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महाभारत आदिपर्व अष्टादशोऽध्यायः देवताओं और दैत्योंद्वारा अमृतके लिये समुद्रका मन्थन, अनेक रत्नोंके साथ अमृतकी उत्पत्ति और भगवान्का मोहिनीरूप धारण करके दैत्योंके हाथसे अमृत ले लेना

 अष्टादशोऽध्यायः 

देवताओं और दैत्योंद्वारा अमृतके लिये समुद्रका मन्थन,

अनेक रत्नोंके साथ अमृतकी उत्पत्ति और भगवान्का मोहिनीरूप धारण करके दैत्योंके हाथसे अमृत ले लेना

सौतिरुवाच 

ततोऽभ्रशिखराकारेगिरिशृङ्गेरलंकृतम्। 

मन्दरं पर्वतवरं लताजालसमाकुलम् ॥१॥ 

नानाविहगसंघुष्टं नानादंष्ट्रिसमाकुलम्। 

किन्नरैरप्सरोभिश्च देवैरपि च सेवितम् ॥२॥ 

एकादश सहस्राणि योजनानां समुच्छ्रितम्। 

अधो भूमेः सहस्रेषु तावत्स्वेव प्रतिष्ठितम् ।।३।। 

तमुद्धर्तुमशक्ता वै सर्वे देवगणास्तदा। 

विष्णुमासीनमभ्येत्य ब्रह्माणं चेदमब्रुवन् ।।४।।


उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनकजी! तदनन्तर सम्पूर्ण देवता मिलकर पर्वतश्रेष्ठ मन्दराचलको उखाड़नेके लिये उसके समीप गये। वह पर्वत श्वेत मेघखण्डोंके समान प्रतीत होनेवाले गगनचुम्बी शिखरोंसे सुशोभित था। सब ओर फैली हुई लताओंके समुदायने उसे आच्छादित कर रखा था। उसपर चारों ओर भांति-भांतिके विहंगम कलरव कर रहे थे। बड़ी-बड़ी दाड़ोंवाले व्याघ्र-सिंह आदि अनेक हिंसक जीव वहाँ सर्वत्र भरे हुए थे। उस पर्वतके विभिन्न प्रदेशोंमें कित्तरगण, अप्सराएँ तथा देवतालोग निवास करते थे। उसकी ऊँचाई ग्यारह हजार योजन थी और भूमिके नीचे भी वह उतने ही सहस्र योजनोंमें प्रतिष्ठित था। जब देवता उसे उखाड़ न सके, तब वहाँ बैठे हुए भगवान् विष्णु और ब्रह्माजीसे इस प्रकार बोले-।। १-४॥


भवन्तावत्र कुर्वीतां बुद्धिं नैःश्रेयसी पराम् । 

मन्दरोद्धरणे यत्नः क्रियतां च हिताय नः ॥५॥


"आप दोनों इस विषयमें कल्याणमयी उत्तम बुद्धि प्रदान करें और हमारे हितके लिये मन्दराचल पर्वतको उखाड़नेका यत्न करें' ॥ ५ ॥


सोतिरुवाच तथेति चाब्रवीद् विष्णुब्रह्मणा सह भार्गव । 

अचोदयदमेयात्मा फणीन्द्रं पद्मलोचनः ।।६।।


उग्रश्रवाजी कहते हैं-भृगुनन्दन! देवताओंके ऐसा कहनेपर ब्रह्माजीसहित भगवान् विष्णुने कहा-'तथास्तु (ऐसा ही हो) । तदनन्तर जिनका स्वरूप मन, बुद्धि एवं प्रमाणोंकी पहुँचसे परे है, उन कमलनयन भगवान् विष्णूने नागराज अनन्तको मन्दराचल उखाड़नेके लिये आज्ञा दी।॥ ६॥


ततोऽनन्तः समुत्थाय ब्रह्मणा परिचोदितः । 

नारायणेन चाप्युक्तस्तस्मिन् कर्मणि वीर्यवान् ॥७॥


जब ब्रह्माजीने प्रेरणा दी और भगवान नारायणने भी आदेश दे दिया, तब अतुलपराक्रमी अनन्त (शेषनाग) उठकर उस कार्यमें लगे ।। ||


अथ पर्वतराजानं तमनन्तो महाबलः । 

उज्जहार बलाद् ब्रह्मन् सवनं सवनोकसम् ।।८॥


ब्रह्मन्! फिर तो महाबली अनन्तने जोर लगाकर गिरिराज मन्दराचलको वन और वनवासी जन्तुओंसहित उखाड़ लिया ।।८।।


ततस्तेन सुराः सार्धं समुद्रमुपतस्थिरे । 

तमूचुरमृतस्यार्थे निर्मथिष्यामहे जलम् ॥९॥ 

अपां पतिरथोवाच ममाप्यंशो भवेत् ततः । 

सोडास्मि विपुलं मर्द मन्दरभ्रमणादिति ।। १०॥


तत्पश्चात् देवतालोग उस पर्वतके साथ समुद्रतटपर उपस्थित हुए और समुद्रसे बोले -'हम अमृतके लिये तुम्हारा मन्धन करेंगे।' यह सुनकर जलके स्वामी समुद्रने कहा -'यदि अमृतमें मेरा भी हिस्सा रहे तो मैं मन्दराचलको घुमानेसे जो भारी पीड़ा होगी, उसे सह लूँगा' ।। ९-१०॥


ऊचुश्च कूर्मराजानमकूपारे सुरासुराः । 

अधिष्ठानं गिरेरस्य भवान् भवितुमर्हति ॥ ११ ॥


तब देवताओं और असुरोंने (समुद्रकी बात स्वीकार करके) समुद्रतलमें स्थित कच्छपराजसे कहा-'भगवन्! आप इस मन्दराचलके आधार बनिये ॥ ११ ॥


कूर्मण तु तथेत्युक्त्वा पृष्ठमस्य समर्पितम्। 

तं शैलं तस्य पृष्ठस्थं वजेणेन्द्रो न्यपीडयत् ।। १२ ।।


तब कच्छपराजने 'तथास्तु' कहकर मन्दराचलके नीचे अपनी पीठ लगा दी। देवराज इन्द्रने उस पर्वतको वजद्वारा दबाये रखा ।। १२ ।।


मन्धानं मन्दरं कृत्वा तथा नेत्रं च वासुकिम् । 

देवा मथितुमारब्धाः समुद्र निधिमम्भसाम् ।। १३ ।। 

अमृतार्थे पुरा ब्रह्मस्तथैवासुरदानवाः । 

एकमन्तमुपाश्लिष्टा नागराज्ञो महासुराः ।। १४ ।। 

विबुधाः सहिताः सर्वे यतः पुच्छं ततः स्थिताः ।


ब्रह्मन! इस प्रकार पूर्वकालमें देवताओं, दैत्यों और दानवोंने मन्दराचलको मधानी और | वासुकि नागको डोरी बनाकर अमृतके लिये जलनिधि समुद्रको मथना आरम्भ किया। उन महान् असुरोंने नागराज वासुकिके मुखभागको दृढ़तापूर्वक पकड़ रखा था और जिस ओर उसकी पूँछ थी उधर सम्पूर्ण देवता उसे पकड़कर खड़े थे ।। १३-१४६।।


अनन्तो भगवान् देवो यतो नारायणस्ततः । 

शिर उत्क्षिप्य नागस्य पुनः पुनरवाक्षिपत् ।। १५ ।।


भगवान् अनन्तदेव उधर ही खड़े थे, जिधर भगवान् नारायण थे। वे वासुकि नागके | सिरको बार-बार ऊपर उठाकर झटकते थे ।। १५ ।।


वासुकेरथ नागस्य सहसाऽऽक्षिप्यतः सुरेः । 

सधूमाः सार्चिषो वाता निष्पेतुरसकृन्मुखात् ।। १६ ।।


तब देवताओंद्वारा बार-बार खींचे जाते हुए वासुकि नागके मुखसे निरन्तर धुएँ तथा | आगकी लपटोंके साथ गर्म-गर्म साँसें निकलने लगीं ।।१६।।


ते धूमसवाः सम्भूता मेघसङ्घाः सविद्युतः । 

अभ्यवर्षन् सुरगणान् श्रमसंतापकर्शितान् ॥ १७॥


वे धूमसमुदाय बिजलियोंसहित मेघोंकी घटा बनकर परिश्रम एवं संतापसे कष्ट पानेवाले देवताओंपर जलकी धारा बरसाते रहते थे ।।१०।।


तस्माच्च गिरिकूटाग्रात् प्रच्युताः पुष्पवृष्टयः । 

सुरासुरगणान् सर्वान् समन्तात् समवाकिरन् ।। १८ ॥


उस पर्वतशिखरके अग्रभागसे सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरोंपर सब ओरसे फूलोंकी वर्षा होने लगी ।। १८ ।।


बभूवात्र महानादो महामेघरवोपमः । 

उदधेर्मथ्यमानस्य मन्दरेण सुरासुरैः ।। १९ ।।


देवताओं और असुरोंद्वारा मन्दराचलसे समुद्रका मन्थन होते समय वहाँ महान् मेघोंकी गम्भीर गर्जनाके समान जोर-जोरसे शब्द होने लगा ।। १९ ।।


तत्र नाना जलचरा विनिष्पिष्टा महाद्रिणा। 

विलयं समुपाजग्मुः शतशो लवणाम्भसि ॥ २०॥


उस समय उस महान् पर्वतके द्वारा सैकड़ों जलचर जन्तु पिस गये और खारे पानीके उस महासागर में विलीन हो गये ॥ २०॥


वारुणानि च भूतानि विविधानि महीधरः । 

पातालतलवासीनि विलयं समुपानयत् ।। २१ ।।


मन्दराचलने वरुणालय (समुद्र) तथा पातालतलमें निवास करनेवाले नाना प्रकारके प्राणियोंका संहार कर डाला ॥ २१ ॥


तस्मिंश्च भ्राम्यमाणेऽद्री संघृष्यन्तः परस्परम् ।

न्यपतन् पतगोपेताः पर्वताग्रान्महाद्रुमाः ।। २२ ।।


जब वह पर्वत घुमाया जाने लगा, उस समय उसके शिखरसे बड़े-बड़े वृक्ष आपसमें टकराकर उनपर निवास करनेवाले पक्षियोंसहित नीचे गिर पड़े ॥ २२ ॥


तेषां संघर्षजश्वाग्निरर्चिभिः प्रज्वलन् मुहः । 

विद्युद्भिरिव नीलाभ्रमावृणोन्मन्दरं गिरिम् ।। २३ ।।


उनकी आपसकी रगड़से बार-बार आग प्रकट होकर ज्वालाओंके साथ प्रज्वलित हो उठी और जैसे बिजली नीले मेधको ढक ले, उसी प्रकार उसने मन्दराचलको आच्छादित कर लिया ।। २३ ॥


ददाह कुञ्जरांस्तत्र सिंहांश्चैव विनिर्गतान् । 

विगतासूनि सर्वाणि सत्त्वानि विविधानि च ।। २४ ।।


उस दावानलने पर्वतीय गजराजों, गुफाओंसे निकले हुए सिंहों तथा अन्यान्य सहस्रों जन्तुओंको जलाकर भस्म कर दिया। उस पर्वतपर जो नाना प्रकारके जीव रहते थे, वे सब अपने प्राणोंसे हाथ धो बैठे ।। २४ ।।


तमग्निममरश्रेष्ठः प्रदहन्तमितस्ततः । 

वारिणा मेघजेनेन्द्रः शमयामास सर्वशः ।। २५ ।।


तब देवराज इन्द्रने इधर-उधर सबको जलाती हुई उस आगको मेघोंके द्वारा जल बरसाकर सब ओरसे बुझा दिया ।। २५ ।।


ततो नानाविधास्तत्र सुसुवुः सागराम्भसि । 

महाद्रुमाणां निर्यासा बहवश्चौषधीरसाः ।। २६ ।।


तदनन्तर समुद्रके जलमें बड़े-बड़े वृक्षोंके भाँति-भाँतिके गोंद तथा ओषधियोंके प्रचुर रस चू-चूकर गिरने लगे ।। २६ ।।


तेषाममूतवीर्याणां रसानां पयसेव च । 

अमरत्वं सुरा जग्मुः काञ्चनस्य च निःसवात् ।। २७॥


वृक्षों और ओषधियोंके अमृततुल्य प्रभावशाली रसोंके जलसे तथा सुवर्णमय मन्दराचलकी अनेक दिव्य प्रभावशाली मणियोंसे चुनेवाले रससे ही देवतालोग अमरत्वको प्राप्त होने लगे ।। २७॥


ततस्तस्य समुद्रस्य तज्जातमुदकं पयः ।। 

रसोत्तमेर्विमित्रं च ततः क्षीरादभूद् घृतम् ।। २८॥


उन उत्तम रसोंके सम्मिश्रणसे समुद्रका सारा जल दूध बन गया और दूधसे धी बनने लगा ।। २८ ॥ 


ततो ब्रह्माणमासीनं देवा वरदमब्रुवन् । 

श्रान्ताः स्म सुभृशं ब्रह्मन् नोद्भवत्यमृतं च तत् ।। २९ ।। 

विना नारायणं देवं सर्वेऽन्ये देवदानवाः ।

चिरारब्धमिदं चापि सागरस्यापि मन्धनम् ।।३०॥


तब देवतालोग वहाँ बैठे हुए वरदायक ब्रह्माजीसे बोले-'ब्रह्मन्! भगवान् नारायणके अतिरिक्त हम सभी देवता और दानव बहुत थक गये हैं; किंतु अभीतक वह अमृत प्रकट नहीं हो रहा है। इधर समुद्रका मन्धन आरम्भ हुए बहुत समय बीत चुका है' ।। २९-३० ।।


ततो नारायणं देवं ब्रह्मा वचनमब्रवीत् ।। 

विधत्स्वेषां बलं विष्णो भवानत्र परायणम् ।।३१॥


यह सुनकर ब्रह्माजीने भगवान् नारायणसे यह बात कही-'सर्वव्यापी परमात्मन! इन्हें बल प्रदान कीजिये, यहाँ एकमात्र आप ही सबके आश्रय हैं' ।। ३१ ।।


विष्णुरुवाच बलं ददामि सर्वेषां कर्मत ये समास्थिताः । 

क्षोभ्यतां कलश: सर्वर्मन्दरः परिवर्त्यताम् ।। ३२ ।।


श्रीविष्णु बोले-जो लोग इस कार्यमें लगे हुए हैं, उन सबको मैं बल दे रहा हूँ। सब लोग पूरी शक्ति लगाकर मन्दराचलको घुमावें और इस सागरको क्षब्ध कर दें ।। ३२ ।।


सौतिरुवाच नारायणवचः श्रुत्वा बलिनस्ते महोदधेः । 

तत् पयः सहिता भूयश्चक्रिरे भृशमाकुलम् ।। ३३ ।।


उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनकजी! भगवान् नारायणका वचन सुनकर देवताओं और दानवोंका बल बढ़ गया। उन सबने मिलकर पुनः वेगपूर्वक महासागरका वह जल मथना आरम्भ किया और उस समस्त जलराशिको अत्यन्त क्षुब्ध कर डाला ।। ३३ ।।


ततः शतसहस्रांशुमध्यमानात्तु सागरात् । 

प्रसन्नात्मा समुत्पन्नः सोमः शीतांशुरुज्ज्वलः ।। ३४ ॥


फिर तो उस महासागरसे अनन्त किरणोंवाले सूर्यके समान तेजस्वी, शीतल प्रकाशसे युक्त, श्वेतवर्ण एवं प्रसन्नात्मा चन्द्रमा प्रकट हुआ ।। ३४ ।।


श्रीरनन्तरमुत्पन्ना घृतात् पाण्डुरवासिनी। 

सुरादेवी समुत्पन्ना तुरगः पाण्डुरस्तथा ।। ३५ ।।


तदनन्तर उस घृतस्वरूप जलसे श्वेतवस्त्रधारिणी लक्ष्मीदेवीका आविर्भाव हुआ। इसके बाद सुरादेवी और श्वेत अश्व प्रकट हुए ।। ३५ ।।


कौस्तुभस्तु मणिर्दिव्य उत्पन्नो घृतसम्भवः । 

मरीचिबिकचः श्रीमान् नारायण उरोगतः ।। ३६ ॥


फिर अनन्त किरणोंसे समुज्ज्वल दिव्य कौस्तुभमणिका उस जलसे प्रादुर्भाव हुआ, जो भगवान् नारायणके वक्षःस्थलपर सुशोभित हुई ।। ३६ ।।


पारिजातश्च तत्रैव सुरभिश्च महामुने।

जज्ञाते तो तदा ब्रह्मन् सर्वकामफलप्रदो।

श्रीः सुरा चैव सोमश्च तुरगश्च मनोजवः । 

यतो देवास्ततो जग्मुरादित्यपथमाश्रिताः ।। ३७ ॥


ब्रह्मन्! महामुने! वहाँ सम्पूर्ण कामनाओंका फल देनेवाले पारिजात वृक्ष एवं सुरभि गौकी उत्पत्ति हुई। फिर लक्ष्मी, सुरा, चन्द्रमा तथा मनके समान वेगशाली उच्चैःश्रवा घोड़ा,  ये सब सूर्यक मार्ग आकाशका आश्रय ले, जहाँ देवता रहते हैं, उस लोकमें चले गये ।। 37॥


धन्वन्तरिस्ततो देवो वपुष्मानुदतिष्ठत ।
श्वेतं कमण्डलुं बिभ्रदमृतं यत्र तिष्ठति ।। ३८॥ - 

इसके बाद दिव्य शरीरधारी धन्वन्तरि देव प्रकट हुए। वे अपने हाथमें श्वेत कलश लिये हुए थे, जिसमें अमृत भरा था ।। ३८ ॥

एतदत्यद्भुतं दृष्ट्वा दानवानां समुत्थितः । 
अमृतार्थे महान् नादो ममेदमिति जल्पताम् ।। ३९ ।।

यह अत्यन्त अद्भुत दृश्य देखकर दानवोंमें अमतके लिये कोलाहल मच गया। वे सब कहने लगे 'यह मेरा है, यह मेरा है' ।। ३९ ।।

श्वेतैर्दन्तेश्चतुर्भिस्तु महाकायस्ततः परम् । 
ऐरावतो महानागोऽभवद्वज्जभूता धूतः ।। ४०॥

तत्पश्चात् श्वेत रंगके चार दाँतोंसे सुशोभित विशालकाय महानाग ऐरावत प्रकट हुआ, जिसे वजधारी इन्द्रने अपने अधिकारमें कर लिया ।। ४० ।।

अतिनिर्मधनादेव कालकूटस्ततः परः। 
जगदावृत्य सहसा सधूमोऽग्निरिव ज्वलन् ।। ४१ ॥

तदनन्तर अत्यन्त वेगसे मथनेपर कालकूट महाविष उत्पन्न हुआ, वह धूमयुक्त अग्निकी भौति एकाएक सम्पूर्ण जगत्को घेरकर जलाने लगा ।। ४१ ।।

त्रैलोक्यं मोहितं यस्य गन्धमाघ्राय तद् विषम् । 
प्राग्रसल्लोकरक्षार्थ ब्रह्मणो वचनाच्छिवः ॥ ४२ ॥

उस विषकी गन्ध सूंघते ही त्रिलोकीके प्राणी मूर्छित हो गये। तब ब्रह्माजीके प्रार्थना करनेपर भगवान् श्रीशंकरने त्रिलोकीकी रक्षाके लिये उस महान विषको पी लिया ।। ४२ ।।

दधार भगवान् कण्ठे मन्त्रमूर्तिमहेश्वरः । 
तदाप्रभृति देवस्तु नीलकण्ठ इति श्रुतिः ।। ४३ ।।

मन्त्रमूर्ति भगवान् महेश्वरने विषपान करके उसे अपने कण्ठमें धारण कर लिया। तभीसे महादेवजी नीलकण्ठके नामसे विख्यात हुए, ऐसी जनश्रुति है ।। ४३ ।।

एतत् तदद्भुतं दृष्ट्वा निराशा दानवाः स्थिताः। 
अमृतार्थे च लक्ष्म्यर्थे महान्तं वैरमाश्रिताः ।। ४४ ।।

ये सब अद्भुत बातें देखकर दानव निराश हो गये और अमृत तथा लक्ष्मीके लिये उन्होंने देवताओंके साथ महान् वैर बाँध लिया ।। ४४ ॥

ततो नारायणो मायां मोहिनी समुपाश्रितः । 
स्त्रीरूपमद्भुतं कृत्वा दानवानभिसंश्रितः ।। ४५ ॥

उसी समय भगवान् विष्णुने मोहिनी मायाका आश्रय ले मनोहारिणी खीका अद्भुत रूप बनाकर, दानवोंके पास पदार्पण किया ।। ४५ ।।

ततस्तदमृतं तस्यै ददुस्ते मूढचेतसः ।। 
स्त्रिये दानवदेतेयाः सर्वे तद्गतमानसाः ।। ४६ ।।

समस्त दैत्यों और दानवोंने उस मोहिनीपर अपना हृदय निछावर कर दिया। उनके चित्तमें मूढता छा गयी। अतः उन सबने स्त्रीरूपधारी भगवानको वह अमृत सौंप दिया ।। ४६॥

सा तु नारायणी माया धारयन्ती कमण्डलुम् । 
आस्यमानेषु दैत्येषु पङ्क्त्या च प्रति दानवैः । 
देवानपाययद् देवी न देत्यांस्ते च चुकुशुः ।।

भगवान् नारायणकी वह मूर्तिमती माया हाथमें कलश लिये अमृत परोसने लगी। उस समय दानवोंसहित दैत्य पंगत लगाकर बैठे ही रह गये, परंतु उस देवीने देवताओंको ही अमृत पिलाया; दैत्योंको नहीं दिया, इससे उन्होंने बड़ा कोलाहल मचाया। 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि अमृतमन्थनेऽष्टादशोऽध्यायः ।। १८।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें अमृतमन्थनविषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १८ ।। 

दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ४८ श्लोक हैं


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