ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - भुरिग्ब्राह्मी त्रिष्टुप्, ब्राह्मी बृहती स्वरः - धैवतः, मध्यमः
वि॒राड॑सि॒ दक्षि॑णा॒ दिग्रु॒द्रास्ते॑ दे॒वाऽअधि॑पतय॒ऽइन्द्रो॑ हेती॒नां प्र॑तिध॒र्त्ता प॑ञ्चद॒शस्त्वा॒ स्तोमः॑ पृथि॒व्याᳬ श्र॑यतु॒ प्रऽउ॑गमु॒क्थमव्य॑थायै स्तभ्नातु बृ॒हत्साम॒ प्रति॑ष्ठित्याऽअ॒न्तरि॑क्ष॒ऽऋष॑यस्त्वा प्रथम॒जा दे॒वेषु॑ दि॒वो मात्र॑या वरि॒म्णा प्र॑थन्तु विध॒र्त्ता चा॒यमधि॑पतिश्च॒ ते त्वा॒ सर्वे॑ संविदा॒ना नाक॑स्य पृ॒ष्ठे स्व॒र्गे लो॒के यज॑मानं च सादयन्तु॥११॥
विषय - फिर स्त्री पुरुषों को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे स्त्रि! जो तू (विराट्) विविध पदार्थों से प्रकाशमान (दक्षिणा) (दिक्) दक्षिण दिशा के तुल्य (असि) है, जिस (ते) तेरा पति (रुद्राः) वायु (देवाः) दिव्य गुण युक्त वायु (अधिपतयः) अधिष्ठाताओं के समान (हेतीनाम्) वज्रों का (प्रतिधर्त्ता) निश्चय के साथ धारण करने वाला (पञ्चदशः) पन्द्रह संख्या का पूरक (स्तोमः) स्तुति का साधक ऋचाओं के अर्थों का भागी और (इन्द्रः) सूर्य्य (त्वा) तुझ को (पृथिव्याम्) पृथिवी में (श्रयतु) सेवन करे। (अव्यथायै) मानस भय से रहित तेरे लिये (प्रउगम्) कथनीय (उक्थम्) उपदेश के योग्य वचन को (स्तभ्नातु) स्थिर करे तथा (प्रतिष्ठित्यै) प्रतिष्ठा के लिये (बृहत्) बहुत अर्थ से युक्त (साम) सामवेद को स्थिर करे, (च) और जैसे (अन्तरिक्षे) आकाशस्थ (देवेषु) कमनीय पदार्थों में (प्रथमजाः) पहिले हुए (ऋषयः) ज्ञान के हेतु प्राण (दिवः) प्रकाशकारक अग्नि के (मात्रया) लेश और (वरिम्णा) बहुत्व के साथ वर्त्तमान हैं, वैसे विद्वान् लोग (त्वा) तुझ को (प्रथन्तु) प्रसिद्ध करें, जैसे (विधर्त्ता) विविध प्रकार के आकर्षण से पृथिवी आदि लोकों का धारण (च) तथा पोषण करने वाला (अधिपतिः) सब प्रकाशक पदार्थों में उत्तम सूर्य (त्वा) तुझ को पुष्ट करे, वैसे (संविदानाः) सम्यक् विचारशील विद्वान् लोग हैं (ते) वे (सर्वे) सब (नाकस्य) दुःखरहित आकाश के (पृष्ठे) सेचक भाग में (स्वर्गे) सुखकारक (लोके) जानने योग्य देश में (त्वा) तुझ को (च) और (यजमानम्) यज्ञविद्या के जानने हारे पुरुष को (सादयन्तु) स्थापित करें॥११॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग वायु के साथ वर्त्तमान सूर्य को और सूर्य वायु की विद्या को जानने वाले विद्वान् का आश्रय करके इस विद्या को जनावें, वैसे स्त्री-पुरुष ब्रह्मचर्य के साथ विद्वान् होके दूसरों को पढ़ावें॥११॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - आदित्या देवताः छन्दः - निचृद्ब्रह्मी जगती, ब्रह्मी बृहती स्वरः - निषादः, मध्यमः
स॒म्राड॑सि प्र॒तीची॒ दिगा॑दि॒त्यास्ते॑ दे॒वाऽअधि॑पतयो॒ वरु॑णो हेती॒नां प्र॑तिध॒र्त्ता स॑प्तद॒शस्त्वा॒ स्तोमः॑ पृथि॒व्याᳬश्र॑यतु मरुत्व॒तीय॑मु॒क्थमव्य॑थायै स्तभ्नातु वैरू॒पꣳ साम॒ प्रति॑ष्ठित्याऽअ॒न्तरि॑क्ष॒ऽऋष॑यस्त्वा प्रथम॒जा दे॒वेषु॑ दि॒वो मात्र॑या वरि॒म्णा प्र॑थन्तु विध॒र्त्ता चा॒यमधि॑पतिश्च॒ ते त्वा॒ सर्वे॑ संविदा॒ना नाक॑स्य पृ॒ष्ठे स्व॒र्गे लो॒के यज॑मानं च सादयन्तु॥१२॥
विषय - फिर वे स्त्री-पुरुष कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे स्त्रि! जो तू (प्रतीची) पश्चिम (दिक्) दिशा के समान (सम्राट्) सम्यक् प्रकाशित (असि) है, उस (ते) तेरा पति (आदित्याः) बिजुली से युक्त प्राणवायु (देवाः) दिव्य सुखदाता (अधिपतयः) स्वामियों के तुल्य (अयम्) यह (सप्तदशः) सत्रह संख्या का पूरक (च) और (स्तोमः) स्तुति के योग्य (वरुणः) जलसमुदाय के समान (हेतीनाम्) बिजुलियों का (प्रतिधर्त्ता) धारण करने वाला (अधिपतिः) स्वामी (त्वा) तुझ को (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (श्रयतु) सेवन करे (अव्यथायै) स्वरूप से अचल तेरे लिये (मरुत्वतीयम्) बहुत मनुष्यों के व्याख्यान से युक्त (उक्थम्) कथनयोग्य वेदवचन तथा (प्रतिष्ठत्यै) प्रतिष्ठा के लिये (वैरूपम्) विविध रूपों के व्याख्यान से युक्त (साम) सामवेद को (स्तभ्नातु) ग्रहण करे और जो (दिवः) प्रकाश के (मात्रया) भाग से (वरिम्णा) बहुत्व के साथ (अन्तरिक्षे) आकाश में (प्रथमजाः) विस्तारयुक्त कारण से उत्पन्न हुए (ऋषयः) गतियुक्त वायु (देवेषु) दान के हेतु अवयवों में वर्त्तमान हैं, वैसे (त्वा) तुझ को विद्वान् लोग (प्रथन्तु) प्रसिद्ध उपदेश करें। जैसे (विधर्त्ता) जो विविध रत्नों का धारने हारा है, (च) यह भी (अधिपतिः) अध्यक्ष स्वामी प्रजाओं को सुख में रखता है, वैसे (ते) तेरे मध्य में (सर्वे) सब (संविदानाः) अच्छे प्रकार ज्ञान को प्राप्त हुए (त्वा) तुझ को (च) और (यजमानम्) विद्वानों के सेवक पुरुष को (नाकस्य) दुःखरहित देश के (पृष्ठे) एक भाग में (स्वर्गे) सुखप्रापक (लोके) दर्शनीय स्थान में (सादयन्तु) स्थापित करें॥१२॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग पश्चिम दिशा और वहां के पदार्थों को दूसरों को जनाते हैं, वैसे स्त्री-पुरुष अपने सन्तानों आदि को विद्यादि गुणों से सुशोभित करें॥१२॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - मरुतो देवताः छन्दः - भुरिगब्रह्मी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
स्व॒राड॒स्युदी॑ची॒ दिङ्म॒रुत॑स्ते दे॒वाऽअधि॑पतयः॒ सोमो॑ हेती॒नां प्र॑तिध॒र्त्तैक॑वि॒ꣳशस्त्वा॒ स्तोमः॑ पृथि॒व्याᳬ श्र॑यतु॒ निष्के॑वल्यमु॒क्थमव्य॑थायै स्तभ्नातु वैरा॒जꣳसाम॒ प्रति॑ष्ठित्याऽअ॒न्तरि॑क्ष॒ऽऋष॑यस्त्वा प्रथम॒जा दे॒वेषु॑ दि॒वो मात्र॑या वरि॒म्णा प्र॑थन्तु विध॒र्त्ता चा॒यमधि॑पतिश्च॒ ते त्वा॒ सर्वे॑ संविदा॒ना नाक॑स्य पृ॒ष्ठे स्व॒र्गे लो॒के यज॑मानं च सादयन्तु॥१३॥
विषय - फिर वे दोनों कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे स्त्रि! जैसे (स्वराट्) स्वयं प्रकाशमान (उदीची) उत्तर (दिक्) दिशा (असि) है, वैसा (ते) तेरा पति हो जिस दिशा के (मरुतः) वायु (देवाः) दिव्यरूप (अधिपतयः) अधिष्ठाता हैं, उन के सदृश जो (एकविंशः) इक्कीस संख्या का पूरक (स्तोमः) स्तुति का साधक (सोमः) चन्द्रमा (हेतीनाम्) वज्र के समान वर्त्तमान किरणों का (प्रतिधर्त्ता) धारने हारा पुरुष (त्वा) तुझ को (पृथिव्याम्) भूमि में (श्रयतु) सेवन करे, (अव्यथायै) इन्द्रियों के भय से रहित तेरे लिये (निष्केवल्यम्) जिस में केवल एक स्वरूप का वर्णन हो, वह (उक्थम्) कहने योग्य वेदभाग तथा (प्रतिष्ठित्यै) प्रतिष्ठा के लिये (वैराजम्) विराट् रूप का प्रतिपादक (साम) सामवेद का भाग (स्तभ्नातु) ग्रहण करे (च) और जैसे तेरे मध्य में (अन्तरिक्षे) अवकाश में स्थित (देवेषु) इन्द्रियों में (प्रथमजाः) मुख्य प्रसिद्ध (दिवः) ज्ञान के (मात्रया) भागों से (वरिम्णा) अधिकता के साथ वर्त्तमान (ऋषयः) बलवान् प्राण हैं, वैसे (अयम्) यही इन प्राणों का (विधर्त्ता) विविध शीत को धारणकर्त्ता (च) और (अधिपतिः) अधिष्ठाता है (ते) वे (सर्वे) सब इस विषय में (संविदानाः) सम्यक् बुद्धिमान् विद्वान् लोग प्रतिज्ञा से (त्वा) तुझ को (प्रथन्तु) प्रसिद्ध करें और (नाकस्य) उत्तम सुखरूप लोक के (पृष्ठे) ऊपर (स्वर्गे) सुखदायक (लोके) लोक में (त्वा) तुझ को (च) और (यजमानम्) यजमान पुरुष को (सादयन्तु) स्थित करें॥१३॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग आधार के सहित चन्द्रमा आदि पदार्थों और आधार के सहित प्राणों को यथावत् जान के संसारी कार्यों में उपयुक्त करके सुख को प्राप्त होते हैं, वैसे अध्यापक स्त्री-पुरुष कन्या-पुत्रों को विद्या-ग्रहण के लिये उपयुक्त करके आनन्दित करें॥१३॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - ब्राह्मी जगती, ब्राह्मी त्रिष्टुप् स्वरः - निषादः, धैवतः
अधि॑पत्न्यसि बृह॒ती दिग्विश्वे॑ ते दे॒वाऽअधि॑पतयो॒ बृह॒स्पति॑र्हेती॒नां प्र॑तिध॒र्त्ता त्रि॑णवत्रयस्त्रि॒ꣳशौ त्वा॒ स्तोमौ॑ पृथि॒व्याᳬ श्र॑यतां वैश्वदेवाग्निमारु॒तेऽउ॒क्थेऽअव्य॑थायै स्तभ्नीताᳬ शाक्वररैव॒ते साम॑नी॒ प्रति॑ष्ठित्याऽअ॒न्तरि॑क्ष॒ऽऋष॑यस्त्वा प्रथम॒जा दे॒वेषु॑ दि॒वो मात्र॑या वरि॒म्णा प्र॑थन्तु विध॒र्त्ता चा॒यमधि॑पतिश्च॒ ते त्वा॒ सर्वे॑ संविदा॒ना नाक॑स्य पृ॒ष्ठे स्व॒र्गे लो॒के यज॑मानञ्च सादयन्तु॥१४॥
विषय - फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे स्त्रि! जो तू (बृहती) बड़ी (अधिपत्नी) सब दिशाओं के ऊपर वर्त्तमान (दिक्) दिशा के समान (असि) है, उस (ते) तेरा पति (विश्वे) सब (देवाः) प्रकाशक सूर्य्यादि पदार्थ (अधिपतयः) अधिष्ठाता हैं, वैसे जो (बृहस्पतिः) विश्व का रक्षक (हेतीनाम्) बड़े लोकों का (प्रतिधर्त्ता) प्रतीति के साथ धारण करने वाले सूर्य्य के तुल्य वह तेरा पति (त्वा) तुझ को (च) और (त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ) त्रिणव और तेंतीस (स्तोमौ) स्तुति के साधन (पृथिव्याम्) पृथिवी में (अव्यथायै) पीड़ा रहितता के लिये (वैश्वदेवाग्निमारुते) सब विद्वान् और अग्नि वायुओं के व्याख्यान करने वाले (उक्थे) कहने योग्य वेद के दो भागों का (श्रयताम्) आश्रय करें, (च) और जैसे (प्रतिष्ठित्यै) प्रतिष्ठा होने के लिये (शाक्वररैवते) शक्वरी और रेवती छन्द से कहे अर्थों से (सामनी) सामवेद के दो भागों को (स्तभ्नीताम्) संगत करो। जैसे वे (अन्तरिक्षे) अवकाश में (प्रथमजाः) आदि में हुए (ऋषयः) धनञ्जय आदि सूक्ष्म स्थूल वायुरूप प्राण (देवेषु) दिव्य गुण वाले पदार्थों में (दिवः) प्रकाश की (मात्रया) मात्रा और (वरिम्णा) अधिकता से (त्वा) तुझ को प्रसिद्ध करते हैं, उन को मनुष्य लोग (प्रथन्तु) प्रख्यात करें, जैसे (अयम्) यह (अधिपतिः) स्वामी (विधर्त्ता) विविध प्रकार से सब को धारण करने हारा सूर्य है, जैसे (संविदानाः) सम्यक् सत्यप्रतिज्ञायुक्त ज्ञानवान् विद्वान् लोग (त्वा) तुझ को (नाकस्य) (पृष्ठे) सुखदायक देश के उपरि (स्वर्गे) सुखरूप (लोके) स्थान में स्थापित करते हैं, (ते) वे (सर्वे) सब (यजमानम्) तेरे पुरुष (च) और तुझ को (सादयन्तु) स्थित करें, वैसे तुम स्त्री-पुरुष दोनों वर्त्ता करो॥१४॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सब के बीच की दिशा सब से अधिक है, वैसे सब गुणों से शरीर और आत्मा का बल अधिक है, ऐसा निश्चित जानना चाहिये॥१४॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - वसन्तर्तुर्देवता छन्दः - विकृतिः स्वरः - मध्यमः
अ॒यं पु॒रो हरि॑केशः॒ सूर्य॑रश्मि॒स्तस्य॑ रथगृ॒त्सश्च॒ रथौ॑जाश्च सेनानीग्राम॒ण्यौ। पु॒ञ्जि॒क॒स्थ॒ला च॑ क्रतुस्थ॒ला चा॑प्स॒रसौ॑ द॒ङ्क्ष्णवः॑ प॒शवो॑ हे॒तिः पौरु॑षेयो व॒धः प्रहे॑ति॒स्तेभ्यो॒ नमो॑ऽअस्तु॒ ते नो॑ऽवन्तु॒ ते नो॑ मृडयन्तु॒ ते यं द्वि॒ष्मो यश्च॑ नो॒ द्वेष्टि॒ तमे॑षां॒ जम्भे॑ दध्मः॥१५॥
विषय - अब किरण आदि के दृष्टान्त से श्रेष्ठ विद्या का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ -
जो (अयम्) यह (पुरः) पूर्वकाल में वर्त्तमान (हरिकेशः) हरितवर्ण केश के समान हरणशील और क्लेशकारी ताप से युक्त (सूर्यरश्मिः) सूर्य की किरणें हैं, (तस्य) उनका (रथगृत्सः) बुद्धिमान् सारथि (च) और (रथौजाः) रथ के ले चलने के वाहन (च) इन दोनों के तथा (सेनानीग्रामण्यौ) सेनापति और ग्राम के अध्यक्ष के समान अन्य प्रकार के भी किरण होते हैं, उन किरणों की (पुञ्जिकस्थला) सामान्य प्रधान दिशा (च) और (क्रतुस्थला) प्रज्ञाकर्म को जतानेवाली उपदिशा (च) ये दोनों (अप्सरसौ) प्राणों में चलने वाली अप्सरा कहाती हैं, जो (दङ्क्ष्णवः) मांस और घास आदि पदार्थों को खाने वाले व्याघ्र आदि (पशवः) हानिकारक पशु हैं, उनके ऊपर (हेतिः) बिजुली गिरे। जो (पौरुषेयः) पुरुषों के समूह (वधः) मारनेवाले और (प्रहेतिः) उत्तम वज्र के तुल्य नाश करने वाले हैं, (तेभ्यः) उन के लिये (नमः) वज्र का प्रहार (अस्तु) हो और जो धार्मिक राजा आदि सभ्य राजपुरुष हैं, (ते) वे उन पशुओं से (नः) हम लोगों की (अवन्तु) रक्षा करें, (ते) वे (नः) हम को (मृडयन्तु) सुखी करें, (ते) वे रक्षक हम लोग (यम्) जिस हिंसक से (द्विष्मः) विरोध करें (च) और (यः) जो हिंसक (नः) हम से (द्वेष्टि) विरोध करे (तम्) उसको हम लोग (एषाम्) इन व्याघ्रादि पशुओं के (जम्भे) मुख में (दध्मः) स्थापन करें॥१५॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य के किरण हरे वर्ण वाले हैं, उस के साथ लाल, पीले आदि वर्ण वाले भी किरण रहते हैं, वैसे ही सेनापति और ग्रामाध्यक्ष वर्त्त के रक्षक होवें। जैसे राजा आदि पुरुष मृत्यु के हेतु सिंह आदि पशुओं को रोक के गौ आदि पशुओं की रक्षा करते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग अच्छी शिक्षा से अधर्माचरण से पृथक् रख धर्म में चला के हम सब मनुष्यों की रक्षा करके द्वेषियों का निवारण करें। यह भी सब वसन्त ऋतु का व्याख्यान है॥१५॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - ग्रीष्मर्तुर्देवता छन्दः - निचृत् प्रकृतिः स्वरः - धैवतः
अ॒यं द॑क्षि॒णा वि॒श्वक॑र्मा॒ तस्य॑ रथस्व॒नश्च॒ रथे॑चित्रश्च सेनानीग्राम॒ण्यौ। मे॒न॒का च॑ सहज॒न्या चा॑प्स॒रसौ॑ यातु॒धाना॑ हे॒ती रक्षा॑ᳬसि॒ प्रहे॑ति॒स्तेभ्यो॒ नमो॑ऽअस्तु॒ ते नो॑ऽवन्तु॒ ते नो॑ मृडयन्तु॒ ते यं द्वि॒ष्मो यश्च॑ नो॒ द्वेष्टि॒ तमे॑षां॒ जम्भे॑ दध्मः॥१६।।
विषय - फिर भी वैसा ही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे (अयम्) यह (विश्वकर्मा) सब चेष्टारूप कर्मों का हेतु वायु (दक्षिणा) दक्षिण दिशा से चलता है, (तस्य)उस वायु के (रथस्वनः) रथ के शब्द के समान शब्द वाला (च) और (रथेचित्रः) रमणीय रथ में चिह्नयुक्त आश्चर्य कार्यों का करने वाला (च) ये दोनों (सेनानीग्रामण्यौ) सेनापति और ग्रामाध्यक्ष के समान वर्त्तमान (मेनका) जिस से मनन किया जाय वह (च) और (सहजन्या) एक साथ उत्पन्न हुई (च) ये दोनों (अप्सरसौ) अन्तरिक्ष में रहने वाली किरणादि अप्सरा हैं, जो (यातुधाना) प्रजा को पीड़ा देने वाले हैं, उन के ऊपर (हेतिः) वज्र जो (रक्षांसि) दुष्ट कर्म करने वाले हैं, उन के ऊपर (प्रहेतिः) प्रकृष्ट वज्र के तुल्य (तेभ्यः) उन प्रजापीड़क आदि के लिये (नमः) वज्र का प्रहार (अस्तु) हो। ऐसा करके जो न्यायाधीश शिक्षक हैं, (ते) वे (नः) हमारी (अवन्तु) रक्षा करें। (ते) वे (नः) हमको (मृडयन्तु) सुखी करें, (ते) वे हम लोग (यम्) जिस दुष्ट से (द्विष्मः) द्वेष करें (च) और (यः) जो दुष्ट (नः) हम से (द्वेष्टि) द्वेष करे, (तम्) उस को (एषाम्) इन वायुओं के (जम्भे) व्याघ्र के समान मुख में (दध्मः) धारण करते हैं, वैसा प्रयत्न करो॥१६॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो स्थूल, सूक्ष्म और मध्यस्थ वायु से उपयोग लेने को जानते हैं, वे शत्रुओं का निवारण करके सब को आनन्दित करते हैं। यह भी ग्रीष्म ऋतु का शेष व्याख्यान है, ऐसा जानो॥१६॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - वर्षुर्त्तर्देवता छन्दः - कृतिः स्वरः - निषादः
अ॒यं प॒श्चाद् वि॒श्वव्य॑चा॒स्तस्य॒ रथ॑प्रोत॒श्चास॑मरथश्च सेनानीग्राम॒ण्यौ। प्र॒म्लोच॑न्ती चानु॒म्लोच॑न्ती चाप्स॒रसौ॑ व्या॒घ्रा हे॒तिः स॒र्पाः प्रहे॑ति॒स्तेभ्यो॒ नमो॑ऽअस्तु॒ ते नो॑ऽवन्तु॒ ते नो॑ मृडयन्तु॒ ते यं द्वि॒ष्मो यश्च॑ नो॒ द्वेष्टि॒ तमे॑षां॒ जम्भे॑ दध्मः॥१७॥
विषय - फिर वैसा ही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे (अयम्) यह (पश्चात्) पीछे से (विश्वव्यचाः) विश्व में व्याप्त बिजुलीरूप अग्नि है, (तस्य) उस के (सेनानीग्रामण्यौ) सेनापति और ग्रामपति के समान (रथप्रोतः) रमणीय तेजःस्वरूप में व्याप्त (च) और (असमरथः) जिस के समान दूसरा रथ न हो, वह (च) ये दोनों (प्रम्लोचन्ती) अच्छे प्रकार सब ओषधि आदि पदार्थों को शुष्क कराने वाली (च) तथा (अनुम्लोचन्ती) पश्चात् ज्ञान का हेतु प्रकाश (च) ये दोनों (अप्सरसौ) क्रियाकारक आकाशस्थ किरण हैं, जैसे (हेतिः) साधारण वज्र के तुल्य तथा (प्रहेतिः) उत्तम वज्र के समान (व्याघ्राः) सिंहों के तथा (सर्पाः) सर्पों के समान प्राणियों को दुःखदायी जीव हैं, (तेभ्यः) उन के लिये (नमः) वज्रप्रहार (अस्तु) हो और जो इन पूर्वोक्तों से रक्षा करें (ते) वे (नः) हमारे (अवन्तु) रक्षक हों, (ते) वे (नः) हम को (मृडयन्तु) सुखी करें तथा (ते) वे हम लोग (यम्) जिस से (द्विष्मः) द्वेष करें (च) और (यः) जो दुष्ट (नः) हम से (द्वेष्टि) द्वेष करे, जिस को हम (एषाम्) इन सिंहादि के (जम्भे) मुख में (दध्मः) धरें, (तम्) उस को वे रक्षक लोग भी सिंहादि के मुख में धरें॥१७॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। यह वर्षा ऋतु का शेष व्याख्यान है। इस में मनुष्यों को नियमपूर्वक आहार-विहार करना चाहिये॥१७॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - शरदृतुर्देवता छन्दः - भुरिगतिधृतिः स्वरः - षड्जः
अ॒यमु॑त्त॒रात् सं॒यद्व॑सु॒स्तस्य॒ तार्क्ष्य॒श्चारि॑ष्टनेमिश्च सेनानीग्राम॒ण्यौ। वि॒श्वाची॑ च घृ॒ताची॑ चाप्स॒रसा॒वापो॑ हे॒तिर्वातः॒ प्रहे॑ति॒स्तेभ्यो॒ नमो॑ऽअस्तु॒ ते नो॑ऽवन्तु॒ ते नो॑ मृडयन्तु॒ ते यं द्वि॒ष्मो यश्च॑ नो॒ द्वेष्टि॒ तमे॑षां जम्भे॑ दध्मः॥१८॥
विषय - फिर भी वैसा ही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे (अयम्) यह (उत्तरात्) उत्तर दिशा से (संयद्वसुः) यज्ञ को संगत करने हारे के तुल्य शरद् ऋतु है, (तस्य) उस के (सेनानीग्रामण्यौ) सेनापति और ग्रामाध्यक्ष के समान (तार्क्ष्यः) तीक्ष्ण तेज को प्राप्त कराने वाला आश्विन (च) और (अरिष्टनेमिः) दुःखों को दूर करने वाला कार्त्तिक (च) ये दोनों (विश्वाची) सब जगत् में व्यापक (च) और (घृताची) घी वा जल को प्राप्त कराने वाली दीप्ति (च) ये दोनों (अप्सरसौ) प्राणों की गति हैं, जहां (आपः) जल (हेतिः) वृद्धि के तुल्य वर्त्ताने और (वातः) प्रिय पवन (प्रहेतिः) अच्छे प्रकार बढ़ाने हारे के समान आनन्ददायक होता है, उस वायु को जो लोग युक्ति के साथ सेवन करते हैं, (तेभ्यः) उनके लिये (नमः) नमस्कार (अस्तु) हो, (ते) वे (नः) हमारी (अवन्तु) रक्षा करें, (ते) वे (नः) हम को (मृडयन्तु) सुखी करें, (ते) वे हम (यम्) जिससे (द्विष्मः) द्वेष करें (च) और (यः) जो (नः) हम से (द्वेष्टि) द्वेष करे, (तम्) उस को (एषाम्) इन जल वायुओं के (जम्भे) दुःखदायी गुणरूप मुख में (दध्मः) धरें, वैसे तुम लोग भी वर्तो॥१८॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। यह शरद् ऋतु का शेष व्याख्यान है। इस में भी मनुष्यों को चाहिये कि युक्ति के साथ कार्यों में प्रवृत्त हों॥१८॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - हेमन्तर्त्तुर्देवता छन्दः - निचृत्कृतिः स्वरः - निषादः
अ॒यमु॒पर्य॒र्वाग्व॑सु॒स्तस्य॑ सेन॒जिच्च॑ सु॒षेण॑श्च सेनानीग्राम॒ण्यौ। उ॒र्वशी॑ च पू॒र्वचि॑त्तिश्चाप्स॒रसा॑वव॒स्फूर्ज॑न् हे॒तिर्वि॒द्यु॒त्प्रहे॑ति॒स्तेभ्यो॒ नमो॑ऽअस्तु॒ ते नो॑ऽवन्तु॒ ते नो॑ मृडयन्तु॒ ते यं द्वि॒ष्मो यश्च॑ नो॒ द्वेष्टि॒ तमे॑षां जम्भे॑ दध्मः॥१९॥
विषय - फिर भी वैसा ही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे (अयम्) यह (उपरि) ऊपर वर्त्तमान (अर्वाग्वसुः) वृष्टि के पश्चात् धन का हेतु है, (तस्य) उस के (सेनजित्) सेना से जीतने वाला (च) और (सुषेणः) सुन्दर सेनापति (च) ये दोनों (सेनानीग्रामण्यौ) सेनापति और ग्रामाध्यक्ष के तुल्य वर्त्तमान अगहन और पौष महीने (उर्वशी) बहुत खाने का हेतु आन्तर्य दीप्ति (च) और (पूर्वचित्तिः) आदि ज्ञान का हेतु (च) ये दोनों (अप्सरसौ) प्राणों में रहने वाली (अवस्फूर्जन्) भयंकर घोष करते हुए (हेतिः) वज्र के तुल्य (विद्युत्) बिजुली के चलाने हारे और (प्रहेतिः) उत्तम वज्र के समान रक्षक प्राणी हैं, (तेभ्यः) उन के लिये (नमः) अन्नादि पदार्थ (अस्तु) मिलें। (ते) वे (नः) हम लोगों की (अवन्तु) रक्षा करें, (ते) वे (नः) हम को (मृडयन्तु) सुखी करें, (ते) वे हम लोग (यम्) जिस दुष्ट से (द्विष्मः) द्वेष करें, (च) और (यः) जो (नः) हम से (द्वेष्टि) द्वेष करे, (तम्) उस को हम लोग (एषाम्) इन हिंसक प्राणियों के (जम्भे) मुख में (दध्मः) धरें, वैसे तुम लोग भी उस को धरो॥१९॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। यह भी हेमन्त ऋतु की शेष व्याख्या है। मनुष्यों को चाहिये कि इस ऋतु का युक्ति से सेवन करके बलवान् हों॥१९॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदगायत्री स्वरः - षड्जः
अ॒ग्निर्मू॒र्द्धा दि॒वः क॒कुत्पतिः॑ पृथि॒व्याऽअ॒यम्। अ॒पाᳬ रेता॑ᳬसि जिन्वति॥२०॥
विषय - मनुष्यों को किस प्रकार बल बढ़ाना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
जैसे हेमन्त ऋतु में (अयम्) यह प्रसिद्ध (अग्निः) अग्नि (दिवः) प्रकाश और (पृथिव्याः) भूमि के बीच (मूर्द्धा) शिर के तुल्य सूर्य्यरूप से वर्त्तमान (ककुत्पतिः) दिशाओं का रक्षक हो के (अपाम्) प्राणों के (रेतांसि) पराक्रमों को (जिन्वति) पूर्णता से तृप्त करता है, वैसे ही मनुष्यों को बलवान् होना चाहिये॥२०॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि युक्ति से जाठराग्नि को बढ़ा संयम से आहार-विहार करके नित्य बल बढ़ाते रहें॥२०॥
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