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महाभारत आदिपर्व अनुक्रमणिका 04

 

महाभारत आदिपर्व अनुक्रमणिका 04

 

यदाश्रौषं विविधांश्चित्रमार्गान्गदायुद्धे मण्डलशश्चरन्तम् ।

मिथ्याहतं वासुदेवस्य बुद्धयातदा नाशंसे विजयाय संजय ।।२११॥

 

 संजय! जब मैंने सुना कि गदायुद्ध में मेरा पुत्र बड़ी निपुणतासे पैंतरे बदलकर रणकौशल प्रकट कर रहा है और श्रीकृष्णकी सलाहसे भीमसेनने गदायुद्धकी मर्यादाके विपरीत जाँघमें गदाका प्रहार करके उसे मार डाला, तब तो संजय! मेरे मनमें विजयकी आशा रह ही नहीं गयी ।। २११ ।।

 

यदाश्रौषं द्रोणपुत्रादिभिस्तै हतान् पञ्चालान् द्रौपदेयांश्च सुप्तान्।

कृतं बीभत्समयशस्यं च कर्म तदा नाशंसे विजयाय संजय ।।२१२ ।।

 

संजय! जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा आदि दुष्टोंने सोते हुए पाञ्चाल नरपतियों और द्रौपदीके होनहार पुत्रोंको मारकर अत्यन्त बीभत्स और वंशके यशको कलंकित करनेवाला काम किया है, तब तो मुझे विजयकी आशा रही ही नहीं ।। २१२ ।।

 

यदाश्रौषं भीमसेनानुयातेनाश्वत्थाम्ना परमास्त्रं प्रयुक्तम्। कुद्धेनैषीकमवधीद् येन गर्भ तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २१३ ।।

 

संजय! जब मैंने सुना कि भीमसेनके पीछा करनेपर अश्वत्थामाने क्रोधपूर्वक सींकके बाणपर ब्रह्मास्त्रका प्रयोग कर दिया, जिससे कि पाण्डवोंका गर्भस्थ वंशधर भी नष्ट हो जाये, तभी मेरे मनमें विजयकी आशा नहीं रही ।। २१३ ।।

 

यदाश्रौषं ब्रह्मशिरोऽर्जुनेन स्वस्तीत्युक्त्वास्त्रमस्त्रेण शान्तम् । अश्वत्थाम्ना मणिरत्नं च दत्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।।२१४ ।।

 

जब मैंने सुना कि अश्वत्थामाके द्वारा प्रयुक्त ब्रह्मशिर अस्त्रको अर्जुनने 'स्वस्ति', 'स्वस्ति' कहकर अपने अस्त्रसे शान्त कर दिया और अश्वत्थामाको अपना मणिरत्न भी देना पड़ा। संजय! उसी समय मुझे जीतकी आशा नहीं रही ।। २१४ ।।

 

यदाश्रौषं द्रोणपुत्रेण गर्भ वैराट्या वै पात्यमाने महास्त्रैः।

द्वैपायनः केशवो द्रोणपुत्रंपरस्परेणाभिशापैः शशाप ॥२१५ ॥

शोच्या गान्धारी पुत्रपौत्रैविहीनातथा बन्धुभिः पितृभिर्धातृभिश्च।

कृतं कार्यं दुष्करं पाण्डवेयैःप्राप्त राज्यमसपत्नं पुनस्तैः ॥ २१६ ॥

 

जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा अपने महान् अस्त्रोंका प्रयोग करके उत्तराका गर्भ गिरानेकी चेष्टा कर रहा है तथा श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास और स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने परस्पर विचार करके उसे शापोंसे अभिशप्त कर दिया है (तभी मेरी विजयकी आशा सदाके लिये समाप्त हो गयी)। इस समय गान्धारीकी दशा शोचनीय हो गयी है; क्योंकि उसके पुत्र-पौत्र, पिता तथा भाई-बन्धुओंमेंसे कोई नहीं रहा। पाण्डवोंने दुष्कर कार्य कर डाला। उन्होंने फिरसे अपना अकण्टक राज्य प्राप्त कर लिया ।। २१५-२१६॥

 

कष्टं युद्धे दश शेषाः श्रुता मेत्रयोऽस्माकं पाण्डवानां च सप्त।

द्वयूना विंशतिराहताक्षौहिणीनां तस्मिन् संग्रामे भैरवे क्षत्रियाणाम् ।। २१७ ॥

 

हाय-हाय! कितने कष्टकी बात है, मैंने सुना है कि इस भयंकर युद्ध में केवल दस व्यक्ति बचे हैं; मेरे पक्षके तीन-कृपाचार्य, अश्वत्थामा और कृतवर्मा तथा पाण्डवपक्षके सात-श्रीकृष्ण, सात्यकि और पाँचों पाण्डव। क्षत्रियोंके इस भीषण संग्राममें अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ नष्ट हो गयीं ।। २१७ ।।

 

तमस्त्वतीव विस्तीर्ण मोह आविशतीव माम् ।

संज्ञां नोपलभे सूत मनो विह्वलतीव मे ।। २१८ ।।

 

सारथे। यह सब सुनकर मेरी आँखोंके सामने घना अन्धकार छाया हुआ है। मेरे हृदयमें मोहका आवेश-सा होता जा रहा है। मैं चेतना-शून्य हो रहा हूँ। मेरा मन विह्वल-सा हो रहा है ।। २१८ ॥

 

सौतिरुवाच

 

इत्युक्त्वा धृतराष्ट्रोऽथ विलप्य बहुदुःखितः।

मूर्छितः पुनराश्वस्तः संजय वाक्यमब्रवीत् ।। २१९ ।।

 

उग्रश्रवाजी कहते हैं-धृतराष्ट्रने ऐसा कहकर बहुत विलाप किया और अत्यन्त दुःखके कारण वे मूर्छित हो गये। फिर होशमें आकर कहने लगे ।। २१९ ।।

 

धृतराष्ट्र उवाच

 

संजयैवं गते प्राणांस्त्यक्तुमिच्छामि मा चिरम् ।

स्तोकं ह्यपि न पश्यामि फलं जीवितधारणे ।। २२० ।।

 

धृतराष्ट्र ने कहा-संजय! युद्धका यह परिणाम निकलनेपर अब मैं अविलम्ब अपने प्राण छोड़ना चाहता हूँ। अब जीवन-धारण करनेका कुछ भी फल मुझे दिखलायी नहीं देता ।। २२० ॥

 

सौतिरुवाच

 

तं तथावादिनंदीनं विलपन्तं महीपतिम् ।

निःश्वसन्तं यथा नागं मुह्यमानं पुनः पुनः ॥ २२१ ॥

गावल्गणिरिदं धीमान् महार्थ वाक्यमब्रवीत् ।

 

उग्रश्रवाजी कहते हैं-जब राजा धृतराष्ट्र दीनतापूर्वक विलाप करते हुए ऐसा कह रहे थे और नागके समान लम्बी साँस ले रहे थे तथा बार-बार मूर्छित होते जा रहे थे, तब बुद्धिमान् संजयने यह सारगर्भित प्रवचन किया ।। २२१६

 

संजय उवाच

 

श्रुतवानसि वै राजन् महोत्साहान महाबलान् ।। २२२ ।।

द्वैपायनस्य वदतो नारदस्य च धीमतः।

 

संजयने कहा-महाराज! आपने परम ज्ञानी देवर्षि नारद एवं महर्षि व्यासके मुखसे महान् उत्साहसे युक्त एवं परम पराक्रमी नपतियोंका चरित्र श्रवण किया है ।। २२२३॥

 

महत्सु राजवंशेषु गुणैः समुदितेषु च ।। २२३ ।।

जातान् दिव्यास्त्रविदुषः शक्रप्रतिमतेजसः।

धर्मेण पृथिवीं जित्वा यज्ञैरिष्ट्वाप्तदक्षिणैः ।। २२४ ।।

अस्मिल्लोके यशः प्राप्य ततः कालवशं गतान् ।

शैव्यं महारथं वीरं सृञ्जय जयतां वरम् ।। २२५ ।।

सुहोत्रं रन्तिदेवं च काक्षीवन्तमथौशिजम्।

बाह्रीकं दमनं चैद्यं शर्यातिमजितं नलम् ।।२२६ ।। विश्वामित्रममित्रघ्नमम्बरीषं महाबलम्।

मरुत्तं मनुमिक्ष्वाकुंगयं भरतमेव च ॥ २२७ ॥

रामं दाशरथिं चैव शशबिन्दु भगीरथम्।

कतवीर्य महाभागं तथैव जनमेजयम् ।। २२८ ।।

ययातिं शुभकर्माणं देवैयों याजितः स्वयम्।

चैत्ययूपाकिता भूमिर्यस्येयं सवनाकरा ।। २२९ ।। इति राज्ञां चतुर्विशन्नारदेन सुरर्षिणा।

पुत्रशोकाभितप्ताय पुरा श्वैत्याय कीर्तितम् ।। २३०।।

 

आपने ऐसे-ऐसे राजाओंके चरित्र सुने हैं जो सर्वसदगुणसम्पन्न महान् राजवंशोंमें उत्पन्न, दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंके पारदर्शी एवं देवराज इन्द्रके समान प्रभावशाली थे। जिन्होंने धर्मयुद्धसे पथ्वीपर विजय प्राप्त की. बडी-बडी दक्षिणावाले यज्ञ किये, इस लोकमें उज्ज्वल यश प्राप्त किया और फिर कालके गालमें समा गये। इनमेंसे महारथी शैब्य, विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ संजय, सहोत्र, रन्तिदेव, काक्षीवान, औशिज, बाह्रीक, दमन, चैद्य, शर्याति, अपराजित नल, शत्रुघाती विश्वामित्र, महाबली अम्बरीष, मरुत्त, मनु, इक्ष्वाकु, गय, भरत दशरथनन्दन श्रीराम, शशबिन्दु, भगीरथ, महाभाग्यशाली कृतवीर्य, जनमेजय और वे शुभकर्मा ययाति, जिनका यज्ञ देवताओंने स्वयं करवाया था, जिन्होंने अपनी राष्ट्रभूमिको यज्ञोंकी खान बना दिया था और सारी पृथ्वी यज्ञ-सम्बन्धी यूपों (खंभों)-से अंकित कर दी थी-इन चौबीस राजाओंका वर्णन पूर्वकालमें देवर्षि नारदने पुत्रशोकसे अत्यन्त संतप्त महाराज श्चैत्यका दुःख दूर करनेके लिये किया था ।। २२३-२३०॥

 

तेभ्यश्चान्ये गताः पूर्व राजानो बलवत्तराः।

महारथा महात्मानः सर्वैः समुदिता गुणैः ।। २३१ ।।

पूरः कुरुर्यदुः शूरो विष्वगश्वो महाद्युतिः। अणुहो युवनाश्वश्च ककुत्स्थो विक्रमी रघुः ।। २३२ ।।

विजयो वीतिहोत्रोऽङ्गो भवः श्वेतो बृहद्गुरुः ।

उशीनरः शतरथः कङ्को दुलिदुहो द्रुमः ।। २३३ ।।

दम्भोद्भवः परो वेनः सगरः संकृतिर्निमिः।

अजेयः परशुः पुण्ड्रः शम्भुर्देवावृधोऽनघः ।। २३४ ।।

देवाह्वयः सुप्रतिमः सुप्रतीको बृहद्रथः ।

महोत्साहो विनीतात्मा सुक्रतुर्नैषधो नलः ।। २३५ ।। सत्यव्रतः शान्तभयः सुमित्रः सुबलः प्रभुः ।

जानुजङ्घोऽनरण्योऽर्कः प्रियभृत्यः शुचिव्रतः ।। २३६ ।।

बलबन्धुर्निरामर्दः केतुशृङ्गो बृहद्बलः। धृष्टकेतुर्वृहत्केतुर्दीप्तकेतुर्निरामयः ।। २३७ ।।

अवीक्षिच्चपलो धूर्तः कृतबन्धुदृढषुधिः।

महापुराणसम्भाव्यः प्रत्यङ्गः परहा श्रुतिः ।। २३८ ।।

एते चान्ये च राजानः शतशोऽथ सहस्रशः।

श्रूयन्ते शतशश्चान्ये संख्याताश्चैव पद्मशः ।। २३९ ।।

हित्वा सुविपुलान् भोगान् बुद्धिमन्तो महाबलाः।

राजानो निधनं प्राप्तास्तव पुत्रा इव प्रभो ।। २४० ।।

 

महाराज! पिछले युगमें इन राजाओंके अतिरिक्त दूसरे और बहुत-से महारथी, महात्मा, शौर्य-वीर्य आदि सद्गुणोंसे सम्पन्न, परम पराक्रमी राजा हो गये हैं। जैसे-पूरु, कुरु, यदु, शूर, महातेजस्वी विष्वगव. अणुह, युवनाच. ककुत्स्थ, पराक्रमी रघु, विजय, वीतिहोत्र, अंग, भव, श्वेत, बृहद्गुरु, उशीनर, शतरथ, कंक, दुलिदुह. द्रुम, दम्भोद्भव, पर, वेन, सगर, संकृति, निमि, अजेय, परशु, पुण्ड्र, शम्भु, निष्पाप देवावृध, देवाह्वय, सुप्रतिम, सुप्रतीक, बृहद्रथ, महान् उत्साही और महाविनयी सुक्रतु, निषधराज नल, सत्यव्रत, शान्तभय, सुमित्र, सुबल, प्रभु, जानुजंघ, अनरण्य, अर्क, प्रियभृत्य, शुचिव्रत, बलबन्धु, निरामर्द, केतुशृंग, बृहद्बल, धृष्टकेतु, बृहत्केतु, दीप्तकेतु, निरामय, अवीक्षित, चपल, धूर्त, कृतबन्धु, दृढेषुधि, महापुराणों में सम्मानित प्रत्यंग, परहा और श्रुति -ये और इनके अतिरिक्त दूसरे सैकड़ों तथा हजारों राजा सुने जाते हैं, जिनका सैकड़ों बार वर्णन किया गया है और इनके सिवा दूसरे भी, जिनकी संख्या पद्मोंमें कही गयी है, बड़े बुद्धिमान् और शक्तिशाली थे। महाराज! किंतु वे अपने विपुल भोग-वैभवको छोड़कर वैसे ही मर गये, जैसे आपके पुत्रोंकी मृत्यु हुई है ।। २३१-२४०॥

 

येषां दिव्यानि कर्माणि विक्रमस्त्याग एव च ।

माहात्म्यमपि चास्तिक्यं सत्यं शौचं दयार्जवम् ।। २४१ ।।

विद्वद्भिः कथ्यते लोके पुराणे कविसत्तमैः।

सर्वर्द्धिगुणसम्पन्नास्ते चापि निधनं गताः ।। २४२ ।।

 

जिनके दिव्य कर्म, पराक्रम, त्याग, माहात्म्य, आस्तिकता, सत्य, पवित्रता, दया और सरलता आदि सद्गुणोंका वर्णन बड़े-बड़े विद्वान् एवं श्रेष्ठतम कवि प्राचीन ग्रन्थों तथा लोकमें भी करते रहते हैं, वे समस्त सम्पत्ति और सदगुणोंसे सम्पन्न महापुरुष भी मृत्युको प्राप्त हो गये ।। २४१-२४२ ।।

 

तव पुत्रा दुरात्मानः प्रतप्ताश्चैव मन्युना।

लुब्धा दुर्वृत्तभूयिष्ठा न ताञ्छोचितुमर्हसि ।। २४३ ।।

 

आपके पुत्र दुर्योधन आदि तो दुरात्मा, क्रोधसे जले-भुने, लोभी एवं अत्यन्त दुराचारी थे। उनकी मृत्युपर आपको शोक नहीं करना चाहिये ।। २४३ ।।

 

श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान् प्राज्ञसम्मतः।

येषां शास्त्रानुगा बुद्धिर्न ते मुह्यन्ति भारत ।। २४४ ॥

 

आपने गुरुजनोंसे सत्-शास्त्रोंका श्रवण किया है। आपकी धारणाशक्ति तीव्र है. आप बुद्धिमान् हैं और ज्ञानवान् पुरुष आपका आदर करते हैं। भरतवंशशिरोमणे! जिनकी बुद्धि शास्त्रके अनुसार सोचती है, वे कभी शोकमोहसे मोहित नहीं होते ।। २४४ ॥

 

निग्रहानुग्रही चापि विदितौ ते नराधिप।

नात्यन्तमेवानुवृत्तिः कार्या ते पुत्ररक्षणे ।। २४५ ।।

 

महाराज! आपने पाण्डवोंके साथ निर्दयता और अपने पुत्रोंके प्रति पक्षपातका जो बर्ताव किया है, वह आपको विदित ही है। इसलिये अब पुत्रोंके जीवनके लिये आपको अत्यन्त व्याकुल नहीं होना चाहिये ।। २४५ ।।

 

भवितव्यं तथा तच्च नानुशोचितुमर्हसि।

दैवं प्रज्ञाविशेषेण को निवर्तितुमर्हति ।। २४६॥

 

होनहार ही ऐसी थी, इसके लिये आपको शोक नहीं करना चाहिये। भला, इस सृष्टि में ऐसा कौन-सा पुरुष है, जो अपनी बुद्धिकी विशेषतासे होनहार मिटा सके।।२४६॥

 

विधातृविहितं मार्ग न कश्चिदतिवर्तते ।

कालमूलमिदं सर्वं भावाभावौ सुखासुखे ।। २४७ ।।

 

अपने कर्मोका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है-यह विधाताका विधान है। इसको कोई टाल नहीं सकता। जन्म-मृत्यु और सुख-दुःख सबका मूल कारण काल ही है ।। २४७॥

 

कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः।

संहरन्तं प्रजाः कालं कालः शमयते पुनः ।। २४८।।

 

काल ही प्राणियोंकी सष्टि करता है और काल ही समस्त प्रजाका संहार करता है। फिर प्रजाका संहार करनेवाले उस कालको महाकालस्वरूप परमात्मा ही शान्त करता है ।। २४८ ।।

 

कालो हि कुरुते भावान् सर्वलोके शुभाशुभान् ।

कालः संक्षिपते सर्वाः प्रजा विसृजते पुनः ।। २४९ ।।

 

सम्पूर्ण लोकोंमें यह काल ही शुभ-अशुभ सब पदार्थोंका कर्ता है। काल ही सम्पूर्ण प्रजाका संहार करता है और वही पुनः सबकी सष्टि भी करता है।। २४९ ।।

 

कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः।

कालः सर्वेषु भूतेषु चरत्यविधृतः समः ॥२५० ॥

अतीतानागता भावा ये च वर्तन्ति साम्प्रतम्।

तान् कालनिर्मितान् बुद्ध्वा न संज्ञां हातुमर्हसि ।। २५१ ।।

 

जब सुषुप्ति-अवस्थामें सब इन्द्रियाँ और मनोवृतियाँ लीन हो जाती हैं, तब भी यह काल जागता रहता है। कालकी गतिका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता। वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें समानरूपसे बेरोक-टोक अपनी क्रिया करता रहता है। इस सृष्टिमें जितने पदार्थ हो चुके, भविष्य में होंगे और इस समय वर्तमान हैं, वे सब कालकी रचना हैं: ऐसा समझकर आपको अपने विवेकका परित्याग नहीं करना चाहिये ।। २५०-२५१ ।।

 

सौतिरुवाच इत्येवं पुत्रशोकर्त धृतराष्ट्रं जनेश्वरम् ।

आश्वास्य स्वस्थमकरोत् सूतो गावल्गणिस्तदा ।। २५२ ।।

अत्रोपनिषदं पुण्यां कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत् ।

विद्वद्भिःकथ्यते लोके पुराणे कविसत्तमैः ।। २५३ ॥

 

उग्रश्रवाजी कहते हैं-सूतवंशी संजयने यह सब कहकर पुत्रशोकसे व्याकुल नरपति धृतराष्ट्रको समझाया-बुझाया और उन्हें स्वस्थ किया। इसी इतिहासके आधारपर श्रीकृष्णद्वैपायनने इस परम पुण्यमयी उपनिषद्-रूप महाभारतका (शोकातुर प्राणियोंका शोक नाश करनेके लिये) निरूपण किया। विद्वज्जन लोकमें और श्रेष्ठतम कवि पुराणोंमें सदासे इसीका वर्णन करते आये हैं ।।२५२-२५३ ॥

 

भारताध्ययनं पुण्यमपि पादमधीयतः।

श्रद्दधानस्य पूयन्ते सर्वपापान्यशेषतः ।। २५४ ।।

 

महाभारतका अध्ययन अन्तःकरणको शुद्ध करनेवाला है। जो कोई श्रद्धाके साथ इसके किसी एक श्लोकके एक पादका भी अध्ययन करता है, उसके सब पाप सम्पूर्णरूपसे मिट जाते हैं ।। २५४ ॥

 

देवा देवर्षयो पत्र तथा ब्रह्मर्षयोऽमलाः ।

कीर्त्यन्ते शुभकर्माणस्तथा यक्षा महोरगाः ॥ २५५ ।।

 

इस ग्रन्थरत्नमें शुभ कर्म करनेवाले देवता, देवर्षि, निर्मल ब्रह्मर्षि, यक्ष और महानागोंका वर्णन किया गया है ।। २५५ ॥

 

भगवान् वासुदेवश्च कीर्त्यतेऽत्र सनातनः।

स हि सत्यमृतं चैव पवित्रं पुण्यमेव च ।। २५६ ॥

 

इस ग्रन्थके मुख्य विषय हैं स्वयं सनातन परब्रह्मस्वरूप वासुदेव भगवान् श्रीकृष्ण। उन्हींका इसमें संकीर्तन किया गया है। वे ही सत्य, ऋत, पवित्र एवं पुण्य हैं ।। २५६॥

 

शाश्वतं ब्रह्म परमं ध्रुवं ज्योतिः सनातनम् ।

यस्य दिव्यानि कर्माणि कथयन्ति मनीषिणः ।। २५७ ।।

 

वे ही शाश्वत परब्रह्म हैं और वे ही अविनाशी सनातन ज्योति हैं। मनीषी पुरुष उन्हींकी दिव्य लीलाओंका संकीर्तन किया करते हैं ।। २५७ ।।

 

असच्च सदसच्चैव यस्माद् विश्वं प्रवर्तते ।

संततिश्च प्रवृत्तिश्च जन्ममृत्युपुनर्भवाः ।। २५८ ॥

 

उन्हींसे असत्, सत् तथा सदसत्-उभयरूप सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न होता है। उन्हींसे संतति (प्रजा), प्रवृत्ति (कर्तव्य-कम), जन्म-मृत्यु तथा पुनर्जन्म होते हैं।। २५८।।

 

अध्यात्म श्रूयते यच्च पञ्चभूतगुणात्मकम् ।

अव्यक्तादि परं यच्च स एव परिगीयते ॥ २५९ ।।

 

इस महाभारतमें जीवात्माका स्वरूप भी बतलाया गया है एवं जो सत्त्वरज-तम-इन तीनों गुणोंके कार्यरूप पाँच महाभूत हैं. उनका तथा जो अव्यक्त प्रकृति आदिके मूल कारण परम ब्रह्म परमात्मा हैं, उनका भी भलीभाँति निरूपण किया गया है।।२५९ ॥

 

यत्तद् यतिवरा मुक्ता ध्यानयोगबलान्विताः।

प्रतिबिम्बमिवादर्श पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।। २६०॥

 

ध्यानयोगकी शक्तिसे सम्पन्न जीवन्मुक्त यतिवर, दर्पणमें प्रतिबिम्बके समान अपने हृदयमें अवस्थित उन्हीं परमात्माका अनुभव करते हैं ।। २६०।।

 

श्रद्दधानः सदा युक्तः सदा धर्मपरायणः ।

आसेवन्निममध्यायं नरः पापात्प्रमुच्यते ।। २६१ ।।

 

जो धर्मपरायण पुरुष श्रद्धाके साथ सर्वदा सावधान रहकर प्रतिदिन इस अध्यायका सेवन करता है, वह पाप-तापसे मुक्त हो जाता है ।। २६१ ।।

 

अनुक्रमणिकाध्यायं भारतस्येममादितः ।

आस्तिकः सततं शृण्वन् न कृच्छ्रेष्ववसीदति ।। २६२ ।।

 

जो आस्तिक पुरुष महाभारतके इस अनुक्रमणिका-अध्यायको आदिसे अन्ततक प्रतिदिन श्रवण करता है, वह संकटकालमें भी दुःखसे अभिभूत नहीं होता ।। २६२ ।।

 

उभे संध्ये जपन् किंचित् सद्यो मुच्येत किल्बिषात् ।

अनुक्रमण्या यावत् स्यादहा रात्र्या च संचितम् ।। २६३ ।।

 

जो इस अनुक्रमणिका-अध्यायका कुछ अंश भी प्रातः-सायं अथवा मध्याह्नमें जपता है, वह दिन अथवा रात्रिके समय संचित सम्पूर्ण पापराशिसे तत्काल मुक्त हो जाता है ।। २६३ ॥

 

भारतस्य वपुह्येतत् सत्यं चामृतमेव च।

नवनीतं यथा दध्नो द्विपदां ब्राह्मणो यथा ।। २६४ ।।

आरण्यकं च वेदेभ्य ओषधिभ्योऽमृतं यथा।

हृदानामुदधिः श्रेष्ठो गौर्वरिष्ठा चतुष्पदाम् ।। २६५ ।। यथैतानीतिहासानां तथा भारतमुच्यते।

यश्चैनं श्रावयेच्छ्राद्धे ब्राह्मणान् पादमन्ततः ॥ २६६ ॥

अक्षय्यमन्नपानं वै पितृस्तस्योपतिष्ठते ।

 

 

यह अध्याय महाभारतका मूल शरीर है। यह सत्य एवं अमृत है। जैसे दहीमें नवनीत, मनुष्योंमें ब्राह्मण, वेदोंमें उपनिषद्, ओषधियोंमें अमृत, सरोवरों में समुद्र और चौपायोंमें गाय सबसे श्रेष्ठ है, वैसे ही उन्हींके समान इतिहासोंमें यह महाभारत भी है। जो श्राद्धमें भोजन करनेवाले ब्राह्मणोंको अन्तमें इस अध्यायका एक चौथाई भाग अथवा श्लोकका एक चरण भी सुनाता है, उसके पितरोंको अक्षय अन्न-पानकी प्राप्ति होती है।। २६४-२६६६ ।।

 

इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपद्व्हयेत् ।। २६७ ॥

बिभेत्यल्पश्रुताद् वेदो मामयं प्रहरिष्यति।

काणं वेदमिमं विद्वाश्रावयित्वार्थमश्नुते ।। २६८ ।।

 

इतिहास और पुराणोंकी सहायतासे ही वेदोंके अर्थका विस्तार एवं समर्थन करना चाहिये। जो इतिहास एवं पुराणोंसे अनभिज्ञ है, उससे वेद डरते रहते हैं कि कहीं यह मुझपर प्रहार कर देगा। जो विद्वान् श्रीकृष्णद्वैपायनद्वारा कहे हुए इस वेदका दूसरोंको श्रवण कराते हैं, उन्हें मनोवांछित अर्थकी प्राप्ति होती है।। २६७-२६८ ।।

 

भूणहत्यादिकं चापि पापं जह्यादसंशयम् ।

य इमं शुचिरध्यायं पठेत् पर्वणि पर्वणि ।। २६९ ।।

अधीतं भारतं तेन कृत्स्नं स्यादिति मे मतिः ।

यश्चनं शृणुयान्नित्यमार्ष श्रद्धासमन्वितः ।। २७० ।।

स दीर्घमायुः कीर्तिं च स्वर्गतिं चाप्नुयान्नरः ।

एकतश्चतुरो वेदान् भारतं चैतदेकतः ।। २७१ ।।

पुरा किल सुरैः सर्वैः समेत्य तुलया धृतम्।

चतुर्व्यः सरहस्येभ्यो वेदेभ्यो ह्यधिकं यदा ।। २७२ ।।

तदा प्रभृति लोकेऽस्मिन् महाभारतमुच्यते।

महत्त्वे च गुरुत्वे च ध्रियमाणं यतोऽधिकम् ।। २७३ ।।

 

और इससे भूणहत्या आदि पापोंका भी नाश हो जाता है. इसमें संदेह नहीं है। जो पवित्र होकर प्रत्येक पर्वपर इस अध्यायका पाठ करता है, उसे सम्पूर्ण महाभारतके अध्ययनका फल मिलता है. ऐसा मेरा निश्चय है। जो पुरुष श्रद्धाके साथ प्रतिदिन इस महर्षि व्यासप्रणीत ग्रन्थरत्नका श्रवण करता है, उसे दीर्घ आयु, कीर्ति और स्वर्गकी प्राप्ति होती है। प्राचीन कालमें सब देवताओंने इकट्ठे होकर तराजूके एक पलड़ेपर चारों वेदोंको और दूसरेपर महाभारतको रखा। परंतु जब यह रहस्यसहित चारों वेदोंकी अपेक्षा अधिक भारी निकला, तभीसे संसारमें यह महाभारतके नामसे कहा जाने लगा। सत्यके तराजूपर तौलनेसे यह ग्रन्थ महत्त्व, गौरव अथवा गम्भीरतामें वेदोंसे भी अधिक सिद्ध हुआ है ।। २६९ -२७३ ।।

 

महत्त्वाद् भारवत्त्वाच्च महाभारतमुच्यते।

निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। २७४ ।।

 

अतएव महत्ता, भार अथवा गम्भीरताकी विशेषतासे ही इसको महाभारत कहते हैं। जो इस ग्रन्थके निर्वचनको जान लेता है, वह सब पापोंसे छूट जाता है।। २७४ ।।

 

तपो न कल्कोऽध्ययनं न कल्कः स्वाभाविको वेदविधिर्न कल्कः । प्रसह्य वित्ताहरणं न कल्क स्तान्येव भावोपहतानि कल्कः ।। २७५ ।।

 

 तपस्या निर्मल है, शास्त्रोंका अध्ययन भी निर्मल है, वर्णाश्रमके अनुसार स्वाभाविक वेदोक्त विधि भी निर्मल है और कष्टपूर्वक उपार्जन किया हुआ धन भी निर्मल है, किंतु वे ही सब विपरीत भावसे किये जानेपर पापमय है अर्थात् दूसरेके अनिष्टके लिये किया हुआ तप, शास्त्राध्ययन और वेदोक्त स्वाभाविक कर्म तथा क्लेशपूर्वक उपार्जित धन भी पापयुक्त हो जाता है। (तात्पर्य यह कि इस ग्रन्थरत्नमें भावशुद्धिपर विशेष जोर दिया गया है। इसलिये महाभारतग्रन्थका अध्ययन करते समय भी भाव शुद्ध रखना चाहिये ।। २७५ ।।

 

इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि अनुक्रमणिकापर्वणि प्रथमोऽध्यायः ।।

 

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत अनुक्रमणिकापर्वमें पहला अध्याय पूरा हुआ॥१॥

[दाक्षिणात्य अधिक पाठके ७ श्लोक मिलाकर कुल २८२ श्लोक हैं]

 

।। अनुक्रमणिकापर्व सम्पूर्ण ।।

 

1. जय शब्दका अर्थ महाभारत नामक इतिहास ही है। आगे चलकर कहा है-'जयो नामेतिहासोऽयम्' इत्यादि। अथवा अठारहों पुराण, वाल्मीकिरामायण आदि सभी आर्ष-ग्रन्योंकी संज्ञा 'जय' है।

2. मंगलाचरणका श्लोक देसनेपर ऐसा जान पड़ता है कि यहाँ नारायण शब्दका अर्थ भगवान् श्रीकृष्ण और नरोत्तम नरका अर्थ नररत्न अर्जुन। महाभारतमें प्रायः सर्वत्र इन्हीं दोनोंका नर-नारायणके अवतार के रूपमें उल्लेख हुआ है। इससे मंगलाचरणमें ग्रन्थके इन दोनों प्रधान पात्र तथा भगवान्के मूर्तिपुगलको प्रणाम करना मंगलाचरणको नमस्कारात्मक होनेके साथ ही वस्तुनिर्देशात्मक भी बना देता है। इसलिये अनुवादमें श्रीकृष्ण और अर्जुनका ही उल्लेख किया गया है।

नैमिषारण्य नामकी व्याख्या वाराहपुराणमें इस प्रकार मिलती हैएवं कृत्वा ततो देवो मुनि गौरमुसं तदा। उवाच निमिषेणेदं निहतं दानवं बलम् ।।

अरण्येऽस्मिस्ततस्त्वेतचैमिषारण्यसंज्ञितम् ।।

 

ऐसा करके भगवानने उस समय गौरमुख मुनिसे कहा-'मैंने निमिषमात्रमें इस अरण्य (वन)-के भीतर इस दानव-सेनाका संहार किया है; अतः यह वन नैमिषारण्यके नामसे प्रसिद्ध होगा।'

 

४. जो विद्वान ब्राह्मण अकेला ही दस सहस जिज्ञासु व्यक्तियोंका अन्न-दानादिके द्वारा भरण-पोषण करता है, उसे कुलपति कहते हैं।

 

५. जो कार्य अनेक व्यक्तियोंके सहयोगसे किया गया हो और जिसमें बहुतोंको ज्ञान, सदाचार आदिकी शिक्षा तथा अन्न-वस्त्रादि वस्तुएँ दी जाती हों, जो बहुतोंके लिये तृप्तिकारक एवं उपयोगी हो, उसे 'सत्र'

कहते हैं।

 

१. 'तत् सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत्' (तैत्तिरीय उपनिषद, ब्रह्मने अण्ड एवं पिण्डकी रचना करके मानो स्वयं ही उसमें प्रवेश किया है।

2.ऋषयः सप्त पूर्वे ये मनवश्च चतुर्दश ।

एते प्रजानां पतय एभिः कल्पः समाप्यते ॥

 

(नीलकण्ठीमें ब्रह्माण्डपुराणका वचन) - यह और इसके बादका श्लोक महाभारतके तात्पर्य के सूचक है। दुर्योधन क्रोध है। यहाँ क्रोध शब्दसे द्वेष-असूया आदि दुर्गुण भी समझ लेने चाहिये। कर्ण, शकुनि, दुःशासन आदि उससे एकताको प्राप्त है, उसीके स्वरूप हैं। इन सबका मूल है राजा धृतराष्ट्र। यह अज्ञानी अपने मनको वशमें करने में असमर्थ है। इसीने पुत्रों की आसक्तिसे अंधे होकर दुर्योधनको अवसर दिया, जिससे उसकी जड़ मजबूत हो गयी। यदि यह दुर्योधनको वशमें कर लेता अथवा बचपनमें ही विदुर आदिकी बात मानकर इसका त्याग कर देता तो विष-दान, लाक्षागृहदाह, टौपदी-केशाकर्षण आदि दुष्कमोंका अवसर ही नहीं आता और कुलक्षय न होता। इस प्रसंगसे यह भाव सूचित किया गया है कि यह जो मन्यु (दुर्योधन)-रूप वृक्ष है, इसका दृढ़ अज्ञान ही मूल है,क्रोध-लोभादिरकन्ध है, हिंसा-बोरी आदि शाखाएं हैं और बन्धन-नरकादि इसके फलपुष्प है। पुरुषार्थकामी पुरुषको मूलाज्ञानका उच्छेद करके पहले ही इस (क्रोधरूप) वृक्षको नष्ट कर देना चाहिये।

-युधिष्ठिर धर्म हैं। इसका अभिप्राय यह है कि वे शम, दम, सत्य, अहिंसा आदि रूप धर्मकी मूर्ति है। अर्जुन-भीम आदिको धर्मकी शासा बतलानेका अभिप्राय यह है कि वे सब युधिष्ठिरके ही स्वरूप है. उनसे अभिन्न है। शुद्धसत्वमय ज्ञानविग्रह श्रीकृष्णारूप परमात्मा ही उसके मूल हैं। उनके दृढ़ ज्ञानसे ही धर्मकी नींव मजबूत होती है। अति भगवतीने कहा है कि 'हे गार्गी! इस अविनाशी परमात्माको जाने बिना इस लोकमें जो हजारों वर्षपर्यन्त यज्ञ करता है, दान देता है, तपस्या करता है, उन सबका फल नाशवान् ही होता है। ज्ञानका मूल है ब्रहा अर्थात वेदा वेदसे ही परमधर्म योग और अपरधर्म यज्ञ-यागादिका ज्ञान होता है। यह निश्चित सिद्धान्त है कि धर्मका मूल केवल शब्दप्रमाण ही है। वेदके भी मूल ब्राह्मण हैं; क्योंकि वे ही वेद-सम्प्रदायके प्रवर्तक हैं। इस प्रकार उपदेशकके रूपमें ब्राहाण, प्रमाणके रूपमें वेद और अनुग्राहकके रूपमें परमात्मा धर्मका मूल है। इससे यह बात सिद्ध हुई है कि वेद और बाहाणका भक्त अधिकारी पुरुष भगवदाराधनके बलसे योगादिरूप धर्ममय वृक्षका सम्पादन करे। उस वृक्षके अहिंसा-सत्य आदि तने है। धारण-ध्यान आदि शासाएँ और तत्त्व-साक्षात्कार ही उसका फल है। इस धर्ममय वृक्षके समाश्रयसेही पुरुषार्थकी सिद्धि होती है, अन्यथा नहीं।

- शास्त्रोक्त आचारका परित्याग न करना, सदाचारी सत्पुरुषोंका संग करना और सदाचारमें दृढ़तासे स्थित रहना-इसको 'शौच' कहते हैं। अपनी इच्छाके अनुकूल और प्रतिकूल पदाथों की प्राप्ति होनेपर चित्तमें विकार न होना ही 'धृति' है। सबसे बढ़कर सामर्थ्यका होना ही 'विक्रम' है। सदत्तकी अनुवृत्ति ही 'शुश्रूषा' है। (सदाचारपरायण गुरुजनोंका अनुसरण गुरुशुश्रूषा है।) किसीके द्वारा अपराध बन जानेपर भी उसके प्रति अपने चित्तमें क्रोध आदि विकारोंकान होना ही 'क्षमाशीलता है। जितेन्द्रियता अथवा अनुद्धत रहना ही 'विनय' है। बलवान शत्रुको भी पराजित कर देनेका अध्यवसाय 'शोर्य है। इनके संग्राहक श्लोक इस प्रकार है

आचारापरिहारश्च संसर्गशाप्यनिन्दितः ।

आचारे च व्यवस्थानं शौचमित्यभिधीयते ।।

इष्टानिष्टार्थसम्पत्ती चित्तस्याविकृतिधृतिः । सर्वातिशयसामर्थ्य विक्रम परिचक्षते ।। वृत्तानुवृत्तिः शुश्रूषा क्षान्तिरागस्यविक्रिया । जितेन्द्रियत्वं विनयोऽथवानुद्धतशीलता ।।

शौर्यमध्यवसायः स्याद बलिनोऽपि पराभवे ॥ - आचार्य, ब्रह्मा, ऋत्विक, सदस्य, यजमान, यजमानपत्नी, धन-सम्पत्ति, श्रद्धा-उत्साह, विधिविधानका सम्यक् पालन एवं सद्बुद्धि आदि यज्ञकी उत्तम गुणसामग्रीके अन्तर्गत हैं। 


महाभारत आदिपर्व अनुक्रमणिका -03

पर्वसंग्रहपर्व द्वितीयोऽध्यायः

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