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यजुर्वेद अध्याय 16 (11-20)

 ऋषि: - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


या ते॑ हे॒तिर्मी॑ढुष्टम॒ हस्ते॑ ब॒भूव॑ ते॒ धनुः॑। 

तया॒स्मान् वि॒श्वत॒स्त्वम॑य॒क्ष्मया॒ परि॑ भुज॥११॥


विषय - सेनापति आदि किन से कैसे उपदेश करने योग्य हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (मीढुष्टम) अत्यन्त वीर्य के सेचक सेनापते! (या) जो (ते) तेरी सेना है और जो (ते) तेरे (हस्ते) हाथ में (धनुः) धनुष् तथा (हेतिः) वज्र (बभूव) हो (तया) उस (अयक्ष्मया) पराजय आदि की पीड़ा निवृत्त करने हारी सेना से और उस धनुष् आदि से (अस्मान्) हम प्रजा और सेना के पुरुषों की (त्वम्) तू (विश्वतः) सब ओर से (परि) अच्छे प्रकार (भुज) पालना कर॥११॥


भावार्थ - विद्या और अवस्था में वृद्ध उपदेशक विद्वानों को चाहिये कि सेनापति आदि को ऐसा उपदेश करें कि आप लोगों के अधिकार में जितना सेना आदि बल है, उससे सब श्रेष्ठों की सब प्रकार रक्षा किया करें और दुष्टों को ताड़ना दिया करें॥११॥


ऋषि: - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः


परि॑ ते॒ धन्व॑नो हे॒तिर॒स्मान् वृ॑णक्तु वि॒श्वतः॑। 

अथो॒ यऽइ॑षु॒धिस्तवा॒रेऽअ॒स्मन्निधे॑हि॒ तम्॥१२॥


विषय - राजा और प्रजा के पुरुषों को परस्पर क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे सेनापति! जो (ते) आप के (धन्वनः) धनुष् की (हेतिः) गति है, उस से (अस्मान्) हम लोगों को (विश्वतः) सब ओर से (आरे) दूर में आप (परिवृणक्तु) त्यागिये। (अथो) इस के पश्चात् (यः) जो (तव) आप का (इषुधिः) बाण रखने का घर अर्थात् तर्कस है (तम्) उस को (अस्मत्) हमारे समीप से (नि, धेहि) निरन्तर धारण कीजिये॥१२॥


भावार्थ - राज और प्रजाजनों को चाहिये कि युद्ध और शस्त्रों का अभ्यास कर के शस्त्रादि सामग्री सदा अपने समीप रक्खें। उन सामग्रियों से एक-दूसरे की रक्षा और सुख की उन्नति करें॥१२॥


ऋषि: - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः


अ॒व॒तत्य॒ धनु॒ष्ट्व सह॑स्राक्ष॒ शते॑षुधे। 

नि॒शीर्य॑ श॒ल्यानां॒ मुखा॑ शि॒वो नः॑ सु॒मना॑ भव॥१३॥


विषय - राजपुरुषों को कैसा होना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (सहस्राक्ष) असंख्य युद्ध के कार्यों को देखने हारे (शतेषुधे) शस्त्र-अस्त्रों के असंख्य प्रकाश से युक्त सेना के अध्यक्ष पुरुष! (त्वम्) तू (धनुः) धनुष् और (शल्यानाम्) शस्त्रों के (मुखा) अग्रभागों का (अवतत्य) विस्तार कर तथा उनसे शत्रुओं को (निशीर्य) अच्छे प्रकार मारके (नः) हमारे लिये (सुमनाः) प्रसन्नचित्त (शिवः) मङ्गलकारी (भव) हूजिये॥१३॥


भावार्थ - राजपुरुष साम, दाम. दण्ड और भेदादि राजनीति के अवयवों के कृत्यों को सब ओर से जान, पूर्ण शस्त्र-अस्त्रों का सञ्चय कर और उनको तीक्ष्ण करके शत्रुओं में कठोरचित्त दुःखदायी और अपनी प्रजाओं में कोमलचित्त सुख देनेवाले निरन्तर हों॥१३॥


ऋषि: - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - स्वराडर्ष्यनुष्टुप् स्वरः - ऋषभः


नम॑स्त॒ऽआयु॑धा॒याना॑तताय धृ॒ष्णवे॑। 

उ॒भाभ्या॑मु॒त ते॒ नमो॑ बा॒हुभ्यां॒ तव॒ धन्व॑ने॥१४॥


विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे सभापति! (आयुधाय) युद्ध करने (अनातताय) अपने आशय को गुप्त सङ्कोच में रखने और (धृष्णवे) प्रगल्भता को प्राप्त होने वाले (ते) आपके लिये (नमः) अन्न प्राप्त हो (उत) और (ते) भोजन करने हारे आप के लिये अन्न देता हूँ (तव) आपके (उभाभ्याम्) दोनों (बाहुभ्याम्) बल और पराक्रम से (धन्वने) योद्धा पुरुष के लिये (नमः) अन्न को नियुक्त करूं॥१४॥


भावार्थ - सेनापति आदि राज्याधिकारियों को चाहिये कि अध्यक्ष और योद्धा दोनों को शस्त्र देके शत्रुओं से निःशङ्क अच्छे प्रकार युद्ध करावें॥१४॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - निचृदार्षी जगती स्वरः - निषादः


मा नो॑ म॒हान्त॑मु॒त मा नो॑ऽअर्भ॒कं मा न॒ऽउक्ष॑न्तमु॒त मा न॑ऽउक्षि॒तम्।

मा नो॑ वधीः पि॒तरं॒ मोत मा॒तरं॒ मा नः॑ प्रि॒यास्त॒न्वो रुद्र रीरिषः॥१५॥


विषय - राजपुरुषों को क्या नहीं करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (रुद्र) युद्ध की सेना के अधिकारी विद्वन् पुरुष! आप (नः) हमारे (महान्तम्) उत्तम गुणों से युक्त पूज्य को (मा) मत (उत) और (अर्भकम्) छोटे क्षुद्र पुरुष को (मा) मत (नः) हमारे (उक्षन्तम्) गर्भाधान करने हारे को (मा) मत (उत) और (नः) हमारे (उक्षितम्) गर्भ को (मा) मत (नः) हमारे (पितरम्) पालन करने हारे पिता को (मा) मत (उत) और (नः) हमारी (मातरम्) मान्य करने हारी माता को भी (मा) मत (वधीः) मारिये और (नः) हमारे (प्रियाः) स्त्री आदि के पियारे (तन्वः) शरीरों को (मा) मत (रीरिषः) मारिये॥१५॥


भावार्थ - योद्धा लोगों को चाहिये कि युद्ध के समय वृद्धों, बालकों, युद्ध से हटने वाले ज्वानों, गर्भों, योद्धाओं के माता पितरों, सब स्त्रियों, युद्ध के देखने वा प्रबन्ध करने वालों और दूतों को न मारें, किन्तु शत्रुओं के सम्बन्धी मनुष्यों को सदा वश में रक्खें॥१५॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - निचृदार्षी जगती स्वरः - निषादः


मा न॑स्तो॒के तन॑ये॒ मा न॒ऽआयु॑षि॒ मा नो॒ गोषु॒ मा नो॒ऽअश्वे॑षु रीरिषः। 

मा नो॑ वी॒रान् रु॑द्र भा॒मिनो॑ वधीर्ह॒विष्म॑न्तः॒ सद॒मित् त्वा॑ हवामहे॥१६॥


विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (रुद्र) सेनापति! तू (नः) हमारे (तोके) तत्काल उत्पन्न हुए सन्तान को (मा) मत (नः) हमारे (तनये) पांच वर्ष से ऊपर अवस्था के बालक को (मा) मत (नः) हमारी (आयुषि) अवस्था को (मा) मत (नः) हमारे (गोषु) गौ, भेड़, बकरी आदि को (मा) मत (नः) हमारे और (अश्वेषु) घोड़े, हाथी और ऊंट आदि को (मा) मत (रीरिषः) मार और (नः) हमारे (भामिनः) क्रोध को प्राप्त हुए (वीरान्) शूरवीरों को (मा) मत (वधीः) मार। इस से (हविष्मन्तः) बहुत से देने-लेने योग्य वस्तुओं से युक्त हम लोग (सदम्) न्याय में स्थिर (त्वा) तुझ को (इत्) ही (हवामहे) स्वीकार करते हैं॥१६॥


भावार्थ - राजपुरुषों को चाहिये कि अपने वा प्रजा के बालकों, कुमार और गौ, घोड़े आदि; वीर, उपकारी जीवों की कभी हत्या न करें और बाल्यावस्था में विवाह कर व्यभिचार से अवस्था की हानि भी न करें। गौ आदि पशु दूध आदि पदार्थों को देने से सब का उपकार करते हैं, उससे उन की सदैव वृद्धि करें॥१६॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - निचृदतिधृतिः स्वरः - षड्जः


नमो॒ हिर॑ण्यबाहवे सेना॒न्ये दि॒शां च॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ वृ॒क्षेभ्यो॒ हरि॑केशेभ्यः पशू॒नां पत॑ये॒ नमो॒ नमः॑ श॒ष्पिञ्ज॑राय॒ त्विषी॑मते पथी॒नां पत॑ये॒ नमो॒ नमो॒ हरि॑केशायोपवी॒तिने॑ पु॒ष्टानां॒ पत॑ये॒ नमः॑॥१७॥


विषय - राज-प्रजा के पुरुषों को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे शत्रुताड़क सेनाधीश! (हिरण्यबाहवे) ज्योति के समान तीव्र तेजयुक्त भुजा वाले (सेनान्ये) सेना के शिक्षक तेरे लिये (नमः) वज्र प्राप्त हो (च) और (दिशाम्) सर्व दिशाओं के राज्य भागों के (पतये) रक्षक तेरे लिये (नमः) अन्नादि पदार्थ मिले (हरिकेशेभ्यः) जिन में हरणशील सूर्य की किरण प्राप्त हों ऐसे (वृक्षेभ्यः) आम्रादि वृक्षों को काटने के लिये (नमः) वज्रादि शस्त्रों को ग्रहण कर (पशूनाम्) गौ आदि पशुओं के (पतये) रक्षक तेरे लिये (नमः) सत्कार प्राप्त हो (शष्पिञ्जराय) विषयादि के बन्धनों से पृथक् (त्विषीमते) बहुत न्याय के प्रकाशों से युक्त तेरे लिये (नमः) नमस्कार और अन्न हो (पथीनाम्) मार्ग में चलने हारों के (पतये) रक्षक तेरे लिये (नमः) आदर प्राप्त हो (हरिकेशाय) हरे केशों वाले (उपवीतिने) सुन्दर यज्ञोपवीत से युक्त तेरे लिये (नमः) अन्नादि पदार्थ प्राप्त हों और (पुष्टानाम्) नीरोगी पुरुषों की (पतये) रक्षा करने हारे के लिये (नमः) नमस्कार प्राप्त हो॥१७॥


भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि श्रेष्ठों के सत्कार, भूख से पीडि़तों को अन्न देने, चक्रवर्ति राज्य की शिक्षा, पशुओं की रक्षा, जाने-आने वालों को डाकू और चोर आदि से बचाने, यज्ञोपवीत के धारण करने और शरीरादि की पुष्टि के साथ प्रसन्न रहें॥१७॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - निचृदष्टिः स्वरः - मध्यमः


नमो॑ बभ्लु॒शाय॑ व्या॒धिनेऽन्ना॑नां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ भ॒वस्य॑ हे॒त्यै जग॑तां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ रु॒द्राया॑तता॒यिने॒ क्षेत्रा॑णां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमः॑ सू॒तायाह॑न्त्यै॒ वना॑नां॒ पत॑ये॒ नमः॑॥१८॥


विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

राजपुरुष आदि मनुष्यों को चाहिये कि (बभ्लुशाय) राज्यधारक पुरुषों में सोते हुए (व्याधिने) रोगी के लिये (नमः) अन्न देवें (अन्नानाम्) गेहूं आदि अन्न के (पतये) रक्षक का (नमः) सत्कार करें (भवस्य) संसार की (हेत्यै) वृद्धि के लिये (नमः) अन्न देवें (जगताम्) मनुष्यादि प्राणियों के (पतये) स्वामी का (नमः) सत्कार करें (रुद्राय) शत्रुओं को रुलाने और (आततायिने) अच्छे प्रकार विस्तृत शत्रुसेना को प्राप्त होने वाले को (नमः) अन्न देवें (क्षेत्राणाम्) धान्यादियुक्त खेतों के (पतये) रक्षक को (नमः) अन्न देवें (सूताय) क्षत्रिय से ब्राह्मण की कन्या में उत्पन्न हुए प्रेरक वीर पुरुष और (अहन्त्यै) किसी को न मारने हारी राजपत्नी के लिये (नमः) अन्न देवें और (वनानाम्) जङ्गलों की (पतये) रक्षा करने हारे पुरुष को (नमः) अन्नादि पदार्थ देवें॥१८॥


भावार्थ - जो अन्नादि से सब प्राणियों का सत्कार करते हैं, वे जगत में प्रशंसित होते हैं॥१८॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - विराडतिधृतिः स्वरः - षड्जः


नमो॒ रोहि॑ताय स्थ॒पत॑ये वृ॒क्षाणां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ भुव॒न्तये॑ वारिवस्कृ॒तायौष॑धीनां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ म॒न्त्रिणे॑ वाणि॒जाय॒ कक्षा॑णां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नम॑ऽउ॒च्चैर्घो॑षायाक्र॒न्दय॑ते पत्ती॒नां पत॑ये॒ नमः॑॥१९॥


विषय - फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

राजा और प्रजा के पुरुषों को चाहिये कि (रोहिताय) सुखों की वृद्धि के कर्त्ता और (स्थपतये) स्थानों के स्वामी रक्षक सेनापति के लिये (नमः) अन्न (वृक्षाणाम्) आम्रादि वृक्षों के (पतये) अधिष्ठाता को (नमः) अन्न (भुवन्तये) आचारवान् (वारिवस्कृताय) सेवन करने हारे भृत्य को (नमः) अन्न और (ओषधीनाम्) सोमलतादि ओषधियों के (पतये) रक्षक वैद्य को (नमः) अन्न देवें (मन्त्रिणे) विचार करने हारे राजमन्त्री और (वाणिजाय) वैश्यों के व्यवहार में कुशल पुरुष का (नमः) सत्कार करें (कक्षाणाम्) घरों में रहने वालों के (पतये) रक्षक को (नमः) अन्न और (उच्चैर्घोषाय) ऊंचे स्वर से बोलने तथा (आक्रन्दयते) दुष्टों को रुलाने वाले न्यायाधीश का (नमः) सत्कार और (पत्तीनाम्) सेना के अवयवों की (पतये) रक्षा करने हारे पुरुष का (नमः) सत्कार करें॥१९॥


भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि वन आदि के रक्षक मनुष्यों को अन्नादि पदार्थ देके वृक्षों और ओषधि आदि पदार्थों की उन्नति करें॥१९॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - अतिधृतिः स्वरः - षड्जः


नमः॑ कृत्स्नाय॒तया॒ धाव॑ते॒ सत्व॑नां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमः॒ सह॑मानाय निव्या॒धिन॑ऽआव्या॒धिनी॑नां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ निष॒ङ्गिणे॑ ककु॒भाय॑ स्ते॒नानां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ निचे॒रवे॑ परिच॒रायार॑ण्यानां॒ पत॑ये॒ नमः॑॥२०॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

मनुष्य लोग (कृत्स्नायतया) सम्पूर्ण प्राप्ति के अर्थ (धावते) इधर-उधर जाने-आने वाले को (नमः) अन्न देवें (सत्वनाम्) प्राप्त पदार्थों की (पतये) रक्षा करने हारे का (नमः) सत्कार करें (सहमानाय) बलयुक्त और (निव्याधिने) शत्रुओं को निरन्तर ताड़ना देने हारे पुरुष को (नमः) अन्न देवें (आव्याधिनीनाम्) अच्छे प्रकार शत्रुओं की सेनाओं को मारने हारी अपनी सेनाओं के (पतये) रक्षक सेनापति का (नमः) आदर करें (निषङ्गिणे) बहुत से अच्छे बाण, तलवार, भुशुण्डी, शतघ्नी अर्थात् बन्दूक तोप और तोमर आदि शस्त्र जिस के हों उस को (नमः) अन्न देवें (निचेरवे) निरन्तर पुरुषार्थ के साथ विचरने तथा (परिचराय) धर्म, विद्या, माता, स्वामी और मित्रादि की सब प्रकार सेवा करने वाले (ककुभाय) प्रसन्नमूर्ति पुरुष का (नमः) सत्कार करें (स्तेनानाम्) अन्याय से परधन लेने हारे प्राणियों को (पतये) जो दण्ड आदि से शुष्क करता हो उस को (नमः) वज्र से मारें (अरण्यानाम्) वन जङ्गलों के (पतये) रक्षक पुरुष को (नमः) अन्नादि पदार्थ देवें॥२०॥


भावार्थ - राजपुरुषों को चाहिये कि पुरुषार्थियों का उत्साह के लिये सत्कार, प्राणियों के ऊपर दया, अच्छी शिक्षित सेना को रखना, चोर आदि को दण्ड, सेवकों की रक्षा और वनों को नहीं काटना, इन सब को कर राज्य की वृद्धि करें॥२०॥




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