जीवन रूपी एक वीज की दो शाखाएं हैं ज्ञान और अज्ञान
ज्ञान और अज्ञान दो शाखा एक ही वृक्ष के हैं, एक ज्ञान जो हमें हमारी आत्मा का होता है, यह शाश्वत ज्ञान है, दूसरा ज्ञान जो हमें संसारी वस्तुओं का हमें प्राप्त होता है वह अज्ञान है, क्योंकि वह हमारी आत्मा की सत्ता के विरुद्ध होता है। इसी को परा और अपरा विद्या कहते हैं, इसी को श्रेय और निश्रेय भी कहते हैं, इसी को विद्या और अविद्या भी कहते हैं।
आज हमारे आधुनिक मानवजाती की यहीं समस्या सबसे बड़ी है, कि वह किस प्रकार से इन दोनों प्रकार के ज्ञान और अज्ञान के मध्य में संतुलन कैसे बनाए? क्योंकि जिसे हम यहां पर अज्ञान कहते हैं, वास्तव में यह भी एक प्रकार का ज्ञान ही है, इसी को प्रकट करने के लिए दो प्रकार की मानव की कोटी भी बनाई गई हैं, एक को दैत्य नाम से संबोधित किया जाता है दूसरे को देवता नाम से संबोधित करते हैं, हम आज के युग में पुरी तरह से देवता भी नहीं बन सकते क्योंकि तब हमारा इस जगत में गुजारा करना ही बहुत मुश्किल हो जायेगा, यदि पुरी तरह से दैत्य बन जाएंगे तो और के लिए हम बहुत बड़े कष्ट का कारण बन जाएंगें, यह भी पुरी तरह से ठीक नहीं है, क्योंकि दैत्य बनने का मतलब है, आसुरी माया के वशीभुत हो जाना, इस संसार में आसुरी माया के बीना भी जीवित रहना सर्वथा असंभव है, इसलिए हमें एक तीसरा मार्ग हैं, जिसे अज्ञेय कहते हैं, जिसको अभी तक जाना नहीं गया है, जो जाना गया है उसका परिणाम हमारे सामने हैं, लेकिन जिसको नहीं जाना गया है, उसको जान लिया जाएगा, अर्थात जिसका हमको ज्ञान है, वह विषय हमारे लिए किसी प्रकार का रहस्य नहीं उपस्थित कर सकता है, लेकिन जिसको हम नहीं जानते हैं, जो हमारे लिए जो आज रहस्य की तरह हैं उसको हम भविष्य में जान सकते हैं, लेकिन जो तीसरी वस्तु अज्ञेय है, वह कभी भी पूर्ण रूप से जानी नहीं जा सकती है इसी को हम अपना मार्ग बना कर अपने जीवन में आगे बढ़े क्योंकि यह मार्ग ईश्वर को प्राप्त करने की है, और यह मार्ग ईश्वर से संबंध रखता है इसलिए यह हमें निश्चिच रूप से ईश्वर के ऐश्वर्य को भी उपलब्ध कराने में समर्थ है, इस मार्ग के द्वारा हम सब अपने जीवन की समस्या का समाधान कर सकते हैं, क्योंकि यह मार्ग दोनों ज्ञान और अज्ञान का अतिक्रमण करता है, ना ही हम देवता बनना चाहते हैं, ना ही हम दैत्य बनना चाहते हैं, हम तो ईश्वर के पथ पर आगे बढ़ना चाहते हैं।
अब जब हमारा मार्ग निश्चित होगया की हमें किस मार्ग पर चलना है, तो हमें उस मार्ग पर आगे कैसे बढ़ सकते हैं उसको समझना होगा। उसके लिए ईश्वर द्वारा बताए गए दिशानिर्देशों का पालन करना होगा।
पहले हमें यह समझना होगा की ईश्वर कैसा है? फिर हम उसके गुणों को समझ कर अपने जीवन के मार्ग को निश्चित करने में समर्थ हो सकते हैं।
ओं पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ओ3म् ईश्वर का निज नाम है, उस ईश्वर को हम इसी नाम से याद करते हैं, अर्थात हम सब ओ3म् के ही हिस्से हैं, जो पूर्ण और अदृश्य है, और वहीं ब्रह्म रूप ईश्वर प्रगट भी हो रहा है, अर्थात हम सब जो एक दूसरे को देखते हैं वह सब ब्रह्म का ही दर्शन या साक्षात्कार कर रहें हैं, इस ब्रह्म रूप ईश्वर का जन्म हिरण्यगर्भ से हुआ है, जो स्वयं ब्रह्मा के रूप में प्रकट हो रहा है, जब संपूर्ण ब्रह्मांड अपनी पूर्णता को उपलब्ध होता है तो यह उस ब्रह्म में लीन हो जाता है, फिर भी वह ब्रह्म इससे अलग स्वयं बचा ही रहता है, इसका अर्थ यह हुआ की हमारी शरीर की पूर्णता को प्राप्त करने के बाद जब इसका अंत होता है तो हम सब उस पूर्ण ब्रह्म में शाश्वत रूप से हमेशा विद्यमान रहते हैं क्योंकि हम सब भी उस ब्रह्म से उत्पन्न हुए हैं, और हम सब भी पूर्ण हैं।
वह पूर्ण हैं, इसलिए यह जगत पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण ही जन्म लेता है। पूर्ण में से पूर्ण को जब निकाल भी लिया जाता है तो भी वह पूर्ण बचा ही रहता है।
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