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पर्वसंग्रहपर्व (01)

 

   (पर्वसंग्रहपर्व)

द्वितीयोऽध्यायः

 

   समन्तपंचकक्षेत्रका वर्णन, अक्षौहिणी सेनाका प्रमाण, महाभारत में वर्णित पर्वो और उनके संक्षिप्त विषयोंका संग्रह तथा महाभारतके श्रवण एवं पठनका फल

ऋषय ऊचुः

 

समन्तपञ्चकमिति यदुक्तं सूतनन्दन।

एतत् सर्वं यथातत्त्वं श्रोतुमिच्छामहे वयम् ।।१।।

 

ऋषि बोले-सूतनन्दन! आपने अपने प्रवचनके प्रारम्भमें जो समन्तपंचक (कुरुक्षेत्र)की चर्चा की थी, अब हम उस देश (तथा वहाँ हुए युद्ध)-के सम्बन्धमें पूर्णरूपसे सब कुछ यथावत् सुनना चाहते हैं ।।१।।

 

सौतिरुवाच

 

शृणुध्वं मम भो विप्रा ब्रुवतश्च कथाः शुभाः।

समन्तपञ्चकाख्यं च श्रोतुमर्हथ सत्तमाः ॥२॥

 

उग्रश्रवाजीने कहा-साधुशिरोमणि विप्रगण! अब मैं कल्याणदायिनी शुभ कथाएँ कह रहा हूँ; उसे आपलोग सावधान चित्तसे सुनिये और इसी प्रसंगमें समन्तपंचकक्षेत्रका वर्णन भी सुन लीजिये ||||

 

त्रेताद्वापरयोः सन्धौ रामः शस्त्रभृतां वरः।

असकृत् पार्थिवं क्षत्रं जघानामर्षचोदितः ।। ३ ।।

 

त्रेता और द्वापरकी सन्धिके समय शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ परशुरामजीने क्षत्रियोंके प्रति क्रोधसे प्रेरित होकर अनेकों बार क्षत्रिय राजाओंका संहार किया ।। ३ ।।

 

स सर्व क्षत्रमुत्साद्य स्ववीर्येणानलद्युतिः।

समन्तपञ्चके पञ्च चकार रौधिरान् हृदान् ।। ४ ।।

 

अग्निके समान तेजस्वी परशुरामजीने अपने पराक्रमसे सम्पूर्ण क्षत्रियवंशका संहार करके समन्तपंचकक्षेत्रमें रक्तके पाँच सरोवर बना दिये ।। ४ ।।

 

स तेषु रुधिराम्भःसुहृदेषु क्रोधमूर्च्छितः।

पितृन् संतर्पयामास रुधिरेणेति नः श्रुतम् ॥५॥

 

क्रोधसे आविष्ट होकर परशुरामजीने उन रक्तरूप जलसे भरे हुए सरोवरोंमें रक्ताञ्जलिके द्वारा अपने पितरोंका तर्पण किया, यह बात हमने सुनी है ।। ५ ।।

 

अथर्चीकादयोऽभ्येत्य पितरो राममब्रुवन् ।

राम राम महाभाग प्रीताः स्म तव भार्गव ।।६।।

अनया पितृभक्त्या च विक्रमेण तव प्रभो।

वरं वृणीष्व भद्रं ते यमिच्छसि महाद्युते ॥७॥

 

 

तदनन्तर, ऋचीक आदि पितृगण परशुरामजीके पास आकर बोले-'महाभाग राम! सामर्थ्यशाली भृगुवंशभूषण परशुराम!! तुम्हारी इस पितृभक्ति और पराक्रमसे हम बहुत ही प्रसन्न हैं। महाप्रतापी परशुराम! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हें जिस वरकी इच्छा हो हमसे माँग लो' ।। ६-७॥

 

राम उवाच

 

यदि मे पितरः प्रीता यद्यनुग्राह्यता मयि ।

यच्च रोषाभिभूतेन क्षत्रमुत्सादितं मया ॥८॥

अतश्च पापान्मुच्येऽहमेष मे प्रार्थितो वरः ।

हृदाश्च तीर्थभूता मे भवेयुर्भुवि विश्रुताः ॥९॥

 

परशुरामजीने कहा-यदि आप सब हमारे पितर मुझपर प्रसन्न हैं और मुझे अपने अनुग्रहका पात्र समझते हैं तो मैंने जो क्रोधवश क्षत्रियवंशका विध्वंस किया है. इस कुकर्मके पापसे मैं मुक्त हो जाऊँ और ये मेरे बनाये हुए सरोवर पृथ्वीमें प्रसिद्ध तीर्थ हो जायँ। यही वर मैं आपलोगोंसे चाहता हूँ।। ८-९।।

 

एवं भविष्यतीत्येवं पितरस्तमथाब्रुवन् ।

तं क्षमस्वेति निषिषिधुस्ततः स विरराम ह॥१०॥

 

तदनन्तर ‘ऐसा ही होगा' यह कहकर पितरोंने वरदान दिया। साथ ही 'अब बचे-खुचे क्षत्रियवंशको क्षमा कर दो-ऐसा कहकर उन्हें क्षत्रियोंके संहारसे भी रोक दिया। इसके पश्चात् परशुरामजी शान्त हो गये ।।१०॥

 

तेषां समीपे यो देशो हृदानां रुधिराम्भसाम्। समन्तपञ्चकमिति पुण्यं तत् परिकीर्तितम् ।। ११ ।।

 

उन रक्तसे भरे सरोवरोंके पास जो प्रदेश है उसे ही समन्तपंचक कहते हैं। यह क्षेत्र बहुत ही पुण्यप्रद है।।११।।

 

येन लिनेन यो देशो युक्तः समुपलक्ष्यते।

तेनैव नाम्ना तं देशं वाच्यमाहुर्मनीषिणः ॥१२॥

 

जिस चिह्नसे जो देश युक्त होता है और जिससे जिसकी पहचान होती है, विद्वानोंका कहना है कि उस देशका वही नाम रखना चाहिये ।। १२ ॥

 

अन्तरे चैव सम्प्राप्ते कलिद्वापरयोरभूत् ।

समन्तपञ्चके युद्धं कुरुपाण्डवसेनयोः ।। १३ ।।

 

जब कलियुग और द्वापरकी सन्धिका समय आया, तब उसी समन्तपंचकक्षेत्रमें कौरवों। और पाण्डवोंकी सेनाओंका परस्पर भीषण युद्ध हुआ ।। १३ ।।

 

तस्मिन् परमधर्मिष्ठे देशे भूदोषवर्जिते ।

अष्टादश समाजग्मुरक्षौहिण्यो युयुत्सया ॥ १४ ॥

 

भूमिसम्बन्धी दोषोंसे रहित उस परम धार्मिक प्रदेशमें युद्ध करनेकी इच्छासे अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ इकट्ठी हुई थीं ॥ १४ ॥

 

समेत्य तं द्विजास्ताश्च तत्रैव निधनं गताः ।

एतन्नामाभिनिर्वृत्तं तस्य देशस्य वै द्विजाः ।। १५ ।।

 

ब्राह्मणो! वे सब सेनाएँ वहाँ इकट्ठी हुईं और वहीं नष्ट हो गयीं। द्विजवरो! इसीसे उस देशका नाम समन्तपंचक पड़ गया ।। १५ ॥

 

पुण्यश्च रमणीयश्च स देशो वः प्रकीर्तितः।

तदेतत् कथितं सर्वं मया ब्राह्मणसत्तमाः ।

यथा देशः स विख्यातस्त्रिषु लोकेषु सुव्रताः ।। १६ ।।

 

वह देश अत्यन्त पुण्यमय एवं रमणीय कहा गया है। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले | श्रेष्ठ ब्राह्मणो! तीनों लोकोंमें जिस प्रकार उस देशकी प्रसिद्धि हुई थी, वह सब मैंने आपलोगोंसे कह दिया ।। १६ ।।

 

ऋषय ऊचुः

 

अक्षौहिण्य इति प्रोक्तं यत्त्वया सूतनन्दन।

एतदिच्छामहे श्रोतुं सर्वमेव यथातथम् ॥ १७॥

 

ऋषियोंने पूछा-सूतनन्दन! अभी-अभी आपने जो अक्षौहिणी शब्दका उच्चारण किया है. इसके सम्बन्धमें हमलोग सारी बातें यथार्थरूपसे सुनना चाहते हैं ।। १७ ।।

 

अक्षौहिण्याः परीमाणं नराश्वरथदन्तिनाम्।

यथावच्चैव नो ब्रूहि सर्व हि विदितं तव ॥१८॥

 

अक्षौहिणी सेनामें कितने पैदल, घोड़े, रथ और हाथी होते हैं? इसका हमें यथार्थ वर्णन सुनाइये; क्योंकि आपको सब कुछ ज्ञात है ॥१८॥

 

सौतिरुवाच

 

एको रथो गजश्चैको नराः पञ्च पदातयः ।

त्रयश्च तुरगास्तज्ज्ञैः पत्तिरित्यभिधीयते ॥ १९ ॥

 

उग्रश्रवाजीने कहा-एक रथ, एक हाथी, पाँच पैदल सैनिक और तीन घोड़े-बस, इन्हींको सेनाके मर्मज्ञ विद्वानों ने 'पत्ति कहा है ।। १९ ।।

 

पत्तिं तु त्रिगुणामेतामाहुः सेनामुखं बुधाः।

त्रीणि सेनामुखान्येको गुल्म इत्यभिधीयते ॥२०॥

 

इसी पत्तिकी तिगुनी संख्याको विद्वान् पुरुष 'सेनामुख' कहते हैं। तीन 'सेनामुखों' को | एक 'गुल्म' कहा जाता है ।। २०॥

 

त्रयो गुल्मा गणो नाम वाहिनी तु गणास्त्रयः।

स्मृतास्तिस्रस्तु वाहिन्यः पृतनेति विचक्षणः ॥ २१॥

 

तीन गुल्मका एक 'गण' होता है, तीन गणकी एक 'वाहिनी' होती है और तीन । | वाहिनियोंको सेनाका रहस्य जाननेवाले विद्वानोंने 'पृतना' कहा है ।। २१ ।।

 

चमूस्तु पृतनास्तिस्रस्तिस्रश्चम्बस्त्वनीकिनी।

अनीकिनी दशगुणां प्राहुरक्षौहिणी बुधाः ॥ २२ ॥

 

तीन पृतनाकी एक 'चमू', तीन चमूकी एक 'अनीकिनी' और दस अनीकिनीकी एक 'अक्षौहिणी' होती है। यह विद्वानोंका कथन है ।। २२ ।।

 

अक्षौहिण्याः प्रसंख्याता रथानां द्विजसत्तमाः।

संख्या गणिततत्त्वज्ञैः सहस्राण्येकविंशतिः ।। २३ ।।

शतान्युपरि चैवाष्टौ तथा भूयश्च सप्ततिः ।

गजानां च परीमाणमेतदेव विनिर्दिशेत् ॥ २४ ॥

 

श्रेष्ठ ब्राह्मणो! गणितके तत्त्वज्ञ विद्वानोंने एक अक्षौहिणी सेनामें रथोंकी संख्या इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर (२१,८७०) बतलायी है। हाथियोंकी संख्या भी इतनी ही कहनी चाहिये ।। २३-२४ ।।

 

ज्ञेयं शतसहस्रं तु सहस्राणि नवैव तु ।

नराणामपि पञ्चाशच्छतानि त्रीणि चानघाः ।। २५ ।।

 

निष्पाप ब्राह्मणो! एक अक्षौहिणीमें पैदल मनुष्योंकी संख्या एक लाख नौ हजार तीन | सौ पचास (१,०९,३५०) जाननी चाहिये ॥२५॥

 

पञ्चषष्टिसहस्राणि तथाश्वानां शतानि च ।

दशोत्तराणि षट् प्राहुर्यथावदिह संख्यया ॥२६॥

 

एक अक्षौहिणी सेनामें, घोड़ोंकी ठीक-ठीक संख्या पैंसठ हजार छः सौ दस (६५.६१०) कही गयी है ।।२६।।

 

एतामक्षौहिणीं प्राहुः संख्यातत्त्वविदो जनाः ।

यां वः कथितवानस्मि विस्तरेण तपोधनाः ॥२७॥

 

तपोधनो! संख्याका तत्त्व जाननेवाले विद्वानोंने इसीको अक्षौहिणी कहा है, जिसे मैंने आपलोगोंको विस्तारपूर्वक बताया है ॥२७॥

 

एतया संख्यया ह्यासन कुरुपाण्डवसेनयोः ।

अक्षौहिण्यो द्विजश्रेष्ठाः पिण्डिताष्टादशैव तु ॥२८॥

 

श्रेष्ठ ब्राह्मणो! इसी गणनाके अनुसार कौरव-पाण्डव दोनों सेनाओंकी संख्या अठारह अक्षौहिणी थी ।। २८॥

 

समेतास्तत्र वै देशे तत्रैव निधनं गताः।

कौरवान् कारणं कृत्वा कालेनाद्भतकर्मणा ।। २९ ।।

 

अद्भुत कर्म करनेवाले कालकी प्रेरणासे समन्तपंचकक्षेत्रमें कौरवोंको निमित्त बनाकर | इतनी सेनाएँ इकट्री हईं और वहीं नाशको प्राप्त हो गयीं ।। २९ ।।

 

अहानि युयुधे भीष्मो दशैव परमास्त्रवित् ।

अहानि पञ्च द्रोणस्तु ररक्ष कुरुवाहिनीम् ।। ३०॥

 

अस्त्र-शस्त्रोंके सर्वोपरि मर्मज्ञ भीष्मपितामहने दस दिनोंतक युद्ध किया, आचार्य द्रोणने पाँच दिनोंतक कौरव-सेनाकी रक्षा की ।।३०॥

 

अहनी युयुधे द्वे तु कर्णः परबलार्दनः।

शल्योऽर्धदिवसं चैव गदायुद्धमतः परम् ।। ३१ ।।

 

शत्रुसेनाको पीड़ित करनेवाले वीरवर कर्णने दो दिन युद्ध किया और शल्यने आथे दिनतक। इसके पश्चात् (दुर्योधन और भीमसेनका परस्पर) गदायुद्ध आधे दिनतक होता रहा ।। ३१ ।।

 

तस्यैव दिवसस्यान्ते द्रौणिहार्दिक्यगौतमाः।

प्रसुप्तं निशि विश्वस्तं जघ्नुर्याधिष्ठिरं बलम् ।। ३२ ।।

 

अठारहवाँ दिन बीत जानेपर रात्रिके समय अश्वत्थामा, कृतवर्मा और कृपाचार्यने निःशंक सोते हुए युधिष्ठिरके सैनिकोंको मार डाला ।। ३२ ।।

 

यत्तु शौनक सत्रे ते भारताख्यानमुत्तमम्।

जनमेजयस्य तत् सत्रे व्यासशिष्येण धीमता ।। ३३ ।।

कथितं विस्तरार्थं च यशो वीर्य महीक्षिताम् ।

पौष्यं तत्र च पौलोममास्तीकं चादितः स्मृतम् ।। ३४ ।।

 

शौनकजी! आपके इस सत्संग-सत्रमें मैं यह जो उत्तम इतिहास महाभारत सुना रहा हूँ, यही जनमेजयके सर्पयज्ञमें व्यासजीके बुद्धिमान शिष्य वैशम्पायनजीके द्वारा भी वर्णन किया गया था। उन्होंने बड़े-बड़े नरपतियोंके यश और पराक्रमका विस्तारपूर्वक वर्णन करनेके लिये प्रारम्भमें पौष्य, पौलोम और आस्तीक-इन तीन पर्वोका स्मरण किया है।। ३३-३४ ॥

 

विचित्रार्थपदाख्यानमनेकसमयान्वितम् ।

प्रतिपन्नं नरैः प्राज्ञैर्वैराग्यमिव मोक्षिभिः ॥ ३५॥

 

जैसे मोक्ष चाहनेवाले पुरुष पर-वैराग्यकी शरण ग्रहण करते हैं. वैसे ही प्रज्ञावान मनुष्य अलौकिक अर्थ, विचित्र पद, अद्भुत आख्यान और भाँति-भाँतिकी परस्पर विलक्षण मर्यादाओंसे युक्त इस महाभारतका आश्रय ग्रहण करते हैं ।। ३५ ।।

 

आत्मेव वेदितव्येषु प्रियेष्विव हि जीवितम्।

इतिहासः प्रधानार्थः श्रेष्ठः सर्वागमेष्वयम् ।। ३६ ।।

 

जैसे जाननेयोग्य पदार्थों में आत्मा, प्रिय पदार्थों में अपना जीवन सर्वश्रेष्ठ है, वैसे ही | सम्पूर्ण शास्त्रोंमें परब्रह्म परमात्माकी प्राप्तिरूप प्रयोजनको पूर्ण करनेवाला यह इतिहास श्रेष्ठ है ।। ३६॥

 

अनाश्रित्येदमाख्यानं कथा भुवि न विद्यते।

आहारमनपाश्रित्य शरीरस्येव धारणम् ।। ३७॥

 

जैसे भोजन किये बिना शरीर-निर्वाह सम्भव नहीं है, वैसे ही इस इतिहासका आश्रय लिये बिना पृथ्वीपर कोई कथा नहीं है।॥३७॥

 

तदेतद् भारतं नाम कविभिस्तूपजीव्यते। उदयप्रेप्सुभिर्भूत्यैरभिजात इवेश्वरः ।। ३८॥

 

जैसे अपनी उन्नति चाहनेवाले महत्त्वाकांक्षी सेवक अपने कुलीन और सद्भावसम्पन्न स्वामीकी सेवा करते हैं, इसी प्रकार संसारके श्रेष्ठ कवि इस महाभारतकी सेवा करके ही अपने काव्यकी रचना करते हैं ।। ३८।।

 

इतिहासोत्तमे यस्मिन्नर्पिता बुद्धिरुत्तमा ।

स्वरव्यञ्जनयोः कृत्स्ना लोकवेदाश्रयेव वाक् ।। ३९ ।।।

 

जैसे लौकिक और वैदिक सब प्रकारके ज्ञानको प्रकाशित करनेवाली सम्पूर्ण वाणी स्वरों एवं व्यंजनोंमें समायी रहती है, वैसे ही (लोक, परलोक एवं परमार्थसम्बन्धी) सम्पूर्ण उत्तम विद्या-बुद्धि इस श्रेष्ठ इतिहासमें भरी हुई है ।। ३९ ।।

 

तस्य प्रज्ञाभिपन्नस्य विचित्रपदपर्वणः ।

सूक्ष्मार्थन्याययुक्तस्य वेदार्थभूषितस्य च ।। ४०॥

भारतस्येतिहासस्य श्रूयतां पर्वसंग्रहः ।

पर्वानुक्रमणी पूर्व द्वितीयः पर्वसंग्रहः ।। ४१॥

 

यह महाभारत इतिहास ज्ञानका भण्डार है। इसमें सूक्ष्म-से-सूक्ष्म पदार्थ और उनका अनुभव करानेवाली युक्तियाँ भरी हुई हैं। इसका एक-एक पद और पर्व आश्चर्यजनक है तथा यह वेदोंके धर्ममय अर्थसे अलंकृत है। अब इसके पोंकी संग्रह-सूची सुनिये। पहले अध्यायमें पर्वानुक्रमणी है और दूसरे पर्वसंग्रह ।। ४०-४१ ।।

 

पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम् ।

ततः सम्भवपर्वोक्तमद्भुतं रोमहर्षणम् ।। ४२॥

 

इसके पश्चात् पौष्य, पौलोम, आस्तीक और आदिअंशावतरण पर्व हैं। तदनन्तर । सम्भवपर्वका वर्णन है, जो अत्यन्त अद्भुत और रोमांचकारी है ।। ४२ ।।

 

दाहो जतुगृहस्यात्र हैडिम्बं पर्व चोच्यते।

ततो बकवधः पर्व पर्व चैत्ररथं ततः॥४३॥

 

इसके पश्चात् जतुगृह (लाक्षाभवन) दाहपर्व है। तदनन्तर हिडिम्बवधपर्व है. फिर बकवध और उसके बाद चैत्ररथपर्व है॥४३॥

 

ततः स्वयंवरो देव्याः पाञ्चाल्याः पर्व चोच्यते ।

क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम् ।। ४४ ।।

 

उसके बाद पांचालराजकुमारी देवी द्रौपदीके स्वयंवरपर्वका तथा क्षत्रियधर्मसे सब राजाओंपर विजय-प्राप्तिपूर्वक वैवाहिकपर्वका वर्णन है ।। ४४ ।।

 

विदुरागमनं पर्व राज्यलम्भस्तथैव च ।

अर्जुनस्य वने वासः सुभद्राहरणं ततः ॥ ४५ ॥

 

विदुरागमन, राज्यलम्भपर्व, तत्पश्चात् अर्जुन-वनवासपर्व और फिर सुभद्राहरणपर्व है।॥ ४५ ॥

 

सुभद्राहरणादूर्ध्वं ज्ञेया हरणहारिका।

ततः खाण्डवदाहाख्यं तत्रैव मयदर्शनम् ।। ४६ ।।

 

सुभद्राहरणके बाद हरणाहरणपर्व है, पुनः खाण्डवदाह-पर्व है, उसीमें मयदानवके दर्शनकी कथा है ।। ४६।।

 

सभापर्व ततः प्रोक्तं मन्त्रपर्व ततः परम् ।

जरासन्धवधः पर्व पर्व दिग्विजयं तथा ।। ४७ ।।

 

इसके बाद क्रमशः सभापर्व, मन्त्रपर्व, जरासन्ध-वधपर्व और दिग्विजयपर्वका प्रवचन है।। ४७।।

 

पर्व दिग्विजयादूर्ध्वं राजसूयिकमुच्यते।

ततश्चार्घाभिहरणं शिशुपालवधस्ततः ॥४८॥

 

तदनन्तर राजसूय, अर्घाभिहरण और शिशुपाल-वधपर्व कहे गये हैं ।। ४८।।

 

द्यूतपर्व ततः प्रोक्तमनुद्यूतमतः परम् ।

तत आरण्यकं पर्व किर्मीरवध एव च ॥४९॥

 

इसके बाद क्रमशः द्यूत एवं अनुद्यूतपर्व हैं। तत्पश्चात् वनयात्रापर्व तथा किर्मीरवधपर्व है।। ४९ ॥

 

अर्जुनस्याभिगमनं पर्व ज्ञेयमतः परम् ।

ईश्वरार्जुनयोर्युद्धं पर्व कैरातसंज्ञितम् ।। ५०॥

 

इसके बाद अर्जुनाभिगमनपर्व जानना चाहिये और फिर कैरातपर्व आता है. जिसमें सर्वेश्वर भगवान् शिव तथा अर्जुनके युद्धका वर्णन है ।। ५०॥

 

इन्द्रलोकाभिगमनं पर्व ज्ञेयमतः परम् ।

नलोपाख्यानमपिच धार्मिकं करुणोदयम् ।। ५१ ।।

 

तत्पश्चात् इन्द्रलोकाभिगमनपर्व है, फिर धार्मिक तथा करुणोत्पादक नलोपाख्यानपर्व है।। ५१॥

 

तीर्थयात्रा ततः पर्व कुरुराजस्य धीमतः।

जटासुरवधः पर्व यक्षयुद्धमतः परम् ।। ५२ ।।

 

तदनन्तर बुद्धिमान् कुरुराजका तीर्थयात्रापर्व, जटासुरवधपर्व और उसके बाद | यक्षयुद्धपर्व है ।। ५२॥

 

निवातकवचैर्युद्धं पर्व चाजगरं ततः।

मार्कण्डेयसमास्या च पर्वानन्तरमुच्यते ।। ५३ ।।

 

इसके पश्चात् निवातकवचयुद्ध, आजगर और मार्कण्डेयसमास्यापर्व क्रमशः कहे गये हैं।। ५३ ॥

 

संवादश्च ततः पर्व द्रौपदीसत्यभामयोः।

घोषयात्रा ततः पर्व मृगस्वप्नोद्भवं ततः ।। ५४ ।।

व्रीहिद्रौणिकमाख्यानमैन्द्रद्युम्नं तथैव च ।

द्रौपदीहरणं पर्व जयद्रथविमोक्षणम् ।। ५५ ।।

 

इसके बाद आता है द्रौपदी और सत्यभामाके संवादका पर्व, इसके अनन्तर घोषयात्रापर्व है, उसीमें मगस्वप्नोद्भव और व्रीहिद्रौणिक उपाख्यान है। तदनन्तर इन्द्रद्युम्नका आख्यान और उसके बाद द्रौपदीहरणपर्व है। उसीमें जयद्रथविमोक्षणपर्व है ।। ५४-५५ ।।

 

पतिव्रताया माहात्म्यं सावित्र्याश्चैवमद्भतम्। रामोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमतः परम् ।। ५६॥

 

इसके बाद पतिव्रता सावित्रीके पातिव्रत्यका अद्भुत माहात्म्य है। फिर इसी स्थानपर रामोपाख्यानपर्व जानना चाहिये ।। ५६॥

 

कुण्डलाहरणं पर्व ततः परमिहोच्यते।।

आरणेयं ततः पर्व वैराटं तदनन्तरम्।

पाण्डवानां प्रवेशश्च समयस्य च पालनम् ।। ५७॥

 

इसके बाद क्रमशः कुण्डलाहरण और आरणेय-पर्व कहे गये हैं। तदनन्तर विराटपर्वका आरम्भ होता है. जिसमें पाण्डवोंके नगरप्रवेश और समयपालन-सम्बन्धीपर्व हैं ।। ५७ ।।।

 

कीचकानां वधः पर्व पर्व गोग्रहणं ततः।

अभिमन्योश्च वैराट्याः पर्व वैवाहिकं स्मृतम् ।। ५८ ॥

 

इसके बाद कीचकवधपर्व, गोग्रहण (गोहरण)-पर्व तथा अभिमन्यु और उत्तराके विवाहका पर्व है।। ५८ ॥

 

उद्योगपर्व विज्ञेयमत ऊर्ध्वं महाद्भतम् ।

ततः संजययानाख्यं पर्व ज्ञेयमतः परम् ।। ५९ ॥

प्रजागरं तथा पर्व धृतराष्ट्रस्य चिन्तया।

पर्व सानत्सुजातं वै गुह्यमध्यात्मदर्शनम् ।। ६०॥

 

इसके पश्चात् परम अद्भुत उद्योगपर्व समझना चाहिये। इसीमें संजययानपर्व कहा गया है। तदनन्तर चिन्ताके कारण धृतराष्ट्रके रातभर जागनेसे सम्बन्ध रखनेवाला प्रजागरपर्व समझना चाहिये। तत्पश्चात् वह प्रसिद्ध सनत्सुजातपर्व है, जिसमें अत्यन्त गोपनीय अध्यात्मदर्शनका समावेश हुआ है।। ५९-६०॥

 

यानसन्धिस्ततः पर्व भगवद्यानमेव च।

मातलीयमुपाख्यानं चरितं गालवस्य च ।। ६१ ।।

सावित्रं वामदेव्यं च वैन्योपाख्यानमेव च।

जामदग्न्यमुपाख्यानं पर्व षोडशराजिकम् ।। ६२ ।।

 

इसके पश्चात् यानसन्धि तथा भगवद्यानपर्व है, इसीमें मातलिका उपाख्यान, गालवचरित, सावित्र, वामदेव तथा वैन्य-उपाख्यान, जामदग्न्य और षोडशराजिक-उपाख्यान आते हैं ।। ६१-६२ ।।

 

सभाप्रवेशः कृष्णस्य विदुलापुत्रशासनम् ।

उद्योगः सैन्यनिर्याणं विश्वोपाख्यानमेव च ।। ६३ ।।

 

फिर श्रीकृष्णका सभाप्रवेश, विदुलाका अपने पुत्रके प्रति उपदेश, युद्धका उद्योग, | सैन्यनिर्याण तथा विश्वोपाख्यान-इनका क्रमशः उल्लेख हुआ है ।। ६३ ।।

 

ज्ञेयं विवादपर्वात्र कर्णस्यापि महात्मनः ।

निर्याणं च ततः पर्व कुरुपाण्डवसेनयोः ।। ६४ ॥

 

इसी प्रसंगमें महात्मा कर्णका विवादपर्व है। तदनन्तर कौरव एवं पाण्डव-सेनाका निर्याणपर्व है ।। ६४ ॥

 

रथातिरथसंख्या च पर्वोक्तं तदनन्तरम्।

उलूकदूतागमनं पर्वामर्षविवर्धनम् ।। ६५ ॥

 

तत्पश्चात् रथातिरथसंख्यापर्व और उसके बाद क्रोधकी आग प्रज्वलित करनेवाला उलूकदूतागमनपर्व है।। ६५ ।।।

 

अम्बोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमतः परम् ।

भीष्माभिषेचनं पर्व ततश्चाद्भूतमुच्यते ।। ६६ ॥

 

इसके बाद ही अम्बोपाख्यानपर्व है। तत्पश्चात् अद्भुत भीष्माभिषेचनपर्व कहा गया है।। ६६॥

 

जम्बूखण्डविनिर्माणं पर्वोक्तं तदनन्तरम् ।

भूमिपर्व ततः प्रोक्तं द्वीपविस्तारकीर्तनम् ।। ६७ ॥

 

इसके आगे जम्बूखण्ड विनिर्माणपर्व है। तदनन्तर भूमिपर्व कहा गया है, जिसमें द्वीपोंके विस्तारका कीर्तन किया गया है।६७॥

 

पर्वोक्तं भगवद्गीता पर्व भीष्मवधस्ततः।

द्रोणाभिषेचनं पर्व संशप्तकवधस्ततः ॥ ६८॥

 

इसके बाद क्रमशः भगवद्गीता, भीष्मवध, द्रोणाभिषेक तथा संशप्तकवधपर्व हैं। ६८॥

 

अभिमन्युवधः पर्व प्रतिज्ञापर्व चोच्यते।

जयद्रथवधः पर्व घटोत्कचवधस्ततः ॥ ६९ ॥

 

इसके बाद अभिमन्युवधपर्व, प्रतिज्ञापर्व, जयद्रथवधपर्व और घटोत्कचवधपर्व हैं।। ६९।।

 

ततो द्रोणवधः पर्व विज्ञेयं लोमहर्षणम्।

मोक्षो नारायणास्त्रस्य पर्वानन्तरमच्यते ।। ७०।।

 

फिर रोंगटे खड़े कर देनेवाला द्रोणवधपर्व जानना चाहिये। तदनन्तर नारायणास्त्रमोक्षपर्व कहा गया है ।। ७० ॥

 

कर्णपर्व ततो ज्ञेयं शल्यपर्व ततः परम् ।

हृदप्रवेशनं पर्व गदायुन्द्रमतः परम् ।। ७१ ।।

 

फिर कर्णपर्व और उसके बाद शल्यपर्व है। इसी पर्वमें ह्रदप्रवेश और गदायुद्धपर्व भी हैं ।। ७१ ।।

 

सारस्वतं ततः पर्व तीर्थवंशानुकीर्तनम् ।

अत ऊर्ध्व सुबीभत्सं पर्व सौप्तिकमुच्यते ।। ७२ ।।

 

तदनन्तर सारस्वतपर्व है, जिसमें तीर्थों और वंशोंका वर्णन किया गया है। इसके बाद है अत्यन्त बीभत्स सौप्तिकपर्व ।। ७२ ।।

 

ऐषीकं पर्व चोद्दिष्टमत ऊर्ध्वं सुदारुणम्।

जलप्रदानिकं पर्व स्त्रीविलापस्ततः परम् ।। ७३ ॥

 

इसके बाद अत्यन्त दारुण ऐषीकपर्वकी कथा है। फिर जलप्रदानिक और स्त्रीविलापपर्व आते हैं ।। ७३ ।।

 

श्राद्धपर्व ततो ज्ञेयं कुरूणामौर्ध्वदहिकम् ।

चार्वाकनिग्रहः पर्व रक्षसो ब्रह्मरूपिणः ।। ७४ ॥

 

 

तत्पश्चात् श्राद्धपर्व है. जिसमें मृत कौरवोंकी अन्त्येष्टिक्रियाका वर्णन है। उसके बाद ब्राह्मण-वेषधारी राक्षस चार्वाकके निग्रहका पर्व है ।। ७४ ।।

 

आभिषेचनिकं पर्व धर्मराजस्य धीमतः।

प्रविभागो गृहाणां च पर्वोक्तं तदनन्तरम् ।। ७५ ।।

 

तदनन्तर धर्मबुद्धिसम्पन्न धर्मराज युधिष्ठिरके अभिषेकका पर्व है तथा इसके पश्चात् गृहप्रविभागपर्व है ।। ७५ ॥

 

शान्तिपर्व ततो यत्र राजधर्मानुशासनम् ।

आपद्धर्मश्च पर्वोक्तं मोक्षधर्मस्ततः परम् ।। ७६ ॥

 

इसके बाद शान्तिपर्व प्रारम्भ होता है, जिसमें राजधर्मानुशासन, आपद्धर्म और मोक्षधर्मपर्व हैं ।। ७६॥

 

शुकप्रश्नाभिगमनं ब्रह्मप्रश्नानुशासनम्।

प्रादुर्भावश्च दुर्वासः संवादश्चैव मायया ।। ७७ ॥

 

फिर शुकप्रश्नाभिगमन, ब्रह्मप्रश्नानुशासन, दुर्वासाका प्रादुर्भाव और मायासंवादपर्व हैं ।। ७७॥

 

ततः पर्व परिज्ञेयमानुशासनिकं परम् ।

स्वर्गारोहणिकं चैव ततो भीष्मस्य धीमतः ।। ७८ ॥

 

इसके बाद धर्माधर्मका अनुशासन करनेवाला आनुशासनिकपर्व है, तदनन्तर बुद्धिमान् भीष्मजीका स्वर्गारोहणपर्व है ।। ७८ ।।

 

ततोऽऽश्वमेधिकं पर्व सर्वपापप्रणाशनम्।

अनुगीता ततः पर्व ज्ञेयमध्यात्मवाचकम् ।। ७९ ।।

 

अब आता है आश्वमेधिकपर्व, जो सम्पूर्ण पापोंका नाशक है। उसीमें अनुगीतापर्व है, जिसमें अध्यात्मज्ञानका सुन्दर निरूपण हुआ है ।। ७९ ।।

 

पर्व चाश्रमवासाख्यं पुत्रदर्शनमेव च।

नारदागमनं पर्व ततः परमिहोच्यते ।। ८०॥

 

इसके बाद आश्रमवासिक, पुत्रदर्शन और तदनन्तर नारदागमनपर्व कहे गये हैं ।। ८०॥

 

मौसलं पर्व चोद्दिष्टं ततो घोरं सुदारुणम्।

महाप्रस्थानिकं पर्व स्वर्गारोहणिकं ततः ।। ८१॥

 

इसके बाद है अत्यन्त भयानक एवं दारुण मौसलपर्व। तत्पश्चात् महाप्रस्थानपर्व और स्वर्गारोहण-पर्व आते हैं ।। ८१॥

 

हरिवंशस्ततः पर्व पुराणं खिलसंज्ञितम् ।

विष्णुपर्व शिशोश्चर्या विष्णोः कंसवधस्तथा ।। ८२ ।।

 

 

इसके बाद हरिवंशपर्व है, जिसे खिल (परिशिष्ट) पुराण भी कहते हैं. इसमें विष्णुपर्व, श्रीकृष्णकी बाललीला एवं कंसवधका वर्णन है।। ८२ ।।

 

भविष्यपर्व चाप्युक्तं खिलेष्वेवाद्भतं महत्।

एतत् पर्वशतं पूर्ण व्यासेनोक्तं महात्मना ।। ८३ ।।

 

इस खिलपर्वमें भविष्यपर्व भी कहा गया है. जो महान् अद्भुत है। महात्मा श्रीव्यासजीने इस प्रकार पूरे सौ पोंकी रचना की है ।। ८३ ।।

 

यथावत् सूरपुत्रेण लोमहर्षणिना ततः।

उक्तानि नैमिषारण्ये पर्वाण्यष्टादशैव तु ।। ८४ ॥

 

सूतवंशशिरोमणि लोमहर्षणके पुत्र उग्रश्रवाजीने व्यासजीकी रचना पूर्ण हो जानेपर नैमिषारण्यक्षेत्रमें इन्हीं सौ पौंको अठारह पर्वोके रूपमें सुव्यवस्थित करके ऋषियोंके सामने कहा ।। ८४ ॥

 

समासो भारतस्यायमत्रोक्तः पर्वसंग्रहः ।

पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम् ।। ८५ ।।

सम्भवो जतुवेश्माख्यं हिडिम्बबकयोर्वधः ।

तथा चैत्ररथं देव्याः पाञ्चाल्याश्च स्वयंवरः ।। ८६ ॥

क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम् ।

विदुरागमनं चैव राज्यलम्भस्तथैव च ।। ८७॥ वनवासोऽर्जुनस्यापि सुभद्राहरणं ततः।

हरणाहरणं चैव दहनं खाण्डवस्य च ।। ८८ ॥

मयस्य दर्शनं चैव आदिपर्वणि कथ्यते ।

 

इस प्रकार यहाँ संक्षेपसे महाभारतके पर्वोका संग्रह बताया गया है। पौष्य, पौलोम, आस्तीक, आदिअंशावतरण, सम्भव, लाक्षागृह, हिडिम्बवध, बकवध, चैत्ररथ, देवी द्रौपदीका स्वयंवर, क्षत्रियधर्मसे राजाओंपर विजयप्राप्तिपूर्वक वैवाहिक विधि, विदुरागमन, राज्यलम्भ, अर्जुनका वनवास, सुभद्राका हरण, हरणाहरण, खाण्डवदाह तथा मयदानवसे मिलनेका प्रसंग–यहाँतककी कथा आदिपर्वमें कही गयी है ।। ८५-८८६ ।।

 

पीष्ये पर्वणि माहात्म्यमुत्तकस्योपवर्णितम् ।। ८९ ।।

पौलोमे भृगुवंशस्य विस्तारः परिकीर्तितः।

आस्तीके सर्वनागानां गरुडस्य च सम्भवः ॥ ९०॥

 

पौष्यपर्वमें उत्तंकके माहात्म्यका वर्णन है। पौलोमपर्वमें भृगुवंशके विस्तारका वर्णन है। आस्तीकपर्वमें सब नागों तथा गरुड़की उत्पत्तिकी कथा है ।। ८९-९० ।।

 

क्षीरोदमथनं चैव जन्मोच्चैःश्रवसस्तथा।

यजतः सर्पसत्रेण राज्ञः पारीक्षितस्य च ॥ ९१ ।।

कथेयमभिनिवृत्ता भरतानां महात्मनाम्।

विविधाः सम्भवा राज्ञामुक्ताः सम्भवपर्वणि ।। ९२ ।।

अन्येषां चैव शूराणामृषेद्वैपायनस्य च।

अंशावतरणं चात्र देवानां परिकीर्तितम् ।। ९३ ॥

 

इसी पर्वमें क्षीरसागरके मन्थन और उच्चैःश्रवा घोड़ेके जन्मकी भी कथा है। | परीक्षितनन्दन राजा जनमेजयके सर्पयज्ञमें इन भरतवंशी महात्मा राजाओंकी कथा कही गयी है। सम्भवपर्वमें राजाओंके भिन्न-भिन्न प्रकारके जन्मसम्बन्धी वृत्तान्तोंका वर्णन है। इसीमें दूसरे शूरवीरों तथा महर्षि द्वैपायनके जन्मकी कथा भी है। यहीं देवताओंके अंशावतरणकी कथा कही गयी है।९१-९३ ॥

 

दैत्यानां दानवानां च यक्षाणां च महौजसाम्।

नागानामथ सर्पाणां गन्धर्वाणां पतत्त्रिणाम् ।। ९४ ।।

अन्येषां चैव भूतानां विविधानां समुद्भवः ।

महर्षेराश्रमपदे कण्वस्य च तपस्विनः ।।९५ ।।

शकुन्तलायां दुष्यन्ताद् भरतश्चापि जज्ञिवान् ।

यस्य लोकेषु नाम्नेदं प्रथितं भारतं कुलम् ।।९६ ॥

 

इसी पर्वमें अत्यन्त प्रभावशाली दैत्य, दानव, यक्ष, नाग, सर्प, गन्धर्व और पक्षियों तथा अन्य विविध प्रकारके प्राणियोंकी उत्पत्तिका वर्णन है। परम तपस्वी महर्षि कण्वके आश्रममें दुष्यन्तके द्वारा शकुन्तलाके गर्भसे भरतके जन्मकी कथा भी इसीमें है। उन्हीं महात्मा भरतके नामसे यह भरतवंश संसारमें प्रसिद्ध हुआ है ।। ९४-९६ ।।

 

वसूनां पुनरुत्पत्तिर्भागीरथ्यां महात्मनाम्।

शान्तनोवेश्मनि पुनस्तेषां चारोहणं दिवि ।। ९७ ।।

 

इसके बाद महाराज शान्तनुके गृहमें भागीरथी गंगाके गर्भसे महात्मा वसुओंकी उत्पत्ति | एवं फिरसे उनके स्वर्गम जानेका वर्णन किया गया है ।। ९७ ।।

 

तेजोंऽशानां च सम्पातो भीष्मस्याप्यत्र सम्भवः । राज्यान्निवर्तनं तस्य ब्रह्मचर्यव्रते स्थितिः ।। ९८ ॥

प्रतिज्ञापालनं चैव रक्षा चित्राङ्गदस्य च ।

हते चित्राङदे चैव रक्षा भ्रातर्यवीयसः ॥ ९९ ।।

विचित्रवीर्यस्य तथा राज्ये सम्प्रतिपादनम् ।

धर्मस्य नृषु सम्भूतिरणीमाण्डव्यशापजा ।। १०० ।।

कृष्णद्वैपायनाच्चैव प्रसूतिर्वरदानजा।

धृतराष्ट्रस्य पाण्डोश्च पाण्डवानां च सम्भवः ॥ १०१ ।।

 

इसी पर्वमें वसुओंके तेजके अंशभूत भीष्मके जन्मकी कथा भी है। उनकी राज्यभोगसे निवृत्ति, आजीवन ब्रह्मचर्यव्रतमें स्थित रहनेकी प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञापालन, चित्रांगदकी रक्षा और चित्रांगदकी मृत्यु हो जानेपर छोटे भाई विचित्रवीर्यकी रक्षा, उन्हें राज्य-समर्पण, अणीमाण्डव्यके शापसे भगवान् धर्मकी विदुरके रूपमें मनुष्योंमें उत्पत्ति, श्रीकृष्णद्वैपायनके वरदानके कारण धृतराष्ट्र एवं पाण्डुका जन्म और इसी प्रसंगमें | पाण्डवोंकी उत्पत्ति-कथा भी है।। ९८-१०१॥


महाभारत आदिपर्व अनुक्रमणिका 04 

पर्वसंग्रहपर्व 02

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