ऋषि: - परमेष्ठी वा कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - आर्षी गायत्री स्वरः - षड्जः
नम॑स्ते रुद्र म॒न्यव॑ऽउ॒तो त॒ऽइष॑वे॒ नमः॑। बा॒हुभ्या॑मु॒त ते॒ नमः॑॥१॥
विषय - अब सोलहवें अध्याय का आरम्भ करते हैं। इस के प्रथम मन्त्र में राजधर्म का उपदेश किया है॥
पदार्थ -
हे (रुद्र) दुष्ट शत्रुओं को रुलानेहारे राजन्! (ते) तेरे (मन्यवे) क्रोधयुक्त वीर पुरुष के लिये (नमः) वज्र प्राप्त हो (उतो) और (इषवे) शत्रुओं को मारनेहारे (ते) तेरे लिये (नमः) अन्न प्राप्त हो (उत) और (ते) तेरे (बाहुभ्याम्) भुजाओं से (नमः) वज्र शत्रुओं को प्राप्त हो॥१॥
भावार्थ - जो राज्य किया चाहें, वे हाथ पांव का बल, युद्ध की शिक्षा तथा शस्त्र और अस्त्रों का संग्रह करें॥१॥
ऋषि: - परमेष्ठी वा कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - स्वराडर्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
या ते॑ रुद्र शि॒वा त॒नूरघो॒राऽपा॑पकाशिनी। तया॑ नस्त॒न्वा शन्त॑मया॒ गिरि॑शन्ता॒भि चा॑कशीहि॥२॥
विषय - अब शिक्षक और शिष्य का व्यवहार अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (गिरिशन्त) मेघ वा सत्य उपदेश से सुख पहुँचाने वाले (रुद्र) दुष्टों को भय और श्रेष्ठों के लिये सुखकारी शिक्षक विद्वन्! (या) जो (ते) आप की (अघोरा) घोर उपद्रव से रहित (अपापकाशिनी) सत्य धर्मों को प्रकाशित करने हारी (शिवा) कल्याणकारिणी (तनूः) देह वा विस्तृत उपदेश रूप नीति है (तया) उस (शन्तमया) अत्यन्त सुख प्राप्त कराने वाली (तन्वा) देह वा विस्तृत उपदेश की नीति से (नः) हम लोगों को आप (अभि, चाकशीहि) सब ओर से शीघ्र शिक्षा कीजिये॥२॥
भावार्थ - शिक्षक लोग शिष्यों के लिये धर्मयुक्त नीति की शिक्षा दें और पापों से पृथक् करके कल्याणरूपी कर्मों के आचरण में नियुक्त करें॥२॥
ऋषि: - परमेष्ठी वा कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - विराडर्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
यामिषुं॑ गिरिशन्त॒ हस्ते॑ बि॒भर्ष्यस्त॑वे। शि॒वां गि॑रित्र॒ तां कु॑रु॒ मा हि॑ꣳसीः॒ पुरु॑षं॒ जग॑त्॥३॥
विषय - अब राजपुरुषों को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (गिरिशन्त) मेघ द्वारा सुख पहुंचाने वाले सेनापति! जिस कारण तू (अस्तवे) फेंकने के लिये (याम्) जिस (इषुम्) बाण को (हस्ते) हाथ में (बिभर्षि) धारण करता है, इसलिये (ताम्) उसको (शिवाम्) मङ्गलकारी (कुरु) कर। हे (गिरित्र) विद्या के उपदेशकों वा मेघों की रक्षा करनेहारे राजपुरुष! तू (पुरुषम्) पुरुषार्थयुक्त मनुष्यादि (जगत्) संसार को (मा) मत (हिंसीः) मार॥३॥
भावार्थ - राजपुरुषों को चाहिये कि युद्धविद्या को जान और शस्त्र-अस्त्रों को धारण करके मनुष्यादि श्रेष्ठ प्राणियों को क्लेश न देवें वा न मारें, किन्तु मङ्गलरूप आचरण से सब की रक्षा करें॥३॥
ऋषि: - परमेष्ठी ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
शि॒वेन॒ वच॑सा॒ त्वा॒ गिरि॒शाच्छा॑ वदामसि। यथा॑ नः॒ सर्व॒मिज्जग॑दय॒क्ष्मᳬ सु॒मना॒ऽअस॑त्॥४॥
विषय - अब वैद्य का कृत्य यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (गिरिश) पर्वत वा मेघों में सोनेवाले रोगनाशक वैद्यराज! तू (सुमनाः) प्रसन्नचित्त होकर आप (यथा) जैसे (नः) हमारा (सर्वम्) सब (जगत्) मनुष्यादि जङ्गम और स्थावर राज्य (अयक्ष्मम्) क्षय आदि राजरोगों से रहित (असत्) हो वैसे (इत्) ही (शिवेन) कल्याणकारी (वचसा) वचन से (त्वा) तुझ को हम लोग (अच्छ वदामसि) अच्छा कहते हैं॥४॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो पुरुष वैद्यकशास्त्र को पढ़ पर्वतादि स्थानों की ओषधियों वा जलों की परीक्षा कर और सब के कल्याण के लिये निष्कपटता से रोगों को निवृत्त करके प्रिय वाणी से वर्त्ते, उस वैद्य का सब लोग सत्कार करें॥४॥
ऋषि: - बृहस्पतिर्ऋषिः देवता - एकरूद्रो देवता छन्दः - भुरिगार्षी बृहती स्वरः - मध्यमः
अध्य॑वोचदधिव॒क्ता प्र॑थ॒मो दैव्यो॑ भि॒षक्। अही॑ श्चँ॒ सर्वा॑ञ्ज॒म्भय॒न्त्सर्वा॑श्च यातुधा॒न्योऽध॒राचीः॒ परा॑ सुव॥५॥
विषय - फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे रुद्र रोगनाशक वैद्य! जो (प्रथमः) मुख्य (दैव्यः) विद्वानों में प्रसिद्ध (अधिवक्ता) सब से उत्तम कक्षा के वैद्यकशास्त्र को पढ़ाने तथा (भिषक्) निदान आदि को जान के रोगों को निवृत्त करनेवाले आप (सर्वान्) सब (अहीन्) सर्प के तुल्य प्राणान्त करनेहारे रोगों को (च) निश्चय से (जम्भयन्) ओषधियों से हटाते हुए (अध्यवोचत्) अधिक उपदेश करें सो आप जो (सर्वाः) सब (अधराचीः) नीच गति को पहुंचाने वाली (यातुधान्यः) रोगकारिणी ओषधि वा व्यभिचारिणी स्त्रियाँ हैं, उनको (परा) दूर (सुव) कीजिये॥५॥
भावार्थ - राजादि सभासद् लोग सब के अधिष्ठाता मुख्य धर्मात्मा जिसने सब रोगों वा ओषधियों की परीक्षा ली हो उस वैद्य को राज्य और सेना में रख के बल और सुख के नाशक रोगों तथा व्यभिचारिणी स्त्री और पुरुषों को निवृत्त करावें॥५॥
ऋषि: - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - निचृदार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
अ॒सौ यस्ता॒म्रोऽअ॑रु॒णऽउ॒त ब॒भ्रुः सु॑म॒ङ्गलः॑। ये चै॑नꣳ रु॒द्राऽअ॒भितो॑ दि॒क्षु श्रि॒ताः स॑हस्र॒शोऽवै॑षाᳬ हेड॑ऽईमहे॥६॥
विषय - फिर भी वही राजधर्म का विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे प्रजास्थ मनुष्यो! (यः) जो (असौ) वह (ताम्रः) ताम्रवत् दृढाङ्गयुक्त (हेडः) शत्रुओं का अनादर करने हारा (अरुणः) सुन्दर गौराङ्ग (बभ्रुः) किञ्चित् पीला वा धुमेला वर्णयुक्त (उत) और (सुमङ्गलः) सुन्दर कल्याणकारी राजा हो (च) और (ये) जो (सहस्रशः) हजारहों (रुद्राः) दुष्ट कर्म करने वालों को रुलानेहारे (अभितः) चारों ओर (दिक्षु) पूर्वादि दिशाओं में (एनम्) इस राजा के (श्रिताः) आश्रय से वसते हों (एषाम्) इन वीरों का आश्रय लेके हम लोग (अवेमहे) विरुद्धाचरण की इच्छा नहीं करते हैं॥६॥
भावार्थ - हे मनुष्यो! जो राजा अग्नि के समान दुष्टों को भस्म करता, चन्द्र के तुल्य श्रेष्ठों को सुख देता, न्यायकारी, शुभलक्षणयुक्त और जो इस के तुल्य भृत्य राज्य में सर्वत्र वसें, विचरें वा समीप में रहें, उन का सत्कार करके उन से दुष्टों का अपमान तुम लोग कराया करो॥६॥
ऋषि: - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - विराडार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
अ॒सौ योऽव॒सर्प॑ति॒ नील॑ग्रीवो॒ विलो॑हितः। उ॒तैनं॑ गो॒पाऽअ॑दृश्र॒न्नदृ॑श्रन्नुदहा॒र्य्यः स दृ॒ष्टो मृ॑डयाति नः॥७॥
विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(यः) जो (असौ) वह (नीलग्रीवः) नीलमणियों की माला पहिने (विलोहितः) विविध प्रकार के शुभ गुण, कर्म और स्वभाव से युक्त श्रेष्ठ (रुद्रः) शत्रुओं का हिंसक सेनापति (अवसर्पति) दुष्टों से विरुद्ध चलता है। जिस (एनम्) इसको (गोपाः) रक्षक भृत्य (अदृश्रन्) देखें (उत) और (उदहार्य्यः) जल लाने वाली कहारी स्त्रियां (अदृश्रन्) देखें (सः) वह सेनापति (दृष्टः) देखा हुआ (नः) हम सब धार्मिकों को (मृडयाति) सुखी करे॥७॥
भावार्थ - जो दुष्टों का विरोधी श्रेष्ठों का प्रिय दर्शनीय सेनापति सब सेनाओं को प्रसन्न करे, वह शत्रुओं को जीत सके॥७॥
ऋषि: - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
नमो॑ऽस्तु॒ नील॑ग्रीवाय सहस्रा॒क्षाय॑ मी॒ढुषे॑। अथो॒ येऽअ॑स्य॒ सत्वा॑नो॒ऽहं तेभ्यो॑ऽकरं॒ नमः॑॥८॥
विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(नीलग्रीवाय) जिसका कण्ठ और स्वर शुद्ध हो उस (सहस्राक्षाय) हजारहों भृत्यों के कार्य देखने वाले (मीढुषे) पराक्रमयुक्त सेनापति के लिये मेरा दिया (नमः) अन्न (अस्तु) प्राप्त हो (अथो) इसके अनन्तर (ये) जो (अस्य) इस सेनापति के अधिकार में (सत्वानः) सत्त्व गुण तथा बल से युक्त पुरुष हैं (तेभ्यः) उनके लिये भी (अहम्) मैं (नमः) अन्नादि पदार्थों को (अकरम्) सिद्ध करुं॥८॥
भावार्थ - सभापति आदि राजपुरुषों को चाहिये कि अन्नादि पदार्थों से जैसा सत्कार सेनापति का करें, वैसा ही सेना के भृत्यों का भी करें॥८॥
ऋषि: - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - भुरिगार्ष्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः
प्रमु॑ञ्च॒ धन्व॑न॒स्त्वमु॒भयो॒रार्त्न्यो॒र्ज्याम्। याश्च॑ ते॒ हस्त॒ऽइष॑वः॒ परा॒ ता भ॑गवो वप॥९॥
विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (भगवः) ऐश्वर्ययुक्त सेनापते! (ते) तेरे (हस्ते) हाथ में (याः) जो (इषवः) बाण हैं (ताः) उन को (धन्वनः) धनुष् के (उभयोः) दोनों (आर्त्न्योः) पूर्व पर किनारों की (ज्याम्) प्रत्यञ्चा में जोड़ के शत्रुओं पर (त्वम्) तू (प्र, मुञ्च) बल के साथ छोड़ (च) और जो तेरे पर शत्रुओं ने बाण छोड़े हुए हों उन को (परा, वप) दूर कर॥९॥
भावार्थ - सेनापति आदि राजपुरुषों को चाहिये कि धनुष् से बाण चलाकर शत्रुओं को जीतें और शत्रुओं के फेंके हुए बाणों का निवारण करें॥९॥
ऋषि: - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - भुरिगार्ष्युष्णिक् स्वरः - गान्धारः
विज्यं॒ धनुः॑ कप॒र्दिनो॒ विश॑ल्यो॒ बाण॑वाँ२ऽउ॒त। अने॑शन्नस्य॒ याऽइष॑वऽआ॒भुर॑स्य निषङ्ग॒धिः॥१०॥
विषय - फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे धनुर्वेद को जानने हारे पुरुषो! (अस्य) इस (कपर्द्दिनः) प्रशंसित जटाजूट को धारण करने हारे सेनापति का (धनुः) धनुष् (विज्यम्) प्रत्यञ्चा से रहित न होवे तथा यह (विशल्यः) बाण के अग्रभाग से रहित और (आभुः) आयुधों से खाली मत हो (उत) और (अस्य) इस अस्त्र-शस्त्रों को धारण करने वाले सेनापति की (निषङ्गधिः) बाणादि शस्त्रास्त्र कोष खाली मत हो तथा यह (बाणवान्) बहुत बाणों से युक्त होवे (याः) जो (अस्य) इस सेनापति के (इषवः) बाण (अनेशन्) नष्ट हो जावें, वे इस को तुम लोग नवीन देओ॥१०॥
भावार्थ - युद्ध की इच्छा करने वाले पुरुषों को चाहिये कि धनुष् की प्रत्यञ्चा आदि को दृढ़ और बहुत से बाणों को धारण करें। सेनापति आदि को चाहिये कि लड़ते हुए अपने भृत्यों को देख के यदि उन के पास बाणादि युद्ध के साधन न रहें तो फिर भी दिया करें॥१०॥
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