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यजुर्वेद अध्याय 15 (36- 50)

ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः


सऽइ॑धा॒नो वसु॑ष्क॒विर॒ग्निरी॒डेन्यो॑ गि॒रा। रे॒वद॒स्मभ्यं॑ पुर्वणीक दीदिहि॥३६॥

 

विषय - फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (पुर्वणीक) बहुत सेना वाले राजपुरुष विद्वन्! (गिरा) वाणी से (ईडेन्यः) खोजने योग्य (वसुः) निवास का हेतु (कविः) समर्थ (इधानः) प्रदीप्त (सः) उस पूर्वोक्त (अग्निः) अग्नि के समान (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (रेवत्) प्रशंसित धनयुक्त पदार्थों को (दीदिहि) प्रकाशित कीजिये॥३६॥


भावार्थ - इस मन्त्र मे वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् को चाहिये कि अग्नि के गुण, कर्म और स्वभाव के प्रकाश से मनुष्यों के लिये ऐश्वर्य की उन्नति करे॥३६॥


ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता  छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः


क्ष॒पो रा॑जन्नु॒त त्मनाग्ने॒ वस्तो॑रु॒तोषसः॑। स ति॑ग्मजम्भ र॒क्षसो॑ दह॒ प्रति॑॥३७॥


विषय - फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (तिग्मजम्भ) तीक्ष्ण अवयवों के चलाने वाले (राजन्) प्रकाशमान (अग्ने) विद्वान् जन! (सः) सो पूर्वोक्त गुणयुक्त आप जैसे तीक्ष्ण तेजयुक्त अग्नि (क्षपः) रात्रियों (उत) और (वस्तोः) दिन के (उत) ही (उषसः) प्रभात और सायंकाल के प्रकाश को उत्पन्न करता है, वैसे (त्मना) तीक्ष्ण स्वभाव युक्त अपने आत्मा से (रक्षसः) दुष्ट जनों को रात्रि के समान (प्रतिदह) निश्चय करके भस्म कीजिये॥३७॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे प्रभात, दिन और रात्रि का निमित्त अग्नि को जानते हैं, वैसे राजा न्याय के प्रकाश और अन्याय की निवृत्ति का हेतु है, ऐसा जानें॥३७॥


ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः


भ॒द्रो नो॑ऽअ॒ग्निराहु॑तो भ॒द्रा रा॒तिः सु॑भग भ॒द्रो अ॑ध्व॒रः। भ॒द्राऽउ॒त प्रश॑स्तयः॥३८॥


विषय - फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (सुभग) सुन्दर ऐश्वर्य वाले विद्वान् पुरुष! जैसे (आहुतः) धर्म के तुल्य सेवन किया मित्ररूप (अग्निः) अग्नि (भद्रः) सेवने योग्य (भद्रा) कल्याणकारी (रातिः) दान (भद्रः) कल्याणकारी (अध्वरः) रक्षणीय व्यवहार (उत) और (भद्राः) कल्याण करने वाली (प्रशस्तयः) प्रशंसा होवें, वैसे आप (नः) हमारे लिये हूजिये॥३८॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जैसे विद्या से अच्छे प्रकार सेवन किये जगत् के पदार्थ सुखकारी होते हैं, वैसे आप्त विद्वान् लोगों को भी जानें॥३८॥


ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः


भ॒द्राऽउ॒त प्रश॑स्तयो भ॒द्रं मनः॑ कृणुष्व वृत्र॒तूर्य्ये॑। येना॑ स॒मत्सु॑ सा॒सहः॑॥३९॥


विषय - फिर वह विद्वान् कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (सुभग) शोभन सम्पत्ति वाले पुरुष! आप (येन) जिस से हमारे (वृत्रतूर्य्ये) युद्ध में (भद्रम्) कल्याणकारी (मनः) विचारशक्तियुक्त चित्त (उत) और (भद्राः) कल्याण करने हारी (प्रशस्तयः) प्रशंसा के योग्य प्रजा और जिस से (समत्सु) संग्रामों में (सासहः) अत्यन्त सहनशील वीर पुरुष हों, वैसा कर्म (कृणुष्व) कीजिये॥३९॥


भावार्थ - यहां (सुभग, नः) इन दो पदों की अनुवृत्ति पूर्व मन्त्र से आती है। विद्वान् राजा को चाहिये कि ऐसे कर्म का अनुष्ठान करे, जिस से प्रजा और सेना उत्तम हों॥३९॥


ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः


येना॑ स॒मत्सु॑ सा॒सहोऽव॑ स्थि॒रा त॑नुहि॒ भूरि॒ शर्ध॑ताम्। व॒नेमा॑ तेऽअ॒भिष्टि॑भिः॥४०॥


विषय - फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (सुभग) सुन्दर लक्ष्मीयुक्त पुरुष! आप (येन) जिस के प्रताप से हमारे (समत्सु) युद्धों में (सासहः) शीघ्र सहना हो उस को तथा (भूरि) बहुत प्रकार (शर्धताम्) बल करते हुए हमारे (स्थिरा) स्थिर सेना के साधनों को (अवतनुहि) अच्छे प्रकार बढ़ाइये (ते) आप की (अभिष्टिभिः) इच्छाओं के अनुसार वर्त्तमान हम लोग उस सेना के साधनों का (वनेम) सेवन करें॥४०॥


भावार्थ - यहां भी (सुभग, नः) इन दोनों पदों की अनुवृत्ति आती है। विद्वानों को उचित है कि बहुत बलयुक्त वीर पुरुषों का उत्साह नित्य बढ़ावें, जिससे ये लोग उत्साही हुए राजा और प्रजा के हितकारी काम किया करें॥४०॥


ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः 


अ॒ग्निं तं म॑न्ये॒ यो वसु॒रस्तं॒ यं य॑न्ति धे॒नवः॑। अस्त॒मर्व॑न्तऽआ॒शवोऽस्तं॒ नित्या॑सो वा॒जिन॒ऽइष॑ꣳस्तो॒तृभ्य॒ऽआ भ॑र॥४१॥


विषय - फिर वह क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे विद्वान् पुरुष! (यः) जो (वसुः) सर्वत्र रहने वाला अग्नि है, (यम्) जिस (अग्निम्) वाणी के समान अग्नि को (धेनवः) गौ (अस्तम्) घर को (यन्ति) जाती हैं तथा जैसे (नित्यासः) कारणरूप से विनाशरहित (वाजिनः) वेग वाले (आशवः) शीघ्रगामी (अर्वन्तः) घोड़े (अस्तम्) घर को प्राप्त होते हैं, वैसे मैं (तम्) उस पूर्वोक्त अग्नि को (मन्ये) मानता हूं और (स्तोतृभ्यः) स्तुतिकारक विद्वानों के लिये (इषम्) अच्छे अन्नादि पदार्थों को धारण करता हूं, वैसे ही तू उस अग्नि को (अस्तम्) आश्रय मान और अन्नादि पदार्थों को (आभर) धारण कर॥४१॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। अध्यापक लोग विद्यार्थियों के प्रति ऐसा कहें कि जैसे हम लोग आचरण करें, वैसे तुम भी करो। जैसे गौ आदि पशु दिन में इधर उधर भ्रमण कर सायङ्काल अपने घर आके प्रसन्न होते हैं, वैसे विद्या के स्थान को प्राप्त होके तुम भी प्रसन्न हुआ करो॥४१॥


ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः


सोऽअ॒ग्निर्यो वसु॑र्गृ॒णे सं यमा॒य॑न्ति धे॒नवः॑। समर्व॑न्तो रघु॒द्रुवः॒ सꣳसु॑जा॒तासः॑ सू॒रय॒ऽइष॑ꣳ स्तो॒तृभ्य॒ऽआ भ॑र॥४२॥


विषय - फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे विद्यार्थी विद्वान् पुरुष! जैसे मैं (यः) जो (वसुः) निवास का हेतु (अग्निः) अग्नि है, उस की (गृणे) अच्छे प्रकार स्तुति करता हूं, (यम्) जिस को (धेनवः) वाणी (समायन्ति) अच्छे प्रकार प्राप्त होती हैं और (रघुद्रुवः) धीरज से चलने वाले (अर्वन्तः) प्रशंसित ज्ञानी (सुजातासः) अच्छे प्रकार विद्याओं में प्रसिद्ध (सूरयः) विद्वान् लोग (स्तोतृभ्यः) स्तुति करने हारे विद्यार्थियों के लिये (इषम्) ज्ञान को (सम्) अच्छे प्रकार धारण करते हैं और जैसे (सः) वह पढ़ाने हारा ईश्वरादि पदार्थों के गुण-वर्णन करता है, वैसे तू भी इन पूर्वोक्तों को (समाभर) ज्ञान से धारण कर॥४२॥


भावार्थ - अध्यापकों को चाहिये कि जैसे गौएँ अपने बछरों को तृप्त करती हैं, वैसे विद्यार्थियों को प्रसन्न करें और जैसे घोड़े शीघ्र चल के पहुँचाते हैं, वैसे विद्यार्थियों को सब विद्याओं के पार शीघ्र पहुँचावें॥४२॥


ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः


उ॒भे सु॑श्चन्द्र स॒र्पिषो॒ दर्वी॑ श्रीणीषऽआ॒सनि॑। उ॒तो न॒ऽउत्पु॑पूर्या उ॒क्थेषु॑ शवसस्पत॒ऽइष॑ स्तो॒तृभ्य॒ऽआ भ॑र॥४३॥


विषय - फिर वह क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (सुश्चन्द) सुन्दर आनन्ददाता अध्यापक पुरुष! आप (सर्पिषः) घी के (दर्वी) चलाने पकड़ने की दो कर्छी से (श्रीणीषे) पकाने के समान (आसनि) मुख में (उभे) पढ़ने पढ़ाने की दो क्रियाओं को (आभर) धारण कीजिये। हे (शवसः) बल के (पते) रक्षकजन! तू (उक्थेषु) कहने-सुनने योग्य वेदविभागों में (नः) हमारे (उतो) और (स्तोतृभ्यः) विद्वानों के लिये (इषम्) अन्नादि पदार्थों को (उत्पुपूर्याः) उत्कृष्टता से पूरण कर॥४३॥


भावार्थ - जैसे ऋत्विज् लोग घृत को शोध कर्छी से अग्नि में होम कर और वायु तथा वर्षाजल को रोगनाशक करके सब को सुखी करते हैं, वैसे ही अध्यापक लोगों को चाहिये कि विद्यार्थियों के मन अच्छी शिक्षा से शोध कर उन को विद्यादान दे के आत्माओं को पवित्र कर सब को सुखी करें॥४३॥


ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी गायत्री स्वरः - षड्जः


अग्ने॒ तम॒द्याश्वं॒ न स्तोमैः॒ क्रतुं॒ न भ॒द्रꣳ हृ॑दि॒स्पृश॑म्। ऋ॒ध्यामा॑ त॒ऽओहैः॑॥४४॥


विषय - फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) अध्यापक जन! हम लोग (ते) आप से (ओहैः) विद्या का सुख देने वाले (स्तोमैः) विद्या की स्तुतिरूप वेद के भागों से (अद्य) आज (अश्वम्) घोड़े के (न) समान (भद्रम्) कल्याणकारक (क्रतुम्) बुद्धि के (न) समान (तम्) उस (हृदिस्पृशम्) आत्मा के साथ सम्बन्ध करने वाले विद्याबोध को प्राप्त हो के निरन्तर (ऋध्याम) वृद्धि को प्राप्त हों॥४४॥


भावार्थ - इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। अध्येता लोगों को चाहिये कि जैसे अच्छे शिक्षित घोड़े से अभीष्ट स्थान में शीघ्र पहुंच जाते हैं, जैसे विद्वान् लोग सब शास्त्रों के बोध से युक्त कल्याण करने हारी बुद्धि से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष फलों को प्राप्त होते हैं, वैसे उन अध्यापकों से पूर्ण विद्या पढ़ प्रशंसित बुद्धि को पा के आप उन्नति को प्राप्त हों तथा वेद के पढ़ाने और उपदेश से अन्य सब मनुष्यों की भी उन्नति करें॥४४॥


ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी गायत्री स्वरः - षड्जः


अधा॒ ह्यग्ने॒ क्रतो॑र्भ॒द्रस्य॒ दक्ष॑स्य सा॒धोः। र॒थीर्ऋ॒तस्य॑ बृह॒तो ब॒भूथ॑॥४५॥


विषय - फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) विद्वान् जन! जैसे तू (भद्रस्य) आनन्दकारक (दक्षस्य) शरीर और आत्मा के बल से युक्त (साधोः) अच्छे मार्ग में प्रवर्त्तमान (ऋतस्य) सत्य को प्राप्त हुए पुरुष की (बृहतः) बड़े विषय वा ज्ञानरूप (क्रतोः) बुद्धि से (रथीः) प्रशंसित रमणसाधन यानों से युक्त (बभूथ) हूजिये, वैसे (अध) मङ्गलाचरणपूर्वक (हि) निश्चय करके हम भी होवें॥४५॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे शास्त्र और योग से उत्पन्न हुई बुद्धि को प्राप्त हो के विद्वान् लोग बढ़ते हैं, वैसे ही अध्येता लोगों को भी बढ़ना चाहिये॥४५॥


ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी गायत्री स्वरः - षड्जः


ए॒भिर्नो॑ऽअ॒र्कैर्भवा॑ नोऽअ॒र्वाङ् स्व॒र्ण ज्योतिः॑। अग्ने॒ विश्वे॑भिः सु॒मना॒ऽअनी॑कैः॥४६॥


विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) विद्याप्रकाश से युक्त पुरुष! आप (नः) हमारे लिये (विश्वेभिः) सब (अनीकैः) सेनाओं के सहित राजा के तुल्य (सुमनाः) मन से सुखदाता (भव) हूजिये (एभिः) इन पूर्वोक्त (अर्कैः) पूजा के योग्य विद्वानों के सहित (नः) हमारे लिये (ज्योतिः) ज्ञान के प्रकाशक (अर्वाङ्) नीचों को उत्तम करने को जानने वाले (स्वः) सुख के (न) समान हूजिये॥४६॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे राजा अच्छी शिक्षा और बल से युक्त सेनाओं से शत्रुओं को जीत के सुखी होता है, वैसे ही बुद्धि आदि गुणों से अविद्या से हुए क्लेशों को जीत के मनुष्य लोग सुखी होवें॥४६॥


ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


अ॒ग्नि होता॑रं मन्ये॒ दास्व॑न्तं॒ वसु॑ꣳ सू॒नुꣳ सह॑सो जा॒तवे॑दसं॒ विप्रं॒ न जा॒तवे॑दसम्। यऽऊ॒र्ध्वया॑ स्वध्व॒रो दे॒वो दे॒वाच्या॑ कृ॒पा। घृ॒तस्य॒ विभ्रा॑ष्टि॒मनु॑ वष्टि शो॒चिषा॒ऽऽजुह्वा॑नस्य स॒र्पिषः॑॥४७॥


विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! (यः) जो (ऊर्ध्वया) ऊर्ध्वगति के साथ (स्वध्वरः) शुभ कर्म करने से अहिंसनीय (देवाच्या) विद्वानों के सत्कार के हेतु (कृपा) समर्थ क्रिया से (देवः) दिव्य गुणों वाला पुरुष (शोचिषा) दीप्ति के साथ (आजुह्वानस्य) अच्छे प्रकार हवन किये (सर्पिषः) घी और (घृतस्य) जल के सकाश से (विभ्राष्टिम्) विविध प्रकार की ज्योतियों को (अनुवष्टि) प्रकाशित करता है, उस (होतारम्) सुख के दाता (जातवेदसम्) उत्पन्न हुए सब पदार्थों में विद्यमान (सहसः) बलवान् पुरुष के (सूनुम्) पुत्र के समान (वसुम्) धनदाता (दास्वन्तम्) दानशील (जातवेदसम्) बुद्धिमानों में प्रसिद्ध (अग्निम्) तेजस्वी अग्नि के (न) समान (विप्रम्) आप्त ज्ञानी का मैं (मन्ये) सत्कार करता हूं, वैसे तुम लोग भी उस को मानो॥४७॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे अच्छे प्रकार सेवन किये विद्वान् लोग विद्या, धर्म और अच्छी शिक्षा से सब को आर्य करते हैं, वैसे युक्ति से सेवन किया अग्नि अपने गुण, कर्म और स्वभावों से सब के सुख की उन्नति करता है॥४७॥


ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - स्वराड् ब्राह्मी बृहती स्वरः - मध्यमः


अग्ने॒ त्वं नो॒ अन्त॑मऽउ॒त त्रा॒ता शि॒वो भ॑वा वरू॒थ्यः। वसु॑र॒ग्निर्वसु॑श्रवा॒ऽअच्छा॑ नक्षि द्यु॒मत्त॑मꣳ र॒यिं दाः॑। तं त्वा॑ शोचिष्ठ दीदिवः सु॒म्नाय॑ नू॒नमी॑महे॒ सखि॑भ्यः॥४८॥


विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) विद्वन्! (त्वम्) आप जैसे यह (वसुः) धनदाता (वसुश्रवाः) अन्न और धन का हेतु (अग्निः) अग्नि (रयिम्) धन को (दाः) देता है, वैसे (नः) हमारे (अन्तमः) अत्यन्त समीप (त्राता) रक्षक (वरूथ्यः) श्रेष्ठ (उत) और (शिवः) मङ्गलकारी (भव) हूजिये। हे (शोचिष्ठ) अतितेजस्वी (दीदिवः) बहुत प्रकाशों से युक्त वा कामना वाले विद्वान्! जैसे हम लोग (त्वा) तुझ को (सखिभ्यः) मित्रों से (सुम्नाय) सुख के लिये (नूनम्) निश्चय (ईमहे) मांगते हैं, वैसे (तम्) उस तुझ को सब मनुष्य चाहें, जैसे मैं (द्युमत्तमम्) प्रशंसित प्रकाशों से युक्त तुझ को (अच्छ) अच्छे प्रकार (नक्षि) प्राप्त होता हूं, वैसे तू हम को प्राप्त हो॥४८॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मित्र अपने मित्रों को चाहते और उन की उन्नति करते हैं, वैसे विद्वान् सब का मित्र सब को सुख देवे॥४८॥


ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


येन॒ऽऋष॑य॒स्तप॑सा स॒त्रमाय॒न्निन्धा॑नाऽअ॒ग्नि स्व॑रा॒भर॑न्तः। त॑स्मिन्न॒हं नि द॑धे॒ नाके॑ऽअ॒ग्निं यमा॒हुर्मन॑व स्ती॒र्णब॑र्हिषम्॥४९॥


विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(येन) जिस (तपसा) धर्मानुष्ठानरूप कर्म से (इन्धानाः) प्रकाशमान (स्वः) सुख को (आभरन्तः) अच्छे प्रकार धारण करते हुए (ऋषयः) वेद का अर्थ जानने वाले ऋषि लोग (सत्रम्) सत्य विज्ञान से युक्त (अग्निम्) विद्युत् आदि अग्नि को (आयन्) प्राप्त हों, (तस्मिन्) उस कर्म के होते (नाके) दुःखरहित प्राप्त होने योग्य सुख के निमित्त (मनवः) विचारशील विद्वान् लोग (यम्) जिस (स्तीर्णबर्हिषम्) आकाश को आच्छादन करने वाले (अग्निम्) अग्नि को (आहुः) कहते हैं, उस को (अहम्) मैं (नि, दधे) धारण करता हूं॥४९॥


भावार्थ - जिस प्रकार से वेदपारग विद्वान् लोग सत्य का अनुष्ठान कर बिजुली आदि पदार्थों को उपयोग में लाके समर्थ होते हैं, उसी प्रकार मनुष्यों को समृद्धियुक्त होना चाहिये॥४९॥


ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


तं पत्नी॑भि॒रनु॑ गच्छेम देवाः पु॒त्रैर्भ्रातृ॑भिरु॒त वा॒ हिर॑ण्यैः। नाकं॑ गृभ्णा॒नाः सु॑कृ॒तस्य॑ लो॒के तृ॒तीये॑ पृ॒ष्ठेऽअधि॑ रोच॒ने दि॒वः॥५०॥


विषय - विद्वानों को कैसा होना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (देवाः) विद्वान् लोगो! जैसे तुम लोग (तम्) उस पूर्वोक्त अग्नि को (गृभ्णानाः) ग्रहण करते हुए (दिवः) प्रकाशयुक्त (सुकृतस्य) सुन्दर वेदोक्त कर्म (अधि) में वा (रोचने) रुचिकारक (तृतीये) विज्ञान से हुए (पृष्ठे) जानने को इष्ट (लोके) विचारने वा देखने योग्य स्थान में वर्त्तमान (पत्नीभिः) अपनी अपनी स्त्रियों (पुत्रैः) वृद्धावस्था में हुए दुःख से रक्षक पुत्रों (भ्रातृभिः) बन्धुओं (उत, वा) और अन्य सम्बन्धियों तथा (हिरण्यैः) सुवर्णादि के साथ (नाकम्) आनन्द को प्राप्त होते हो, वैसे इन सब के सहित हम लोग भी (अनु, गच्छेम) अनुगत हों॥५०॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग अपनी स्त्री, पुत्र, भाई, कन्या, माता, पिता, सेवक और पड़ोसियों को विद्या और अच्छी शिक्षा से धर्मात्मा पुरुषार्थी करके सन्तोषी होते हैं, वैसे ही सब मनुष्यों को होना चाहिये॥५०॥

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