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ऋग्वेद मंडल -1 सूक्त 19-20

 ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निर्मरुतश्च छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


प्रति॒ त्यं चारु॑मध्व॒रं गो॑पी॒थाय॒ प्र हू॑यसे। म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि॥


पदार्थ -


जो (अग्ने) भौतिक अग्नि (मरुद्भिः) विशेष पवनों के साथ (आगहि) सब प्रकार से प्राप्त होता है, वह विद्वानों की क्रियाओं से (त्यम्) उक्त (चारुम् अध्वरम् प्रति) प्रत्येक उत्तम-उत्तम यज्ञ में उनकी सिद्धि वा (गोपीथाय) अनेक प्रकार की रक्षा के लिये (प्रहूयसे) अच्छी प्रकार क्रिया में युक्त किया जाता है॥१॥


भावार्थ - जो यह भौतिक अग्नि प्रसिद्ध सूर्य्य और विद्युद्रूप करके पवनों के साथ प्रदीप्त होता है, वह विद्वानों की प्रशंसनीय बुद्धि से हर एक क्रिया की सिद्धि वा सबकी रक्षा के लिये गुणों के विज्ञानपूर्वक उपदेश करना वा सुनना चाहिये॥१॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निर्मरुतश्च छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः


न॒हि दे॒वो न मर्त्यो॑ म॒हस्तव॒ क्रतुं॑ प॒रः। म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) विज्ञानस्वरूप परमेश्वर ! आप कृपा करके (मरुद्भिः) प्राणों के साथ (आगहि) प्राप्त हूजिये अर्थात् विदित हूजिये। आप कैसे हैं कि जिनकी (परः) अत्युत्तम (महः) महिमा है, (तव) आपके (क्रतुम्) कर्मों की पूर्णता से अन्त जानने को (नहि) न कोई (देवः) विद्वान् (न) और न कोई (मर्त्यः) अज्ञानी मनुष्य योग्य है, तथा जो (अग्ने) जिस भौतिक अग्नि का (परः) अति श्रेष्ठ (महः) महिमा है, वह (क्रतुम्) कर्म और बुद्धि को प्राप्त करता है, (तव) उसके सब गुणों को (न देवः) न कोई विद्वान् और (न मर्त्यः) न कोई अज्ञानी मनुष्य जान सकता है, वह अग्नि (मरुद्भिः) प्राणों के साथ (आगहि) सब प्रकार से प्राप्त होता है॥२॥


भावार्थ - सर्वोत्तम परमेश्वर की महिमा का कर्म अपार है, इससे उसका पार कोई नहीं पा सकता। किन्तु जिसकी जितनी बुद्धि वा विद्या है, उसके अनुसार समाधियोगयुक्त प्राणायाम के द्वारा अन्तर्यामिरूप से स्थित परमेश्वर को तथा वेद और संसार में परमेश्वर ने अपनी रचना से अपने स्वरूप वा गुण तथा भौतिक अग्नि के स्वरूप वा गुण जितने प्रकाशित किये हैं, उतने ही जान सकता है, अधिक नहीं॥२॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निर्मरुतश्च छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


ये म॒हो रज॑सो वि॒दुर्विश्वे॑ दे॒वासो॑ अ॒द्रुहः॑। म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि॥


पदार्थ -

(ये) जो (अद्रुहः) किसी से द्रोह न रखनेवाले (विश्वे) सब (देवासः) विद्वान् लोग हैं, जो कि (मरुद्भिः) पवन और अग्नि के साथ संयोग में (महः) बड़े-बड़े (रजसः) लोकों को (विदुः) जानते हैं, वे ही सुखी होते हैं। हे (अग्ने) स्वयंप्रकाश होनेवाले परमेश्वर ! आप (मरुद्भिः) पवनों के साथ (आगहि) विदित हूजिये, और जो आपका बनाया हुआ (अग्ने) सब लोकों का प्रकाश करनेवाला भौतिक अग्नि है, सो भी आपकी कृपा से (मरुद्भिः) पवनों के साथ कार्य्यसिद्धि के लिये (आगहि) प्राप्त होता है॥३॥


भावार्थ - जो विद्वान् लोग अग्नि से आकर्षण वा प्रकाश करके तथा पवनों से चेष्टा करके धारण किये हुए लोक हैं, उनको जानकर उनसे कार्य्यों में उपयोग लेने को जानते हैं, वे ही अत्यन्त सुखी होते हैं॥३॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निर्मरुतश्च छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


य उ॒ग्रा अ॒र्कमा॑नृ॒चुरना॑धृष्टास॒ ओज॑सा। म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि॥


पदार्थ -

(ये) जो (उग्राः) तीव्र वेग आदि गुणवाले (अनाधृष्टासः) किसी के रोकने में न आ सकें, वे पवन (ओजसा) अपने बल आदि गुणों से संयुक्त हुए (अर्कम्) सूर्य्यादि लोकों को (आनृचुः) गुणों को प्रकाशित करत हैं, इन (मरुद्भिः) पवनों के साथ (अग्ने) यह विद्युत् और प्रसिद्ध अग्नि (आगहि) कार्य्य में सहाय करनेवाला होता है॥४॥


भावार्थ - जितना बल वर्त्तमान है, उतना वायु और विद्युत् के सकाश से उत्पन्न होता है, ये वायु सब लोकों के धारण करनेवाले हैं, इनके संयोग से बिजुली वा सूर्य्य आदि लोक प्रकाशित होते तथा धारण किये जाते हैं, इससे वायु के गुणों का जानना वा उनसे उपकार ग्रहण करने से अनेक प्रकार के कार्य्य सिद्ध होते हैं॥४॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निर्मरुतश्च छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


ये शु॒भ्रा घो॒रव॑र्पसः सुक्ष॒त्रासो॑ रि॒शाद॑सः। म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि॥


पदार्थ -

(ये) जो (घोरपर्वसः) घोर अर्थात् जिनका पदार्थों को छिन्न-भिन्न करनेवाला रूप जो और (रिशादसः) रोगों को नष्ट करनेवाले (सुक्षत्रासः) तथा अन्तरिक्ष में निर्भय राज्य करनेहारे और (शुभ्राः) अपने गुणों से सुशोभित पवन हैं, उनके साथ (अग्ने) भौतिक अग्नि (आगहि) प्रकट होता अर्थात् कार्य्यसिद्धि को देता है॥५॥


भावार्थ - जो यज्ञ के धूम से शोधे हुए पवन हैं, वे अच्छे राज्य के करानेवाले होकर रोग आदि दोषों का नाश करते हैं और जो अशुद्ध अर्थात् दुर्गन्ध आदि दोषों से भरे हुए हैं, वे सुखों का नाश करते हैं। इससे मनुष्यों को चाहिये कि अग्नि में होम द्वारा वायु की शुद्धि से अनेक प्रकार के सुखों को सिद्ध करें॥५॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निर्मरुतश्च छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


ये नाक॒स्याधि॑ रोच॒ने दि॒वि दे॒वास॒ आस॑ते। म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि॥


पदार्थ -

(ये) जो (देवासः) प्रकाशमान और अच्छे-अच्छे गुणोंवाले पृथिवी वा चन्द्र आदि लोक (नाकस्य) सुख की सिद्धि करनेवाले सूर्य्य लोक के (रोचने) रुचिकारक (दिवि) प्रकाश में (अध्यासते) उन के धारण और प्रकाश करनेवाले हैं, उन पवनों के साथ (अग्ने) यह अग्नि (आगहि) सुखों की प्राप्ति कराता है॥६॥


भावार्थ - सब लोक परमेश्वर के प्रकाश से प्रकाशमान हैं, परन्तु उसके रचे हुए सूर्य्यलोक की दीप्ति अर्थात् प्रकाश से पृथिवी और चन्द्रलोक प्रकाशित होते हैं, उन अच्छे-अच्छे गुणवालों के साथ रहनेवाले अग्नि को सब कार्य्यों में संयुक्त करना चाहिये॥६॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निर्मरुतश्च छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


य ई॒ङ्खय॑न्ति॒ पर्व॑तान् ति॒रः स॑मु॒द्रम॑र्ण॒वम्। म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि॥


पदार्थ -

(ये) जो वायु (पर्वतान्) मेघों को (ईङ्खयन्ति) छिन्न-भिन्न करते और वर्षाते हैं, (अर्णवम्) समुद्र का (तिरः) तिरस्कार करते वा (समुद्रम्) अन्तरिक्ष को जल से पूर्ण करते हैं, उन (मरुद्भिः) पवनों के साथ (अग्ने) अग्नि अर्थात् बिजुली (आगहि) प्राप्त होती अर्थात् सन्मुख आती जाती है॥७॥


भावार्थ - वायु के संयोग से ही वर्षा होती है और जल के कण वा रेणु अर्थात् सब पदार्थों के अत्यन्त छोटे-छोटे कण पृथिवी से अन्तरिक्ष को जाते तथा वहाँ से पृथिवी को आते हैं, उनके साथ वा उनके निमित्त से बिजुली उत्पन्न होती और बादलों में छिप जाती है॥७॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निर्मरुतश्च छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


आ ये त॒न्वन्ति॑ र॒श्मिभि॑स्ति॒रः स॑मु॒द्रमोज॑सा। म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि॥


पदार्थ -

(ये) जो वायु अपने (ओजसा) बल वा वेग से (समुद्रम्) अन्तरिक्ष को प्राप्त होते तथा जलमय समुद्र का (तिरः) तिरस्कार करते हैं, तथा जो (रश्मिभिः) सूर्य्य की किरणों के साथ (आतन्वन्ति) विस्तार को प्राप्त होते हैं, उन (मरुद्भिः) पवनों के साथ (अग्ने) भौतिक अग्नि (आगहि) कार्य्य की सिद्धि को देता है॥८॥


भावार्थ - इन पवनों की व्याप्ति से सब पदार्थ बढ़कर बल देनेवाले होते हैं, इससे मनुष्यों को वायु और अग्नि के योग से अनेक प्रकार कार्य्यों की सिद्धि करनी चाहिये॥८॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निर्मरुतश्च छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः


अ॒भि त्वा॑ पू॒र्वपी॑तये सृ॒जामि॑ सो॒म्यं मधु॑। म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि॥


विषय - फिर उनसे क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

जिन (मरुद्भिः) पवनों से (अग्ने) भौतिक अग्नि (आगहि) कार्य्यसाधक होता है, उनमें (पूर्वपीतये) पहिले जिसमें पीति अर्थात् सुख का भोग है, उस उत्तम आनन्द के लिये (सोम्यम्) जो कि सुखों के उत्पन्न करने योग्य है, (त्वा) उस (मधु) मधुर आनन्द देनेवाले पदार्थों के रस को मैं (अभिसृजामि) सब प्रकार से उत्पन्न करता हूँ॥९॥


भावार्थ - विद्वान् लोग जिन वायु अग्नि आदि पदार्थों के अनुयोग से सब शिल्पक्रियारूपी यज्ञ को सिद्ध करते हैं, उन्हीं पदार्थों से सब मनुष्यों को सब कार्य्य सिद्ध करने चाहियें॥९॥ अठाहरवें सूक्त में कहे हुए बृहस्पति आदि पदार्थों के साथ इस सूक्त से जिन अग्नि वा वायु का प्रतिपादन है, उनकी विद्या की एकता होने से इस उन्नीसवें सूक्त की सङ्गति जाननी चाहिये। इस अध्याय में अग्नि और वायु आदि पदार्थों की विद्या के उपयोग के लिये प्रतिपादन और पवनों के साथ रहनेवाले अग्नि का प्रकाश करता हुआ परमेश्वर अध्याय की समाप्ति को प्रकाशित करता है। यह भी सूक्त सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपदेशवासी विलसन आदि ने कुछ का कुछ का वर्णन किया है॥यह प्रथम अष्टक में प्रथम अध्याय, उन्नीसवाँ सूक्त और तेंतीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ॥


ऋग्वेद मंडल -1 सूक्त 20


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - ऋभवः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


अ॒यं दे॒वाय॒ जन्म॑ने॒ स्तोमो॒ विप्रे॑भिरास॒या। अका॑रि रत्न॒धात॑मः॥


विषय - अब दूसरे अध्याय का प्रारम्भ है। उसके पहिले मन्त्र में ऋभु की स्तुति का प्रकाश किया है।


पदार्थ -

(विप्रेभिः) ऋभु अर्थात् बुद्धिमान् विद्वान् लोग (आसया) अपने मुख से (देवाय) अच्छे-अच्छे गुणों के भोगों से युक्त (जन्मने) दूसरे जन्म के लिये (रत्नधातमः) रमणीय अर्थात् अतिसुन्दरता से सुखों की दिलानेवाली जैसी (अयम्) विद्या के विचार से प्रत्यक्ष की हुई परमेश्वर की (स्तोमः) स्तुति है, वह वैसे जन्म के भोग करनेवाली होती है॥१॥


भावार्थ - इस मन्त्र में पुनर्जन्म का विधान जानना चाहिये। मनुष्य जैसे कर्म किया करते हैं, वैसे ही जन्म और भोग उनको प्राप्त होते हैं॥१॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - ऋभवः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


य इन्द्रा॑य वचो॒युजा॑ तत॒क्षुर्मन॑सा॒ हरी॑। शमी॑भिर्य॒ज्ञमा॑शत॥


विषय - फिर वे विद्वान् कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

(ये) जो ऋभु अर्थात् उत्तम बुद्धिवाले विद्वान् लोग (मनसा) अपने विज्ञान से (वचोयुजा) वाणियों से सिद्ध किये हुए (हरी) गमन और धारण गुणों को (ततक्षुः) अतिसूक्ष्म करते और उनको (शमीभिः) दण्डों से कलायन्त्रों को घुमाके (इन्द्राय) ऐश्वर्य्यप्राप्ति के लिये (यज्ञम्) पुरुषार्थ से सिद्ध करनेयोग्य यज्ञ को (आशत) परिपूर्ण करते हैं, वे सुखों को बढ़ा सकते हैं॥२॥


भावार्थ - जो विद्वान् पदार्थों के संयोग वा वियोग से धारण आकर्षण वा वेगादि गुणों को जानकर क्रियाओं से शिल्पव्यवहार आदि यज्ञ को सिद्ध करते हैं, वे ही उत्तम-उत्तम ऐश्वर्य्य को प्राप्त होते हैं॥२॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः  देवता - ऋभवः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः


तक्ष॒न्नास॑त्याभ्यां॒ परि॑ज्मानं सु॒खं रथ॑म्। तक्ष॑न्धे॒नुं स॑ब॒र्दुघा॑म्॥


विषय - वे उक्त विद्वान् किससे क्या-क्या सिद्ध करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

जो बुद्धिमान् विद्वान् लोग (नासत्याभ्याम्) अग्नि और जल से (परिज्मानम्) जिससे सब जगह में जाना-आना बने उस (सुखम्) सुशोभित विस्तारवाले (रथम्) विमान आदि रथ को (तक्षन्) क्रिया से बनाते हैं, वे (सबर्दुघाम्) सब ज्ञान को पूर्ण करनेवाली (धेनुम्) वाणी को (तक्षन्) सूक्ष्म करते हुए धीरज से प्रकाशित करते हैं॥३॥


भावार्थ - जो मनुष्य अङ्ग, उपाङ्ग और उपवेदों के साथ वेदों को पढ़कर उनसे प्राप्त हुए विज्ञान से अग्नि आदि पदार्थों के गुणों को जानकर कलायन्त्रों से सिद्ध होनेवाले विमान आदि रथों में संयुक्त करके उनको सिद्ध किया करते हैं, वे कभी दुःख और दरिद्रता आदि दोषों को नहीं देखते॥३॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - ऋभवः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः


युवा॑ना पि॒तरा॒ पुनः॑ स॒त्यम॑न्त्रा ऋजू॒यवः॑। ऋ॒भवो॑ वि॒ष्ट्य॑क्रत॥


विषय - फिर वे विद्वान् कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

जो (ऋजूयवः) कर्मों से अपनी सरलता को चाहने और (सत्यमन्त्राः) सत्य अर्थात् यथार्थ विचार के करनेवाले (ऋभवः) बुद्धिमान् सज्जन पुरुष हैं, वे (विष्टी) व्याप्त होने (युवाना) मेल अमेल स्वभाववाले तथा (पितरा) पालनहेतु पूर्वोक्त अग्नि और जल को क्रिया की सिद्धि के लिये वारम्वार (अक्रत) अच्छी प्रकार प्रयुक्त करते हैं॥४॥


भावार्थ - जो आलस्य को छोड़े हुए सत्य में प्रीति रखने और सरल बुद्धिवाले मनुष्य हैं, वे ही अग्नि और जल आदि पदार्थों से उपकार लेने को समर्थ हो सकते हैं॥४॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - ऋभवः छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः


सं वो॒ मदा॑सो अग्म॒तेन्द्रे॑ण च म॒रुत्व॑ता। आ॒दि॒त्येभि॑श्च॒ राज॑भिः॥


विषय - फिर ये किससे क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

हे मेधावि विद्वानो ! तुम लोग जिन (मरुत्वता) जिसके सम्बन्धी पवन हैं, उस (इन्द्रेण) बिजुली वा (राजभिः) प्रकाशमान (आदित्येभिः) सूर्य्य की किरणों के साथ युक्त करते हो, इससे (मदासः) विद्या के आनन्द (वः) तुम लोगों को (अग्मत) प्राप्त होते हैं, इससे तुम लोग उनसे ऐश्वर्य्यवाले हूजिये॥५॥


भावार्थ - जो विद्वान् लोग जब वायु और विद्युत् का आलम्ब लेकर सूर्य्य की किरणों के समान आग्नेयादि अस्त्र, असि आदि शस्त्र और विमान आदि यानों को सिद्ध करते हैं, तब वे शत्रुओं को जीत राजा होकर सुखी होते हैं॥५॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - ऋभवः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


उ॒त त्यं च॑म॒सं नवं॒ त्वष्टु॑र्दे॒वस्य॒ निष्कृ॑तम्। अक॑र्त च॒तुरः॒ पुनः॑॥


विषय - उक्त कार्य्य के करने में किसका सामर्थ्य होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।


पदार्थ -

जब विद्वान् लोग जो (त्वष्टुः) शिल्पी अर्थात् कारीगर (देवस्य) विद्वान् का (निष्कृतम्) सिद्ध किया हुआ काम सुख का देनेवाला है, (त्यम्) उस (नवम्) नवीन दृष्टिगोचर कर्म को देखकर (उत) निश्चय से (पुनः) उसके अनुसार फिर (चतुरः) भू, जल, अग्नि और वायु से सिद्ध होनेवाले शिल्पकामों को (अकर्त्त) अच्छी प्रकार सिद्ध करते हैं, तब आनन्दयुक्त होते हैं॥६॥


भावार्थ - मनुष्य लोग किसी क्रियाकुशल कारीगर के निकट बैठकर उसकी चतुराई को दृष्टिगोचर करके फिर सुख के साथ कारीगरी काम करने को समर्थ हो सकते हैं॥६॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - ऋभवः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


ते नो॒ रत्ना॑नि धत्तन॒ त्रिरा साप्ता॑नि सुन्व॒ते। एक॑मेकं सुश॒स्तिभिः॑॥


विषय - इस प्रकार से सिद्ध किये हुए इन पदार्थों से क्या फल सिद्ध होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

जो विद्वान् (सुशस्तिभिः) अच्छी-अच्छी प्रशंसावाली क्रियाओं से (साप्तानि) जो सात संख्या के वर्ग अर्थात् ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यासियों के कर्म, यज्ञ का करना विद्वानों का सत्कार तथा उनसे मिलाप और दान अर्थात् सबके उपकार के लिये विद्या का देना है, इनसे (एकमेकम्) एक-एक कर्म करके (त्रिः) त्रिगुणित सुखों को (सुन्वते) प्राप्त करते हैं (ते) वे बुद्धिमान् लोग (नः) हमारे लिये (रत्नानि) विद्या और सुवर्णादि धनों को (धत्तन) अच्छी प्रकार धारण करें॥७॥


भावार्थ - सब मनुष्यों को उचित है कि जो ब्रह्मचारी आदि चार आश्रमों के कर्म तथा यज्ञ के अनुष्ठान आदि तीन प्रकार के हैं, उनको मन, वाणी और शरीर से यथावत् करें। इस प्रकार मिलकर सात कर्म होते हैं, जो मनुष्य इनको किया करते हैं, उनके सङ्ग उपदेश और विद्या से रत्नों को प्राप्त होकर सुखी होते हैं, वे एक-एक कर्म को सिद्ध वा समाप्त करके दूसरे का आरम्भ करें, इस क्रम से शान्ति और पुरुषार्थ से सब कर्मों का सेवन करते रहें॥७॥


ऋग्वेद अध्याय 01 सूक्त (16,17,18)

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