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यजुर्वेद अध्याय 18

 ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - शक्वरी स्वरः - धैवतः


वाज॑श्च मे प्रस॒वश्च॑ मे॒ प्रय॑तिश्च मे॒ प्रसि॑तिश्च मे धी॒तिश्च॑ मे॒ क्रतु॑श्च मे॒ स्व॑रश्च मे॒ श्लोक॑श्च मे॒ श्र॒वश्च॑ मे॒ श्रुति॑श्च मे॒ ज्योति॑श्च मे॒ स्वश्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥१॥

पदपाठ-

वाजः॑। च॒। मे॒। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वः। च॒। मे॒। प्रय॑ति॒रिति॒ प्रऽय॑तिः। च॒। मे॒। प्रसि॑ति॒रिति॒ प्रऽसि॑तिः। च॒। मे॒। धी॒तिः। च॒। मे॒। क्रतुः॑। च॒। मे॒। स्वरः॑। च॒। मे॒। श्लोकः॑। च॒। मे॒। श्र॒वः। च॒। मे॒। श्रुतिः॑। च॒। मे॒। ज्योतिः॑। च॒। मे॒। स्व᳖रिति॒ स्वः᳖। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। कल्प॒न्ताम् ॥१ ॥


विषय - अब अठारहवें अध्याय का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को ईश्वर वा धर्मानुष्ठानादि से क्या क्या सिद्ध करना चाहिये, विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

(मे) मेरा (वाजः) अन्न (च) विशेष ज्ञान (मे) मेरा (प्रसवः) ऐश्वर्य्य (च) और उसके ढंग (मे) मेरा (प्रयतिः) जिस व्यवहार से अच्छा यत्न बनता है, सो (च) और उसके साधन (मे) मेरा (प्रसितिः) प्रबन्ध (च) और रक्षा (मे) मेरी (धीतिः) धारणा (च) और ध्यान (मे) मेरी (क्रतुः) श्रेष्ठ बुद्धि (च) उत्साह (मे) मेरी (स्वरः) स्वतन्त्रता (च) उत्तम तेज (मे) मेरी (श्लोकः) पदरचना करने हारी वाणी (च) कहना (मे) मेरा (श्रवः) सुनना (च) और सुनाना (मे) मेरी (श्रुतिः) जिससे समस्त विद्या सुनी जाती हैं, वह वेदविद्या (च) और उसके अनुकूल स्मृति अर्थात् धर्मशास्त्र (मे) मेरी (ज्योतिः) विद्या का प्रकाश होना (च) और दूसरे को विद्या का प्रकाश करना (मे) मेरा (स्वः) सुख (च) और अन्य का सुख (यज्ञेन) सेवन करने योग्य परमेश्वर वा जगत् के उपकारी व्यवहार से (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें॥१॥


भावार्थ - हे मनुष्यो! तुम को अन्न आदि पदार्थों से सब के सुख के लिये ईश्वर की उपासना और जगत् के उपकारक व्यवहार की सिद्धि करनी चाहिये, जिससे सब मनुष्यादिकों की उन्नति हो॥१॥


ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - भुरितिजगती स्वरः - निषादः


प्रा॒णश्च॑ मेऽपा॒नश्च॑ मे व्या॒नश्च॒ मेऽसु॑श्च मे चि॒त्तं च॑ म॒ऽआधी॑तं च मे॒ वाक् च॑ मे॒ मन॑श्च मे॒ चक्षु॑श्च मे॒ श्रोत्रं॑ च मे॒ दक्ष॑श्च मे॒ बलं॑ च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥२॥


स्वर सहित पद पाठ

प्रा॒णः। च॒। मे॒। अ॒पा॒न इत्य॑पऽआ॒नः। च॒। मे॒। व्या॒न इति॑ विऽआ॒नः। च॒। मे॒। असुः॑। च॒। मे॒। चि॒त्तम्। च॒। मे॒। आधी॑त॒मित्याऽधी॑तम्। च॒। मे॒। वाक्। च॒। मे॒। मनः॑। च॒। मे॒। चक्षुः॑। च॒। मे॒। श्रोत्र॑म्। च॒। मे। दक्षः॑। च॒। मे॒। बलम्। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥२ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(मे) मेरा (प्राणः) हृदयस्थ जीवनमूल (च) और कण्ठ देश में रहने वाला पवन (मे) मेरा (अपानः) नाभि से नीचे को जाने (च) और नाभि में ठहरने वाला पवन (मे) मेरा (व्यानः) शरीर की सन्धियों में व्याप्त (च) और धनञ्जय जो कि शरीर के रुधिर आदि को बढ़ाता है, वह पवन (मे) मेरा (असुः) नाग आदि प्राण का भेद (च) तथा अन्य पवन (मे) मेरी (चित्तम्) स्मृति अर्थात् सुधि रहनी (च) और बुद्धि (मे) मेरा (आधीतम्) अच्छे प्रकार किया हुआ निश्चित ज्ञान (च) और रक्षा किया हुआ विषय (मे) मेरी (वाक्) वाणी (च) और सुनना (मे) मेरी (मनः) संकल्प-विकल्प रूप अन्तःकरण की वृत्ति (च) अहङ्कारवृत्ति (मे) मेरा (चक्षुः) जिससे कि मैं देखता हूं, वह नेत्र (च) और प्रत्यक्ष प्रमाण (मे) मेरा (श्रोत्रम्) जिससे कि मैं सुनता हूं, वह कान (च) और प्रत्येक विषय पर वेद का प्रमाण (मे) मेरी (दक्षः) चतुराई (च) और तत्काल भान होना तथा (मे) मेरा (बलम्) बल (च) और पराक्रम ये सब (यज्ञेन) धर्म के अनुष्ठान से (कल्पन्ताम्) समर्थ हों॥२॥


भावार्थ - मनुष्य लोग साधनों के सहित अपने प्राण आदि पदार्थों को धर्म के आचरण करने में संयुक्त करें॥२॥


ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - भुरिक् शक्वरी स्वरः - धैवतः


ओज॑श्च मे॒ सह॑श्च मऽआ॒त्मा च॑ मे त॒नूश्च॑ मे॒ शर्म॑ च मे॒ वर्म॑ च॒ मेऽङ्गा॑नि च॒ मेऽस्थी॑नि च मे॒ परू॑षि च मे॒ शरी॑राणि च म॒ऽआयु॑श्च मे ज॒रा च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥३॥

स्वर सहित पद पाठ


ओजः॑। च॒। मे॒। सहः॑। च॒। मे॒। आ॒त्मा। च॒। मे॒। त॒नूः। च॒। मे॒। शर्म॑। च॒। मे॒। वर्म॑। च॒। मे॒। अङ्गा॑नि। च॒। मे॒। अस्थी॑नि। च॒। मे॒। परू॑षि। च॒। मे॒। शरी॑राणि। च॒। मे॒। आयुः॑। च॒। मे॒। ज॒रा। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥३ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(मे) मेरे (ओजः) शरीर का तेज (च) और मेरी सेना (मे) मेरे (सहः) शरीर का बल (च) तथा मन (मे) मेरा (आत्मा) स्वरूप और (च) मेरा सामर्थ्य (मे) मेरा (तनूः) शरीर (च) और सम्बन्धीजन (मे) मेरा (शर्म) घर (च) और घर के पदार्थ (मे) मेरी (वर्म) रक्षा जिससे हो, वह बख्तर (च) और शस्त्र-अस्त्र (मे) मेरे (अङ्गानि) शिर आदि अङ्ग (च) और अङ्गुलि आदि प्रत्यङ्ग (मे) मेरे (अस्थीनि) हाड़ (च) और भीतर के अङ्ग प्रत्यङ्ग अर्थात् हृदय मांस नसें आदि (मे) मेरे (परूंषि) मर्मस्थल (च) और जीवन के कारण (मे) मेरे (शरीराणि) सम्बन्धियों के शरीर (च) और अत्यन्त छोटे-छोटे देह के अङ्ग (मे) मेरी (आयुः) ऊमर (च) तथा जीवन के साधन अर्थात् जिनसे जीते हैं (मे) मेरा (जरा) बुढ़ापा (च) और जवानी ये सब पदार्थ (यज्ञेन) सत्कार के योग्य परमेश्वर से (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें॥३॥


भावार्थ - राजपुरुषों को चाहिये कि धार्मिक सज्जनों की रक्षा और दुष्टों को दण्ड देने के लिये बली सेना आदि जनों को प्रवृत्त करें॥३॥


ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - निचृदत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः


ज्यैष्ठ्यं॑ च म॒ऽआधि॑पत्यं च मे म॒न्युश्च॑ मे॒ भाम॑श्च॒ मेऽम॑श्च॒ मेऽम्भ॑श्च मे जे॒मा च॑ मे महि॒मा च॑ मे वरि॒मा च॑ मे प्रथि॒मा च॑ मे वर्षि॒मा च॑ मे द्राधि॒मा च॑ मे वृ॒द्धं च॑ मे॒ वृद्धि॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥४॥


स्वर सहित पद पाठ

ज्यैष्ठ्य॑म्। च॒। मे॒। आधि॑पत्य॒मित्याधि॑ऽपत्यम्। च॒। मे॒। म॒न्युः। च॒। मे॒। भामः॑। च॒। मे॒। अमः॑। च॒। मे॒। अम्भः॑। च॒। मे॒। जे॒मा। च॒। मे॒। म॒हि॒मा। च॒। मे॒। व॒रि॒मा। च॒। मे॒। प्र॒थि॒मा। च॒। मे॒। व॒र्षि॒मा। च॒। मे॒। द्रा॒घि॒मा। च॒। मे॒। वृ॒द्धम्। च॒। मे॒। वृद्धिः॑। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥४ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(मे) मेरी (ज्यैष्ठ्यम्) प्रशंसा (च) और उत्तम पदार्थ (मे) मेरा (आधिपत्यम्) स्वामीपन (च) और स्वकीय द्रव्य (मे) मेरा (मन्युः) अभिमान (च) और शान्ति (मे) मेरा (भामः) क्रोध (च) और उत्तम शील (मे) मेरा (अमः) न्याय से पाये हुए गृहादि (च) और पाने योग्य पदार्थ (मे) मेरा (अम्भः) जल (च) और दूध, दही, घी आदि पदार्थ (मे) मेरा (जेमा) जीत का होना (च) और विजय (मे) मेरा (महिमा) बड़प्पन (च) प्रतिष्ठा (मे) मेरी (वरिमा) बड़ाई (च) और उत्तम वर्त्ताव (मे) मेरा (प्रथिमा) फैलाव (च) और फैले हुए पदार्थ (मे) मेरा (वर्षिमा) बुढ़ापा (च) और लड़काई (मे) मेरी (द्राघिमा) बढ़वार (च) और छुटाई (मे) मेरा (वृद्धम्) प्रभुता को पाया हुआ बहुत प्रकार का धन आदि पदार्थ (च) और थोड़ा पदार्थ तथा (मे) मेरा (वृद्धिः) जिस अच्छी क्रिया से वृद्धि को प्राप्त होते हैं, वह (च) और उससे उत्पन्न हुआ सुख उक्त समस्त पदार्थ (यज्ञेन) धर्म की रक्षा करने से (कल्पन्ताम्) समर्थित होवें॥४॥


भावार्थ - हे मित्रजनो! तुम यज्ञ की सिद्धि और समस्त जगत् के हित के लिये प्रशंसित पदार्थों को संयुक्त करो॥४॥


ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - स्वराट् शक्वरी स्वरः - धैवतः


स॒त्यं च॑ मे श्र॒द्धा च॑ मे॒ जग॑च्च मे॒ धनं॑ च मे॒ विश्वं॑ च मे॒ मह॑श्च मे क्री॒डा च॑ मे॒ मोद॑श्च मे जा॒तं च॑ मे जनि॒ष्यमा॑णं च मे सू॒क्तं च॑ मे सुकृ॒तं च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥५॥


स्वर सहित पद पाठ

स॒त्यम्। च॒। मे॒। श्र॒द्धा। च॒। मे॒। जग॑त्। च॒। मे॒। धन॑म्। च॒। मे॒। विश्व॑म्। च॒। मे॒। महः॑। च॒। मे॒। क्री॒डा। च॒। मे॒। मोदः॑। च॒। मे॒। जा॒तम्। च॒। मे॒। ज॒नि॒ष्यमा॑णम्। च॒। मे॒। सू॒क्तमिति॑ सुऽउ॒क्तम्। च॒। मे॒। सु॒कृ॒तमिति॑ सुऽकृ॒तम्। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥५ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(मे) मेरा (सत्यम्) यथार्थ विषय (च) और सब का हित करना (मे) मेरी (श्रद्धा) अर्थात् जिससे सत्य को धारण करते हैं (च) और उक्त श्रद्धा की सिद्धि देने वाले पदार्थ (मे) मेरा (जगत्) चेतन सन्तान आदि वर्ग (च) और उस में स्थिर हुए पदार्थ (मे) मेरा (धनम्) सुवर्ण आदि धन (च) और धान्य अर्थात् अनाज आदि (मे) मेरा (विश्वम्) सर्वस्व (च) और सबों पर उपकार (मे) मेरी (महः) बड़ाई से भरी हुई प्रशंसा करने योग्य वस्तु (च) और सत्कार (मे) मेरा (क्रीडा) खेलना विहार (च) और उसके पदार्थ (मे) मेरा (मोदः) हर्ष (च) और अति हर्ष (मे) मेरा (जातम्) उत्पन्न हुआ पदार्थ (च) तथा जो होता है (मे) मेरा (जनिष्यमाणम्) जो उत्पन्न होने वाला (च) और जितना उससे सम्बन्ध रखने वाला (मे) मेरा (सूक्तम्) अच्छे प्रकार कहा हुआ (च) और अच्छे प्रकार विचारा हुआ (मे) मेरा (सुकृतम्) उत्तमता से किया हुआ काम (च) और उसके साधन ये उक्त सब पदार्थ (यज्ञेन) सत्य और धर्म की उन्नति करने रूप उपदेश से (कल्पन्ताम्) समर्थ हों॥५॥


भावार्थ - जो मनुष्य विद्या का पठन-पाठन, श्रवण और उपदेश करते वा कराते हैं, वे नित्य उन्नति को प्राप्त होते हैं॥५॥


ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - भुरिगतिशक्वरी स्वरः - पञ्चमः


ऋ॒तं च॑ मे॒ऽमृतं॑ च मेऽय॒क्ष्मं च॒ मेऽना॑मयच्च मे जी॒वातु॑श्च मे दीर्घायु॒त्वं च॑ मेऽनमि॒त्रं च॒ मेऽभ॑यं च मे सु॒खं च॑ मे॒ शय॑नं च मे सू॒षाश्च॑ मे सु॒दिनं॑ च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥६॥


स्वर सहित पद पाठ

ऋ॒तम्। च॒। मे॒। अ॒मृत॑म्। च॒। मे॒। अ॒य॒क्ष्मम्। च॒। मे॒। अना॑मयत्। च॒। मे॒। जी॒वातुः॑। च॒। मे॒। दी॒र्घा॒यु॒त्वमिति॑ दीर्घायु॒ऽत्वम्। च॒। मे॒। अ॒न॒मि॒त्रम्। च॒। मे॒। अभ॑यम्। च॒। मे॒। सु॒खमिति॑ सु॒ऽखम्। च॒। मे॒। शय॑नम्। च॒। सू॒षा इति॑ सुऽउ॒षाः। च॒। मे॒। सु॒दिन॒मिति॑ सु॒ऽदिन॑म्। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥६ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(मे) मेरा (ऋतम्) यथार्थ विज्ञान (च) और उसकी सिद्धि करने वाला पदार्थ (मे) मेरा (अमृतम्) आत्मस्वरूप वा यज्ञ से बचा हुआ अन्न (च) तथा पीने योग्य रस (मे) मेरा (अयक्ष्मम्) यक्ष्मा आदि रोगों से रहित शरीर आदि (च) और रोगविनाशक कर्म (मे) मेरा (अनामयत्) रोग आदि रहित आयु (च) और इसकी सिद्धि करने वाली ओषधियां (मे) मेरा (जीवातुः) जिससे जीते हैं वा जो जिलाता है, वह व्यवहार (च) और पथ्य भोजन (मे) मेरा (दीर्घायुत्वम्) अधिक आयु का होना (च) ब्रह्मचर्य और इन्द्रियों को अपने वश में रखना आदि कर्म (मे) मेरा (अनमित्रम्) मित्र (च) और पक्षपात को छोड़ के काम (मे) मेरा (अभयम्) न डरपना (च) और शूरपन (मे) मेरा (सुखम्) अति उत्तम आनन्द (च) और इसको सिद्ध करने वाला (मे) मेरा (शयनम्) सो जाना (च) और उस काम की सिद्धि करने वाला पदार्थ (मे) मेरा (सूषाः) वह समय कि जिसमें अच्छी प्रातःकाल की वेला हो (च) और उक्त काम का सम्बन्ध करने वाली क्रिया तथा (मे) मेरा (सुदिनम्) सुदिन (च) और उपयोगी कर्म ये सब (यज्ञेन) सत्य वचन बोलने आदि व्यवहारों से (कल्पन्ताम्) समर्थित होवें॥६॥


भावार्थ - जो मनुष्य सत्यभाषण आदि कामों को करते हैं, वे सदा सुखी होते हैं॥६॥


ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - भुरितिजगती स्वरः - निषादः


य॒न्ता च॑ मे ध॒र्त्ता च॑ मे॒ क्षेम॑श्च मे॒ धृति॑श्च मे॒ विश्वं॑ च मे॒ मह॑श्च मे सं॒विच्च॑ मे॒ ज्ञात्रं॑ च मे॒ सूश्च॑ मे प्र॒सूश्च॑ मे॒ सीरं॑ च मे॒ लय॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥७॥


स्वर सहित पद पाठ

य॒न्ता। च॒। मे॒। ध॒र्त्ता। च॒। मे॒। क्षेमः॑। च॒। मे॒। धृतिः॑। च॒। मे॒। विश्व॑म्। च॒। मे॒। महः॑। च॒। मे॒। सं॒विदिति॑ स॒म्ऽवित्। च॒। मे॒। ज्ञात्र॑म्। च॒। मे॒। सूः। च॒। मे॒। प्र॒सूरिति॑ प्र॒ऽसूः। च॒। मे॒। सीर॑म्। च॒। मे॒। लयः॑। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥७ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(मे) मेरा (यन्ता) नियम करने वाला (च) और नियमित पदार्थ (मे) मेरा (धर्त्ता) धारण करने वाला (च) और धारण किया हुआ पदार्थ (मे) मेरी (क्षेमः) रक्षा (च) और रक्षा करने वाला (मे) मेरी (धृतिः) धारणा (च) और सहनशीलता (मे) मेरे सम्बन्ध का (विश्वम्) जगत् (च) और उसके अनुकूल मर्यादा (मे) मेरा (महः) बड़ा कर्म (च) और बड़ा व्यवहार (मे) मेरी (संवित्) प्रतिज्ञा (च) और जाना हुआ विषय (मे) मेरा (ज्ञात्रम्) जिससे जानता हूं, वह ज्ञान (च) और जानने योग्य पदार्थ (मे) मेरी (सूः) प्रेरणा करने वाली चित्त की वृत्ति (च) और उत्पन्न हुआ पदार्थ (मे) मेरी (प्रसूः) जो उत्पत्ति करानेवाली वृत्ति (च) और उत्पत्ति का विषय (मे) मेरे (सीरम्) खेती की सिद्धि कराने वाले हल आदि (च) और खेती करने वाले तथा (मे) मेरा (लयः) लय अर्थात् जिसमें एकता को प्राप्त होना हो, वह विषय (च) और जो मुझ में एकता को प्राप्त हुआ, वह विद्यादि गुण। ये उक्त सब (यज्ञेन) अच्छे नियमों के आचरण से (कल्पन्ताम्) समर्थ हों॥७॥


भावार्थ - जो शम, दम आदि गुणों से युक्त अच्छे-अच्छे नियमों को भलीभांति पालन करें, वे अपने चाहे हुए कामों को सिद्ध करावें॥७॥


ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - आत्मा देवता छन्दः - स्वराट् शक्वरी स्वरः - धैवतः


शं च॑ मे॒ मय॑श्च मे प्रि॒यं च॑ मेऽनुका॒मश्च॑ मे॒ काम॑श्च मे सौमन॒सश्च॑ मे॒ भग॑श्च मे॒ द्रवि॑णं च मे भ॒द्रं च॑ मे॒ श्रेय॑श्च मे॒ वसी॑यश्च मे॒ यश॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥८॥


स्वर सहित पद पाठ

शम्। च॒। मे॒। मयः॑। च॒। मे॒। प्रि॒यम्। च॒। मे॒। अ॒नु॒का॒म इत्य॑नुऽका॒मः। च॒। मे॒। कामः॑। च॒। मे॒। सौ॒म॒न॒सः। च॒। मे॒। भगः॑। च॒। मे॒। द्रवि॑णम्। च॒। मे॒। भ॒द्रम्। च॒। मे॒। श्रेयः॑। च॒। मे॒। वसी॑यः। च॒। मे॒। यशः॑। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥८ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(मे) मेरा (शम्) सर्व सख (च) और सुख की सब सामग्री (मे) मेरा (मयः) प्रत्यक्ष आनन्द (च) और इसके साधन (मे) मेरा (प्रियम्) पियारा (च) और इसके साधन (मे) मेरी (अनुकामः) धर्म के अनुकूल कामना (च) और इसके साधन (मे) मेरा (कामः) काम अर्थात् जिससे वा जिसमें कामना करें (च) तथा (मे) मेरा (सौमनसः) चित्त का अच्छा होना (च) और इसके साधन (मे) मेरा (भगः) ऐश्वर्य्य का समूह (च) और इसके साधन (मे) मेरा (द्रविणम्) बल (च) और इसके साधन (मे) मेरा (भद्रम्) अति आनन्द देने योग्य सुख (च) और सुख के साधन (मे) मेरा (श्रेयः) मुक्ति सुख (च) और इसके साधन (मे) मेरा (वसीयः) अतिशय करके वसने वाला (च) और इसकी सामग्री (मे) मेरी (यशः) कीर्ति (च) और इसके साधन (यज्ञेन) सुख की सिद्धि करने वाले ईश्वर से (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें॥८॥


भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि जिस काम से सुख आदि की वृद्धि हो, उस काम का निरन्तर सेवन करें॥८॥


ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - आत्मा देवता छन्दः - शक्वरी स्वरः - धैवतः


ऊर्क् च॑ मे सू॒नृता॑ च मे॒ पय॑श्च मे॒ रस॑श्च मे घृ॒तं च॑ मे॒ मधु॑ च मे॒ सग्धि॑श्च मे॒ सपी॑तिश्च मे कृ॒षिश्च॑ मे॒ वृष्टि॑श्च मे॒ जैत्रं॑ च म॒ऽऔद्भि॑द्यं च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥९॥


स्वर सहित पद पाठ

ऊर्क्। च॒। मे॒। सू॒नृता॑। च॒। मे॒। पयः॑। च॒। मे॒। रसः॑। च॒। मे॒। घृ॒तम्। च॒। मे॒। मधु॑। च॒। मे॒। सग्धिः॑। च॒। मे॒। सपी॑ति॒रिति॒ सऽपी॑तिः। च॒। मे॒। कृ॒षिः। च॒। मे॒। वृष्टिः॑। च॒। मे॒। जैत्र॑म्। च॒। मे॒। औद्भि॑द्य॒मित्यौत्ऽभि॑द्यम्। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥९ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(मे) मेरा (ऊर्क्) अच्छा संस्कार किया अर्थात् बनाया हुआ अन्न (च) और सुगन्धि आदि पदार्थों से युक्त व्यञ्जन (मे) मेरा (सूनता) प्रियवाणी (च) और सत्य वचन (मे) मेरा (पयः) दूध (च) और उत्तम पकाये ओषधि आदि पदार्थ (मे) मेरा (रसः) सब पदार्थों का सार (च) और बड़ी-बड़ी ओषधियों से निकाला हुआ रस (मे) मेरा (घृतम्) घी (च) और उसका संस्कार करने तपाने आदि से सिद्ध हुआ पक्वान्न (मे) मेरा (मधु) सहत (च) और खांड, गुड़ आदि (मे) मेरा (सग्धिः) एकसा भोजन (च) और उत्तम भोग साधन (मे) मेरी (सपीतिः) एकसा जिसमें जल का पान (च) और जो चूसने योग्य पदार्थ (मे) मेरा (कृषिः) भूमि की जुताई (च) और गेहूं आदि अन्न (मे) मेरी (वृष्टिः) वर्षा (च) और होम की आहुतियों से पवन आदि की शुद्धि करना (मे) मेरा (जैत्रम्) जीतने का स्वभाव (च) और अच्छे शिक्षित सेना आदि जन तथा (मे) मेरे (औद्भिद्यम्) भूमि को तोड़-फोड़ के निकालने वाले वृक्षों वा वनस्पतियों का होना (च) और फूल-फल ये सब पदार्थ (यज्ञेन) समस्त रस और पदार्थों की बढ़ती करने वाले कर्म से (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें॥९॥


भावार्थ - मनुष्य समस्त उत्तम रसयुक्त पदार्थों को इकट्ठा करके उनको समय-समय के अनुकूल होमादि उत्तम व्यवहारों में लगावें॥९॥


ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - आत्मा देवता छन्दः - निचृच्छक्वरी स्वरः - धैवतः


र॒यिश्च॑ मे॒ राय॑श्च मे पु॒ष्टं च॑ मे॒ पुष्टि॑श्च मे वि॒भु च॑ मे प्र॒भु च॑ मे पू॒र्णं च॑ मे पू॒र्णत॑रं च मे॒ कुय॑वं च॒ मेऽक्षि॑तं च॒ मेऽन्नं॑ च॒ मेऽक्षु॑च्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥१०॥


स्वर सहित पद पाठ

र॒यिः। च॒। मे॒। रायः॑। च॒। मे॒। पु॒ष्टम्। च॒। मे॒। पुष्टिः॑। च॒। मे॒। वि॒भ्विति॑ वि॒ऽभु। च॒। मे॒। प्र॒भ्विति॑ प्र॒ऽभु। च॒। मे॒। पू॒र्णम्। च॒। मे॒। पू॒र्णत॑र॒मिति॑ पू॒र्णऽत॑रम्। च॒। मे॒। कुय॑वम्। च॒। मे॒। अक्षि॑तम्। च॒। मे॒। अन्न॑म्। च॒। मे॒। अक्षु॑त्। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥१० ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(मे) मेरी (रयिः) विद्या की कान्ति (च) और पुरुषार्थ (मे) मेरे (रायः) प्रशंसित धन (च) और पक्वान्न आदि (मे) मेरे (पुष्टम्) पुष्ट पदार्थ (च) और आरोग्यपन (मे) मेरी (पुष्टिः) पुष्टि (च) और पथ्य भोजन (मे) मेरा (विभु) सब विषयों मे व्याप्त मन आदि (च) परमात्मा का ध्यान (मे) मेरा (प्रभु) समर्थ व्यवहार (च) और सब सामर्थ्य (मे) मेरा (पूर्णम्) पूर्ण काम का करना (च) और उस का साधन (मे) मेरे (पूर्णतरम्) आभूषण, गौ, भैंस, घोड़ा, छेरी तथा अन्न आदि पदार्थ (च) और सब का उपकार करना (मे) मेरा (कुयवम्) निन्दित यवों से न मिला हुआ अन्न (च) और धान चावल आदि अन्न (मे) मेरा (अक्षितम्) अक्षय पदार्थ (च) और तृप्ति (मे) मेरा (अन्नम्) खाने योग्य अन्न (च) और मसाला आदि तथा (मे) मेरी (अक्षुत्) क्षुधा की तृप्ति (च) और प्यास आदि की तृप्ति ये सब पदार्थ (यज्ञेन) प्रशंसित धनादि देने वाले परमात्मा से (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें॥१०॥


भावार्थ - मनुष्यों को परम पुरुषार्थ और ईश्वर की भक्ति, प्रार्थना से विद्या आदि धन पाकर सब का उपकार सिद्ध करना चाहिये॥१०॥


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