो॑ वि॒श्वक॑र्मा॒ वयः॑ परमे॒ष्ठी छन्दो॑ ब॒स्तो वयो॑ विब॒लं छन्दो॒ वृष्णि॒र्वयो॑ विशा॒लं छन्दः॒ पु॑रुषो॒ वय॑स्त॒न्द्रं छन्दो॑ व्या॒घ्रो वयोऽना॑धृष्टं॒ छन्दः॑ सि॒हो वय॑श्छ॒दिश्छन्दः॑ पष्ठ॒वाड् वयो॑ बृह॒ती छन्द॑ऽ उ॒क्षा वयः॑ क॒कुप् छन्द॑ऽ ऋष॒भो वयः॑ स॒तोबृ॑ह॒ती छन्दः॑॥९॥


विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे स्त्रि वा पुरुष! (मूर्धा) शिर के तुल्य उत्तम ब्राह्मण का कुल (प्रजापतिः) प्रजा के रक्षक राजा के समान तू (वयः) कामना के योग्य (मयन्दम्) सुखदायक (छन्दः) बलयुक्त (क्षत्रम्) क्षत्रिय कुल को प्ररेणा कर (विष्टम्भः) वैश्यों की रक्षा का हेतु (अधिपतिः) अधिष्ठाता पुरुष नृप के समान तू (वयः) न्याय विनय को प्राप्त हुए (छन्दः) स्वाधीन पुरुष को प्रेरणा कर (विश्वकर्म्मा) सब उत्तम कर्म करने हारे (परमेष्ठी) सब के स्वामी राजा के समान तू (वयः) चाहने योग्य (छन्दः) स्वतन्त्रता को (एरय) बढ़ाइये (वस्तः) व्यवहारों से युक्त पुरुष के समान तू (वयः) अनेक प्रकार के व्यवहारों में व्यापी (विबलम्) विविध बल के हेतु (छन्दः) आनन्द को बढ़ा (वृष्णिः) सुख के सेचने वाले के सदृश तू (विशालम्) विस्तारयुक्त (वयः) सुखदायक (छन्दः) स्वतन्त्रता को बढ़ा (पुरुषः) पुरुषार्थयुक्त जन के तुल्य तू (वयः) चाहने योग्य (तन्द्रम्) कुटुम्ब के धारणरूप कर्म्म और (छन्दः) बल को बढ़ा (व्याघ्रः) जो विविध प्रकार के पदार्थों को अच्छे प्रकार सूंघता है, उस जन्तु के तुल्य राजा तू (वयः) चाहने योग्य (अनाधृष्टम्) दृढ़ (छन्दः) बल को बढ़ा (सिहः) पशु आदि को मारने हारे सिंह के समान पराक्रमी राजा तू (वयः) पराक्रम के साथ (छदिः) निरोध और (छन्दः) प्रकाश को बढ़ा (पष्ठवाट्) पीठ से बोझ उठाने वाले ऊंट आदि के सदृश वैश्य तू (बृहती) बड़े (वयः) बलयुक्त (छन्दः) पराक्रम को प्ररेणा कर (उक्षा) सींचने हारे बैल के तुल्य शूद्र तू (वयः) अति बल का हेतु (ककुप्) दिशाओं और (छन्दः) आनन्द को बढ़ा (ऋषभः) शीघ्रगन्ता पशु के तुल्य भृत्य तू (वयः) बल के साथ (सतोबृहती) उत्तम बड़ी (छन्दः) स्वतन्त्रता की प्रेरणा कर॥९॥

 

भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं और पूर्व मन्त्र से एरय पद की अनुवृत्ति आती है। स्त्री-पुरुषों को चाहिये कि ब्राह्मण आदि वर्णों को स्वतन्त्र कर वेदादि शास्त्रों का प्रचार, आलस्यादि त्याग और शत्रुओं का निवारण करके बड़े बल को सदा बढ़ाया करें॥९॥

 

अ॒न॒ड्वान् वयः॑ प॒ङ्क्तिश्छन्दो॑ धे॒नुर्वयो॒ जग॑ती॒ छन्द॒स्त्र्यवि॒र्वय॑स्त्रि॒ष्टुप् छन्दो॑ दित्य॒वाड् वयो॑ वि॒राट् छन्दः॒ पञ्चा॑वि॒र्वयो॑ गाय॒त्री छन्द॑स्त्रिव॒त्सो वय॑ऽउ॒ष्णिक् छन्द॑स्तुर्य्य॒वाड् वयो॑ऽनु॒ष्टुप् छन्दः॑॥१०॥


विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे स्त्रि वा पुरुष! (अनड्वान्) गौ और बैल के समान बलवान् हो के तू (पङ्क्तिः) प्रकट (छन्दः) स्वतन्त्र (वयः) बल की प्रेरणा कर (धेनुः) दूध देने हारी गौ के समान तू (जगती) जगत् के उपकारक (छन्दः) आनन्द की (वयः) कामना को बढ़ा (त्र्यविः) तीन भेड़, बकरी और गौ के अध्यक्ष के तुल्य वृद्धियुक्त होके तू (त्रिष्टुप्) कर्म्म, उपासना और ज्ञान की स्तुति के हेतु (छन्दः) स्वतन्त्र (वयः) उत्पत्ति को बढ़ा (दित्यवाड्) पृथिवी खोदने से उत्पन्न हुए जौ आदि को प्राप्त कराने हारी क्रिया के तुल्य तू (विराट्) विविध प्रकाशयुक्त (छन्दः) आनन्दकारक (वयः) प्राप्ति को बढ़ा (पञ्चाविः) पञ्च इन्द्रियों की रक्षा के हेतु ओषधि के समान तू (गायत्री) गायत्री (छन्दः) मन्त्र के (वयः) विज्ञान को बढ़ा (त्रिवत्सः) कर्म, उपासना और ज्ञान को चाहने हारे के तुल्य तू (उष्णिक्) दुःखों के नाशक (छन्दः) स्वतन्त्र (वयः) पराक्रम को बढ़ा और (तुर्य्यवाट्) चारों वेदों की प्राप्ति कराने हारे पुरुष के समान तू (अनुष्टुप्) अनुकूल स्तुति का निमित्त (छन्दः) सुखसाधक (वयः) इच्छा को प्रतिदिन बढ़ाया कर॥१०॥

 

भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे खेती करने हारे लोग बैल आदि साधनों की रक्षा से अन्नादि पदार्थों को उत्पन्न करके सब को सुख देते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग विद्या का प्रचार करके सब प्राणियों को आनन्द देते हैं॥१०॥


इन्द्रा॑ग्नी॒ऽ अव्य॑थमाना॒मिष्ट॑कां दृहतं यु॒वम्। 

पृ॒ष्ठेन॒ द्यावा॑पृथि॒वीऽ अ॒न्तरि॑क्षं च॒ विबा॑धसे॥११॥


विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे (इन्द्राग्नी) बिजुली और सूर्य्य के समान वर्त्तमान स्त्री-पुरुषो! (युवम्) तुम दोनों (अव्यथमानाम्) जमी हुई बुद्धि को प्राप्त होके (इष्टकाम्) र्इंट के समान गृहाश्रम को (दृंहतम्) दृढ़ करो। जैसे (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमि (पृष्ठेन) पीठ से (अन्तरिक्षम्) आकाश को बांधते हैं, वैसे तुम दुःख (च) और शत्रुओं को बांधा करो। हे पुरुष! जैसे तू इस अपनी स्त्री की पीड़ा को (विबाधसे) विशेष करके हटाता है, वैसे यह स्त्री भी तेरी सकल पीड़ा को हरा करे॥११॥

 

भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे बिजुली और सूर्य जल वर्षा के ओषधि आदि पदार्थों को बढ़ाते हैं, वैसे ही स्त्री-पुरुष कुटुम्ब को बढ़ावें, जैसे प्रकाश और पृथिवी आकाश का आवरण करते हैं, वैसे गृहाश्रम के व्यवहारों को पूर्ण करें॥११॥


वि॒श्वक॑र्मा त्वा सादयत्व॒न्तरि॑क्षस्य पृ॒ष्ठे व्यच॑स्वतीं॒ प्रथ॑स्वतीम॒न्तरि॑क्षं यच्छा॒न्तरि॑क्षं दृहा॒न्तरि॑क्षं॒ मा हि॑सीः। विश्व॑स्मै प्रा॒णाया॑ऽपा॒नाय॑ व्या॒नायो॑दा॒नाय॑ प्रति॒ष्ठायै॑ च॒रित्राय॑। वा॒युष्ट्वा॒भिपा॑तु म॒ह्या स्व॒स्त्या छ॒र्दिषा॒ शन्त॑मेन॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वा सी॑द॥१२॥


विषय - फिर वही विषय अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥

 

पदार्थ -

हे स्त्रि! (विश्वकर्मा) सम्पूर्ण शुभ कर्म करने में कुशल पति जिस (व्यचस्वतीम्) प्रशंसित विज्ञान वा सत्कार से युक्त (प्रथस्वतीम्) उत्तम विस्तृत विद्या वाली (अन्तरिक्षस्य) प्रकाश के (पृष्ठे) एक भाग में (त्वा) तुझ को (सादयतु) स्थापित करे सो तू (विश्वस्मै) सब (प्राणाय) प्राण (अपानाय) अपान (व्यानाय) व्यान और (उदानाय) उदानरूप शरीर के वायु तथा (प्रतिष्ठायै) प्रतिष्ठा (चरित्राय) और शुभ कर्मों के आचरण के लिये (अन्तरिक्षम्) जलादि को (यच्छ) दिया कर (अन्तरिक्षम्) प्रशंसित शुद्ध किये जल से युक्त अन्न और धनादि को (दृंह) बढ़ा और (अन्तरिक्षम्) मधुरता आदि गुणयुक्त रोगनाशक आकाशस्थ सब पदार्थों को (मा हिंसीः) नष्ट मत कर, जिस (त्वा) तुझ को (वायुः) प्राण के तुल्य प्रिय पति (मह्या) बड़ी (स्वस्त्या) सुख रूप क्रिया (छर्दिषा) प्रकाश और (शन्तमेन) अति सुखदायक विज्ञान से तुझ को (अभिपातु) सब ओर से रक्षा करे सो तू (तया) उस (देवतया) दिव्य सुख देने वाली क्रिया के साथ वर्त्तमान पतिरूप देवता के साथ (अङ्गिरस्वत्) व्यापक वायु के समान (ध्रुवा) निश्चल ज्ञान से युक्त (सीद) स्थिर हो॥१२॥

 

भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे पुरुष स्त्री को अच्छे कर्मों में नियुक्त करे, वैसे स्त्री भी अपने पति को अच्छे कर्मों में प्रेरणा करे, जिस से निरन्तर आनन्द बढ़े॥१२॥

 

राज्ञ्य॑सि॒ प्राची॒ दिग्वि॒राड॑सि॒ दक्षि॑णा॒ दिक् स॒म्राड॑सि प्र॒तीची॒ दिक् स्व॒राड॒स्युदी॑ची॒ दिगधि॑पत्न्यसि बृह॒ती दिक्॥१३॥


विषय - फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे स्त्रि! जो तू (प्राची) पूर्व (दिक्) दिशा के तुल्य (राज्ञी) प्रकाशमान (असि) है, (दक्षिणा) दक्षिण (दिक्) दिशा के समान (विराट्) अनेक प्रकार का विनय और विद्या के प्रकाश से युक्त (असि) है, (प्रतीची) पश्चिम (दिक्) दिशा के सदृश (सम्राट्) चक्रवर्ती राजा के सदृश अच्छे सुखयुक्त पृथिवी पर प्रकाशमान (असि) है, (उदीची) उत्तर (दिक्) दिशा के तुल्य (स्वराट्) स्वयं प्रकाशमान (असि) है, (बृहती) बड़ी (दिक्) ऊपर-नीचे की दिशा के तुल्य (अधिपत्नी) घर में अधिकार को प्राप्त हुई (असि) है, सो तू सब पति आदि को तृप्त कर॥१३॥

 

भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे दिशा सब ओर से अभिव्याप्त बोध करने हारी चञ्चलतारहित हैं, वैसे ही स्त्री शुभ गुण, कर्म और स्वभावों से युक्त होवे॥१३॥


वि॒श्वक॑र्मा त्वा सादयत्व॒न्तरि॑क्षस्य पृ॒ष्ठे ज्योति॑ष्मतीम्। विश्व॑स्मै प्रा॒णाया॑ऽपा॒नाय॑ व्या॒नाय॒ विश्वं॒ ज्योति॑र्यच्छ। वा॒युष्टेऽधि॑पति॒स्तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वा सी॑द॥१४॥


विषय - फिर भी उक्त विषय ही अगले मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे स्त्रि! जिस (ज्योतिष्मतीम्) बहुत विज्ञान वाली (त्वा) तुझ को (विश्वस्मै) सब (प्राणाय) प्राण (अपानाय) अपान और (व्यानाय) व्यान की पुष्टि के लिये (अन्तरिक्षस्य) जल के (पृष्ठे) ऊपरले भाग में (विश्वकर्मा) सब शुभ कर्मों का चाहने हारा पति (सादयतु) स्थापित करे सो तू (विश्वम्) सम्पूर्ण (ज्योतिः) विज्ञान को (यच्छ) ग्रहण कर, जो (वायुः) प्राण के समान प्रिय (ते) तेरा (अधिपतिः) स्वामी है, (तया) उस (देवतया) देवस्वरूप पति के साथ (ध्रुवा) दृढ़ (अङ्गिरस्वत्) सूर्य्य के समान (सीद) स्थिर हो ॥१४॥

 

भावार्थ - स्त्री को उचित है कि ब्रह्मचर्य्याश्रम के साथ आप विद्वान् हो के शरीर, आत्मा का बल बढ़ाने के लिये अपने सन्तानों को निरन्तर विज्ञान देवे। यहां तक ग्रीष्म ऋतु का व्याख्यान पूरा हुआ॥१४॥


नभ॑श्च नभ॒स्यश्च॒ वार्षि॑कावृ॒तूऽ अ॒ग्नेर॑न्तःश्लेषोऽसि॒ कल्पे॑तां॒ द्यावा॑पृथि॒वी कल्प॑न्ता॒माप॒ऽ ओष॑धयः॒ कल्प॑न्ताम॒ग्नयः॒ पृथ॒ङ् मम॒ ज्यैष्ठ्या॑य॒ सव्रताः। येऽअ॒ग्नयः॒ सम॑नसोऽन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वीऽ इ॒मे। वार्षि॑कावृ॒तूऽ अ॑भि॒कल्प॑माना॒ऽ इन्द्र॑मिव दे॒वाऽ अ॑भि॒संवि॑शन्तु॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वे सी॑दतम्॥१५॥


विषय - अब वर्षा ऋतु का व्याख्यान अगले मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे स्त्री-पुरुषो! तुम दोनों जो (नभः) प्रबन्धित मेघों वाला श्रावण (च) और (नभस्यः) वर्षा का मध्यभागी भाद्रपद (च) ये दोनों (वार्षिकौ) वर्षा (ऋतू) ऋतु के महीने (मम) मेरे (ज्यैष्ठ्याय) प्रशंसित होने के लिये हैं, जिनमें (अग्नेः) उष्ण तथा (अन्तःश्लेषः) जिन के मध्य में शीत का स्पर्श (असि) होता है, जिन के साथ (द्यावापृथिवी) आकाश और भूमि समर्थ होते हैं, उन के भोग में तुम दोनों (कल्पेताम्) समर्थ हो, जैसे ऋतु योग से (आपः) जल और (ओषधयः) ओषधि वा (अग्नयः) अग्नि (पृथक्) जल से अलग समर्थ होते हैं, वैसे (सव्रताः) एक प्रकार के श्रेष्ठ नियम (समनसः) एक प्रकार का ज्ञान देने हारे (अग्नयः) तेजस्वी लोग (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें, (ये) जो (इमे) (द्यावापृथिवी) आकाश और भूमि वर्षा ऋतु के गुणों में समर्थ होते हैं, उन को (वार्षिकौ) (ऋतू) वर्षाऋतुरूप (अभिकल्पमानाः) सब ओर से सुख के लिये समर्थ करते हुए (देवाः) विद्वान् लोग (इन्द्रमिव) बिजुली के समान प्रकाश और बल को (तया) उस (देवतया) दिव्य वर्षा ऋतु के साथ (अभिसंविशन्तु) सन्मुख होकर अच्छे प्रकार स्थित होवें (अन्तरा) उन दोनों महीनों में प्रवेश करके (अङ्गिरस्वत्) प्राण के समान परस्पर प्रेमयुक्त (ध्रुवे) निश्चल (सीदतम्) रहो॥१५॥

 

भावार्थ - इन मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोमालङ्कार हैं। सब मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों के समान वर्षा ऋतु में वह सामग्री ग्रहण करें, जिस से सब सुख होवें॥१५॥

 

इ॒षश्चो॒र्जश्च॑ शार॒दावृ॒तूऽ अ॒ग्नेर॑न्तःश्लेषोऽसि॒ कल्पे॑तां॒ द्यावा॑पृथि॒वी कल्प॑न्ता॒माप॒ऽ ओष॑धयः॒ कल्प॑न्ताम॒ग्नयः॒ पृथ॒ङ् मम॒ ज्यैष्ठ्या॑य॒ सव्र॑ताः। येऽ अ॒ग्नयः॒ सम॑नसोऽन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वीऽ इ॒मे। शा॒र॒दावृ॒तूऽ अ॑भि॒कल्प॑माना॒ऽ इन्द्र॑मिव दे॒वाऽ अ॑भि॒संवि॑शन्तु॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वे सी॑दतम्॥१६॥


विषय - अब शरद् ऋतु का व्याख्यान अगले मन्त्र में किया है॥

 

पदार्थ -

हे मनुष्यो! जैसे (इषः) चाहने योग्य क्वार महीना (च) और (ऊर्जः) सब पदार्थों के बलवान् होने का हेतु कार्त्तिक (च) ये दोनों (शारदौ) शरद् (ऋतू) ऋतु के महीने (मम) मेरे (ज्यैष्ठ्याय) प्रशंसित सुख होने के लिये होते हैं। जिन के (अन्तःश्लेषः) मध्य में किञ्चित् शीतस्पर्श (असि) होता है, वे (द्यावापृथिवी) आकाश और पृथिवी को (कल्पेताम्) समर्थ करें, (आपः) जल और (ओषधयः) औषधियां (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें, (सव्रताः) सब कार्यों के नियम करने हारे (अग्नयः) शरीर के अग्नि (पृथक्) अलग (कल्पन्ताम्) समर्थ हों (ये) जो (अन्तरा) बीच में (समनसः) मन के सम्बन्धी (अग्नयः) बाहर के भी अग्नि (इमे) इन (द्यावापृथिवी) आकाश भूमि को (कल्पेताम्) समर्थ करें, (शारदौ) शरद् (ऋतू) ऋतु के दोनों महीनों में (इन्द्रमिव) परमैश्वर्य के तुल्य (अभिकल्पमानाः) सब ओर से आनन्द की इच्छा करते हुए (देवाः) विद्वान् लोग (अभिसंविशन्तु) प्रवेश करें (तया) उस (देवतया) दिव्य शरद् ऋतु रूप देवता के नियम के साथ (ध्रुवे) निश्चल सुख वाले (सीदतम्) प्राप्त होते हैं, वैसे तुम लोगों को (ज्यैष्ठ्याय) प्रशंसित सुख होने के लिये भी होने योग्य हैं॥१६॥

 

भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यों! जो शरद् ऋतु में उपयोगी पदार्थ हैं, उन को यथायोग्य शुद्ध करके सेवन करो॥१६॥


आयु॑र्मे पाहि प्रा॒णं मे॑ पाह्यपा॒नं मे॑ पाहि व्या॒नं मे॑ पाहि॒ चक्षु॑र्मे पाहि॒ श्रोत्रं॑ मे पाहि॒ वाचं॑ मे पिन्व॒ मनो॑ मे जिन्वा॒त्मानं॑ मे पाहि॒ ज्योति॑र्मे यच्छ॥१७॥


विषय - फिर भी पूर्वोक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे स्त्री वा पुरुष! तू शरद् ऋतु में (मे) मेरी (आयुः) अवस्था की (पाहि) रक्षा कर (मे) मेरे (प्राणम्) प्राण की (पाहि) रक्षा कर (मे) मेरे (अपानम्) अपान वायु की (पाहि) रक्षा कर (मे) मेरे (व्यानम्) व्यान की (पाहि) रक्षा कर (मे) मेरे (चक्षुः) नेत्रों की (पाहि) रक्षा कर (मे) मेरे (श्रोत्रम्) कानों की (पाहि) रक्षा कर (मे) मेरी (वाचम्) वाणी को (पिन्व) अच्छी शिक्षा से युक्त कर (मे) मेरे (मनः) मन को (जिन्व) तृप्त कर (मे) मेरे (आत्मानम्) चेतन आत्मा की (पाहि) रक्षा कर और (मे) मेरे लिये (ज्योतिः) विज्ञान का (यच्छ) दान कर॥१७॥

 

भावार्थ - स्त्री पुरुष की और पुरुष स्त्री की जैसे अवस्था आदि की वृद्धि होवे, वैसे परस्पर नित्य आचरण करें॥१७॥


मा छन्दः॑ प्र॒मा छन्दः॑ प्रति॒मा छन्दो॑ऽ अस्री॒वय॒श्छन्दः॑ प॒ङ्क्तिश्छन्द॑ऽ उ॒ष्णिक् छन्दो॑ बृह॒ती छन्दो॑ऽनु॒ष्टुप् छन्दो॑ वि॒राट् छन्दो॑ गाय॒त्री छन्द॑स्त्रि॒ष्टुप् छन्दो॒ जग॑ती॒ छन्दः॑॥१८॥


विषय - स्त्री-पुरुषों को कैसे विज्ञान बढ़ाना चाहिये? इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

 

पदार्थ -

हे मनुष्यो! तुम लोग (मा) परिमाण का हेतु (छन्दः) आनन्दकारक (प्रमा) प्रमाण का हेतु बुद्धि (छन्दः) बल (प्रतिमा) जिससे प्रतीति निश्चय की क्रिया हेतु (छन्दः) स्वतन्त्रता (अस्रीवयः) बल और कान्तिकारक अन्नादि पदार्थ (छन्दः) बलकारी विज्ञान (पङ्क्तिः) पांच अवयवों से युक्त योग (छन्दः) प्रकाश (उष्णिक्) स्नेह (छन्दः) प्रकाश (बृहती) बड़ी प्रकृति (छन्दः) आश्रय (अनुष्टुप्) सुखों का आलम्बन (छन्दः) भोग (विराट्) विविध प्रकार की विद्याओं का प्रकाश (छन्दः) विज्ञान (गायत्री) गाने वाले का रक्षक ईश्वर (छन्दः) उस का बोध (त्रिष्टुप्) तीन सुखों का आश्रय (छन्दः) आनन्द और (जगती) जिस में सब जगत् चलता है, उस (छन्दः) पराक्रम को ग्रहण कर और जान के सब को सुखयुक्त करो॥१८॥

 

भावार्थ - जो मनुष्य निश्चय के हेतु आनन्द आदि से साध्य, धर्मयुक्त कर्मों को सिद्ध करते हैं, वे सुखों से शोभायमान होते हैं॥१८॥


पृ॒थि॒वी छन्दो॒ऽन्तरि॑क्षं॒ छन्दो॒ द्यौश्छन्दः॒ समा॒श्छन्दो॒ नक्ष॑त्राणि॒ छन्दो॒ वाक् छन्दो॒ मन॒श्छन्दः॑ कृ॒षिश्छन्दो॒ हिर॑ण्यं॒ छन्दो॒ गौश्छन्दो॒ऽजाच्छन्दोऽश्व॒श्छन्दः॑॥१९॥


विषय - फिर वही उक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे स्त्री-पुरुषो! तुम लोग जैसे (पृथिवी) भूमि (छन्दः) स्वतन्त्र (अन्तरिक्षम्) आकाश (छन्दः) आनन्द (द्यौः) प्रकाश (छन्दः) विज्ञान (समाः) वर्ष (छन्दः) बुद्धि (नक्षत्राणि) तारे लोक (छन्दः) स्वतन्त्र (वाक्) वाणी (छन्दः) सत्य (मनः) मन (छन्दः) निष्कपट (कृषिः) जोतना (छन्दः) उत्पत्ति (हिरण्यम्) सुवर्ण (छन्दः) सुखदायी (गौः) गौ (छन्दः) आनन्द-हेतु (अजा) बकरी (छन्दः) सुख का हेतु और (अश्वः) घोड़े आदि (छन्दः) स्वाधीन हैं, वैसे विद्या, विनय और धर्म के आचरण विषय में स्वाधीनता से वर्त्तो॥१९॥

 

भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। स्त्री-पुरुषों को चाहिये कि शुद्ध विद्या, क्रिया और स्वतन्त्रता से पृथिवी आदि पदार्थों के गुण, कर्म और स्वभावों को जान; खेती आदि कर्मों से सुवर्ण आदि रत्नों को प्राप्त हों और गौ आदि पशुओं की रक्षा करके ऐश्वर्य्य बढ़ावें॥१९॥


अ॒ग्निर्दे॒वता॒ वातो॑ दे॒वता॒ सूर्यो॑ दे॒वता॑ च॒न्द्रमा॑ दे॒वता॒ वस॑वो दे॒वता॑ रु॒द्रा दे॒वता॑ऽऽदि॒त्या दे॒वता॑ म॒रुतो॑ दे॒वता॒ विश्वे॑ दे॒वा दे॒वता॒ बृह॒स्पति॑र्दे॒वतेन्द्रो॑ दे॒वता॒ वरु॑णो दे॒वता॑॥२०॥


विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे स्त्री-पुरुषो! तुम लोगों को योग्य है कि (अग्निः) प्रसिद्ध अग्नि (देवताः) दिव्य गुण वाला (वातः) पवन (देवता) शुद्धगुणयुक्त (सूर्य्यः) सूर्य्य (देवता) अच्छे गुणों वाला (चन्द्रमाः) चन्द्रमा (देवता) शुद्ध गुणयुक्त (वसवः) प्रसिद्ध आठ अग्नि आदि वा प्रथम कक्षा के विद्वान् (देवता) दिव्यगुण वाले (रुद्राः) प्राण आदि ११ ग्यारह वा मध्यम कक्षा के विद्वान् (देवता) शुद्ध गुणों वाले (आदित्याः) बारह महीने वा उत्तम कक्षा के विद्वान् लोग (देवता) शुद्ध (मरुतः) मननकर्त्ता विद्वान् ऋत्विग् लोग (देवता) दिव्य गुण वाले (विश्वे) सब (देवता) अच्छे गुणों वाले विद्वान् मनुष्य वा दिव्य पदार्थ (देवता) देवसंज्ञा वाले हैं (बृहस्पतिः) बड़े वचन वा ब्रह्माण्ड का रक्षक परमात्मा (देवता) (इन्द्रः) बिजुली वा उत्तम धन (देवता) दिव्य गुणयुक्त और (वरुणः) जल वा श्रेष्ठ गुणों वाला पदार्थ (देवता) अच्छे गुणों वाला है, इन को तुम निश्चय जानो॥२०॥

 

भावार्थ - इस संसार में जो अच्छे गुणों वाले पदार्थ हैं, वे दिव्य गुण कर्म और स्वभाव वाले होने से देवता कहाते हैं और जो देवताओं का देवता होने से महादेव सब का धारक, रचक, रक्षक सब की व्यवस्था और प्रलय करने हारा, सर्वशक्तिमान्, दयालु, न्यायकारी, उत्पत्ति धर्म से रहित है, उस सब के अधिष्टाता परमात्मा को सब मनुष्य जानें॥२०॥


मू॒र्द्धासि॒ राड् ध्रु॒वासि॑ ध॒रुणा॑ ध॒र्त्र्यसि॒ धर॑णी। आयु॑षे त्वा॒ वर्च॑से त्वा कृ॒ष्यै त्वा॒ क्षेमा॑य त्वा॥२१॥


विषय - विदुषी स्त्री कैसी हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

 

पदार्थ -

हे स्त्रि! जो तू सूर्य्य के तुल्य (मूर्द्धा) उत्तम (असि) है, (राट्) प्रकाशमान निश्चल के समान (ध्रुवा) निश्चल शुद्ध (असि) है, (धरुणा) पुष्टि करने हारी (धरणी) आधार रूप पृथिवी के तुल्य (धर्त्री) धारण करने हारी (असि) है, उस (त्वा) तुझे (आयुषे) जीवन के लिये, उस (त्वा) तुझे (वर्चसे) अन्न के लिये, उस (त्वा) तुझे (कृष्यै) खेती होने के लिये और उस (त्वा) तुझ को (क्षेमाय) रक्षा होने के लिये मैं सब ओर से ग्रहण करता हूं॥२१॥

 

भावार्थ - जैसे स्थित उत्तमांग शिर से सब का जीवन, राज्य से लक्ष्मी, खेती से अन्न आदि पदार्थ और निवास से रक्षा होती है, सो यह सब का आधारभूत माता के तुल्य मान्य करने हारी पृथिवी है, वैसे ही विद्वान् स्त्री को होना चाहिये॥२१॥


यन्त्री॒ राड् य॒न्त्र्यसि॒ यम॑नी ध्रु॒वासि॒ धरि॑त्री। 

इ॒षे त्वो॒र्जे त्वा॑ र॒य्यै त्वा॒ पोषा॑य त्वा॥२२॥


विषय - फिर स्त्री कैसी होवे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

 

पदार्थ -

हे स्त्रि! जो तू (यन्त्री) यन्त्र के तुल्य स्थित (राट्) प्रकाशयुक्त (यन्त्री) यन्त्र का निमित्त पृथिवी के समान (असि) है, (यमनी) आकर्षण शक्ति से नियमन करने हारी (ध्रुवा) आकाश-सदृश दृढ़ निश्चल (धरित्री) सब शुभगुणों का धारण करने वाली (असि) है, (त्वा) तुझ को (इषे) इच्छा सिद्धि के लिये (त्वा) तुझ को (ऊर्जे) पराक्रम की प्राप्ति के लिये (त्वा) तुझ को (रय्यै) लक्ष्मी के लिये और (त्वा) तुझ को (पोषाय) पुष्टि होने के लिये मैं ग्रहण करता हूं॥२२॥

 

भावार्थ - जो स्त्री पृथिवी के समान क्षमायुक्त, आकाश के समान निश्चल और यन्त्रकला के तुल्य जितेन्द्रिय होती है, वह कुल का प्रकाश करने वाली है॥२२॥


आ॒शुस्त्रि॒वृद्भा॒न्तः प॑ञ्चद॒शो व्यो॑मा सप्तद॒शो ध॒रुण॑ऽ एकवि॒शः प्रतू॑र्त्तिरष्टाद॒शस्तपो॑ नवद॒शोऽभीव॒र्त्तः स॑वि॒शो वर्चो॑ द्वावि॒शः स॒म्भर॑णस्त्रयोवि॒शो योनि॑श्चतुर्वि॒शो गर्भाः॑ पञ्चवि॒शऽ ओज॑स्त्रिण॒वः क्रतु॑रेकत्रि॒शः प्र॑ति॒ष्ठा त्र॑यस्त्रि॒शो ब्र॒ध्नस्य॑ वि॒ष्टपं॑ चतुस्त्रि॒शो नाकः॑ षट्त्रि॒शो वि॑व॒र्तोऽष्टाचत्वारि॒शो ध॒र्त्रं च॑तुष्टो॒मः॥२३॥


 

विषय - अब संवत्सर कैसा है, यह विषय अगने मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे मनुष्यो! तुम लोग इस वर्त्तमान संवत् में (आशुः) शीघ्र (त्रिवृत्) शीत और उष्ण के बीच वर्त्तमान (भान्तः) प्रकाश (पञ्चदशः) पन्द्रह प्रकार का (व्योमा) आकाश के समान विस्तारयुक्त (सप्तदशः) सत्रह प्रकार का (धरुणः) धारण गुण (एकविंशः) इक्कीस प्रकार का (प्रतूर्त्तिः) शीघ्र गति वाला (अष्टादशः) अठारह प्रकार का (तपः) सन्तापी गुण (नवदशः) उन्नीस प्रकार का (अभीवर्त्तः) सम्मुख वर्त्तने वाला गुण (सविंशः) इक्कीस प्रकार की (वर्चः) दीप्ति (द्वाविंशः) बाईस प्रकार का (सम्भरणः) अच्छे प्रकार धारणकारक गुण (त्रयोविंशः) तेईस प्रकार का (योनिः) संयोग-वियोगकारी गुण (चतुर्विंशः) चौबीस प्रकार की (गर्भाः) गर्भ धारण की शक्ति (पञ्चविंशः) पच्चीस प्रकार का (ओजः) पराक्रम (त्रिणवः) सत्ताईस प्रकार का (क्रतुः) कर्म्म वा बुद्धि (एकत्रिंशः) एकतीस प्रकार की (प्रतिष्ठा) सब की स्थिति का निमित्त क्रिया (त्रयस्त्रिंशः) तेंतीस प्रकार की (ब्रध्नस्य) बड़े ईश्वर की (विष्टपम्) व्याप्ति (चतुस्ंित्रशः) चौंतीस प्रकार का (नाकः) आनन्द (षट्त्रिंशः) छत्तीस प्रकार का (विवर्त्तः) विविध प्रकार से वर्त्तन का आधार (अष्टाचत्वारिंशः) अड़तालीस प्रकार का (धर्त्रम्) धारण और (चतुष्टोमः) चार स्तुतियों का आधार है, उस को संवत्सर जानो॥२३॥

 

भावार्थ - जिस संवत्सर के सम्बन्धी भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल आदि अवयव हैं, उस के सम्बन्ध से ही से सब संसार के व्यवहार होते हैं, ऐसा तुम लोग जानो॥२३॥

 

अ॒ग्नेर्भा॒गोऽसि दी॒क्षाया॒ऽ आधि॑पत्यं॒ ब्रह्म॑ स्पृ॒तं त्रि॒वृत्स्तोम॑ऽ इन्द्र॑स्य भा॒गोऽसि॒ विष्णो॒राधि॑पत्यं क्ष॒त्र स्पृ॒तं प॑ञ्चद॒श स्तोमो॑ नृ॒चक्ष॑सां भा॒गोऽसि धा॒तुराधि॑पत्यं ज॒नित्र॑ स्पृ॒त स॑प्तद॒श स्तोमो॑ मि॒त्रस्य॑ भा॒गोऽसि॒ वरु॑ण॒स्याधि॑पत्यं दि॒वो वृष्टि॒र्वात॑ स्पृ॒तऽ ए॑कवि॒श स्तोमः॑॥२४॥


विषय - अब मनुष्य किस प्रकार विद्या पढ़ के कैसा आचरण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे विद्वान् पुरुष! जो तू (अग्नेः) सूर्य्य का (भागः) विभाग के योग्य संवत्सर के तुल्य (असि) है, सो तू (दीक्षायाः) ब्रह्मचर्य्य आदि की दीक्षा का (स्पृतम्) प्रीति से सेवन किये हुए (आधिपत्यम्) (ब्रह्म) ब्रह्मज्ञ कुल के अधिकार को प्राप्त हो, जो (त्रिवृत्) शरीर, वाणी और मानस साधनों से शुद्ध वर्त्तमान (स्तोमः) स्तुति के योग्य (इन्द्रस्य) बिजुली वा उत्तम ऐश्वर्य के (भागः) विभाग के तुल्य (असि) है, सो तू (विष्णोः) व्यापक ईश्वर के (स्पृतम्) प्रीति से सेवने योग्य (क्षत्रम्) क्षत्रियों के धर्म के अनुकूल राजकुल के (आधिपत्यम्) अधिकार को प्राप्त हो, जो तू (पञ्चदशः) पन्द्रह का पूरक (स्तोमः) स्तुतिकर्त्ता (नृचक्षसाम्) मनुष्यों से कहने योग्य पदार्थों के (भागः) विभाग के तुल्य (असि) है, सो तू (धातुः) धारणकर्त्ता के (स्पृतम्) ईप्सित (जनित्रम्) जन्म और (आधिपत्यम्) अधिकार को प्राप्त हो, जो तू (सप्तदशः) सत्रह संख्या का पूरक (स्तोमः) स्तुति के योग्य (मित्रस्य) प्राण का (भागः) विभाग के समान (असि) है, सो तू (वरुणस्य) श्रेष्ठ जलों के (आधिपत्यम्) स्वामीपन को प्राप्त हो, जो तू (वातः स्पृतः) सेवित पवन और (एकविंशः) इक्कीस संख्या का पूरक (स्तोमः) स्तुति के साधन के समान (असि) है, सो तू (दिवः) प्रकाशरूप सूर्य्य से (वृष्टिः) वर्षा होने का हवन आदि उपाय कर॥२४॥

 

भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पुरुष बाल्यावस्था से लेकर सज्जनों ने उपदेश की हुई विद्याओं के ग्रहण के लिये प्रयत्न कर के अधिकारी होते हैं, वे स्तुति के योग्य कर्मों को कर और उत्तम हो के विधान के सहित काल को जान के दूसरों को जनावें॥२४॥


वसू॑नां भा॒गोऽसि रु॒द्राणा॒माधि॑पत्यं॒ चतु॑ष्पात् स्पृ॒तं च॑तुर्वि॒श स्तोम॑ऽ आ॒दि॒त्यानां॑ भा॒गोऽसि म॒रुता॒माधि॑पत्यं॒ गर्भा॑ स्पृ॒ताः पं॑चवि॒श स्तोमो॑ऽदि॑त्यै भा॒गोऽसि॒ पू॒ष्णऽ आधि॑पत्य॒मोज॑ स्पृ॒तं त्रि॑ण॒व स्तोमो॑ दे॒वस्य॑ सवि॒तुर्भा॒गोऽसि॒ बृह॒स्पते॒राधि॑पत्य स॒मीची॒र्दिश॑ स्पृ॒ताश्च॑तुष्टो॒म स्तोमः॑॥२५॥


विषय - फिर भी पूर्वोक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे विद्वान्! जो तू (वसूनाम्) अग्नि आदि आठ वा प्रथम कक्षा के विद्वानों का (भागः) सेवने योग्य (असि) है, सो (रुद्राणाम्) दश प्राण आदि ग्यारहवां जीव वा मध्यकक्षा के विद्वानों के (आधिपत्यम्) अधिकार को प्राप्त हो, जो (चतुर्विंशः) चौबीस प्रकार का (स्तोमः) स्तुतिकर्त्ता (आदित्यानाम्) बारह महीनों वा उत्तम कक्षा के विद्वानों के (भागः) सेवने योग्य (असि) है, सो तू (चतुष्पात्) गौ आदि पशुओं का (स्पृतम्) सेवन कर (मरुताम्) मनुष्य वा पशुओं के (आधिपत्यम्) अधिष्ठाता हो, जो तू (पञ्चविंशः) पच्चीस प्रकार का (स्तोमः) स्तुति के योग्य (अदित्यै) अखण्डित आकाश का (भागः) विभाग के तुल्य (असि) है, सो तू (पूष्णः) पुष्टिकारक पृथिवी से (स्पृतम्) सेवने योग्य (ओजः) बल को प्राप्त हो के (आधिपत्यम्) अधिकार को (प्राप्नुहि) प्राप्त हो, जो तू (त्रिणवः) सत्ताईस प्रकार का (स्तोमः) स्तुति के योग्य (देवस्य) सुखदाता (सवितुः) पिता का (भागः) विभाग (असि) है, सो तू (बृहस्पतेः) बड़ी वेदरूपी वाणी के पालक ईश्वर के दिये हुए (आधिपत्यम्) अधिकार को प्राप्त हो, जो तू (चतुष्टोमः) चार वेदों से कहने योग्य स्तुतिकर्त्ता है, सो तू (गर्भाः) गर्भ के तुल्य विद्या और शुभ गुणों से आच्छादित (स्पृताः) प्रीतिमान् सज्जन लोग जिन को जानते हैं, उन (समीचीः) सम्यक् प्राप्ति के साधन (स्पृताः) प्रीति का विषय (दिशः) पूर्व दिशाओं को जान॥२५॥

 

भावार्थ - जो सुन्दर स्वभाव आदि गुणों का ग्रहण करते हैं, वे विद्वानों के प्यारे होके सब के अधिष्ठाता होते हैं और जो सब के ऊपर अधिकारी हों, वे मनुष्यों में पिता के समान वर्त्तें॥२५॥

 

यवा॑नां भा॒गोऽस्यय॑वाना॒माधि॑पत्यं प्र॒जा स्पृ॒ताश्च॑तुश्चत्वारि॒श स्तोम॑ऽ ऋभू॒णां भा॒गोऽसि॒ विश्वे॑षां दे॒वाना॒माधि॑पत्यं भू॒त स्पृ॒तं त्र॑यस्त्रि॒श स्तोमः॑॥२६॥

 

विषय - फिर वह शरद् ऋतु में कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे मनुष्य! जो तू (यवानाम्) मिले हुए पदार्थों का (भागः) सेवन करने हारा शरद् ऋतु के समान (असि) है, जो (अयवानाम्) पृथक्-पृथक् धर्म वाले पदार्थों के (आधिपत्यम्) अधिकार को प्राप्त होकर प्रीति से (प्रजाः) पालने योग्य प्रजाओं को (स्पृताः) प्रेमयुक्त करता है, जो (चतुश्चत्वारिंशः) चवालीस संख्या का पूर्ण करने वाला (स्तोमः) स्तुति के योग्य (ऋभूणाम्) बुद्धिमानों के (भागः) सेवने योग्य (असि) है, (विश्वेषाम्) सब (देवानाम्) विद्वानों के (भूतम्) हो चुके (स्पृतम्) सेवन किये हुए (आधिपत्यम्) अधिकार को प्राप्त होकर जो (त्रयस्ंित्रशः) तेंतीस संख्या का पूरक (स्तोमः) स्तुति के विषय के समान (असि) है, सो तू हम लोगों से सत्कार के योग्य है॥२६॥

 

भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो ये पीछे के मन्त्र में शरद् ऋतु के गुण कहे हैं, उन को यथावत् सेवन करें। यह शरद् ऋतु का व्याख्यान पूरा हुआ॥२६॥


सह॑श्च सह॒स्यश्च॒ हैम॑न्तिकावृ॒तूऽ अ॒ग्नेर॑न्तःश्ले॒षोऽसि॒ कल्पे॑तां॒ द्यावा॑पृथि॒वी कल्प॑न्ता॒माप॒ऽ ओष॑धयः॒ कल्प॑न्ताम॒ग्नयः॒ पृथ॒ङ् मम॒ ज्यैष्ठ्या॑य॒ सव्र॑ताः। येऽ अ॒ग्नयः॒ सम॑नसोऽन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वीऽ इ॒मे। हैम॑न्तिकावृ॒तूऽ अ॑भि॒कल्प॑माना॒ऽ इन्द्र॑मिव दे॒वाऽ अ॑भि॒संवि॑शन्तु॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वे सी॑दतम्॥२७॥


विषय - अब हेमन्त ऋतु के विधान को अगले मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे मित्रजन! जो (मम) मेरे (ज्यैष्ठ्याय) वृद्ध श्रेष्ठ जनों के होने के लिये (सहः) बलकारी अगहन (च) और (सहस्यः) बल में प्रवृत्त हुआ पौष (च) ये दोनों महीने (हैमन्तिकौ) (ऋतू) हेमन्त ऋतु में हुए अपने चिह्न जानने वाले (अङ्गिरस्वत्) उस ऋतु के प्राण के समान (सीदतम्) स्थिर हैं, जिस ऋतु के (अन्तःश्लेषः) मध्य में स्पर्श होता है, उस के समान तू (असि) है, सो तू उस ऋतु से (द्यावापृथिवी) आकाश और भूमि (कल्पेताम्) समर्थ हों, (आपः) जल और (ओषधयः) ओषधियां और (अग्नयः) सफेदाई से युक्त अग्नि (पृथक्) पृथक्-पृथक् (कल्पन्ताम्) समर्थ हों, ऐसा जान (ये) जो (अग्नयः) अग्नियों के तुल्य (अन्तरा) भीतर प्रविष्ट होने वाले (सव्रताः) नियमधारी (समनसः) अविरुद्ध विचार करने वाले लोग (इमे) इन (ध्रुवे) दृढ़ (द्यावापृथिवी) आकाश और भूमि को (कल्पन्ताम्) समर्थित करें, (इन्द्रमिव) ऐश्वर्य के तुल्य (हैमन्तिकौ) (ऋतू) हेमन्त ऋतु के दोनों महीनों को (अभिकल्पमानाः) सन्मुख होकर समर्थ करने वाले (देवाः) दिव्य गुण बिजुली के समान (अभिसंविशन्तु) आवेश करें। वे सज्जन लोग (तया) उस (देवतया) प्रकाशस्वरूप परमात्मा देव के साथ प्रेमबद्ध हो के नियम से आहार और विहार कर के सुखी हों॥२७॥

 

भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वानों को योग्य है कि यथायोग्य सुख के लिये हेमन्त ऋतु में पदार्थों का सेवन करें और वैसे ही दूसरों को भी सेवन करावें॥२७॥

 

एक॑यास्तुवत प्र॒जाऽ अ॑धीयन्त प्र॒जाप॑ति॒रधि॑पतिरासीत्। ति॒सृभि॑रस्तुवत॒ ब्रह्मा॑सृज्यत॒ ब्रह्म॑ण॒स्पति॒रधि॑पतिरासीत्। प॒ञ्चभि॑रस्तुवत भू॒तान्य॑सृज्यन्त भू॒तानां॒ पति॒रधि॑पतिरासीत्। स॒प्तभि॑रस्तुवत सप्तऽ ऋ॒षयो॑ऽसृज्यन्त धा॒ताधि॑पतिरासीत्॥२८॥


विषय - अब यह ऋतुओं का चक्र किसने रचा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे मनुष्यो! जो (प्रजापतिः) प्रजा का पालक (अधिपतिः) सब का अध्यक्ष परमेश्वर (आसीत्) है, उस की (एकया) एक वाणी से (अस्तुवत) स्तुति करो और जिस से सब (प्रजाः) प्रजा के लोगों को वेद द्वारा (अधीयन्त) विद्यायुक्त किये हैं, जो (ब्रह्मणस्पतिः) वेद का रक्षक (अधिपतिः) सब का स्वामी परमात्मा (आसीत्) है, जिस ने यह (ब्रह्म) सकल विद्यायुक्त वेद को (असृज्यत) रचा है, उस की (तिसृभिः) प्राण, उदान और व्यान वायु की गति से (अस्तुवत) स्तुति करो, जिसने (भूतानि) पृथिवी आदि भूतों को (असृज्यन्त) रचा है, जो (भूतानाम्) सब भूतों का (पतिः) रक्षक (अधिपतिः) रक्षकों का भी रक्षक (आसीत्) है, उस की सब मनुष्य (पञ्चभिः) समान वायु, चित्त, बुद्धि, अहंकार और मन से (अस्तुवत) स्तुति करें, जिस ने (सप्त ऋषयः) पांच मुख्य प्राण, महत्तत्व समष्टि और अहंकार सात पदार्थ (असृज्यन्त) रचे हैं, जो (धाता) धारण वा पोषणकर्त्ता (अधिपतिः) सब का स्वामी (आसीत्) है, उस की (सप्तभिः) नाग, कूर्म्म, कृकल, देवदत्त धनञ्जय, और इच्छा तथा प्रयत्नों से (अस्तुवत) स्तुति करो॥२८॥

 

भावार्थ - सब मनुष्यों को योग्य है कि सब जगत् के उत्पादक न्यायकर्त्ता परमात्मा की स्तुति कर, सुनें विचारें और अनुभव करें। जैसे हेमन्त ऋतु में सब पदार्थ शीतल होते हैं, वैसे ही परमेश्वर की उपासना करके शान्तिशील होवें॥२८॥


न॒वभि॑रस्तुवत पि॒तरो॑ऽसृज्य॒न्तादि॑ति॒रधि॑पत्न्यासीत्। एकाद॒शभि॑रस्तुवतऽ ऋ॒तवो॑ऽसृज्यन्तार्त्त॒वाऽ अधि॑पतयऽआसन्। त्रयोद॒शभि॑रस्तुवत॒ मासा॑ऽ असृज्यन्त संवत्स॒रोऽधि॑पतिरासीत्। पञ्चद॒शभि॑रस्तुवत क्ष॒त्रम॑सृज्य॒तेन्द्रोऽधि॑पतिरासीत्। सप्तद॒शभि॑रस्तुवत ग्रा॒म्याः प॒शवो॑ऽसृज्यन्त॒ बृह॒स्पति॒रधि॑पतिरासीत्॥२९॥


विषय - फिर वह जगत् का रचने वाला कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

 

पदार्थ -

हे मनुष्यो! तुम लोग जिस ने (पितरः) रक्षक मनुष्य (असृज्यन्त) उत्पन्न किये हैं, जहां (अदितिः) रक्षा के योग्य (अधिपत्नी) अत्यन्त रक्षक माता (आसीत्) होवे, उस परमात्मा की (नवभिः) नव प्राणों से (अस्तुवत) गुण प्रशंसा करो, जिस ने (ऋतवः) वसन्त आदि ऋतु (असृज्यन्त) रचे हैं, जहां (आर्त्तवाः) उन-उन ऋतुओं के गुण (अधिपतयः) अपने-अपने विषय में अधिकारी (आसन्) होते हैं, उस की (एकादशभिः) दश प्राणों और ग्यारहवें आत्मा से (अस्तुवत) स्तुति करो, जिस ने (मासाः) चैत्रादि बारह महीने (असृज्यन्त) रचे हैं, (पञ्चदशभिः) पन्द्रह तिथियों के सहित (संवत्सरः) संवत्सर (अधिपतिः) सब काल का अधिकारी रचा (आसीत्) है, उस की (त्रयोदशभिः) दश प्राण, ग्यारहवां जीवात्मा और दो प्रतिष्ठाओं से (अस्तुवत) स्तुति करो, जिन से (इन्द्रः) परम सम्पत्ति का हेतु सूर्य्य (अधिपतिः) अधिष्ठाता उत्पन्न किया (आसीत्) है, जिसने (क्षत्रम्) राज्य वा क्षत्रियकुल को (असृज्यत) रचा है, उस को (सप्तदशभिः) दश पांव की अंगुली, दो जंघा, दो जानु, दो प्रतिष्ठा और एक नाभि से ऊपर का अंग- इन सत्रहों से (अस्तुवत) स्तुति करो, जिस ने (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े पदार्थों का रक्षक वैश्य (अधिपतिः) अधिकारी रचा (आसीत्) है और (ग्राम्याः) ग्राम के (पशवः) गौ आदि पशु (असृज्यन्त) रचे हैं, उस परमेश्वर की पूर्वोक्त सब पदार्थों से युक्त होके (अस्तुवत) स्तुति करो॥२९॥

 

भावार्थ - हे मनुष्यो! आप लोग जिसने ऋतु आदि प्रजा के रक्षक और रक्षा के योग्य पदार्थ इस जगत् में रचे हैं और जिसने काल के विभाग करने वाले सूर्य्य आदि पदार्थ रचे हैं, उस परमेश्वर की उपासना करो॥२९॥


न॒व॒द॒शभि॑रस्तुवत शूद्रा॒र्य्याव॑सृज्येतामहोरा॒त्रेऽ अधि॑पत्नीऽ आस्ता॒म्। एक॑विशत्यास्तुव॒तैक॑शफाः प॒शवो॑ऽसृज्यन्त॒ वरु॒णोऽधि॑पतिरासी॒त्। त्रयो॑विशत्यास्तुवत क्षु॒द्राः प॒शवो॑ऽसृज्यन्त पू॒षाधि॑पतिरासी॒त्। पञ्च॑विशत्यास्तुवताऽऽर॒ण्याः प॒शवो॑ऽसृज्यन्त वा॒युरधि॑पतिरासीत्। स॒प्तवि॑शत्यास्तुवत॒ द्यावा॑पृथि॒वी व्यै॑तां॒ वस॑वो रु॒द्रोऽ आ॑दि॒त्याऽ अ॑नु॒व्यायँ॒स्तऽ ए॒वाधि॑पतयऽ आसन्॥३०॥


विषय - फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे मनुष्यो! तुम जिससे उत्पन्न हुए (अहोरात्रे) दिन और रात्रि (अधिपत्नी) सब काम कराने के अधिकारी (आस्ताम्) हैं, जिस ने (शूद्रार्य्यौ) शूद्र और आर्य्य द्विज ये दोनों (असृज्येताम्) रचे हैं, उस की (नवदशभिः) दश प्राण, पांच महाभूत, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकारों से (अस्तुवत) स्तुति करो। जिसने उत्पन्न किया (वरुणः) जल (अधिपतिः) प्राण के समान प्रिय अधिष्ठाता (आसीत्) है, जिस ने (एकशफाः) जुड़े एक खुरों वाले घोड़े आदि (पशवः) पशु (असृज्यन्त) रचे हैं, उस की (एकविंशत्या) मनुष्यों के इक्कीस अवयवों से (अस्तुवत) स्तुति करो, जिसने बनाया (पूषा) पुष्टिकारक भूगोल (अधिपतिः) रक्षा करने वाला (आसीत्) है, जिस ने (क्षुद्राः) अतिसूक्ष्म जीवों से लेकर नकुल पर्य्यन्त (पशवः) पशु (असृज्यन्त) रचे हैं, उस की (त्रयोविंशत्या) पशुओं के तेईस अवयवों से (अस्तुवत) स्तुति करो। जिसने बनाया हुआ (वायुः) वायु (अधिपतिः) पालने हारा (आसीत्) है, जिसने (आरण्याः) वन के (पशवः) सिंह आदि पशु (असृज्यन्त) रचे हैं, (पञ्चविंशत्या) अनेकों प्रकार के छोटे-छोटे वन्य पशुओं के अवयवों के साथ अर्थात् उन अवयवों की कारीगरी के साथ (अस्तुवत) प्रशंसा करो, जिसने बनाये (द्यावापृथिवी) आकाश और भूमि (व्यैताम्) प्राप्त हैं, जिस के बनाने से (वसवः) अग्नि आदि आठ पदार्थ वा प्रथम कक्षा के विद्वान् (रुद्राः) प्राण आदि वा मध्यम विद्वान् (आदित्याः) बारह महीने वा उत्तम विद्वान् (अनुव्यायन्) अनुकूलता से उत्पन्न हैं, (ते) (एव) वे अग्नि आदि ही वा विद्वान् लोग (अधिपतयः) अधिष्ठाता (आसन्) होते हैं, उस की (सप्तविंशत्या) सत्ताईस वन के पशुओं के गुणों से (अस्तुवत) स्तुति करो॥३०॥

 

भावार्थ - हे मनुष्यो! जिसने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र डाकू मनुष्य भी रचे हैं, जिसने स्थूल तथा सूक्ष्म प्राणियों के शरीर अत्यन्त छोटे पशु और इन की रक्षा के साधन पदार्थ रचे और जिसकी सृष्टि में न्यून विद्या और पूर्ण विद्या वाले विद्वान् होते हैं, उसी परमात्मा की तुम लोग उपासना करो॥३०॥

 

 

नव॑विशत्याऽस्तुवत॒ वन॒स्पत॑योऽसृज्यन्त॒ सोमोऽधि॑पतिरासी॒त्। एक॑त्रिशताऽस्तुवत प्र॒जाऽ अ॑सृज्यन्त॒ यवा॒श्चाय॑वा॒श्चाधि॑पतयऽआस॒न्। त्रय॑स्त्रिशताऽस्तुवत भू॒तान्य॑शाम्यन् प्र॒जाप॑तिः परमे॒ष्ठ्यधि॑पतिरासीत्॥३१॥


विषय - फिर भी वही उक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

 

पदार्थ -

हे मनुष्यो! तुम लोग जिस के बनाने से (सोमः) ओषधियों में उत्तम ओषधि (अधिपतिः) स्वामी (आसीत्) है, जिस ने उन (वनस्पतयः) पीपल आदि वनस्पतियों को (असृज्यन्त) रचा है, उस परमात्मा की (नवविंशत्या) उनतीस प्रकार के वनस्पतियों के गुणों से (अस्तुवत) स्तुति करो और जिस ने उत्पन्न किये (यवाः) समष्टिरूप बने पर्वत आदि (च) और त्रसरेणु आदि (अयवाः) भिन्न-भिन्न प्रकृति के अवयव सत्व, रजस् और तमोगुण (च) तथा परमाणु आदि (अधिपतयः) मुख्य कारण रूप अध्यक्ष (आसन्) हैं, उन (प्रजाः) प्रसिद्ध ओषधियों को जिस ने (असृज्यन्त) रचा है, उस ईश्वर की (एकत्रिंशता) इकत्तीस प्रजा के अवयवों से (अस्तुवत) प्रशंसा करो। जिसके प्रभाव से (भूतानि) प्रकृति के परिणाम महत्तत्व के उपद्रव (अशाम्यन्) शान्त हों, जो (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक (परमेष्ठी) परमेश्वर के समान आकाश में व्यापक हो के स्थित परमेश्वर (अधिपतिः) अधिष्ठाता (आसीत्) है, उसकी (त्रयस्ंत्रिशता) महाभूतों के तेतीस गुणों से (अस्तुवत) प्रशंसा करो॥३१॥

 

भावार्थ - जिस परमेश्वर ने लोकों की रक्षा के लिये वनस्पति आदि ओषधियों को रच के धारण और व्यवस्थित किया है, उसी की उपासना सब मनुष्यों को करनी चाहिये॥३१॥

 



यजुर्वेद अध्याय 13 मंत्र (51-58)                यजुर्वेद अध्याय 15 मंत्र (01-10) 

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