ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदगायत्री स्वरः - षड्जः
अ॒यम॒ग्निः स॑ह॒स्रिणो॒ वाज॑स्य श॒तिन॒स्पतिः॑। मू॒र्धा क॒वी र॑यी॒णाम्॥२१॥
विषय - फिर मनुष्य क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! (अयम्) यह (अग्निः) हेमन्त ऋतु में वर्त्तमान (सहस्रिणः) प्रशस्त असंख्य पदार्थों से युक्त (शतिनः) प्रशंसित गुणों के सहित अनेक प्रकार वर्त्तमान (वाजस्य) अन्न तथा (रयीणाम्) धनों का (पतिः) रक्षक (मूर्द्धा) उत्तम अङ्ग के तुल्य (कविः) समर्थ है, वैसे ही तुम लोग भी हो॥२१॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्या और युक्ति से सेवन किया अग्नि बहुत अन्न धन प्राप्त कराता है, वैसे ही सेवन किया पुरुषार्थ मनुष्यों को ऐश्वर्यवान् कर देता है॥२१॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदगायत्री स्वरः - षड्जः
त्वाम॑ग्ने॒ पुष्क॑रा॒दध्यथ॑र्वा॒ निर॑मन्थत। मू॒र्ध्नो विश्व॑स्य वा॒घतः॑॥२२॥
विषय - फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (अग्ने) विद्वन्! जैसे (अथर्वा) रक्षक (वाघतः) अच्छी शिक्षित वाणी से अविद्या का नाश करने हारा बुद्धिमान् विद्वान् पुरुष (पुष्करात्) अन्तरिक्ष के (अधि) बीच तथा (मूर्ध्नः) शिर के तुल्य वर्त्तमान (विश्वस्य) सम्पूर्ण जगत् के बीच अग्नि को (निरमन्थत) निरन्तर मन्थन करके ग्रहण करे, वैसे ही (त्वाम्) तुझ को मैं बोध कराता हूं॥२२॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों के समान आकाश तथा पृथिवी के सकाश से बिजुली का ग्रहण कर आश्चर्य रूप कर्मों को सिद्ध करें॥२२॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
भुवो॑ य॒ज्ञस्य॒ रज॑सश्च ने॒ता यत्रा॑ नि॒युद्भिः॒ सच॑से शि॒वाभिः॑। दि॒वि मू॒र्धानं॑ दधिषे स्व॒र्षां जि॒ह्वाम॑ग्ने चकृषे हव्य॒वाह॑म्॥२३॥
विषय - फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (अग्ने) विद्वन्! जैसे यह प्रत्यक्ष अग्नि (नियुद्भिः) संयोग-विभाग कराने हारी क्रिया तथा (शिवाभिः) मङ्गलकारिणी दीप्तियों के साथ वर्त्तमान (भुवः) प्रगट हुए (यज्ञस्य) कार्यों के साधक संगत व्यवहार (च) और (रजसः) लोकसमूह को (नेता) आकर्षण करता हुआ सम्बन्ध कराता है और (यत्र) जिस (दिवि) प्रकाशमान अपने स्वरूप में (मूर्द्धानम्) उत्तमाङ्ग के तुल्य वर्त्तमान सूर्य को धारण करता तथा (हव्यवाहम्) ग्रहण करने तथा देने योग्य रसों को प्राप्त कराने वाली (स्वर्षाम्) सुखदायक (जिह्वाम्) वाणी को (चकृषे) प्रवृत्त करता है, वैसे तू शुभ गुणों के साथ (सचसे) युक्त होता और सब विद्याओं को (दधिषे) धारण कराता है॥२३॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ईश्वर ने नियुक्त किया हुआ अग्नि सब जगत् को सुखकारी होता है, वैसे ही विद्या के ग्राहक अध्यापक लोग सब मनुष्यों को सुखकारी होते हैं, ऐसा सब को जानना चाहिये॥२३॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
अबो॑ध्य॒ग्निः स॒मिधा॒ जना॑नां॒ प्रति॑ धे॒नुमिवाय॒तीमु॒षास॑म्। य॒ह्वाऽइ॑व॒ प्र व॒यामु॒ज्जिहा॑नाः॒ प्र भा॒नवः॑ सिस्रते॒ नाक॒मच्छ॑॥२४॥
विषय - फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे (समिधा) प्रज्वलित करने के साधनों से यह (अग्निः) अग्नि (अबोधि) प्रकाशित होता है, (आयतीम्) प्राप्त होते हुए (उषासम्) प्रभात समय के (प्रति) समीप (जनानाम्) मनुष्यों की (धेनुमिव) दूध देने वाली गौ के समान है। जिस अग्नि के (यह्वा इव) महान् धार्मिक जनों के समान (प्र) उत्कृष्ट (वयाम्) व्यापक सुख की नीति को (उज्जिहानाः) अच्छे प्रकार प्राप्त करते हुए (प्र) उत्तम (भानवः) किरण (नाकम्) सुख को (अच्छ) अच्छे प्रकार (सिस्रते) प्राप्त करते हैं, उस को तुम लोग सुखार्थ संयुक्त करो॥२४॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे दुग्ध देने वाली सेवन की हुई गौ दुग्धादि पदार्थों से प्राणियों को सुखी करती है और जैसे आप्त विद्वान् विद्यादान से अविद्या का निवारण कर मनुष्यों की उन्नति करते हैं, वैसे ही यह अग्नि है, ऐसा जानना चाहिये॥२४॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
अवो॑चाम क॒वये॒ मेध्या॑य॒ वचो॑ व॒न्दारु॑ वृष॒भाय॒ वृष्णे॑। गवि॑ष्ठिरो॒ नम॑सा॒ स्तोम॑म॒ग्नौ दि॒वीव रु॒क्ममु॑रु॒व्यञ्च॑मश्रेत्॥२५॥
विषय - फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हम लोग जैसे (गविष्ठिरः) किरणों में रहने वाली विद्युत् (दिवीव) सूर्यप्रकाश के समान (उरुव्यञ्चम्) विशेष करके बहुतों में गमनशील (रुक्मम्) सूर्य का (अश्रेत्) आश्रय करती है, वैसे (मेध्याय) सब शुभ लक्षणों से युक्त पवित्र (वृषभाय) बली (वृष्णे) वर्षा के हेतु (कवये) बुद्धिमान् के लिये (वन्दारु) प्रशंसा के योग्य (वचः) वचन को और (अग्नौ) जाठराग्नि में (नमसा) अन्न आदि से (स्तोमम्) प्रशस्त कार्यों को (अवोचाम) कहें॥२५॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। विद्वानों को चाहिये कि सुशील शुद्धबुद्धि विद्यार्थी के लिये परम प्रयत्न से विद्या देवें, जिससे वह विद्या पढ़ के सूर्य के प्रकाश में घट-पटादि को देखते हुए के समान सब को यथावत् जान सके॥२५॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
अ॒यमि॒ह प्र॑थ॒मो धा॑यि धा॒तृभि॒र्होता॒ यजि॑ष्ठोऽअध्व॒रेष्वीड्यः॑। यमप्न॑वानो॒ भृग॑वो विरुरु॒चुर्वने॑षु चि॒त्रं वि॒भ्वं वि॒शेवि॑शे॥२६॥
विषय - फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
जो (इह) इस जगत् में (अध्वरेषु) रक्षा के योग्य व्यवहारों में (ईड्यः) खोजने योग्य (यजिष्ठः) अतिशय करके यज्ञ का साधक (होता) घृतादि का ग्रहणकर्त्ता (प्रथमः) सर्वत्र विस्तृत (अयम्) यह प्रत्यक्ष अग्नि (धातृभिः) धारणशील पुरुषों ने (धायि) धारण किया है, (यम्) जिस को (वनेषु) किरणों में (चित्रम्) आश्चर्यरूप से (विभ्वम्) व्यापक अग्नि को (विशेविशे) समस्त प्रजा के लिये (अप्नवानः) रूपवान् (भृगवः) पूर्णज्ञानी (विरुरुचुः) विशेष करके प्रकाशित करते हैं, उस अग्नि को सब मनुष्य स्वीकार करें॥२६॥
भावार्थ - विद्वान् लोग अग्निविद्या को आप धारके दूसरों को सिखावें॥२६॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी जगती स्वरः - निषादः
जन॑स्य गो॒पाऽअ॑जनिष्ट॒ जागृ॑विर॒ग्निः सु॒दक्षः॑ सुवि॒ताय॒ नव्य॑से। घृ॒तप्र॑तीको बृह॒ता दि॑वि॒स्पृशा॑ द्यु॒मद्विभा॑ति भर॒तेभ्यः॒ शुचिः॑॥२७॥
विषय - फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जो (जनस्य) उत्पन्न हुए संसार का (गोपाः) रक्षक (जागृविः) जानने रूप स्वभाव वाला (सुदक्षः) सुन्दर बल का हेतु (घृतप्रतीकः) घृत से बढ़ने हारा (शुचिः) पवित्र (अग्निः) बिजुली (नव्यसे) अत्यन्त नवीन (सुविताय) उत्पन्न करने योग्य ऐश्वर्य के लिये (अजनिष्ट) प्रकट हुआ है और (बृहता) बड़े (दिविस्पृशा) प्रकाश में स्पर्श से (भरतेभ्यः) सूर्यों से (द्युमत्) प्रकाशयुक्त हुआ (विभाति) शोभित होता है, उस को तुम लोग जानो॥२७॥
भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि जो ऐश्वर्य्यप्राप्ति का विशेष कारण सृष्टि के सूर्यों का निमित्त बिजुली रूप तेज है, उसको जान के उपकार लिया करें॥२७॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडार्षी जगती स्वरः - निषादः
त्वाम॑ग्ने॒ऽअङ्गि॑रसो॒ गुहा॑ हि॒तमन्व॑विन्दञ्छिश्रिया॒णं वने॑वने। स जा॑यसे म॒थ्यमा॑नः॒ सहो॑ म॒हत् त्वामा॑हुः॒ सह॑सस्पु॒त्रम॑ङ्गिरः॥२८॥
विषय - फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (अङ्गिरः) प्राणवत्प्रिय (अग्ने) विद्वन्! जैसे (सः) वह (मथ्यमानः) मथन किया हुआ अग्नि प्रसिद्ध होता है, वैसे तू विद्या से (जायसे) प्रकट होता है, जिस को (महत्) बड़े (सहः) बलयुक्त (सहसः) बलवान् वायु से (पुत्रम्) उत्पन्न हुए पुत्र के तुल्य (वनेवने) किरण-किरण वा पदार्थ-पदार्थ में (शिश्रियाणम्) आश्रित (गुहा) बुद्धि में (हितम्) स्थित हितकारी (त्वाम्) उस अग्नि को (आहुः) कहते हैं, (अङ्गिरसः) विद्वान् लोग (अन्वविन्दन्) प्राप्त होते हैं, उसका बोध (त्वाम्) तुझे कराता हूँ॥२८॥
भावार्थ - अग्नि दो प्रकार का होता है-एक मानस और दूसरा बाह्य। इस में आभ्यन्तर को युक्त आहार-विहारों से और बाह्य को मन्थनादि से सब विद्वान् सेवन करें, वैसे इतर जन भी सेवन किया करें॥२८॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडनुष्टुप्स्व रः - गान्धारः
सखा॑यः॒ सं वः॑ स॒म्यञ्च॒मिष॒ꣳस्तोमं॑ चा॒ग्नये॑। वर्षि॑ष्ठाय क्षिती॒नामू॒र्जो नप्त्रे॒ सह॑स्वते॥२९॥
विषय - मनुष्य लोग कैसे होके अग्नि को जानें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (सखायः) मित्रो! (क्षितीनाम्) मननशील मनुष्य (वः) तुम्हारे (ऊर्जः) बल के (नप्त्रे) पौत्र के तुल्य वर्त्तमान (सहस्वते) बहुत बल वाले (वर्षिष्ठाय) अत्यन्त बड़े (अग्नये) अग्नि के लिये जिस (सम्यञ्चम्) सुन्दर सत्कार के हेतु (इषम्) अन्न को (च) और (स्तोमम्) स्तुतियों को (समाहुः) अच्छे प्रकार कहते हैं, वैसे तुम लोग भी उस का अनुष्ठान करो॥२९॥
भावार्थ - यहां पूर्व मन्त्र से (आहुः) इस पद की अनुवृत्ति आती है। कारीगरों को चाहिये कि सब के मित्र होकर विद्वानों के कथनानुसार पदार्थविद्या का अनुष्ठान करें। जो बिजुली कारणरूप बल से उत्पन्न होती है, वह पुत्र के तुल्य है, और जो सूर्य्यादि के सकाश से उत्पन्न होती है सो पौत्र के समान है, ऐसा जानना चाहिये॥२९॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
सꣳस॒मिद्यु॑वसे वृष॒न्नग्ने॒ विश्वा॑न्य॒र्य्यऽआ। इ॒डस्प॒दे समि॑ध्यसे॒ स नो॒ वसू॒न्याभ॑र॥३०॥
विषय - वैश्य को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (वृषन्) बलवन् (अग्ने) प्रकाशमान (अर्यः) वैश्य! जो तू (संसमायुवसे) सम्यक् अच्छे प्रकार सम्बन्ध करते हो (इडः) प्रशंसा के योग्य (पदे) प्राप्ति के योग्य अधिकार में (समिध्यसे) सुशोभित होते हो, (सः) सो तू (इत्) ही अग्नि के योग से (नः) हमारे लिये (विश्वानि) सब (वसूनि) धनों को (आभर) अच्छे प्रकार धारण कर॥३०॥
भावार्थ - राजाओं से रक्षा प्राप्त हुए वैश्य लोग अग्न्यादि विद्याओं से अपने और राजपुरुषों के लिये सम्पूर्ण धन धारण करें॥३०॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
त्वां चि॑त्रश्रवस्तम॒ हव॑न्ते वि॒क्षु ज॒न्तवः॑। शो॒चिष्के॑शं पुरुप्रि॒याग्ने॑ ह॒व्याय॒ वोढ॑वे॥३१॥
विषय - मनुष्य लोग अग्नि से क्या सिद्ध करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (पुरुप्रिय) बहुतों के प्रसन्न करने हारे वा बहुतों के प्रिय (चित्रश्रवस्तम) आश्चर्य्यरूप अन्नादि पदार्थों से युक्त (अग्ने) तेजस्वी विद्वन्! (विक्षु) प्रजाओं में (हव्याय) स्वीकार के योग्य अन्नादि उत्तम पदार्थों को (वोढवे) प्राप्ति के लिये जिस (शोचिष्केशम्) सुखाने वाली सूर्य की किरणों के तुल्य तेजस्वी (त्वाम्) आपको (जन्तवः) मनुष्य लोग (हवन्ते) स्वीकार करते हैं, उसी को हम लोग भी स्वीकार करते हैं॥३१॥
भावार्थ - मनुष्य को योग्य है कि जिस अग्नि को जीव सेवन करते हैं, उस से भार पहुँचाना आदि कार्य भी सिद्ध किया करें॥३१॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराड् बृहती स्वरः - मध्यमः
ए॒ना वो॑ऽअ॒ग्निं नम॑सो॒र्जो नपा॑त॒माहु॑वे। प्रि॒यं चेति॑ष्ठमर॒तिꣳस्व॑ध्व॒रं विश्व॑स्य दू॒तम॒मृत॑म्॥३२॥
विषय - फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे मैं (वः) तुम्हारे लिये (एना) उस पूर्वोक्त (नमसा) ग्रहण के योग्य अन्न से (नपातम्) दृढ़ स्वभाव (प्रियम्) प्रीतिकारक (चेतिष्ठम्) अत्यन्त चेतनता करानेहारे (अरतिम्) चेतनता रहित (स्वध्वरम्) अच्छे रक्षणीय व्यवहारों से युक्त (अमृतम्) कारणरूप से नित्य (विश्वस्य) सम्पूर्ण जगत् के (दूतम्) सब ओर चलनेहारे (अग्निम्) बिजुली को और (ऊर्जः) पराक्रमों को (आहुवे) स्वीकार करूँ, वैसे तुम लोग भी मेरे लिये ग्रहण करो॥३२॥
भावार्थ - हे मनुष्यो! हम लोग तुम्हारे लिये जो अग्नि आदि की विद्या प्रसिद्ध करें, उनको तुम लोग स्वीकार करो॥३२॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृद् बृहती स्वरः - मध्यमः
विश्व॑स्य दू॒तम॒मृतं॒ विश्व॑स्य दू॒तम॒मृत॑म्। स यो॑जतेऽअरु॒षा वि॒श्वभो॑जसा॒ स दु॑द्रव॒त् स्वाहुतः॥३३॥
विषय - फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे मैं (विश्वस्य) सब भूगोलों के (दूतम्) तपाने वाले सूर्य्यरूप (अमृतम्) कारणरूप से अविनाशिस्वरूप (विश्वस्य) सम्पूर्ण पदार्थों को (दूतम्) ताप से जलाने वाले (अमृतम्) जल में भी व्यापक कारणरूप अग्नि को स्वीकार करूं, वैसे (विश्वभोजसा) जगत् के रक्षक (अरुषा) रूपवान् सब पदार्थों के साथ वर्त्तमान है (सः) वह (योजते) युक्त करता है, जो (स्वाहुतः) अच्छे प्रकार ग्रहण किया हुआ (दुद्रवत्) शरीरादि में चलता है (सः) वह तुम लोगों को जानना चाहिये॥३३॥
भावार्थ - इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से (आहुवे) इस पद की अनुवृत्ति आती है तथा (विश्वस्य दूतममृतम्) इन तीन पदों की दो वार आवृत्ति से स्थूल और सूक्ष्म दो प्रकार के अग्नि का ग्रहण होता है। वह सब अग्नि कारणरूप से नित्य है, ऐसा जानना चाहिये॥३३॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्ष्युष्णिक् स्वरः - गान्धारः
स दु॑द्रव॒त् स्वाहुतः स दु॑द्रव॒त् स्वाहुतः। सु॒ब्रह्मा॑ य॒ज्ञः सु॒शमी॒ वसू॑नां दे॒वꣳराधो॒ जना॑नाम्॥३४॥
विषय - फिर वह कैसा हो यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! (सः) वह अग्नि (स्वाहुतः) अच्छे प्रकार बुलाये हुए मित्र के समान (दुद्रवत्) चलता है तथा (सः) वह (स्वाहुतः) अच्छे प्रकार निमन्त्रण किये विद्वान् के तुल्य (दुद्रवत्) जाता है, (सुब्रह्मा) अच्छे प्रकार चारों वेदों के ज्ञाता (यज्ञः) समागम के योग्य (सुशमी) अच्छे शान्तिशील पुरुष के समान जो (वसूनाम्) पृथिवी आदि वसुओं और (जनानाम्) मनुष्यों का (देवम्) अभीप्सित (राधः) धनरूप है, उस अग्नि को तुम लोग उपयोग में लाओ॥३४॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो वेगवान्, अन्य पदार्थों को वेग देने वाला, शान्तिकारक, पृथिव्यादि पदार्थों का प्रकाशक अग्नि है, उसका विचार क्यों न करना चाहिये॥३४॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः
अग्ने॒ वाज॑स्य॒ गोम॑त॒ऽईशा॑नः सहसो यहो। अ॒स्मे धे॑हि जातवेदो॒ महि॒ श्रवः॑॥३५॥
विषय - फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (सहसः) बलवान् पुरुष के (यहो) सन्तान! (जातवेदः) विज्ञान को प्राप्त हुए (अग्ने) तेजस्वी विद्वान् आप अग्नि के तुल्य (गोमतः) प्रशस्त गौ और पृथिवी से युक्त (वाजस्य) अन्न के (ईशानः) स्वामी समर्थ हुए (अस्मे) हमारे लिये (महि) बड़े (श्रवः) धन को (धेहि) धारण कीजिये॥३५॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। अच्छी रीति से उपयुक्त किया अग्नि बहुत धन देता है, ऐसा जानना चाहिये॥३५॥
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