ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - स्वराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
आ वा॒चो मध्य॑मरुहद् भुर॒ण्युर॒यम॒ग्निः सत्प॑ति॒श्चेकि॑तानः। पृ॒ष्ठे पृ॑थि॒व्या निहि॑तो॒ दवि॑द्युतदधस्प॒दं कृ॑णुतां॒ ये पृ॑त॒न्यवः॑॥५१॥
विषय - ईश्वर के तुल्य राजा को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वान् पुरुष! (चेकितानः) विज्ञानयुक्त (सत्पतिः) श्रेष्ठों के रक्षक आप (वाचः) वाणी के (मध्यम्) बीच हुए उपदेश को प्राप्त हो के जैसे (अयम्) यह (भुरण्युः) पुष्टिकर्त्ता (अग्निः) विद्वान् (पृथिव्याः) भूमि के (पृष्ठे) ऊपर (निहितः) निरन्तर स्थिर किया (दविद्युतत्) उपदेश से सब को प्रकाशित करता और धर्म पर (आ, अरुहत्) आरूढ़ होता है, उस के साथ (ये) जो लोग (पृतन्यवः) युद्ध के लिये सेना की इच्छा करते हैं, उन को (अधस्पदम्) अपने अधिकार से च्युत जैसे हों, वैसा (कृणुताम्) कीजिये॥५१॥
भावार्थ - विद्वान् मनुष्यों को चाहिये कि जैसे ईश्वर ब्रह्माण्ड में सूर्यलोक को स्थापन करके सब को सुख पहुँचाता है, वैसे ही राज्य में विद्या और बल को धारण कर शत्रुओं को जीत के प्रजा के मनुष्यों का सुख से उपकार करें॥५१॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
अ॒यम॒ग्निर्वी॒रत॑मो वयो॒धाः स॑ह॒स्रियो॑ द्योतता॒मप्र॑युच्छन्। वि॒भ्राज॑मानः सरि॒रस्य॒ मध्य॒ऽउप॒ प्र या॑हि दि॒व्यानि॒ धाम॑॥५२॥
विषय - धर्मात्माओं के तुल्य अन्य लोगों को वर्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
जो (अयम्) यह (वीरतमः) अपने बल से शत्रुओं को अत्यन्त व्याप्त होने तथा (वयोधाः) सब के जीवन को धारण करने वाला (सहस्रियः) असंख्य योद्धाजनों के समान योद्धा (सरिरस्य) आकाश के (मध्ये) बीच (विभ्राजमानः) विशेष करके विद्या और न्याय से प्रकाशित सो (अप्रयुच्छन्) प्रमादरहित होते हुए (अग्निः) अग्नि के तुल्य सेनापति आप (द्योतताम्) प्रकाशित हूजिये और (दिव्यानि) अच्छे (धाम) जन्म, कर्म और स्थानों को (उप, प्र, याहि) प्राप्त हूजिये॥५२॥
भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि धर्मात्मा जनों के साथ निवास कर, प्रमाद को छोड़ और जितेन्द्रियता से अवस्था बढ़ा के विद्या और धर्म के अनुष्ठान से पवित्र होके परोपकारी होवें॥५२॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
स॒म्प्रच्य॑वध्व॒मुप॑ सं॒प्रया॒ताग्ने॑ पथो॒ दे॑व॒याना॑न् कृणुध्वम्। पुनः॑ कृण्वा॒ना पि॒तरा॒ युवा॑ना॒न्वाता॑ᳬसी॒त् त्वयि॒ तन्तु॑मे॒तम्॥५३॥
विषय - स्त्री-पुरुष कैसे विवाह करके क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! तुम लोग विद्याओं को (उपसंप्रयात) अच्छे प्रकार प्राप्त होओ (देवयानान्) धार्मिकों के (पथः) मार्गों से (संप्रच्यवध्वम्) सम्यक् चलो, धर्म को (कृणुध्वम्) करो। हे (अग्ने) विद्वान् पितामह! (त्वयि) तुम्हारे बने रहते ही (पितरा) रक्षा करने वाले माता-पिता तुम्हारे पुत्र आदि ब्रह्मचर्य्य को (कृण्वाना) करते हुए (युवाना) पूर्ण युवावस्था को प्राप्त हो और स्वयंवर विवाह कर (पुनः) पश्चात् (एतम्) गर्भाधानादिरीति से यथोक्त (तन्तुम्) सन्तान को (अन्वातांसीत्) अनुकूल उत्पन्न करें॥५३॥
भावार्थ - कुमार स्त्रीपुरुष धर्मयुक्त सेवन किये ब्रह्मचर्य्य से पूर्ण विद्या पढ़ आप धार्मिक हो पूर्ण युवावस्था की प्राप्ति में कन्याओं की पुरुष और पुरुषों की कन्या परीक्षा कर अत्यन्त प्रीति के साथ चित्त से परस्पर आकर्षित होके अपनी इच्छा से विवाह कर, धर्मानुकूल सन्तानों को उत्पन्न और सेवा से अपने माता पिता का संतोष कर के आप्त विद्वानों के मार्ग से निरन्तर चलें और जैसे धर्म के मार्गों को सरल करें, वैसे ही भूमि, जल और अन्तरिक्ष के मार्गों को भी बनावें॥५३॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
उद् बु॑ध्यस्वाग्ने॒ प्रति॑ जागृहि॒ त्वमि॑ष्टापू॒र्त्ते सꣳसृ॑जेथाम॒यं च॑।
अ॒स्मिन्त्स॒धस्थे॒ऽअध्युत्त॑रस्मि॒न् विश्वे॑ देवा॒ यज॑मानश्च सीदत॥५४॥
विषय - फिर वही पूर्वोक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (अग्ने) अच्छी विद्या से प्रकाशित स्त्री वा पुरुष! तू (उद्बुध्यस्व) अच्छे प्रकार ज्ञान को प्राप्त हो सब के प्रति, (प्रति, जागृहि) अविद्यारूप निद्रा को छोड़ के विद्या से चेतन हो (त्वम्) तू स्त्री (च) और (अयम्) यह पुरुष दोनों (अस्मिन्) इस वर्त्तमान (सधस्थे) एक स्थान में और (उत्तरस्मिन्) आगामी समय में सदा (इष्टापूर्त्ते) इष्ट सुख, विद्वानों का सत्कार, ईश्वर का आराधन, अच्छा सङ्ग करना और सत्यविद्या आदि का दान देना यह इष्ट और पूर्णबल, ब्रह्मचर्य्य, विद्या की शोभा, पूर्ण युवा अवस्था, साधन और उपसाधन यह सब पूर्त्त इन दोनों को (सं, सृजेथाम्) सिद्ध किया करो (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (च) और (यजमानः) यज्ञ करने वाले पुरुष, तू इस एक स्थान में (अधि, सीदत) उन्नतिपूर्वक स्थिर होओ॥५४॥
भावार्थ - जैसे अग्नि सुगन्धादि के होम से इष्ट सुख देता और यज्ञकर्त्ता जन यज्ञ की सामग्री पूरी करता है, वैसे उत्तम विवाह किये स्त्री-पुरुष इस जगत् में आचरण किया करें। जब विवाह के लिये दृढ़ प्रीति वाले स्त्री-पुरुष हों, तब विद्वानों को बुला के उन के समीप वेदोक्त प्रतिज्ञा करके पति और पत्नी बनें॥५४॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
येन॒ वह॑सि स॒हस्रं॒ येना॑ग्ने सर्ववेद॒सम्। तेने॒मं य॒ज्ञं नो॑ नय॒ स्वर्दे॒वेषु॒ गन्त॑वे॥५५॥
विषय - फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (अग्ने) विद्वान् पुरुष वा विदुषी स्त्री! तू (देवेषु) विद्वानों में (स्वः) सुख को (गन्तवे) प्राप्त होने के लिये (येन) जिस प्रतिज्ञा किये कर्म से (सहस्रम्) गृहाश्रम के असंख्य व्यवहारों को (वहसि) प्राप्त होते हो तथा (येन) जिस विज्ञान से (सर्ववेदसम्) सब वेदों में कहे कर्म को यथावत् करते हो (तेन) उससे (इमम्) इस गृहाश्रमरूप (यज्ञम्) संगति के योग्य यज्ञ को (नः) हम को (नय) प्राप्त कीजिये॥५५॥
भावार्थ - विवाह की प्रतिज्ञाओं में यह भी प्रतिज्ञा करानी चाहिये कि हे स्त्रीपुरुषो! तुम दोनों जैसे अपने हित के लिये आचरण करो, वैसे हम माता-पिता, आचार्य्य और अतिथियों के सुख के लिये भी निरन्तर वर्त्ताव करो॥५५॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
अ॒यं ते॒ योनि॑र्ऋ॒त्वियो॒ यतो॑ जा॒तोऽअरो॑चथाः। तं जा॒नन्न॑ग्न॒ऽआ रो॒हाथा॑ नो वर्धया र॒यिम्॥५६॥
विषय - फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (अग्ने) विद्वन् वा विदुषि! (अयम्) यह (ते) तेरा (ऋत्वियः) ऋतु अर्थात् समय को प्राप्त हुआ (योनिः) घर है, (यतः) जिस विद्या के पठन-पाठन से (जातः) प्रसिद्ध हुआ वा हुई तू (अरोचथाः) प्रकाशित हो (तम्) उस को (जानन्) जानता वा जानती हुई (आ, रोह) धर्म पर आरूढ़ हो, (अथ) इसके पश्चात् (नः) हमारी (रयिम्) सम्पत्ति को (वर्धय) बढ़ाया कर॥५६॥
भावार्थ - स्त्री-पुरुषों से विवाह में यह भी दूसरी प्रतिज्ञा करानी चाहिये कि जिस ब्रह्मचर्य और जिस विद्या के साथ तुम दोनों स्त्री-पुरुष कृतकृत्य होते हो, उस-उस को सदैव प्रचारित किया करो और पुरुषार्थ से धनादि पदार्थ को बढ़ा के उस को अच्छे मार्ग में खर्च किया करो। यह सब हेमन्त ऋतु का व्याख्यान पूरा हुआ॥५६॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - शिशिरर्त्तुर्देवता छन्दः - स्वराडुत्कृतिः स्वरः - षड्जः
तप॑श्च तप॒स्यश्च॑ शैशि॒रावृ॒तूऽअ॒ग्नेर॑न्तःश्ले॒षोऽसि॒ कल्पे॑तां॒ द्यावा॑पृथि॒वी कल्प॑न्ता॒माप॒ऽओष॑धयः॒ कल्प॑न्ताम॒ग्नयः॒ पृथ॒ङ् मम॒ ज्यैष्ठ्या॑य॒ सव्र॑ताः। येऽअ॒ग्नयः॒ सम॑नसोऽन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वीऽइ॒मे। शै॒शि॒रावृ॒तूऽअ॑भि॒कल्प॑माना॒ऽइन्द्र॑मिव दे॒वाऽअ॑भि॒संवि॑शन्तु॒ तया॑ दे॒वत॑याऽङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वे सी॑दतम्॥५७॥
विषय - अब अगले मन्त्र में शिशिर ऋतु का वर्णन किया है॥
पदार्थ -
हे ईश्वर! (मम) मेरी (ज्यैष्ठ्याय) ज्येष्ठता के लिये (तपः) ताप बढ़ाने का हेतु माघ महीना (च) और (तपस्यः) तापवाला फाल्गुन मास (च) ये दोनों (शैशिरौ) शिशिर ऋतु में प्रख्यात (ऋतू) अपने चिह्नों को प्राप्त करने वाले सुखदायी होते हैं। आप जिनके (अग्नेः) अग्नि के भी (अन्तःश्लेषः) मध्य में प्रविष्ट (असि) हैं, उन दोनों से (द्यावापृथिवी) आकाश-भूमि (कल्पेताम्) समर्थ हों, (आपः) जल (ओषधयः) ओषधियाँ (कल्पन्ताम्) समर्थ हों, (सव्रताः) एक प्रकार के नियमों में वर्त्तमान (अग्नयः) विद्युत् आदि अग्नि (पृथक्) अलग अलग (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें, (ये) जो (समनसः) एक प्रकार के मन के निमित्तवाले हैं, वे (अग्नयः) विद्युत् आदि अग्नि (इमे) इन (द्यावापृथिवी) आकाश भूमि के (अन्तरा) बीच में होने वाले (शैशिरौ) शिशिर ऋतु के साधक (ऋतू) माघ-फाल्गुन महीनों को (अभिकल्पमानाः) समर्थ करते हैं, उन अग्नियों को (इन्द्रमिव) ऐश्वर्य के तुल्य (देवाः) विद्वान् लोग (अभिसंविशन्तु) ज्ञानपूर्वक प्रवेश करें। हे स्त्री-पुरुषो! तुम दोनों (तया) उस (देवतया) पूजा के योग्य सर्वत्र व्याप्त जगदीश्वर देवता के साथ (अङ्गिरस्वत्) प्राण के समान वर्त्तमान इन आकाश भूमि के तुल्य (ध्रुवे) दृढ़ (सीदतम्) स्थिर होओ॥५७॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि सब ऋतुओं में ईश्वर से ही सुख चाहें। ईश्वर विद्युत् अग्नि के भी बीच व्याप्त है, इस कारण सब पदार्थ अपने-अपने नियम से कार्य में समर्थ होते हैं। विद्वान् लोग सब वस्तुओं में व्याप्त बिजुलीरूप अग्नियों के गुण-दोष जानें। स्त्री-पुरुष गृहाश्रम में स्थिरबुद्धि होके शिशिर ऋतु के सुख को भोगें॥५७॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - विदुषी देवता छन्दः - भुरिग् ब्राह्मी बृहती स्वरः - मध्यमः
प॒र॒मे॒ष्ठी त्वा॑ सादयतु दि॒वस्पृ॒ष्ठे ज्योति॑ष्मतीम्। विश्व॑स्मै प्रा॒णाया॑पा॒नाय॑ व्या॒नाय॒ विश्वं॒ ज्योति॑र्यच्छ। सूर्य॒स्तेऽधि॑पति॒स्तया॑ दे॒वत॑याऽङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वा सी॑द॥५८॥
विषय - स्त्री को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे स्त्रि! (परमेष्ठी) महान् आकाश में व्याप्त होकर स्थित परमेश्वर (ज्योतिष्मतीम्) प्रशस्त ज्ञानयुक्त (त्वा) तुझ को (दिवः) प्रकाश के (पृष्ठे) उत्तम भाग में (विश्वस्मै) सब (प्राणाय) प्राण (अपानाय) अपान और (व्यानाय) व्यान आदि की यथार्थ क्रिया होने के लिये (सादयतु) स्थित करे। तू सब स्त्रियों के लिये (विश्वम्) समस्त (ज्योतिः) ज्ञान के प्रकाश को (यच्छ) दिया कर, जिस (ते) तेरा (सूर्यः) सूर्य के समान तेजस्वी (अधिपतिः) स्वामी है, (तया) उस (देवतया) अच्छे गुणों वाले पति के साथ वर्त्तमान (अङ्गिरस्वत्) सूर्य्य के समान (ध्रुवा) दृढ़ता से (सीद) स्थिर हो॥५८॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा तथा वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जिस परमेश्वर ने जो शरद् ऋतु बनाया है, उसकी उपासनापूर्वक इस ऋतु को युक्ति से सेवन करके स्त्री-पुरुष सदा सुख बढ़ाया करें॥५८॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - इन्द्राग्नी देवते छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
लो॒कं पृ॑ण छि॒द्रं पृ॒णाथो॑ सीद ध्रु॒वा त्वम्। इ॒न्द्रा॒ग्नी त्वा॒ बृह॒स्पति॑र॒स्मिन् योना॑वसीषदन्॥५९॥
विषय - फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे स्त्रि! (त्वम्) तू इस (लोकम्) लोक तथा परलोक को (पृण) सुखयुक्त कर, (छिद्रम्) अपनी न्यूनता को (पृण) पूरी कर और (ध्रुवा) निश्चलता से (सीद) घर में बैठ (अथो) इसके अनन्तर (इन्द्राग्नी) उत्तम धनी ज्ञानी तथा (बृहस्पतिः) अध्यापक (अस्मिन्) इस (योनौ) गृहाश्रम में (त्वा) तुझ को (असीषदन्) स्थापित करें॥५९॥
भावार्थ - अच्छी चतुर स्त्री को चाहिये कि घर के कार्यों के साधनों को पूरे करके सब कार्यों को सिद्ध करे। जैसे विदुषी स्त्री और विद्वान् पुरुषों की गृहाश्रम के कर्त्तव्य कर्मों में प्रीति हो, वैसा उपदेश किया करे॥५९॥
ऋषि: - प्रियमेधा ऋषिः देवता - आपो देवताः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
ताऽअ॑स्य॒ सूद॑दोहसः॒ सोम॑ꣳ श्रीणन्ति॒ पृश्न॑यः। जन्म॑न्दे॒वानां॒ विश॑स्त्रि॒ष्वारो॑च॒ने दि॒वः॥६०॥
विषय - अब राजा प्रजा का धर्म अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
जो विद्या और अच्छी शिक्षा से युक्त (देवानाम्) विद्वानों के (जन्मन्) जन्म विषय में (पृश्नयः) पूछने हारी (सूददोहसः) रसोइया और कार्य्यों के पूर्ण करने वाले पुरुषों से युक्त (त्रिषु) वेदरीति से कर्म, उपासना और ज्ञानों तथा (दिवः) सब के अन्तःप्रकाशक परमात्मा के (रोचने) प्रकाश में वर्त्तमान (विशः) प्रजा हैं, (ताः) वे (अस्य) इस सभाध्यक्ष राजा के (सोमम्) सोमवल्ली आदि ओषधियों के रसों से युक्त भोजनीय पदार्थों को (आ) सब ओर से (श्रीणन्ति) पकाती हैं॥६०॥
भावार्थ - प्रजापालक पुरुषों को चाहिये कि सब प्रजाओं को विद्या और अच्छी शिक्षा के ग्रहण में नियुक्त करें और प्रजा भी स्वयं नियुक्त हों। इस के विना कर्म, उपासना, ज्ञान और ईश्वर का यथार्थ बोध कभी नहीं हो सकता॥६०॥
ऋषि: - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
इन्द्रं॒ विश्वा॑ऽअवीवृधन्त्समु॒द्रव्य॑चसं॒ गिरः॑। र॒थीत॑मꣳ र॒थीनां॒ वाजा॑ना॒ सत्प॑तिं॒ पति॑म्॥६१॥
विषय - फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(विश्वाः) सब (गिरः) विद्या और शिक्षा से युक्त वाणी (समुद्रव्यचसम्) आकाश के तुल्य व्याप्तिवाले (रथीनाम्) शूरवीरों में (रथीतमम्) उत्तम शूरवीर (वाजानाम्) विज्ञानी पुरुषों के (सत्पतिम्) सत्यव्यवहारों और विद्वानों के रक्षक तथा प्रजाओं के (पतिम्) स्वामी (इन्द्रम्) परमसम्पत्तियुक्त सभापति राजा को (अवीवृधन्) बढ़ावें॥
भावार्थ - राजा और प्रजा के जन राजधर्म से युक्त ईश्वर के समान वर्त्तमान न्यायाधीश सभापति को निरन्तर उत्साह देवें, ऐसे ही सभापति इन प्रजा और राजा के पुरुषों को भी उत्साही करें॥६१॥
ऋषि: - वसिष्ठ ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
प्रोथ॒दश्वो॒ न यव॑सेऽवि॒ष्यन्य॒दा म॒हः सं॒वर॑णा॒द्व्यस्था॑त्। आद॑स्य॒ वातो॒ऽअनु॑ वाति शो॒चिरध॑ स्म ते॒ व्रज॑नं कृ॒ष्णम॑स्ति॥६२॥
विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे राजन्! आप (यवसे) भूसा आदि के लिये (अश्वः) घोड़े के (न) समान प्रजाओं को (प्रोथत्) समर्थ कीजिये (यदा) जब (महः) बड़े (संवरणात्) आच्छादन से (अविष्यन्) रक्षा आदि करते हुए (व्यस्थात्) स्थित होवें (आत्) पुनः (अस्य) इस (ते) आप का (व्रजनम्) चलने तथा (कृष्णम्) आकर्षण करने वाला (शोचिः) प्रकाश (अस्ति) है, (अध) इस के पश्चात् (स्म) ही आप का (वातः) चलने वाला भृत्य (अनु, वाति) पीछे चलता है॥६२॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे रक्षा करने से घोड़े पुष्ट होकर कार्य्य सिद्ध करने में समर्थ होते हैं, वैसे ही न्याय से रक्षा की हुई प्रजा सन्तुष्ट होकर राज्य को बढ़ाती हैं॥६२॥
ऋषि: - वसिष्ठ ऋषिः देवता - विदुषी देवता छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
आ॒योष्ट्वा॒ सद॑ने सादया॒म्यव॑तश्छा॒याया॑ समु॒द्रस्य॒ हृद॑ये।
र॒श्मी॒वतीं॒ भास्व॑ती॒मा या द्यां भास्या पृ॑थि॒वीमोर्व॒न्तरि॑क्षम्॥६३॥
विषय - विदुषी स्त्री को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे स्त्रि! (या) जो तू (द्याम्) प्रकाश (पृथिवीम्) भूमि और (अन्तरिक्षम्) आकाश को (उरु) बहुत (आ, भासि) प्रकाशित करती है, उस (रश्मीवतीम्) शुद्ध विद्या के प्रकाश से युक्त (भास्वतीम्) शोभा को प्राप्त हुई (त्वा) तुझ को (आयोः) न्यायानुकूल चलने वाले चिरंजीवी पुरुष के (सदने) स्थान में और (अवतः) रक्षा आदि करते हुए के (छायायाम्) आश्रय में (आ, सादयामि) अच्छे प्रकार स्थापित तथा (समुद्रस्य) अन्तरिक्ष के (हृदये) बीच (आ) शुद्ध प्रकार से मैं स्थित कराता हूं॥६३॥
भावार्थ - हे स्त्रि! अच्छे प्रकार पालने हारे पति के आश्रयरूप स्थान में समुद्र के तुल्य चञ्चलतारहित गम्भीरतायुक्त प्यारी तुझ को स्थित करता हूं। तू गृहाश्रम के धर्म का प्रकाश कर पति आदि को सुखी रख और तुझ को भी पति आदि सुखी रक्खें॥६३॥
ऋषि: - वसिष्ठ ऋषिः देवता - परमात्मा देवता छन्दः - आकृतिः स्वरः - पञ्चमः
प॒र॒मे॒ष्ठी त्वा॑ सादयतु दि॒वस्पृ॒ष्ठे व्यच॑स्वतीं॒ प्रथ॑स्वतीं॒ दिवं॑ यच्छ॒ दिवं॑ दृꣳह॒ दिवं॒ मा हि॑ꣳसीः। विश्व॑स्मै प्रा॒णाया॑पा॒नाय॑ व्या॒नायो॑दा॒नाय॑ प्रति॒ष्ठायै॑ च॒रित्राय॑। सूर्य॑स्त्वा॒भिपा॑तु म॒ह्या स्व॒स्त्या छ॒र्दिषा॒ शन्त॑मेन॒ तया॑ दे॒वत॑याऽङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वे सी॑दतम्॥६४॥
विषय - स्त्री-पुरुष परस्पर कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे स्त्रि! (परमेष्ठी) परमात्मा (विश्वस्मै) समग्र (प्राणाय) जीवन के सुख (अपानाय) दुःखनिवृत्ति (व्यानाय) नाना विद्याओं की व्याप्ति (उदानाय) उत्तम बल (प्रतिष्ठायै) सर्वत्र सत्कार और (चरित्राय) श्रेष्ठ कर्मों के अनुष्ठान के लिये (दिवः) कमनीय गृहस्थ व्यवहार के (पृष्ठे) आधार में (प्रथस्वतीम्) बहुत प्रसिद्ध प्रशंसा वाली (व्यचस्वतीम्) प्रशंसित विद्या में व्याप्त जिस (त्वा) तुझ को (सादयतु) स्थापित करे, सो तू (दिवम्) न्याय प्रकाश को (यच्छ) दिया कर (दिवम्) विद्यारूप सूर्य को (दृंह) दृढ़ कर (दिवम्) धर्म के प्रकाश को (मा, हिंसीः) मत नष्ट कर (सूर्यः) चराचर जगत् का स्वामी ईश्वर (मह्या) बड़े अच्छे (स्वस्त्या) सत्कार (शन्तमेन) अतिशय सुख और (छर्दिषा) सत्यासत्य के प्रकाश से (त्वा) तुझ को (अभिपातु) सब ओर से रक्षा करे, वह तेरा पति और तू दोनों (तया) उस (देवतया) परमेश्वर देवता के साथ (अङ्गिरस्वत्) प्राण के तुल्य (ध्रुवे) निश्चल (सीदतम्) स्थिर रहो॥६४॥
भावार्थ - परमेश्वर आज्ञा करता है कि जैसे शिशिर ऋतु सुखदायी होता है, वैसे स्त्री-पुरुष परस्पर सन्तोषी हों, सब उत्तम कर्मों का अनुष्ठान कर और दुष्ट कर्मों को छोड़ के परमेश्वर की उपासना से निरन्तर आनन्द किया करें॥६४॥
ऋषि: - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - विद्वान् देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
स॒हस्र॑स्य प्र॒मासि॑ स॒हस्र॑स्य प्रति॒मासि॑ स॒हस्र॑स्यो॒न्मासि॑ सा॒ह॒स्रोऽसि स॒हस्रा॑य त्वा॥६५॥
विषय - फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वन् पुरुष वा विदुषी स्त्रि! जिस कारण तू (सहस्रस्य) असंख्यात पदार्थों से युक्त जगत् के (प्रमा) प्रमाण यथार्थ ज्ञान के तुल्य (असि) है, (सहस्रस्य) असंख्य विशेष पदार्थों के (प्रतिमा) तोलनसाधन के तुल्य (असि) है, (सहस्रस्य) असंख्य स्थूल वस्तुओं के (उन्मा) तोलने की तुला के समान (असि) है, (साहस्रः) असंख्य पदार्थ और विद्याओं से युक्त (असि) है, इस कारण (सहस्राय) असंख्यात प्रयोजनों के लिये (त्वा) तुझ को परमात्मा व्यवहार में स्थित करे॥६५॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। यहां पूर्वमन्त्र से परमेष्ठी, सादयतु इन दो पदों की अनुवृत्ति आती है। तीन साधनों से मनुष्यों के व्यवहार सिद्ध होते हैं। एक तो यथार्थविज्ञान, दूसरा पदार्थ तोलने के लिये तोल के साधन बाट और तीसरा तराजू आदि। यह शिशिर ऋतु का वर्णन पूरा हुआ॥६५॥
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