उपकोसल की
सफलता
जबाला के पुत्र जाबाल का दूसरा नाम सत्यकाम था। अकसर लोग
उन्हें इसी नाम से अधिक जानते थे । सत्यकाम की विद्वता और निःस्पृहता की चर्चा उस
समय के सभी आचार्यों से अधिक होती थी । उसका मुख्य कारण यह था कि सत्यकाम अपने
विद्यार्थियों की विद्या पर उतना अधिक ख्याल नहीं करते थे जितना उनके चरित्रवान बनाने
पर । वह पहले अपने विद्यार्थियों को सच्चरित्र बनने की शिक्षा देते थे ओर जब जान
लेते थे कि विद्यार्थी अपने चरित्र को पूरा-पूरा संभाल चुका है तब उसको
ब्रह्मविद्या को शिक्षा देते थे। इसका फल यह होता था कि उनके योग्य और चरित्रवान
विद्यार्थियों की देश के कोने - कोने में प्रशंसा की जाती थी, जब कि दूसरे आचार्य के विद्यार्थी उतने सफल विद्वान भी नहीं होते थे । उस
समय के समाज में सत्यकाम के योग्य और विद्वान शिष्यों ने एक ऐसी धारा बहा दी थी कि
देश के हर-ओर से सभी अपने पुत्र को सत्यकाम की देख-रेख में पढ़ने के लिए भेजने लगे
। सत्यकाम की शिक्षा गुरुकुल में प्रवेश करते ही शुरू नहीं होती थी। विद्यार्थी
अपनी सत्यनिष्ठा, सेवान्भावना, सहिष्णुता,
धीरता तथा शारीरिक स्वास्थ्य की जब पूरी-पूरी योग्यता प्राप्त कर
लेता था, तब उसे दो तीन वर्ष के बाद शास्त्रीय विद्या का
श्रीगणेश कराया जाता था । एक बार की चर्चा हे कि जाबाल के यहाँ विप्रवर कमल का
पुत्र उपकोशल विद्याध्यायन के लिए आया । वह प्रकृति का बड़ा कुन्द था । जो कुछ
बाते उसे बताई जाती जल्दी में याद नहीं करता था । साथी लोग सदा उसका मजाक बनाए
रहते थे पर वह कुछ भी खयाल नहीं करता था । अक्सर ऐसा होता था कि दो-तीन या अधिक से
अधिक चार साल के बाद विद्यार्थियों को विद्याध्यायन का प्रारम्भ करा दिया जाता था,
पर उपकोसल में पाँच-छः साल के बाद भी वह योग्यता नहीं आ सकी कि
सत्यकाम उसे विद्याध्यायन के आरम्भ करने की अनुमति देते । देखते-देखते उपकोसल के
साथ आने वाले कितने साथी अ्रन्तिम दीक्षा लेकर गुरुकुल से विदा होकर भी चले गए! पर
उपकोसल अभी तक जैसा का तैसा ही बना रहा । सत्यकाम ने पहले चार-पाँच साल तक तो उसे
केवल आश्रम की गोंओं को चराने का काम ' सौंप रखा था, पर उसके बाद भी जब उसका कुछ सुधार नहीं हुआ तो इस खयाल से कि आश्रम में
दिन- रात के रहने से साथियों की देखा-देखी उसमें भी कुछ जागृति आएगी आश्रम की अग्नियों
की सेवा का भार उसे सौंपा। रात-दिन साथियों के संसर्ग से उपकोसल की आंख सचमुच खुल
गई । उसने यह सोचा कि मेरे कितने साथी गुरुकुल से विद्याध्यायन समाप्त कर चले गए,
पर मैं अभी तक कुछ नहीं कर सका । पता नहीं, गुरु जी मेरे ऊपर
क्यों अप्रसन्न हैं जो अभी तक शास्त्रीय विद्या के आरम्भ करने की अनुमति भी नहीं
दे रहे हैं । सारे गुरुकुल म मेरे जितना सयाना कोई विद्यार्थी नहीं है, सभी साथी मेरा मजाक बनाते हैं, पर पता नहीं गुरु जी मेरे ऊपर कुछ भी खयाल
नहीं कर रहे हैं। इस तरह वह भीतर ही भीतर घुलने लगा, पर गुरु से कुछ स्पष्ट रूप में
कहने की हिम्मत उसे नहीं पड़ी । इधर तन-मन से अग्नियों की सेवा में वह लग गया और
गुरु तथा गुरु-पत्नी के आदेश की प्रतिक्षण प्रतीक्षा करने लगा।
सत्यकाम पत्थर के तो थे नहीं । उपकोसल की
सच्ची सेवा से वह मन ही मन प्रसन्न होने लगे, पर कठिनाई इसलिए थी कि अभी तक उसमें धीरता
नाम मात्र के लिए भी नहीं आ सकी थी और अधीर को विद्या दान करना सत्यकाम के नियमों
से विरुद्ध पड़ता था । उपकोसल के मन की व्यथा उस दिन बहुत बढ़ गई, जिस दिन उसके
साथ अग्नियों की उपासना करने वाले साथियों का समावर्तन संस्कार हो रहा था। एक ओर
सारे गुरुकुल में आनन्द की लहर लहरा रही थीं, पर अभागे उपकोसल का मन अधीर
हो उठा था। उसे अपने बाल-साथियों का संग छूटने का उतना ही दुःख था जितना पिछले नये
साथियों के साथ काम करने का। उस दिन सवेरे से ही वह अ्रग्निकुण्ड के समीप कोने में
बैठा ही रह गया । बाहर विशाल मंडप में दीक्षान्त समारोह मनाया जा रहा था पर उपकोसल
के सामने यज्ञकुण्ड की अग्नि जल रही थी और हृदय में ईर्ष्याग्नि की लपटें उठ रही
थीं । वेदों की गगनभेदी ध्वनियों के बीच उसके साथियों की मांगलिक दीक्षा समाप्त हो
गई और वह गुरु पत्नी तथा साथियों से आशीर्वाद और शुभ कामनाओं को लेकर अपने -अपने
घर को प्रस्थान कर चुके पर उपकोसल उसी तरह कोने में बैठा-बैठा दुःखी मन से सब कुछ
देख रहा था। इतने दिनों तक साथ-साथ रहने बाले, साथ-साथ
खाने-पीने वाले, एक दूसरे की विपत्ति-सम्पति में साथ देने
वाले साथियों ने चिरकाल बाद घर जाने की उत्सुकता में उसकी खोज भी नहीं की, यह देखकर उसका आहत हृदय अमर्ष से एकदम भर गया। उसकी आँखों में विवशता के
कारण आँसू की धारा बह निकली और वह अपने अभाग्य के ऊपर झल्ला उठा ।
इसी दुःखमय स्थिति में बैठे हुए उपकोसल की
सायंकाल समीप आ गयी, पर कोने से उठ कर बाहर आने की उसकी हिम्मत
नहीं हुई । आखिरकार गुरु पत्नी की जरूरतों में उसकी खोज शुरू हुई । प्रतिदिन सायंकाल
के समय वह ईंधन लाकर अग्निशाला के समीप रखता था और मंत्रों से उनका अभिर्सिचन करके
यज्ञकुंड मे आहुति करता था, पर आज न तो शाला के समीप ईंधन का
कोई जुटाने वाला है, न मंत्रों से अभिसिंचन करने का स्वर ही सुनाई
पड़ रहा है। गुरु पत्नी की आज्ञा से नये शिष्यों ने वन्य प्रान्त की और का सारा मार्ग
ढूँढ डाला पर कही उपकोसल का पता नहीं लग सका। गुरु पत्नी को चिन्ताएँ बढ़ गई ,
वह सोचने लगीं कहीं अपने पुराने साथियों के मोह में फंस कर उपकोसल
भी तो नहीं घर चला गया । पर वह ऐसा अबोध तो नहीं है कि जिस उद्देश्य सिद्धि के लिए
बारह वर्षों की कठिन साधना की उसे अधूरी छोड़ कर कहीं भाग जाये। हो सकता है कि
साथियों के चले जाने से कहीं उदास होकर बैठा हो । इसी उधेड़-घुन में वह यज्ञशाला
में गई ओर वहाँ देखा तो कोने में दुबका हुआ उपकोसल चुपचाप आँखों से आ्ँसुओं की
धारा बहाता हुआ शिर नीचे किए हुए बैठा है । गुरु पत्नी को देख कर उसके अमर्ष का वेग
बढ़ गया और बह फफक-फफक कर रोने लगा ।
उपकोसल की इस दीन दशा को देखरकर दयालु गुरु पत्नी
की 'करुणा भी उमड़ पड़ी । कोने से उसे खींच कर अंक में लगाते हुए वह बोली - 'मेरे प्यारे । तू इतना उदास क्यों हो रहा है, मैं आज
ही तेरे गुरु से तुझे विद्यारम्भ कराने की अभ्यर्थना करूँगी । तू तनिक भी उदास मत
हो। देख, सायंकाल आ गया, ओर अभी तक
तेरी अग्नियों की सायंपूजा नहीं हुईं, न ईंधन आया ओर न अभिसिंचन
का कुश और जल । शीघ्र जा, और अपना काम कर, तुझे इतना दुःखी तो नहीं होना चाहिए । मेरे रहते हुए तुझे किस बात का कष्ट
है, जो इस तरह घर भागने के लिए ललक रहा है।
उपकोसल चुपचाप ईंधन लेने के लिए वन्य मार्ग
की ओर चला गया । गुरु पत्नी की ममता से भरी हुई वाणी ने उसके हृदय का काँटा काढ़
दिया। वह कुछ हलका बन गया क्योंकि मन का सारा दुःख आँसुओं के रूप में बाहर निकल
गया था । पुराने साथियों के घर चले जाने से उसे आज एक नवीन प्रेरणा मिली। वह सोचने
लगा कि मैं अभी कितना अधीर हूँ, इतने दिनों तक आश्रम में रह कर भी किसी
योग्य नहीं बन सका । अवश्य मुझ में कोई कमी है, जो गुरु जी
मुझे विद्यादान का पात्र नहीं समझते । अब मुझे सच्चे तन-मन से अपने कर्तव्य में
जुट जाना है, देखें कब उनका हृदय पसीजता है । उपकोसल के ईंधन के लिए वन में चले जाने के थोड़ी
ही देर बाद सत्यकाम भी आ गए । गुरु पत्नी ने उपकोसल की उद्विग्नता का समाचार
सुनाते हुए कहा--“उपकोसल की दीनता से में आज विचलित हो गई हूँ । उसको आश्रम में रहते हुए बारह व से ऊपर हो
गए । उसने श्रद्धा पूर्वक ब्रह्मचर्य के नियमों का यथोचित पालन किया है और आप के
यजशाला की अग्नियों की भली भाँति आराधना की है। उसके पीछे आए हुए साथी दीक्षा
ग्रहण कर गृहस्थ धर्म में सम्मिलित हो गए, पर वह ज्यों का त्यों है। आज वह दिन भर
यज्ञ कुण्ड के पास कोने में बैठ कर रोता रहा । अभी मेरे बहुत कहने सुनने पर ईंधन
के लिए वन की और गया है। उसके समान सरल, विनीत ओर सेवा में
निपुण शिष्य को ब्रह्मविद्या से अभी तक उपेक्षित क्यों किया गया है ( मैं चाहती
हूँ कि उसे भी शीघ्र ही दीक्षित कर गृहस्थ धर्म में प्रवेश करने की आज्ञा दीजिए।
नहीं तो ये यज्ञ अग्नियां आपको उलाहना देगी ।
सत्यकाम ने पत्नी की बातें अनसुनी कर दी और
बिना कुछ उत्तर दिये ही सन्ध्यावन्दन में लग गए । थोड़ी देर तक वह खड़ी रहीं पर जब
देखा कि सत्यकाम प्राणायाम खींच रहे हैं तो मन मसोस कर घर के दूसरे कामों में लग
गई” । उधर उपकोसल ने अग्नियों की विधि-वत आराधना की, उसे यह आशा हो गई थी,
कि गुरु पत्नी के आश्वासन निष्फल होने वाले नहीं हैं। इधर सन्ध्यावन्दन से निवृत्त
होकर सत्यकाम ने उपकोसल से बाते भी नहीं की और प्रतिदिन की तरह अग्न्याधान के मंत्रों
का सस्वर पाठ भी उससे नहीं कराया ।
दूसरे दिन प्रातःकाल सत्यकाम लंबी यात्रा के
लिए चले गए और जाते समय पत्नी से कह गए कि जब तक से पुनः आश्रम में वापस नहीं आता
तब तक यज्ञशाला की अग्नियों की सेवा का
सारा भार उपकोसल पर है और अन्य छात्रों का पाठारम्भ मेरे आने पर होगा। इन नवीन
छात्रों की देख-भाल भी उपकोसल करेगा । सत्यकाम के इन गूढ़ वचनों से पत्नी के निराश
मन में कुछ आशा का संचार हुआ । पर गुरु के लंबी यात्रा पर चले जाने, और जाते समय
एक दम मौन रहने के कारण उपकोसल को बहुत दुःख हुआ । मानसिक अशान्ति ने उसके आहत
हृदय को एक दम विचलित कर दिया और वह बहुत दुःखी होकर अनशन करने पर उतारू हों गया ।
पर इस निश्चय के करने पर भी उसने अग्नियों की आराधना से मुख नहीं मोड़ा ।
सायंकाल अन्य शिष्यों से उपकोसल के अनशन का
समाचार सुन कर गुरु पत्नी को बहुत दुःख हुआ । वात्सल्य-स्नेह से उनका दयालु हृदय
भर आया मोर उपकोसल के पास जाकर उन्होंने कहा -- 'वत्स उपकोसल ! तू
किस लिए भोजन नहीं कर रहा है?
उपककोसल उठकर खड़ा हो गया, और हाथ जोड़ कर विनीत भाव से बोला--'माता
। मेरे मन में व्याधियों को बाढ़-सी था गई है, मैं पहले तो
केवल कुछ निराश था पर अब अनेक प्रकार की कठिनाइयों ने मेरी बुद्धि को विकृत कर
दिया है, अतः अब मैं कुछ भी न खा सकूंगा ।
गुरुपत्नी ने कहा--'ब्रह्मचारी ! तेरी मानसिक व्याधियों को मैं
जानती हूँ और यह भी जानती हूँ किन कठिनाइयों ने तेरी बुद्धि को विकृत कर रखा है । पर
तुके इस तरह परेशान नहीं होना चाहिए । तेरे गुरु इतने अनजान नहीं हैं कि वह तेरी कठिनाइयों
और मानसिक व्याधियों को न जानते हों, या जान बूझ कर टाल रहे
हों । आज सबेरे का ही हाल है। यात्रा पर जाते समय उन्होंने कहा है कि 'यज्ञशाला की अग्नियों की आराधना का सारा भार उपकोसल पर रहेगा । इससे यह तो
सिद्ध हो जाता है कि वह तुमको उस कार्य के योग्य समझते हैं । तू उठ और भोजन कर । इस
तरह मेरे रहते हुए तू आश्रम में अनशन नहीं कर सकता ।
उपकोसल का शोक-विदग्घ हृदय गुरु के इस अज्ञात-स्नेह
के समाचार को सुन लेने के बाद से तरंगित हो उठा । इस अभूतपूर्व सम्मान के संदेश ने
उसके सूखते जीवन में संजीवनी डाल दी । कृतज्ञता से उसकी रोमावलि पुलकित हो गई।
आँखों से प्रसन्नता के मोती चू पड़े और कंठ गदगद हो गया । हाथ जोड़ कर उसने कहा--'माता
। आज रात को तो अनशन करने की मैंने प्रतिज्ञा कर ली है, क्योंकि
मानसिक अशान्तियों के दूर करने का इससे सुगम कोई दूसरा उपाय नहीं है। किन्तु कल से
मैं अनशन नहीं करूँगा । आप आज के लिए मुझे हृदय से क्षमा करें, क्योंकि मैं बहुत विवश हूँ ।
गुरु पत्नी चुप होकर चली गई । उपकोसल अग्नियों
की सेवा में लीन हो गया । उस दिन ओर रात को उसने अपनी प्रतिज्ञा का पूर्ण पालन
किया ।
ब्रह्मचारी उपकोसल के उस दिन निराहार रहने
से अन्तर्यामी अग्नियों ने विचार किया कि इस शुद्ध हृदय तपस्वी ब्रह्मचारी ने इतने
दिनों तक मन लगाकर हमारी सेवा की है। पर इसकी कामना आज तक पूर्ण नहीं हो सकी ।
इसने आज कुछ आहार भी नहीं किया है फिर भी हमारी सेवा में उसी तरह से दत्तचित्त है ।
इसकी सच्ची सेवा का फल हमें अवश्य देना चाहिए । जिस तरह से भी हो, हम
लोग इसकी कामनाओं की पूर्ति करें ।
रात के प्रथम प्रहर बीत जाने के बाद जब उपकोसल
अग्निशाला में यज्ञ-कुण्ड के समीप मंत्रों का सस्वर उच्चारण करते हुए भक्ति साथ
समिधा डाल रहा था, अचानक यज्ञ कुण्ड से एक गम्भीर आवाज आई--ब्रह्मचारी
। तेरी मेवा से में परम प्रसन्न हुआ हूँ । अपना अभिलक्षित वरदान तू मुझसे माँग ।?
उपकोसल स्तंभित हो गया । चारों ओर दृष्टि उठाकर उसने यज्ञशाला में देखा,
पर कोई दिखाई नहीं पड़ा । वह कुछ भयभीत हो गया क्योंकि बिना शरीर की
मानव वाणी सुनने का अवसर उसे नहीं प्राप्त हुआ था । इसी बीच यज्ञ-कुंड से फिर आवाज
आई-- ब्रह्मचारी । तू भयभीत मत हो । मैं तेरी सेवाओं से प्रसन्न अग्नि हूँ । 'तू अपनी अभिलाषा का वरदान माँग ॥
उपकोसल का भय विस्मय में बदल गया । रोमावलि
खड़ी हो गई, हृदय धड़कने लगा, पैरों में
कंपकंपी आ गई । थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद काँपते हुए स्वर में वह
बोला--“अग्निदेव । यदि आप सचमुच मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे ब्रह्मविद्या का उपदेश
कीजिए, जिसे जानकर संसार के कष्टों से सदा के लिए मुक्ति मिल
जाती है। इस संसार में जहाँ कही में दृष्टि डालता हूँ, सर्वत्र
दुःखों का समुद्र उमड़ा दिखाई पड़ता है। अत: जिस तरह से भी इन दुखों का अन्त हो
वही उपदेश मुझे कीजिए ।
इतना कह उपकोसल चुप हो गया । थोड़ी देर तक
यज्ञशाला में चारों ओर सन्नाटा रहा, फिर एकाएक अग्नि कुंड से
एक परम तेजस्वी मानवाकृति बाहर निकली, जिसके शरीर से दिव्य
तेज निकल कर चारों ओर फैल रहा था । यज्ञशाला के चारों ओर उस दिव्य शरीर के प्रकाश
का पुंज देखते-देखते ही उद्भासित हो गया । अब तो उस दिव्य शरीर की ओर देखने की
शक्ति उपकोसल में नहीं रही । उसकी आँखें मुंद गई , शरीर भय
से काँपने लगा और चेतना हीन होने लगी । वह मूर्छित होकर गिर पड़ा । थोड़ी देर के
बाद उसने अनुभव किया कि कमल की पंखुड़ियों के समान कोमल, नवनीत
के समान मृदु और हिम के समान शीतल सुखदायी अंगुलियों से उसकी पीठ पर कोई कुछ फेर
रहा है, उसकी मिंची हुई आंखों की पलकों से लेकर मुख और ललाट
तक उन शीतल सुखदायी अंगुलियों ने जादू की लकड़ी की तरह फेर कर उसे नवीन चेतनता ओर
एक दिव्य ज्योति का अनुभव कराया। उसे मालूम होने लगा मानो हृदय में शरद पूर्णिमा
की चाँदनी से सौगुनी अधिक प्रकाशीत, शीतल, सुखदायिनी कोमुदी खीली हुईं है । मन में सौ गुना अधिक उत्साह हो आया है,
अंग प्रत्यंगों में विद्युत प्रकाश की तरह स्फुर्ति की लहर तरंगित
हो रही हैं ओर हृदय वीणा के तारो की किसी ने उन्हें मृदु अंगुलियों से गुद-गुदाकर झंकृत
कर दिया है । वह उठ बैठा और सामने देख रहा है कि एक सौम्य मूर्ति ऋषि उसके सामने
खड़ी है । वह धन्य हो गया ।
दूसरे दिन प्रातःकाल उपकोसल बहुत सवेरे उठा
ओर नित्यकर्म से निवृत्त होकर जब यज्ञशाला में पहुँचा तो उसके नवीन साथियों में से
एक ने बड़े कुतूहल से पूछा--'भाई उपकोसल । आज तो तुम्हारी मुख का
शोभा देखने योग्य है । तुम्हारे शरीर से तेज-सा छिटक रहा है । बात क्या है?
उपकोसल ने सहज भाव से कहा--'भाई
। यह मेरे उपवास का फल है । पूज्य माता जी का आशीर्वाद है, आराध्य
गुरुदेव और उनकी आहत अग्नियों की महान कृपा है। मुझे तो अपने में कुछ विशेष परिवर्तन
नहीं दिखाई पड़ रहा है ।
एक दूसरे साथी ने कहा--“नहीं भाई । बात सच
है। मालूम होता है जैसे तुम रोज की अपेक्षा अधिक शान्त और संतुष्ट हो । मुख मण्डल
हमारे अन्तःकरण का प्रतिबिम्ब है, जो भावनाएँ भीतर होती हैं, वह मुखमण्डल पर बाहर दिखाई पड़ती हैं । मुझे लगता हे कि जैसे तुम आज बहुत
सन्तृष्ट और शान्त हो गए हो ।
उपकोसल ने दूसरे गुरुभाई का कुछ उत्तर नहीं
दिया। केवल; मुसकराते हुए उसकी ओर एक बार निहार कर वह अग्नियों की
आराधना में तन मन से जुट गया । उस दिन दोपहर को गुरुपत्नी ने उसे यज्ञशाला के बाहर
से पुकारा--वत्स उपकोसल । कहाँ है। क्या अभी तक तूने कुछ खाया पिया नहीं? उपकोसल ने हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए कहा--“मात । सवेरे पानी पी लिया है,
अभी मध्यान्ह की आहुति डालने के बाद आहार की चिन्ता करूँगा। गुरुपत्नी
ने देखा आज का उपकोसल कुछ दूसरा ही दिखाई पड़ रहा है । उन्होंने पूछा--वत्स । आज
मैं देख रही हूँ कि तेरे मुख मण्डल पर कल की तरह विषाद की रेखाएँ नहीं हैं,
अंगो में ग्लानि का चिह्न नहीं है और तेरी आँखें तेरी मानसिक शान्ति
और सन्तोष की साक्षी दे रही हैं ।
उपकोसल ने विनीत भाव से कहा--माता यह सब गुरूदेव, आप
और अग्निदेव की मुझ हृतभाग्य के ऊपर महान् कृपा है । मैं तो जैसा कल था वैसा ही
आज भी हूँ ।
गुरु पत्नी को उपकोसल की निश्छलता और प्रसन्नता
से बड़ा सन्तोष हुआ । बोलीं--“वत्स । तू ने कल भी कुछ लाया नहीं । आज मैंने तेरे
लिए भी भोजन तैयार कर के रखा है, समिधाओं को अ्भिसिंचत करने के बाद तू
चले आना । देखना, कहीं बहाना मत बना देना ।
उपकोसल चुप होकर यज्ञशाला की ओर ताकने लगा।
गुरुपत्नी आश्रम में चली गई और सब नये साथी उपकोसल के भाग्य पर ईर्ष्या करने लगे।
एक ने ताना कसते हुए कहा--“भाई । अब उपकोसल का क्या पूछना है? उसे
भोजन भी अब बना-बनाया मिल रहा है । अब उसके भाग्य के दिन शुरू हो गए हैं ।
दूसरे ने कहा--'भाई
! इतने दिनों तक बेचारे ने बड़ी ठोकरें खाई हैं, क्या तुम यह
चाहते थे कि वह सारी उमर गुरुकुल में ही बिता दे। भगवान् सब के दिन फेरते हैं १
उपकोसल चुपचाप अग्निकुंड के पीछे जाकर
समिधाओं का अभिसिंचन करने लगा । मानों उसने किसी की बातों को सुना ही नहीं । दोपहर
के बाद जाकर उसने गुरुपत्नी के हाथों से बना हुआ भोजन
किया । बारह वर्ष के बाद इस प्रकार
के अमृत तुल्य आहार को सम्मान पूर्वक प्राप्त कर उसने भी समझ लिया कि मेरे ऊपर
गुरुदेव की सच्ची कृपा हो गई है।
रात फिर आई । उपकोसल संध्या के नित्यक्रिया
से अवकाश प्राप्त कर कल रात को अग्नि द्वारा उपदिष्ट ब्रह्म-विद्या का चिन्तन करते
हुए शान्त मुद्रा में एक कोने में बैठ गया । एक पहर रात बीतने के बाद वह नित्य की
भाँति फिर यज्ञ कुंड के समीप जाकर मंत्रों का सस्वर उच्चारण करते हुए भक्ति समेत
समिधा डालने लगा । कल की तरह आज फिर यज्ञकुण्ड से आवाज आई - ब्रह्मचारिन् । मैं
भी तेरी सेवा से परम प्रसन्न होकर तुझे वरदान देने के लिए आया हूँ । अपना अभिलषित
वरदान तू मुझसे माँग ।
उपकोसल आज नहीं डरा । उसके हृदय में हर्ष
की बाढ़-सी आ गई । गदगद स्वर से वह बोला--अग्निदेव ! मुझे ब्रह्मविद्या के सिवा इस
संसार में किसी अन्य वस्तु की कामना नहीं है । मुझे चारों चरणों समेत ब्रह्म का
उपदेश मिले, यही चाहता हूँ ।
यज्ञकुंड की प्रदीप्त लपटो से कल की भाँति
फिर वही दिव्य आकृति बाहर निकलते हुए बोला--'ब्रह्मचारिन् ! कल तुझे
ब्रह्म के एक चरण का उपदेश मिल चुका है। अब मैं तीन अंशो में प्रकट होकर तुम्हें
ब्रह्म के शेष चरणों का उपदेश करूंगा । आज दूसरे चरण का उपदेश तुझे मैं दे रहा हूँ
। कल और परसों शेष चरणों का उपदेश ग्रहण करना। किन्तु वत्स । इस बात का ध्यान रखना
कि हम सब तुझे अग्न्याराधन तथा ब्रह्म अर्थात आत्मा के यथार्थ तत्व का ही उपदेश
करेंगे, तेरे आचार्य यात्रा से लौटकर तुझे इस ब्रह्मविद्या
के फल का उपदेश करेंगे। बिना उनके उपदेश को ग्रहण किये तेरी यह विद्या पूर्ण नहीं
होगी, निष्फल रह जायेगी ।
उपकोसल ने हाथ जोड़कर शीश झुकाते हुए
कहा--“देव । मैं इतनी अज्ञता नहीं करूँगा कि आचार्य चरण की विद्या प्राप्त किए बिना
गुरुकुल से चला जाऊं ।
कुछ दिनों के बाद सत्यकाम अपनी लम्बी
यात्रा से वापस लौटे । वह कुछ दूर से दिखाई पड़े कि आश्रम में चहल पहल मच गई । शिष्यों
ने गुरुदेव के चरणों की धुल मस्तक में लगाई । किसी ने उनका कमंडलु लिया ओर किसी ने
मृग छाला। उस समय उपकोसल अग्नि की आराधना में लगा था अतः उसे कुछ पता नहीं था । सत्यकाम
ने शिष्यों की भीड़ में उपकोसल को देखना चाहा, पर वह नहीं मिला ।
उन्होंने जान लिया कि उपकोसल में अब कितनी गम्भीरता आ गई है। आश्रम में थोड़ी देर
तक श्रम दूर करने के बाद उन्होंने शिष्यों को अपने-अपने काम पर जाने की आज्ञा दी
और स्वयं यज्ञकुण्ड की ओर अकेले चल पड़े । यज्ञशाला के द्वार पर पहुँच कर सत्यकाम
ने देखा कि उपकोसल एकाग्र मन से मध्याह्न को समिधाओं को ठीक कर रहा है। उसके
मुखमण्डल पर सूर्य के समान जाज्वल्यमान तेज विराज रहा है और जीम वेद मंत्रों के
उच्चारण में निरत है।
सत्यकाम ने मुदस्वर में पुकारा वत्स उपकोसल
! उपकोसल ने आंखें उठाकर देखा तो चिरकाल के प्रवास के बाद गुरुदेव शाला के द्वार
पर विराजमान हैं। समिधाओं को नीचे रख वह दौड़ पड़ा और गुरु के चरणों से लिपट गया ।
सत्यकाम ने उपकोसल को उठाकर छाती से लगा लिया । उन्होंने देखा कि उपकोसल के मुख
मण्डल पर ऐसी प्रखर दीप्ति विराजमान है कि आँखें चकाचौंध हो रही हैं। उसकी आंखें इत्यादि
समस्त इन्द्रियाँ सात्विक प्रकाश पुंज से प्रदीप्त हैं, पूरे
शरीर में ब्रह्मवर्चस की पूर्ण छुटा छिटक रटी है। हर्ष में भर कर उन्होंने पूछा--
वत्स । तेरा मुख ब्रह्मज्ञानियों की तरह चमक रहा है। इन्द्रियों समेत सारे शरीर में
ब्रह्म तेज-सा झलक रहा है।
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