ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
ये नः॒ पूर्वे॑ पि॒तरः॑ सो॒म्यासो॑ऽनूहि॒रे सो॑मपी॒थं वसि॑ष्ठाः।
तेभि॑र्य॒मः स॑ꣳररा॒णो ह॒वीष्यु॒शन्नु॒शद्भिः॑ प्रतिका॒म॑मत्तु॥५१॥
पद पाठ
ये। नः॒। पूर्वे॑। पि॒तरः॑। सो॒म्यासः॑। अ॒नू॒हि॒र इत्य॑नुऽऊहि॒रे। सो॒म॒पी॒थमिति॑। सोमऽपी॒थम्। वसि॑ष्ठाः। तेभिः॑। य॒मः। स॒ꣳर॒रा॒ण इति॑ सम्ऽररा॒णः। ह॒वीषि॑। उ॒शन्। उ॒शद्भिरित्यु॒शत्ऽभिः॑। प्र॒ति॒का॒ममिति॑ प्रतिऽका॒मम्। अ॒त्तु॒ ॥५१ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(ये) जो (नः) हमारे (सोम्यासः) शान्त्यादि गुणों के योग से योग्य (वसिष्ठाः) अत्यन्त धनी (पूर्वे) पूर्वज (पितरः) पालन करनेहारे ज्ञानी पिता आदि (सोमपीथम्) सोमपान को (अनूहिरे) प्राप्त होते और कराते हैं, (तेभिः) उन (उशद्भिः) हमारे पालन की कामना करनेहारे पितरों के साथ (हवींषि) लेने-देने योग्य पदार्थों की (उशन्) कामना करनेहारा (संरराणः) अच्छे प्रकार सुखों का दाता (यमः) न्याय और योगयुक्त सन्तान (प्रतिकामम्) प्रत्येक काम को (अत्तु) भोगे॥५१॥
भावार्थ - पिता आदि पुत्रों के साथ और पुत्र पिता आदि के साथ सब सुख-दुःखों का भोग करें और सदा सुख की वृद्धि और दुःख का नाश किया करें॥५१॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
त्वꣳसो॑म॒ प्र चि॑कितो मनी॒षा त्वꣳ रजि॑ष्ठ॒मनु॑ नेषि॒ पन्था॑म्।
तव॒ प्रणी॑ती पि॒तरो॑ नऽइन्दो दे॒वेषु॒ रत्न॑मभजन्त॒ धीराः॑॥५२॥
पद पाठ
त्वम्। सो॒म॒। प्र। चि॒कि॒तः॒। म॒नी॒षा। त्वम्। रजि॑ष्ठम्। अनु॑। ने॒षि॒। पन्था॑म्। तव॑। प्रणी॑ती। प्रनी॒तीति॒ प्रऽनी॑ती। पि॒तरः॑। नः॒। इ॒न्दो॒ऽइति॑ इन्दो। दे॒वेषु॑। रत्न॑म्। अ॒भ॒ज॒न्त॒। धीराः॑ ॥५२ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (सोम) ऐश्वर्य्ययुक्त! (प्र, चिकितः) विज्ञान को प्राप्त (त्वम्) तू (मनीषा) उत्तम प्रज्ञा से जिस (रजिष्ठम्) अतिशय कोमल सुखदायक (पन्थाम्) मार्ग को (नेषि) प्राप्त होता है, उसको (त्वम्) तू मुझ को भी (अनु) अनुकूलता से प्राप्त कर। हे (इन्दो) आनन्दकारक चन्द्रमा के तुल्य वर्त्तमान! जो (तव) तेरी (प्रणीती) उत्तम नीति के साथ वर्त्तमान (धीराः) योगीराज (पितरः) पिता आदि ज्ञानी लोग (देवेषु) विद्वानों में (नः) हमारे लिये (रत्नम्) उत्तम धन का (अभजन्त) सेवन करते हैं, वे हम को नित्य सत्कार करने योग्य हों॥५२॥
भावार्थ - जो सन्तान माता-पिता आदि के सेवक होते हुए विद्या और विनय से धर्म का अनुष्ठान करते हैं, वे अपने जन्म की सफलता करते हैं॥५२॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
त्वया॒ हि नः॑ पि॒तरः॑ सोम॒ पूर्वे॒ कर्मा॑णि च॒क्रुः प॑वमान॒ धीराः॑।
व॒न्वन्नवा॑तः परि॒धीँ१ऽरपो॑र्णु वी॒रेभि॒रश्वै॑र्म॒घवा॑ भवा नः॥५३॥
पद पाठ
त्वया॑। हि। नः॒। पि॒तरः॑। सो॒म॒। पूर्वे॑। कर्मा॑णि। च॒क्रुः। प॒व॒मा॒न॒। धीराः॑। व॒न्वन्। अवा॑तः। प॒रि॒धीनिति॑ परि॒ऽधीन्। अप॑। ऊ॒र्णु॒। वी॒रेभिः॑। अश्वैः॑। म॒घवेति॑ म॒घऽवा॑। भ॒व॒। नः॒ ॥५३ ॥
विषय - फिर उसी पूर्वोक्त विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (पवमान) पवित्रस्वरूप पवित्र कर्मकर्त्ता और पवित्र करनेहारे (सोम) ऐश्वर्य्ययुक्त सन्तान (त्वया) तेरे साथ (नः) हमारे (पूर्वे) पूर्वज (धीराः) बुद्धिमान् (पितरः) पिता आदि ज्ञानी लोग जिन धर्मयुक्त (कर्माणि) कर्मों को (चक्रुः) करने वाले हुए, (हि) उन्हीं का सेवन हम लोग भी करें (अवातः) हिंसाकर्मरहित (वन्वन्) धर्म का सेवन करते हुए सन्तान तू (वीरेभिः) वीर पुरुष और (अश्वैः) घोड़े आदि के साथ (नः) हमारे शत्रुओं की (परिधीन्) परिधि अर्थात् जिनमें चारों ओर से पदार्थों को धारण किया जाय, उन मार्गों को (अपोर्णु) आच्छादन कर और हमारे मध्य में (मघवा) धनवान् (भव) हूजिये॥५३॥
भावार्थ - मनुष्य लोग अपने धार्मिक पिता आदि का अनुसरण कर और शत्रुओं को निवारण करके अपनी सेना के अङ्गों की प्रशंसा से युक्त हुए सुखी होवें॥५३॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
त्वꣳ सो॑म पि॒तृभिः॑ संविदा॒नोऽनु॒ द्यावा॑पृथि॒वीऽआ त॑तन्थ।
तस्मै॑ तऽइन्दो ह॒विषा॑ विधेम व॒य स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम्॥५४॥
पद पाठ
त्वम्। सो॒म॒। पि॒तृभि॒रिति॑ पि॒तृऽभिः॑। सं॒वि॒दा॒न इति॑ सम्ऽविदा॒नः। अनु॑। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। आ। त॒त॒न्थ॒। तस्मै॑। ते॒। इ॒न्दो॒ऽइति॑ इन्दो। ह॒विषा॑। वि॒धे॒म॒। व॒यम्। स्या॒म॒। पत॑यः। र॒यी॒णाम् ॥५४ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (सोम) चन्द्रमा के सदृश आनन्दकारक उत्तम सन्तान! (पितृभिः) ज्ञानयुक्त पितरों के साथ (संविदानः) प्रतिज्ञा करता हुआ जो (त्वम्) तू (अनु, द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवी के मध्य में धर्मानुकूल आचरण से सुख का (आ, ततन्थ) विस्तार कर। हे (इन्दो) चन्द्रमा के समान प्रियदर्शन! (तस्मै) उस (ते) तेरे लिये (वयम्) हम लोग (हविषा) लेने-देने योग्य व्यवहार से सुख का (विधेम) विधान करें, जिससे हम लोग (रयीणाम्) धनों के (पतयः) पालन करनेहारे स्वामी (स्याम) हों॥५४॥
भावार्थ - हे सन्तानो! तुम लोग जैसे चन्द्रलोक पृथिवी के चारों और भ्रमण करता हुआ सूर्य की परिक्रमा देता है, वैसे ही माता-पिता आदि के अनुचर होओ, जिससे तुम श्रीमन्त हो जाओ॥५४॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
बर्हि॑षदः पितरऽऊ॒त्यर्वागि॒मा वो॑ ह॒व्या च॑कृमा जु॒षध्व॑म्।
तऽआग॒ताव॑सा॒ शन्त॑मे॒नाथा॑ नः॒ शंयोर॑र॒पो द॑धात॥५५॥
पद पाठ
बर्हि॑षदः। बर्हि॑सद॒ इति॒ बर्हिऽसदः। पि॒त॒रः॒। ऊ॒ती। अ॒र्वाक्। इ॒मा। वः॒। ह॒व्या। च॒कृ॒म॒। जु॒षध्व॑म्। ते। आ। ग॒त॒। अव॑सा। शन्त॑मे॒नेति॒ शम्ऽत॑मेन। अथ॑। नः॒। शम्। योः। अ॒र॒पः। द॒धा॒त॒ ॥५५ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (बर्हिषदः) उत्तम सभा में बैठनेहारे (पितरः) न्याय से पालना करने वाले पितर लोगो! हम (अर्वाक्) पश्चात् जिन (वः) तुम्हारे लिये (ऊती) रक्षणादि क्रिया से (इमा) इन (हव्या) भोजन के योग्य पदार्थों का (चकृम) संस्कार करते हैं, उन का तुम लोग (जुषध्वम्) सेवन किया करो। वे आप लोग (शन्तमेन) अत्यन्त कल्याणकारक (अवसा) रक्षणादि कर्म के साथ (आ, गत) आवें। (अथ) इसके अनन्तर (नः) हमारे लिये (शम्) सुख तथा (अरपः) सत्याचरण को (दधात) धारण करें और दुःख को (योः) हम से पृथक् रक्खें॥५५॥
भावार्थ - जिन पितरों की सेवा सन्तान करें, वे अपने सन्तानों में अच्छी शिक्षा से सुशीलता को धारण करें॥५५॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
आहं पि॒तॄन्त्सु॑वि॒दत्राँ॑२ऽअवित्सि॒ नपा॑तं च वि॒क्रम॑णं च॒ विष्णोः॑।
ब॒र्हि॒षदो॒ ये स्व॒धया॑ सु॒तस्य॒ भज॑न्त पि॒त्वस्तऽइ॒हाग॑मिष्ठाः॥५६॥
पद पाठ
आ। अ॒हम्। पि॒तॄन्। सु॒वि॒दत्रा॒निति॑ सुऽवि॒दत्रा॑न्। अ॒वि॒त्सि॒। नपा॑तम्। च॒। वि॒क्रम॑ण॒मिति॑ वि॒ऽक्रम॑णम्। च॒। विष्णोः॑। ब॒र्हि॒षद॒ इति॑ बर्हि॒ऽसदः॑। ये। स्व॒धया॑। सु॒तस्य॑। भज॑न्त। पि॒त्वः। ते। इ॒ह। आग॑मिष्ठा॒ इत्याऽग॑मिष्ठाः ॥५६ ॥
विषय - फिर उसी विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(ये) जो (बर्हिषदः) उत्तम आसन में बैठने योग्य पितर लोग (इह) इस वर्त्तमान काल में (स्वधया) अन्नादि से तृप्त (सुतस्य) सिद्ध किये हुए (पित्वः) सुगन्धयुक्त पान का (च) भी (आ, भजन्त) सेवन करते हैं, (ते) वे (आगमिष्ठाः) हमारे पास आवें। जो इस संसार में (विष्णोः) व्यापक परमात्मा के (नपातम्) नाशरहित (विक्रमणम्) विविध सृष्टिक्रम को (च) भी जानते हैं, उस (सुविदत्रान्) उत्तम सुखादि के दान देनेहारे (पितॄन्) पितरों को (अहम्) मैं (अवित्सि) जानता हूं॥५६॥
भावार्थ - जो पितर लोग विद्या की उत्तम शिक्षा करते और कराते हैं, वे पुत्र और कन्याओं के सम्यक् सेवन करने योग्य हैं॥५६॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवता छन्दः - निचृत पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
उप॑हूताः पि॒तरः॑ सो॒म्यासो॑ बर्हि॒ष्येषु नि॒धिषु॑ प्रि॒येषु॑।
तऽआग॑मन्तु॒ तऽइ॒ह श्रु॑व॒न्त्वधि॑ ब्रुवन्तु॒ तेऽवन्त्व॒स्मान्॥५७॥
पद पाठ
उप॑हूता॒ इत्यु॑पऽहूताः। पि॒तरः॑। सो॒म्यासः॑। ब॒र्हि॒ष्ये᳖षु। नि॒धिष्विति॑ नि॒ऽधिषु॑। प्रि॒येषु॑। ते। आ। ग॒म॒न्तु॒। ते। इ॒ह। श्रु॒व॒न्तु॒। अधि॑। ब्रु॒वन्तु॑। ते। अ॒व॒न्तु॒। अ॒स्मान् ॥५७ ॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
जो (सोम्यासः) ऐश्वर्य को प्राप्त होने के योग्य (पितरः) पितर लोग (बर्हिष्येषु) अत्युत्तम (प्रियेषु) प्रिय (निघिषु) रत्नादि से भरे हुए कोशों के निमित्त (उपहूताः) बुलाये हुए हैं (ते) वे (इह) इस हमारे समीप स्थान में (आ, गमन्तु) आवें, (ते) वे हमारे वचनों को (श्रुवन्तु) सुनें, वे (अस्मान्) हम को (अधि, ब्रुवन्तु) अधिक उपदेश से बोधयुक्त करें, (ते) वे हमारी (अवन्तु) रक्षा करें॥५७॥
भावार्थ - जो विद्यार्थीजन अध्यापकों को बुला उनका सत्कार कर, उनसे विद्याग्रहण की इच्छा करें, उन विद्यार्थियों को वे अध्यापक भी प्रीतिपूर्वक पढ़ावें और सर्वथा विषयासक्ति आदि दुष्कर्मों से पृथक् रक्खें॥५७॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - विराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
आ य॑न्तु नः पि॒तरः॑ सो॒म्यासो॑ऽग्निष्वा॒त्ताः प॒थिभि॑र्देव॒यानैः॑।
अ॒स्मिन् य॒ज्ञे स्व॒धया॒ मद॒न्तोऽधि॑ ब्रुवन्तु॒ तेऽवन्त्व॒स्मान्॥५८॥
पद पाठ
आ। य॒न्तु॒। नः॒। पि॒तरः॑। सो॒म्यासः॑। अ॒ग्नि॒ष्वा॒त्ताः। अ॒ग्नि॒ष्वा॒त्ता इत्य॑ग्निऽस्वा॒त्ताः। प॒थिभि॒रिति॑ प॒थिऽभिः॑। दे॒व॒यानै॒रिति॑ देव॒ऽयानैः॑। अ॒स्मिन्। य॒ज्ञे। स्व॒धया॑। मद॑न्तः। अधि॑। ब्रु॒व॒न्तु॒। ते। अ॒व॒न्तु॒। अ॒स्मान् ॥५८ ॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
जो (सोम्यासः) चन्द्रमा के तुल्य शान्त शमदमादि गुणयुक्त (अग्निष्वात्ताः) अग्न्यादि पदार्थविद्या में निपुण (नः) हमारे (पितरः) अन्न और विद्या के दान से रक्षक जनक, अध्यापक और उपदेशक लोग हैं, (ते) वे (देवयानैः) आप्त लोगों के जाने-आने योग्य (पथिभिः) धर्मयुक्त मार्गों से (आ, यन्तु) आवें (अस्मिन्) इस (यज्ञे) पढ़ाने उपदेश करने रूप व्यवहार में वर्त्तमान होके (स्वधया) अन्नादि से (मदन्तः) आनन्द को प्राप्त हुए (अस्मान्) हम को (अधि, ब्रुवन्तु) अधिष्ठाता होकर उपदेश करें और पढ़ावें और हमारी (अवन्तु) सदा रक्षा करें॥५८॥
भावार्थ - विद्यार्थियों को योग्य है कि विद्या और आयु में वृद्ध विद्वानों से विद्या और रक्षा को प्राप्त होकर सत्यवादी निष्कपटी परोपकारी उपदेशकों के मार्ग से जा आ के सब की रक्षा करें॥५८॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः
देवता - पितरो देवताः
छन्दः - निचृतज्जगती
स्वरः - निषादः
अग्नि॑ष्वात्ताः पितर॒ऽएह ग॑च्छत॒ सदः॑सदः सदत सुप्रणीतयः।
अ॒त्ता ह॒वीषि॒ प्रय॑तानि ब॒र्हिष्यथा॑ र॒यिꣳ सर्व॑वीरं दधातन॥५९॥
पद पाठ
अग्नि॑ष्वात्ताः। अग्नि॑ष्वात्ता॒ इत्यग्नि॑ऽस्वात्ताः। पि॒त॒रः॒। आ। इ॒ह। ग॒च्छ॒त॒। सदः॑सद॒ इति॒ सदः॑ऽसदः। स॒द॒त॒। सु॒प्र॒णी॒त॒यः॒। सु॒प्र॒णी॒त॒य॒ इति॑ सुऽप्रनीतयः। अ॒त्त। ह॒वीषि॑। प्रय॑ता॒नीति॒ प्रऽय॑तानि। ब॒र्हिषि॑। अथ॑। र॒यिम्। सर्व॑वीर॒मिति॒ सर्व॑ऽवीरम्। द॒धा॒त॒न॒ ॥५९ ॥
विषय - फिर भी उक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (सुप्रणीतयः) अत्युत्तम न्यायधर्म से युक्त (अग्निष्वात्ताः) अग्न्यादि पदार्थविद्या में निपुण (पितरः) पालन करनेहारे पितरो! आप लोग (इह) इस वर्त्तमान समय में विद्याप्रचार के लिये (आ, गच्छत) आओ (सदःसद) जहां-जहां बैठें, उस-उस घर में (सदत) स्थित होओ (प्रयतानि) अति विचार से सिद्ध किये हुए (हवींषि) भोजन के योग्य अन्नादि का (अत्त) भोग करो। (अथ) इसके पश्चात् (बर्हिषि) विद्याप्रचाररूप उत्तम व्यवहार में स्थित होकर हमारे लिये (सर्ववीरम्) सब वीर पुरुषों को प्राप्त करानेहारे (रयिम्) धन को (दधातन) धारण कीजिये॥५९॥
भावार्थ - जो विद्वान् लोग उपदेश के लिये घर-घर के प्रति गमनागमन करके सत्यधर्म का प्रचार करते हैं, वे गृहस्थों में श्रद्धा से दिये हुए अन्नपानादि का सेवन करें। सब को शरीर और आत्मा के बल से योग्य पुरुषार्थी करके श्रीमान् करें॥५९॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - विराट त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
येऽअ॑ग्निष्वा॒त्ता येऽअन॑ग्निष्वात्ता॒ मध्ये॑ दि॒वः स्व॒धया॑ मा॒दय॑न्ते।
तेभ्यः॑ स्व॒राडसु॑नीतिमे॒तां य॑थाव॒शं त॒न्वं कल्पयाति॥६०॥
पद पाठ
ये। अ॒ग्नि॒ष्वा॒त्ताः। अ॒ग्नि॒ष्वा॒त्ता इत्य॑ग्निऽस्वा॒त्ताः। ये। अन॑ग्निष्वात्ताः। अन॑ग्निष्वात्ता॒ इत्यन॑ग्निऽस्वात्ताः। मध्ये॑। दि॒वः। स्व॒धया॑। मा॒दय॑न्ते। तेभ्यः॑। स्व॒राडिति॑ स्व॒ऽराट्। असु॑नीति॒मित्यसु॑ऽनीतिम्। ए॒ताम्। य॒था॒व॒शमिति॑ यथाऽव॒शम्। त॒न्व᳖म्। क॒ल्प॒या॒ति॒ ॥६० ॥
विषय - मनुष्यों को ईश्वर की प्रार्थना कैसे करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(ये) जो (अग्निष्वात्ताः) अच्छे प्रकार अग्निविद्या के ग्रहण करने तथा (ये) जो (अनग्निष्वात्ताः) अग्नि से भिन्न अन्य पदार्थविद्याओं को जाननेहारे वा ज्ञानी पितृलोग वा (दिवः) विज्ञानादि प्रकाश के (मध्ये) बीच (स्वधया) अपने पदार्थ के धारण करने रूप क्रिया से (मादयन्ते) आनन्द को प्राप्त होते हैं, (तेभ्यः) उन पितरों के लिये (स्वराट्) स्वयं प्रकाशमान परमात्मा (एताम्) इस (असुनीतिम्) प्राणों को प्राप्त होने वाले (तन्वम्) शरीर को (यथावशम्) कामना के अनुकूल (कल्पयाति) समर्थ करे॥६०॥
भावार्थ - मनुष्यों को परमेश्वर से ऐसी प्रार्थना करनी चाहिये कि हे परमेश्वर! जो अग्नि आदि की पदार्थविद्या को यथार्थ जान के प्रवृत्त करते और जो ज्ञान में तत्पर विद्वान् अपने ही पदार्थ के भोग से सन्तुष्ट रहते हैं, उनके शरीरों को दीर्घायु कीजिये॥६०॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
अ॒ग्नि॒ष्वा॒त्तानृ॑तु॒मतो॑ हवामहे नाराश॒ꣳसे सो॑मपी॒थं यऽआ॒शुः।
ते नो॒ विप्रा॑सः सु॒हवा॑ भवन्तु व॒य स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम्॥६१॥
पद पाठ
अ॒ग्नि॒ष्वा॒त्तान्। अ॒ग्नि॒स्वा॒त्तानित्य॑ग्निऽस्वा॒त्तान्। ऋ॒तु॒मत॒ इत्यृ॑तु॒ऽमतः॑। ह॒वा॒म॒हे॒। ना॒रा॒श॒ꣳसे। सो॒म॒पी॒थमिति॑ सोमऽपी॒थम्। ये। आ॒शुः। ते। नः॒। विप्रा॑सः। सु॒हवा॒ इति॑ सु॒ऽहवाः॑। भ॒व॒न्तु॒। व॒यम्। स्या॒म॒। पत॑यः। र॒यी॒णाम्। ॥६१ ॥
विषय - माता-पिता और सन्तानों को परस्पर क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(ये) जो (सोमपथीम्) सोम आदि उत्तम ओषधिरस को (आशुः) पीवें, जिन (ऋतुमतः) प्रशंसित वसन्तादि ऋतु में उत्तम कर्म करने वाले (अग्निष्वात्तान्) अच्छे प्रकार अग्निविद्या को जाननेहारे पिता आदि ज्ञानियों को हम लोग (नाराशंसे) मनुष्यों के प्रशंसारूप सत्कार के व्यवहार में (हवामहे) बुलाते हैं, (ते) वे (विप्रासः) बुद्धिमान् लोग (नः) हमारे लिये (सुहवाः) अच्छे दान देनेहारे (भवन्तु) हों और (वयम्) हम उनकी कृपा से (रयीणाम्) धनों के (पतयः) स्वामी (स्याम) होवें॥६१॥
भावार्थ - सन्तान लोग पदार्थविद्या और देश, काल के जानने और प्रशंसित औषधियों के रस को सेवन करनेहारे, विद्या और अवस्था में वृद्ध पिता आदि को सत्कार के अर्थ बुला के, उनके सहाय से धनादि ऐश्वर्य्य वाले हों॥६१॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
आच्या॒ जानु॑ दक्षिण॒तो नि॒षद्ये॒मं य॒ज्ञम॒भिगृ॑णीत॒ विश्वे॑।
मा हि॑ꣳसिष्ट पितरः॒ केन॑ चिन्नो॒ यद्व॒ऽआगः॑ पुरु॒षता॒ करा॑म॥६२॥
पद पाठ
आच्येत्या॒ऽअच्य॑। जानु॑। द॒क्षि॒ण॒तः। नि॒षद्य॑। नि॒षद्येति॑ नि॒ऽसद्य॑। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। अ॒भि। गृ॒णी॒त॒। विश्वे॑। मा। हि॒ꣳसि॒ष्ट॒। पि॒त॒रः॒। केन॑। चि॒त्। नः॒। यत्। वः॒। आगः॑। पु॒रु॒षता॑। करा॑म ॥६२ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ -
हे (विश्वे) सब (पितरः) पितृलोगो! तुम (केन, चित्) किसी हेतु से (नः) हमारी जो (पुरुषता) पुरुषार्थता है, उसको (मा, हिंसिष्ट) मत नष्ट करो, जिससे हम लोग सुख को (कराम) प्राप्त करें, (यत्) जो (वः) तुम्हारा (आगः) अपराध है, उसको हम छुड़ावें, तुम लोग (इमम्) इस (यज्ञम्) सत्कारक्रियारूप व्यवहार को (अभि, गृणीत) हमारे सन्मुख प्रशंसित करो, हम (जानु) जानु अवयव को (आच्य) नीचे टेक के (दक्षिणतः) तुम्हारे दक्षिण पार्श्व में (निषद्य) बैठ के तुम्हारा निरन्तर सत्कार करें॥६२॥
भावार्थ - जिनके पितृ लोग जब समीप आवें अथवा सन्तान लोग इन के समीप जावें, तब भूमि में घुटने टिका नमस्कार कर इनको प्रसन्न करें, पितर लोग भी आशीर्वाद, विद्या और अच्छी शिक्षा के उपदेश से अपने सन्तानों को प्रसन्न करके सदा रक्षा किया करें॥६२॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
आसी॑नासोऽअरु॒णीना॑मु॒पस्थे॑ र॒यिं ध॑त्त दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य।
पु॒त्रेभ्यः॑ पितर॒स्तस्य॒ वस्वः॒ प्रय॑च्छ॒त तऽइ॒होर्जं॑ दधात॥६३॥
पद पाठ
आसी॑नासः। अ॒रु॒णीना॑म्। उ॒पस्थ॒ इत्यु॒पऽस्थे॑। र॒यिम्। ध॒त्त। दा॒शुषे॑। मर्त्या॑य। पु॒त्रेभ्यः॑। पि॒त॒रः॒। तस्य॑। वस्वः॑। प्र। य॒च्छ॒त॒। ते। इह। ऊर्ज्ज॑म्। द॒धा॒त॒ ॥६३ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (पितरः) पितृ लोगो! तुम (इह) इस गृहाश्रम में (अरुणीनाम्) गौरवर्णयुक्त स्त्रियों के (उपस्थे) समीप में (आसीनासः) बैठे हुए (पुत्रेभ्यः) पुत्रों के और (दाशुषे) दाता (मर्त्याय) मनुष्य के लिये (रयिम्) धन को (धत्त) धरो, (तस्य) उस (वस्वः) धन के भागों को (प्र, यच्छत) दिया करो, जिससे (ते) वे स्त्री आदि सब लोग (ऊर्ज्जम्) पराक्रम को (दधात) धारण करें॥६३॥
भावार्थ - वे ही वृद्ध हैं जो अपनी स्त्री ही के साथ प्रसन्न, अपनी पत्नियों का सत्कार करनेहारे, सन्तानों के लिये यथायोग्य दायभाग और सत्पात्रों को सदा दान देते हैं और वे सन्तानों को सत्कार करने योग्य होते हैं॥६३॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
यम॑ग्ने कव्यवाहन॒ त्वं चि॒न्मन्य॑से र॒यिम्।
तन्नो॑ गी॒र्भिः श्र॒वाय्यं॑ देव॒त्रा प॑नया॒ युज॑म्॥६४॥
पद पाठ
यम्। अ॒ग्ने॒। क॒व्य॒वा॒ह॒नेति॑ कव्यऽवाहन। त्वम्। चित्। मन्य॑से। र॒यिम्। तम्। नः॒। गी॒र्भिरिति॑ गीः॒ऽभिः। श्र॒वाय्य॑म्। दे॒व॒त्रेति॑ देव॒ऽत्रा। प॒न॒य॒। युज॑म् ॥६४ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (कव्यवाहन) बुद्धिमानों के समीप उत्तम पदार्थ पहुँचानेहारे (अग्ने) अग्नि के समान प्रकाशयुक्त! (त्वम्) आप (गीर्भिः) कोमल वाणियों से (श्रवाय्यम्) सुनाने योग्य (देवत्रा) विद्वानों में (युजम्) युक्त करने योग्य (यम्) जिस (रयिम्) ऐश्वर्य्य को (मन्यसे) जानते हो, (तम्) उसको (चित्) भी (नः) हमारे लिये (पनय) कीजिये॥६४॥
भावार्थ - पिता आदि ज्ञानी लोगों को चाहिये कि पुत्रों और सत्पात्रों से प्रशंसित धन का सञ्चय करें, उस धन से उत्तम विद्वानों को ग्रहण कर, उनको सत्यधर्म के उपदेशक बनाके विद्या और धर्म का प्रचार करें और करावें॥६४॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
योऽअ॒ग्निः क॑व्य॒वाह॑नः पि॒तॄन् यक्ष॑दृता॒वृधः॑।
प्रेदु॑ ह॒व्यानि॑ वोचति दे॒वेभ्य॑श्च पि॒तृभ्य॒ आ॥६५॥
पद पाठ
यः। अ॒ग्निः। क॒व्य॒वाह॑न॒ इति॑ कव्य॒ऽवाह॑नः। पि॒तॄन्। यक्ष॑त्। ऋ॒ता॒वृधः॑। ऋ॒त॒वृध॒ इत्यृ॑त॒ऽवृधः॑। प्र। इत्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। ह॒व्यानि॑। वो॒च॒ति॒। दे॒वेभ्यः॑। च॒। पि॒तृभ्य॒ इति॑ पि॒तृऽभ्यः॑। आ ॥६५ ॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(यः) जो (कव्यवाहनः) विद्वानों के श्रेष्ठ कर्मों को प्राप्त करानेहारा (अग्निः) अग्नि के समान विद्याओं में प्रकाशमान विद्वान् (ऋतावृधः) वेदविद्या से वृद्ध (पितॄन्) पितरों का (यक्षत्) सत्कार करे, सो (इत्) ही (उ) अच्छे प्रकार (देवेभ्यः) विद्वानों (च) और (पितृभ्यः) पितरों के लिये (हव्यानि) ग्रहण करने योग्य विद्वानों का (प्रावोचति) अच्छे प्रकार सब ओर से उपदेश करता है॥६५॥
भावार्थ - जो पूर्ण ब्रह्मचर्य से पूर्णविद्या वाले होते हैं, वे विद्वानों में विद्वान् और पितरों में पितर गिने जाते हैं॥६५॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
त्वम॑ग्नऽईडि॒तः क॑व्यवाह॒नावा॑ड्ढ॒व्यानि॑ सुर॒भीणि॑ कृ॒त्वी।
प्रादाः॑ पि॒तृभ्यः॑ स्व॒धया॒ तेऽअ॑क्षन्न॒द्धि त्वं दे॑व॒ प्रय॑ता ह॒वीषि॥६६॥
पद पाठ
त्वम्। अ॒ग्ने॒। ई॒डि॒तः। क॒व्य॒वा॒ह॒नेति॑ कव्यऽवाहन। अवा॑ट्। ह॒व्यानि॑। सु॒र॒भीणि॑। कृ॒त्वी। प्र। अ॒दाः॒। पि॒तृभ्य॒ इति॑ पि॒तृऽभ्यः॑। स्व॒धया॑। ते। अ॒क्ष॒न्। अ॒द्धि। त्वम्। दे॒व॒। प्रय॒तेति॒ प्रऽय॑ता। ह॒वीषि॑ ॥६६ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (कव्यवाहन) कवियों के प्रगल्भतादि कर्मों को प्राप्त हुए (अग्ने) अग्नि के समान पवित्र विद्वन्! पुत्र! (ईडितः) प्रशंसित (त्वम्) तू (सुरभीणि) सुगन्धादि युक्त (हव्यानि) खाने के योग्य पदार्थ (कृत्वी) कर के (अवाट्) प्राप्त करता है, उनको (पितृभ्यः) पितरों के लिये (प्रादाः) दिया कर। (ते) वे पितर लोग (स्वधया) अन्नादि के साथ इन पदार्थों का (अक्षन्) भोग किया करें। हे (देव) विद्वन दातः! (त्वम्) तू (प्रयता) प्रयत्न से साधे हुए (हवींषि) खाने के योग्य अन्नों को (अद्धि) भोजन किया कर॥६६॥
भावार्थ - पुत्रादि सब लोग अच्छे संस्कार किये हुए सुगन्धादि से युक्त अन्न-पानों से पितरों को भोजन कराके आप भी इन अन्नों का भोजन करें, यही पुत्रों की योग्यता है। जो अच्छे संस्कार किये हुए अन्न-पानों को करते हैं, वे रोगरहित होकर शतवर्ष पर्यन्त जीते हैं॥६६॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवता छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
ये चे॒ह पि॒तरो॒ ये च॒ नेह याँश्च॑ वि॒द्म याँ२ऽउ॑ च॒ न प्र॑वि॒द्म।
त्वं वे॑त्थ॒ यति॒ ते जा॑तवेदः स्व॒धाभि॑र्य॒ज्ञꣳ सुकृ॑तं जुषस्व॥६७॥
पद पाठ
ये। च॒। इ॒ह। पि॒तरः॑। ये। च॒। न। इ॒ह। यान्। च॒। वि॒द्म। यान्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। च॒। न। प्र॒वि॒द्मेति॑ प्रऽवि॒द्म। त्वम्। वे॒त्थ॒। यति॑। ते। जा॒त॒वे॒द॒ इति॑ जातऽवेदः। स्व॒धाभिः॑। य॒ज्ञम्। सुकृ॑त॒मिति॒ सुऽकृ॑तम्। जु॒ष॒स्व॒ ॥६७ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (जातवेदः) नवीन तीक्ष्ण बुद्धि वाले विद्वन्! (ये) जो (इह) यहां (च) ही (पितरः) पिता आदि ज्ञानी लोग हैं (च) और (ये) जो (इह) यहां (न) नहीं हैं (च) और हम (यान्) जिनको (विद्म) जानते (च) और (यान्) जिनको (न, प्रविद्म) नहीं जानते हैं, उन (यति) यावत् पितरों को (त्वम्) आप (वेत्थ) जानते हो (उ) और (ते) वे आप को भी जानते हैं, उनकी सेवारूप (सुकृतम्) पुण्यजनक (यज्ञम्) सत्काररूप व्यवहार को (स्वधाभिः) अन्नादि से (जुषस्व) सेवन करो॥६७॥
भावार्थ - हे मनुष्यो! जो प्रत्यक्ष वा जो अप्रत्यक्ष विद्वान् अध्यापक और उपदेशक हैं, उन सब को बुला अन्नादि से सदा सत्कार करो, जिससे आप भी सर्वत्र सत्कारयुक्त होओ॥६७॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
इ॒दं पि॒तृभ्यो॒ नमो॑ऽअस्त्व॒द्य ये पूर्वो॑सो॒ यऽउप॑रास ई॒युः।
ये पार्थि॑वे॒ रज॒स्या निष॑त्ता॒ ये वा॑ नू॒नꣳ सु॑वृ॒जना॑सु वि॒क्षु॥६८॥
पद पाठ
इ॒दम्। पि॒तृभ्य॒ इति॑ पि॒तृभ्यः॑ नमः॑। अ॒स्तु॒। अ॒द्य। ये। पूर्वा॑सः। ये। उप॑रासः। ई॒युः। ये। पार्थि॑वे। रज॑सि। आ। निष॑त्ताः। निस॑त्ता॒ इति॒ निऽस॑त्ताः। ये। वा॒। नू॒नम्। सु॒वृ॒जना॒स्विति॑ सुऽवृ॒जना॑सु। वि॒क्षु ॥६८ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(ये) जो पितर लोग (पूर्वासः) हम से विद्या वा अवस्था में वृद्ध हैं, (ये) जो (उपरासः) वानप्रस्थ वा संन्यासाश्रम को प्राप्त होके गृहाश्रम के विषयभोग से उदासीनचित्त हुए (ईयुः) प्राप्त हों, (ये) जो (पार्थिवे) पृथिवी पर विदित (रजसि) लोक में (आ, निषत्ताः) निवास किये हुए (वा) अथवा (ये) जो (नूनम्) निश्चय कर के (सुवृजनासु) अच्छी गतिवाली (विक्षु) प्रजाओं में प्रयत्न करते हैं, उन (पितृभ्यः) पितरों के लिये (अद्य) आज (इदम्) यह (नमः) सुसंस्कृत अन्न (अस्तु) प्राप्त हो॥६८॥
भावार्थ - इस संसार में जो प्रजा के शोधने वाले हमसे श्रेष्ठ विरक्ताश्रम अर्थात् संन्यासाश्रम को प्राप्त पिता आदि हैं, वे पुत्रादि मनुष्यों को सदा सेवने योग्य हैं, जो ऐसा न करें तो कितनी हानि हो॥६८॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
अधा॒ यथा॑ नः पि॒तरः॒ परा॑सः प्र॒त्नासो॑ऽअग्नऽऋ॒तमा॑शुषा॒णाः।
शुचीद॑य॒न् दीधि॑तिमुक्थ॒शासः॒ क्षामा॑ भि॒न्दन्तो॑ऽअरु॒णीरप॑ व्रन्॥६९॥
पद पाठ
अध॑। यथा॑। नः॒। पि॒तरः॑। परा॑सः। प्र॒त्नासः॑। अ॒ग्ने॒। ऋ॒तम्। आ॒शु॒षा॒णाः। शुचि॑। इत्। अ॒य॒न्। दीधि॑तिम्। उ॒क्थ॒शासः॑। उ॒क्थ॒शास॒ इत्यु॑क्थ॒ऽशसः॑। क्षामा॑। भि॒न्दन्तः॑। अ॒रु॒णीः। अप॑। व्र॒न् ॥६९ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (अग्ने) विद्वन्! (यथा) जैसे (नः) हमारे (परासः) उत्तम (प्रत्नासः) प्राचीन (उक्थशासः) उत्तम शिक्षा करनेहारे (शुचि) पवित्र (ऋतम्) सत्य को (आशुषाणाः) अच्छे प्रकार प्राप्त हुए (पितरः) पिता आदि ज्ञानी जन (दीधितिम्) विद्या के प्रकाश (अरुणीः) सुशीलता से प्रकाश वाली स्त्रियों और (क्षामा) निवासभूमि को (अयन्) प्राप्त होते हैं, (अध) इस के अनन्तर अविद्या का (भिन्दन्तः) विदारण करते हुए (इत्) ही अन्धकाररूप आवरणों को (अप, व्रन्) दूर करते हैं, उनका तू वैसे सेवन कर॥६९॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो पिता आदि विद्या को प्राप्त कराके अविद्या का निवारण करते हैं, वे इस संसार में सब लोगों से सत्कार करने योग्य हों॥६९॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
उ॒शन्त॑स्त्वा॒ नि धी॑मह्यु॒शन्तः॒ समि॑धीमहि।
उ॒शन्नु॑श॒तऽआ व॑ह पि॒तॄन् ह॒विषे॒ऽअत्त॑वे॥७०॥
पद पाठ
उ॒शन्तः॑। त्वा॒। नि। धी॒म॒हि॒। उ॒शन्तः॑। सम्। इ॒धी॒म॒हि॒। उ॒शन्। उ॒श॒तः। आ। व॒ह॒। पि॒तॄन्। ह॒विषे॑। अत्त॑वे ॥७० ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्या की इच्छा करने वाले अथवा पुत्र तेरी (उशन्तः) कामना करते हुए हम लोग (त्वा) तुझ को (नि, धीमहि) विद्या का निधिरूप बनावें (उशन्तः) कामना करते हुए हम तुझ को (समिधीमहि) अच्छे प्रकार विद्या से प्रकाशित करें, (उशन्) कामना करता हुआ तू (हविषे) भोजन करने योग्य पदार्थ के (अत्तवे) खाने को (उशतः) कामना करते हुए हम (पितॄन्) पितरों को (आ, वह) अच्छे प्रकार प्राप्त हों॥७०॥
भावार्थ - जैसे विद्वान् लोग बुद्धिमान्, जितेन्द्रिय, कृतज्ञ, परिश्रमी, विचारशील विद्यार्थियों की नित्य कामना करें, वैसे विद्यार्थी लोग भी ऐसे उत्तम अध्यापक विद्वान् लोगों की सेवा करके विद्वान् होवें॥७०॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
अ॒पां फेने॑न॒ नमु॑चेः॒ शिर॑ऽइ॒न्द्रोद॑वर्त्तयः।
विश्वा॒ यदज॑यः॒ स्पृधः॑॥७१॥
पद पाठ
अ॒पाम्। फेने॑न। नमु॑चेः। शिरः॑। इ॒न्द्र॒। उत्। अ॒व॒र्त्त॒यः॒। विश्वाः॑। यत्। अज॑यः। स्पृधः॑ ॥७१ ॥
विषय - अब सेनापति कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (इन्द्र) सूर्य्य के समान वर्त्तमान सेनापते! जैसे सूर्य (अपाम्) जलों की (फेनेन) वृद्धि से (नमुचेः) अपने स्वरूप को न छोड़ने वाले मेघ के (शिरः) घनाकार बद्दलों को काटता है, वैसे ही तू अपनी सेनाओं को (उदवर्त्तयः) उत्कृष्टता को प्राप्त कर (यत्) जो (विश्वाः) सब (स्पृधः) स्पर्द्धा करनेहारी शत्रुओं की सेना हैं, उन को (अजयः) जीत॥७१॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य से आच्छादित भी मेघ वारंवार उठता है, वैसे ही वे शत्रु भी वारंवार उत्थान करते हैं। वे जब तक अपने बल को न्यून और दूसरों का बल अधिक देखते हैं, तब तक शान्त रहते हैं॥७१॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
सोमो॒ राजा॒मृत॑ꣳ सु॒तऽऋ॒जी॒षेणा॑जहान्त्मृ॒त्युम्।
ऋ॒तेन॑ स॒त्यमि॑न्द्रि॒यं वि॒पान॑ꣳ शु॒क्रमन्ध॑स॒ऽइन्द्र॑स्येन्द्रि॒यमि॒दं पयो॒ऽमृतं॒ मधु॑॥७२॥
पद पाठ
सोमः॑ राजा॑। अ॒मृत॑म्। सु॒तः। ऋ॒जी॒षेण॑। अ॒ज॒हा॒त्। मृ॒त्युम्। ऋ॒तेन॑। स॒त्यम्। इ॒न्द्रि॒यम्। वि॒पान॒मिति॑ वि॒ऽपान॑म्। शु॒क्रम्। अन्ध॑सः। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒यम्। इ॒दम्। पयः॑। अ॒मृत॑म्। मधु॑ ॥७२ ॥
विषय - कौन पुरुष मुक्ति को प्राप्त होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
जो (ऋतेन) सत्य ब्रह्म के साथ (अन्धसः) सुसंस्कृत अन्नादि के सम्बन्धी (सत्यम्) विद्यमान द्रव्यों में उत्तम पदार्थ (विपानम्) विविध पान करने के साधन (शुक्रम्) शीघ्र कार्य करानेहारे (इन्द्रियम्) धन (इन्द्रस्य) परम ऐश्वर्य वाले जीव के (इन्द्रियम्) श्रोत्र आदि इन्द्रिय (इदम्) जल (पयः) दुग्ध (अमृतम्) अमृतरूप ब्रह्म वा ओषधि के सार और (मधु) सहत का संग्रह करे, सो (अमृतम्) अमृतरूप आनन्द को प्राप्त हुआ (सुतः) संस्कारयुक्त (सोमः) ऐश्वर्यवान् प्रेरक (राजा) न्यायविद्या से प्रकाशमान राजा (ऋजीषेण) सरल भाव से (मृत्युम्) मृत्यु को (अजहात्) छोड़ देवे॥७२॥
भावार्थ - जो उत्तम शील और विद्वानों के सङ्ग से सब शुभलक्षणों को प्राप्त होते हैं, वे मृत्यु के दुःख को छोड़कर मोक्षसुख को ग्रहण करते हैं॥७२॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - आङ्गिरसो देवताः छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
अद्भ्यः क्षी॒रं व्य॑पिब॒त् क्रुङ्ङा॑ङ्गिर॒सो धि॒या।
ऋ॒तेन॑ स॒त्यमि॑न्द्रि॒यं वि॒पान॑ꣳशु॒क्रमन्ध॑स॒ऽइन्द्र॑स्येन्द्रि॒यमि॒दं पयो॒ऽमृतं॒ मधु॑॥७३॥
पद पाठ
अ॒द्भ्य इत्य॒त्ऽभ्यः। क्षी॒रम्। वि। अ॒पि॒ब॒त्। क्रुङ्। आ॒ङ्गि॒र॒सः। धि॒या। ऋ॒तेन॑। स॒त्यम्। इ॒न्द्रि॒यम्। वि॒पान॒मिति॑ वि॒ऽपान॑म्। शु॒क्रम्। अन्ध॑सः। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒यम्। इ॒दम्। पयः॑। अमृत॑म्। मधु॑ ॥७३ ॥
विषय - कौन पुरुष विज्ञान को प्राप्त होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
जो (आङ्गिरसः) अङ्गिरा विद्वान् से किया हुआ विद्वान् (धिया) कर्म के साथ (अद्भ्यः) जलों से (क्षीरम्) दूध को (क्रुङ्) क्रुञ्चा पक्षी के समान थोड़ा-थोड़ा करके (व्यपिबत्) पीवे, वह (ऋतेन) यथार्थ योगाभ्यास से (इन्द्रस्य) ऐश्वर्य्ययुक्त जीव के (अन्धसः) अन्नादि के योग से (इदम्) इस प्रत्यक्ष (सत्यम्) सत्य पदार्थों में अविनाशी (विपानम्) विविध शब्दार्थ सम्बन्धयुक्त (शुक्रम्) पवित्र (इन्द्रियम्) दिव्यवाणी और (पयः) उत्तम रस (अमृतम्) रोगनाशक ओषधि (मधु) मधुरता और (इन्द्रियम्) दिव्य श्रोत्र को प्राप्त होवे॥७३॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सत्याचरणादि कर्मों करके वैद्यक शास्त्र के विधान से युक्ताहारविहार करते हैं, वे सत्य बोध और सत्य विज्ञान को प्राप्त होते हैं॥७३॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
सोम॑म॒द्भ्यो व्य॑पिब॒च्छन्द॑सा ह॒ꣳसः शु॑चि॒षत्।
ऋ॒तेन॑ स॒त्यमि॑न्द्रि॒यं वि॒पान॑ꣳ शु॒क्रमन्ध॑स॒ऽइन्द्र॑स्येन्द्रि॒यमि॒दं पयो॒ऽमृतं॒ मधु॑॥७४॥
पद पाठ
सोम॑म्। अ॒द्भ्य इत्य॒त्ऽभ्यः। वि। अ॒पि॒ब॒त्। छन्द॑सा। ह॒ꣳसः। शु॒चि॒षत्। शु॒चि॒सदिति॑ शुचि॒ऽसत्। ऋ॒तेन॑। स॒त्यम्। इ॒न्द्रि॒यम्। वि॒पान॒मिति॑ वि॒ऽपान॑म्। शु॒क्रम्। अन्ध॑सः। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒यम्। इ॒दम्। पयः॑। अ॒मृत॑म्। मधु॑ ॥७४ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
जो (शुचिषत्) पवित्र विद्वानों में बैठता है (हंसः) दुःख का नाशक विवेकी जन (छन्दसा) स्वच्छन्दता क साथ (अद्भ्यः) उत्तम संस्कारयुक्त जलों से (सोमम्) सोमलतादि महौषधियों के सार रस को (व्यपिबत्) अच्छे प्रकार पीता है, सो (ऋतेन) सत्य वेदविज्ञान से (अन्धसः) उत्तम संस्कार किये हुए अन्न के दोषनिवर्तक (शुक्रम्) शुद्धि करनेहारे (विपानम्) विविध रक्षा से युक्त (सत्यम्) परमेश्वरादि सत्य पदार्थों में उत्तम (इन्द्रियम्) विज्ञान रूप (इन्द्रस्य) योगविद्या से उत्पन्न हुए परम ऐश्वर्य की प्राप्ति करानेहारे (इदम्) इस प्रत्यक्ष प्रतीति के आश्रय (पयः) उत्तम ज्ञान रस वाले (अमृतम्) मोक्ष (मधु) विद्यायुक्त (इन्द्रियम्) जीव ने सेवन किये हुए सुख को प्राप्त होने को योग्य होता है, वही अखिल आनन्द को पाता है॥७४॥
भावार्थ - जो युक्ताहार-विहार करनेहारे वेदों को पढ़, योगाभ्यास कर, अविद्यादि क्लेशों को छुड़ा, योग की सिद्धियों को प्राप्त हो और उनके अभिमान को भी छोड़ के कैवल्य को प्राप्त होते हैं, वे ब्रह्मानन्द का भोग करते हैं॥७४॥
ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - भुरिगतिजगती स्वरः - निषादः
अन्ना॑त् परि॒स्रुतो॒ रसं॒ ब्रह्म॑णा॒ व्यपिबत् क्ष॒त्रं पयः॒ सोमं॑ प्र॒जाप॑तिः।
ऋ॒तेन॑ स॒त्यमि॑न्द्रि॒यं वि॒पानंꣳ शु॒क्रमन्ध॑स॒ऽइन्द्र॑स्येन्द्रि॒यमि॒दं पयो॒ऽमृतं॒ मधु॑॥७५॥
पद पाठ
अन्ना॑त्। प॒रि॒स्रुत॒ इति॑ परि॒ऽस्रुतः॑। रस॑म्। ब्रह्म॑णा। वि। अ॒पि॒ब॒त्। क्ष॒त्रम्। पयः॑। सोम॑म्। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। ऋ॒तेन॑। स॒त्यम्। इ॒न्द्रि॒यम्। वि॒पान॒मिति॑ वि॒ऽपान॑म्। शु॒क्रम्। अन्ध॑सः। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒यम्। इ॒दम्। पयः॑। अ॒मृत॑म्। मधु॑ ॥७५ ॥
विषय - कैसे राज्य की उन्नति करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
जो (ब्रह्मणा) चारों वेद पढ़े हुए विद्वान् के साथ (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक सभाध्यक्ष राजा (परिस्रुतः) सब ओर से पके हुए (अन्नात्) जौ आदि अन्न से निकले (पयः) दुग्ध के तुल्य (सोमम्) ऐश्वर्ययुक्त (रसम्) साररूप रस और (क्षत्रम्) क्षत्रियकुल को (व्यपिबत्) ग्रहण करे, सो (ऋतेन) विद्या तथा विनय से युक्त न्याय से (अन्धसः) अन्धकाररूप अन्याय के निवारक (शुक्रम्) पराक्रम करनेहारे (विपानम्) विविध रक्षण के हेतु (सत्यम्) सत्य व्यवहारों में उत्तम (इन्द्रियम्) इन्द्र नामक परमात्मा ने दिये हुए (इन्द्रस्य) समग्र ऐश्वर्य के देनेहारे राज्य की प्राप्ति करानेहारे (इदम्) इस प्रत्यक्ष (पयः) पीने के योग्य (अमृतम्) अमृत के तुल्य सुखदायक रस और (मधु) मधुरादि गुणयुक्त (इन्द्रियम्) राजादि पुरुषों ने सेवे हुए न्यायाचरण को प्राप्त होवे, यह सदा सुखी होवे॥७५॥
भावार्थ - जो विद्वानों की अनुमति से राज्य को बढ़ाने की इच्छा करते हैं, वे अन्याय की निवृत्ति करने और राज्य को बढ़ाने में समर्थ होते हैं॥७५॥
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